Monday 17 February 2014

दाण्डिक मामलों में अभिगृहित एवं प्रस्तुत अथवा अभिरक्षा में ली गई सम्पत्ति के सम्बन्ध में विचारण

प्रश्नः दाण्डिक मामलों में अभिगृहित एवं प्रस्तुत अथवा अभिरक्षा में ली गई सम्पत्ति के सम्बन्ध में विचारण न्यायालय की शक्तियों एवं कत्र्तव्यों की विवेचना कीजिये ।

    दाण्डिक मामलों में अभिगृहित व प्रस्तुत अथवा अभिरक्षा में ली गई संपत्ति के संबंध में विचारण लंबित रहने के दौरान धारा 451 व 457 दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रावधान है जबकि विचारण समाप्ति पर धारा 452, 453, 455, 456 दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रावधान है । इस संबंध में नियम एवं आदेश आपराधिक के नियम 124, 125, 422 से 433 एवं 680 में भी प्रावधान है ।
    धारा 451 द.प्र.सं. के अनुसार जब कोई संपत्ति, किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी जांच या विचारण के दौरान पेश की जाती है तब वह न्यायालय उस जांच या विचारण के समाप्त होने तक ऐसी संपत्ति की उचित अभिरक्षा के लिये ऐसा आदेश, जैसा वह ठीक समझे, कर सकता है और यदि वह संपत्ति शीघ्र या प्राकृतिक रूप से क्षयशील है या यदि ऐसा करना अन्यथा उचित है तो वह न्यायालय ऐसा साक्ष्य अभिलिखित करने के पश्चात जैसा वह आवश्यक समझे उसके विक्रय या उसके अन्यथा व्ययन किये जाने के लिये आदेश कर सकता है ।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजन के लिये ‘‘संपत्ति’’ के अंतर्गत निम्नलिखित हैः-
ए.    किसी भी किस्म की संपत्ति या दस्तावेज जो न्यायालय के समक्ष पेश की जाती है या जो उसकी अभिरक्षा में हो,
बी.    कोई भी संपत्ति जिसके बारे में कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है या जो किसी अपराध के करने में प्रयुक्त की गई  प्रतीत होती हो ।

संपत्ति के बारे में
     माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत श्रीमती नर्मदा वि. मोहम्मद हनीफ 1982 सी.आर.एल.जे. 2330 में यह प्रतिपादित किया है कि धारा 451 द.प्र.सं. में संपत्ति शब्द में चल एवं अचल दोनों संपत्ति शामिल है ।
    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत स्टेट आफ महाराष्ट्र वि. तपश डी नोगी 1999 सी.आर.एल.जे. 4305 में यह प्रतिपादित किया है कि संपत्ति शब्द में बैंक खाते भी शामिल हैं।
    माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत सुरेश नंदा वि. सी.बी.आई. ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1414 में यह प्रतिपादित किया है कि पासपोर्ट संपत्ति नहीं है और उसे धारा 104 द.प्र.सं. 1973 के तहत परिबद्ध नहीं किया जा सकता ।

सपंत्ति के व्ययन या अंतरिम अभिरक्षा के बारे में 
    विचारण लंबित रहने के दौरान संपत्ति के व्ययन के संबंध मंे न्याय दृष्टांत सुंदर भाई अंबालाल देसाई वि. स्टेट आॅफ गुजरात ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 638 में महत्वपूर्ण व्यवस्था दी गई है और यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 451 द.प्र.स. की शक्तियों का प्रयोग शीघ्रता से और न्यायिक रीति से करना चाहिये जिससे कई उद्देश्य प्राप्त हो सकते हैं जैसे -
1.    संपत्ति के बिना उपयोग के पड़ी रहने से या उसके दुव्र्ययन की संभावना के कारण संपत्ति     के मालिक को हानि नहीं उठाना पड़ती है  ।
2.    न्यायालय या पुलिस को वस्तुओं को सुरक्षित अभिरक्षा में नहीं रखना पड़ता है ।
    इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विचारण के दौरान संपत्ति के व्ययन के बारे में     कई दिशानिर्देश दिये हैं कुछ महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश निम्नानुसार हैंः-
1.    यदि अभिलेख पर उपलब्ध सामग्री से वस्तुएं परिवादी की होना प्रतीत होती हो जिसके घर से चोरी या लूट हुई है तब परिवादी को वस्तुएं विस्तृत उचित पंचनामा वस्तुओं के बारे में बनाकर, वस्तुओं के फोटोग्राफ लेकर और परिवादी से विचारण के समय आवश्यक होने पर वस्तुएं प्रस्तुत करने का बंधपत्र लेकर या जमानत लेकर उसे संपत्ति सौंपी जा सकती है ।
2.    यदि जप्त सामग्री मादक द्रव्य है तब आवश्यक पंचनामा बनाया जा सकता है और नमूना     लिया जा सकता है उसके बाद निराकरण किया जा सकता है लेकिन बड़ी मात्रा में मादक द्रव्य पुलिस थाने पर नहीं रखना  चाहिये क्योकि इससे कोई लाभ नहीं होता हैं।
3    यदि जप्त सामग्री वाहन हो तब भी उन्हें लंबे समय तक पुलिस थाने पर रखना उपयोगी नहीं हैं संबंधित मजिस्टेट ऐसे वाहनेा के मामले में जमानत और बंधपत्र लेकर उन्हें लौटाने के बारे में उचित आदेश कर सकते हैं वाहनों केा नीलाम करने के बारे में भी कार्यवाही की जा     सकती है यदि उन्हें कोई क्लेम नहीं करता हो ।
4.    यदि मूल्यवान संपत्ति सुपुर्दगी पर नहीं दी जा रही है तब वह बैंक लाॅकर में भी रखने के भी     निर्देश दिये जा सकते हैं ।
    न्याय दृष्टांत जनरल इंश्योरेंस काउन्सिल वि. स्टेट आफ आंध्रप्रदेश (2010) 6 एस.सी.सी. 768 में दु​घर्टना मे ंजप्त वाहनों की अभिरक्षा और उनके व्ययन के बारे में आवश्यक प्रावधान किये गये है और उक्त न्याय दृष्टांत सुंदर भाई में दिये निर्देशों की पालना के बारे में भी कहा गया है ।
न्याय दृष्टांत दशरथ वि. स्टेट आफ एम.पी. 2007 (1) एम.पी.एच.टी. 520 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाहन उसके स्वामी को विचारण के दौरान अभिरक्षा में दिया जा सकता है वाहन का रजिस्टेशन अभी स्वामी के नाम नहीं हुआ है, इस आधार पर आवेदन निरस्त करना उचित नहीं है। 
    सामान्यतः पंजीकृत स्वामी को वाहन सुपुर्दगी पर दिया जाना चाहिये । इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रवीण कुमार वि. स्टेट आफ हिमाचल प्रदेश 1989 सी.आर.एल.जे. 2537  अवलोकनीय है ।
    जहां वाहन हायर परचेस अनुबंध के तहत खरीदा गया हो, वहां फायनंेसर को अंतरिम अभिरक्षा दी जा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत चरणजीत सिंह वि. सुधीर मेहरा (2001) 7 एस.सी.सी. 417 अवलोकनीय है साथ ही न्याय दृष्टांत मेसर्स के.एल.जोहर एंड कंपनी वि. द डिप्टी कमर्शियल टेक्स आॅफिसर ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1082  की चार न्यायमूर्तिगण की पीठ भी अवलोकनीय है ।
     कभी-कभी पंजीकृत स्वमाी वाहन सुपुर्दगी पर लेने के लिये किसी अन्य व्यक्ति को मुख्तारनामा या या पावर आफ अर्टनी दे देता है न्यायालय को यह विवेकाधिकार होता है कि वह ऐसे व्यक्ति को भी संपत्ति की अंतरिम अभिरक्षा दे सकते हैं इन शक्तियों का प्रयोग वाहन मालिक की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये।
    लेकिन यदि वाहन मध्यप्रदेश मोटरयान कराधान अधिनियम, 1991 के अंतर्गत जप्त किया जाता है तो उक्त वाहन को छोड़ने का न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं है । इस संबध्ंा में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम.पी वि. राकेश कुमार गुप्ता, 1998 सी.आर.एल.जे. 4264 की पूर्णपीठ एवं न्याय दृष्टांत हरदेव मोटर टांसपोर्ट कंपनी वि. स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2010 एम पी. 852 डीबी  अवलोकनीय है ।
    न्याय दृष्टांत ओमप्रकाश वि. स्टेट आफ एम.र्पी. आइ.एल.आर. 2010 एम.पी. 1998  में यह प्रतिपादित किया गया है कि चुराई हुई या लूटी हुइ संपत्ति जो पुलिस ने जप्त की है उसे प्रथम दृष्टया आधिपत्य रखने के अधिकारी व्यक्ति को सुपुर्दगी पर देना चाहिये । मामले में परिवादी का आवेदन यह कहकर निरस्त किया गया था कि विचारण के दौरान साक्ष्य में बरामद गन की आवश्यकता होगी । माननीय उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश अपास्त किया ।
     न्याय दृष्टांत पंचमलाल गुप्ता वि. स्टेट आफ एम.पी. 2003 (1) एम.पी.एल.जे. 92 में यह प्रतिपादित किया है कि विचारण पर यदि प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो तब संपत्ति अंतरिम अभिरक्षा में सौंपने से इंकार किया जा सकता है । न्याय दृष्टांत रामप्रकाश शर्मा वि. स्टेट आफ हरियाणा 1978 सी.आर.एल.जे. 1120 के निर्णय चरण 4 पर भरोसा करते हुए उक्त विधि प्रतिपादित की गई है ।
    विभिन्न अधिनियम में इस संबंध में आवश्यक प्रावधान हैं उनके बारे में वैधानिक स्थिति निम्न प्रकार से हैः-
म.प्र. आबकारी अधिनियम, 1915 के बारे में
    इस संबंध में धारा 46, 47, 47ए, 47डी, मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, 1915 के प्रावधान ध्यान में रखना होते है।
    यदि पचास बल्क लीटर से कम शराब का मामला हो तो सामान्यतः वाहन अधिहरण नहीं करना चाहिये क्योंकि यह वाहन स्वामी के लिये अनुपातहीन शास्ति होगी । यह विधि 48 बोतल शराब के मामले में जीप को अधिहरण करने संबंधी आदेश में प्रतिपादित की गई है । इस संबधं में न्याय दृष्टांत हरेन्द्र सिहं ठाकुर वि. स्टेट आॅफ एम.पी 2008 (3) एम.पी.एच.टी 126 अवलोकनीय है ।
    न्याय दृष्टांत सुरेश दवे वि. स्टेट आॅफ एम.पी. 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 439  में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां धारा 47ए (3) (ए) के तहत अधिहरण कार्यवाही प्रारम्भ करने की कोई सूचना न्यायालय को न दी गई हो न संबंधित पक्ष को सूचना पत्र जारी किये गये हों तब दाण्डिक न्यायालय वाहन को उसके पंजीकृत स्वामी को अंतरिम सुपुर्दगी पर दे सकते हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत शिरीष अग्रवाल वि. स्टेट आफ एम.पी 2003 (2) एम.पी.एच.टी. 97 पूर्णपीठ  भी अवलोकनीय है ।
    इस प्रकार जहां अधिहरण कार्यवाही की कोई सूचना संबंधित मजिस्ट्रेट को प्राप्त नहीं हुई हो और संबंधित पक्ष को सूचना पत्र भी अधिहरण कार्यवाही का न मिला हो वहां न्यायालय को जप्तशुदा सामग्री को अंतरिम सुपुर्दगी पर देने की शक्तियां होती हैं लेकिन अधिहरण की सूचना प्राप्त हो जाने के बाद धारा 47 डी मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम के प्रावधान आकर्षित हो जाते हैं और तब न्यायालय को सामग्री के व्ययन या उसकी अभिरक्षा के बारे में आदेश करने की शक्तियां नहीं होती हैं ।
वन्य जीव - संरक्षण अधिनियम 1972 के बारे में
     इस संबंध मंे अधिनियम की धारा 39 एवं 50 ध्यान रखे जाने योग्य है । न्याय दृष्टांत मधुकर राव वि. स्टेट आॅफ एम.पी. 2000 (1) एम.पी.एल.जे. 289 पूर्णपीठ अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि जप्त संपत्ति तब तक राज्य की संपत्ति नहीं बनती जबतक सक्षम न्यायालय द्वारा विचारण न हो जाये और वह इस निष्कर्ष पर न पहंुच जावे कि अपराध करने के लिये अभिगृहित संपत्ति का उपयोग किया गया था । विचारण लंबित रहने के दौरान अभियोग पर अथवा अपराध किये जाने के संदेह पर जप्त संपत्ति जिसमें वाहन भी शामिल है धारा 451 दं.प्र.सं. एवं अधिनियम की धारा 50 (4) के तहत निर्मुक्त किया जा सकता है । न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम.पी वि. मधुकर राव, 2008 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 787 में इस निर्णय की माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है 
     न्याय दृष्टांत अतिबाई वि. स्टेट आफ एम. पी. 2008 (2) एम.पी.एल.जे. 83 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत जप्त वाहन सुपुर्दगी पर देने का आदेश दिया गया । इसी तरह न्याय दृष्टांत ओंकार प्रसाद लोनी वि. स्टेट आफ एम.पी. 2010 (3) एम.पी.एच.टी. 170 में भी यह प्रतिपादित किया है कि मजिस्टेªट वाहन को विचारण के लंबित रहने के दौरना अंतरिम सुपुर्दगी पर दे सकते हैं केवल अपराध किये जाने के अभियोग में वाहन जप्त हुआ, इस आधार पर वह राज्य की संपत्ति धारा 39 (1) (डी) वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत नहीं हो जाता ।
     न्याय दृष्टांत दीवान अर्जुन सिंह वि. स्टेट आफ एम.पी. 2003 (1) एम.पी.जे.आर. 377 में भी विचारण न्यायालय को वाहन अंतरिम सुपुर्दगी पर देने की शक्तियां होने के बारे में विधि प्रतिपादित की गई है । 
गोवंश या पशु जप्ती के मामले
     इस संबंध में  पशओं पर  क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 35 एवं मध्यप्रदेश गोवंश अधिनियम के प्रावधान ध्यान में रखना होते हैं ।
     न्याय दृष्टांत  मैनेजर पिंजरापोल देवदार वि. चक्रम  मोराजीनट ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 2769 अवलोकनीय है जिसमे जप्त पशुओं को उनके स्वामी को अंतरिम अभिरक्षा में दिये जाने संबंधी विधि प्रतिपादित की गई है और निर्णय के चरण 10 में सुसंगत बातें जो ध्यान में रखना होती हैं वे बतलायी गई हैं जैसे- कथित स्वामी के विरूद्ध अभिकथित अपराध की प्रकृति और गंभीरता, स्वामी प्रथम अपराधी है या पूर्वतन दोष्सिद्ध है, निरीक्षण और जप्ती के समय पशु किस दशा में पाये गये, पशुओं के साथ पुनः क्रूरता की संभावना आदि  ।
     न्याय दृष्टांत भरत अमृतलाल कोटारी वि. दोशूखान समदखान सिंधी (2010) 1 एस.सी.सी. 134 में में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां पशुओं पर क्रूरता के कोई चिन्ह न पाये जायें प्रत्यर्थीगण बकरी और भेड़ों के व्यापारी हों, उनके स्वामी भी हों, वहां उन्हें कुछ शर्तो पर अंतरिम सुपुर्दगी पर मवेशी दिये जा सकते हैं ।
     न्याय दृष्टांत सोनाराम वि. स्टेट आफ एम.पी. 2006 (3) एम.पी.एच.टी. 490 में पशु स्वामी पर प्रथम अभियोजन था अतः उन्हें पशुओं की अभिरक्षा दी गई क्यांेकि प्रथम अभियोजन में पशु जप्ती के दायी नहीं होते हैं ।
     न्याय दृष्टांत मोहम्मद अजीम खान वि. स्टेट आफ एम.पी आइ.एल.आर. 2010 एम.पी 1187 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पुलिस ने 27 पशु जो काटने के उदद्ेश्य से परिवहित किये जा रहे थे वे गोवंश वध प्रतिषेध अधिनियम, 2004 की धारा 4,6 एवं 9 के तहत और धारा 4 एवं 6 कृषि पशु निवारण अधिनियम, 1959 के तहत जप्त किये मामला धारा 3/7 आवश्यक वस्तु अधिनियम में भी पंजीबद्ध हुआ था और सक्षम प्राधिकारी ने वाहन के अधिहरण की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी थी। पशु बहुत बुरी तरीके से ले जाये जा रहे थे । चार पशु मर भी चुके थे । पशुओं को खरीदने का कोई दस्तावेज पेश नहीं किया गया था ऐसे में पशुओं को सुपुर्दगी पर देने का आवेदन निरस्त किया गया ।
     न्याय दृष्टांत सेक्रेटरी  गोपाल गोशाला झोकर वि. रमेश 2009 (4) एम.पी.एच.टी. 182 भी इस संबंध में अवलोकनीय है जिसमें संविधान के अनुच्छेद 48 के प्रकाश मे ंपशुओ ंको गोशाला में रखने और उनके खर्चे के बारे में न्यायालय में हिसाब प्रस्तुत करने के बारे में निर्देश दिये गये हैं और इस मामले में विभिन्न न्याय दृष्टांतों पर भी विचार किया गया है ।
     न्याय दृष्टांत मुशी वि. स्टेट आफ एमपी आइ.एल.आर. 2008 एम.पी. 187 में मवेशियों की अंतरिम सुपुर्दगी के समय प्रति मवेशी 3000 रूपये जमा करवाने की शर्त प्रार्थी पर डाली गई थी जिसे माननीय उच्च न्यायालय ने उचित नहीं माना और शर्त को अपास्त किया ।
आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955
     इस संबंध में अधिनियम की धारा 6ए एवं 7 ध्यान में रखना होती है । न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम.पी. वि. रामेश्वर राठौर ए.आई.आर 1999 एस.सी. 1849  में यह प्रतिपादित किया गया है कि अधिनियम के संशोधित प्रावधानों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि दण्ड न्यायालय को  अंतरिम सुपुर्दगी के प्रार्थना पत्र लेने की अधिकारिता नहीं है अर्थात संशोधित प्रावधानों से भी दण्ड न्यायालय के क्षेत्राधिकार को वर्जित नहीं किया है ।
     इस संबंध में उक्त न्याय दृष्टांत मोहम्मद अजीम वि. स्टेट आफ एम.पी में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहां धारा 3/7 आवश्यक वस्तु अधिनियम की तहत अपराध पंजीबद्ध हो और टक के अधिहरण की कार्यवाही सक्षम प्राधिकारी के यहां प्रारम्भ हो चुकी हो वहां टक को सुपुर्दगी पर देने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है  ।
भारतीय वन अधिनियम, 1927
     इस संबंध में अधिनियम की धारा 52 एवं 54 ध्यान में रखना होती है । यदि जप्त वस्तु के अधिहरण की कार्यवाही प्रारम्भ होने की सूचना मजिस्टेट को प्राप्त नहीं होती तब तक वह संपत्ति को अंतरिम अभिरक्षा में  दे सकता है एक बार ऐसी सूचना प्राप्त हो जाने के बाद धारा 52 सी वन अधिनियम का वर्जन लागू हो जाता है । इस संबंध में  न्याय दृष्टांत अहमद जी वि. स्टेट,      ए.आई.आर. 1986 एम. पी. 1  एवं असरार खान वि. स्टेट आफ एमपी 200 (2) विधि भास्वर 85 अवलोकनीय हंै ।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आफ कर्नाटका वि. के. कृष्णन (2000) 7 एस.सी.सी. 80  में यह प्रतिपादित किया है कि वन उपज वाले मामलों में सामान्यतः वाहन और अन्य सामग्री सुपुर्दगी पर नहीं देना चाहिये और यदि ऐसा करना न्यायालय उचित मानती है तब बैंक गारंटी लेना चाहिये । 
एन.डी.पी.एस. एक्ट
     अधिनियम की धारा 52, 52ए, 60,61 एवं 62 इस बारे में ध्यान रखना होती हैं । न्याय दृष्टांत पांडुरंग कदम वि. स्टेट आफ एम.पी. 2005 (2) ए.एन.जे. (एम.पी.) 351  मंे यह प्रतिपादित किया गया है कि एन.डी.पी.एस. एक्ट 1985 के उचित मामलों में भी वाहन अंतरिम सुपुर्दगी पर दिया जा सकता है इस तथ्य के होते हुए भी कि ऐसा वाहन धारा 60 के तहत संपहरण किया जा सकता है । मामले में प्रार्थी वाहन का पंजीकृत स्वामी था इस मामले में न्याय दृष्टांत खलील अहमद वि. स्टेट आफ एमपी 1999 एमपी डबल्यू एन वाल्यूम 2 नोट 217 को विचार में लिया गया
विचारण की समाप्ति पर सपंत्ति का व्ययन
     धारा 452 (1) द.प्र.सं. 1973 के अनुसार जब किसी दण्ड न्यायालय में जांच या विचारण समाप्त हो जाता है तब न्यायालय उस संपत्ति या दस्तावेज को जो उसके समक्ष पेश की गई हैं, या उसकी अभिरक्षा में है अथवा जिसके बारे में कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है या जो किसी अपराध के करने में प्रयुक्त की गई है, नष्ट करने, अधिहरण करने या किसी ऐसे व्यक्ति को देने जो उसपर कब्जा रखने का हकदार होने का दावा करता है या किसी अन्य प्रकार से उसका व्ययन करने के लिये आदेश दे सकेगा जैसा वह ठीक समझे ।
    धारा 452 (2) के अनुसार किसी संपत्ति के कब्जे का हकदार होने का दावा करने वाले किसी व्यक्ति को उस संपत्ति के परिदान के लिये या देने के लिये उपधारा 1 के अधीन आदेश किसी शर्त के बिना या इस शर्त पर दिया जा सकता है कि वह न्यायालय को समाधानप्रद रूप से यह वचनबद्ध करते हुए प्रतिभुओं सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करे कि यदि उपधारा 1 के अधीन किया गया आदेश अपील या पुनरीक्षण में उपांतरित या अपास्त कर दिया गया तो वह संपत्ति न्यायालय को वापस कर देगा।
     धारा 452 (3) के अनुसार सेशन न्यायालय उपधारा 1 के अधीन स्वयं आदेश देने के बदले संपत्ति को मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट को परिदत्त किये जाने का आदेश दे सकता है जो उस संपत्ति के विशय में धारा 457-459 में वर्णित रीति से कार्यवाही करेगा ।
     धारा 452 (4) के अनुसार उस दशा के अलावा जब संपत्ति पशुधन है या शीघ्र और प्राकृतिक रूप से क्षयशील है या जब उपधारा 2 के अनुसरण में बंधपत्र निष्पादित किया गया है, उपधारा 1 के अधीन दिया गया आदेश 2 मास तक अथवा जहां अपील उपस्थित की गई है वहां जब तक उस अपील का निराकरण न हो जाये, कार्यान्वित नहीं किया जायेगा ।
     धारा 452 (5) के अनुसार संपत्ति पद में न केवल ऐसी संपत्ति है जो मूलतः किसी पक्षकार के कब्जे अथवा नियंत्रण में रह चुकी है वरन ऐसी संपत्ति जिसमें या जिसके लिये उस संपत्ति का संपरिवर्तन या विनमय किया गया है और ऐसे परिवर्तन या विनिमय से चाहे तत्काल या अन्यथा अर्जित कोई चीज भी है । इस तरह प्रकरण के निराकरण पर धारा 452 द.प्र.सं. के प्रावधान लागू होते हैं साथ ही धारा 453  द.प्र.सं. में अभियुक्त के पास मिले धन का निर्दाेष के्रता को संदाय करने धारा 455 द.प्र.स्र. में अपमानलेख या अन्य सामग्री को नष्ट करने, धारा 456 द.प्र. सं. में स्थावर संपत्ति का कब्जा लौटाने के बारे में भी प्रावधान है  धारा 459 द.प्र.सं. में नष्ट होने योग्य संपत्ति के विक्रय करने के बारे में प्रावधान है ।
     प्रकरण के निराकरण के समय संपत्ति के व्ययन के बारे में आदेश देते समय निम्नलिखित वैधानिक स्थितियां ध्यान मंे रखना चाहियेः-
     जब अभियुक्त दोषमुक्त किया गया हो या उसे संदेह का लाभ दिया गया हो तब संपत्ति के निराकरण के लिये उसके द्वारा धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत दिया गया कथन उपयोग में लिया जा सकता है चाहे वह संस्वीकृति की कोटि में आता हो ।  इस संबंध में न्याय दृष्टांत महेश कुमार वि. स्टेट आफ राजस्थान, 1990 (सप्लीमेंट) एस.सी.सी. 541 (2) अवलोकनीय है जिसमें उक्त विधि प्रतिपादित की गई है ।
     न्याय दृष्टांत उमाशंकर वि. स्टेट आफ एम.पी. 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 585 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 452 द.प्र.स. के तहत संपत्ति के व्ययन के समय अभियुक्त की स्वीकारोक्ति/संस्वीकृति को उपयोग में लिया जा सकता हैं।
     न्याय दृष्टांत गोविंदराम वि. स्टेट आफ एम.पी. 2006 (2) एम.पी.जे.आर. 408 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियुक्त ने संपत्ति को क्लेम नहीं किया परिवादी ने संपत्ति को क्लेम किया विभिन्न न्याय दृष्टांतों पर विचार करके यह प्रतिपादित किया गया कि ऐसे मामलों में परिवादी को संपत्ति लौटाना चाहिये ।
     न्याय दृष्टांत मुन्नीलाल यादव वि. स्टेट आफ एम.पी, आई एल आर 2010 एम.पी. 150  में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 452 द.प्र.सं. में बतलायी गई विधि के अनुसार कोई भी न्यायालय प्रकरण के निराकरण पर संपत्ति के निराकरण का आदेश देने का विवेकाधिकार रखते हैं इस विवेकाधिकार का प्रयोग मनमाने तरीके से न करके न्यायिक तरीके से करना चाहिये जहां अभियुक्त दोषमुक्त किया गया हो न्यायालय सामान्यतः उस व्यक्ति को संपत्ति लौटा देती है जिसके कब्जे से वह ली गई थी चाहे फरार अभियुक्त का विचारण होना शेष हो फिर भी बरामद गन को अनिश्चित समय तक रोके रखने से कोई उपयोगी उददेश्य प्राप्त नहीं होना है ऐसे में संपत्ति कुछ शर्ताे के साथ अभियुक्त को लौटाई गई ।
     न्याय दृष्टांत विष्णुराम वि. साउथ ईस्टर्न कोल फील्ड लि. 2000 (2) एम.पी.एल.जे. 265 में यह प्रतिपादित किया है कि विचारण समाप्ति पर संपत्ति के व्ययन का आदेश करते समय न्यायालय को प्रथम दृष्ट्या साक्ष्य पर अग्रसर होना चाहिये व्यवहार न्यायालय की तरह कार्य नहीं करना चाहिये क्योंकि स्वत्व के प्रश्न का निराकरण आवश्यक नहीं होता है व्यथित पक्षकार सिविल न्यायालय में जाकर अपना स्वत्व स्थापित करने के लिये स्वतंत्र होता है
     न्याय दृष्टांत इंटर कांटिनेंटल एजेंसी प्रा. लि. विरूद्ध अमीन चंद खन्ना ए.आई.आर. 1980 एस.सी. 951 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां मजिस्टेªट ने जप्त संपत्ति रिसीवर को न्यस्त की थी और किसी व्यक्ति को व्यवहार न्यायालय उस संपत्ति का स्वामी घोषित किया और वह संपत्ति का आधिपत्य लेने आया तब मजिस्टेªट का यह कत्र्तव्य है कि वह संपत्ति का पता लगावें और उसे उसके स्वमी को सौंपे और यदि ऐसा संभव न हो और संपत्ति गुम जाती है तो स्वामी को उसका मूल्य दोषी व्यक्तियों से दिलावे ।
     न्याय दृष्टांत  रामचंद्र केशरवानी वि. स्टेट आफ एम.पी. 1995 सी.आर.एल.जे. 3296 एम.पी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी की मृत्यु हो जाने पर उसके पुत्र ने संपत्ति उसे देने का आवेदन लगाया न्यायालय ने आवेदन निरस्त करके उत्तराधिकार प्रमाण पत्र लाने के निर्देश दिये जो  उचित नहीं माने गये विशेषकर जब अन्य उत्तराधिकारियों को संपत्ति प्रार्थी को सौंपने में आपत्ति नहीं थी । उत्तराधिकारी प्रमाण पत्र किसी ऋण आदि के लिये जरूरी होता है आपराधिक प्रकरण में जप्त संपत्ति ऋण आदि की श्रेणी में नहीं आती अतः उत्तराधिकारी प्रमाण पत्र आवश्यक नहीं माना गया ।
     धारा 452 एवं धारा 453 द.प्र.सं. के तहत संपत्ति के व्ययन के आदेश से व्यथित व्यक्ति धारा 454 द.प्र.सं. के तहत ऐेसे आदेश के विरूद्ध अपील प्रस्तुत कर सकता है ।
नियम एवं आदेश आपराधिक
     नियम 124  के अनुसार मूल्यवान संपत्ति जैसे जेवर आदि को पीठासीन अधिकारी को अपनी उपस्थिति में सीलबंद पैकेट में रखवाकर कोषालय में नाजिर के माध्यम से जमा करवाना चाहिये ।
     ब्राससिल अपने आधिपत्य में रखना चाहिये । इस संबंध में नियम 680 की भी कठोरता से पालना की जाना चाहिये ।
     प्रकरण के निराकरण के साथ ही मालखाना पर्चे  पर स्पष्ट माल निस्तारण आदेश निष्पादन लिपिक से लिखवाकर, प्रत्येक माह के अंत में, निराकृत प्रकरणों का अभिलेख जमा होते समय, उक्त पर्चे मालखाना नाजिर को भेजे जाने चाहिये ताकि निराकृत प्रकरणों की मालखाना वस्तुओं का भी समय पर निराकरण हो सके यदि मूल मालखाना पर्चा नहीं मिल रहा है तब डुप्लीकेट पर्चा भी बनाया जा सकता है ।
     इस तरह किसी भी दाण्डिक न्यायालय को प्रकरण के लंबित रहने के दौरान प्रकरण में जप्त वसतुओं की अंतरिम अभिरक्षा के लिये आदेश करने की शक्तियां होती हैं कुछ अधिनियमों में इस बारे में प्रतिबंध है जिनको ध्यान में रखना चाहिये साथ ही प्रकरण के निराकरण पर भी संपत्ति के व्ययन के बारे में स्पष्ट आदेश करना चाहिये । प्रकरण के लंबित रहने के दौरान या निराकरण के समय संपत्ति के व्ययन का आदेश करते समय उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान मंे रखना चाहिये


(पी.के. व्यास)
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी
न्यायिक अधि. प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान
उच्च न्यायालय जबलपुर म.प्र.

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