Thursday 6 February 2014

न्याय दृष्टांत civil


एम सी सी
यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, .आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107, बैंक आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368 एवं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1499 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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ट्रेक्टर को गांव वापस लाते समय ट्रेक्टर-ट्राली पलट गयी । ज्ञानसिंह (अनावेदक क्र-1) वह सर्वोत्तम साक्षी था जो यह स्पष्ट कर सकता था कि ट्रेक्टर-ट्राली किन परिस्थितियों में पलटी । लेकिन ज्ञानसिंह जो दुर्घटना की परिस्थितियों पर ठोस और वास्तविक प्रकाश डाल सकता था साक्षी के कटघरे मं आने का साहस नहीं कर सका है अतः न्याय दृष्टांत लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल लाॅ जजमेंट्स (एन..सी.) 4 में प्रतिपादित विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । न्याय दृष्टांत वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 .सी.जे. 919 .प्र. में भी यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में  ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’  का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
---16.       
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, .आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, .आई.आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं । इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक प्रतिपादनों का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रैक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 
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11.       
आवेदकगण ने ’’अधिनियम’’ की धारा-163 () के अन्तर्गत प्रतिकर दिलाये जाने की प्रार्थना की है। ’अधिनियम’ की धारा-163 ()के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147. ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए । संदर्भ- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58. 
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बलवंतसिंह ने अनावेदक साक्षी के रूप में अपने सशपथ कथन मं यह कहा है कि विक्रमसिंह उसके यहां रूपये 1500/-पर मजदूरी करता था लेकिन तद्आशय कोई अभिवचन बलवंतसिंह द्वारा भी अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 .सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया  गया है  कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है ।
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20.       
उक्त विषय में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, .आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि ए.आई0आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय है । इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में श्रमिक के रूप में यात्रा कर रहे  व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसे व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक उत्पादउन का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रेक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है  क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 
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14.   
वादप्रश्न क्रमांक 4:-                   

       
अनावेदक क्रमांक 3 की और से यह अभिवचन किया गया है कि प्रश्नगत दुर्धटना के समय मुंशीलाल ;अनावेदक क्रं.1द्धके पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र नहीं था । अनावेदक क्रं.3 का दायित्व संविदा आधारित दायित्व है । अनावेदक क्रं. 3 ने वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0आर0,1985 एस0सी0 1281 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गये विधिक प्रतिपादन के प्रकाश में यह प्रमाणित करने का भार अनावेदक क्रं. 3 बीमा कंपनी पर था कि बीमा संविदा की उक्त शर्तो का उल्लंघन जगदीश चैधरी अनावेदक क्रं0 2 ने किया है ।  अनावेदक क्रं. 3 की और से उक्त अभिवचन के संबंध में कोई अभिसाक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गई है अतः यह साफ प्रगट है कि अनावेदक क्रं.3 यह प्रमाणित करने में असफल रहा है कि मुंशीलाल ;अनावेदक क्रं.1द्ध के पास प्रश्नगत दुर्धटना के समय वैध एवं प्रभावशील चालक अनुज्ञप्ति पत्र नहीं था तथा जगदीश चैधरी ;अनावेदक क्रं.2द्ध ने बीमा पालिसी की शर्तो का उल्लंघन किया था । तदानुसार वाद प्रश्न क्रमांक 4 निराकृत किया जाता है ।
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17.   
वादप्रश्न क्रमांक 3:-   

       
मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्ांसपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104 के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
        
.    मृतक की आयु .
        
.    मृतक की आय
        
.    मृतक के आश्रितों की संख्या.


18.   
उक्त  सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्धवाले मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है । माॅं ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में वर्तमान मामले में प्रस्तुत अभिसाक्ष्य पर विचार करना होगा ।
21.   
जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, सरला वर्मा  ;पूर्वोक्तद्ध के मामलें में यह भी ठहराया गया है कि जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी माॅं है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है । इस विधिक स्थिति के प्रकाश में वर्तमान मामलें में मृतक की आश्रितता 15000/-रूपयें वार्षिक अभिनिश्चित की जाती है ।

22.   
प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्ध के मामले में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए । यह विधि सुस्थापित है कि  मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए । वर्तमान मामलें में मृतक की एकमात्र आश्रिता माॅं कौशल्या ;आवेदिका क्रं0 2द्धकी आयु 48 वर्ष बताई गई हैऐसी दशा में सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्ध में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में वर्तमान मामले में 13 का गुणक प्रतिकर आंकलन हेतु प्रयुक्त किया जाना विधिसम्मत होगा । इसके आधार पर कुल आश्रितता क्षति ;15000 13 द्ध रू0 1,95,000 आती है ।
                       
23.   
सरला वर्मा;पूर्वोक्तद्ध में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 5000/-रूपयें कुल 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
14.       
जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1.
मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2.
मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3.
मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।         
18.   
जगदीश प्रसाद की पत्नि उमा बाई की आयु 23 वर्ष बताई गई है जबकि नक्शा पंचायतनामा प्र.डी-7 तथा शव परीक्षण प्रतिवेदन प्र. डी.6 में जमना प्रसाद आयु 25 वर्ष उल्लिखित की गई है अतः न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में 18 का गुणांक प्रयुक्त करते हुये आश्रितता क्षति ( 24000 18 त्र 4,32,000/-)     4,32,000/- विनिश्चित की जाती है, जिसमें  सम्पदा की क्षति के लिये ृ 5000/- सहचर्य क्षति के लिये ृ 5000/- तथा अंत्येष्ठि व्यय आदि के रूप में कुल ृ 15000/- जोड़कर देय प्रतिकर राशि ृ 4,47,000/- विनिश्चित की जाती है, जो आवेदकगण, अनावेदकगण से प्राप्त करने के अधिकारी हैं। वाद प्रश्न क्र. 2 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
18.       
जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1.
मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2.
मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3.
मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।       
       
आवेदकगण ने क्लेम आवेदन में मृतिका की आयु 50 वर्ष अभिकथित की है। पोस्ट मार्टम प्रतिवेदन की प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.पी-5 में भी मृतिका की आयु 50 वर्ष उल्लिखित है। अकील खाॅ (.सा.1), जो मृतिका का पुत्र है, ने उसकी आयु 50-55 वर्ष बतायी है, जिसे प्रतिपरीक्षण में कोई चुनौती नहीं दी गयी है। उक्त परिप्रेक्ष्य में अभिलेखगत साक्ष्य के आधार पर यह प्रकट होता है कि अभिकथित दुर्घटना के समय मृतिका लगभग 55 वर्ष की थी। ऐसी दषा में न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये प्रतिपादन के प्रकाष में प्रतिकर निर्धारण हेतु 11 का गुणक प्रयुक्त किया जाना न्यायोचित होगा।
मृतिका रू. 200-400 /- प्रतिदिन कमाती थी, पूरी तरह कल्पित एवं बनावटी है तथा उनकी साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि मृतिका किसी भी दषा में रू.100/- प्रतिदिन से अधिक की राषि शारीरिक श्रम के द्वारा उपार्जित नहीं कर सकती थी। ऐसी दषा में एक माह में 25 कार्य दिवसों की गणना करते हुये मोटे तौर पर उसकी मासिक आय रू.2500/- तथा वार्षिक आय रू.30,000/- मानी जा सकती है। न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये निर्धारण के प्रकाष में उसकी आय में से 1/3 राषि स्वयं के ऊपर किये जाने वाले व्यय के रूप में घटाते हुये वार्षिक उपार्जन क्षति रू.20,000/- आंकलित की जाती है।
20.        11
के गुणक के आधार पर रू.20,000/- वार्षिक क्षति के क्रम में कुल आश्रितता क्षति रू. 2,20,000/- आंकलित की जाती है। न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में अंत्येष्ठि व्यय, सहचर्य क्षति तथा लाॅस आॅफ इस्टेट के लिये मोटे तौर पर रू.10,000/- की राषि अनुज्ञात की जा सकती है। उक्त परिप्रेक्ष्य में आवेदकगण को प्रतिकर रूप में रू. 2,30,000/- की राषि दिलाया जाना उचित होगा। आवेदकगण, जो मृतिका के पति, पुत्र तथा पुत्रियाॅं हैं, उक्त राषि में से बराबर-बराबर 1/7 भाग प्रत्येक प्राप्त करने के अधिकारी हैं। वाद प्रष्न क्र.2 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
22.       
न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के दिषा निर्धारक मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मृत्यु के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के निर्धारण हेतु प्रधानतः निम्न तीन तथ्यों को स्थापित किया जाना आवष्यक है:-
        (1)   
मृतक/आश्रितों की आयु (जो भी अधिक हो),
        (2)   
मृतक की आय,
        (3)   
आश्रितों की संख्या।
       
उक्त मामले में यह भी ठहराया गया कि आश्रितता की क्षति/मृतक की आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतियाॅ, मृतक के व्यक्तिगत जीवन-यापन के लिये की जाने वाली कटौती तथा मृतक की आयु के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाला गुणक का निर्धारण भी आवष्यक है।
13.       
न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के दिषा निर्धारक मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मृत्यु के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के निर्धारण हेतु प्रधानतः निम्न तीन तथ्यों को स्थापित किया जाना आवष्यक है:-
        (1)   
मृतक/आश्रितों की आयु (जो भी अधिक हो),
        (2)   
मृतक की आय,
        (3)   
आश्रितों की संख्या।
       
उक्त मामले में यह भी ठहराया गया कि आश्रितता की क्षति/मृतक की आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतियाॅ, मृतक के व्यक्तिगत जीवन-यापन के लिये की जाने वाली कटौती तथा मृतक की आयु के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाले गुणक का निर्धारण भी आवष्यक है। इस क्रम में यह भी ठहराया गया कि अन्यथा प्रमाण के अभाव में पिता के पास स्वयं की आय होना सम्भाव्य होगा तथा उसे आश्रित नहीं माना जायेगा एवं केवल माता को ही आश्रित माना जा सकेगा। यह भी ठहराया गया कि विपरीत साक्ष्य के अभाव में भाईयों और बहनों केा आश्रित नहीं माना जा सकेगा, क्योंकि वे या तो उपर्जान करने वाले होंगे या विवाहित अथवा पिता पर आश्रित होंगे।
    --19.       
न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह भी स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि विभिन्न आयु वर्गों के लिये क्या आदर्ष गुणक होना चाहिये तथा इसके साथ ही यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि अविवाहित मृतक के संबंध में उसकी आय में से व्यक्तिगत व्यय और जीवन-यापन के प्रति 50 प्रतिषत कटौती किया जाना युक्ति-सम्मत होगा तथा ऐसे मामलों में सामान्यतः केवल माॅ को आश्रित माना जा सकता है।
    --14.       
न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के बिन्दु पर विचार करते हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहाॅं तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता। इस मामले मे सुसम्मा थाॅमस विरूद्ध केरल राज्य, 1994(2) एस.सी.सी.-176 के मामले का संदर्भ देते हुये प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक पद्धति का अनुमोदन किया गया।
    --8.       
जहाॅं तक गुणंक का सम्बन्ध है, न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में मृतिका अथवा आवेदक जिसकी आयु अधिक हो उसके आधार पर गुणंक का निर्धारण करना होगा। वर्तमान मामले में आवेदक खुषीलाल ने अपनी पत्नी की आयु 50-55 साल बतायी है। अधिकरण ने स्वयं के आंकलन के आधार पर उसी आयु 65 वर्ष अंकित की है, जबकि क्लेम आवेदन पत्र में उसकी आयु 60 वर्ष अंकित की गयी है। यदि उसके द्वारा अभिलिखित उसकी स्वयं की आयु को भी यथावत स्वीकार किया जाये तो वर्तमान मामले में उसकी आयु 60 वर्ष के आधार पर न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में 9 का गुणक प्रयुक्त किया जाना विधि-सम्मत होगा।
--20.       
जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, .आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
4.
मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
5.
मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
6.
मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
21.       
मृतक की आयु प्र.पी.8 में 28 वर्ष तथा प्र.पी.17 की डिस्चार्ज टिकिट में 27 वर्ष उल्लिखित है। गोपीकृष्ण पाटीदार (.सा.2) ने उसकी आयु 25 वर्ष बताई है, लेकिन मृतक के पेन कार्ड प्र.पी.16 में उसकी जन्मतिथि 10.01.1985 उल्लिखित है, जिसके आधार पर अभिकथित दुर्घटना दिनांक 30.05.2009 को उसकी आयु 24) वर्ष के आस-पास आती है। मृतक की उक्त आयु के परिपेक्ष्य में पूर्वोक्त न्यायदृष्टांत के प्रकाष में 18 का गुणंक प्रयुक्त किया जाना न्यायोचित होगा।
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16.       
बीमा कंपनी (अनावेदक क्र.4) की ओर से अवलंबित न्याय दृष्टांत सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 .सी.जे.-1307 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है। इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 .सी.जे.-1 (एस.सी.) के साथ-साथ अन्य अनेक मामलों का संदर्भ भी दिया गया है। निर्णय की कंडिका 8 में न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 .सी.जे.-627 (एस.सी.) का संदर्भ है। इस मामले में दुर्घटना परिवहन यान से हुयी थी, जबकि चालक रामनारायण के पास हल्के मोटर यान के लिये अनुज्ञप्ति थी, जिस पर परिवहन यान चलाने की पात्रता का पृष्ठांकन नहीं था अतः बीमा कंपनी को उत्तरदायी नहीं माना गया।
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20.       
अनावेदक क्र.4 की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन..सी.डी.-2008(2)-673(.प्र.) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि चालक अनुज्ञप्ति के विषय में बीमा पालिसी के शर्तों के उल्लंघन के कारण अनावेदक क्र.4 का उत्तरदायित्व प्रतिकर के संबंध में स्थापित नहीं हुआ है अतः बीमा कंपनी से प्रतिकर की राषि आवेदक को दिलाये जाने तथा तत्पष्चात् उस राषि को बीमा कंपनी द्वारा वाहन स्वामी से वसूल किये जाने के बारे में कोई निर्देष नहीं दिया जा सकता है। अवलंबित मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा श्च्ंल ंदक तमबवअमतश् को प्रयोज्य नहीं माना गया।
21.       
उक्त क्रम में यह बात उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297 के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहाॅं पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहाॅं तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा। समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, .सी.जे. 2655 (एस.सी.) में किये गये विनिष्चयों से भी प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में अनावेदक क्र.4 की ओर से किया गया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि वर्तमान मामले में श्च्ंल ंदक तमबवअमतश् का सिद्धांत लागू नहीं होगा।
--22.       
चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन अनावेदक क्र.2 द्वारा चालक अनुज्ञापत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, .सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
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9.       
न्याय दृष्टांत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 .आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
10.       
न्याय दृष्टंात राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाॅंक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी। दुर्घटना से संबंधित बताये जाने वाले दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियों ने प्रतिपरीक्षण में यह स्वीकार किया था कि वे अषिक्षित हैं तथा पढ़ना-लिखना नहीं जानते हैं इसके बाद भी उन्होंने कथित दुर्घटना कारित करने वाले वाहन का पंजीयन क्रमांक बताया था, लेकिन जिस मोटर सायकल द्वारा कथित टक्कर मारी गयी उसके रंग के विषय में दोनों के कथनों में भिन्नता थी। मामले की परिस्थितियों में यह ठहराया गया कि प्रष्नगत वाहन द्वारा दुर्घटना कारित किया जाना पूरी तरह संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
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16.       
अनावेदक क्र.4 (बीमा कंपनी) की ओर से ए.डी.खान का परीक्षण कराया गया है, जिसने प्र.डी-3 व प्र.डी-4 के प्रलेख प्रमाणित किये हैं। प्र.डी-3 अनावेदक क्र.1 के पक्ष में जारी चालक अनुज्ञापत्र का संक्षिप्त विवरण है, जिससे विदित होता है कि यह प्रलेख दिनाॅंक 24.1.2001 से दिनाॅक 04.02.2020 तक की अवधि के लिये हल्के मोटर यान को चलाने के लिये जारी किया गया है। प्र.डी-4, जो दुर्घटना में संलिप्त कार की बीमा पालिसी की फोटो प्रति है तथा प्र.डी-5 कार से संबंधित परमिट की फोटोप्रति है, के अवलोकन से यह भी प्रकट है कि उक्त कार परिवहन यान (टैक्सी) के रूप में पंजीकृत थी। ऐसी स्थिति में उक्त वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंात ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.) में स्पष्ट रूप से विधिक प्रावधानों के प्रकाष में प्रतिपादित किया गया है।
17.       
पूर्वोक्त परिप्रेक्ष्य में यह सुस्पष्ट है कि प्रष्नगत दुर्घटना के समय अनावेदक क्र.1 के पास टैक्सी क्र. एम.पी-04-टी-4986 को चलाने के लिये वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र नहीं था, जो बीमा पालिसी की शर्तों के उल्लंघन की श्रेणी मे आता है। अतः अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी को प्रतिकर के संदाय हेतु उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। वाद प्रष्न क्र. 4 एवं 5 तदानुसार निराकृत किये जाते हैं।
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20.       
अनावेदक क्र.3 की ओर से यह आपत्ति की गयी हैं कि ट्रैक्टर के स्वामी, चालक एवं बीमा कंपनी प्रकरण में आवष्यक पक्षकार थे, लेकिन पूर्वोक्त विष्लेषण के क्रम में ट्रैक्टर चालक की कोई लापरवाही प्रमाणित नहीं हुयी है। ऐसी स्थिति में उक्त तीनों को प्रकरण के लिये आवष्यक पक्षकार नहीं माना जा सकता है। यदि तर्क के लिये मामला योगदायी उपेक्षा का मान भी लिया जाये तो भी उक्त आपत्ति विधि सम्मत नहीं है, क्योंकि माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोेरेशन एवं एक अन्य, 2005 .सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहाॅं दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहाॅं दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
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27.       
यह प्रकट है कि दुर्घटना के समय आवेदक मांगीलाल एवं मृतक नरबत माल वाहक यान में या तो किराया देकर अथवा अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहे थे। न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) तथा जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892  में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
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24.       
यह प्रमाणित पाया गया है कि प्रष्नगत वाहन को अनावेदक क्र.1 के द्वारा तेजी और लापरवाही से चलाये जाने के कारण दुर्घटना घटित हुयी। यह वाहन अनावेदक क्र.2 के स्वामित्व का था अतः अनावेदक क्र. 1 एवं 2 प्रतिकर के लिये संयुक्ततः एवं पृथक-पृथक उत्तरदायी हंै। चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, .सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 1 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
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9.       
न्याय दृष्टांत वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहाॅं तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुॅचेगा। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूॅंढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके। दुर्घटना से पीडि़त पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो। निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
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11.       
न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 .सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहाॅं प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहाॅं इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है।
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व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडि़त पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये, प्रथम-वित्तीय क्षति, द्वितीय-विषेष क्षति। इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं। जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय। विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता, जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मामले में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
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11.       
उक्त मौखिक एवं प्रलेखीय साक्ष्य, जिस पर अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है, के आधार पर यह बात सुस्पष्ट प्रमाणित है कि दिनाॅंक 21.01.20009 को शाम लगभग 4.40 बजे इंदौर-भोपाल रोड़ पर इंदौर नाके के निकट राधेष्याम (अनावेदक क्र.1) ने प्रेमनारायण (अनावेदक क्र.2) के स्वामित्व की टेम्पो ट्रैक्स क्र. एम.पी.-37-टी.-0281 से आवेदक में टक्कर मारी। अनावेदक क्र.1 स्वयं साक्षी के कठघरे में आकर यह बताने का प्रयास नहीं कर सका है कि दुर्घटना किन परिस्थितियों में हुयी तथा उसके द्वारा किस प्रकार की सावधानी बरती गयी। ऐसी दशा में  न्याय दृष्टंात लाजवंती विरूद्ध केशव प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स (एन..सी) 4 में किये गये प्रतिपादन के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध निष्कर्ष निकाला जाना चाहिये। अतः मामले की सम्पूर्णता के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अनावेदक क्र.1 की लापरवाही के कारण प्रष्नगत दुर्घटना घटित हुयी, जिसमें आवेदक लक्ष्मण सिंह को उपहति कारित हुयी। वाद प्रष्न क्र.1 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
17.       
कृपालसिंह (अनावेदक क्र.1) स्वयं साक्षी के कटघरे में आकर दुर्घटना की परिस्थतियों पर प्रकाष डालने का साहस नहीं कर सका है। अतः न्याय दृष्टांत अतः न्याय दृष्टंात लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल लाॅ जजमेंट्स (एन..सी) 4  में प्रतिपादित विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 .सी.जे. 919 .प्र. में भी यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ (त्मे.पचें सवुनपजनतका सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था।
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आर सी ए
यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, .आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107, बैंक आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368 एवं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1499 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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    17.   
उक्त क्रम में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत जत्तूराम विरूद्ध हाकिमसिंह, .आई.आर.1994, एस.सी. 1653, सूरजभान आदि विरूद्ध फाइनेशियल कमिश्नर आदि, 2007(6) एस.सी.सी.-186, दुर्गाप्रसाद विरूद्ध कलेक्टर, 1996 (5) एस.सी.सी. 618 तथा उत्तर प्रदेश राज्य विरूद्ध अमरसिंह आदि, 1997 (1) एस.सी.सी. 734 में शनैःशनैः प्रतिपादित यह विधिक स्थिति सुसंगत और अवलोकनीय है कि राजस्व अभिलेखों में अथवा जमाबंदी पंजी में स्वत्व विषयक् की जाने वाली प्रविष्टियाॅ मूलतः राजस्व संग्रह के उद्देश्य से की जाती है तथा न तो उनके आधार पर स्वत्व अर्जित किया जा सकता है और न ही ऐसी प्रविष्टियाॅ स्वत्व का हरण कर सकती है अर्थात स्वत्व का अर्जन, अंतरण व  हरण संपत्ति अंतरण अधिनियम अथवा म.प्र.भू-राजस्व संहिता 1959 में विहित प्राविधानों  के अनुसार ही संभव है, अन्यथा नहीं ।
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15.       
उक्त विधिक प्रावधानों का निर्वचन करते हुये न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध श्रीमती सूरज 1996(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 231 में यह प्रतिपादन किया गया है कि जहाॅं महत्वपूर्ण प्रलेख पक्षकार की संवेदनाहीन उपेक्षा के कारण न्यायालय के समक्ष समय पर प्रस्तुत नहीं किये गये, वहाॅं ऐसे प्रलेखों को साक्ष्य में ग्रहण कर ऐसी उपेक्षा को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये और न ही ऐसी दषा में अपीलार्थी को कमी दूर करना अनुज्ञात किया जा सकता है। न्याय दृृष्टांत लक्ष्मीनारायण विरूद्ध मोहरसिंह आदि 1989 जे.एल.जे. -271 में भी तद्ाषय का प्रतिपादन करते हुये यह ठहराया गया है कि जहाॅं लोक प्रलेखों की प्रमाणित प्रतियाॅं असावधानी के कारण विचारण न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गई, वहाॅं अपील में उन्हें ग्रहण करने से इंकार करना उचित है।
16.       
उक्त प्रावधानों के संबंध में अपीलार्थी द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी यहाॅं असंगत नहीं होगा। न्याय दृष्टांत अषोक कुमार विरूद्ध लक्ष्मी किराना स्टोर 1996 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 169 में मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में ’निर्णायक प्रलेखों’ की प्रमाणित प्रतिलिपि को अभिलेख पर लिया जाना उचित माना गया। न्याय दृष्टांत रामगोपाल विरूद्ध एम.पी.एस.आर.टी.सी 1994(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-165 में ऐसे सुसंगत दस्तावेजों को, जो विचारण न्यायालय में उपलब्ध नहीं थे, साक्ष्य में ग्रहण करने की अनुमति दी गई। न्यायदृष्टांत सुंदरबाई विरूद्ध मूलचंद अग्रवाल 1985 एम.पी.आर.सी.जे.-171 के मामले में यह ठहराया गया कि जब पूर्व में साक्ष्य की खोज नहीं हो सकी तथा साक्ष्य निर्णायक प्रकृति का है तब उसे ग्राह्य किया जा सकता है। न्याय दृष्टांत विजय किराना स्टोर्स विरूद्ध मे.जनता कोल डिपो 1993(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 206 में यह प्रतिपादित किया गया कि यदि सम्यक् प्रयासों के बावजूद प्रलेख प्रस्तुत नहीं किया जा सका है तो उसे आदेष 41 नियम 27 (1)() के अंतर्गत ग्रहण किया जा सकता है। न्याय दृष्टांत श्यामगोपाल बिंदाल विरूद्ध लैण्ड एक्यूजिषन अधिकारी ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 690 में वादी की मृत्यु हो जाने के कारण स्वत्व संबंधी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये जा सके थे अतः अपील में उन्हें स्वीकार्य ठहराया गया।
17.       
उक्त न्याय दृष्टांतों के परिप्रेक्ष्य में यह विधिक स्थिति उभरकर सामरने आती है कि सम्यक् तत्परता के बावजूद प्रलेख उपलब्ध न होने अथवा प्रष्नगत प्रलेख के निर्णायक स्वरूप का होने की दषा में ही उसे अपील के प्रक्रम पर साक्ष्य में ग्रहण किया जा सकता है।
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25.       
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत बाबूलाल बिरला विरूद्ध रामप्रकाष शर्मा आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2646 की कण्डिका 22 में किया गया प्रतिपादन अवलोकनीय है, जिसमें मूल किरायेदार भागीदारी फर्म की न होकर मूल भवन स्वामी तथा एक अन्य व्यक्ति के मध्य थी तथा बाद मंे विविच्छित रूप से भागीदार फर्म, जो निरंतर किराया अदा कर रही थी, सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 111()ि जो पट्टा समाप्ति के विषय में है, के आधार पर किरायेदार बन गई। उक्त परिप्रेक्ष्य में विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा अभिलिखित यह निष्कर्ष कि जंगूलाल विवादित भवन में 6 रूपये मासिक पर वादी का किरायेदार था, अभिलेखगत साक्ष्य या सुसंगत विधिक स्थिति के विपरीत नहीं कहा जा सकता है।
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न्याय दृष्टांत बाबूलाल बिरला विरूद्ध रामप्रकाष शर्मा आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2646 एवं लक्ष्मीबाई विरूद्ध रामलाल 1985 वीकली नोट-95 का अवलंब लिया गया है।
28.       
लक्ष्मीबाई विरूद्ध रामलाल 1985 वीकली नोट-95 (पूर्वोक्त) के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि सह किरायेदार को प्रतिवादी के रूप में संयोजित नहीं किया गया है तो निष्कासन वाद संधारणीय नहीं होगा। बाबूलाल बिरला (पूर्वोक्त) के मामले में पर्याप्त विस्तार के साथ इस विधिक स्थिति के बारे में सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि जहाॅं भागीदार फर्म किरायेदार है तथा फर्म को प्रतिवादी के रूप में संयोजित नहीं किया गया है वहाॅं निष्कासन का वाद उचित रूप से संधारणीय नहीं माना जायेगा। निर्णय की कण्डिका 28 में इस विषय में सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि पक्षकारों के असंयोजन का प्रष्न विधि एवं तथ्य का ऐसा प्रष्न है जो न्यायालय की अधिकारिता से जुड़ा हुआ है तथा यदि आवष्यक पक्षकारों को संयोजित नहीं किया गया है तो प्रतिवादी के विरूद्ध आज्ञप्ति प्रदान नहीं की जा सकती। इस मामले में किरायेदार भागीदारी फर्म के पक्ष में थी जबकि वाद केवल एक भागीदार के विरूद्ध प्रस्तुत किया गया था अतः वाद को संधारणीय नहीं माना गया।
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वैकल्पिक परिसर:-
31.       
उक्त विषय में विधि सम्मत निष्कर्ष पर पहुॅचने के लिये सुसंगत विधिक प्रावधानों तथा उसके संबंध में किये गये विधिक निर्वचन का संदर्भ आवष्यक है। ’अधिनियम, 1961’ की धारा 12(1)() प्रावधित करती है कि यदि किरायेदार ने कोई ऐसा स्थान, जो उसके निवास के लिये उपयुक्त है, बना लिया है, उसका खाली कब्जा प्राप्त कर लिया है अथवा उसे कोई स्थान आबंटित कर दिया गया है तो इस आधार पर भवन स्वामी निष्कासन का अनुतोष प्राप्त कर सकेगा।
32.       
उक्त क्रम में अपीलार्थीगण द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत दामोदर विरूद्ध नानकदास 1987 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-79 में यह ठहराया गया है कि किरायेदार द्वारा निर्मित स्थान का निवास हेतु उपयुक्त होना सिद्ध किया जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत माधोलाल विरूद्ध कन्हैयालाल 1980 एम.पी.आर.सी.जे. नोट 48 में यह प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम, 1961’ की धारा 12(1)() के लिये किरायेदार द्वारा प्राप्त किये गये स्थान का स्वरूप और उसका रिक्त आधिपत्य किरायेदार के पास होना भी प्रमाणित किया जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत अब्दुल सत्तार विरूद्ध फुटेजा बाई 2004(1) एम.पी..सी.जे.-47 के मामले में माननीय सर्वाेच्च न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जिस व्यक्ति के द्वारा भवन का प्राप्त किया जाना अभिकथित है, वह प्रष्नगत समय पर किरायेदार होना चाहिये। इस मामले में भवन किरायेदार के पुत्र के लिये प्राप्त किया था, जिसे कर्नाटक भाड़ा नियंत्रण अधिनियम-1961 के लगभग समरूप प्रावधानों के संबंध में पर्याप्त नहीं माना गया।
33.       
इसी क्रम में प्रत्यर्थी द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांतों पर भी दृष्टिपात आवष्यक है, जिनमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा श्रीमती मोहिनी बधवार विरूद्ध रघुनंदन शरण ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 1492 के मामले में किया गया यह विधिक प्रतिपादन महत्वपूर्ण है कि यदि किरायेदार ने एक बार भवन का रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लिया है लेकिन बाद में विक्रय अनुबंधपत्र निष्पादित कर उसे अंतरित कर दिया है तो भी वैकल्पिक परिसर प्राप्त किये जाने के आधार पर किरायेदार निष्कासन हेतु उत्तरदायी होगा। यह मामला दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 की धारा 14(1)() के उपबंधों के संबंध में था। किरायेदार ने वैकल्पिक परिसर का आधिपत्य प्राप्त होने के 4 दिन बाद ही उसे किसी महिला को विक्रय कर दिया, तत्पष्चात् निष्कासन वाद संस्थित किया गया। न्यायालय के समक्ष यह तर्क किया गया कि वाद प्रस्तुति के समय किरायेदार के पास प्रष्नगत भवन का रिक्त आधिपत्य नहीं था। यह दलील अस्वीकार करते हुये अभिनिर्धारित किया गया कि वैकल्पिक परिसर का आधिपत्य एक बार मिल जाने के बाद उसे किरायेदार द्वारा स्वयं छोड़ दिये जाने की दषा मंे किरायेदार को किराया नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों का लाभ नहीं मिल सकता है। इसी क्रम में न्याय दृष्टांत सच्चिदानंद गर्ग विरूद्ध गोविंदलाल जी महाराज 1981 एम.पी.आर.सी.जे. 142 भी अवलोकनीय है जिसमें अधिनियम, 1961 की धारा 12(1)() के संदर्भ में यह ठहराया गया है कि यदि किरायादार रिक्त आधिपत्य अर्जित करता है तथा बाद में उसे विक्रय कर देता है तो उसे धारा 12 के अंतर्गत प्राप्त सुरक्षा समाप्त हो जाती है तथा तद्विषयक् प्रावधान कठोरता से विष्लेषित किये जाने चाहिये। यहाॅं न्याय दृष्टांत अहमद खान रज्जू खान विरूद्ध माइकेलनाथ 1971 एम.पी.एल.जे. पृष्ट 574 का संदर्भ भी लिया जा सकता है जिसमें यह ठहराया गया है कि अधिनियम की धारा 12(1)() के लिये यह आवष्यक नहीं है कि किरायेदार के पास रिक्त वैकल्पिक परिसर का आधिपत्य वाद संस्थित दिनाॅंक तक हो, एक बार यदि किरायेदार किसी भवन का रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लेता है तो उस दषा में उक्त आधार की आवष्यकता पूरी हो जाती है। उक्त क्रम में न्यायदृष्टांत ज्ञानचंद जैन विरूद्ध श्रीमती पंछीबाई 1998 एम.पी..सी.जे. 47 तथा मांगीलाल विरूद्ध ओमप्रकाष 1979 एम.पी.आर.सी.जे नोट 57 भी संदर्भ योग्य है।
34.       
जहाॅं तक किरायेदार द्वारा प्राप्त परिसर की निवास हेतु उपयुक्तता का प्रष्न है, न्याय दृष्टांत गनपतराम शर्मा विरूद्ध श्रीमती गायत्री देव ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 2016 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 के लगभग समरूप प्रावधानों पर विचार करते हुये यह अभिकथित किया है कि यदि यह प्रमाणित कर दिया जाता है किरायेदार ने भवन बना लिया है या उसका रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लिया है या उसे भवन आबंटित हो गया है तो ऐसा भवन निवास के लिये उपयुक्त है या नहीं तथा वास्तव में उसे वैकल्पिक परिसर माना जा सकता है या नहीं, ये तथ्य किरायेदार के विषिष्ट ज्ञान में होने के कारण किरायेदार को ही प्रमाणित करने चाहिये।
35.       
उक्त विधिक प्रतिपादनों के समवेत परिषीलन से यह विधिक स्थिति उभरकर सामने आती है कि किरायेदार द्वारा वैकल्पिक परिसर प्राप्त किये जाने की दषा में प्रथमतः ऐसा परिसर निवास हेतु उपयुक्त है या नहीं यह प्रमाण भार किरायेदार पर होगा। द्वितीयतः यदि किरायेदार वैकल्पिक उपयुक्त परिसर का आधिपत्य मिलने के बाद उसे विक्रय कर दिया है, किराये पर उठा देता है या अन्य किसी प्रकार से अंतरित कर देता है तो इस बात के बावजूद कि ऐसी कार्यवाही निष्कासन वाद संस्थिति के पूर्व कर दी गयी थी, किरायेदार को अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत प्राप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी।
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परिसीमा:-
39.       
जहाॅं तक परिसीमा का सम्बन्ध है, न्याय दृष्टांत गनपतराम शर्मा विरूद्ध गायत्री देवी ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 2017  के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 66 की प्रयोज्यता का विष्लेषण करते हुये निर्णय की कण्डिका 22 एवं 23 में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया है कि स्थावर सम्पत्ति के कब्जे के लिये जब वादी किसी समपहरण या शर्त भंग के कारण कब्जे का अधिकारी होने का अभिकथन कर रहा हो, वहाॅं परिसीमा काल ऐसे समपहरण के ज्ञान की तारीख से प्रारम्भ होगा।
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11.   
वसीयत के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा रानी पूर्णिमादेवी एवं एक अन्य विरूद्व नारायण देव अयांगर ‘ए0आई0आर0 1962 सु0को0 567 में यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 63 में वसीयत में अनुप्रमाणन के बारे में दिए गए उपबंधों के अनुसार वसीयत को प्रमाणित किया जाना चाहिए तथा यह प्रमाण भार वसीयत-ग्रहीता पर है एवं संदेहजनक परिस्थितियों के अभाव में वसीयतकर्ता की क्षमता एवं हस्ताक्षरों को प्रमाणित किया जाना पर्याप्त है,लेकिन जहां संदेहकारक परिस्थितियां हैं वहां वसीयतकर्ता को न्यायालय में समाधानप्रद रूप से यह दर्षाना होगा कि वसीयत वास्तविक एवं स्वीकार किए जाने योग्य है। यदि वसीयत के संबंध में अनुचित प्रभाव,धोखा या दबाव के आक्षेप हैं, तो उसे साबित करने का भार ऐसे आक्षेप कर्ता पर होगा, लेकिन जहां ऐसे आक्षेप नहीं लगाए गए हैं,लेकिन परिस्थितियां संदेहजनक है वहां न्यायालय के विवेक की तुष्टि करते हुए वसीयतनामा को प्रमाणित किया जाना चाहिए। उक्त मामले में उन परिस्थितियों का संदर्भ भी किया गया है, जो संदेहकारक हो सकती हैं यथा- वसीयतकर्ता के हस्ताक्षरों का संदिग्ध होना, वसीयतकर्ता की मनःदषा अथवा स्वास्थ्य की स्थिति खराब होना, वसीयत में सम्पत्ति अप्राकृतिक एवं अस्वाभाविक रूप से दिया जाना तथा वसीयत के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा वसीयत के निष्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना। उक्त क्रम में न्यायदृष्टांत गुरूदयाल कौर विरूद्व करतार कौर ‘1998 (2)एम0पी0डब्यलू0एन0,नोट 87 सु0को0 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं । उक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में प्र0डी03 एवं प्र0डी0 4 के प्रलेखों की विष्वसनीयता एवं वास्तविकता के विषय में अभिलेखगत साक्ष्य का विष्लेषण करना होगा।
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14.       
उक्त क्रम में प्रतिकूल आधिपत्य से सम्बन्धित यह विधिक स्थिति ध्यान देने योग्य है कि प्रतिकूल आधिपत्य का दावा करने वाले व्यक्ति को यह प्रमाणित करना चाहिये कि वास्तविक स्वामी के विरूद्ध आधिपत्य स्वतंत्र स्वामी के रूप में प्रतिकूलतः दर्षाया गया। सहस्वामियों के मध्य सामान्यतया एक दूसरे के विरूद्ध प्रतिकूल आधिपत्य नहीं हो सकता है क्योंकि विभाजन न होने की दषा में प्रत्येक सहस्वामी द्वारा धारित आधिपत्य अन्य सहस्वामियों के लिये भी होता है। मात्र लम्बे समय तक एकल आधिपत्य प्रतिकूल आधिपत्य का परिचायक नहीं है। संदर्भ नंदकिषोर विरूद्ध रमेषचंद्र एवं एक अन्य 2003(4) एम.पी.एच.टी.-114। न्याय दृष्टांत अनूप सिंह आदि विरूद्ध शोभाजी 2002 राजस्व निर्णय 34 में पी.लक्ष्मी रेड्डी विरूद्ध एल.लक्ष्मी रेडड्डी ए.आई.आर.1957 सुप्रीम कोर्ट -314  का अवलंब लेते हुये यह भी ठहराया गया है कि सहस्वामियों के बीच, स्पष्ट विरोधी आधिपत्य के दावे के साथ-साथ ’’वनेजमत’’ एवं एकल आधिपत्य का प्रमाण होना चाहिये क्योंकि उपधारणा यह है कि एक सहस्वामी का आधिपत्य दूसरे सहस्वामी का आधिपत्य है। न्याय दृष्टांत दर्षनसिंह विरूद्ध गुज्जरसिंह 2002(1) .एन.जे.-सुप्रीम कोर्ट 370 में भी तदाषय का विधिक प्रतिपादन माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया है।
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13.       
उक्त प्रावधानों का निर्वचन करते हुये न्याय दृष्टांत हरनारायण डागा विरूद्ध हीरालाल, .आई.आर. 2001 एस.सी.-341 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि वास्तविक सद्भाविक आवष्यकता का प्रष्न, तथ्य का प्रष्न है। न्याय दृष्टांत प्रकाषचंद्र विरूद्ध अयोध्याप्रसाद, 1999 एम.पी..सी.जे. 302 में ठहराया गया है कि विवादित परिसर प्राप्त करने की इच्छा रखना मात्र सद्भाविक आवष्यकता नहीं है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी..सी.जे. 278 जिसका अवलंब अपीलार्थी द्वारा लिया गया है, में प्रतिपादित किया गया है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र।
14.       
अपीलार्थी द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत जरनैलसिंह विरूद्ध कन्हैयालाल, .आई.आर. 1988 एम.पी. 53 में प्रतिपादित किया गया है कि वैकल्पिक अनिवासीय स्थान की अनुपलब्धता का प्रमाण-भार भवन स्वामी पर है तथा न्याय दृष्टांत सत्यनारायण विरूद्ध मुरारी समाज धर्मषाला, 2005(2) एम.पी..सी.जे. 207 के अनुसार इस हेतु आवष्यक अभिवचन किये जाने चाहिये। समान आषय का प्रतिपादन न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध षिवनारायण 1987 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 156 में भी किया गया है। न्याय दृष्टांत पीर खान विरूद्ध चन्द्र्रप्रकाष, 2005(2) एम.पी..सी.जे. 115 में यह ठहराया गया है कि सद्भाविक आवष्यकता के विषय में सम्पूर्ण साक्ष्य सामग्री का मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
15.       
न्याय दृष्टांत राधाबाई विरूद्ध भानू बाही, 1988(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 30 में किये गये प्रतिपादन के अनुसार यदि आवष्यकता उद्भूत होने के बाद भवन स्वामी ने अपनी निजी दुकान किराये पर दी है तो ऐसी स्थिति में सद्भाविक आवष्यकता स्थापित नहीं मानी जा सकती है। न्याय दृष्टांत महेषचंद्र विरूद्ध भगवतीप्रसाद 2003(2) एम.पी..सी.जे. 142 के मामले में यह भी ठहराया गया है कि जब वादी साक्ष्य प्रस्तुत कर विधि के अंतर्गत आवष्यक मुद्दों को प्रमाणित कर दे तब किरायेदार पर उनको असिद्ध करने का दायित्व होगा। न्याय दृष्टांत श्रीमती खात्जाबाई व अन्य विरूद्ध जगन्नाथ, 2003(1) एम.पी..सी.जे. 113 एवं न्याय दृष्टांत लीलाबाई विरूद्ध रामचंद्र, 2003(1) एम.पी..सी.जे. 113 में किये गये यह प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत है कि यदि वाद भाड़ा वृद्धि के उद्देष्य से प्रस्तुत किया गया है तो आवष्यकता सद्भाविक नहीं मानी जा सकती है। इसी क्रम में न्याय दृष्टांत मै.झुनझुनवाला ट्रेडिंग कंपनी विरूद्ध चांदमल सुगनचंद सोगानी, 1992 एम.पी..सी.जे. 19 में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत है कि सद्भाविक आवष्यकता इच्छा, सुविधा या सनक के आधार पर प्रमाणित नहीं माना जा सकता है।
16.       
उक्त क्रम में वर्तमान मामले के लिये सुसंगत कुछ अन्य विधिक प्रतिपादनों पर भी दृष्टिपात करना भी आवष्यक है। न्याय दृष्टांत धन्नालाल विरूद्ध कलावती बाई, 2003(1) जे.एल.जे. 1985 एस.सी. 27 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि सद्भाविक आवष्यकता को वस्तुनिष्ठ आधारों पर देखा जाना चाहिये तथा यदि आवष्यकता स्थापित कर दी गई है तो उपलब्ध परिसरों में से उपयुक्त परिसर के चयन का अधिकार भवन स्वामी को है। न्याय दृष्टांत अवधनारायण विरूद्ध गेंदीबाई 1980 एम.पी.आर.सी.जे. 88 में यह ठहराया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी किराये के स्थान पर स्वयं का व्यवसाय कर रहा है, वहाॅं ऐसे परिसर को वैकल्पिक परिसर नहीं माना जा सकता है तथा ऐसी स्थिति में भवन स्वामी की आवष्यकता सद्भाविक मानी जायेगी। न्याय दृष्टांत जंगूलाल विरूद्ध श्रीमती पार्वती 1996(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 116 में किया गया यह प्रतिपादन भी इस क्रम में उल्लेखनीय है कि वैकल्पिक परिसर की अनुपलब्धता अपने आप में आवष्यकता के सद्भाविक होने का परिचायक है।
17.       
किस परिसर को वैकल्पिक परिसर के रूप में उपलब्ध माना जाये इस विषय में भी कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ यहाॅ असंगत नहीं होगा। न्याय दृष्टांत लिंगाला कोंडाला राव विरूद्ध वूतुकुरी नारायण राव ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2077, हरिबाबू वर्मा विरूद्ध बांकेलाल, 1995(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 59 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं गैर आवासीय उपयोग का भवन संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति है, वहाॅं व्यक्ति विषेष की आवष्यकता के लिये ऐसे भवन को वैकल्पिक उपलब्ध भवन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।
18.       
न्याय दृष्टांत वसंत कुमार जैन विरूद्ध गुलाब चंद्र गोयल, 2007(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 58 के पैरा 11 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि पुत्र, माता, पत्नी या परिवार के किसी अन्य सदस्य द्वारा धारित स्थान को वैकल्पिक स्थान नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत धन्नालाल विरूद्ध कलावती बाई 2003(1) जे.एल.जे. 85 एस.सी.(27) के मामले मंे यह ठहराया गया कि जहाॅं विवादित परिसर उस परिसर से जिसमें भवन स्वामी किरायेदारी पर अपना कारोबार चला रहा हो, छोटा है तो भी निष्कासन का अनुतोष प्रदान करने से इंकार नहीं किया जा सकता है।
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इस क्रम में न्याय दृष्टांत सुधीर तिवारी विरूद्ध श्रीमती भागवती देवी 2002(2) जे.एल.जे. पृष्ठ-121 में किया गया यह अभिनिर्धारण दृष्ट्व्य है कि वृद्धावस्था अपने आप में वास्तविक आवष्यकता के विषय में वस्तुनिष्ठ निर्णयन में आड़े नहीं आती है।
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12.       
जहाॅं तक प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन का प्रष्न है, अपीलार्थी/वादीगण ने प्र.पी-4 लगायत प्र.पी-13 की रसीदें प्रस्तुत की हैं, जिनमें ’विवादित भूखण्ड’ का किराया नगर पालिका नसरूल्लागंज को अदा किये जाने की बात प्र.पी-5, 6, 7, 8 (वर्ष 2000) में आयी है प्र.पी-11 एवं 12 में भी, जो वर्ष 1991 की हैं, किराये के रूप में राषि अदा किये जाने का उल्लेख है। उक्त रसीदों के अवलोकन से साफ तौर पर यह प्रकट है कि अपीलार्थी/वादीगण न केवल नगर पालिका नसरूल्लागंज को ’विवादित भूखण्ड’ का किराया अदा करते आ रहे हैं, अपितु यह किराया उन्होंने प्रत्यार्थी/प्रतिवादीगण के नाम से अदा किया है, जिसके प्रकाष में यह स्पष्ट हो जाता है कि न केवल वे प्रत्यार्थी/प्रतिवादीगण के माध्यम से अनुमत स्वरूप के अािधपत्य का उपभोग ’विवादित भूखण्ड’ के संबंध में कर रहे हैं, अपितु यह भी प्रकट होता है कि वे निरंतर नगर पालिका परिषद नसरूल्लागंज को स्वामी के रूप में अंगीकार करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में विवादित भूखण्डों पर उनका आधिपत्य निरंतर शांतिपूर्ण एवं दीर्घ अवधि का होने के बावजूद प्रतिकूल आधिपत्य की परिधि में नहीं आता है, क्योंकि प्रतिकूल आधिपत्य के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि संबंधित व्यक्ति ने खुले तौर पर सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी के विरूद्ध अपने आपको स्वामी अभिकथित करते हुये अधिनियमित अवधि तक निरंतर सम्पत्ति का उपभोग किया। जहाॅं आधिपत्य उक्त प्रकृति का नहीं है, वहाॅं दीर्घ अवधि का होने के बावजूद उसे प्रतिकूल आधिपत्य नहीं माना जा सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवा विरूद्ध सज्जन कुमार (2003) 7 एस.सी.सी.-481, वीरेन्द्र नाथ विरूद्ध मो.जमील, (2004) 6 एस.सी.सी.-140, रामसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 2004 राजस्व निर्णय-72 तथा टी.अंजनप्पा विरूद्ध सोमलिंगाप्पा (2006) 7 एस.सी.सी.-570 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।
13.       
टी.अंजनप्पा (पूर्वोक्त) के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं प्रतिकूल आधिपत्य का दावा करने वाले को यही विदित नहीं है कि वास्तविक भू-स्वामी कौन है, वहाॅं प्रतिकूल आधिपत्य का प्रष्न ही पैदा नहीं होता है।
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14.       
व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अंतर्गत प्राड़ःन्याय का प्रभाव रखने के लिये प्रष्नगत निष्कर्ष ऐसा होना आवष्यक है जिसके बारे में विवाद विद्यमान था एवं जिसे उभय पक्ष की सुनवाई के बाद निराकृत किया गया। उक्त मामले में दिनाॅंक 5.1.1960 के विलेख की वैधता या अवैधता अंतरवलित नहीं था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत संजय कुमार पाण्डे विरूद्ध गुलबहार शेख ए.आई.आर.2004 एस.सी. 3354 में स्पष्ट रूप से यह अभिनिर्धारण किया है कि अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत संक्षिप्त स्वरूप के वाद का निराकरण किया जाता है क्योंकि ऐसे वाद में जाॅच का बिन्दु केवल आधिपत्य तथा विगत 6 माह में आधिपत्यच्युत किये जाने तक सीमित है तथा स्वत्व का विवाद ऐसे मामले में महत्वहीन है। अधिनियम की धारा 6(4) अपने आप में यह प्रावधित करती है कि यह धारा किसी व्यक्ति को स्वत्व के आधार पर आधिपत्य मांगने से प्रतिषिद्ध नहीं करेगी। न्याय दृष्टांत बिषाखा बाई विरूद्ध सीताबाई 1987(1) वीकली नोट 236 में इस आषय का स्पष्ट अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 6 के वाद में किया गया विनिष्चिय स्वत्व संबंधी वाद के लिये प्राड़ःन्याय का प्रभाव नहीं रखता है।
15.       
उक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में यह प्रकट है कि स्वत्व के आधार पर आधिपत्य के अनुतोष हेतु संस्थित वर्तमान वाद अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत प्रस्तुत पूर्ववर्ती वाद के अंतिम निराकरण के बाबत् प्राड़ःन्याय के सिद्धांत से बाधित नहीं है। अतः विद्वान विचारण न्यायाधीष द्वारा अभिलिखित तद्प्रतिकूल निष्कर्ष विधि सम्मत न होने के कारण स्थिर रखे जाने योग्य नहीं है।
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19.       
प्रतिकूल आधिपत्य के विषय में यह विधि सुस्थापित है कि प्रतिकूल आधिपत्य स्थापित करने के लिये स्पष्ट रूप से यह अभिवचन किया जाना चाहिये कि ऐसा आधिपत्य कब प्रारम्भ हुआ। मूल स्वामी के विरूद्ध खुले रूप से अधिनियमित अवधि तक निरंतर बेरोकटोक आधिपत्य स्थापित किये जाने की दषा में ही प्रतिकूल आधित्य के आधार पर स्वत्व का सृजन हो सकता है, संदर्भ - अन्ना साहेब विरूद्ध बलवंत ए.आई.आर.1995-एस.सी.-895 एवं एम.सी. शर्मा विरूद्ध राजकुमारी शर्मा ए.आई.आर. 1996-एस.सी.-869.
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21.       
इस क्रम में प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 की इस दलील पर विचार किया जा सकता है कि उक्त भूमि पर प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर उसने स्वत्व अर्जित कर लिया है। प्रतिकूल आधिपत्य के द्वारा स्वत्व अर्जन के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि आधिपत्य सजग, चैतन्य, वास्तविक स्वामी की जानकारी में तथा खुले तौर पर उसके स्वत्वों को चुनौती देते हुये किया गया। बिना यह जाने की वास्तव में जिस भूमि पर आधिपत्य है, वह भूमि किसके स्वत्व स्वामित्व की है, एक पक्ष का अचेतन आधिपत्य उसे ऐसी भूमि के संबंध में प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन नहीं करा सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत देवा विरूद्ध सज्जन कुमार, (2003) 7 एस.सी.सी. 481 सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन की स्थिति के विषय में सुसंगत विधिक स्थिति का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
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सहदायक की मृत्यु की दषा में, उस स्थिति में जबकि उसने अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 की किसी महिला उत्तराधिकारी को अपने पीछे छोड़ा है, सम्पत्ति का न्यगमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत उत्तराधिकार के द्वारा होगा न कि उत्तरजीविता के आधार पर। इस क्रम में न्याय दृष्टांत गुरूपद खाण्डप्पा विरूद्ध हीराबाई खाण्डप्पा, .आई.आर. 1978 एस.सी.1239 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति दृष्ट्व्य है कि मृतक के जिस हिस्से का न्यगमन होना है, उसे निर्धारित करने के लिये माने गये काल्पनिक बंटवारे के परिणाम वास्तविक बंटवारे जैसे ही होगंे।
25.       
अभिलेख से वस्तुतः यह अविवादित है कि मोहनसिंह की तीन पुत्रियाॅ - श्रीमती गिरजा बाई, श्रीमती प्रेमलता बाई तथा श्रीमती आरती बाई भी थीं अतः वर्ष 1993 में मोहनसिंह की मृत्यु के समय उसकी तीनों पुत्रियाॅं श्रीमती गिरजा बाई, श्रीमती प्रेमलता बाई तथा श्रीमती आरती बाई उसकी प्रथम वर्ग की महिला उत्तराधिकारी के रूप में मौजूद थीं। परिणामस्वरूप सहदायिक सम्पत्ति में काल्पनिक बंटवारे से निर्धारित उसके हिस्से का न्यगमन उत्तराधिकार के आधार पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत होगा न कि धारा 6 के अंतर्गत उत्तरजीविता के आधार पर। अतः यह कल्पना करनी होगी कि उसकी मृत्यु के तत्काल पूर्व एक बंटवारा हुआ, जिसमें मोहनसिंह, उसके तीनों पुत्रों तथा आनंद कुॅवर को 1/5-1/5 समान हिस्सा प्राप्त हुआ। इस प्रकार उक्त सम्पूर्ण सम्पत्ति में मोहनसिंह, अपीलार्थी, प्रत्यार्थी क्र. 1 2 तथा आनंद कुॅवर बाई को 1/5-1/5 हिस्सा काल्पनिक बंटवारे में मिला। मोहनसिंह की मृत्यु के क्रम में उत्तराधिकार के आधार पर उसका 1/5 हिस्सा उसके तीन पुत्रों, तीन पुत्रियों और पत्नी अर्थात 7 लोगों के मध्य 1/7-1/7 उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 के अंतर्गत प्राप्त हुआ।
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13.       
न्याय दृष्टंात रमती देवी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया, 1995(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-186 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ के द्वारा यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि विक्रय का पंजीकृत विलेख न्यायालय द्वारा समुचित घोषणा द्वारा रद्द अथवा शूनय घोषित किये जाने तक विधि मान्य रहता है तथा पक्षकारों पर आबद्धकर है। उक्त मामले में यह प्रतिपादन भी किया गया है कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद-59 के परिप्रेक्ष्य में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख रद्द कराने के लिये यदि वाद तीन वर्ष के अंदर संस्थित नहीं किया गया है तो ऐसा वाद समय बाधित है।
15.       
न्याय दृष्टांत रमती देवी (पूर्वोक्त) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष तथा उक्त निष्कर्षों के परिप्रेक्ष्य में मामले पर विचार करें तो यह प्रकट होता है कि इस बात के बावजूद कि पंजीकृत विक्रय विलेख दिनाॅंक 21.1.1987 की मूल प्रति न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गयी, उक्त विक्रय विलेख छेदीलाल (प्रत्यार्थी क्र.2) तथा अपीलार्थी/प्रतिवादीगण पर समान रूप से बंधनकारी है। चैनसिंह (प्रत्यार्थी क्र.2), जो छेदीलाल (प्रत्यार्थी क्र.1) का पिता है, पर भी उक्त विक्रय विलेख समान रूप से बंधनकारी है तथा मात्र इस आधार पर कि विक्रय विलेख को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया, उसके अस्तित्व से नकारा नहीं जा सकता है।
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9.       
न्याय दृष्टांत केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीषचंद्र गोठी एवं एक अन्य, 1991 एम.पी.जे.आर. 404 में उक्त प्रावधानों का गहन विष्लेषण एवं विषद व्याख्या करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13(6) के अंतर्गत निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा समाप्त किये जाने पर धारा 12 के अध्याधीन उपलब्ध आधारों पर प्रतिवाद करने का प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो जाता है, लेकिन ऐसी प्रतिरक्षा, जो धारा 12 की परिधि के बाहर है, प्रतिवादी/किरायेदार के द्वारा ली जा सकती है। साथ ही प्रतिवादी, वादी के साक्षियों का कूट परीक्षण कर सकता है, तर्क में भाग ले सकता है, लेकिन वह अपनी स्वयं की साक्ष्य न तो दे सकता है और न ही स्वयं के प्रकरण को सिद्ध कर सकता है।
10.       
इसी क्रम में न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष साहसिक एवं खोजी संस्थान भोपाल विरूद्ध श्री आर.एस.बघेल, 2004(2) एम.पी.एच.टी.-19 एन..सी. में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 दो भागों में है तथा बकाया किराये के आधार पर निष्कासन के विरूद्ध बचाव के लिये यह जरूरी है कि दोनों ही प्रावधानों का सम्यक् पालन किया जाये। न्याय दृष्टांत देवेन्द्र चैधरी विरूद्ध वारसीलाल दुआ 2005(2) जे.एल.जे.-149 में इस संबंध में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि धारा 13 के प्रावधानों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है और उसका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है तो उपलब्ध बचाव किरायेदार को प्राप्त नहीं होगा।
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11.       
वर्तमान मामले में अपीलार्थी/प्रतिवादी ने प्रत्यर्थी/वादी के साथ भवन स्वामी, किरायेदार के संबंधों को विवादित किया है तथा इस क्रम में यह तर्क किया है कि ऐसी स्थिति में ’अधिनियम’ की धारा 13 के प्रावधान आकर्षित नहीं होते हैं, लेकिन यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। इस विषय में न्याय दृष्टांत तुलसीराम विरूद्ध राधाकिषन 1979(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-53(.प्र.) तथा केदार नाथ विरूद्ध अर्जुनराम, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-26 में यह विधिक प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 को आकर्षित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि प्रथमतः पक्षकारों के मध्य भवन स्वामी तथा किरायेदार के सम्बन्धों के विवाद को निराकृत किया जाये। यदि ’अधिनियम’ की धारा 12(1) के आधार पर निष्कासन चाहा गया है तो ’अधिनियम’ की धारा 13(1) के प्रावधानों की प्रयोज्यता इस आधार पर वर्जित नहीं हो जायेगी कि भवन स्वामी तथा भाड़ेदार के सम्बन्धों को स्वीकार नहीं किया गया है। इसी क्रम में न्याय दृष्टांत मानाराम विरूद्ध ओमप्रकाष, 1990 जे.एल.जे. 19 भी अवलोकनीय है।
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24.       
सद्भाविक आवष्यकता के संबंध में जहाॅं तक विधिक स्थिति का संबंध है, ऐसी आवष्यकता का अर्थ ईमानदारीपूर्ण आवष्यकता से है। किसी किरायेदार को मकान मालिक की इच्छा मात्र के आधार पर निष्कासित नहीं किया जा सकता है तथा मकान मालिक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय के समक्ष विष्वसनीय साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध करे कि उसे न केवल मकान की आवष्यकता है बल्कि यह आवष्यकता वास्तविक एवं सद्भावनापूर्ण है, संदर्भः- न्याय दृष्टांत टी.बी.सरपटे वि. नेमीचंद, 1966 एम.पी.एल.जे. सु.को. 26 एवं गोगाबाई वि. धनराज, 1990(2) वि.नो. 92। अभिकथित आवष्यकता के बारे में न्यायालय को मामले के तथ्यांे एवं परिस्थितियों के आधार पर वस्तुपरक रूप से भवन स्वामी की मांग का मूल्यांकन करना चाहिये और कथित आवष्यकता की सद्भावना का निर्णय करना चाहिये, संदर्भ:- ताहिर अली आदि विरूद्ध समद खाॅन, 1997 एम.पी..सी.जे. 25. माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा षिवस्वरूप गुप्ता वि. डाॅ.महेषचंद गुप्ता, सिविल अपील क्र. 4166/99 निर्णय दिनाॅंकित 30.7.1999, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत प्रेमकुमार वि. कन्हैयालाल (2000) (2) एम.पी.वी.नो. 4 में किया गया है, में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी द्वारा अनुभव की जा रही आवष्यकता, वास्तविक और ईमानदारी की इच्छा के परिणाम पर आधारित है, वहाॅं भूस्वामी निष्कासन की आज्ञप्ति प्राप्त करने का अधिकारी है तथा ऐसे मामले में न्यायाधीष को स्वयं को भू-स्वामी की स्थिति में रखकर यह पता लगाना चाहिये कि क्या आवष्यकता सद्भाविक, वास्तविक एवं ईमानदारीपूर्ण है। न्यायालय को ऐसे मामले में अपनी राय भवन स्वामी पर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
25.       
न्याय दृष्टांत सरला आहूजा वि. यूनाईटेड इंडिया इंष्योरेंस कंपनी, 1998 (8) एस.सी.सी.119 में इस क्रम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी अपनी अभिकथित आवष्यकता के बारे में प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करता है, वहाॅं उसके पक्ष में उसकी आवष्यकता के सद्भाविक होने की अवधारणा उत्पन्न हो जाती है तथा किरायेदार को भवन स्वामी पर अपनी यह राय थोपने का आधार नहीं रह जाता है कि भवन स्वामी अपने आप को अन्यत्र व्यवस्थित करे। न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी..सी.जे. 278 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र। पूर्वोक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सद्भाविक आवष्यकता के बिन्दु पर वर्तमान मामले की तथ्यस्थिति पर विचार करना होगा।
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31.       
जहाॅं तक ’विवादित भवन’ में प्रत्यार्थी/वादी के स्वत्व की इंकारी के आधार पर ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन का अनुतोष प्रदान किये जाने का सम्बन्ध है, यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि व्युत्पन्न स्वत्व के मामले में प्रतिवादी द्वारा भवन स्वामी के स्वत्व से इंकार करना ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन के आधार को निर्मित नहीं कर सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत शीला बनाम फर्म प्रहलाद राय प्रेमप्रकाष, 2002(2) एम.पी.एच.टी. 232 सु.को., कौषल्या बाई बनाम विनोद कुमार, 1994 एम.पी..सी.जे. 369, बजरंगलाल वर्मा विरूद्ध ज्ञासू बाई, 2004(4) एम.पी.एल.जे. 192 तथा देवसहायम विरूद्ध पी.सावित्रथमा (2005) 7 एस.सी.सी.-653 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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16.       
अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता ने न्याय दृष्टांत के.कनकरत्नम विरूद्ध ए.पेरूमल व अन्य, .आई.आर. 119 मद्रास-247, अप्पा बाबाजी मिसल पाटिल व अन्य विरूद्ध दागडू चंद्रू मिसल, .आई.आर. 1995 बाम्बे-333, गणेष प्रसाद विरूद्ध श्रीनाथ, 1986 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 193 तथा रघुनाथ सिंह विरूद्ध अर्जुन सिंह, 1993, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 208 का अवलंब लेते हुये इस न्यायालय का ध्यान इस सुस्थापित विधिक स्थिति की ओर आकर्षित किया है कि किसी भी पक्षकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ऐसी साक्ष्य का कोई महत्व नहीं है, जो अभिवचनों से परे जाकर नये मामले का गठन करती है, अपितु वही साक्ष्य महत्वपूर्ण है, जो अभिवचनों के अनुरूप है। निष्चिय ही उक्त विधिक स्थिति अनेकानेंक न्याय निर्णयों के द्वारा सुस्थापित है, जिसके विषय में दो मत नहीं हो सकते है।
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हिबानामा’ स्मरण लेख का पंजीयन। इस क्रम में आलोच्य निर्णय में संदर्भित न्याय दृष्टांत छोटा उदान्दु साहिब विरूद्ध मस्तान बी, .आई.आर.-1975, आंध्रप्रदेष-271 का वह अंष विषेष रूप से संदर्भ योग्य है, जिसमें यह कहा गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह आवष्यक नहीं है कि वैध उपहार के लिये ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया होे, लेकिन यदि ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया है तो सम्पत्ति अंतरण अधिनियम तथा पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के प्रकाष में उसका पंजीकृत होना आवष्यक है, केवल उन मामलों को छोड़कर जहाॅं ऐसा प्रलेख पूर्व से सम्पादित ’हिबा’ का स्मरण लेख मात्र है।
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वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं                 20.        प्र.डी-4 उस आवेदन की प्रमाणित प्रतिलिपि बतायी जाती है, जो कथित रूप से तमकीना बी ने नामांतरण हेतु दिनाॅंक 01.04.2004 को तहसीलदार सीहोर के समक्ष प्रस्तुत किया। न्याय दृष्टांत फेकन बाई विरूद्ध रामसिंह व अन्य, 1968 जे.एल.जे.-षार्टनोट-23, जिसका अवलंब अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता के द्वारा लिया गया है, के साथ-साथ न्याय-दृष्टांत अक्षय कुमार बोस विरूद्ध सुकुमार दत्ता, .आई.आर. 1951 कलकत्ता-320, युसुफ हसन विरूद्ध रौनक अली, .आई.आर. 1993, अवध-54 तथा मनबोध विरूद्ध हीरा साय, .आई.आर. 1926 नागपुर-339 के मामलों में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं आते हैं। ऐसी स्थिति में न तो उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत लोक प्रलेख माना जा सकता है और न ही धारा 77 के अंतर्गत ऐसे प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य है। निष्चय ही आवेदन पत्र की स्थिति वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र से बेहतर नहीं हो सकती है। ऐसी दषा में प्र.डी-4 को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 77 के अंतर्गत लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

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राजस्व न्यायालय में लेखबद्ध  साक्षी के कथन लोक प्रलेख नहीं                22.        अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता ने इस संबंध में न्याय दृष्टांत षिवलाल आदि विरूद्ध चैतराम आदि, .आई.आर. 1971 एस.सी. 2342 (1971-जे.एल.जे.-षार्टनोट-4) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया है कि राजस्व न्यायालय में लेखबद्ध किये गये किसी साक्षी के कथन को लोक प्रलेख नहीं माना जा सका है तथा ऐसे कथन की प्रमाणित प्रतिलिपि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 77 के अंतर्गत लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य नहीं है। इस तर्क पर विचार करने से पूर्व अवलंबित न्याय दृष्टांत के सुसंगत पैरा-7 को उद्धृत करना उचित होगा, जो निम्नवत है:-


7. We shall first take up the mortgage said to have been executed on December 21, 1895. Prima facie the suit in respect of this property is barred by time but it is said that in view of the acknowledgment made by mortgagors under the original of Ex. P-5 dated 22-6-1906, the suit is within time. There is no satisfactory material to show that Ex. P-5 relates to the mortgage in question. It is not necessary to go into that question in detail as in our opinion; it was impermissible for the Courts below to rely on Ex. P-5 for the purpose of acknowledgment. Ex. P-5 is a certified copy of a statement said to have been made in a mutation proceeding. Its original has not been produced. No witness has been examined to speak to the fact that the persons who are shown to have signed the original have in fact signed the same or those persons were the mortgagors or their representatives. The signature on the original cannot be proved by production of a certified copy. Nor can the Courts raise any presumption under Sec. 90 of the Evidence Act in that regard. See Harihar Prasad Singh v. Must. of Munshi Nath Prasad, 1956 SCR 1 = (AIR 1956 SC 305). The High Court and the 1st appellate Court erroneously thought that they could presume that the persons mentioned as the executants in the copy have signed the original on the strength of Section 44 of the Punjab Land Revenue Act and Section 114 (e) of the Evidence Act. Section 44 of the Punjab Land Revenue Act deals with the presumption as regards an entry in the record of rights. Herein we are not concerned with any entry in the record of rights. We are concerned with the genuineness of the signature in the original of Ex. P-5 and the identification of the persons who signed it. Hence that section affords no aid. Section 114 (e) of the Evidence Act says that Court may presume that judicial and official acts have been regularly performed. Herein we are not concerned with the regularity of the performance of any official act. The identification of an executant or genuineness of a signature in a statement filed before an official has nothing to do with the regularity of his act unless it is shown that he had a duty to identify the person who signed it and further to take the signature in his presence. Therefore Ex. P-5 cannot serve as an acknowledgment of the mortgage. Hence the plaintiffs claim to redeem the mortgage in respect if Item No. 2 of the plaint must fail.”
23.        न्याय दृष्टांत षिवलाल (पूर्वोक्त) के उक्त उद्धृत अंष के सावधानी पूर्वक अवलोकन से यह प्रकट होता है कि उक्त मामले मंे विवाद प्रधानतः यह था कि क्या बंधक मोचन हेतु प्रस्तुत किया गया वाद काल-बाधित है ? उक्त मामले में प्रलेख प्र.पी-5 नामांतरण कार्यवाही में लेखबद्ध किये गये कथन की प्रमाणित प्रतिलिपि थी तथा प्रष्न यह था कि क्या यह उपधारणा की जा सकती है कि, जिन व्यक्तियों के द्वारा मूल कथन पर हस्ताक्षर किया जाना अभिकथित है, उन्होंने वास्तव में मूल कथन पर हस्ताक्षर किये थे तथा ऐसे हस्ताक्षरकर्ता बंधककर्ता तथा उनके प्रतिनिधि थे। माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह पाया कि यह संतोषजनक प्रमाण नहीं था कि प्र.पी-5 विवादित बंधक के विषय में था तथा यह ठहराया गया कि प्र.पी-5 को अभिस्वीकृति के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता था एवं प्रमाणित प्रतिलिपि से मूल पर किये गये हस्ताक्षरों के प्रमाणित होने के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है।
24.       
निष्चय ही इस अवलंबित न्याय दृष्टांत में ऐसा कोई प्रतिपादन नहीं किया गया है कि राजस्व न्यायालय के समक्ष सम्पादित कार्यवाही में लेखबद्ध किया गया किसी साक्षी का कथन लोक प्रलेख नहीं है तथा ऐसे कथन की प्रमाणित प्रतिलिपि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 77 के अंतर्गत ग्राह्य नहीं है अतः अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा किया गया उक्त तर्क स्वीकार योग्य नहीं है।
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34.       
जहाॅं तक परिसीमा का सम्बन्ध है, वादपत्र की कंडिका 3 में यह प्रकट किया गया है कि दिनाॅंक 06.02.2007 को खसरे की प्रमाणित प्रतिलिपि प्राप्त करने पर अपीलार्थीगण को प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के पक्ष में हुये नामांतरण की जानकारी मिली, लेकिन जैसा कि पूर्व विष्लेषण से प्रकट हुआ है कि प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 का आधिपत्य ’विवादित भूमि’ पर 25-26 साल से चला आ रहा है। तमकीना बी के जीवनकाल में ही तमकीना बी की प्रार्थना पर दिनाॅंक 25.05.2004 को राजस्व न्यायालय के द्वारा प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के पक्ष में नामांतरण भी कर दिया गया। न्याय दृष्टांत आर.के. मोहम्मद ओबेदुल्ला विरूद्ध हाजी सी. अब्दुल बहात, .आई.आर. 2001 एस.सी. 1658 पैरा 15 मंें सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण क्र.2 के प्रकाष में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वास्तविक आधिपत्य आधिपत्यधारी के स्वत्व के विषय में विविक्षित सूचना के समरूप है। यह नहीं कहा जा सकता कि अपीलार्थीगण, जो प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के निकट संबंधी है तथा जिन्होंने वादपत्र के शीर्षक में ग्राम उलझावन का निवासी दर्षाया गया है, को प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के ’विवादित भूमि’ पर आधिपत्यधारी होने की सूचना नहीं रही होगी। यह भी प्रकट है कि तमकीना बी द्वारा की गयी प्रार्थना के क्रम में जो नामांतरण  प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के पक्ष में किया गया, उसके बारे में इष्तहार जारी किया गया, जिसकी प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.डी-3 अभिलेख पर मौजूद है, प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 युसुफ अली ने अपने सषपथ कथन मंे यह कहा है कि इस इष्तहार पर अपीलार्थी/वादी क्र.1 ने भी हस्ताक्षर किये थे (षपथपत्र का पैरा-5)। इस कथन को प्रतिपरीक्षण मंे वस्तुतः कोई चुनौती नहीं दी गयी है और न ही कोई प्रतिकूल सुझाव इस साक्षी को इस बारे में दिया गया है ऐसी स्थिति में उक्त अखण्डित साक्ष्य, जिसकी संपुष्टि प्र.डी-3 से भी होती है, पर अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है। अपीलार्थीगण को ’विवादित भूमि’ पर प्रत्यार्थी/प्रतिवादी क्र.1 के आधिपत्यधारी होने की जानकारी सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के प्रावधानों के प्रकाष में प्रारंभ से होना अवधारित की जाना चाहिये तथा चूॅकि नामांतरण कार्यवाही की जानकारी अपीलार्थी/वादी क्र.3 को नामांतरण कार्यवाही के दौरान ही हो गयी थी, ऐसी स्थिति में उन्हें वाद कारण उसी समय उपलब्ध था, लेकिन इसके बावजूद यह वाद दिनाॅंक 11.09.2007 अर्थात् वाद कारण उद्भूत होेने के तीन वर्ष बाद प्रस्तुत किया गया, जो परिसीमा के अंदर नहीं माना जा सकता है। अतः विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा अभिलिखित उक्त निष्कर्ष अभिलेखगत साक्ष्य अथवा सुसंगत विधिक स्थिति के प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता है।
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अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य--इस क्रम में न्याय दृष्टांत सिद्दीक मोहम्मद शाह विरूद्ध मुसम्मात सरन, .आई.आर. 1930 पी.सी. 57 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य, चाहे उसकी मात्रा कितनी ही क्यों न हो, को नहीं देखा जा सकता है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत प्रेमचंद पाण्डे विरूद्ध सावित्री पाण्डे, .आई.आर. 1999 (इलाहाबाद)-43, कुलसुमन्निसां विरूद्ध अहमदी बेगम, .आई.आर. 1972 (इलाहाबाद)-219, पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध मीर फकीर मोहम्मद, .आई.आर. 1977 (कलकत्ता)-29 एवं इंदरमल विरूद्ध रामप्रसाद, .आई.आर. 1962 एम.पी.एल.जे. 781 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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इस विधिक स्थिति को स्मरण रखना आवष्यक है कि राजस्व प्रलेखों में किये गये नामांतरण अथवा राजस्व प्रलेखों में की गयी प्रविष्टियाॅं अपने आप में न तो स्वत्व प्रदान करती है और न ही स्वत्व का हरण करती हैं, क्योंकि किसी भी अचल सम्पत्ति में स्वत्व अर्जन या स्वत्व की समाप्ति विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही हो सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत दुर्गादास विरूद्ध कलेक्टर, (1996) 5 एस.सी.सी.-618 तथा शांतिबाई आदि विरूद्ध फूलीबाई आदि, 2007(2) एम.पी.एल.जे.-121  सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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8.       
प्रकरण में प्रस्तुत अभिसाक्ष्य का विष्लेषण करने के पूर्व मुस्लिम विधि के अंतर्गत वैवाहिक संबंधों के पुनसर््थापन संबंधी अधिकार के विषय में सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात आवष्यक है। न्याय दृष्टांत अनीष बेगम विरूद्ध मो. इष्तफा वली खाॅ, .आई.आर.-1933 (इलाहाबाद)-634 के मामले में यह ठहराया गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना का वाद विनिर्दिष्टतः अनुपालन के वाद की प्रकृति का है तथा ऐसे अधिकार को प्रवृत्त किये जाने के लिये लाये गये वाद में मुस्लिम विधि के सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है। दाम्पत्य संबंधों के पुनसर््थापन के अधिकार के विषय में ऐसा कोई परम अधिकार नहीं है कि पति बिना शर्त पत्नी को अपने साथ रखने के लिये बाध्य कर सके तथा न्यायालय को इस बारे में मामले की परिस्थितियों को देखते हुये विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिये।
9.       
न्याय दृष्टांत इतवारी विरूद्ध श्रीमती अगरी आदि, .आई.आर. 1960 (इलाहाबाद)-684 के मामले में, जहाॅं भरण-पोषण हेतु याचिका प्रस्तुत किये जाने के बाद पति ने दाम्पत्य संबंधों के पुनसर््थापन के लिये वाद संस्थित किया था तथा पत्नी द्वारा वाद का विरोध इस आधार पर किया गया था कि पति उसके साथ दुव्र्यवहार करता है एवं वाद केवल इसलिये लाया गया है ताकि वह भरण-पोषण के दायित्व से अपने आपको बचा सके, न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना का अनुतोष संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की प्रकृति का होकर साम्य प्रकृति का अनुतोष है एवं साम्यिक सिद्धांतों के अंतर्गत ही उसे स्वीकृत या अस्वीकृत किया जाना चाहिये। उक्त मामले में दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना का अनुतोेेष प्रदान न किया जाना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित ठहराया गया।
10.       
न्याय दृष्टांत शकीला बानू विरूद्ध गुलाम मुष्तफा, .आई.आर. 1971 (मुंबई)-166 की कंडिका 6 एवं 8 में किया गया प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि यदि पत्नी, पति के विरूद्ध क्रूरता का आक्षेप लगा रही है तो सामान्यतः इस संबंध में उसकी अभिसाक्ष्य के लिये संपुष्टिकारक साक्ष्य की मांग किया जाना अपेक्षित नहीं है।
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11.       
अपीलार्थी/वादी की ओर से लिये गये आधार के संबंध में सर्वप्रथम अभिवचनों एवं प्रमाण के विषय में सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात आवष्यक है। यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पक्षकार उन्हीं अभिवचनों के अनुरूप साक्ष्य दे सकता है, जो उसके द्वारा किये हैं न कि उनके विपरीत। न्याय दृष्टांत गंगाधर राव विरूद्ध गोलापल्ली गंगाराव, .आई.आर. 1968 (आंध्रप्रदेष) 291 तथा ओमप्रकाष ओमप्रभा जैन विरूद्ध अबनाषचंद्र, .आई.आर. 1968 (एस.सी.) 1083 इस विधिक स्थिति के संबंध में सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि एक पक्षकार अपने मामले को अभिवचनों के अनुरूप ही प्रमाणित करने का अधिकार रखता है तथा वह ऐसे किसी आधार पर सफलता का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बारे में उसके द्वारा अभिवचन ही नहीं किया गया है। भिन्न शब्दों में पक्षकार उस मामले से, जो उसके द्वारा अभिवचनित किया गया है, भिन्न मामला साक्ष्य के द्वारा अभिवचनों में संषोधन किये बिना न्यायालय के समक्ष नहीं ला सकता है। न्याय दृष्टांत विनोद कुमार विरूद्ध सूरज कुमार, .आई.आर. 1987 (एस.सी.) 179 के मामले में प्रतिवादी ने यह अभिवचन किया था कि किरायेदारी नैवासिक उद्देष्य के लिये है, उसे साक्ष्य के द्वारा यह स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी कि किरायेदारी गैर-नैवासिक उद्देष्य के लिये थी।
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15.       
अभिवचन में संषोधन समाविष्ट किये जाने बाबत् यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि ऐसे अभिवचन जिनसे वाद का स्वरूप नहीं बदलता है अथवा जो वाद के संस्थित किये जाने के बाद पष्चात्वर्ती परिस्थितियों के क्रम में जोड़ना आवष्यक हुये हैं, उनहें युक्तियुक्त शर्तों के साथ अनुज्ञात किया जाना चाहिये। संदर्भ- किशोरीलाल विरूद्ध बालकिशन एवं एक अन्य, 2006(2)एम.पी.जे.आर. 233.वर्तमान मामले में प्रत्यार्थी क्र.1/वादी की ओर से विवादित भूमि पर आधिपत्यधारी होने का अभिवचन किया गया था तथा पष्चात्वर्ती घटना के रूप में जून-1992 में आधिपत्यधारी किये जाने का अभिवचन जोड़ने की अनुमति चाही गयी, जो विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में अनुज्ञेय थी अतः यह नहीं कहा जा सकता है विद्वान विचारण न्यायालय  द्वारा पारित तत्संबंधित आदेष विधि सम्मत नहीं है।
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न्याय दृष्टांत चैनसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 1992 राजस्व निर्णय-277 में माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख में कब्जा सौंपने तथा प्रतिफल का संदाय किये जाने विषयक बिन्दु निष्पादक और उसके कुटुम्ब के सदस्यों पर भी आबद्धकर है, जब तक कि उसके विपरीत किये गये अभिकथनों को समाधानप्रद स्पष्टीकृत न कर दिया जाये। न्याय दृष्टांत नौनितराम विरूद्ध हीरा 1980(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-148 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय पत्र में आधिपत्य सौंपे जाने के विषय में किये गये उल्लेख को अन्यथा प्रमाणित न किये जाने की दषा में विलेख को सही अवधारित किया जाना चाहिये जब तक कि अन्यथा प्रमाणित न कर दिया जाये।
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12.       
अपीलार्थी की ओर से न्याय दृष्टांत बूलचंद विरूद्ध अटलराम सिंधी धर्मषाला ट्रस्ट व अन्य 1997 एम.पी..सी.जे. 255 का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 3(2) का लाभ तभी मिल सकता है जबकि न्यास की सम्पूर्ण आय का उपयोग धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देष्यों के लिये किया जा रहा हो।

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