Friday, 9 May 2025

अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट

*अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सार्वजनिक प्रवचन और मीडिया जांच के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि अदालतों, खुले और सार्वजनिक संस्थानों के रूप में, टिप्पणियों, बहस और रचनात्मक आलोचना के प्रति ग्रहणशील रहना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि जब कोई मामला विचाराधीन होता है, तब भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करना महत्वपूर्ण होता है। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने कहा, ''हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की जरूरत है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन क्यों न हो।

खंडपीठ ने उदार लोकतंत्र को बनाए रखने में न्यायपालिका और मीडिया द्वारा निभाई गई पूरक भूमिकाओं को भी रेखांकित किया, दोनों संस्थानों को भारत के संवैधानिक ढांचे के "मूलभूत स्तंभ" कहा। कोर्ट ने कहा, 'उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को रद्द करते हुए ये टिप्पणियां कीं कि समाचार एजेंसी एएनआई के विकिपीडिया के खिलाफ मानहानि मामले के बारे में विकिपीडिया पेज "प्रथम दृष्टया अवमाननाकारी" था। हाईकोर्ट ने उस पेज को हटाने का निर्देश दिया था, जिसमें बताया गया था कि न्यायाधीश ने चेतावनी दी थी कि अगर उन्होंने एएनआई के खिलाफ की गई कथित अपमानजनक टिप्पणी को नहीं हटाया तो विकिपीडिया भारत में बंद कर दिया जाएगा।

हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए, विकिमीडिया फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जस्टिस भुइयां द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया: उन्होंने कहा कि एक सार्वजनिक और खुली संस्था के रूप में अदालतों को सार्वजनिक टिप्पणियों, बहस और आलोचनाओं के लिए हमेशा खुला रहना चाहिए। वास्तव में, अदालतों को बहस और रचनात्मक आलोचना का स्वागत करना चाहिए। हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर लोगों और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की आवश्यकता होती है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन हो।

तथापि, आलोचना करने वालों को यह याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश ऐसी आलोचना का उत्तर नहीं दे सकते हैं लेकिन यदि कोई प्रकाशन न्यायालय या न्यायाधीश या न्यायाधीशों को बदनाम करता है और यदि अवमानना का मामला बनता है, जैसा कि न्यायमूत अय्यर ने छठे सिद्धांत में उल्लेख किया है, तो निश्चित रूप से न्यायालयों को कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन मीडिया को यह कहना अदालत का काम नहीं है कि इसे हटा दो, इसे हटा दो।

किसी भी प्रणाली के सुधार के लिए जिसमें न्यायपालिका शामिल है, आत्मनिरीक्षण महत्वपूर्ण है। यह तभी हो सकता है जब अदालत के समक्ष आने वाले मुद्दों पर भी मजबूत बहस हो। न्यायपालिका और मीडिया दोनों ही लोकतंत्र के मूलभूत स्तंभ हैं जो हमारे संविधान की मूल विशेषता है। एक उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए, दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। इससे पहले, किसानों के विरोध प्रदर्शन के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक मुद्दा तैयार किया था कि क्या किसी ऐसे मुद्दे पर सार्वजनिक विरोध की अनुमति दी जा सकती है जो अदालत के समक्ष विचाराधीन है।



Sunday, 4 May 2025

138 चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया

चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया 

हाई कोर्ट ने इस कंफ्यूजन को किया दूर-

अब तक कई लोगों के बीच संशय बना हुआ था कि ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा गया नोटिस (cheque bounce notice rules) मान्य नहीं होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने यह कंफ्यूजन दूर कर दी है। कोर्ट के अनुसार चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से नोटिस भेजा जाता है तो इसे अमान्य नहीं कहा जा सकता है।

      यह वैध (cheque bounce valid notice) और मान्य होगा, बस वह आईटी एक्ट की धारा 13 में दिए गए प्रावधानों के अनुसार होना चाहिए। अब फोन से व्हाटसएप, ईमेल करके चेक बाउंस का डिमांड नोटिस (demand notice) भेजा जाता है तो वह वैध होगा। 

ई-मेल से भेजे नोटिस को दिया वैध करार-

चेक बाउंस का यह मामला राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (UP govt) से जुड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (Negotiable Instruments Act) की धारा 138 इस बात को सही मानती है कि कोई लिखित नोटिस है तो वह मान्य होगा। इस धारा में नोटिस कैसे लिखा या टाइप करके किस माध्यम से भेजा, यह नहीं कहा गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने इस आधार पर चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजे गए नोटिस को वैध व मान्य करार दिया है।

एविडेंस एक्ट की धारा 65 बी का दिया हवाला - 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चेक बाउंस (how to send cheque bounce notice ) के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट व आईटी एक्ट में दिए गए प्रावधानों की पड़ताल करके यह निर्णय सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि आईटी कानून (IT Act) में स्पष्ट किया गया है कि चेक बाउंस के मामले में कोई जानकारी लिखित या टाइप हो और यह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भेजी जाती है तो इसे सही माना जाएगा, बशर्ते की इसका प्रूफ रखना होगा।

आईटी कानून के सेक्शन 4 और 13 का भी हाईकोर्ट ने इस बात की पुष्टि के लिए हवाला दिया है। इसके अलावा इंडियन एविडेंस एक्ट (Indian Evidence Act) की धारा 65 बी का भी निर्णय सुनाते हुए हवाला दिया। इस धारा में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार करने की बात कही गई है।

राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार

 



Thursday, 1 May 2025

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules


Gratuity Rules: देश के सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। हाल ही में हाईकोर्ट ने ग्रेच्युटी (Gratuity) के मामले में कर्मचारियों के हित में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इस फैसले के अनुसार, योग्य कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है और उन्हें पूरा लाभ मिलना चाहिए। यह फैसला लाखों कर्मचारियों के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है।
ग्रेच्युटी एक महत्वपूर्ण सेवानिवृत्ति लाभ है जो कर्मचारियों को लंबे समय तक एक ही संगठन में काम करने पर मिलता है। यह रकम उनके भविष्य की आर्थिक सुरक्षा का एक अहम हिस्सा होती है और कई परिवारों के लिए इसका बहुत अधिक महत्व होता है। कई बार देखा गया है कि नियोक्ता विभिन्न कारणों से इस राशि में कटौती करते हैं या भुगतान में देरी करते हैं, जिससे कर्मचारियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

हाईकोर्ट के फैसले का महत्व
हाईकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि अगर कोई कर्मचारी न्यूनतम आवश्यक सेवा अवधि पूरी कर चुका है, तो उसे पूरी ग्रेच्युटी राशि का भुगतान अनिवार्य रूप से मिलना चाहिए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि नियोक्ता किसी भी परिस्थिति में ग्रेच्युटी देने से इनकार नहीं कर सकते, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो।

इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अब कर्मचारियों को उनके कानूनी अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी। अक्सर देखा जाता है कि ग्रेच्युटी के भुगतान में नियोक्ताओं द्वारा विभिन्न बहाने बनाए जाते हैं, लेकिन अब इस फैसले के बाद ऐसा करना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट संदेश है कि कर्मचारियों के हितों की रक्षा होनी चाहिए।

ग्रेच्युटी क्या है और कब मिलती है?

ग्रेच्युटी एक प्रकार का धन्यवाद स्वरूप दिया जाने वाला पारितोषिक है, जो कर्मचारियों को उनकी लंबी और निष्ठापूर्ण सेवाओं के लिए दिया जाता है। यह रकम नौकरी छोड़ने, सेवानिवृत्ति या कर्मचारी की मृत्यु के मामले में उसे या उसके परिवार को दी जाती है। ग्रेच्युटी पाने के लिए कर्मचारी को कम से कम 5 साल तक एक ही कंपनी या संगठन में सेवा करनी होती है।

यह नियम सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों पर लागू होता है, लेकिन निजी क्षेत्र में यह केवल उन्हीं संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। 5 साल की सेवा अवधि पूरी करने के बाद, कर्मचारी जिस भी कारण से नौकरी छोड़ता है, वह ग्रेच्युटी का हकदार होता है, चाहे वह स्वेच्छा से इस्तीफा दे या फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाए।

ग्रेच्युटी की गणना कैसे होती है?
ग्रेच्युटी की गणना के लिए एक विशेष फॉर्मूला निर्धारित किया गया है। इस फॉर्मूले के अनुसार, ग्रेच्युटी की राशि की गणना इस प्रकार होती है: (अंतिम बेसिक सैलरी + डीए) × काम किए गए वर्ष × 15/26। यहां, अंतिम बेसिक सैलरी और डीए (महंगाई भत्ता) का मतलब कर्मचारी के आखिरी महीने का वेतन होता है।

उदाहरण के लिए, अगर किसी कर्मचारी का अंतिम बेसिक वेतन और डीए 30,000 रुपये है और उसने किसी संगठन में 10 साल तक काम किया है, तो उसकी ग्रेच्युटी की राशि होगी: (30,000 × 10 × 15) ÷ 26 = 1,73,076 रुपये। यह राशि काफी महत्वपूर्ण हो सकती है, खासकर उन कर्मचारियों के लिए जिन्होंने एक संगठन में लंबे समय तक सेवा की है।

हाईकोर्ट के फैसले से कर्मचारियों को क्या फायदा होगा?
हाईकोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले के बाद अब कर्मचारियों को कई प्रकार के फायदे मिलेंगे। सबसे पहले, अब नियोक्ता द्वारा ग्रेच्युटी रोकने, कम करने या भुगतान में देरी करने की स्थिति में कर्मचारी सीधे कोर्ट में शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इससे उन्हें न्याय प्राप्त करने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा।

दूसरा महत्वपूर्ण फायदा यह है कि कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि अगर नियोक्ता ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करता है, तो उसे इस राशि पर ब्याज भी देना होगा। यह ब्याज दर काफी अधिक हो सकती है, इसलिए नियोक्ताओं के लिए अब ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करना महंगा पड़ सकता है। इससे समय पर भुगतान सुनिश्चित होगा।

किन कर्मचारियों को मिलेगा इस फैसले का लाभ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का लाभ देश के सभी सरकारी कर्मचारियों और उन निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलेगा जहां 10 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। इसमें सभी प्रकार के कर्मचारी शामिल हैं, चाहे वे रिटायरमेंट के कारण सेवानिवृत्त हुए हों, नौकरी छोड़ी हो या फिर कर्मचारी की मृत्यु हो गई हो।

विशेष रूप से, यह फैसला उन कर्मचारियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जिन्हें पहले ग्रेच्युटी के भुगतान में समस्याओं का सामना करना पड़ा है। अब वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि उन्हें कानून के अनुसार पूरा लाभ मिले। यह फैसला देश के लाखों कर्मचारियों के परिवारों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करेगा।

ग्रेच्युटी का महत्व कर्मचारियों के जीवन में
ग्रेच्युटी एक ऐसी राशि है जो कर्मचारियों के सेवानिवृत्त जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह एकमुश्त राशि उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और सेवानिवृत्ति के बाद के जीवन में होने वाले खर्चों को पूरा करने में मदद करती है। बहुत से लोग इस राशि का उपयोग अपना घर खरीदने, बच्चों की शिक्षा या शादी के खर्च, या फिर स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए करते हैं।

कई परिवारों के लिए, ग्रेच्युटी उनकी जीवन भर की बचत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। इसीलिए इसका समय पर और पूरा भुगतान सुनिश्चित होना बहुत जरूरी है। हाईकोर्ट के इस फैसले से यह सुनिश्चित होगा कि कर्मचारियों के जीवन भर के परिश्रम का उचित मूल्य उन्हें मिले और उनका भविष्य सुरक्षित रहे।

नियोक्ताओं के लिए क्या हैं निहितार्थ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का नियोक्ताओं पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। अब उन्हें ग्रेच्युटी के भुगतान को लेकर अधिक सावधानी बरतनी होगी और कानूनी प्रावधानों का सख्ती से पालन करना होगा। अगर वे ग्रेच्युटी के भुगतान में चूक करते हैं या देरी करते हैं, तो उन्हें कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है और अतिरिक्त ब्याज भी देना पड़ सकता है।

नियोक्ताओं को अब अपने वित्तीय प्रबंधन में ग्रेच्युटी के भुगतान को प्राथमिकता देनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी परिस्थिति में, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, कर्मचारियों के ग्रेच्युटी के अधिकार का उल्लंघन न हो। इससे नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का माहौल बनेगा और कार्यस्थल पर सकारात्मक वातावरण का निर्माण होगा।

ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और क्या सुधार की आवश्यकता है?
हालांकि हाईकोर्ट के इस फैसले से कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है, लेकिन ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और भी सुधार की आवश्यकता है। सबसे पहले, ग्रेच्युटी अधिनियम केवल उन संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। छोटे संगठनों में काम करने वाले कर्मचारियों को भी इस लाभ का विस्तार करने की आवश्यकता है।

दूसरा, वर्तमान में ग्रेच्युटी पर कर छूट की सीमा 20 लाख रुपये है। महंगाई और वेतन में वृद्धि को देखते हुए इस सीमा को बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि कर्मचारियों को अधिक लाभ मिल सके। साथ ही, ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी पर ब्याज दर को और अधिक स्पष्ट करने की जरूरत है ताकि नियोक्ताओं द्वारा इसका दुरुपयोग न हो सके।
यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्यों के लिए है। हालांकि इसमें दी गई सभी जानकारियां विश्वसनीय स्रोतों से ली गई हैं, फिर भी ग्रेच्युटी से संबंधित नवीनतम नियमों और आधिकारिक जानकारी के लिए पाठकों को संबंधित सरकारी अधिसूचनाओं और कानूनी दस्तावेजों से परामर्श करने की सलाह दी जाती है। किसी भी विसंगति की स्थिति में, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए नवीनतम फैसले और सरकारी अधिसूचनाएं ही मान्य होंगी।


बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता

 बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि बीमा कंपनी चाहती है कि बीमा पॉलिसी जारी करने के लिए फॉर्म में विशिष्ट विवरण दाखिल किए जाएं, तो उसे पॉलिसी चाहने वाले व्यक्ति से इसका खुलासा करने पर जोर देना चाहिए। एक बार जब पॉलिसी ऐसे तथ्यों का खुलासा किए बिना व्यक्ति को जारी कर दी जाती है और बीमा कंपनी द्वारा प्रीमियम वसूल कर लिया जाता है, तो वह तथ्यों को छिपाने/न बताने के आधार पर अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। जस्टिस शेखर बी सराफ और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने कहा, "यदि प्रस्ताव फॉर्म में विशिष्ट प्रश्न पूछे गए हैं, तो बीमाधारक का यह कर्तव्य है कि वह उन विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर दे, लेकिन यदि प्रस्ताव फॉर्म में कोई प्रश्न या कॉलम खाली छोड़ दिया जाता है, तो बीमा कंपनी को बीमाधारक से उसे भरने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी कॉलम को छोड़े जाने के बावजूद बीमा कंपनी प्रीमियम स्वीकार करती है, और उसके बाद पॉलिसी बांड जारी करती है, तो वह बाद के चरण में बीमाधारक के दावे को अस्वीकार नहीं कर सकती। बीमाकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह पिछली पॉलिसी के विवरणों को सत्यापित करे जो पहले से ही उनके पास रिकॉर्ड में हैं।"

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मनमोहन नंदा बनाम यूनाइटेड इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड पर फिर से भरोसा किया गया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि बीमा कंपनी फॉर्म के कुछ विशिष्ट कॉलम दाखिल करना चाहती है, तो उसे उसे दाखिल करने पर जोर देना चाहिए। यदि कॉलम खाली छोड़ दिए जाते हैं और पॉलिसी जारी कर दी जाती है, तो बीमा कंपनी उन कॉलम में तथ्यों को छिपाने या उनका खुलासा न करने के कारण बाद में अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। तदनुसार, न्यायालय ने माना कि एलआईसी ने उन खाली कॉलम के बारे में कोई स्पष्टीकरण मांगे बिना प्रीमियम स्वीकार कर लिया, जहां पिछली पॉलिसियों का खुलासा किया जाना था। यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता की पत्नी की मृत्यु अचानक दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, न कि पिछली बीमारियों के कारण, न्यायालय ने माना कि एलआईसी की कार्रवाई मनमानी थी। विवादित आदेशों को खारिज करते हुए, न्यायालय ने एलआईसी द्वारा बीमित राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।

Monday, 28 April 2025

आर्थिक अपराध के अलग-अलग आधार, हाईकोर्ट को ऐसी FIR को आरंभिक चरण में रद्द करते समय सावधानी बरतनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

आर्थिक अपराध के अलग-अलग आधार, हाईकोर्ट को ऐसी FIR को आरंभिक चरण में रद्द करते समय सावधानी बरतनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी के निदेशक के विरुद्ध आर्थिक अपराधों में उनकी कथित संलिप्तता के लिए दर्ज FIR रद्द करने से इनकार किया। कोर्ट ने यह निर्णय इसलिए दिया, क्योंकि हाईकोर्ट ने इस तथ्य के बावजूद मामला रद्द करने में गलती की कि कंपनी के निदेशकों ने कुछ नकली/छद्म कंपनियां स्थापित कीं और मौद्रिक लेनदेन इन नकली/छद्म कंपनियों को प्रसारित किया गया। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले की खंडपीठ उस मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के निदेशक के विरुद्ध आर्थिक अपराधों से उत्पन्न आपराधिक कार्यवाही केवल इसलिए रद्द की थी, क्योंकि अपीलकर्ता और प्रतिवादी कंपनी के बीच लंबे समय से व्यापारिक लेन-देन चल रहा था और विवाद पूरी तरह से दीवानी (बकाया राशि का भुगतान न करना) लग रहा था।

हाईकोर्ट का निर्णय पलटते हुए जस्टिस वराले द्वारा लिखित निर्णय में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, हरियाणा राज्य और अन्य बनाम (1977) 4 एससीसी 451 के मामले पर भरोसा किया गया, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट को जांच के प्रारंभिक चरण में FIR रद्द करने से बचना चाहिए था। न्यायालय ने कहा, “हाईकोर्ट यह भी ध्यान देने में विफल रहा कि जब आरोपी व्यक्तियों द्वारा रची गई आपराधिक साजिश के बारे में कुछ बुनियादी सामग्री हाईकोर्ट के संज्ञान में लाई गई तो जांच एजेंसी के लिए न्यायालय के समक्ष सच्चाई को उजागर करने की प्रक्रिया में गहन जांच करना आवश्यक था। इस पहलू का ट्रायल केवल उचित सुनवाई करके ही किया जा सकता था।”

न्यायालय ने दोहराया कि यद्यपि CrPC की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट को दी गई शक्तियां व्यापक और विवेकाधीन हैं, लेकिन उनका उपयोग वैध जांच को रोकने के लिए मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा, "यह सच है कि पक्षकारों द्वारा अपने समकक्षों को परेशान करने और पैसे ऐंठने के लिए शामिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर उसके उचित परिप्रेक्ष्य में विचार करे और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्या मामले की जांच की आवश्यकता है या कार्यवाही को रद्द करने की आवश्यकता है। वर्तमान मामले के विशिष्ट तथ्य और परिस्थितियां गहन जांच की मांग करती हैं, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी राशि शामिल थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि जब याचिकाकर्ता ने एफआईआर को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, तब जांच अपने प्रारंभिक चरण में थी। इस न्यायालय में वर्तमान विशेष अनुमति याचिका दायर करने के बाद ऐसा लगता है कि आरोप पत्र दायर करके जांच पूरी कर ली गई।"

आर्थिक अपराध एक अलग वर्ग है, एफआईआर को रद्द करने में सावधानी की आवश्यकता अदालत ने कहा, “परबतभाई अहीर बनाम गुजरात राज्य और अन्य [2017 (9) एससीसी 641] के मामले का संदर्भ लाभदायक हो सकता है, जिसमें यह देखा गया कि आर्थिक अपराध अपनी प्रकृति से निजी पक्षों के बीच विवाद के दायरे से परे हैं। हाईकोर्ट को उस स्थिति में अपराध रद्द करने से मना करना उचित होगा, जब अपराधी वित्तीय या आर्थिक धोखाधड़ी या दुष्कर्म जैसी गतिविधि में शामिल हो। वित्तीय या आर्थिक प्रणाली पर शिकायत किए गए कृत्य के परिणाम संतुलन में होंगे। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्थिक अपराध अपनी प्रकृति से अन्य अपराधों की तुलना में एक अलग स्तर पर हैं। उनके व्यापक प्रभाव हैं। वे एक अलग वर्ग बनाते हैं। आर्थिक अपराध पूरे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं और देश के वित्तीय स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। अगर ऐसे अपराधों को हल्के में लिया जाता है तो जनता का विश्वास और भरोसा डगमगा जाएगा।”

कोर्ट अदालत ने आदेश दिया, "हमारा मानना ​​है कि हाईकोर्ट द्वारा CrPC की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना न्यायोचित नहीं था। तदनुसार, अपील स्वीकार की जाती है। यह स्पष्ट किया जाता है कि उपर्युक्त टिप्पणियां केवल प्रथम दृष्टया प्रकृति की हैं और ट्रायल कोर्ट इस निर्णय/आदेश से प्रभावित हुए बिना और कानून के अनुसार ही आगे बढ़ेगा।" तदनुसार अपील स्वीकार की गई। 

केस टाइटल: दिनेश शर्मा बनाम ईएमजीई केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड और अन्य।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/economic-offences-stand-on-different-footing-high-courts-should-be-cautious-while-quashing-such-firs-at-early-stage-supreme-court-290530

चूक के लिए मुकदमा खारिज करने से उसी कारण से नया मुकदमा दायर करने पर रोक नहीं लगती : सुप्रीम कोर्ट

चूक के लिए मुकदमा खारिज करने से उसी कारण से नया मुकदमा दायर करने पर रोक नहीं लगती : सुप्रीम कोर्ट

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/dismissal-of-suit-for-default-doesnt-bar-fresh-suit-on-same-cause-of-action-supreme-court-290451

Saturday, 5 April 2025

केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

*केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व तहसीलदार के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही रद्द की। कोर्ट इस मामले में यह फैसला दिया कि दुर्भावना या बाहरी प्रभाव के आरोपों के बिना गलत अर्ध-न्यायिक आदेश अकेले अनुशासनात्मक कार्रवाई को उचित नहीं ठहरा सकते। कोर्ट ने कहा कि जब आदेश सद्भावनापूर्वक (हालांकि गलत) पारित किया गया तो यह अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का औचित्य नहीं रखता, जब तक कि आदेश बाहरी कारकों या किसी भी तरह के रिश्वत से प्रभावित न हो।


जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता (जब वह तहसीलदार था) के खिलाफ आदेश पारित करने के 14 साल बाद कथित गलत आदेश पारित करने के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई। संक्षेप में मामला 1997 में तहसीलदार के रूप में अपीलकर्ता ने मप्र भूमि राजस्व संहिता, 1959 की धारा 57(2) के तहत अर्ध-न्यायिक आदेश पारित किया, जिसमें उचित प्रक्रिया (नोटिस, पंचायत संकल्प, पटवारी रिपोर्ट) के बाद कुछ निजी पक्षों के पक्ष में भूमि का निपटान किया गया। आदेश को अंतिम रूप दिया गया, क्योंकि इसे कभी चुनौती नहीं दी गई।


हालांकि, 2009 में उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और 2011 में आरोप पत्र जारी किया गया, जिसमें राज्य को नुकसान पहुंचाने वाले अवैध बंदोबस्त का आरोप लगाया गया। आरोप पत्र को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने मप्र हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अर्ध-न्यायिक कृत्यों के लिए न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 के तहत सुरक्षा की मांग की। साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि आरोप पत्र में बाहरी प्रभाव या भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं है, जिसके लिए 14 साल की अत्यधिक देरी के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।


अस्पष्ट देरी का हवाला देते हुए एकल खंडपीठ ने आरोप पत्र खारिज कर दिया। हालांकि, खंडपीठ ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.के. धवन (1993) पर भरोसा करते हुए एकल जज के आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि लापरवाही/अर्ध-न्यायिक कृत्यों के कारण अनुचित पक्षपात हो सकता है, जिसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई की आवश्यकता हो सकती है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। हाईकोर्ट की खंडपीठ का निर्णय दरकिनार करते हुए जस्टिस मसीह द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया कि भ्रष्टाचार, बाहरी प्रभाव या बेईमानी के आरोपों के बिना केवल "गलत आदेश" अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही को उचित नहीं ठहरा सकते।


कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य, (2019) 10 एससीसी 640 का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए केवल गलत आदेश नहीं, बल्कि कदाचार का सबूत भी आवश्यक है। 


कृष्ण प्रसाद वर्मा के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया, "न्यायिक अधिकारियों द्वारा गलत आदेश दिए जाने पर स्वतः ही अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब तक कि बाहरी प्रभावों के आधार पर कदाचार के आरोप न हों। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित पक्षों को कानून के तहत उपलब्ध सभी उपचारों का लाभ उठाने का अधिकार होगा। यह भी दोहराया गया कि जब तक कदाचार, बाहरी प्रभावों, किसी भी तरह की रिश्वत आदि के स्पष्ट आरोप न हों, तब तक केवल इस आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जानी चाहिए कि न्यायिक अधिकारी द्वारा गलत आदेश पारित किया गया है या केवल इस आधार पर कि न्यायिक आदेश गलत है।" 


मामले के तथ्यों पर कानून लागू करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की: 


“वर्तमान मामले में हमारा विचार है कि आरोपपत्र में अपीलकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोप गलत आदेश की श्रेणी में आते हैं, जो बाहरी कारकों या किसी भी प्रकार की रिश्वत से प्रभावित नहीं प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदेश बिना किसी बेईमानी के सद्भावनापूर्वक पारित किया गया है। इसके अलावा, कारण बताओ नोटिस में उल्लिखित तथ्य ऐसी किसी भी अनुचितता का संकेत नहीं देते हैं। भूमि बंदोबस्त आदेश पारित करते समय अपीलकर्ता द्वारा तहसीलदार के रूप में प्रयोग की गई शक्ति को ऐसी प्रकृति का नहीं माना जा सकता, जिसके लिए उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की आवश्यकता हो। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया, अपीलकर्ता के वकील द्वारा जिस निर्णय पर भरोसा किया गया, वह इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है। परिणामस्वरूप, पहला प्रश्न अपीलकर्ता के पक्ष में उत्तरित किया जाता है।” उपर्युक्त को देखते हुए न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया और एकल पीठ द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए विवादित आदेश रद्द कर दिया। 


केस टाइटल: अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्र

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