Monday 23 December 2013

ग्राम न्यायालय अधिनियम,2008- वेद प्रकाष

 ग्राम न्यायालय अधिनियम,2008 - वेद प्रकाष

2. ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के संदर्भ में सिविल विवादों से संबंधित विधि
जिला स्तरीय द्वि-मासिक प्रषिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के संदर्भ में सिविल विवादों से संबंधित विधि से जुड़े प्रष्न विचार-विमर्ष के लिए प्रेषित किए गए थे । यहाँ विभिन्न जिलों के न्यायिक अधिकारियों की ओर से प्राप्त आलेखों को संस्थान द्वारा संपादित कर समेकित रूप में प्रकाषित किया जा रहा है ।
खण्ड-अ
ग्राम न्यायालयों की सिविल अधिकारिता एवं प्रक्रिया: सामान्य परिचय
नागरिकों को उनके द्वार पर न्याय उपलब्ध कराने के प्रयोजन से और यह सुनिष्चित करने के लिए कि, कोई नागरिक सामाजिक, आर्थिक या अन्य निःषक्तता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रहे, ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 (क्रमांक 4 सन् 2009) अधिनियमित किया गया   है । संविधान का अनुच्छेद 39-क राज्य को यह निदेष देता है कि, राज्य यह सुनिष्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और आर्थिक या अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये । साधारण जन स्तर पर न्याय उपलब्घ कराने के लिए विधि आयोग ने अपनी 114 वीं रिपोर्ट में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की सिफारिष की थी । केन्द्रीय सरकार ने विधि आयोग की उक्त सिफारिष के अनुक्रम में ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 अधिनियमित किया है । केन्द्रीय सरकार ने अधिसूचना क्रमांक का.आ. 2313 (अ) दिनांक 11.09.2009 प्रकाषित कर दिनांक 02.10.2009 से ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 को उन सभी क्षेत्रों में जहां उक्त अधिनियम विस्तारित है, लागू किया है । तद्नुसार मध्य प्रदेष षासन ने अधिसूचना क्रमांक फा. बिन्दु क्रमांक 17 (ई) 43 /2009/21-ब (एक) दिनांक 30.09.2009 के द्वारा मध्यप्रदेष राज्य में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की है । ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के अधीन स्थापित किये गये ग्राम न्यायालय तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के तहत स्थापित न्यायालयों के अतिरिक्त है ।
ग्राम न्यायालयों की सिविल अधिकारिता:
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 (आगे संक्षेप में ‘‘अधिनियम, 2008‘‘) की धारा 11 ग्राम न्यायालय की अधिकारिता के संबंध में यह प्रावधान  करती है कि, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए ग्राम न्यायालय सिविल और दाण्डिक दोनों अधिकारिता का प्रयोग करेगा । अधिनियम, 2008 की धारा 13 ग्राम न्यायालय की सिविल अधिकारिता के संबंध में प्रावधान करती है, जिसके अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी ग्राम न्यायालय को, उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार के परामर्ष से जारी अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट     धनीय सीमाओं के अंतर्गत, अधिनियम, 2008 की दूसरी अनुसूची के भाग - 1 में विनिर्दिष्ट वर्गों के विवादों के अधीन आने वाले सिविल प्रकृति के सभी वादों या कार्यवाहियों का विचारण करने और धारा 14 (1) के अधीन केन्द्रीय सरकार एवं धारा 14(3) के अधीन राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित वर्गों के दावों और विवादों का विचारण करने की अधिकारिता होगी । इस संबंध में म.प्र. ग्राम न्यायालय न्यायाधिकारी आर्थिक क्षेत्राधिकार की सीमा नियम, 2009‘‘ के अनुसार ग्राम न्यायालय को तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अध्यधीन रहते हुए 25 हजार रूपये से अनधिक मूल्य के वाद, दावे, विवाद या मूल कार्यवाहियां की सुनवाई और विनिष्चय की अधिकारिता है ।
    अधिनियम, 2008 की दूसरी अनुसूची के भाग-1 में निम्न प्रकार के सिविल प्रकृति के वाद उल्लेखित है जिनके संबंध में ग्राम न्यायालयों को विचारण की अधिकारिता प्रदान की गयी है ।
ग्राम न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर सिविल प्रकृति के वाद
(प)    सिविल विवाद:
    (क)    संपत्ति क्रय करने का अधिकार;
    (ख)    आम चारागाहों का उपयोग;
    (ग)    सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय;
(पप)    संपत्ति विवादः
    (क)    ग्राम और फार्म हाउस (कब्जा);
    (ख)    जलसरणियां;
    (ग)    कुंए या नलकूप से जल लेने का अधिकार;
(पपप)    अन्य विवाद:
    (क)    मजूदरी संदाय अधिनियम, 1936 (1936 का 4) के अधीन दाव;
(ख)    न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 (1948 का 11) के अधीन दावे;
(ग)    व्यापार संव्यवहार या साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी वाद;
(घ)    भूमि पर कृषि में भागीदारी से उद्भूत विवाद;
(ड.)    ग्राम पंचायतों के निवासियों द्वारा वन उपज के उपयोग के संबंध में विवाद ।
सिविल मामलों में अपनायी जाने वाली प्रक्रिया:
    अधिनियम, 2008 के अध्याय 5 की धारा 23 से धारा 28 में ग्राम न्यायालय द्वारा सिविल मामलों में अपनायी जाने वाली प्रक्रिया उल्लेखित   है । इसके साथ ही अध्याय 6 की धारा 29 से 32 के प्रावधान भी सिविल मामलों के संबंध में लागू हैं ।
    धारा 23 के अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 या किसी अन्य विधि के उपबंधों के होते हुए भी अधिनियम, 2008 के उपबंध प्रभावी होंगे लेकिन सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधान जहां तक कि वे अधिनियम 2008 के उपबंधों से असंगत नहीं हैं, ग्राम न्यायालय के समक्ष कार्यवाहियों पर लागू होंगे । सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के उपबंधों के प्रयोजन के लिए ग्राम न्यायालय को सिविल न्यायालय समझा जाएगा ।
    अधिनियम, 2008 की धारा 24 ग्राम न्यायालय के समक्ष वाद संस्थित किये जाने के लिए फीस, प्रारूप और वाद की सुनवाई के लिए प्रक्रिया निर्धारित करती है । यह प्रावधान संक्षिप्त में इस प्रकार है;
    उपधारा (1) यह उपबंध करती है कि तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम के अधीन प्रत्येक वाद, दावे या विवाद ऐसे प्ररूप में, ऐसी रीति में और एक सौ रूपये से अनधिक की ऐसी फीस के साथ, जो समय-समय पर राज्य सरकार के परामर्ष से उच्च न्यायालय द्वारा विहित की जाए, ग्राम न्यायालय में किसी आवेदन द्वारा संस्थित किया जा सकेगा।
    उपधारा (2) यह उपबंध करती है कि जहाँ कोई वाद, दावा या विवाद सम्यक् रूप से संस्थित किया जाता है, ग्राम न्यायालय द्वारा विपक्षी पक्षकार को समन जारी किया जाएगा जिसके साथ उपधारा (1) के अधीन किए गए आवेदन की प्रति होगी और उसे उसमें विनिर्दिष्ट ऐसी तारीख को उपसंजात होने और दावे का उत्तर देने के लिए कहा जाएगा और उसे ऐसी रीति में तामील किया जायेगा जो उच्च न्यायालय विहित करे ।
    उपधारा (3) यह उपबंध करती है कि विपक्षी पक्षकार, द्वारा अपना लिखित कथन फाइल करने के पष्चात् ग्राम न्यायालय सुनवाई के लिए तारीख नियत करेगा और सभी पक्षकारों को वैयक्तिक रूप से या अपने अधिवक्ताओं द्वारा उपसंजात होने की सूचना देगा ।
    उपधारा (4) यह उपबंध करती है कि ग्राम न्यायालय, सुने जाने के लिए नियत तारीख को, दोनों पक्षकारों को उनकी संबंधित दलीलों के संबंध मंे सुनेगा और जहाँ यह साक्ष्य को अभिलिखित करने की अपेक्षा करता है वहाँ ग्राम न्यायालय आगे कार्यवाही करेगा ।
    उपधारा (5) यह उपबंध करती है कि ग्राम न्यायालय को, -
     (क)    व्यतिक्रम के लिए किसी मामले को खारिज करने या एक पक्षीय कार्यवाही करने; और
(ख)    व्यतिक्रम के लिए खारजी के किसी ऐसे आदेष या एक पक्षीय मामले को सुनने के लिए उसके द्वारा पारित किसी आदेष को अपास्त करने की भी षक्ति होगी ।
उपधारा (6) यी उपबंध करती है कि किसी ऐसे आनुषंगिक विषय के संबंध में जो कार्यवाहियों के दौरान उत्पन्न हो, ग्राम न्यायालय ऐसी प्रक्रिया अपनाएगा जो यह न्याय के हित में न्यायसंगत और समुचित समझे ।
उपधारा (7) यह उपबंध करती है कि कार्यवाहियाँ यथासाध्य, न्याय के हित से संगत होंगी और सुनवाई दिन प्रतिदिन के आधार पर इसके समाप्त होने तक तब तक जारी रहेगी जब तक ग्राम न्यायालय अगले दिन से परे सुनवाई के स्थगन को, ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जाएं, आवष्यक नहीं समझता है ।
उपधारा (8) यह उपबंध करती है कि ग्राम न्यायालय उपधारा (1) के अधीन किए गए आवेदन को इसके संस्थापन की तारीख से 6 मास की अवधि के भीतर निपटारा होगा ।
उपधारा (9)  यह उपबंध करती है कि प्रत्येक वाद, दावा या विवाद में निर्णय सुनवाई के समाप्त होने के ठीक पष्चात् या किसी पष्चात्वर्ती समय पर जो पन्द्रह दिन से अधिक न हो, उसकी सूचना पक्षकारों को दी जाएगी, ग्राम न्यायालय द्वारा खुले न्यायालय में सुनाया जाएगा ।
उपधारा (10) यह उपबंध करती है कि ऐसे निर्णय में मामले का संक्षिप्त कथन, अवधारण का बिन्दु, उस पर किया गया विनिष्चय और ऐसे विनिष्चय के लिए कारण अंतर्विष्ट होंगे ।
उपधारा (11) यह उपबंध करती है कि आदेष की प्रति निर्णय के सुनाये जाने की तारीख से तीन दिन के भीतर दोनों पक्षकारों का निःषुल्क परिदत्त की जाएगी ।
धारा 25 के अनुसार ग्राम न्यायालय डिक्री और आदेषों के निष्पादन के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के उपबंधों के अंतर्गत प्रक्रिया से आबद्ध नहीं रहकर नैसर्गिक न्याय के नियम लागू करेगा।
धारा 26 ग्राम न्यायालय पर यह कत्र्तव्य अधिरोपित करती है, कि वह वाद या कार्यवाही में प्रथम अवसर पर ही सुलह और समझौते का प्रसास  करें । सिविल विवादों में सुलह समझौता के लिये प्रयास करना और पक्षकारों के मध्य समझौता कराने के लिए सुलहकारों केा मामला भेजना ग्राम न्यायालय का कत्र्तव्य है ।
मध्य प्रदेष में ग्राम न्यायालय की भाषा हिन्दी है । ग्राम न्यायालय कोई भी प्रतिवेदन, विवरणी, दस्तावेज, जानकारी या विषय को साक्ष्य के रूप में ग्रहण कर सकते हैं जो ग्राम न्यायालय के अभिमत में विवाद का प्रभावषाली रूप से निपटाने के लिये सहायक हों, चाहे वे भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के तहत अन्यथा सुसंगत या ग्राह्य हैं या नहीं हैं । किसी भी व्यक्ति की औपचारिक प्रकृति की साक्ष्य ग्राम न्यायालय के समक्ष षपथ पत्र पर दी जा सकती है । अधिनियम 2008 की धारा 30,31 एवं 32 के अंतर्गत साक्ष्य अधिनियम 1872 के प्रावधानों और साक्ष्य अभिलेखन की तकनीकी प्रक्रिया को षिथिल किया गया है । इस तरह से अधिनियम, 2008 के उपबंध सर्वोपरी प्रभाव रखते हैं और अन्य अधिनियमतियों पर अभिभावी होंगे ।
खण्ड-ब
जल सरणियों के उपयोग, कुएं या नलकूप से जल लेने का अधिकार अथवा सिंचाई सरणियों से जल लेने के विनियमन और समय संबंधी सिविल विवादों से संबंधित विधि
(न्यायिक अधिकारीगण, जिला होषंगाबाद एवं जिला दतिया द्वारा प्रेषित आलेखों पर आधारित)
    सिविल प्रकृति के वाद के अंतर्गत सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय के वाद एवं संपत्ति विवाद के अंतर्गत जलसरणियां, कुंए या नलकूप से जल लेने का अधिकार संबंधी विवाद ग्राम न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर आते हैं जिन पर ग्राम न्यायालय को सुनवाई और विनिष्चय की अधिकारिता होगी लेकिन तब जबकि ऐसे वाद अथवा विवाद का मूल्यांकन 25 हजार रूपये से अनधिक हो । अधिनियम, 2008 की दूसरी अनुसूची की भाग-1 में वर्णित उक्त वादों और विवादों को परिभाषित नहीं किया गया है और न ही ऐसे किन्हीं विनिर्दिष्ट अधिनियमों/ उपबंधों का उल्लेख है जिनके अंतर्गत ऐसे वाद या विवाद उद्भूत और विनिष्चय योग्य होते हैं । तार्किक निर्वचन यही है कि, उपरोक्त वर्णित प्रकृति के वाद और विवाद यदि अन्यथा धारा 9 सिविल प्रक्रिया संहिता के अर्थों मंे सिविल प्रवृत्ति के वाद की श्रेणी में आते हैं तब निष्चित ही ऐसे वाद ग्राम न्यायालय की अधिकारिता में सुनवाई योग्य होंगे ।
सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय के वाद -
    मध्यप्रदेष में सिंचाई प्रणाली को विनियमित करने के लिए 15.03.1932 से प्रवृत्त एकीकृत सिंचाई विधि मध्यप्रदेष सिंचाई अधिनियम, 1931 प्रभावषील है । उक्त अधिनियम में नहरों, खेत सरणियों, और सिंचाई कार्य को परिभाषित किया गया है । साथ ही उक्त अधिनियम की धारा 26 के अनुसार किसी नदी, प्राकृतिक धारा, नाली, सरणी, प्राकृतिक झील और अन्य प्राकृतिक संग्रह के जल में समस्त अधिकार षासन में निहित है । ऐसे किसी जल में भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 की धारा 15 अथवा 16 के अंतर्गत किसी अधिकार के अर्जन पर भी रोक लगाई गई है । नहरों से पानी के प्रदाय और उसके लिए प्रभार्य राषि, सिंचाई अनुबन्ध, जल मार्ग, खेत सरणी और निजी सिंचाई कार्य के निर्माण एवं अनुरक्षण के संबंध में भी उक्त अधिनियम में विस्तृत प्रावधान किये गये हैं । सिविल प्रकृति के ऐसे वाद एवं विवाद ग्राम न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत विचारणीय होंगे ।
    तथापि मध्यप्रदेष सिंचाई अधिनियम, 1931 की धारा 38 उपबंधित करती है कि कार्यपालक यंत्री के विवेक पर विनिर्दिष्ट क्षेत्रों की सिंचाई के लिये किसी भी समय नहर से जल प्रदाय किया जा सकता है और वास्तव में सिंचाई किये गये क्षेत्रफल के अनुसार भुगतान किया जायेगा । ऐसा क्षेत्र अवधारित करने में कार्यपालक यंत्री का निर्णय अंतिम होगा और किसी भी सिविल न्यायालय द्वारा उपांतरित या अपास्त नहीं किया जायेगा । ग्रामीण जलाषय को भरने के लिये, औद्योगिक षहरी या अन्य प्रयोजनों के लिए जल की आपूर्ति और निकासियों से जल आपूर्ति का नियंत्रण, अधिनियम की धाराओं 39 से 41 में प्रावधानित है तथा धारा 42 में प्राइवेट सिंचाई संकर्म से सिंचित क्षेत्रफल में बंदोबस्त में अभिलिखित क्षेत्रफल में अभिवृद्धि की दषा में जल दर प्रभारित करने एवं धारा 44 में अप्राधिकृत उपयोग और जल के अपव्यय के लिये प्रभार संदाय किये जाने के संबंध में उपबंध किये गये हैं । इन विषयों पर कार्यपालक यंत्री का निर्णय अंतिम होगा जिसे सिविल न्यायालय में वाद प्रस्तुत करके चुनौती नहीं दी जा सकती है ।
    मध्यप्रदेष सिंचाई अधिनियम, 1931 के अंतर्गत प्रदत्त षक्तियों के प्रयोग में राज्य सरकार ने म.प्र. सिंचाई नियम 1974 बनाये हैं । नियमों के अंतर्गत जल वितरित किये जाने और समय नियत किये जाने के लिए उपबंध किये गये है । म.प्र. सिंचाई नियम 1974 के तहत प्राधिकारीगण जल वितरण का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करते हैं ।
    सिंचाई प्रणाली के प्रबंधन में कृषकों के मध्य भागीदारी के लिये और उनके अनुषांगिक या संयोजित विषयों के लिए उपबंध करने हेतु ‘‘म.प्र. सिंचाई प्रबंधन में कृषकों की भागीदारी अधिनियम, 1999‘‘ अधिनियमित किया गया है । इस अधिनियम का उद्देष्य जल उपभोक्ताओं के मध्य पानी के उचित बटवारे को सुनिष्चित करना, नहरों के उचित रख-रखाव, कृषि उत्पादों में वृद्धि के लिए पानी के समुचित उपयोग, पर्यावरण की रक्षा और सिंचाई के लिए नहर प्रणाली के प्रति कृषकों में उत्तरदायित्व की भावना को बढ़ाना है । इस अधिनियम की धारा 43 के अंतर्गत प्रदत्त षक्तियों के प्रयोग में राज्य षासन ने अधिनियम को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये मध्यप्रदेष कृषक संगठन नियम, 1999, म.प्र.कृषक संगठन गठन नियम, 1999, एवं मध्यप्रदेष कृषक संगठन निर्वाचन नियम, 1999 बनाये हैं । म.प्र. सिंचाई प्रबंधन में कृषकों की भागीदारी अधिनियम, 1999 में तीन स्तर पर कृषकों के संगठन की व्यवस्था की गई है जो क्रमषः जल उपभोक्ता संस्थाएं, वितरिका समितियां एवं परियोजना समितियों के रूप में है । साथ ही इनकी प्रबंध समितियां भी गठित किये जाने का प्रावधान है । म.प्र. सिंचाई प्रबंधन में कृषकों की भागीदारी अधिनियम, 1999 की धारा 26 एवं 27 में विवादों के निपटारे एवं अपील के संबंध में प्रावधान किये गये हैं जिसके अनुसार कृषक संगठनों के सदस्यों के बीच विवाद उस संगठन की प्रबंध समिति द्वारा तथा संगठन की प्रबंध समिति एवं उसके सदस्यों के मध्य विवाद अगली उच्च प्रबंध समिति द्वारा निपटाये जाने की व्यवस्था की गयी है । उन विवादों से भिन्न विवाद और अन्यथा ऐसे विवाद और दावे जो सिविल न्यायालय द्वारा विचारणीय हो सकते हैं, की सुनवाई की अधिकारिता ग्राम न्यायालय की होगी जहाँ तक की ऐसे विवादों का संबंध सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय से है ।
पंचायत क्षेत्र में जल स्त्रोतों से जल के उपयोग का विनियमन
    मध्यप्रदेष पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम, 1993 की धारा 54 (4) के अंतर्गत पंचायतों को उनके क्षेत्र में जल के प्रयोग को विनियमित करने की षक्ति प्रदान की गयी है । म.प्र. ग्राम पंचायत (स्वच्छता, सफाई और न्यसेन्स का निवारण तथा उपषमन) नियम 1999 के अंतर्गत पंचायतों केा कतिपय जल स्त्रोतों के उपयोग पर रोक लगाने और विनियमित करने की षक्तियां प्राप्त है ।  यद्यपि उक्त प्रावधानों का प्रयोजन जल स्त्रोतों के संबंध में स्वच्छता, सफाई और न्यूसेन्स का निवारण करना है तथापि जहाँ ऐसे जल स्त्रोतों से सिंचाई और पानी लेने के अधिकार का प्रष्न विवादित हैं वहां ग्राम न्यायालय को ऐसे विवाद की सुनवाई की अधिकारिता होगी ।
म.प्र. भू-राजस्व संहिता, 1959 के अंतर्गत जल स्त्रोतों और उनके उपयोग के अधिकार
    म.प्र. भू राजस्व संहिता, 1959 की धारा 131 के अंतर्गत खेतों या ग्राम की बंजर भूमि या चारागाहों पर पहुँचने के लिए मार्ग से संबंधित विवाद और किसी जल स्त्रोत से या जल सरणी से जल प्राप्त करने के विवाद को विनिष्चय करने की जो अधिकारिता तहसीलदार को दी गयी है वह ग्राम न्यायालय की अधिकारिता से प्ृाथक और स्वतंत्र है तथापि जहां तहसीलदार द्वारा ऐसे किसी विवाद के विनिष्चय या आदेष से संबंधित विषय पर सुखाधिकार के अधिकार का प्रष्न उत्पन्न होता है वहां ऐसे विवाद के संबंध में सिविल वाद संस्थित किया जा सकता है । स्पष्ट है कि यदि ऐसा विवाद किसी जल सरणी या जल स्त्रोत से जल प्राप्त करने की रूढि़ या सुखाचार से संबंधित है तब ऐसे विवाद की सुनवाई की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को प्राप्त होगी । इसी तरह से उक्त संहिता की धारा 242 के अंतर्गत उपखंड अधिकारी द्वारा सिंचाई के अधिकार या ऐसे अन्य सुखाचार के संबंध में ग्राम के रूढि़यों को अभिनिष्चित और अभिलिखित कर वाजिब-उल-अर्ज का अभिलेख संधारित किये जाने पर यदि सिंचाई के अधिकार को लेकर ऐसे अभिलेख की किसी प्रविष्टि से संबंधित विवाद है तब धारा 242 (3) के अंतर्गत ऐसे विवाद की सुनवाई की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को प्राप्त होगी । म.प्र. भू राजस्व संहिता, 1959 की धारा 251 के अनुसार दखलरहित भूमि पर स्थित समस्त तालाब राज्य सरकार में पूर्ण रूपेण निहित है परंतु सिंचाई और निस्तार हेतु नियमानुसार अनुज्ञेय है । इस संबंध में अधिसूचना क्रमांक 223-6477-सात-एन(नियम) दिनांक 6.1.1960 के अंतर्गत ऐसे तालाबों से पानी के उपयोग को विनियमित करने के लिए नियम प्रभावष्ीाल है। ऐसे तालाबों से सिंचाई करने और निस्तार के अधिकार से संबंधित विवाद सिविल प्रकृति के विवाद है और जहाँ तक ऐसा विवाद ऐसे तालाब के राज्य सरकार में निहित होने के संबंध में नहीं है, वहाँ ऐसा विवाद सिविल न्यायालय द्वारा विचारण योग्य  होने से ग्राम न्यायालय को भी इसकी सुनवाई की अधिकारिता होगी ।
भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 के अंतर्गत जल स्त्रोतों और उनके उपयोग के संबंध में सुखाचार के अधिकार:-
     भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 की धारा 2 के अनुसार नदियों, प्राकृतिक जल सरणियों, झीलों, तालाबों के पानी तथा सिंचाई के लिए सार्वजनिक व्यय पर बनाये गये जल सरणियों या अन्य संकर्म के पानी के संग्रह एवं वितरण को विनियमित करने के सरकार के किसी अधिकार को सुखाचार संबंधित विधि प्रभावित या अल्पीकृत नहीं करती है। अर्थात ऐसे जल स्त्रोतों के पानी के संग्रह एवं वितरण को विनियमित करने के सरकार के किसी अधिकार के विरूद्ध सुखाचार के आधार पर दावा नहीं किया जा सकता है और न ही सुखाचार अर्जित किया जा सकता है । लेकिन ऐसे जल स्त्रोतों से भिन्न जल स्त्रोतों या किसी निजी या सार्वजनिक जल स्त्रोत से पानी लेने के सुखाचार के अधिकार के आधार पर उद्भुत विवाद निष्चित ही सिविल न्यायालय की अधिकारिता में होने से ग्राम न्यायालय को ऐसे किसी विवाद की सुनवाई की अधिकारिता होगी ।
    यद्यपि भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 की धारा 17 के अनुसार ऐसे सतही जल, जो जल धारा में नहीं बहता है, और किसी पोखर, टंकी या अन्य रूप में स्थायी रूप से संग्रहित नहीं है तथा ऐसा भूमिगत जल जो किसी  परिनिष्चित सरणी से नहीं आता है, के संबंध में चिरभोग द्वारा सुखाचार का अर्जन नहीं किया जा सकता है लेकिन भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 में यथा परिभाषित सुखाचार उक्त अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत ‘र्निबंधक सुखाचार‘ और धारा 18 के अंतर्गत ‘‘रूढि़क सुखाचार‘‘ के रूप में मान्य किए गए हैं जिनमें किसी जल स्त्रोत यथा जल सरणी, कुंआ या नलकूप से जल लेने के अधिकार भी उक्त प्रावधानों के अधीन षामिल है और उनके संबंध में कोई विवाद ग्राम न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत सुनवाई योग्य होंगे ।
    उपरोक्तानुसार ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के अंतर्गत गठित ग्राम न्यायालयों को सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय तथा कुओं से जल लेने के अधिकार बावत् सिविल प्रकृति के उपरोक्त स्वरूप के वादों की सुनवाई की अधिकारिता होगी ।
खण्ड-स
ग्राम एवं फार्म हाउस के आधिपत्य संबंधी सिविल विवादों से संबंधित विधि
(न्यायिक अधिकारीगण, जिला देवास, जिला राजगढ़ एवं जिला उज्जैन द्वारा प्रेषित आलेखों पर आधारित )
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 की दूसरी अनुसूची के भाग-1 के खण्ड (2) के उपखण्ड (क) के अंतर्गत ग्राम और फार्म हाउस(कब्जा) के संपत्ति विवाद ऐसी सिविल प्रकृति के वाद के रूप में विनिर्दिष्ट है जिनके विचारण की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को प्राप्त है । यद्यपि अधिनियम में ग्राम और फार्म हाउस को परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन यह सुनिष्चित करने के लिये कि ग्राम और फार्म हाउस के कब्जे के विवाद के अंतर्गत कौन-कौन से मामले ग्राम न्यायालय की अधिकारिता में आयेंगे, ग्राम और फार्म हाउस को उनके सामान्य षाब्दिक अर्थ के रूप में ही देखना  होगा । अर्थात ग्राम में या ग्राम की सीमा के भीतर स्थित घर और खेत (फार्म) पर निर्मित घर (प्रक्षेत्र गृह) के आधिपत्य संबंधी विवाद इसके अंतर्गत आयेंगे । लेकिन ऐसे किसी घर से लगी हुई कृषि भूमि से संबंधित कोई विवाद इस वर्ग के विवाद के अंतर्गत नहीं आयेगा । यदि विधायिका का आषय ग्राम में स्थित भूमि के आधिपत्य के विवाद ग्राम न्यायालय के अधिकारिता में रखने का होता तो निष्चित रूप से ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया जाता ।
    म.प्र. राज्य के संदर्भ में म.प्र. भू-राजस्व संहिता, 1959 (संक्षेप मंे-‘‘संहिता‘‘) के उपबंधों के प्रकाष में ‘‘ग्राम और फार्म हाउस‘‘ अभिव्यक्ति को समझा जा सकता है । संहिता की धारा 2 (1) (य-5) के अन्तर्गत ‘‘ग्राम‘‘ को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार ऐसा भू-भाग जिसे इस संहिता के प्रवृत्त होने के पूर्व, किसी ऐसी विधि के, जो तत्समय प्रवृत्त है, उपबंधों के अधीन ग्राम के रूप में मान्य किया गया था या उस रूप में घोषित किया गया था, तथा कोई ऐसा अन्य भू-भाग जिसे किसी राजस्व सर्वेक्षण में एतद् पष्चात् ग्राम के रूप में मान्य किया जाय या जिसे राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, ग्राम के रूप में घोषित करे । उक्तानुसार परिभाषित किसी ग्राम की सीमा में स्थित मकान के आधिपत्य संबंधी विवाद इस श्रेणी में रखे जायेंगे । ग्रामीण क्षेत्र में आवासीय प्रयोजन के लिए भूमि की व्यवस्था के प्रावधान हैं । ग्राम में आबादी क्षेत्र के विकास के लिए संहिता में व्यवस्था की गयी है । संहिता की धारा 2 (प)(क) के अनुसार आबादी से अभिप्रेत है नगरेतर क्षेत्र के किसी ग्राम में उसके निवासियों के निवास के लिये या उससे अनुषांगिक प्रयोजन के लिये समय-समय पर आरक्षित क्षेत्र । आबादी की भूमि अभिनिष्चित तथा अवधारित करने की व्यवस्था संहिता की धारा 72 के अंतर्गत की गई है । जिसके अनुसार बंदोबस्त अधिकारी ग्राम के निवासियों के निवास या अनुषांगिक प्रयोजन के लिए आबादी का क्षेत्र अभिनिष्चित कर सकता है । आबादी क्षेत्र अपर्याप्त होने की दषा में जिले के कलेक्टर को संहिता की धारा 243 के अंतर्गत ग्राम की दखल रहित भूमि में से आबादी क्षेत्र के लिये भूमि आरक्षित करने का अधिकार है । जहां दखल रहित भूमि उपलब्ध नहीं है वहां आबादी क्षेत्र के प्रयोजन के लिये राज्य सरकार द्वारा भूमि अर्जन करने विषयक प्रावधान किया गया है । आबादी स्थलों का निपटारा संहिता की धारा 244 के अंतर्गत ग्राम पंचायत अथवा तहसीलदार द्वारा किया जाता है । आबादी क्षेत्र में गृह स्थल के रूप मंे कोई भूमि धारण करने वाला व्यक्ति उक्त भूमि का भूमि स्वामी होता है । साथ ही साथ केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित किसी स्कीम के अंतर्गत भी गृह निर्माण हेतु भूमिहीनों को भूमि आबंटित की जाती है । लेकिन यहां यह विचारणीय है कि ग्राम की सीमा के अंतर्गत स्थित मकान के आधिपत्य के विवाद के संबंध में यह तात्विक नहीं है कि वह भूमि जिस पर ऐसा मकान स्थित है वह किस प्रकार की भूमि है । भूमि के स्वरूप और उसमें स्वत्व और अधिकार के प्रष्न ग्राम एवं फार्म हाउस के कब्जे के ऐसे विवादों के अंतर्गत स्वतंत्र रूप से विचारणीय नहीं होंगे । अर्थात् आबादी क्षेत्र, दखल रहित भूमि या षासन द्वारा आवंटित भूमि के संबंध में केवल भूमि के अधिकार संबंधी विवाद इस श्रेणी में नहीं आते हैं लेकिन ऐसी किसी भूमि पर निर्मित मकान, यदि वह ग्राम की सीमा के अंतर्गत है, के आधिपत्य का विवाद ग्राम न्यायालय द्वारा विचारणीय होगा ।
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 में फार्म हाउस को परिभाषित नहीं किया गया है । फार्म हाउस का षाब्दिक अर्थ खेत अथवा कृषि भूमि पर निर्मित मकान जो निवास अथवा कृषि भूमि पर निर्मित मकान जो निवास अथवा कृषि कार्य के लिए प्रयोजन के लिए हो सकता है, से है । यद्यपि संहिता की धारा 59 में फार्म हाउस (प्रक्ष्ेात्र गृह) का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार फार्म हाउस से अभिप्रेत ऐसा भवन या सन्निनिर्माण जो संहिता की धारा 2 की उपधारा (1) के खण्ड (जे) में यथा परिभाषित सुधार है और जिसका कुर्सी क्षेत्र (प्लिन्थ एरिया) एक सौ वर्गमीटर से अधिक नहीं होगा और निर्मित क्षेत्र 150 वर्गमीटर से अधिक नहीं होगा । यहां फार्म हाउस के निर्माण के लिए क्षेत्रफल निर्धारण किये जाने की आवष्यकता यह है कि वास्तव में कृषक अपनी कृषि की सुधार की आवष्यकता से फार्म हाउस का निर्माण करे न कि अपने व्यवसायिक आवष्यकता के रूप में उपयोग के लिए कृषि भूमि पर मकानों का निर्माण करें, क्योंकि फार्म हाउस के निर्माण के लिए किसी प्रकार की अनुमति या व्यपवर्तन (डायवर्सन) कराने की आवष्यकता नहीं होती है । संहिता के उक्त प्रावधान भू-राजस्व के निर्धारण और भू-राजस्व में परिवर्तन के प्रयोजन से किये गये हैं जो ग्राम न्यायालय द्वारा सुनवाई के योग्य ग्राम एवं फार्म हाउस के आधिपत्य के संपत्ति विवादों के संदर्भ में सुसंगत नहीं है । वस्तुतः अधिनियम के प्रयोजन के लिए फार्म हाउस से तात्पर्य खेत अथवा कृषि भूमि पर निर्मित मकान जो अन्यथा ग्राम में स्थित नहीं है, से है । खेत अथवा कृषि भूमि पर निर्मित किसी भी आकार और क्षेत्रफल तथा किसी भी प्रयोजन से बनाये गये मकान के आधिपत्य का विवाद ग्राम न्यायालय की अधिकारिता में होगा ।
    ग्राम में निर्मित मकान या फार्म हाउस के आधिपत्य के वाद अधिनियम की दूसरी अनुसूची में संपत्ति के विवाद के रूप में विनिर्दिष्ट किये गये हैं । इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति द्वारा उसे उसके ग्राम में स्थित अथवा खेत/कृषि भूमि पर स्थित मकान से आधिपत्यच्युत किये जाने की दषा में आधिपत्य की प्राप्ति के लिए, अंतवर्ती लाभ जैसे अन्य अनुषांगिक अनुतोष सहित या इसके बिना एवं आधिपत्य में विधि विरूद्ध हस्तक्षेप को रोकने के लिए निषेधाज्ञा के अनुतोष के लिए वाद प्रस्तुत किया जा सकता है । ऐसे वादों में पक्षकारों के अधिकारों की स्थापना के लिए सिविल न्यायालय में जिन आधारों पर वाद प्रस्तुत किया जा सकता है उन्हीं आधारों पर ग्राम न्यायालय के समक्ष वाद लाया जा सकेगा तथा सिविल न्यायालय  की तरह ही ग्राम न्यायालयों के समक्ष पक्षकारों के अधिकारों के निर्धारण के लिए सारभूत विधि यथा विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963, संविदा अधिनियम 1872, संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882, भारतीय सुखाचार अधिनियम 1882, एवं उत्तराधिकार संबंधी स्व. विधि आदि के उपबंध लागू होंगे । अर्थात ग्राम और फार्म हाउस के आधिपत्य संबंधी विवादों में पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण ऐसे विवादों के संदर्भ में प्रयोज्य सारभूत विधि के आधार पर किया जा सकेगा और इसकी अधिकारिता ग्राम न्यायालय को होगी ।
खण्ड-द
भूमि पर कृषि में भागीदारी से एवं आम चारागाहों के उपयोग से उत्पन्न विवादों से संबंधित विधि
(न्यायिक अधिकारीगण, जिला नरसिंहपुर एवं जिला षिवपुरी द्वारा प्रेषित आलेखों पर आधारित)
भूमि पर कृषि में भागीदार से उद्भूत विवाद सम्बन्धी विधि-
    क्ृषि भूमि के प्रबंधन तथा भूमि धारकों एवं कृषकांे के अधिकारों और दायित्वों से संबंधित विषयों के लिए सामान्यतः भूमि संबंधी विधि में प्रावधान किये जाते हैं । मध्यप्रदेष राज्य में अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावषील भिन्न-भिन्न कानूनों को समेकित और संषोधित करते हुए म.प्र. भू-राजस्व संहिता, 1959 (आगे संक्षेप में-‘‘भू राजस्व संहिता‘‘) लागू की गयी है । जहां तक कृषि में भागीदारी का प्रष्न है, संहिता में ‘‘भागीदारी‘‘ की कोई परिभाषा नहीं दी गई है । कारोबार अथवा व्यवसायिक क्षेत्र में भागीदारी से आषय ऐसे संव्यवहार जिसमें दो या अधिक पक्ष किसी कार्य को करने में उपागत व्यय और साधन का अंष दान करते हैं तथा ऐसे कार्य से होने वाले न केवल लाभ वरन् हानि में भी बराबर या अंष के अनुपात में हकदार तथा उत्तरदायी होते हैं ।
    भू-राजस्व संहिता की धारा 168 में कृषि भूमि के पट्टों के संबंध में उपबंध किये गये हैं । कृषि भूमि का पट्टा और कृषि में भागीदारी बिलकुल भिन्न संव्यवहार है । इसे समझने के लिए संहिता में कृषि भूमि के पट्टों के संबंध में किये गये उपबंधों को समझना आवष्यक होगा । पट्टे से तात्पर्य संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 105 में परिभाषित पट्टे से ही है । जिसके अनुसार अचल संपत्ति का पट्टा ऐसी संपत्ति का उपयोग करने के ़अधिकार का अभिव्यत या विवक्षित समय के लिए अंतरण है । ऐसे अंतरण के लिए कीमत धन या फसल के अंष या सेवा या अन्य मूल्यवान वस्तु के रूप में दी जाती है । भू-राजस्व संहिता की धारा 168 में भूमि स्वामी द्वारा अपने खाते की भूमि को पट्टे पर दिये जाने के संबंध मंे कतिपय र्निबंधन भी लगाये गये हैं और इन प्रावधानों के उल्लंघन में दिये गये पट्टों को भू-राजस्व संहिता की धारा 169 में अनाधिकृत पट्टे मानकर उसके परिणामों के संबंध में उपबंध किये हैं ।
    जब कोई भूमि स्वामी किसी अन्य व्यक्ति के साथ खेती करने के लिए भागीदारी करता है तब वह अपनी भूमि के उपयोग के अधिकार का अन्तरण अपने भागीदार को नहीं करता है । भागीदारी में सब भागीदार अपने हिस्से के अनुसार खेती के साधन लगाते हैं, अपने अंष के अनुपात में ही पूंजी लगाते हैं और उसी अनुपात में लाभ एवं हानि बांटते हैं । खेती की लागत में अपने-अपने अंष के अनुपात में पूंजी या साधन लगाना और उसी अनुपात में केवल लाभ मंे ही नहीं अपितु हानि में सम्मिलित होना भागीदारी का मूल तत्व है ।
    भू-राजस्व संहिता की धारा 168 के स्पष्टीकरण के अंतर्गत पट्टे की व्यापक परिभाषा दी गई है जो इस प्रकार है;
धारा 168..................................................................
स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिए -
(क)    ‘‘पट्टा‘‘ से अभिप्रेत है कि किसी भूमि का उपभोग करने के लिए अधिकार का ऐसा अंतरण जो कि एक अभिव्यक्त या विवक्षित समय के लिए, किसी कीमत के, जो दी गयी हो या जिसे देने का वचन दिया गया है अथवा धन या किसी अन्य मूल्यवान वस्तु के, जो कालावधीय रूप से अंतरिती द्वारा, जो इस अंतरण को ऐसे निबंधनों पर प्रतिगृहीत करता है, अंतरक को दी जानी है, प्रतिफल के रूप में किया गया हो,
(ख)    किसी ऐसे ठहराव को, जिसके द्वारा कोई व्यक्ति (पट्टेदार) अपने बैलों से या अपने द्वारा उपाप्त बैलों से और उसके द्वारा भूमियों की भूमि की उपज का कोई विनिर्दिष्ट अंष देने की षर्त पर भूमिस्वामी की किसी भूमि पर खेती करता है, पट्टा समझा जाएगा,
(ग)    केवल घास काटने या पषु चराने या सिंघाड़ा उगाने या लाख का प्रजनन या संग्रहण करने, तेंदूपत्ते तोड़ने या उनका संग्रहण करने के अधिकार का दिया जाना भूमि का पट्टा नहीं समझा जावेगा ।
     भू राजस्व संहिता में भागीदारी को परिभाषित नहीं किया गया है। कोई संव्यवहार पट्टे का संव्यवहार है अथवा भागीदारी का संव्यवहार है, यह प्रष्न ऐसे मामलों में सर्वाधिक महत्व का है।
    शीला देवी वि0 पारी बाई 1970 राजस्व निर्णय 536, आनंदराव वि0 राजस्व मण्डल 1967 राजस्व निर्णय 510 एवं हरिचरण वि0 परसादी 1979 राजस्व निर्णय 192 में म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने धन, श्रम और बैलों से खेती करके भूमि स्वामी को आधी उपज देता है तो वह व्यक्ति पट्टाधारी है । आनंद जी कल्याण जी वि0 दौलत सिंह 1965 जे0एल0जे0 670 में म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यदि बंटाईदार भूमि स्वामी के बैलों से खेती करके भूमिस्वामी को फसल का निर्धारित अंष देता है तो वह पट्टाधारी नहीं है और ऐसी बंटाई के संबंध में रोक नहीं है।
यदि दोनो पक्षों द्वारा अपने निर्धारित हिस्सा या अंष के अनुसार खेती, श्रम, धन लगाकर लाभ या हानि इसी प्रकार बंटवारा किया जाता है । वह भागीदारी की में कृषि मानी जाएगी जो संहिता की धारा 168 में प्रतिबंधित नहीं है ।
     कृषि भूमि के संबंध में कोई संव्यवहार करता है अथवा भागीदारी में कृषि का संव्यवहार है, इसका निर्धारण पक्षकारों के आषय, आचरण और संव्यवहार की पद्धति के आधार पर किया जाना चाहिए। यद्यपि कृषि भूमि के पट्टे की लिखित अनिवार्य नहीं है फिर भी कोई लिखित विलेख का शीर्षक भी तात्विक नहीं होगा। जहाॅ संव्यवहार में पट्टे के सभी अवष्यक तत्व मौजूद है वहाॅ बटाई या भागीदारी के रूप में संव्यवहार मान्य नहीं होगा। जहाॅ दो या अधिक व्यक्ति भूमि पर कृषि करने के प्रयोजन से धन या हल-बैल, बीज, कृषि उपकरण, श्रम और कौषल के रूप में पूंजी लगाते हैै तथा कृषि कार्य के खर्चो एवं कृषि कार्य से होने वाले लाभ और हानि में बराबर उत्तरदायी होते है वहाॅ उनके मध्य संव्यवहार भागीदारी का होगा। सामान्य उपधाराणा यह है कि जब कोई व्यक्ति  किराया अथवा प्रीमियम भुगतान पर या बटाई पर जिसमें फसल के अंष के रूप में कीमत दी जाती है, कृषि करता है तब इसे पट्टे का संव्यवहार कहा जायेगा और कृषि करने वालो पट्टाधारी होगा ऐसी स्थिति में जो यह कहता है कि संव्यवहार भागीदारी का है वहाॅ भागीदारी अनुबंध की शर्तों को सिद्ध करने का भार उस पर ही होगा। पट्टे में किराये का भुगतान नगद या वस्तु के रूप में या तय किये गये अनुसार फसल के निष्चित अंष के रूप में किया जा सकता है। जबकि कृषि में भागीदारी के लिए कृषि कार्य में उपागत संपूर्ण व्यय और लाभ में हिस्सेदारी की संविदा आवष्यक तत्व है। इस संदर्भ में सौभागसिंह एवं अन्य विरूद्ध खुषाल गुजर, ए.आई. आर. 1932 नागपुर 138- नाथू विरूद्ध षिवप्रसाद 1968 राजस्व  निर्णय 674 (राजस्व मंडल) आनंद राव मंडलोई विरूद्ध बोर्ड आॅफ रेवेन्यु 1967 राजस्व निर्ण 510 (उच्च न्यायालय) अवलोकन योग्य है।    
    स्पष्ट है कि भागीदारी में कृषि पट्टे के संव्यवहार से भिन्न है यद्यपि संहिता में कृषि भूमि के पट्टे  के संबंध मे प्रावधान किये गये है जिनके अतंगर्त कृषि भूमि के पट्टों के संव्यवहार से संबंधित पक्षकारों के  अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण किया जा सकता है साथ-ही-साथ संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अध्याय 5 के प्रावधान भी इस संबंध में प्रयोज्य होंगे। लेकिन भू-राजस्व संहिता में भागीदारी में कृषि के संव्यवहार विषयक उपबंध नही किये गये है। भागीदारी में कृषि का संव्यवहार दो या अधिक पक्षों के मध्य उनके द्वारा किये गये अनुबंध पर आधारित होता है। इसलिए यह संविदागत व्यवहार है और ऐसे संव्यवहार के आधार पर पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों  का निर्धारण संविदा अधिनियम, 1872, विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के साथ-साथ अन्य प्रयोज्य अनुषंागिक विधिक उपबंधों के आधार पर किये जाने योग्य होगा। ऐसे संविदागत संव्यवहार से उत्पन्न विवाद आर्थिक क्षेत्राधिकार की सीमा के अंतर्गत ग्राम न्यायालय द्वारा सुनवाई के योग्य होंगे लेकिन पट्टे के आधार पर कृषि कार्य हेतु प्राप्त भूमि के संबंध में उत्पन्न दावे ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार में नहीं आयेंगे।
आम चारागाहों के उपयोग से संबंधित विवाद संबंधी विधि-
चारागाह से तात्पर्य ऐसे तृणमय भूमि से हैै जिस पर उगी हुई घास पालतू पषुओं को चराने के उपयोग में लाई जा सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उपयोगी पषुओं के लिए चारागाह उपलब्धता अत्यंत आवष्यक है। चारागाह निजि अथवा शासकीय दोनों ही तरह की भूमियों पर हो सकता है, और इस के आधार पर ही चारागाह के उपयोग के अधिकार का प्रष्न निर्भर करता है। अधिनियम 2008 में आम चारागाह के उपयोग से संबंधित सिविल प्रकृति के विवादों की सुनवाई की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को दी गई है। आम चारागाह से तात्पर्य ऐसे क्षेत्र के आम लोगों के लिए उपलब्ध और उनके उपयोग के लिए अनुज्ञात चारागाह से है।
आम चारागाहों पर सुखाचार
    किसी दूसरे व्यक्ति की संपत्ति को उपभोग करने का अधिकार सुखाधिकार कहा जाता है। भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882 में अनेक प्रकार के सुखाचारों को वर्णित किया गया है जिसमें किसी की भूमि पर अपने पषुओं को चराने का सुखाचार भी है। उक्त अधिनियम की धारा 18 रूढि़क सुखाचार को परिभाषित करती है जिसके अनुसार किसी स्थानीय रूढि़ के अधिकार पर अर्जित सुखाचार रूढि़क सुखाचार कहा जाता है। किसी ग्राम की रूढि़ के अनुसार ग्राम की भूमि का प्रत्येक कृषक उस रूप में आम चारागाह पर अपने पषुओं को चराने का रूढि़क सुखाचार के आधार पर हकदार हो सकता है। सुखाचार पर आधारित ऐसे आम चारागाह के उपयोग के अधिकार से संबंधित सिविल प्रकृति के विवाद ग्राम न्यायालय द्वारा सुनवाई के योग्य होंगे।
भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत चारागाह की भूमि का उपयोग   
भू-राजस्व संहिता की धारा 131 में अन्य विषयों के साथ-साथ किसी ग्राम की चारागाह की भूमि पर पहुंचने के मार्ग का विवाद तहसीलदार द्वारा स्थानीय रूढि़ को ध्यान में रखते हुये विनिष्चित करने का उपबंध किया गया है और ऐसा आदेष किसी व्यक्ति को उसके सुखाचार के अधिकार को सिविल न्यायालय के माध्यम से लागू कराने के लिए नहीं रोकता है। अर्थात जहाॅ किसी चारागाह की भूमि पर पषुओं को लाने ले जाने के अधिकार का संबंध किसी  व्यक्ति के सुखाचार से है वहाॅ ऐसे सुखाचार के आधार पर सिविल वाद लाया जा सकता है, जिसकी अधिकारिता ग्राम न्यायालय को होगी ।
भू-राजस्व संहिता के अध्याय 18 में दखल रहित भूमि के प्रबंध के अंतर्गत निस्तार पत्रक तैयार किये जाने की व्यवस्था है। भू-राजस्व संहिता की धारा 234 एवं 235 के अंतर्गत निस्तार पत्रक में गाव के पषुओं को चराने का विनियमन करने वाले अनुदेष के उपबंध किये जाते हैं। धारा 237 में कलेक्टर को यह अधिकार है कि वह  चारागाह के लिए दखल रहित भूमि का क्षेत्र आरक्षित रखे। अर्थात भू-राजस्व संहिता में आम चारागाह की उपलब्धता और विनियमन की व्यवस्था की गई है। ऐसे चारागाहों पर ग्राम के निवासियों को अपने पषुओं को चराने का अधिकार होगा। भू-राजस्व संहिता की धारा 242 में वाजिब-उल-अर्ज. में ग्राम की रूढि़यों को अभिनिष्चित कर अभिलिखित किये जाने तदनुसार अभिलेख बनाये जाने की व्यवस्था है। इसमें आम चारागाह पर पषु चराने का रूढि़जन्य अधिकार भी अभिलिखित हो सकता है जिसके अनुसार ग्रामवासियों को आम चारागाह के उपयोग का अधिकार होगा। ऐसे अधिकारों के उपयोग हस्तक्षेप या अन्यथा व्यवधान की दषा में प्रभावित पक्ष ग्राम न्यायालय के समक्ष सिविल वाद के माध्यम से वांछित अनुतोष प्राप्त कर सकता है। ऐसे सिविल विवाद  ग्राम न्यायालय द्वारा सुनवाई योग्य होंगे।
आम चारागाहों से संबंधित वन विधि के प्रावधान
    चारागाह निजि अथवा शासकीय भूमि पर हो सकते है। शासकीय भूमि पर चारागाह शासकीय वन क्षेत्र के अंतर्गत भी आ सकते है। वन विधि के अंतर्गत घास वनोपज है। निष्चित ही ऐसे क्षेत्रों के अंतर्गत चारागाहों के उपयोग का अधिकार संबंधित वन विधि के प्रावधानों से भी शासित होगा।
म.प्र. संरक्षित वन नियम, 2005 के प्रावधानों के अंतर्गत समस्त संरक्षित वनों में चराई को भी निषिद्ध किया गया है सिवाय उन मामलों को छोड़कर जिनमें की ऐसे क्षेत्र कार्य योजना के अंतर्गत या क्षेत्र के वन मंडल अधिकारी द्वारा तैयार की गई चराई योजना के अंतर्गत चराई के लिये खुले घोषित किए गए है।
अनुसूचित जन जाति तथा वन में परंपरा  से रहने वाले वनवासियों के (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 एवं इस अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम 2007 वन में रह रहे अनुसूचित जन जाति तथा वनों में परंपरा से रहने वाले अन्य व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता देने एवं अभिलिखित किए जाने के आशय से बनाये गये है। जिसमें कुछ सीमा तक चराई के अधिकारों को भी मान्य किया गया है। उपरोक्त अधिकारों को स्थापित कर अभिलिखित किए जाने के लिये विशेष प्रक्रिया एवं प्राधिकारी की व्यवस्था है।
     वन एवं ग्रामवासियों की वन उपज से संबंधित निस्तार जरूरतों को पूरा करने की दृष्टि से म.प्र. शासन की वन नीति के अनुसार बनायी गई निस्तार नीति में चराई की सुविधायें दी गई है। जो राज्य के वनों में चराई नियम 1986 के द्वारा नियंत्रित है। म.प्र. चराई नियम 1986 इन नियमों के अंतर्गत कुछ निषिद्ध क्षेत्रों के अलावा मध्यप्रदेश के सरकारी वनों में चराई का विनियमन करने के लिये नियम बनाये गये है। नियमों के अंतर्गत सक्षम वन प्राधिकारी से आवश्यक ’’चराई अनुज्ञप्ति’’ प्राप्त कर पशुओं के लिये चराई के प्रावधान है। 
    ग्राम न्यायालयों को भूमि पर कृषि में भागीदारी से एवं आम चारागाहों के उपयोग से उत्पन्न विवादों के निराकरण के समय उक्त विधिक प्रावधानों को ध्यान में रखना होगा ।    
खण्ड-इ
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008, माल विक्रय अधिनियम, 1930 और मध्यप्रदेश साहूकारी अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के संदर्भ में व्यापार संव्यवहार या  साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी विवादों (जिसमें ब्याज भी सम्मिलित है) के  संबंध में  विधि:
(न्यायिक अधिकारीगण, जिला छिंदवाड़ा द्वारा प्रेषित आलेख पर आधारित)
     ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 की द्वितीय अनुसूची भाग - 1 की प्रविष्टि (3) (ग) के अधीन व्यापार संव्यवहार या साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी वाद सम्मिलित किये गये हैं  तथा अधिनियम की धारा 13 (1) (क) के अधीन ऐसे वादों के विचारण की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को प्रदत्त की गई है। दूसरे शब्दों में ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 की धारा (3) (1) के अधीन स्थापित ग्राम न्यायालय को निम्नलिखित दो श्रेणीयों के धन संबंधी वादों के श्रवण की अधिकारिता हैः-
1.     व्यापार संव्यवहार से उद्भूत धन संबंधी वाद।
2.     साहूकार से उद्भूत धन संबंधी वाद।
व्यापार  संव्यवहार से उद्भूत धन संबंधी वाद
    व्यापारिक संव्यवहार से उद्भूत धन संबंधी वाद माल विक्रय अधिनियम 1930 के प्रावधानों से षासित होते हैं साथ ही सभी व्यापारिक संव्यवहार क्रेता एवं विक्रेता के मध्य संपन्न संविदा के अधीन संपादित होते हैं । अतः उन पर संविदा विधि के प्रावधान भी प्रभावी होते हैं । व्यापारिक संव्यवहार के अंतर्गत अधीन संबंधित पक्षों के मध्य विवाद उत्पन्न होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे कि क्रेता द्वारा माल स्वीकार कर लेना या उसका कब्जा प्राप्त कर लेना लेकिन कीमत का संदाय न करना, क्रेता द्वारा माल को स्वीकार न करने के कारण विक्रेता को हानि होना, विक्रेता द्वारा माल का परिदान न करने पर क्रेता को हानि होना, पक्षकारों द्वारा संविदा का पालन न किया जाना आदि ।
    माल विक्रय अधिनियम 1930 के अध्याय 4 में संविदा के पालन एवं क्रेता तथा विक्रेता के कत्र्तव्यों को वर्णित किया गया है । जब किसी पक्षकार  द्वारा ऐसे कत्र्तव्यों का उल्लंघन किया जाता है तब व्यथित पक्षकार इस अधिनियम के अध्याय 6 के अधीन धारा 55 से 61 के उपबंधों के अधीन उपचार प्राप्त कर सकता है । इन प्रावधानों में निम्नलिखित श्रेणी के वाद सम्मिलित किए गए हैं -
1.    माल की कीमत के लिए वाद
2.    माल के अप्रतिग्रहण के लिए नुकसानी का वाद
3.    माल के अपरिदान के लिए नुकसानी का वाद
4.    संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए वाद
5.    वारंटी के भंग के लिए वाद
6.    सम्यक् तिथि से पूर्व संविदा के निराकरण की दषा में वाद
7.    नुकसानी के तौर पर ब्याज तथा विषेष नुकसानी की दषा में वाद
8.    संविदा के पष्चात् अधिरोपित, वर्धित, कम या परिहृत कर की वसूली के लिए वाद
1.    माल की कीमत के लिए वाद    
अधिनियम की धारा 55 के अधीन विक्रेता को अपने माल की कीमत क्रेता से वसूल करने का न्यायिक उपचार प्रदान किया गया है । धारा 55 के दो भाग हैं । धारा 55 (1) के अधीन जब माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रात हो चुकी हो और क्रेता माल की कीमत के संदाय करने में उपेक्षा या संदाय करने से सदोष इंकार करता है तो विक्रेता माल की कीमत के लिए क्रेता के विरूद्ध वाद प्रस्तुत कर सकता है । संपत्ति कब संक्रांत होती है इस प्रष्न का उत्तर अधिनियम की धारा 19 में दिया गया है जो यह उपबंधित करती है कि जहाँ संविदा विनिर्दिष्ट या अभिनिष्चित माल के लिये है वहां उस माल में की संपत्ति क्रेता को उस समय अंतरित होती है जिस समय उसका अंतरित किया जाना उस संविदा के पक्षकारों के द्वारा आषयित हो । अधिनियम की धारा 20 से 24 तक ऐसे प्रावधान किये गये हैं जो कि पक्षकारों के ऐसे आषय को अभिनिर्धारित करने हेतु मार्गदर्षक है कि माल में की संपत्ति कब क्रेता के पक्ष में संक्रांत होती है ।
धारा 55 (2) उस समय लागू होती है जब माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रांत न हुई हो और माल संविदा के लिये विनियोजित न किया गया हो । यहां क्रेता को माल का प्रदाय होना महत्वहीन है । यह उपधारा उस समय लागू होती है जबकि माल की कीमत का संदाय किसी निष्चित दिन देय हो और क्रेता ऐसी कीमत का संदाय करने में उपेक्षा या संदाय करने से सदोष इंकार करे । ऐसी स्थिति में विक्रेता को क्रेता के विरूद्ध माल की कीमत वसूल करने के लिये वाद लाने का उपचार उपगत् होता   है । धारा 55 (2) ऐसे मामलों में भी लागू होती है जहां माल किष्तों में विक्रय किया गया हो तथा किष्त किसी निष्चित दिन देय हो । विक्रय की संविदा में इस प्रावधान के अधीन माल का परिदान तब तक स्थगित रहेगा जब तक कि संपूर्ण कीमत का संदाय न कर दिया जाए ।
2. माल के अप्रतिग्रहण के लिए नुकसानी का वाद
    अधिनियम की धारा 56 के अधीन विक्रेता को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह माल विक्रय की संविदा के अधीन विक्रय माल को ग्रहण करने से क्रेता द्वारा इंकार करने की दषा में उसके विरूद्ध नुकसानी का वाद ला सके। प्रायः क्रेता माल स्वीकार करने से उसी दषा में इंकार करता है जबकि माल की संविदात्मक दर ततकालीन बाजार दर से ऊँची होती है और क्रेता को माल लेने से आर्थिक क्षति संभावित होती है। ऐसी स्थिति में यदि क्रेता माल ग्रहण नहीं करता है तो विक्रेता धारा 56 के अधीन क्रेता के विरूद्ध क्षतिपूर्ति का वाद प्रस्तुत कर सकता है।
3.     माल के अपरिदान के लिए नुकसानी का वाद
     धारा 57 के अधीन क्रेता को विक्रेता के विरूद्ध उपचार प्रदान किया गया है। विक्रेता का यह कर्तव्य है कि वह विक्रय संविदा के अधीन माल का परिदान क्रेता को करे। यदि विक्रेता माल परिदान करने में उपेक्षा या सदोष इंकार करता है तो क्रेता विक्रेता के विरूद्ध नुकसानी का वाद ला सकता है।
     क्रेता माल की संविदा कीमत तथा संविदा भंग की तिथि पर माल के बाजार मूल्य के अंतर के समतुल्य नुकसानी प्राप्त करने का पात्र होता है। इस नुकसानी का निर्धारण भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 73 एवं 74 में विहित प्रावधानों के अधीन किया जाता है ।
    माल विक्रय की संविदा में प्रायः संविदा भंग की तिथि पर माल के बाजार मूल्य और संविदागत मूल्य के अंतर के आधार पर प्रतिकर राषि का निर्धारण किया जाता है। इस बिन्दु पर के.आर.षाह विरूद्ध म्युनिसिपल कमेटी धमतरी 1969 जे.एल.जे. 58 के मामले में माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय ने अवधारित किया है कि माल विक्रय संविदा भंग के मामले में नुकसानी का मापदंड भंग की तिथि पर माल के बाजार मूल्य एवं संविदा मूल्य का अंतर होता है । यदि संविदा भंग की तिथि पर माल के बाजार मूल्य एवं संविदा मूल्य में कोई अंतर न हो तो पीडि़त पक्षकार को केवल सांकेतिक नुकसानी प्राप्त हो सकती है । नुकसानी केवल प्रत्यक्ष एवं स्वाभाविक हानि के लिए देय होती है न कि दूरस्थ एवं परोक्ष हानि के लिए । वस्तुतः नुकसानी का आदेष पारित करते समय न्यायालय का लक्ष्य दोषी पक्षकार को दण्ड देना न होकर पीडि़त पक्षकार को उस स्थिति में लाना होना चाहिए जिसमें वह तब रहा होता जब कि संविदा भंग न हुई होती अर्थात उसका पालन हुआ होता ।
4.     संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद
     अधिनियम की धारा 58 के अनुसार क्रेता विक्रेता के विरूद्ध संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अध्याय-2 के उपबंधों के अधीन संस्थित कर सकता है जबकि विक्रेता द्वारा विनिर्दिष्ट या अभिनिष्चित माल का परिदान न कर संविदा भंग की जाती है। विनिर्दिष्ट पालन की ऐसी डिक्री अषर्त हो सकेगी या माल की कीमत के संदाय या नुकसानी के संदर्भ में या अन्यथा ऐसी शर्तो सहित हो सकेगी जिन्हें न्यायालय उचित समझे। इस धारा की प्रयोज्यता हेतु माल का विनिर्दिष्ट या अनिष्चित होना आवष्यक है।
क्रेता को यह विकल्प है कि वह या तो क्षतिपूर्ति के लिये वाद प्रस्तुत करे या विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अध्याय-2 के उपबंधों के अधीन विनिर्दिष्ट पालन हेतु एवं वैकल्पिक रूप से क्षतिपूर्ति हेतु वाद प्रस्तुत करे । यह उल्लेखनीय है कि इस प्रावधान के अधीन विक्रेता के नुकसानी हेतु क्षतिपूर्ति देने के लिये तैयार होने पर भी उसे संविदा के पालन के लिये विवष किया जा सकता है।
5.     वारंटी के भंग के लिए वाद
     अधिनियम की धारा 12 (3) के अनुसार ’’वारंटी संविदा के मुख्य प्रयोजन का वह संमपाषर््िवक अनुबंध है जिसका भंग नुकसानी के लिये दावा उत्पन्न करता है परंतु माल को प्रतिक्षेपित करने और संविदा को निराकृत करने का अधिकार उत्पन्न नहीं करता’’।   
     अधिनियम की धारा 59 के अधीन यदि विक्रेता ने कोई वारंटी भंग की है या क्रेता ने विक्रेता की किसी शर्त भंग को वारंटी मान लिया है तो क्रेता माल को स्वीकार करके वारंटी भंग के परिणामतः हुई हानि के लिये क्षतिपूर्ति का वाद विक्रेता के विरूद्ध ला सकता है, भले ही क्रेता ने वारंटी भंग को माल की कीमत कम कराने के लिये प्रयुक्त किया हो।
 6.     सम्यक् तिथि से पूर्व संविदा के निराकरण की दषा में वाद
     अधिनियम की धारा 60 के अधीन क्रेता एवं विक्रेता दोनों को यह अधिकार है कि परिदान की तिथि के पूर्व यदि कोई भी पक्षकार संविदा का निराकरण कर देता है तो दूसरे पक्ष को यह उपचार प्राप्त होंगे -
(प)     वह संविदा को अस्तित्व में मानकर परिदान की तिथि तक प्रतीक्षा कर सकेगा।
(पप)     संविदा को विख्ंाडित मान कर भंग के लिये वाद ला सकेगा।
7.     नुकसानी के तौर पर ब्याज तथा विषेष नुकसानी के लिए वाद
     अधिनियम की धारा 61 (1) के अधीन यदि विधि द्वारा ब्याज या विषेष नुकसानी वसूलनीय हो तो उस पर इस अधिनियम के उपबंधों का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके अतिरिक्त जहां धन के संदाय का जो प्रतिफल था वह निष्फल हो गया हो वहां उस धन को वसूल करने के अधिकार पर भी अधिनियम की कोई बात प्रभाव नहीं डालेगी।
     धारा 61 (2) यह प्रावधानित करती है कि यदि कोई अन्यथा संविदा न की गई हो तो न्यायालय -
(क)     विक्रेता को उसके माल की कीमत पर उस तारीख से जिस तारीख को उसने माल का परिदान किया है अथवा कीमत संदेय हो,
(ख)     क्रेता को कीमत के प्रतिदान के लिये संविदा भंग की दषा में उस तारीख से जिस तारीख को कीमत का संदाय किया गया था, ब्याज ऐसी दर से जिसे वह ठीक समझे, दिला सकता है ।
8.     संविदा के पश्चात् अधिरोपित, वर्धित, कम या परिहृत कर की वसूली के लिये वाद
     अधिनियम की धारा 64-क के अधीन सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क या माल के विक्रय एवं क्रय पर कोई कर, माल के विक्रय की संविदा किये जाने के उपरांत अधिरोपित किये जाते है अथवा पूर्व प्रवृत्त ऐसे कर में ऐसी संविदा किये जाने के उपरांत कोई वृद्धि की जाती तो विक्रेता माल की संविदा कीमत में उतनी राषि जोड़ सकता है जो ऐसे कर या कर की वृद्धि बावत् संदेय रकम के बराबर हो। विक्रेता ऐसी जोड़ी गई रकम की वसूली के लिये वाद ला सकता है।
    इसी प्रकार यदि ऐसे शुल्क या कर में संविदा किये जाने के उपरांत कोई कमी की जाती है या उसका परिहार किया जाता है तो क्रेता संविदा कीमत से उतनी राषि काट सकता है जितनी कर या शुल्क की कमी या परिहृत राषि के बराबर है। ऐसी कटौती की वसूली हेतु क्रेता के विरूद्ध विक्रेता द्वारा वाद नहीं लाया जा सकता है।
साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी वाद
ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 में ’’साहूकारी संव्यवहार’’ पद परिभाषित नहीं किया गया है। सामान्य रूप से इस पद में ब्याज आधारित धन संबंधी लेन देन  सम्मिलित है। धन संबंधी लेन देन सामान्य व्यक्ति अथवा साहूकार द्वारा संपादित किया जा सकते है। सामान्य व्यक्ति द्वारा संपादित धन संबंधी लेन देन से उद्भूत धन संबंधी वाद की प्रक्रिया सामान्य धन वसूली वाद की भांति होती है। साहूकार द्वारा संपादित संव्यवहार उद्भूत धन संबंधी वादों के लिए कुछ विशेष प्रावधान मध्यप्रदेश साहूकारी अधिनियम 1934 में प्रावधित किए गए है।
     ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के प्रावधानों के अधीन राज्य में पूर्व प्रवृत्त विधायन अ्रतिष्ठित नहीं किये गये है। अतः साहूकारी संव्यवहार उद्भूत धन संबंधी वाद मध्यप्रदेश राज्य में पूर्व प्रवृत्त ’’मध्यप्रदेश साहूकारी अधिनियम, 1934’’ के प्रावधानों से नियंत्रित एवं विनियमित होंगे।
साहूकार कौन है
     मध्यप्रदेश साहूकारी अधिनियम, 1934 की धारा 2 (ट) के अधीन “साहूकार से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो व्यापार के नियमित अनुक्रम में इस अधिनियम में यथा परिभाषित ऋण अधिदाय करता हो और अधिनियम की धारा 3 के उपबंधों के अध्याधीन रहते हुये इस पद में साहूकारी और ऋण अधिदाय करने वाले व्यक्ति के विधिक प्रतिनिधि एवं हित उत्तराधिकारी चाहे उत्तराधिकार, समनुदेशन अथवा अन्यथा द्वारा हो, सम्मिलित होना तद्नुसार तात्पर्यित होंगे’’ इस परिभाषा के अधीन किसी भी व्यक्ति के साहूकार होने के लिये दो बातें अपेक्षित है:-
1.     ऐसा व्यक्ति इस अधिनियम में परिभाषित ऋण प्रदान करता हो, एवं
2.     इस प्रकार ऋण प्रदान करना ’’व्यापार के नियमित अनुक्रम में हो’’
     स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के साहूकार होने के लिए यह आवश्यक है कि उसने अपने व्यापार के नियमित अनुक्रम में कई व्यक्तियों को ऋण दिया हो। यदि साहूकारी का एकाकी संव्यवहार न्यायालय में दर्शित किया जाता है तब ऐसे संव्यवहार को व्यापार के नियमित अनुक्रम में किया गया कहना संभव नहीं होगा। इस बिन्दु पर सीताराम श्रवण वि0 विजया ए.आई.आर. 1941, नागपुर 177 के न्याय दृष्टांत में यह अवधारित किया गया है, कि निश्चित रूप से धन उधार देने का एकल संव्यवहार व्यापारिक कार्य है परंतु यह आवष्यक रूप से व्यापार के नियमित अनुक्रम में किया गया कार्य नहीं होता है। ऐसे मामलों में यह अधिनियम लागू नहीं होता है। यह अधिनियम केवल साहूकारों पर लागू होता है और इसे लागू किये जाने के पूर्व यह दर्षित किया जाना चाहिये कि वादी साहूकार है।
     इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 2 (ट) के अधीन साहूकार है और उसने कोई ऋण दिया है तब वह यह प्रतिरक्षा नहीं ले सकता है कि उसकी साहूकार की प्रास्थिति समाप्त हो गई है। पुनः इसी प्रकार मात्र एक या दो बार ऋण देने से कोई व्यक्ति अधिनियम की धारा 2 (ट) यथा परिभाषित साहूकार नहीं बन जाता है परन्तु जहां ऋण केवल एक ही व्यक्ति को व्यापार के समान्य अनुक्रम में प्रदान किया जाता है तथा संव्यवहार एकंाकी और अनौपचारिक नहीं है वहां ऋण दाता साहूकार कहलायेगा। इस संबंध में दुआ लाल विरूद्ध रामसिंह 1961 एम.पी.एल.जे., शोर्ट नोट 301 के न्याय दृष्टांत में मध्य भारत साहूकारी अधिनियम, 1950 के समवर्ती प्रावधान का निर्वचन करते हुए माननीय उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि जहां यद्यपि एक ही कृषक को अग्रिम दिया गया था परंतु उसके साथ संव्यवहार एकल अथवा औपारिक नहीं था वरन उसे व्यापार के नियमित अनुक्रम में समय-समय पर ऋण प्रदान किया जाता रहा था वहां ऐसा ऋण दाता साहूकार की परिभाषा में आयेगा।
ऋण से अभिप्राय
     साहूकारी अधिनियम की धारा 2 (7) के अनुसार ’’ऋण‘‘ से अभिप्रेत है अंतिम संव्यवहार की तिथि से 12 वर्ष की अवधि में ब्याज पर प्रदत्त वास्तविक अग्रिम, चाहे वह धन या वस्तु के स्वरूप में हो, और इसमें कोई भी ऐसा संव्यवहार सम्मिलित है जिसे न्यायालय तात्विक रूप से ऋण निर्धारित करें, परन्तु इसमें निम्नलिखित सम्मिलित नहीं होंगे -
(क)     सरकारी डाकघर, बैंक या अन्य बैंक या कंपनी या किसी सहकारी समिति में जमा किया गया धन या अन्य संपत्ति।
(ख)     सोसायटी रजिस्टेªषन एक्ट, 1860 के या किसी अन्य विधायन के अधीन पंजीकृत किसी समिति या संघ को दिया गया या उनके द्वारा लिया गया ऋण या जमा (डिपोजिट)
(ग)     किसी सरकार या सरकार द्वारा प्राधिकृत किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा दिया गया ऋण।
(घ)     किसी बैंक, सहकारी समिति या कंपनी जिसके खाते कंपनी अधिनियम 1913 के अधीन प्रमाणित संपरीक्षक (आडिटर) के द्वारा संपरीक्षित किये जाने के अध्याधीन हो, द्वारा प्रदत्त ऋण।
(ड)     वचन पत्र से भिन्न परक्राम्य संलेख अधिनियम, 1881 में यथा परिभाषित परक्राम्य संलेख के अधीन प्रदत्त अग्रिम।
(च)     ऐसा संव्यवहार जो विधि के प्रर्वतन द्वारा भार के रूप में सृजित हुआ हो  अथवा तात्विक रूप से स्थावर संपत्ति का विक्रय हो।
(छ)     नियोजक द्वारा अपने कृषि श्रमिक को प्रदत्त ऋण’’
     इस प्रकार कोई भी संव्यवहार तब तक ऋण की परिधि में नहीं आयेगा जब तक उसमें ब्याज न लगाया गया हो। ब्याज पद को अधिनियम की धारा 2 (टप्) में परिभाषित किया गया है जिसकेे अनुसार, ’’ब्याज में वस्तुतः ऋण दी गई राशि के ऊपर अधिक देय राशि सम्मिलित है, चाहे वह विर्निदिष्ट रूप से ब्याज या अन्यथा रूप में अधिरोपित या वसूल की जाना हो, चाहे ऐसा ब्याज अंतिम संव्यवहार की अंतिम तिथि के 12 वर्षो की अवधि में पूंजीगत किया गया हो अथवा नहीं’’।
     स्पष्ट है यदि ब्याज के बिना धन अग्रिम प्रदान किया गया है तो वह ऋण नहीं होगा और ऐसे संव्यवहार पर इस अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
साहूकार के कर्तव्य
     मध्यप्रदेश साहूकारी अधिनियम 1934 के विभिन्न प्रावधानों के अधीन साहूकार पर निम्नलिखित कर्तव्य अधिरोपित किये गये है -
1.     ऋणी को साहूकारी संव्यवहार के साक्ष्य स्वरूप साहूकार के स्वयं अथवा अभिकर्ता के हस्ताक्षर युक्त एवं धारा 2- क (2) की विषिष्टियों सहित व्हाउचर तत्काल प्रदत्त करने का कर्तव्य। (धारा 2 - क (1))
2.     प्रत्येक ऋण को दिये गये ऋण के समस्त संव्यवहारों का खाता नियमित रूप से संधारित करना (धारा 3 (1) (क))
3.     प्रत्येक ऋणी को प्रति वर्ष ऋण का स्पष्ट विवरण देना (धारा 3 (1) (ख))
4.     ऋणी को दिये गये ऋण के विवरण की एक प्रति रजिस्ट्रार को देना  (धारा 3 (1) (ग))
5.     ऋण भुगतान की पावती ऋणी को तुरंत प्रदान करने कर्तव्य (धारा 6)
6.     साहूकार के रूप में रजिस्टेªषन कराने का कर्तव्य धारा 11 बी (ख)
कर्तव्य पालन न करने के सिविल परिणाम
     उक्त कर्तव्यों के अपालन के सिविल एवं दाण्डिक परिणाम अधिनियम में विहित किए गए है। सिविल परिणाम निम्नवत है -
1.     साहूकार द्वारा संव्यवहार का लेखा नियमित रूप से संधारित न करने, (धारा 3 (1) (क) का अपालन) अथवा ऋणी को ऋण भुगतान की रसीद न देने (धारा 6 का अपालन) पर तत्पश्चात ऐसे ऋण संबंधी किसी वाद या कार्यवाही में न्यायालय अधिनियम की धारा 7 (ख) के अधीन, जहां वादी का दावा पूर्णतः या अंशतः सिद्ध हो गया हो, वादी को देय ब्याज या उसके किसी भाग को, जैसा कि वाद की परिस्थिति में न्यायालय को उचित लगे, अमान्य कर देगा तथा वाद व्यय को अमान्य कर सकेगा। इस प्रावधान की अधीन सुसंगत अपालन की दशा में ब्याज अमान्य करना न्यायालय के लिये आज्ञापक है जबकि वाद व्यय अमान्य करना विवेकाधीन है ।
2.     प्रति वर्ष ऋणी को ऋण का स्पष्ट विवरण, जिसमें ऐसे ऋणी के विरूद्ध बकाया की जानकारी हो, न देने की दषा में अधिनियम धारा 7 (ग) के अधीन न्यायालय के लिए यह आज्ञापक है कि वह ऋण पर देय ब्याज की संगणना में उस अवधि को छोड़ देगा जिस अवधि का विवरण ऋणी को प्रदान नहीं किया गया है। यह प्रावधान इस परंतुक के अधीन है कि यदि साहूकार विहित समय उपरांत ऐसे लेखे को ऋणी को प्रदत्त कर देता है तथा न्यायालय का समाधान कर देता है कि लेखे की पूर्व में अप्रस्तुति का पर्याप्त कारण था तो न्यायालय ब्याज की संगणना में ऐसे अवधि को भी सम्मिलित कर सकता है।
    स्पष्ट है कि उक्त दोनों परिस्थितियों में ब्याज देने से इंकार करना आज्ञापक है जबकि वाद-व्यय नहीं दिया जाना न्यायालय के विवेकाधीन है ।
     न्यायालय लेखों के पुनः खोले जाने का आदेष देने से विरत् नहीं है और न्यायालय ऐसे ब्याज को अमान्य कर सकता है जो ऐसी अवधि का है जिस अवधि के लेखे की प्रस्तुति का लोप किया गया है। न्यायालय ऐसे ऋण में ब्याज को कम कर सकता है। इस संबंध में श्रीकृष्ण गोपाल जी विरूद्ध महादेव कृष्णराव, 1959 एम.पी.एल.जे. 50 के न्याय दृष्टांत में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां ऋणी ने ब्याज के रूप में विनिर्दिष्ट धन राषियाॅं प्रकट रूप से संदाय की है परंतु ऋणदाता के वाद में यह पाया जाता है कि अधिनियम की धारा 3 (1) (ख) के अधीन ऐसी अवधि का खाते का विवरण ऋणी को नहीं दिया गया है वहां न्यायालय धारा 7 के अधीन खाते को पुनः खोलने तथा शोध्य राषि न्यायनिर्णीत करने से विरत नहीं है।
     लक्ष्मीनारायण विरूद्ध भवर लाल 1985, एम.पी.डब्ल्यू.एन., नोट 355 के न्याय दृष्टांत में यह अवधारित किया गया है की जहां साहूकार अधिनियम 1934 की धारा 3 (1) (क) का पालन नहीं किया गया है वहां न्यायालय पूर्णतः या भागतः ब्याज एवं वाद-व्यय की राषि अमान्य कर सकता है। राजाराम भिवानी वाला विरूद्ध नंदकिषोर 1975 एम.पी.एल.जे. 225 के न्याय दृष्टांत में माननीय उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि जहां साहूकार द्वारा अधिनियम की धारा 3 (1) (क) अथवा 3 (1) (ख) की अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं की है वहां धारा 7 के अधीन न्यायालय पूर्व में ही भुगतान कर दिये गये ब्याज को अमान्य कर सकता है तथा इस राषि को मूलधन के भुगतान के रूप में समायोजित कर सकता है।
3.     प्रत्येक साहूकार पर अधिनियम की धारा 11 (ख) के अधीन यह दायित्व अधिरोपित किया गया है कि वह साहूकार के रूप में रजिस्ट्रार के यहां अपना रजिस्टेªषन कराये एवं रजिस्ट्रीकरण प्रमाण पत्र प्राप्त करें। तद्उपरांत वह उस क्षेत्र में साहूकारी व्यवसाय करने हेतु अधिकृत होगा जिस क्षेत्र के लिये ऐसा प्रमाण पत्र उसे प्रदान किया गया है। यदि किसी व्यक्ति द्वारा अपना साहूकार के रूप में रजिस्टेªषन कराने के कर्तव्य का अपालन किया गया है, तब उसकी ओर से ऋण की वसूली हेतु कोई वाद अधिनियम की धारा 11 (ज) के अधीन प्रचलनयोग्य नहीं होगा। दूसरे शब्दों में धारा 11 (ज) के अधीन साहूकार के द्वारा वसूली के लिये वाद प्रस्तुत करने पर तब तक रोक लगायी गई है जब तक कि उसके द्वारा इस अधिनियम के अधीन साहूकारी व्यवसाय करने का पंजीयन प्रमाण पत्र प्राप्त न कर लिया गया हो ।
     यह आवश्यक नहीं है कि ऋण संव्यवहार की तिथि अथवा वाद प्रस्तुति दिनांक को वादी का साहूकार के रूप में पंजीयन हो। यदि वाद के विचाराधीन रहते हुये वादी द्वारा ऐसा प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया जाता है, तो यह इस धारा की अपेक्षा की पूर्ति समझा जायेगा। दूसरे शब्दों में यदि साहूकार द्वारा बिना रजिस्टेªशन प्रमाण पत्र के वाद प्रस्तुत कर दिया जाता है तो ऐसा वाद खारिज नही होगा वरन वाद के लंबित रहते हुये ऐसा प्रमाण पत्र प्राप्त करके न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है और न्यायालय बाद में आगे कार्यवाही कर सकता है। इस संबंध में गोकुल दास विरूद्ध नाथू एवं अन्य 1999 (प्प्), एम.पी.जे.आर. शोर्ट नोट 3, श्रीमति जानकी बाई विरूद्ध रतन 1962, एम.पी.एल.जे. 78, लालूराम विरूद्ध रामेश्वर प्रसाद, 1958 एम.पी.एल.जे.,षार्ट नोट 25  के न्याय दृष्टांतों में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 11 (ज) का वर्जन वाद में कार्यवाही अग्रसर किये जाने के विरूद्ध है न कि वाद के प्रस्तुत किये जाने के। यदि वाद के लंबित रहते वैध प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया जाता है तो न्यायालय संबंधित वाद को अग्रसर करने हेतु सक्षम है। 
न्यायालय द्वारा आज्ञाप्त किये जाने वाले ब्याज की सीमा
    साहूकारी अधिनियम 1934 की धारा 10 की अधीन न्यायालय मूलधन से अधिक ब्याज आज्ञप्त नहीं कर सकता। यह प्रावधान आज्ञापक है अर्थात साहूकारी संव्यवहार के संबंध में न्यायालय मूलधन से अधिक ब्याज आज्ञप्त नहीं कर सकता है। यहां यह स्पष्ट किया जाना अपेक्षित है कि इस धारा के अधीन मूलधन से अधिक ब्याज की राशि दिलाने पर रोक लगाई गई है लेकिन आज्ञप्ति प्रदान किए जाने के उपरांत आज्ञप्ति धनराशि पर ब्याज दिलाए जाने पर किसी प्रकार की रोक नही है। मेघराज विरूद्ध मुसम्मात बया बाई 1969 ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 161 के न्याय दृष्टांत में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि अधिनियम का तत्संबंधी वर्जन मूलधन से अधिक अवशेष ब्याज की डिक्री पारित करने के संबंध में है। ऋणी द्वारा समय-समय पर ऋणदाता को भुगतान की गई राशि इस हेतु विचार में नहीं ली जानी चाहिये।
    यह भी उल्लेखनीय है कि वाद प्रस्तुतिकरण की तिथि से डिक्री की तिथि तक के ब्याज (अर्थात वाद कालीन ब्याज) का प्रष्न साहूकारी अधिनियम के प्रावधानों से विनियमित न होकर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 34 से विनियमित होता है। ऐसा अभिमत माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय द्वारा लक्ष्मण प्रसाद विरूद्ध गंधर्व सिंह 1961 जे.एल.जे. षार्ट नोट 129 के न्याय दृष्टांत में व्यक्त करते हुए यह भी प्रतिपादित किया है कि कि मात्र यह तथ्य कि साहूकार ने अधिनियम के प्रावधानों का पालन नहीं किया है सभी परिस्थितियों में वाद कालीन ब्याज अमान्य करने का आधार नहीं है। वादी को वाद कालीन ब्याज दिलाने अथवा नहीं दिलाने के संबंध में उसके आचरण को भी देखा जाना चाहिये।
उक्त स्वरूप के धन संबंधी वादों मंे ब्याज संबंधी सामान्य प्रावधानः-
धन संबंधी वादों में दिलाये जाने वाले ब्याज की निम्नलिखित तीन श्रेणीयाँ हैं-
1.    वाद संस्थापन तिथि के पूर्व का ब्याज या वाद पूर्व ब्याज
2.    वाद कालीन ब्याज
3.    आज्ञप्ति के पष्चात् का ब्याज 
वाद संस्थापन तिथि के पूर्व का ब्याज या वाद पूर्व ब्याज, यदि पक्षकारों के मध्य ब्याज संबंधी करार है तो ऐसी संविदा से एवं ऐसी संविदा के अभाव में माल विक्रय अधिनियम 1930 की धारा 61 तथा ब्याज अधिनियम, 1978 के प्रावधानांें से विनियमित होता है । वाद कालीन ब्याज एवं आज्ञप्ति के पष्चात् ब्याज के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 34 के प्रावधान प्रयोज्य होते हैं । परक्राम्य लिखतों के संबंध में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के धारा 79 एवं 80 के प्रावधान प्रयोज्य होते हैं ।
खण्ड-फ
ग्राम पंचायत के निवासियों द्वारा वन उपज के उपयोग के संबंध में विवाद संबंधी विधि
(जिलों से प्राप्त आलेख प्रकाषन योग्य न होने से संस्थानिक आलेख)
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 (आगे संक्षेप में- ‘‘अधिनियम 2008‘‘) की दूसरी अनुसूची के खण्ड (पपप) के उपखण्ड (ड) के अंतर्गत ‘‘ग्राम पंचायत के निवासियों द्वारा वन उपज के उपयोग के संबंध में विवाद‘‘ ऐसे सिविल प्रकृति के वाद के रूप में विनिर्दिष्ट किये गये हैं जिनकी विचारण की अधिकारिता ग्राम न्यायालय को प्राप्त हैं । सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्र में दैनिक जीवन में कृषि कार्यों, ईंधन, औषधि, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों के प्रयोजन से विभिन्न प्रकार की वन उपज की आवष्यकता होती है इसलिए वन उपज के उपयोग के संबंध मंे विवाद के अवसर भी होते हैं ऐसे विवादों की सुनवाई का अधिकार ग्राम न्यायालय को दिया गया है ।
    अधिनियम, 2008 में ग्राम पंचायत के निवासियों का संदर्भ ग्राम पंचायतों के समूह के लिए ग्राम न्यायालय की स्थापना के उपबंध से सुसंगत हैं । अधिनियम, 2008 की धारा 2 (ख) में ‘‘ग्राम पंचायत‘‘ संविधान के अनुच्छेद 243 ख के अधीन ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ग्राम स्तर पर गठित स्वषासन की किसी संस्था से अभिप्रेत है । म.प्र. राज्य में म.प्र. पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम, 1993 के अंतर्गत ग्राम पंचायतों के गठन की व्यवस्था है । जिसके अनुसार उक्त अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत राज्यपाल लोक अधिसूचना द्वारा ग्राम या ग्रामों के समूह को इस अधिनियम के प्रयोजन के लिए ग्राम के रूप में विनिर्दिष्ट करते हैं । षब्द ‘‘ग्राम‘‘ में राजस्व ग्राम और वन ग्राम सम्मिलित है । इसलिए भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 28 द्वारा उसके अधीन बनाये गये ‘‘आरक्षित तथा संरक्षित वनों में वन ग्रामों की स्थापना नियम, 1977‘‘ के अंतर्गत गठित वन ग्राम के निवासी भी ग्राम पंचायत के निवासी होंगे । यह उल्लेख प्रासंगिक है कि म.प्र. पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम, 1993 में ‘‘पंचायत-उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996‘‘ के उपबंधों की मंषा के अनुरूप संषोधन के माध्यम से अध्याय 14-क जोड़कर अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों के लिए विषेष प्रबंध किये गये हैं जिससे स्पष्ट है कि ऐसे अधिसूचित क्ष्ेात्र के ग्रामों के लिए गठित ग्राम पंचायतों की स्थानीय सीमाओं पर भी अधिनियम, 2008 प्रभावषील   है । इसलिये ऐसे क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों के वनोपज अथवा वन उत्पाद के उपयोग संबंधी विवाद ग्राम न्यायालय द्वारा विचारणीय होंगे ।
    जहां तक वन उपज के उपयोग के अधिकार का प्रष्न है यह अधिकार निर्बाध और असीमित अधिकार नहीं है वरन् वनों के संरक्षण, पर्यावरण की सुरक्षा, वन उत्पादों के दोहन और अभिवहन आदि को नियंत्रित और विनियमित करने के लिए बनाये गये विभिन्न अधिनियम, नियम, विनियम द्वारा ऐसे अधिकारों को निर्बन्धित और सीमित किया गया है जिनके अध्यधीन रहते हुए किसी ग्राम पंचायत के निवासियों को वनोपज के निःषुल्क अथवा सषुल्क (राॅयल्टी या कीमत) और अनुज्ञा के साथ अथवा बिना अनुज्ञा के यथास्थिति उपयोग का अधिकार होगा । जहां ऐसे विधिक अधिकार का उल्लंघन किये जाने पर किसी व्यक्ति को अपने सिविल अधिकार की स्थापना के लिये सिविल कार्यवाही का अधिकार प्राप्त है वहां वह ग्राम न्यायालय के समक्ष ऐसे अधिकार के लिये वाद संस्थित कर सकता है । वन उपज के उपयोग के अधिकार और ऐसे अधिकारों पर विधिक निर्बन्धन को तत्संबंधी विधि के परिप्रेक्ष्य में समझना आवष्यक होगा ।
वन उपज-परिभाषा
    अधिनियम, 2008 में वन उपज को परिभाषित नहीं किया गया है । वन उपज अथवा वन उत्पाद का षाब्दिक अर्थ वनों में उत्पन्न होने वाली वनस्पति, जीव-जन्तु, खनिज आदि से है । चूंकि वन उपज के उपयोग के अधिकार प्रचलित वन विधि द्वारा षासित होते हैं इसीलिए वन विधि में उपलब्ध परिभाषा ग्रहण करना उपयुक्त होगा ।
    भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 2(4) में वन उपज को निम्नानुसार परिभाषित किया गया है:-
धारा 2(4) - वनोपज में सम्मिलित हैं:-
(ए)    निम्नलिखित, चाहे वन (जंगल) में पाई जाएं या न पाई जाएंँ या जंगल से लाई जाएं या न, लाई जाएंँ अर्थातः-
इमारती लकड़ी, काठ कोयला, काउच -उक (कुचूक), रबड़, कत्था, काष्ठ, तेल, राल, प्राकृतिक वार्निष (रोगन), छाल, लाख, चपड़ा या षल्क-लाक्षा, महुआ के फूल, महुआ के बीज, तेंदुपत्ता, (कुथ) और हर्रा, बहेड़ा, आँवला
(बी)    निम्नलिखित जब वन(जंगल) में पाई जाएँ या वन से लाई जावे तबः-
(प)    वृक्ष और पत्ते, फूल एवं फल और वृक्षों के सभी अन्य भाग या उपज जो पूर्व में यहाँ वर्णित नहीं है ;
(पप)    वे पौधे जो वृक्ष नहीं है (घास, लताएँ नरकुल (सरकण्डा) और कोई सम्मिलित करते हुए) और ऐसे पौधों के सभी भाग का उपज;
(पपप)    वन्य पषु, (जंगली जानवर) पषुओं की खालें, हाथी दांत, सींग, हड्डियाँ, रेषम, रेषम के कोए, षहद और मोम तथा पषुओं की उपज के सभी अन्य भाग और
(पअ)    पांस, सतही मिट्टी, चट्टान एवं खनिज, चूने का पत्थर, मरबरला, खनिज तेल, खानों एवं खदानों की सभी उत्पादन;
(अ)    खड़ी हुई कृषिक फसलें ।
भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 2(6) में इमारती लकड़ी को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार ‘‘इमारती लकड़ी‘‘ के अंतर्गत वृक्ष आते हैं, जो गिर गए हो या गिराए गए हों और समस्त लकड़ी चाहे काटी गई हो, फैषन की गई हो या छांटी-आकार दिया गया हो या पोली-खोखली किसी उद्देष्य से की गई हो या नहीं की गई हो । इसी प्रकार धारा 2(7) में ‘‘वृक्ष‘‘ केा परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार वृक्ष में ताड़, बांस, ढंूठ, झाड़ी और बंेत प्रजाति सम्मिलित है । ये सभी वनोंपज हैं । म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम 1969 की धारा 2(घ) में भी उक्त अधिनियम के प्रयोजन से वन उपज की परिभाषा दी गयी है । म.प्र. भू-राजस्व संहिता, 1959 (आगे संक्षेप में- ‘‘भू-राजस्व सहिता‘‘) की धारा 2 (य-1) में इमारती लकड़ी के वृक्ष विनिर्दिष्ट किये गये हैं । इन सभी परिभाषाओं का देखते हुए भारतीय वन अधिनियम की धारा 2 (4) में दी गई वन उपज की परिभाषा व्यापक एवं वर्तमान प्रयोजन के लिए सुसंगत हैं ।
भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 2(4)  में दी गई परिभाषा से यह स्पष्ट है कि वनोपज के अंतर्गत दो प्रकार की चीजें षामिल हैं प्रथम वे जो अपने स्वरूप के कारण ही वनोपज है चाहे वन में पाई गई हो या नहीं । द्वितीय वे जो अपने स्वरूप के कारण नहीं वरन् वन में पाये जाने या वन से लाये जाने के कारण वन उपज की श्रेणी में आती है । वन उपज की परिभाषा से ही यह इंगित है कि वन उपज केवल वन क्षेत्र की विषय वस्तु नहीं है वरन निजी खाते की भूमि एवं वनों से भिन्न षासकीय भूमि से भी वन उपज प्राप्त होती है और इसके लिये भी वन उपज संबंधी विधि लागू होती   है । इसलिये वन उपज के स्त्रोत और उपलब्धता के आधार पर प्रयोज्य विधि का विष्लेषण युक्तियुक्त होगा 
वन उपज के प्रबंधन व अधिकार की दृष्टि से वनों को मुख्यतः दो श्रेणियों में रखा जा सकता है । प्रथमतः भारतीय वन अधिनियम के अंतर्गत घोषित ‘संरक्षित‘ व ‘आरक्षित‘ वन, द्वितीयतः म.प्र. भू राजस्व संहिता से षासित दखल रहित भूमि, षासकीय भूमि एवं खातेदारों की भूमि पर स्थित वन । इस संबंध में म.प्र. भू राजस्व संहिता की धारा 2 (1)(छ) में षासकीय वन को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि षासकीय वन से अभिप्रेत ऐसा कोई वन है जो भारतीय वन अधिनियम, 1927 उपबंधों के अनुसार आरक्षित वन या संरक्षित वन के रूप मंे गठित किया गया है । भारतीय वन अधिनियम, 1927 में ऐसे वनोें के गठन, वनों की उपज में अधिकार तथा अधिकार के दावों के निराकरण एवं षासकीय तथा निजी भूमि की वनोपज के अधिकार और उपयोग के विनियमन संबंधी प्रावधान किये गये हैं । यहाँ यह समझना आवष्यक है कि भू-राजस्व संहिता की धारा 2 (1) (छ) में परिभाषित षासकीय वन क्षेत्र जिसके अंतर्गत आरक्षित वन या संरक्षित वन के रूप में गठित वन आते हैं, पर भू-राजस्व संहिता के उपबंधों का विस्तार नहीं है । आरक्षित वन या संरक्षित वन के रूप में गठित षासकीय वनों और ऐसे वनों के उत्पाद के संबंध में केवल भारतीय वन अधिनियम, 1927 और उसके अधीन बनाये गये नियमों के उपबंध ही लागू होते हैं । जबकि भू-राजस्व संहिता के उपबंध केवल उन वनों और वनोपज के संबंध में ही लागू होंगे जो षासकीय अथवा दखल रहित भूमि एवं निजी खाते की भूमि पर है । यद्यपि आरक्षित अथवा संरक्षित वनो से भिन्न षासकीय भूमि अथवा दखल रहित भूमि एवं निजी खाते की भूमि पर   के वनों और वन उत्पादों के संबंध में भारतीय वन अधिनियम, 1927 और उसके अधीन बनाये गये नियमों के उपबंध भी लागू होते हैं । वन उपज के उपयोग के विवादों के निराकरण के लिये सुसंगत विधि के प्रावधानों का अवलोकन युक्तियुक्त है । प्रमख रूप से प्रचलित अधिनियम और नियम निम्न हैं:-
1.    भारतीय वन अधिनियम, 1927 के सुसंगत प्रावधान
2.    म.प्र. अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000
3.    म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1969
4.    म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) नियम, 1969
5.    म.प्र. वन उपज  (व्यापार विनियमन) काष्ठ नियम, 1973
6.    म.प्र. तेंदूपत्ता (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1964
7.    म.प्र. काष्ठ चिरान (विनियमन) अधिनियम, 1984
8.    म.प्र. संरक्षित वन नियम, 2005
9.    म.प्र. वन उपज (जैव विविधता का संरक्षण और पोषणीय कटाई) नियम, 2005
10.    आरक्षित तथा संरक्षित वनों में वन ग्रामों की स्थापना नियम, 1977
11.    म.प्र. इमारती लकड़ी (बहती हुई, किनारे अटकी हुई, डूबी हुई, बिना स्वामी की) नियम, 1986
12.    म.प्र. आदिम जन जातियों का संरक्षण (वृक्षों में हित) अधिनियम, 1999 तथा अधिनियम के अंतर्गत विनिर्मित नियम, 2000
13.    अनुसूचित जन जाति तथा वन में परंपरा से रहने वाले वनवासियों के (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 एवं इस अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2007
14.    भू-राजस्व संहिता के सुसंगत प्रावधान
    धारा 179, खाते में के वृक्षों पर अधिकार
    धारा 180, वृक्षों के अंतरण पर र्निबंधन
    धारा 234 एवं 235 निस्तार पत्रक के प्रावधान
    धारा 240 कतिपय वृक्षों के काटे जाने का प्रतिषेध
    धारा 241 सरकारी वनों से इमारती लकड़ी की चोरी रोकने के उपाय
15.    मध्यप्रदेष वृक्षों की कटाई का प्रतिषेध या विनियमन नियम, 2007
16.    मध्य प्रदेष षासकीय वनों से लगे ग्रामों में इमारती लकड़ी काटकर गिराने तथा हटाने का विनियमन नियम, 2007
17.    म.प्र. लोक वानिकी अधिनियम, 2001 एवं इस अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2002
18.    जन भागीदारी समितियों के माध्यम से सरकारी वनों का प्रबंधन
19.    म.प्र. षासन की वन उपज के उपयोग के संबंध मंे निस्तार नीति व निर्देष
20.    म.प्र. चराई नियम, 1986
भारतीय वन अधिनियम, 1927 के सुसंगत प्रावधान
    भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 3 में राज्य सरकार को किसी वन भूमि या ऐसी पड़त भूमि जो सरकार की सम्पत्ति हैं या जिस पर सरकार के साम्पत्तिक अधिकार है या जिसकी वनोपज पर सरकार का हक है, को आरक्षित वन बनाने की षक्ति दी गयी है । इस प्रयोजन के लिए सरकार भूमि का अधिग्रहण भी कर सकती  है । जहां किसी भूमि को आरक्षित वन के रूप मंे घोषित किया जाता है वहां ऐसे वन में समाविष्ट भूमि पर किसी व्यक्ति को सरकार की ओर से दिए गए अनुदान या की गई संविदा के सिवाय कोई अधिकार नहीं होता है जैसा कि धारा 5 एवं धारा 23 से प्रगट है । आरक्षित वन बनाये जाने की प्रक्रिया के दौरान इसमें षामिल भूमि से संबंधित विभिन्न अधिकारों के दावों का विनिष्चय वन व्यवस्थापन अधिकारी द्वारा किये जाने के उपबंध किये गये हैं । धारा 12 के अनुसार आरक्षित वन की भूमि पर चराई के अधिकार या वनउपज के अधिकार से संबंधित दावे की दषा में वन व्यवस्थापन अधिकारी ऐसे दावे पूर्णतः या भागतः  मंजूर करने या खारिज करने का आदेष कर सकता है । ऐसे आदेष के विरूद्ध अपील की व्यवस्था धारा 17 में की गयी है । धारा 15 के अनुसार व्यवस्थापन अधिकारी के आदेष द्वारा स्वीकृत अधिकारों को प्रयोग सुनिष्चित किये जाने की व्यवस्था की गयी है । धारा 26 के अंतर्गत आरक्षित वनों में कोई प्रतिषिद्ध कार्य किया जाना दण्डनीय अपराध है । लेकिन उपधारा (2) के अनुसार वन अधिकारी की लिखित अनुज्ञा अथवा राज्य सरकार के द्वारा बनाये गये नियमों के अधीन एवं धारा 15 एवं धारा 23 के अनुसार सरकार की ओर से अनुदान या लिखित संविदा के अधीन प्राप्त अधिकारों के प्रयोग में कोई कार्य किया जा सकता है ।
    धारा 29 में राज्य सरकार को किसी वन भूमि या ऐसी पड़त भूमि जो सरकार की सम्पत्ति है या जिस पर सरकार के साम्पत्तिक अधिकार है या जिसकी वनोपज पर सरकार का हक है, और जो आरक्षित वन में षामिल नहीं है को संरक्षित वन बनाने की षक्ति दी गयी है । धारा 30 के अंतर्गत संरक्षित वन क्षेत्र के कतिपय वृक्षों या वृक्षों के वर्ग को आरक्षित घोषित किये जाने की भी व्यवस्था है । धारा 32 में राज्य सरकार को संरक्षित वनों के संबंध में नियम बनाने की षक्ति दी गयी है ।
    भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 35 से 38 तक ऐसे वन जो सरकार की संपत्ति नहीं है पर नियंत्रण के संबंध में प्रावधान किये गये हैं जिसके अंतर्गत वनों के संरक्षण और प्रबंध तथा वनों के स्वत्व हरण के संबंध में  राज्य सरकार को कार्यवाही करने की षक्तियाँ प्राप्त हैं । धारा 39 के अंतर्गत केन्द्र सरकार को इमारती लकड़ी और अन्य वनोपज पर षुल्क अधिरोपित करने की षक्ति दी गई है । धारा 41 में राज्य सरकार को वन उपज के अभिवहन/परिवहन को विनियमित करने के प्रयोजन से नियम बनाने की षक्ति दी गयी है । जिसके अंतर्गत मध्यप्रदेष अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 बनाये गये हैं । इसके पूर्व 1969 के नियम थे जो निरसित हो गये हैं ।
    भारतीय वन अधिनियम, की धारा 69 के अनुसार प्रतिकूल साबित न कर दिये जाने तक प्रत्येक वनोपज को सरकार की संपत्ति होने की उपधारणा करने का प्रावधान है । धारा 76 के अनुसार राज्य सरकार अन्य विषयों के साथ-साथ वृक्षों और इमारती लकड़ी जो प्राइवेट व्यक्तियों की भूमि में उगे हैं या उनके अधिभोग में हैं के संरक्षण, पुनरोत्पादन और व्ययन के लिए नियम बना सकती है । धारा 80 के अंतर्गत राज्य सरकार ऐसे वनों का प्रबंध कर सकती है जो सरकार और किसी व्यक्ति की संयुक्त संपत्ति है । धारा 81 में सेवा के एवज में वनोपज के अंष के उपभोग की दषा में सेवा करने में असफल होने पर ऐसे अंष के अधिहरण की व्यवस्था की गयी है और धारा 83 में भुगतान योग्य किसी धन के संबंध में वनोपज पर प्रथम प्रभार मानते हुए ऐसी वनोपज के विक्रय से वसूली का प्रावधान है ।
    भारतीय वन अधिनियम के उक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि न केवल षासकीय वन वरन निजी वन की उपज के उपभोग के अधिकार उपरोक्तानुसार नियंत्रित और सीमित न करते हुए विनयमित किये गये है । इसलिए वनोपज के उपयोग के किसी विवाद की दषा में वनोपज के उपयोग के अधिकार को अवधारित करने के लिए उक्त सुसंगत प्रावधानों को विचार में लिया जाना आवष्यक होगा ।
म.प्र. अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 -
    इसमें वनोपज के अभिवहन को विनियमित करने के लिये नियम बनाये गये हैं जिससे वनोपज के अवैध उपयोग को रोका जा सके और इसी अनुरूप वनोपज के आधिपत्य के परिप्रेक्ष्य में इन नियमों का महत्व है ।
    इसके अंतर्गत वनोपज के अभिवहन के संबंध में पास जारी करने वाले अधिकारियों का उल्लेख नियम 4 में है और नियम 3 में वनोपज के अभिवहन के लिये पास का प्रावधान निम्नानुसार किया गया है:-
    किसी भी वनोपज का, मध्यप्रदेष राज्य में या उसके बाहर या उसके भीतर, इसमें इसके पष्चात् उपबंधित रीति के सिवाय, इन नियमों से संलग्न प्ररूप (क), (ख) या (ग) में अभिवहन पास के बिना गमनागमन नहीं किया जाएगा । अभिवहन पास, किसी वन अधिकारी या ग्राम पंचायत या ऐसा पास जारी करने के लिए इन नियमों के अधीन सम्यक्रूप से प्राधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किया जाएगा:
    परन्तु कोई भी अभिवहन पास-
(क)    किसी ऐसी वनोपज को, जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किसी ऐसे ग्राम की सीमाओं के भीतर, जिसमें यह पैदा हुई हो, राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त दिए गए विषेषाधिकार या अधिनियम के अधीन मान्य किए गए अधिकार का प्रयोग करते हुए वास्तविक घरेलू उपयोग के लिए हटाई जा रही है,
(ख)    ऐसी वनोपज को, जिसे राज्य सरकार द्वारा, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इन नियमों के प्रवर्तन से छूट दी जाए;
(ग)    ऐसी वनोपज को, जो तत्समय प्रवृत्त इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी की गई धन संबंधी रसीद (मनी रिसीट/रेटेड पास/वनोपज पास/काटिंग चालान के अंतर्गत आती हो;
(घ)    लघु वनोपज को, वन से स्थानीय बाजार को या संग्रहण केन्द्र को या घरेलू उपभोग के लिए;
(ड.)    वन से ऐसे खनिज को, जिसके लिए इन नियमों के अधीन अभिवहन पास आवष्यक नहीं है, हटाने के लिए अपेक्षित नहीं होगा ।
अधिसूचना क्र. 28-1-2003-दस-3 दिनांक 24 जून, 2003 -
    मध्यप्रदेष अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 के नियम 3 के परन्तुक के खण्ड (ख) द्वारा प्रदत्त षक्तियों को प्रयोग में लाते हुए, राज्य सरकार, एतद्द्वारा, काष्ठ, खनिज, वन्यजीव उत्पाद, तेंदूपत्ता, याल बीज तथा कुल्लू गोंद को छोड़कर समस्त अविनिर्दिष्ट लघु वनोपजों को उक्त नियमों के प्रवर्तन से छूट देती है ।
अधिसूचना क्रमांक एफ-30-8-2002-दस-3 दिनांक 16 मई 2005-
    मध्यप्रदेष अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 के नियम 2 के परन्तुक के खण्ड (ख) द्वारा प्रदत्त षक्तियों को प्रयोग में लाते हुए, राज्य सरकार, एतद् द्वारा, वनोपज की निम्नलिखित प्रजातियों केा उक्त नियमों के प्रवर्तन से छूट प्रदान करती है, अर्थात:-
निम्नलिखित प्रजातियों का काष्ठ:
    (एक)    नीलगिरी        -    यूकेलिप्टस प्रजातियाँ
(दो)    कैसूरिना            -    कैसूरिना इक्वेजेटिफोलिया
(तीन)    सूबबूल            -    ल्यूसेनिया प्रजातियाँ
    (चार)    पापलर            -    पाप्युलस प्रजातियाँ
    (पाँच)    इजरायली बबूल        -    एकेषिया टरिटिलिस
    (छः)    विलायती बबूल        -    प्रोसोपिस जुलिलोरा
(सात)    बबूल            -    अकेषिया निलोटिका
(आठ)    नीम            -    अजाडरक्टा इंडिका
(नौ)    आम            -    मैंजीफैरा इंडीका
(दस)    आयातित/षंकुधारी काष्ठ (चीड़, कैल,देवदार और पाईन) की अन्य समस्त प्रजातियाँ, जो मध्यप्रदेष में नहीं पाई जाती जाती हैं, चाहे वे किसी अन्य नाम से ही जानी जाती हो।
अधिसूचना क्रमांक एफ-30-8-2002-दस-3 दिनांक 16-5-2005 के संषोधन अनुसार नियम 4 (ख) (2) के अंतर्गत -
    प्रायवेट भूमि (भूमिस्वामी) में पाये गये वृक्षों से अभिप्राप्त काष्ठ तथा ईंधन के परिवहन के लिए अभिवचन पास नीचे अधिकथित की गयी प्रक्रिया के अनुसार जारी किया जाएगा:-
(क)     निम्नलिखित प्रजातियों के काष्ठ/ईंधन के परिवहन के लिए अभिवहन पास, इस प्रयोजन के लिए सम्यक् रूप से गठित ‘‘पंचायत स्तर समिति‘‘ की सिफारिष के अनुसार पंचायत द्वारा जारी किया जायेगा:-
(दो)    सिरिस            -    अल्बीरिया प्रजातियाँ
(चार)    बेर            -    जिजुफस प्रजातियाँ
(पाँच)    पलास            -    ब्यूटिया मोनोस्पमा
(छः)    जामुन            -    साइजेजियम कुमिनी
(सात)    रिमझा             -    अकेषिया ल्यूकोफलोइया ।
(आठ)    बाँस, (बेम्बू) खंडवा, बैतूल, होषंगाबाद, हरदा छिन्दवाड़ा, सिवनी, बालाघाट, जबलपुर, कटनी, मंडला, डिंडौरी, षहडोल, उमरिया और सीधी जिलों के सिवाय ।
(ख)    4 (ख) (1) तथा 4 (ख) (2) (क) में उल्लिखित से भिन्न समस्त प्रजातियों के काष्ठ/ईंधन के लिये अभिवहन पास, पंचायत स्तर समिति की सिफारिष के अनुसार, डिवीजनल फारेस्ट आफिसर द्वारा प्राधिकृत वन अधिकारी (फारेस्ट आफीसर) द्वारा जारी किया जायेगा ।
(ग)    जिलो और उससे लगे हुए जिलों के भीतर वनोपज का परिवहन करने के लिए ग्राम पंचायत या उसके द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति अभिवहन पास जारी करेगा । वनोपज का अन्य गंतव्य तक परिवहन करने के लिए अभिवहन पास, डिवीजनल फारेस्ट आफिसर द्वारा प्राधिकृत वन अधिकारी (फारेस्ट आफिसर) द्वारा जारी किया जायेगा ।
(ड.)    लोक वानिकी मिषन के अधीन निजी स्वामित्व के काष्ठ का परिवहन भी ऊपर विहित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जायेगा ।
अभिवहन हेतु जारी किये जाने वाले पास की विषय वस्तु और इससे संबंधित सावधानियों के साथ ही काष्ठ पर संपत्ति तथा अभिवहन चिन्हों के लगाये जाने, संपत्ति चिन्हों के रजिस्ट्रीकरण आदि के प्रावधान करते हुए किसी भी वनोपज का डिवीजनल फारेस्ट आफिसर की लिखित में विषेष अनुज्ञा के सिवाय सूर्यास्त के पष्चात् तथा सूर्योदय के पूर्व के समय के बीच वनों के भीतर परिवहन केा निषिद्ध किया गया है ।
म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1969-
    यह अधिनियम वन उपज के विधि पूर्ण विनियोग द्वारा राज्य के संसाधनों में वृद्धि करने हेतु वन उपज के व्यापार को विनियमित करने के लिए, उस वन उपज के संग्रह के लिए, उन पर निर्भर आदिवासी एवं पिछड़े जन जाति के लोगों को यथार्थ मूल्य उपलब्ध कराने के उद्देष्य से लोक हित में वन उपज के ऐसे व्यापार में राज्य का एकाधिकार सृजित करने के लिए बनाया गया है ।
    इसके अंतर्गत धारा 1 की उपधारा 3 में विषिष्टतः बताई गई और अधिसूचित विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में विनिर्दिष्ट वन उपज के व्यापार को पूर्णतः म.्रप. षासन या उसके द्वारा नियुक्त अभिकर्ता की देख रेख में रखा गया है । जिसके लिए ऐसे अभिकर्ता की नियुक्ति, विनिर्दिष्ट वन उपज के मूल्य निर्धारण, उसके क्रय, परिवहन क्रय की गई वन उपज के संग्रहण के लिये डिपो खोेले जाने, कुछ परिस्थितियों में वन उपज उगाने वालों द्वारा पंजीयन कराये जाने के साथ ही विनिर्दिष्ट वन उपज के निर्माताओं, व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं के रजिस्ट्रेषन को भी आवष्यक बताते हुए कुछ सीमा तक आवष्यक अनुज्ञप्ति उपरांत वन उपज का फुटकर विक्रय अनुमत किये जाने के प्रावधान है ।
    इस अधिनियम में अतिरिक्त रूप से ‘‘वन उपज‘‘ को धारा 2 (घ), वन उपज उगाने वालों को धारा 2 (च) एवं ‘‘काष्ठ‘‘ को धारा 2 (ण) में परिभाषित किया गया है जो निम्नानुसार हैः-
2.    (घ)    ‘वन उपज‘ से अभिप्रेत है सभी जाति के बाॅंस, काष्ठ, खैर, (कत्था) (केटेच्यु) खदिरि (कुछ), कुल्लू गोन्द, धावड़ा गोंद, खैर गोंद, साल की राल (त्मेपद), सालई की राल (ैंसंप त्मेपद) रोषा घास, रोषा घास का तेल, समस्त रूप में लाख, चपड़ा, महुआ के फूल, महुआ बीज (टोली), चिरौंजी, साल बीज, गुठली, हर्रा और कचरिया, माहुल के पत्ते, माहुल की छाल, फूल बुहारी घास या फूल बुहारी;
2.    (च)    वन उपज उगाने वाला, से अभिप्राय -
(एक)    उन क्षेत्रों में, जो समय-समय पर भारतीय वन अधिनियम, 1927 (क्रं 16, वर्ष 1927 ) के अधीन आरक्षित या संरक्षित वनों के रूप में गठित किये गये हों, उगाई गई य पाई गई वनोपज के संबंध में राज्य सरकार से है और ;
(दो)    उपर्युक्त (एक) के अंतर्गत न आने वाले क्षेत्रों में उगाई गई या पाई गई वन उपज के संबंध में -
(क)    राज्य सरकार से है, जहाँ वन उपज कोड की धारा 2 की उपधारा (1) के क्लाज (3) में यथा परिभाषित दखल रहित (न्दवबबनचपमक) भूमि पर उगाई या पाई जावे ;
(ख)    किसी इकाई के अंतर्गत आने वाले यथास्थिति ऐसे खाते के भूधारी या भाड़ेदार (ज्मददंदज) या षासकीय पट्टेदारी से (ळवअमतदउमदज स्मेेमम) या ऐसे सेवा भूमिधारी (भ्वसकमत व िैमतअपबम संदक)  से है जिसमंे वन उपज उगती हो या पाई जाती हो या उसके अंतर्गत ऐसा व्यक्ति आता है, जो समय-समय पर, उसके माध्यम से ऐसी वन उपज पर हक का दावा करता हो; और
(ग)    किसी ऐसी इकाई में जिसमें की वन उपज उगती हो या पाई जाती हो, मध्यप्रदेष भूदान यज्ञ अधिनियम, 1986 (क्र. 28 वर्ष 1968) के अधीन भूदान धारक से है और उसके अंतर्गत ऐसा प्रत्येक व्यक्ति आता है, जो समय-समय पर उसके माध्यम से वन उपज पर हक का दावा करता हो;
2.    (ण)    ‘काष्ठ‘ ( ज्ञंेीजीं) से अभिप्रेत है निम्नलिखित वृक्षों की खड़ी हुई (ैजंदकपदहद्ध या काट कर गिराई गई समस्त लकड़ी चाहे वह किसी प्र्रयोजन के लिए काटी गई हो, (थ्ंेीपवदमक) या खोखली की गई हो (भ्वससवूमक) अथवा नहीं -
1.    सागौन    (ज्मबजवदं ळतंदकपे)        8.     महुआ(डंकीनबं स्ंजपविसपं)
2.    साल (ैीवतमं त्वइनेजं)               9.      मिर्रा (ब्ीसवतवगल वद ैूपमजमदपं)
3.    बीजा (च्जमतवबंतचने उंेेनचपनउ)    10.     करंज (च्वदहंउपं ळसंइतं)
4.    तिनसा (व्नहपदपं क्ंसइंत हवपकमे)    11.     तेंदू (क्पवेचलतवे उमसमतवगलसवद)
5.    षीषम (क्ंसइमतहपं स्ंजपविसपं)           12.     लेंडिया(स्ंहमतेजतवेउपं च्ंतअपसिवतं)
6.    धावड़ा (।ददवहमपेेने स्ंजपविसपं)    13.     सालई बांस (ठवेूमससपं ैमततंजजं )
7.    साज (ज्मतउपदंसपं ज्वउमदजवें)
म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) नियम, 1959
    इसमें उक्त मूल अधिनियम 1969 की धारा 5 (2) खंड ख के संबंध में विभिन्न  विनिर्दिष्ट वन उपजों के एक बार में परिवहन की मात्रा निर्धारित की गयी है और इसी मात्रा को उक्त अधिनियम की धारा 5 (2) के खण्ड (घ) के अंतर्गत वन में निस्तार के अधिकार के अंतर्गत घरेलू उपयोग के परिवहन हेतु मान्य किया गया है । इसके अलावा मूल अधिनियम में बताये गये अभिकर्ता की नियुक्ति, विनिर्दिष्ट वन उपज के उगाने वालों के रजिस्ट्रेषन को आवष्यक बताते हुए इसके लिये विभिन्न वन उपजों की मात्रा की सीमा, विनिर्दिष्ट वन के निर्माताओं, व्यापारियों एवं उपभोक्ताओं के रजिस्ट्रीकरण और इसके लिए आवष्यक मात्रा की सीमा तथा विनिर्दिष्ट वन उपज के फुटकर विक्रय के अनुज्ञप्ति के संदर्भ में मात्रा के निर्धारण को स्पष्ट किया गया है ।
म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) काष्ट नियम, 1973-
    इसके अंतर्गत उक्त मूल अधिनियम, 1969 की धारा 5 (2) के खण्ड (क)(ख)(घ) के अध्याधीन रहते हुए विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी के उपयोग, उपभोग या निस्तार हेतु परिवहन, इसके लिए आवष्यक अनुज्ञप्ति पत्र जारी किये जाने, ऐसी विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी को उगाने वालों के पंजीकरण तथा अन्य विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी के निर्माताओं, व्यापारियों एवं उपभोक्ताओं के पंजीकरण के साथ ही ऐसे पंजीकरण के लिए आवष्यक विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी की मात्रा तथा ऐसी विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी के क्रेता केा दिये जाने वाले प्रमाण पत्र तथा आवष्यकतानुसार एक निष्चित सीमा के अंतर्गत रह कर ऐसी विनिर्दिष्ट इमारती लकड़ी के फुटकर विक्रय के लिए अनुज्ञप्ति जारी करते हुए मंजूरी दिए जाने के प्रावधान है ।
म.प्र. तेंदूपत्ता (व्यापार विनियमन ) अधिनियम, 1964 -
    लोक हित में तेंदूपत्ता व्यापार को विनियमित करने और उस पर म.प्र. राज्य का एकाधिकार उत्पन्न करने के लिए इसे बनाया गया है । इसमें भी ‘‘तेंदूपत्ता उगाने वाला‘‘ की विभिन्न श्रेणीयों को स्पष्ट किया गया है जो लगभग म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1969 में ‘‘वन उपज उगाने वाला‘‘ की श्रेणियों के समान है । इसके अलावा इसमें तेंदूपत्ता क्रय एवं व्यापार के लिये विभिन्न क्षेत्रों में इकाईयों के गठन, अभिकर्ताओं की नियुक्ति, षासन द्वारा तेंदूपत्ता के क्रय मूल्य के निर्धारण हेतु सलाह के लिये प्रत्येक राजस्व आयुक्त के संभाग में एक मंत्रणा समिति के गठन, संग्रहगारों (फड़ों) के खोले जाने तथा क्रय किये गये तेंदूपत्तों के विक्रय या अन्यथा निर्वतन के साथ ही तेंदूपत्ता उगाने वालों व बीड़ी निर्माताओं तेंदूपत्तों के निर्यातकों के रजिस्ट्रीकरण आदि के प्रावधान किये गये हैं । उक्त अधिनियम की धारा 19 में प्रदत्त षक्तियों के अनुक्रम में म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) नियम, 1966  बनाये गये हैं जिनमें 50 तेंदूपत्तों की गड्डी को ‘‘मानक गड्डी‘‘ तथा एक हजार मानक गड््डीयों को एक ‘‘मानक बोरा‘‘ के रूप में मान्य करते हुए तेंदूपत्ता परिवहन के अनुज्ञा पत्रों, मूल अधिनियम, 1964 में बताये गये विभिन्न पंजीकरणों की प्रक्रिया और तेंदूपत्ता विक्रय पत्र जारी किये जाने के प्रावधान है ।
म.प्र. काष्ठ चिरान (विनियमन) अधिनियम, 1984 -
    इन नियमों के अंतर्गत इमारती लकड़ी एवं अन्य प्रकोष्ठ के अवैध रूप से गिराने एवं उपयोग को नियंत्रित करने के प्रावधान किये गये हैं । इस अधिनियम के अंतर्गत आरा मिल रखे जाने वाले काष्ठ का वैध रूप से अभिप्राप्त होना एवं उसके संबंध में विहित अभिलेखों का रखा जाना आवष्यक है । चूंकि इमारती लकड़ी व अन्य काष्ठ वनोपज की श्रेणी में आते हैं इसलिए यह प्रावधान भी इस संबंध में सुसंगत हैं ।
    उक्त अधिनियम के अंतर्गत बनाये गये नियम 1984 के संबंध में विषेष उल्लेख अनावष्यक है ।
म.प्र. संरक्षित वन नियम, 2005:-
    यह नियम भारतीय वन नियम की धारा 32 एवं 76 के प्रावधानों के अंतर्गत बनाये गये हैं जिनके द्वारा इस संबंध में पूर्व के प्रचलित नियम 1960 अतिष्ठित कर दिए गए हैं । इन नियमों का उद्देष्य संरक्षित वनों में समस्त वृक्षों को आरक्षित वृक्ष घोषित करना एवं अनुमोदित कार्य योजना के अनुसार ही ऐसे आरक्षित वनों केा काटने या हटाने की अनुमति देना है ।
    इसके साथ ही यह नियम समस्त संरक्षित वनों में चराई को भी निषिद्ध करते है सिवाय उन मामलों को छोड़कर जिनमें कि ऐसे क्षेत्र कार्य योजना के अंतर्गत या क्षेत्र के वन मंडल अधिकारी द्वारा तैयार की गई चराई योजना के अंतर्गत चराई के लिए खुले र्घोिषत किए गए हैं । इसी प्रकार इन नियमों के अनुसार समस्त संरक्षित वनों में खनिज पदार्थों का संग्रहण या वन उपज का संग्रहण राज्य सरकार के विषिष्ट आदेष ही किया जा सकेगा । वन उपज का संग्रह इसके अतिरिक्त अनुमोदित कार्य योजना के उपबंधों के अनुसार भी किया जा सकेगा ।
म.प्र. वन उपज (जैव विविधता का संरक्षण और पोषणीय कटाई) नियम 2005:-
    यह नियम भारतीय वन अधिनियम की धारा 76 (घ) के अंतर्गत जैव विविधता (वनस्पति व जन्तु) के संरक्षण तथा सरकारी वन से उपज की पोषणीय कटाई सुनिष्चित करने के आषय से बनाये गये हैं । इन नियमांें के अनुसार राज्य सरकार या प्राधिकृत अधिकारी आरक्षित या संरक्षित वन के किसी भाग को ‘निषिद्ध़क्षेत्र‘ एवं वर्ष की किसी कालावधि को ‘निषिद्ध-मौसम‘ घोषित कर सकेंगे तथा किसी विषिष्टि वर्ष में वन उपज, जो विनिर्दिष्ट वन क्षेत्र से संग्रहित या निष्कर्सित की जा सकती है, की मात्रा की सीमाएं विहित कर सकेंगे । इसी प्रकार किसी वन उपज की विषेष प्रकार से कटाई के लिए पोषणीय कटाई पद्धति भी विहित की जा सकेगी ऐसी घोषणाओं और व्यवस्थाओं की अधीन ही वन उपज का उपयोग किया जा सकेगा साथ ही वन उपज को संग्रहित और निष्कर्ष करने वाले व्यक्ति द्वारा उपाप्त वन उपज का विवरण नियत प्राधिकारी को नियत अंतराल पर देना आवष्यक होगा ।
आरक्षित तथा संरक्षित वनों में वन ग्रामों की स्थापना नियम 1977:-
    यह नियम म.प्र. में भारतीय वन अधिनियम द्वारा वन भूमि पर स्थापित वन ग्रामों एवं संरक्षित तथा आरक्षित वनों दोनों ही वर्गों की भूमि पर प्रभावी होंगे । इन नियमों के अनुसार वन ग्रामों के आदिवासी इतने पषु रखने के अधिकारी होंगे जितने राजस्व ग्राम के निवासी निस्तार नियमों के अधीन रख सकते हैं एवं उसी अनुसार चराई षुल्क का भुगतान करेंगे इसके साथ ही इन वनों में निवासरत आदिवासियों को उनकी निस्तार आवष्यकताओं के लिए इमारती लकड़ी तथा ईंधन राॅयल्टी की अदायगी की षर्त पर वन मंडल अधिकारी द्वारा नियत मात्रा के अधीन उपलब्ध होगी ।
    इमारती लकड़ी (बहती हुई, किनारे अटकी हुई, डूबी हुई, बिना स्वामी की) नियम, 1986:-
    यह नियम आरक्षित संरक्षित, वर्गीकृत वनों के भीतर या बाहर के समस्त तालाब, सरोवरों व नदियों में बहती हुई, किनारे लगी हुई, अटकी हुई, डूबी हुई, बिना स्वामी की इमारती लकड़ी जिसके मोटाई 60 संे.मी. या उससे अधिक और लम्बाई 50 संे.मी. या उससे अधिक है, की प्राप्ति एवं संग्रहण को विनियमित किये जाने तथा ऐसी लकड़ी पर किसी व्यक्ति के हक व अधिकार के दावे के निराकरण करने की व्यवस्था की दृष्टि से बनाये गये हैं । इन नियमों के अनुसार उक्त प्रकार से प्राप्त लकड़ी षासन की संपत्ति समझी जाएगी जब तक की कोई व्यक्ति उन पर अपना हक या अधिकार निर्दिष्ट अधिकारी के समक्ष साबित नहीं कर देता । इसके अलावा उपरोक्त स्वरूप के वन उपज के संबंध में इमारती लकड़ी से संबंधित अभिवहन और व्यवसाय को विनियमित करने वाली अन्य वन विधियाँ भी समान रूप से प्रभावी होंगी ।
    म.प्र. आदिम जन जातियों का संरक्षण (वृक्षों में हित) अधिनियम, 1999 तथा अधिनियम के अंतर्गत विर्निमित नियम, 2000
    यह विधि आदिम जन जातियों को षोषण से बचाने के लिए उनके खातों की भूमि पर खड़े हुए वृक्षों में उनके हितों का संरक्षण करने की दृष्टि से बनाई गई है जिसके अनुसार आदिम जनजाति के भू-स्वामी के खाते के भूमि में खड़े हुए, अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्रकार के वृक्षों, की कटाई केवल कलेक्टर के अनुमति के पष्चात् वन अधिकारियों के नियंत्राणाधीन की जा सकेगी एवं वृक्षों की बिक्री से प्राप्त कीमत वन अधिकारियों द्वारा संबंधित भू-स्वामी एवं कलेक्टर के संयुक्त बैंक खाते में जमा की जावेगी जिसमें से कलेक्टर द्वारा आहरण भू-स्वामी के सर्वोत्तम हित में तथा उसके वास्तविक तथा असली आवष्यकता को पूरा करने के प्रयोजन से किया जा सकेगा । ऐसी भूमियों के निर्दिष्ट वृक्षों को क्रय किये जाने संबंधी आदिम जन जाति के भू-स्वामी से किया गया अनुबंध षून्य होगा ।
    उक्त अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2000 मंें कलेक्टर द्वारा वृक्षों की कटाई की अनुमति तथा विक्रय एवं विक्रय धन के जमा एवं आहरण की प्रक्रिया स्पष्ट की गयी है ।
अनुसूचित जन जाति तथा वन में परंपरा  से रहने वाले वनवासियों के      (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 एवं इस अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2007
    उक्त अधिनियम वन में रह रहे अनुसूचित जन जाति तथा वनों में परंपरा से रहने वाले अन्य व्यक्तियों जो वनों में तीन पीढि़यों से रह रहे है तथा वनों में कब्जा किये हुये है परंतु जिनके अधिकार कभी अभिलिखित नहीं किए गए उनके अधिकारों को मान्यता देने एवं अभिलिखित किए जाने के आशय से बनाया गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत वन भूमि पर काबिज उक्त व्यक्तियों एवं समुदायों को वन भूमि पर खेती के अधिकार तथा कुछ सीमा तक वन उपज के उपभोग का अधिकार मान्य किया गया है। इन अधिकारों का वर्णन अधिनियम की धारा 3 में उल्लेखित है। इन अधिकारों में सामुदायिक अधिकार जैसे निस्तार का अधिकार एवं लघु वन उपज जो कि अधिनियम में परिभाषित है, जिसका उपरोक्त व्यक्ति परंपरागत रूप से संग्रहण करते रहे है, को संग्रहित करने, उपभोग करने एवं मालिकाना हक को शामिल कर उन्हें मान्यता दी गई है। इसके साथ ही कुछ सीमा तक चराई के अधिकार को भी मान्य किया गया है। अधिनियम में उपरोक्त अधिकारों को स्थापित कर अभिलिखित किए जाने के लिये विशेष प्रक्रिया एवं प्राधिकारी की व्यवस्था है। अधिनियम में वर्णित उक्त अधिकारों को मान्य किये जाने का एवं अभिलिखित किये जाने का कार्य विनिर्दिष्ट प्रक्रिया से संपन्न होने के बाद वन उपज के उपयोग संबंधी अधिकारिता से संबंधित विवाद स्पष्टतः ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत निराकरण योग्य होंगे।
भू-राजस्व संहिता के सुसंगत प्रावधान
    भू-राजस्व संहिता की धारा  2 (छ) में ‘‘सरकारी वन‘‘ को परिभाषित करते हुये कहा गया है कि शासकीय वन से अभिप्रेत ऐसा कोई वन है जो भारतीय वन अधिनियम, 1927 उपबंधों के अनुसार आरक्षित वन या संरक्षित वन के रूप में गठित किया गया हो। लेकिन जहाॅ तक वन उपज के उपयोग का प्रष्न है, वन उपज की परिभाषा और वन अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि वन उपज केवल शासकीय आरक्षित वन या संरक्षित वन की विषय वस्तु नहीं है वरन निजी खाते की भूमि अथवा अन्य शासकीय भूमि से प्राप्त वन उपज भी इसके अंतर्गत आती है। धारा 179 में प्रावधान है की भूमि स्वामी के खाते में खड़े हुये वृक्षों पर उस भूमि स्वामी का ही अधिकार होगा। लेकिन ऐसा अधिकार धारा 240 एवं  241 के द्वारा नियंत्रित किया गया है। धारा 180 में किसी भूमि स्वामी द्वारा भूमि के अंतरण के बिना ही भूमि पर खडे़ वृक्षों के अंतरण को र्निबन्धित किया गया है तथापि ऐसे वृक्षों की उपज अंतरित की जा सकती है।
    धारा 234 के अंतर्गत तैयार किये जाने वाले निस्तार पत्रक में धारा 235 एवं 236 के अनुसार लकड़ी, इमारती लकड़ी, ईधन, और अन्य वन उपज के संबंध में उपबंध किये जाने कि व्यवस्था दी गई है अर्थात ग्राम पंचायत के निवासियों को निस्तार पत्रक के अनुसार वनोपज के उपयोग का अधिकार होता है। ऐसे विधिपूर्ण अधिकार का उल्लंघन या अतिक्रमण किये जाने की दषा में ऐसे व्यक्ति को ग्राम न्यायालय के समक्ष वाद लाने का अधिकार होगा।
    धारा 240 एवं 241 महत्वपूर्ण है क्योकि उक्त धाराओं के अंतर्गत राज्य सरकार कतिपय वृक्षों जो वनोपज है, के काटने, हटाने आदि पर रोक लगा सकती है। धारा 240में यह प्रावधान है कि राज्य सरकार लोक हित में मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए कतिपय वृक्षों के काटे जाने का प्रतिषेध या विनियमन नियम बनाकर कर सकती है चाहे ऐसे वृक्ष शासकीय भूमि पर हो या भूमि स्वामी के भूमि पर । इसी तरह से धारा  241 में राज्य सरकार को शासकीय वनों से इमारती लकड़ी की चोरी रोकने के लिए लोक हित में ऐसे वनों से लगे हुए ग्रामों मंे इमारती लकड़ी काटने, गिराने हटाने को विनियमत करने का अधिकार दिया गया है।
भू-राजस्व संहिता की धारा 240 एवं 241 के उपबंधों के अतंर्गत मध्यप्रदेष राज्य सरकार द्वारा बनाये गये नियम निम्न है-
मध्यप्रदेष वृक्षों की कटाई का प्रतिषेध या विनियमन नियम, 2007
भू-राजस्व संहिता की धारा 240 (1) में यह प्रावधान है कि राज्य सरकार लोक हित में मिट्टी के कटाव को रोकने के लिये कतिपय वृक्षों के काटे जाने का प्रतिषेध या विनिमयन नियमों द्वारा कर सकती हैं। उक्त प्रावधान के प्रकाश में ये नियम बनाये गये है। इन नियमों के अंतर्गत किसी जल धारा झरना या तालाब के कगार से 30 मीटर के भीतर, सड़क या बैलगाड़ी के रास्ते के मध्य से 15 मीटर, पगडंडी से 6 मीटर के भीतर, पवित्र स्थल से 30 मीटर की परिधि में, वृक्षारोपण के क्षेत्र में, पडाव कब्रस्तान, श्मषान, गोठान, खलिहान, बाजार, आबादी के पृथक क्षेत्र एवं पहाड़ी तथा 25 डिग्री से अधिक ढलान वाले क्षेत्र पर किसी वृक्ष को काटने, गिराने, तना छिलने या अन्यथा नुकसान पहुंचाये जाने  को प्रतिषिद्ध किया गया है। साथ ही नियमों में ग्राम पंचायत स्तर की समिति का प्रावधान किया गया है। ऐसी समिति की अनुषंसा और उस पर तहसीलदार की अनुज्ञा के बिना ऐसे कोई वृक्ष नहीं काटे जा सकते है। यद्यपि लोक वानिकी के अंतर्गत योजना के अनुसार वनोपज के रूप में वृक्षों के काटने अथवा हटाने के लिये इन नियमों के अंतर्गत अनुज्ञा की आवश्यकता नहीं होगी। इन नियमों में दखल रहित या शासकीय भूमि पर खड़े वृक्षों को कलेक्टर की अनुज्ञा के बिना नहीं काटे जा सकने का भी प्रावधान किया गया हैं। अर्थात प्रतिषिद्ध किये गये वृक्षों को उक्त नियमों के अंतर्गत विहित अनुज्ञा से ही काटे जा सकने की व्यवस्था दी गई है। 
कटाई के नियम, 1964 (अधिसूचना क्रं. 5262-3472 सात-ना-नियम दि. 28.9.1964)-
     भू-राजस्व संहिता की धारा 240 की उपधारा (3) में राज्य सरकार को उन भूमियों पर के जो राज्य सरकार की हो के वन उत्पादों के नियंत्रण, प्रबंध, तथा काटकर गिराने या हटाये जाने को विनियमित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति दी गई है जिसके अंतर्गत अधिसूचना क्रमांक 5262-3472 सात-ना-नियम दिनांक 28.9.1964 के द्वारा नियम बनाये गये है। उक्त नियमों मंे वनोपज  के नियंत्रण और प्रबंध तथा वृक्षों को काटे जाने आदि के संबंध में प्रावधान किये गये है। जिनके अंतर्गत संरक्षित अथवा आरक्षित वनों के अतिरिक्त राजस्व विभाग के प्रबंध के अधीन शासकीय वनों से निस्तार की आवश्यकता और वनोपज को प्राप्त करने के अधिकार को विनियमित किया गया हैं। नियमो में कलेक्टर को नियत प्रभार की अदायगी पर ग्राम के निवासियों की निस्तार की आवश्यकता के अतिरिक्त वन उत्पाद काटने तथा ले जाने की अनुज्ञा देने, नियमों में वर्णित वनोपज की नीलामी और विक्रय आदि कियेे जाने के प्रावधान है, इन नियमों के अंतर्गत वृक्षों के काटे जाने और वनोपज ले जाने के संबंध में भी शर्ते तय की गई हैं। जिसके अंतर्गत ऐसी वनोपज के अभिवहन तथा व्यापार के लिये म.प्र. अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 एवं म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1969 तथा म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) नियम, 1969 के उपबंधों को भी प्रभावी किया गया है।
मध्य प्रदेष शासकीय वनों से लगे ग्रामों में इमारती लकड़ी काटकर गिराने तथा हटाने का विनियमन नियम, 2007 -
    भू-राजस्व संहिता की धारा 241 सहपठित धारा 258 के अंतर्गत मध्यप्रदेष राज्य सरकार ने शासकीय वनों से इमारती लकड़ी की चोरी रोकने के प्रयोजन से  ऐसे वनों से लगे क्षेत्रों में समाविष्ट ग्रामों में इमारती लकड़ी के वृक्षांे को काटने और हटाने को विनियमित करने के लिए उक्त नियम बनाये है। विभिन्न अधिसूचनाआंे के द्वारा वे क्षेत्र अधिसूचित किये गये है जिनमें समाविष्ट ग्रामों का उल्लेख है। उक्त नियमों के अंतर्गत भी ग्राम पंचायत स्तर की समिति के गठन का प्रावधान है। नियमों के अंतर्गत राष्ट्रीयकृत इमारती लकड़ी के वृक्ष काट कर गिराने के लिये विहित प्रारूप में तहसीलदार को आवेदन पत्र प्रस्तुत करने तदोपरांत अनुज्ञा प्राप्त करके विहित रीति और प्रक्रिया से इमारती लकड़ी के वृक्ष काटने और काटकर गिराने की व्यवस्था है। ऐसी अनुज्ञा से काटे और हटाये गये इमारती लकड़ी के वृक्षों/वन उपज के संबंध में म.प्र. अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 एवं म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) अधिनियम, 1969 तथा म.प्र. वन उपज (व्यापार विनियमन) नियम, 1969 के उपबंधों को लागू किया गया है।
म.प्र. लोक वानिकी अधिनियम, 2001 एवं इस अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2002
    ये अधिनियम मुख्य रूप से निजी एवं राजस्व भूमि के वृक्ष आच्छदित क्षेत्र के विस्तार एवं वैज्ञानिक पद्धति से प्रबंधन के उद्देश्य से बनाया गया है। इस अधिनियम में वृक्षों के अंतर्गत बाँस, ताड़, घनी झाड़ी और बैत को छोड़कर भारतीय वन अधिनियम में समनुदेशित वृक्षों को शामिल किया गया है एवं ऐसे वृक्षों के आच्छदित क्षेत्र को अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार अनुमोदित प्रबंधन योजना के अनुसार विस्तारित किये जाने के प्रावधान किये गये है। ऐसे वृक्षों को अनुमोदित प्रबंध योजना के अधीन काट कर गिराने की अनुमति होने पर हितग्राही को बिना किसी अन्य अनुज्ञा के ऐसे वृक्ष को काट कर गिराने का अधिकार प्रदान किया गया है। ऐसी किसी योजना में एक से अधिक खातेदारों के सम्मिलित होने पर किसी एक खातेदार को ऐसे किसी वृक्ष को काटने या हटाने का अधिकार नहीं है।
    उक्त अधिनियम के अंतर्गत विरचित नियम, 2002 के अनुसार योजना को क्रियान्वित करने वाला व्यक्ति काटकर गिराये गये वृक्षों का विहित प्रारूप में रजिस्टर रखेगा एवं उनका परिवहन म.प्र. अभिवहन (वनोपज) नियम, 2000 के प्रावधानों के अधीन कर सकेगा एवं म.प्र. वन उपज (व्यापार विनिमय) अधिनियम, 1969 के अधीन विनिर्दिष्ट वन उपज होने पर इस अधिनियम के प्रावधान भी ऐसी वन उपज के संबंध में प्रभावी हांेगे।
शासकीय वनों का जन भागीदारी में प्रबंधन तथा ऐसी प्रबंधन समितियांे     को वन उपज के संबंध में अधिकार (म.प्र., राज पत्र, (असाधारण) क्रमांक 72, भोपाल दिनांक 7-2-2000 वन विभाग में प्रकाशित शासन का संकल्प)
     उक्त संकल्प के अनुसार शासकीय वनों के प्रबंधन में जन सहयोग एवं भागीदारी की आवश्यकता को स्वीकार करते हुये राज्य शासन की ओर से जन भागीदारी से वनों के प्रबंधन की योजना क्रियान्वित की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ऐसी जन भागीदारी समिति के सदस्यों को ऐसे वनों से वन उपज के उपयोग हेतु विशेष सुविधाएं दी गई है जिसके तहत् सभी समिति के परिवारों को प्रति वर्ष राॅयल्टी मुक्त एवं विदोहन व्यय की अदायगी पर निस्तार की पात्रता है तथा ऐसी वन समितियों को समय-समय पर माईक्रोप्लान /कार्ययोजना प्रावधानों के अनुसार किये जाने वाले काष्ठ कूप के विरलन तथा बिगड़े बांस वनों के भिर्रा सफाई से प्राप्त शत् प्रतिशत वनोपात विदोहन व्यय की अदायगी पर उपलब्ध होगा।
म.प्र. शासन की वन उपज के उपयोग के संबंध में निस्तार नीति
     वन एवं ग्रामवासियों की वन उपज से संबंधित निस्तार जरूरतों को पूरा करने की दृष्टि से म.प्र. शासन की वन नीति के अनुसार बनायी गई निस्तार नीति में कुछ सीमा तक कुछ वन उपजों के निःशुल्क या राॅयल्टी/ विदोहन व्यय आदि की अदायगी पर उपलब्ध कराये जाने की व्यवस्था है। इससे संबंधित सुविधाएॅं दिनांक 01.07.1996 से निम्नानुसार है:-
 1.    क.     निस्तार के अंतर्गत सुविधा की पात्रता केवल उन ग्रामों के ग्रामीणों के लिए पूर्वानुसार रहेगी जो कि वनों की सीमा से 5 कि.मी. की परिधि के अंतर्गत स्थित हैं, 5 कि.मी. की परिधि की गणना में यदि किसी ग्राम का आंशिक भाग     भी आता है तो वह पूर्ण ग्राम परिधि के भीतर माना जायेगा। ऐसे ग्रामों को वन विभाग अधिसूचित करेगा।
ख.     गर पालिका एवं नगर पंचायत क्षेत्र यदि वे वन सीमा से 5 किमी. की परिधि में या उनके बाहर स्थित हों, में वन विभाग वनोपज प्रदाय की कोई व्यवस्था नहीं करेगा। इन क्षेत्रों के निवासी स्थानीय बाजार से ही वनोपज प्राप्त करेगें।
ग.      किमी. की परिधि के बाहर स्थित ग्रामों को निस्तार के अंतर्गत कोई रियायत प्राप्त नहीं होगी, परंतु उपलब्धता के आधार पर पूर्ण बाजार मूल्य पर इन ग्रामों के ग्रामीणों को ग्राम पंचायत के माध्यम से वनोपज उपलब्ध कराई जा सकेगी।
घ.    वनों से स्वयं के उपयोग के लिये अथवा बिक्री के लिये सिरबोझ द्वारा उपलब्धता अनुसार गिरी, पड़ी, मरी सूखी जलाऊ लकड़ी ले जाने की सुविधा पूर्ववत् रहेगी।
2.    5 किमी. की परिधि में आने वाले ग्रामों को उपलब्धता के आधार पर वनोपज का प्रदाय संयुक्त वन प्रबंधन के लिये गठित ग्राम वन समिति एवं वन सुरक्षा समिति के माध्यम से किया जावेगा।
3.    जिन 5 किमी. तक के ग्रामों में संयुक्तवन प्रबंध समिति गठित नहीं हुई है, वहां ऐसी समिति गठित होने तक उपलब्धता के आधार पर स्थापित विभागीय निस्तार डिपो से वनोपज का प्रदाय किया जावेगा। इस प्रकार के निस्तार डिपो की स्थापना ऐसे ग्रामों के समूह के लिये एकजाई रूप से की जावेगी।
4.    वनों से 5 किमी. से अधिक दूरी वाले ग्रामों के लिये यदि संबंधित ग्राम पंचायतों द्वारा प्रस्ताव पारित कर वनोपज की मांग की जाती है तो उपलब्धता के आधार पर उन्हें ऐसी वनोपज निर्धारित मूल्य पर जिसमें पूर्ण राॅयल्टी, विदोहन, परिवहन एवं अन्य वास्तविक व्यय का समावेश रहेगा, प्रदाय की जावेगी तथा इसके लिये वनोपज का मूल्य अग्रिम रूप से पटाना होगा।
5.    उपरोक्तानुसार वनोपज प्रदाय करने के पूर्व वनमंडलाधिकारी ग्राम पंचायतों को वनोपज की श्रेणीवार दरों की जानकारी देगें। ग्रामीणों को वनोपज वितरण एवं डिपों प्रबंध का दायित्व ग्राम पंचायत का रहेगा। सामग्री वितरण करने हेतु ग्राम पंचायत अतिरिक्त वितरण व्यय एवं युक्तियुक्त लाभ को ध्यान में रखते हुए दर निर्धारण कर सकेगी।
6.    वन विभाग द्वारा निस्तारी वनोपज का प्रदाय  01 जनवरी से  30 जून तक प्रतिवर्ष किया जावेगा।
7.    मुर्दों को जलाने के लिए जलाऊ लकड़ी उपभोक्ता दर पर वेंडर्स को उपलब्ध कराने की पूर्व व्यवस्था यथावत् रहेगी।
निस्तार व्यवस्था के संबंध में आवश्यक निर्देश
वर्तमान निस्तार नीति के अंतर्गत शासकीय वनों की सीमा से 5 किमी. परिधि के अंतर्गत अपने वाले ग्राम के ग्रामीणों को कृषि एवं घरेलू कार्यों के उपयोग हेतु बांस, जलाऊ लकड़ी आदि वनोपज रियायती दरों पर प्रदाय किये जाने का प्रावधान है। इस सुविधा के अंतर्गत प्राप्त वनोपज का विक्रय, विनिमय अथवा अन्य व्यक्तियों को दान किया जाना वर्जित है। निस्तार व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न वनोपज प्रदाय हेतु शासन द्वारा जो व्यवस्था की गयी है वे निम्नानुसार है:-
1.    जलाऊ लकड़ी
क.    ग्रामीण राज्य के समस्त आरक्षित एवं संरक्षित वनों से गिरी, पड़ी मरी, सूखी जलाऊ लकड़ी स्वयं के उपयोग हेतु एवं बिक्री हेतु सिरबोझ से निःशुल्क ला सकते है।
ख.    ग्रामीण उपलब्धता के आधार पर अपने वास्तविक निस्तार के लिये निर्धारित दर पर जलाऊ चट्टे विभागीय कूपों से भी प्राप्त कर सकते हैं। एक ग्रामीण परिवार को वर्ष में अधिकतम 2 चट्टे तक उपलब्धता के आधार पर दिये जा सकते है। उक्त चट्टों का परिवहन केवल बैलगाड़ी अथवा भैंसगाड़ी से किया जा सकेगा।
ग.    वनों से 5 किमी. की परिधि के बाहर स्थित ग्रामों की ग्राम पंचायतें उनकी आवष्यकतानुसार बाजार दर पर निर्धारित डिपों से जलाऊ लकड़ी प्राप्त कर अपने ग्रामीणों को उपलब्ध करा सकती है।
2.    बल्ली
क.    वनों की सीमा से 5 किमी. की परिधि में स्थित ग्रामों के ग्रामीणों को निस्तार दर पर निर्धारित डिपों से बल्ली उपलब्ध कराई जायेगी। कृषि उपकरण योग्य लकड़ी में बल्ली शामिल रहेगी। एक परिवार को एक सीजन में उलब्धता के आधार पर अधिकतम 10 बल्लियां तक उपलब्ध कराई जावेगी।
ख.    वनों में 5 किमी. की परिधि के बाहर स्थित ग्रामों के निवासी अपने पंचायतों के  माध्यम से केन्द्रीय डिपों से बल्लियां प्राप्त कर सकते है।
3.    बांस
क.     वनों में 5 कि.मी. की परिधि मे स्थित ग्रामीण क्षेत्र के निवासी प्रतिवर्ष अधितम 250 नग बांस उपलब्धता के आधार पर निस्तार डिपो से प्राप्त कर सकते हैं।
ख.     वनों से 5 कि.मी. की परिधि के बाहर स्थित ग्रामों के निवासी बाजार दर पर पंचायत के माध्यम से आवश्यकतानुसार बांस प्राप्त कर सकते है।
ग.     प्रत्येक बसोड़ परिवार को प्रतिवर्ष उपलब्धता के आधार पर 1500 नग तक बांस निर्धारित दर पर प्रदाय किये जाने का प्रावधान है। प्रत्येक बसोड़ परिवार को कैलेण्डर वर्ष के लिए पंजीकृत करना आवश्यक है तथा बसोड़ परिवार को बांस प्रदाय करने के लिये एक बही रखी जायेगी।
4.     छोटी वनोपज की निःशुल्क सुविधायें
ग्रामीण अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु वक्कल, जड़े एवं अन्य पैदावार कांटेदार-झाडि़यों, गौण खनिज, फल, फूल आदि निःशुल्क एकत्रित कर सकते हैं, किन्तु वृक्षों अथवा जमीन की सतह पर उगे हुए पौधों को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाई जायेगी। अन्यथा सुविधा पर रोक लगाई जा सकेगी।
5.     चराई की सुविधायें
राज्य के वनों में चराई की सुविधा ’म.प्र. चराई नियम, 1986’ के द्वारा नियंत्रित है।
म.प्र. चराई नियम 1986 -
     इन नियमों के अंतर्गत कुछ निषिद्ध क्षेत्रों के अलावा मध्यप्रदेश के सरकारी वनों में चराई का विनियमन करने के लिये नियम बनाये गये है जिनमें सक्षम वन अधिकारी से आवश्यक ’’चराई अनुज्ञप्ति’’ प्राप्त कर ’’चराई ईकाई/उप इकाई’’ में ही नियत ’’पशु इकाई’’ की सीमा में रहते, उसी क्षेत्र के वन ग्रामों एवं वन खण्ड सीमाओं से 5 किलोमीटर की दूरी के भीतर स्थित ग्रामों जिन्हें ’’सूचीबद्ध ग्राम’’ कहां गया है, को प्राथमिकता देते हुये निःशुल्क या सशुल्क चराई की अनुमति है। इसके साथ ही इसमें ’’अभिवहन चराई अनुज्ञप्ति’’ जारी किये जाने एवं निकटस्थ राज्यों के पशुओं के लिये चराई के भी प्रावधान है। चूंकि चराई में वनोपज का ही उपयोग संभावित है इसलिये उक्त प्रावधानों का अवलोकन आवश्यक है।
     इस प्रकार वन उपज के उपयोग का अधिकार उपरोक्त वन विधियों एवं राजस्व विधियों से विनियमित है। फलतः ऐसे अधिकारों के उपयोग से उद्भूत सिविल प्रकृति के विवाद यदि ग्राम न्यायालय के समक्ष आते है तब न्यायाधिकारी को उपरोक्त विधियों के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुये विवादों का निराकरण करना होगा।