Sunday 29 December 2019

बीमा कानून, दुर्घटना मृत्यु और मुआवजा, जानिए अदालत के प्रमुख निर्णय

बीमा कानून, दुर्घटना मृत्यु और मुआवजा, जानिए अदालत के प्रमुख निर्णय
यद्यपि सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन 'दुर्घटना क्या है'यह हमेशा से दिलचस्प न्यायिक चर्चाओं के केंद्र में रहा है। सामान्य रूप से समझा जाता है कि दुर्घटना एक अप्रत्याशित घटना है, जो सामान्य रूप से घटित नहीं होती, बल्कि जिससे अप्रिय, दुखद या चौंकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने *'श्रीमती अलका शुक्ला बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम'* मामले में अपना फैसला सुनाते हुए इस पहलू पर विस्तार से चर्चा की है। इन दिनों जीवन बीमा पॉलिसियों में 'दुर्घटना मृत्यु लाभ' की शर्त बहुत ही आम बात है। यदि किसी बीमित व्यक्ति की मौत दुर्घटना के कारण हो जाती है तो यह योजना सामान्य जीवन बीमा राशि के अलावा अतिरिक्त कवरेज भी प्रदान करती है। बेशक, इसका लाभ उठाने के लिए बीमित व्यक्ति को अतिरिक्त प्रीमियम का भुगतान करना होता है। उपरोक्त मामले में कोर्ट को यह तय करना था कि क्या कोई व्यक्ति मोटरसाइकिल चलाते वक्त दिल का दौरा पड़ने से मर जाता है तो उसे 'दुर्घटना में हुई मृत्यु' कहा जा सकता है? बीमा कंपनी ने इस आधार पर दावा नामंजूर कर दिया था कि मौत दुर्घटनावश नहीं हुई थी। इसे चुनौती देते हुए मृतक की पत्नी ने उपभोक्ता शिकायत की थी। यद्यपि राज्य आयोग ने याचिका को अनुमति दे दी थी, लेकिन बीमा कंपनी की अपील पर राष्ट्रीय आयोग ने राज्य आयोग के फैसले को पलट दिया था। उसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस मामले में उपलब्ध चिकित्सकीय दस्तावेजों के अनुसार, मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना था और स्कूटर से गिरने से इसका कोई लेना देना नहीं था। इस बात का कोई सबूत नहीं था कि मोटरसाइकिल से गिरने के कारण मृतक को शारीरिक चोट लगी थी या उसी के कारण उसे दिल का दौरा पड़ा था। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने पाया कि इस मामले में मौत की वजह बाइक से गिरना नहीं थी। मौत हृदयाघात से हुई थी, जिसे हिंसक, दृष्टिगोचर और बाह्य तरीकों' से हुई दुर्घटना नहीं कहा जा सकता। 'एक्सिडेंटल' मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' अपने निष्कर्ष तक पहुंचने के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' की अवधारणाओं पर चर्चा की, जिनका इस्तेमाल ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए दुनिया भर के न्यायालयों द्वारा किया जाता है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा कि ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और सिंगापुर सहित दुनिया भर की अदालतों के बीच इस बात को लेकर मतभिन्नता है कि क्या दुर्घटना बीमा दावों का निर्णय करते वक्त 'दुर्घटना के कारकों' और 'दुर्घटना के परिणामों' के बीच अंतर बनाये रखना चाहिए। 'दुर्घटना के कारकों' के दृष्टिकोण के अनुसार, मौत का केवल अप्रत्याशित होना ही उसे 'दुर्घटना में मौत' के रूप में वर्गीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह 'एक्सिडेंटल मीन्स'से होना चाहिए था। यह दृष्टिकोण 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाहरी तरीकों' के वाक्यांश में प्रयुक्त 'कारकों (मीन्स)' के इस्तेमाल से समर्थन हासिल करता है। 'लैंड्रेस बनाम फीनिक्स म्यूचुअल लाइफ इंश्योरेंस' मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का 1934 का फैसला गोल्फ खेलते वक्त एक व्यक्ति की लू लगने से हुई मौत से जुड़े बीमा दावों से संबंधित है। बहुमत के फैसले में यह कहते हुए बीमा दावे को नकार दिया गया कि 'बीमा आकस्मिक परिणाम के खिलाफ नहीं है' और यदि किसी बाहह्य और आकस्मिक कारणों से मौत हुई हो तभी बीमा का भुगतान किये जाने की जरूरत है। न्यायमूर्ति कॉर्दोजो ने हालांकि बहुमत से असहमति का फैसला सुनाया। उनके अनुसार, 'कारक' और 'परिणाम' के बीच अंतर कृत्रिम था। उन्होंने दलील दी थी कि यदि मौत कोई आकस्मिक परिणाम थी, तो यह निश्चित तौर पर 'एक्सिडेंटल मीन्स' से घटित हुई होगी। कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने लैंड्रेस मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के बहुमत के फैसले से अपना अलग मंतव्य दिया है। *'अमेरिकन इंटरनेशनल एश्योरेंस लाइफ कंपनी लिमिटेड और अमेरिकन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी बनाम डोरोथी मार्टिन'* मामले में बीमित व्यक्ति की मौत दवाओं की अधिक खुराक इंजेक्ट करने से हुई थी। बीमा कंपनी ने यह कहते हुए बीमा दावा खारिज कर दिया था कि मौत हिंसक एवं बाहरी 'एक्सिडेंटल मीन्स' के कारण नहीं हुई थी, बल्कि बीमित व्यक्ति द्वारा जानबूझकर किये गये कृत्य से हुई थी। कनाडा कोर्ट ने कहा कि यह तय करने के लिए कि क्या मौत का कारण 'एक्सिडेंटल' था, इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या इसके परिणाम वांछित थे? कोर्ट ने जस्टिस कोर्डोजो के तर्कों का इस्तेमाल करते हुए कहा, "हम (एक्सिडेंटल) 'मीन्स' को शेष कारक श्रृंखला से उपयोगी ढंग से अलग नहीं कर सकते और पूछ सकते हैं कि क्या वे जानबूझकर किये गये थे।" कोर्ट के अनुसार, 'एक्सिडेंटल डेथ'और 'डेथ बाय एक्सिडेंटल मीन्स'दोनों का एक ही अर्थ है और अनपेक्षित परिणामों को आकस्मिक माना चाहिए। कनाडाई अदालत के विचार का समर्थन करते हुए सिंगापुर सुप्रीम कोर्ट ने दवा के गैर-इरादतन ओवरडोज से संबंधित एक मामले में व्यवस्था दी कि 'आकस्मिक कारकों का परीक्षण उन मामलों में बीमा कवरेज से इन्कार करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जहां मौत का अनुमानित कारण मृतक का स्वैच्छिक कार्य था, जिसका अनपेक्षित परिणाम सामने आया था। जब मौत बाहरी हमले के कारण हुई *'कमलावती देवी बनाम बिहार सरकार'* मामले में पटना हाईकोर्ट इस बात को लेकर जूझ रहा था कि क्या चुनाव ड्यूटी कर रहे एक अधिकारी की आपराधिक तत्वों के सशस्त्र हमले के कारण हुई मौत को पूरी तरह एवं प्रत्यक्ष तौर पर 'बाहरी हिंसा तथा किसी अन्य प्रत्यक्ष तरीके से हुई दुर्घटना का परिणाम' माना जा सकता है। 'एक्सिडेंटल मीन्स' और 'एक्सिडेंटल रिजल्ट्स' की अवधारणा पर विचार करने वाले न्यायमूर्ति आफताब आलम (जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज भी बने) ने अपने फैसले में कहा कि वह लैंड्रेस मामले में जस्टिस कॉर्डोजो के विचार को मानने के पक्षधर हैं। यद्यपि न्यायमूर्ति आलम ने व्यवस्था दी कि यह मामला 'एक्सिडेंटल मीन्स' की कसौटी पर खरा है, साथ ही आपराधिक तत्वों द्वारा किया गया हमला 'बाह्य, हिंसक और दृष्टिगोचर' था। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि दोनों ही पहलुओं से देखने पर यह मौत दुर्घटना बीमा लाभ के दायरे में आती है। *'अल्का शुक्ला'* मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णायक रूप से यह निर्धारित करने के लिए जोखिम नहीं उठाया कि कौन सा दृष्टिकोण सही है। शीर्ष अदालत ने हालांकि इस तरह के मामलों को तय करने के लिए यह कहते हुए एक कसौटी तैयार की, "दुर्घटना लाभ कवर के तहत दावा कायम रखने के लिए यह स्थापित किया जाना चाहिए कि बीमित व्यक्ति को शारीरिक चोट लगी है जो मुकम्मल और प्रत्यक्ष तौर पर दुर्घटना का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, दुर्घटना और शारीरिक चोट के बीच एक निकट संबंध मौजूद होना चाहिए। इसके अलावा, दुर्घटना बाहरी हिंसा और दृश्यमान साधनों का परिणाम हो।" 'हिंसक, दृष्टिगोचर एवं बाह्य' - इन शब्दों के अर्थ दुर्घटना लाभ उपबंध में 'एक्सिडेंटल मीन्स' के अभिप्राय की व्याख्या करने वाले इन शब्दों के निहितार्थों को समझना महत्वपूर्ण है। 'हिंसक साधनों' का अर्थ यह नहीं है कि इसमें खुला एवं पाश्विक बल का इस्तेमाल होना चाहिए। यहां तक कि हिंसा की सूक्ष्म घटना, यथा- जहरीली गैस के आकस्मिक सांस लेने, को भी 'हिंसा' माना जाएगा। कोई भी बाहरी कृत्य, जो मानव शरीर को कार्य करने में अक्षम बनाये, उसे 'हिंसक' माना जायेगा। 'हिंसक' शब्द का इस्तेमाल केवल 'किसी हिंसा के बिना' प्रतिशोध में किया जाता है। (इंग्लैंड का हैल्स्बरी कानून का चौथा संस्करण, 2013 (वॉल्यूम 25)) हैल्स्बरी नियम आगे बताता है कि 'बाहरी कारणों' का इस्तेमाल कुछ आंतरिक मामलों के प्रतिकूल के रूप में किया जाता है। कोई भी कारण, जो आंतरिक नहीं है वह बाह्य हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चोट बाहरी होना चाहिए। हो सकता है, और अक्सर होता भी है कि आंतरिक चोट की मौजूदगी बाहर से नहीं प्रतीत होती है। इसलिए इस शब्द का प्रभाव इस बात को रेखांकित करने के लिए है कि पहचान योग्य किसी बाहरी चीजों के संदर्भ के बिना मानव शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले विकार दुर्घटना लाभ के तहत कवर नहीं होते हैं। इस धारणा के आधार पर, केरल उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि किसी दुर्घटना को 'हिंसक' के रूप चिह्नित करने के लिए किसी तीसरे पक्ष या किसी बाहरी एजेंसी के कार्य की आवश्यकता नहीं थी *(वलसाला देवी बनाम मंडल प्रबंधक, कोट्टायम)।* संबंधित मामले में उस बीमाधारक की मृत्यु को लेकर दुर्घटना लाभ का दावा किया गया था, जिसकी मौत एक ऊंची इमारत से गिरने के कारण हुई थी। इस बीमा दावे को यह कहते हुए ठुकरा दिया गया था कि यह 'हिंसक' घटना नहीं थी। बीमा कंपनी ने उस मेडिकल रिपोर्ट पर भरोसा किया था, जिसमें कहा गया था कि मृतक 'मधुमेह और उच्च रक्तचाप' से पीड़ित था। इसलिए बीमा कंपनी ने कहा कि इमारत से बीमित व्यक्ति के गिरने की वजह चिकित्सा की स्थिति थी, न कि कोई बाह्य कारण। बीमा कंपनी के इस रुख को नकारते हुए हाईकोर्ट ने कहा :- "यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि केवल तीसरे पक्ष के कारण हुई दुर्घटना ही इस उपबंध के तहत कवर होगा। चाहे यह किसी तीसरे पक्ष द्वारा अंजाम दिया गया हो, फिसल जाने के कारण या जैसा मौजूदा मामले में हुआ, इमारत से गिरने जैसी दुर्घटना इस बीमा कवरेज के दायरे में आयेगी, यदि यह घातक है। यहां तक कि इमारत से गिरने की घटना मधुमेह या उच्च रक्तचाप के कारण हुई, फिर भी यह दुर्घटना होगी, क्योंकि चिकित्सकीय कारणों से मौत नहीं हुई। इमारत से गिरना ही मौत की एक मात्र वजह थी, क्योंकि गिरने के कारण सिर में चोट लगी। इस मामले में 'बाहरी, हिंसक और दृष्टिगोचर' कारण सिर की चोट है और यही चोट मौत का कारण थी। इमारत से गिरना और सिर में चोट लगना, जिसके कारण मौत हुई, बाहरी कारण है, जबकि रक्तस्राव अथवा हाइपोग्लाइसीमिया आंतरिक कारण हैं। चोट दृष्टिगोचर भी है और इमारत से घातक तरीके से गिरना हिंसा का रूप।" *'अंबालाल लल्लूभाई पांचाल बनाम एलआईसी'* मामले में गुजरात हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि कुत्ते के काटने से हुई मौत भी दुर्घटनावश हुई मौत है। कोर्ट ने कहा कि अप्रत्याशित रूप से होने वाले सभी हादसों, जो जानबूझकर या स्वैच्छिक नहीं हैं, को कवर करने के लिए 'दुर्घटना को एक व्यापक अर्थ दिया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा, "कुत्ते का काटना किसी इरादे से या अभिकल्पना के तहत नहीं किया जा सकता। यह अप्रत्याशित नुकसान है। कुत्ते का काटना निश्चित रूप से बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण होता है जिससे हुए नुकसान की वजह से मौत हुई। इसलिए हमारा मानना है कि कुत्ते के काटने से हुई मौत पॉलिसी उपबंध के तहत दुर्घटना लाभ के दायरे में 'बाह्य, हिंसक और दृश्यमान' कारण है।" नैसर्गिक रूप से हुई बीमारी दुर्घटना नहीं सुप्रीम कोर्ट ने *'शाखा प्रबंधक, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम श्रीमती मौसमी भट्टाचार्जी और अन्य'* के मामले में व्यवस्था दी थी कि मोजाम्बिक में मलेरिया के कारण होने वाली मृत्यु को 'दुर्घटनावश मृत्यु' नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने इस तथ्य के आधार पर यह व्यवस्था दी थी कि वह (मोजाम्बिया) इलाका मलेरिया की आशंका वाला क्षेत्र था और वहां मच्छर का काटना नैसर्गिक प्रक्रिया के बाहर नहीं था। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्टों में कहा गया है कि मोजाम्बिक में तीन में से एक व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित है। कोर्ट ने कहा, "इसलिए यह मान लिया गया है कि जहां रोग नैसर्गिक रूप से हुआ हो, वह दुर्घटना की परिभाषा के दायरे में नहीं आयेगा। हालांकि, कोई रोग या शारीरिक स्थिति तब दुर्घटना के रूप में मानी जा सकती है जब इसका कारण या संचरण का तरीका अप्रत्याशित तथा अनपेक्षित हो।" हत्या एक दुर्घटना ? *राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) ने 'रॉयल सुन्दरम एलायंस इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम पवन बलराम मूलचंदानी'* मामले में व्यवस्था दी थी कि हत्या को दुर्घटनावश हुई मृत्यु माना जा सकता है। आयोग ने *'निस्बेट बनाम रायने एंड बर्न'* मामले में ब्रिटेन की अपीलीय अदालत के फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि मृतक व्यक्ति के दृष्टिकोण से हत्या एक दुर्घटना थी, क्योंकि उसकी वजह से वह व्यक्ति प्रभावित हुआ था। *हेस्ल्बरी मामले* से आयोग ने उद्धृत किया कि यदि चोट का तत्काल कारण बीमाधारक का जानबूझकर और अपनी इच्छा से किया गया कार्य नहीं है तो यह एक दुर्घटना होगी। आयोग ने कहा, "यह निष्कर्ष निकालना उचित और तर्कसंगत है कि व्यक्ति अनपेक्षित और गैर-इरादतन 'एक्सिडेंटल इंज्यूरी' के कारण होने वाली मौत के मद्देनजर व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा कराता है। इस मामले में, बीमाधारक द्वारा तत्काल जानबूझकर कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया, जिसके कारण उसकी हत्या हुई। इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि बीमित व्यक्ति ने तत्काल जानबूझकर किये गये किसी कार्य से या अपनी लापरवाही अथवा प्रवृत्ति के कारण या उकसावे में आकर घायल होने लायक स्थिति में खुद को डाला। उसकी मृत्यु अनपेक्षित और अप्रत्याशित घटना अर्थात् दुर्घटना के कारण हुई। पॉलिसी में वास्तव में 'हत्या'खासतौर पर अपेक्षित नहीं थी। इसलिए, मामले के तथ्यों के आईने में, मौत स्पष्ट रूप से आकस्मिक थी तथा बीमा पॉलिसी के तहत स्पष्टत: कवर थी।" *'रीता देवी बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड'* मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वाहन चोरी की कोशिश करने वाले व्यक्तियों के हाथों एक ऑटोरिक्शा चालक की हत्या को मोटर वाहन अधिनियम के तहत थर्ड पार्टी इंश्योरेंस वाले वाहन के इस्तेमाल से उत्पन्न दुर्घटना करार दिया था। जहां तक चालक की बात है तो यात्रियों द्वारा चोरी का प्रयास एक अप्रत्याशित घटना थी और अगर चालक इस तरह के प्रयास में मारा जाता है, तो यह नैसर्गिक कारण से इतर की घटना है। कोर्ट ने कहा था कि इस घटना को एक दुर्घटना के रूप में माना जाये क्योंकि यह ड्यूटी के दौरान घटित हुई। जब दुर्घटना के कारण बीमारी हो ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती हैं जहां दुर्घटना तत्काल मृत्यु का कारण नहीं बनती हो, लेकिन अन्य स्वास्थ्य जटिलताओं को जन्म दे, जिससे मृत्यु हो सकती है। ऐसे मामले में, जहां एक व्यक्ति की दुर्घटना के तीन दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई, एनसीडीआरसी ने माना कि इसे दुर्घटना के कारण हुई मौत माना जाना चाहिए। आयोग ने 'कृष्णावती बनाम एलआईसी' मामले में निष्कर्ष दिया, "पहले दुर्घटना हुई, जिसके कारण व्यक्ति घायल हुआ और सीने में दर्द हुआ, और अंतत: उसकी मौत हो गयी। हो सकता है, चिकित्सा की भाषा में मौत का कारण 'दिल का दौरा पड़ना' बताया जा सकता है, लेकिन दिल का दौरा पड़ने का मुख्य कारण दुर्घटना की वजह से चोटिल होना था। सीने में दर्द की वजह दुर्घटना थी और उसके बाद दिल का दौरा पड़ा।" जब काम के तनाव के कारण मौत होती है ऐसे कई फैसले हैं जो कहते हैं कि अगर मौत काम से जुड़े तनाव के कारण होती है, तो इसे रोजगार के दौरान होने वाली दुर्घटना के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि बीमा कवरेज की सुरक्षा मिल सके। ये निर्णय कामगार क्षतिपूर्ति अधिनियम के संदर्भ में दिए गए हैं। 'यूनाइटेड इंडियन इंश्योरेंस कंपनी बनाम सी एस गोपालकृष्णन' के मामले में केरल हाईकोर्ट का निर्णय इस बिंदु पर एक अच्छा संदर्भ है, क्योंकि इसमें उच्च न्यायालय के कई अन्य फैसलों पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि कड़ी मेहनत की वजह से हुई बीमारी के कारण मृत्यु एक घातक दुर्घटना है। *'लक्ष्मीबाई आत्माराम बनाम चेयरमैन और ट्रस्टी, बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट, चागला'* मामले में खंडपीठ के लिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "यदि नौकरी के कारण मृत्यु के कारक में योगदान हुआ या नौकरी की वजह से मौत हुई, या यों कहें कि मौत न केवल बीमारी से हुई बल्कि बीमारी और नौकरी दोनों के कारण, तब नियोक्ता जिम्मेदार होगा तथा यह कहा जा सकता है कि नौकरी के कारण ही मौत हुई।" इस तरह के उपबंधों में पाया जाने वाला एक मानक वाक्यांश है- "हिंसक, दृश्यमान और बाहरी वजहों से हुई दुर्घटना के कारण मौत"।

http://hindi.livelaw.in/know-the-law/what-is-accidental-death-in-the-context-of-insurance-law-150644

प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाने के मामलों पर क्या कहता है कानून?

प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाने के मामलों पर क्या कहता है कानून?
 कई बार देश में विरोध प्रदर्शन, हिंसक हो जाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप लोक संपत्ति को काफी नुकसान पहुचंता है। हाल के समय में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों में इसी प्रकार की हिंसा देखने को मिली, जहाँ लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचाया गया। हम एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह समझते हैं कि इस तरह की हिंसा में न केवल लोक संपत्ति को नुकसान पहुंंचता है, बल्कि टैक्स अदा करने वाले नागरिकों के धन का नुकसान होता है, सरकार के खर्चों पर बोझ बढ़ता है, अशांति फैलती है और आमजन का जीवन प्रभावित होता है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान से सम्बंधित कानूनी बातों को विस्तार से समझें। हाल ही में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज्यादती की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने दंगों और सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने पर नाराजगी व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था, "हम जानते हैं कि दंगे कैसे होते हैं। इसे पहले बंद कर दें। हमारे लिए सिर्फ यह तय नहीं कर सकते क्योंकि पथराव किया जा रहा है। हमने काफी दंगे देखे हैं। यह तब तय करना होगा जब चीजें शांत हों। हम कुछ भी तय कर सकते हैं। दंगे रुकने दो। सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट किया जा रहा है। कोर्ट अभी कुछ नहीं कर सकता है, दंगों को रोकें।" अगर विरोध प्रदर्शन ऐसे ही चले और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया तो हम कुछ नहीं करेंगे।" इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ पुलिस हिंसा की कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग करने वाली याचिकाओं के एक समूह पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया था। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह, संजय हेगड़े और कॉलिन गोंजाल्विस की दलीलें सुनने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया, "मामले और विवाद की प्रकृति के संबंध में, और जिस विशाल क्षेत्र में मामला फैला हुआ है, हमें नहीं लगता कि इसके लिए एक समिति नियुक्त करना संभव है। उच्च न्यायालयों से संपर्क किया जा सकता है जहां घटनाएं हुई हैं।" लोक संपत्ति को हुए नुकसान को लेकर क्या है कानून? लोक संपत्ति को होने वाले नुकसान के लिए संसद द्वारा वर्ष 1984 में एक कानून बनाया गया था जिसे लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 के रूप में जाना जाता है, इसके अंतर्गत कुल 7 धाराएँ हैं, हालाँकि हाल ही में इसमें बदलाव की मांग उठी है जिसे हम आगे समझेंगे। यह कानून यह कहता है कि जो कोई व्यक्ति किसी लोक संपत्ति की बाबत कोई कार्य करके रिष्टि (Mischief) करेगा, उसे 5 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3(1)]। गौरतलब है कि इस अधिनियम के अंतर्गत 'रिष्टि' का वही अर्थ है, जो धारा 425, भारतीय दंड संहिता, 1860 में है [धारा 2 (क)]। इसके अलावा यदि कुछ विशिष्ट प्रकार की संपत्तियों के बाबत कोई व्यक्ति कोई कार्य करके रिष्टि करेगा, उसे कम से कम 6 महीने की कठोर कारावास (अधिकतम 5 वर्ष तक का कठोर कारावास) एवं जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3 (2)]। धारा 3 (2) के मामलों में, इन विशिष्ट संपत्तियों में निम्नलिखित संपत्तियां शामिल हैं:- (क) कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति, जिसका उपयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा के उत्पादन, वितरण या प्रदाय के सम्बन्ध में किया जाता है, (ख) कोई तेल प्रतिष्ठान, (ग) कोई मॉल संकर्म, (घ) कोई कारखाना, लोक परिवहन या दूर संचार का कोई साधन या उसके सम्बन्ध में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति. इसके अलावा यदि अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा लोक संपत्ति को नुकसान कारित करने वाली रिष्टि की जाती है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 1 वर्ष के कारावास (अधिकतम 10 वर्ष तक के कठोर कारावास) और जुर्माने से दण्डित किया जाएगा [धारा 4]। गौरतलब है कि इस धारा के अंतर्गत धारा 3 की उपधारा (1) एवं (2) के विषय में बात की गयी है। लोक संपत्ति क्या है? इस कानून में "लोक संपत्ति" का मतलब भी समझाया गया है। अधिनियम की धारा 2 (ख) के अनुसार, "लोक संपत्ति" से अभिप्रेत है, ऐसी कोई संपत्ति, चाहे वह स्थावर हो या जंगम (जिसके अंतर्गत कोई मशीनरी है), जो निम्नलिखित के स्वामित्व या कब्जे में या नियंत्रण के अधीन है :- (i) केन्द्रीय सरकार; या (ii) राज्य सरकार; या (iii) स्थानीय प्राधिकारी; या (iv) किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम; या (v) कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित कंपनी; या (vi) ऐसी संस्था, समुत्थान या उपक्रम, जिसे केन्द्रीय सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे: क्या मौजूदा कानून है पर्याप्त? सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर इस मौजूदा कानून, अर्थात लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम, 1984 को अपर्याप्त पाया है, और इसके लिए दिशानिर्देशों के माध्यम से कानून में मौजूद कमी को दूर करने का प्रयास किया है। वर्ष 2007 में, अदालत ने "विभिन्न ऐसे उदाहरणों के बारे में संज्ञान लिया, जहां आंदोलन, बंद, हड़ताल इत्यादि, के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुँचाया गया था"। दरअसल गुर्जर नेताओं द्वारा अपने समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग करने के बाद, कई राज्यों में हिंसा भड़क गयी थी जिसके बाद इस कानून में बदलाव का सुझाव देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश के. टी. थॉमस और वरिष्ठ वकील फली नरीमन के नेतृत्व में 2 समितियों का गठन भी किया था। गौरतलब है कि सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने जहाँ लोक संपत्ति नुकसान निवारक अधिनियम 1984 के प्रावधानों को कड़ा करने के लिए और विरोध प्रदर्शन के दौरान बर्बरता के कृत्यों के लिए नेताओं को जवाबदेह बनाने पर विचार किया, वहीँ वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन को ऐसे बंद इत्यादि के मीडिया कवरेज को लेकर उपायों की सिफारिश करने का काम सौंपा गया था। सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली समिति ने यह पाया कि राज्य सरकारों द्वारा 1984 के इस अधिनियम का कम ही इस्तेमाल किया जाता है, जबकि उनके द्वारा ज्यादातर भारतीय दंड संहिता, 1860 के प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद वर्ष 2009 में, In Re: Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Ors (2009) 5 SCC 212. के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 2 विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के आधार पर दिशा-निर्देश जारी किए थे। वर्ष 2009 में आये इस मामले के बाद से, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश (संपत्ति के विनाश के खिलाफ) यह हैं कि उस नेता/प्रमुख/आयोजक पर इस विनाश के दायित्व को स्वीकार किया जाएगा, जिसने विरोध करने का आह्वान किया था। समिति के सुझाव को स्वीकार करते हुए, अदालत ने वर्ष 2009 के इस मामले में यह कहा था कि अभियोजन को यह साबित करने की आवश्यकता होनी चाहिए कि किसी संगठन द्वारा बुलाये गए डायरेक्ट एक्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा है, और आरोपी ने भी ऐसी प्रत्यक्ष कार्रवाई में भाग लिया है। अदालत ने यह भी कहा कि दंगाइयों को नुकसान के लिए सख्ती से उत्तरदायी बनाया जाएगा, और हुए नुकसान की "क्षतिपूर्ति" करने के लिए, कंपनसेशन वसूला जाएगा। अदालत ने यह साफ़ शब्दों में कहा था कि, "जहां व्यक्ति या लोग, चाहे संयुक्त रूप से या अन्यथा, एक विरोध का हिस्सा हैं, जो हिंसक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निजी या सार्वजनिक/लोक संपत्ति को नुकसान होता है, तो जिन व्यक्तियों ने यह नुकसान किया है, या वे उस विरोध का हिस्सा थे या जिन्होंने इसे आयोजित किया है, उन्हें इस नुकसान के लिए कड़ाई से उत्तरदायी माना जायेगा, और इस नुकसान का आकलन सामान्य अदालतों द्वारा किया जा सकता है या अधिकार को लागू करने के लिए बनाई गई किसी विशेष प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।" दिशानिर्देशों के अनुसार, "यदि विरोध या उसके कारण, संपत्ति का एक बड़ा विनाश होता है, तो उच्च न्यायालय स्वयं से, मुकदमा चलाने की कार्रवाई शुरू कर सकता है और नुकसान की जांच करने और मुआवजा देने के लिए एक मशीनरी स्थापित कर सकता है। जहां एक से अधिक राज्यों में हिंसा हुई है, वहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी कार्रवाई की जा सकती है। इस नुकसान का दायित्व, अपराध करने वाले अपराधियों पर होगा और इस तरह के विरोध के आयोजक भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दायित्व के अनुसार उत्तरदायी होंगे।" इसके अलावा इस मामले में यह भी दिशानिर्देश जारी किये गए कि, प्रत्येक मामले में, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय, जैसा भी मामला हो, हर्जाने का अनुमान लगाने और दायित्व की जांच करने के लिए एक आयुक्त या सेवानिवृत्त जिला जज को क्लेम कमिश्नर (दावा आयुक्त) के रूप में नियुक्त कर सकता है। क्लेम कमिश्नर की सहायता के लिए एक असेसर नियुक्त किया जा सकता है। नुकसान को इंगित करने और अपराधियों के साथ सांठगांठ स्थापित करने के लिए, दावा आयुक्त और अस्सिटेंट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से, जैसा भी मामला हो, मौजूदा वीडियो या अन्य रिकॉर्डिंग को निजी और सार्वजनिक स्रोतों से तलब करने के लिए निर्देश ले सकते हैं। इसके अलावा अनुकरणीय हर्जाना (Exemplary damages) एक सीमा तक प्रदान किया जा सकता है जो देय होने वाली क्षति की राशि के दोगुने से अधिक नहीं हो सकता है। वर्ष 2018 में कोडूनगल्लुर फिल्म सोसाइटी बनाम भारत संघ (2018) 10 SCC 713 के मामले में अदालत ने वर्ष 2009 के मामले में जारी दिशा-निर्देशों के अतिरिक्त कुछ दिशा-निर्देश जारी किये. पुलिस को जिम्मेदारी को दिशा-निर्देशों में संकलित करते हुए अदालत ने कहा:- A) जब हिंसा की कोई भी घटना, संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है, तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और वैधानिक अवधि के भीतर यथासंभव अन्वेषण पूरा करना चाहिए और उस संबंध में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए। एफआईआर दर्ज करने और पर्याप्त कारण के बिना वैधानिक अवधि के भीतर जांच करने में किसी भी विफलता को संबंधित अधिकारी की ओर से कर्तव्य के खिलाफ माना जाना चाहिए और ऐसे मामलों को सही तरीके से विभागीय कार्रवाई के माध्यम से आगे बढ़ाया जा सकता है। B) चूंकि नोडल अधिकारी, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और अन्य संपत्तियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए प्रत्येक जिले में समग्र जिम्मेदारी रखता है, इसीलिए उसे एफआईआर दर्ज करने और / या उस संबंध में अन्वेषण कराने में किसी भी अस्पष्ट और / या असंबद्ध देरी को, उक्त नोडल अधिकारी की ओर से निष्क्रियता का मामला माना जाएगा। C) वीडियोग्राफी के संदर्भ में अधिकारी-प्रभारी को सर्वप्रथम, संबंधित पुलिस स्टेशन द्वारा घटनाओं को वीडियो-रिकॉर्ड करने के लिए बनाये गए स्थानीय वीडियो ऑपरेटरों के पैनल में से सदस्यों को कॉल करना चाहिए। यदि उक्त वीडियो ऑपरेटर, किसी भी कारण से घटनाओं को रिकॉर्ड करने में असमर्थ हैं या यदि प्रभारी अधिकारी की यह राय है कि पूरक जानकारी की आवश्यकता है, तो वह निजी वीडियो ऑपरेटरों से भी ऐसा करने को कह सकते हैं कि वे घटनाओं को रिकॉर्ड करें और यदि आवश्यक हो तो उक्त घटना के बारे में जानकारी के लिए मीडिया से अनुरोध करें। D) इस तरह के अपराधों के संबंध में अन्वेषण / परीक्षण की स्थिति रिपोर्ट, इस तरह के परीक्षण (ओं) के परिणामों सहित, संबंधित राज्य पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट पर नियमित रूप से अपलोड की जाएगी। E) किसी भी व्यक्ति (यों) को इस तरह के अपराधों के आरोपों से बरी करने की स्थिति में, नोडल अधिकारी को ऐसे अभियुक्त के खिलाफ अपील दायर करने के लिए लोक अभियोजक के साथ समन्वय करना चाहिए। क्या है मौजूदा समस्या? हालाँकि, चूँकि ऐसा विनाश सामूहिक भीड़ द्वारा किया जाता है, और ऐसे ज्यादातर मामलों में, कोई पहचानने योग्य नेता/आयोजक नहीं होता है। यहां तक कि उन मामलों में, जहां बड़े पैमाने पर बुलाये गए आंदोलनों में पोस्टर पर कई बड़े नाम मौजूद होते हैं, परन्तु अदालत में यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसे लोगों ने कभी भी स्पष्ट रूप से ऐसे आन्दोलन/बंद/हड़ताल को नहीं बुलाया है। जैसा कि हमने जाना इस अधिनियम की धारा 4 के तहत, लोक संपत्ति को आग से नुकसान पहुंचाने की सजा, अधिकतम 10 साल तक की कारावास एवं जुर्माना है। लेकिन हाल के दौर में यह देखा गया है कि इस अधिनियम का इस्तेमाल न होने के कारण, यह क़ानून अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा है। बंदों की संख्या में वृद्धि, उत्पीड़न, आंदोलन और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बावजूद, अदालत में कम ही लोग दोषी करार दिए जा पाते हैं। इस तरह की घटनाओं से जुड़े सबूतों की उचित समझ न होना और अन्वेषण प्रक्रिया को उचित रूप में समझ पाने में असमर्थ अधिकारियों के कारण ऐसे मामलों में अपराधियों को दंडित करने में असमर्थता देखि गयी है। राज्य सरकारों ने नियमित रूप से अपराधियों को बुक करने के लिए विशिष्ट कानून के बजाय भारतीय दंड संहिता के कम सख्त प्रावधानों का सहारा लिया है जोकि उचित नहीं है। जैसा कि हमने देखा कि बंद, हड़ताल या आंदोलन के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्तियों या राजनीतिक संगठनों द्वारा जिस तरह से क्षति पहुंचाई जाती है, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर जोर दिया है कि इस तरह के कृत्यों से संबंधित पार्टी से क्षतिपूर्ति की जाए, हालाँकि वो भी करने में सरकारें अभी तक समग्र रूप से असमर्थ रही हैं। कोशी जैकब बनाम भारत संघ WRIT PETITION (CIVIL) NO.55 OF 2017 के मामले में, अदालत ने यह दोहराया था कि 1984 के इस कानून में बदलाव लाने की आवश्यकता है, और वास्तव में सरकार को इस कानून में बदलाव की दिशा में कदम उठाने चाहिए। एक ताज़ा मामले में, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हाल ही में संशोधित नागरिकता अधिनियम के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुआ तो उसमे भी हिंसा के चलते सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति को बहुत नुकसान पहुंचा, जिसपर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह इंगित किया कि संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए तोड़-फोड़ एवं हिंसा करने वाले व्यक्तियों की संपत्ति की नीलामी की जाएगी। उम्मीद यह है कि राज्य सरकार की यह कार्यवाही, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, उचित रूप से अंजाम दी जाएगी, जिससे इन दिशा-निर्देशों का पालन करने की देश में एक बेहतर शुरुआत हो सके।

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मानहानि और मानहानि के संबंध में भारतीय कानून के प्रावधान

क्या है मानहानि और मानहानि के संबंध में भारतीय कानून के प्रावधान
 सभ्य समाज में मानव को दिए अधिकारों में मान, सम्मान और ख्याति को भी अधिकार माना गया है। जहां एक ओर भारतीय में संविधान में अनुच्छेद 19 के अंतर्गत वाक्य स्वतंत्रता दी गयी है, वहीं कुछ निर्बंधन भी लगाए गए है। निर्बंधन वह हैं जो हमें व्यक्ति और राज्य की मानहानि करने से रोकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में भारत में मानहानि के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। राजनीतिक नेता एक दूसरे के खिलाफ निराधार कारणों पर मानहानि के मामले दर्ज कर रहे हैं, जिसके उपरांत सामने वाली पार्टी मानहानि का मामला दर्ज करवाती है। कई जान-बूझकर नकली बयान या तो लिखित या मौखिक, जो किसी व्यक्ति का सम्मान, या आत्मविश्वास कम करता है, या किसी व्यक्ति के खिलाफ अस्वीकार, शत्रुतापूर्ण, या असहनीय राय या भावनाओं को प्रेरित करता है। क्या है मानहानि मान सम्मान और ख्याति को पहुंची हानि को मानहानि कहा गया है। भारतीय विधि में अधिकार देकर मानहानि से व्यक्तियों को बचाने हेतु प्रावधान किए गए हैं। भारतीय दंड सहिंता की धारा 499 से 502 तक मानहानि के कानून के विषय में प्रावधान किया गया है। भारतीय दंड सहिंता 1860 की धारा 499 मानहानि की परिभाषा प्रस्तुत करती है- बोले गये या पढ़े जाने के लिए अहशयित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या चित्रों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में लांछन इस आशय से लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि की जाए, या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, सिवाय अपवादों के तो, वह व्यक्ति मानहानि करता है। भारतीय दंड सहिंता की इस धारा से मानहानि के तत्वों का ज्ञान होता है। इस धारा में कुछ अपवादों का भी उल्लेख है। इस ही धारा 499 के अंतर्गत कुछ अपवाद भी रखे गए है उन अपवादों की संख्या दस है। मानहानि के तत्व- अपमानजनक टिप्पणी या बयान का होना चाहिए- टिप्पणी या बयानों का आपत्तिजनक होना चाहिए। क्या आपत्तिजनक है यह न्यायालय द्वारा साक्ष्य और परिस्थितियों के अंतर्गत निर्धारित किया जाएगा। दूलकाल्हा का मामला भारतीय मानहानि विधि में ऐतिहासिक मामला है। यह प्रकरण स्वतंत्रता के समय का है, जिसमे एक विधवा स्त्री पर उसके भतीजे ने व्यभिचार का आरोप लगाते हुए कहा था कि यह स्त्री के घर से रात दो बजे के बाद एक पुरुष निकला था और अवश्य ही वह पुरुष इससे संभोग करने गया होगा। आगे मामले को बिरादरी की पंचायत में ले जाया गया, जहां स्त्री को निर्दोष घोषित कर दिया गया। बाद में महिला ने मानहानि के लिए आरोप लगाने वाले व्यक्ति के विरुद्ध प्रकरण दर्ज करवाया पंरतु न्यायालय ने प्रकरण निरस्त कर दिया और यह माना कि बिरादरी की पंचायत महिला को निर्दोष मान चुकी है, इसीलिए महिला को सम्मान में कोई हानि नहीं हुई तथा वह अभियुक्त को निर्दोष माना गया। अपमानित करने का आशय (intention) होना चाहिए - मानहानि के अंतर्गत आरोपी बनाए जाने के लिए आशय का अत्यंत महत्व है। किसी भी कार्य या लोप द्वारा आशय यह होना चाहिए की व्यक्ति की मानहानि की जाएगी। अपमानजनक टिप्पणी या बयान अभियोगी को लक्ष्य करके बोलना चाहिए। बयान या टिप्पणी का प्रकाशित होना पूर्ववर्ती शर्त है, यह अभियोगी के भी किसी और व्यक्ति को भी सूचित होना आवश्यक होता है- यह महत्वपूर्ण शर्त है इसमें टिप्पणी का प्रकाशित होना नितांत ज़रूरी है।जैसे यदि हमने किसी व्यक्ति को चोर कहा और हमे कहते हुए उस व्यक्ति के सिवाय विश्व भर में किसी अन्य द्वारा सुना न गया या अन्य को संसूचना न हुई तो मानहानि नहीं मानी जाएगी। मृत व्यक्ति की भी मानहानि हो सकती है- धारा के स्पष्टीकरण में मृत व्यक्ति को भी मानहानि का योग्य माना गया है।मृत व्यक्ति के निकटवर्ती नातेदार इसके प्रतिकर के लिए भी मुकदमा ला सकते है।ऐसी टिप्पणी या शब्दो के माध्यम से मृत व्यक्ति के सम्मान और ख्याति को क्षति पहुंचाने का आशय हो तो मानहानि मानी जाएगी। राज्य के विरुद्ध मानहानि-राज्य के खिलाफ मानहानि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 A में निहित है जिसको देशद्रोह (Sedition) कहा जाता है। किसी समुदाय के खिलाफ मानहानि भारतीय दंड संहिता की धारा 153 में निहित है, जिसे उपद्रव (Riot) कहा जाता है। संगठन और लीगल व्यक्ति के अधिकार भी इस धारा के अंतर्गत सुरक्षित है- इस धारा के अंतर्गत कंपनी और संगठन को भी व्यक्ति माना गया है। इसके अलावा कोई भी लीगल व्यक्ति की मानहानि हो सकती है। किन माध्यम से मानहानि हो सकती है- बोले गए शब्दों द्वारा पढ़ने के लिए आशयित शब्दों द्वारा संकेतों द्वारा चित्रों द्वारा धारा के अंतर्गत दस अपवाद रखे गए है।इन अपवादों के अंतर्गत आने वाले मामले मानहानि नहीं माने जाएंगे वह अपवाद निम्न हैं- अपवाद 1 : सत्य बात का लांछन लगाया जाना या प्रकाशित किया जाना जो लोक कल्याण के लिए उपेक्षित है, मानहानि नहीं है। अपवाद 2 : उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में, लोक सेवक के आचरण के विषय में या उसके शील के विषय में, जहां तक उसका शील उस आचरण से प्रकट होता न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करता है मानहानि नहीं है। अपवाद 3 : किसी लोक कल्याण प्रश्न के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति के आचरण के बारे में, और उस के शील के बारे में, जहां तक उसका आचरण प्रकट होता है न कि उससे आगे कोई राय चाहे वह कुछ भी हो, सदभावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है। अपवाद 4 : किसी न्यायालय की कार्यवाहियों या ऐसी किन्हीं कार्यवाहियों के सही रिपोर्ट को प्रकाशित करना मानहानि नहीं है। अपवाद 5 : न्यायालय में मामले की गुणवत्ता या साक्ष्यों तथा अन्य व्यक्तियों का आचरण को सदभावपूर्वक अभिव्यक्त या प्रकाशित करता है तो मानहानि नहीं है, बशर्ते कि अदालत ने मामला तय कर लिया हो। अपवाद 6 : किसी ऐसे कृति जो लोक के गुणागुण के बारे में जिसको उसके कर्ता ने लोक निर्णय के लिए रखा सदभावपूर्वक अभिव्यक्त या प्रकाशित करता है मानहानि नहीं है। अपवाद 7: किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर विधिपूर्वक प्राधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा सदभावपूर्वक की गयी परिनिन्दा मानहानि नहीं है। अपवाद 8: प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष सदभावपूर्वक अभियोग लगाना मानहानि नहीं है। अपवाद 9: अपने या अन्य व्यक्ति के हितों की संरक्षा के लिए किसी व्यक्ति द्वारा सदभावपूर्वक लगाया लांछन मानहानि नहीं है। अपवाद 10 : सावधानी जो व्यक्ति की भलाई के लिए, जिसे की वह दी गई है या लोक कल्याण के लिए आशयित हो मानहानि नहीं है। अगर किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया बयान इन स्थितियों में से किसी एक स्थिति में आता है तो वह आदमी मानहानि नहीं करता है तथा वह इस स्थिति में सुरक्षित है। मानहानि सिविल और आपराधिक दोनों मामले की हो सकती है।जैसे केजरीवाल के मामले में नितिन गडकरी की ओर से दोनों प्रकार से मानहानि के मामले संस्थित किये गए गए थे। एक प्रकरण धारा 500 भारतीय दंड संहिता और दूसरा दीवानी वाद था।दीवानी प्रकरण प्रतिकर प्राप्त किये जाने के लिए किया गया था। मानहानि के लिए दंड- भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के अंतर्गत मानहानि के लिए दो वर्ष तक का सादा कारावास और जुर्माना का भी प्रावधान किया गया है। यह असंज्ञेय और जमानतीय अपराध है। साधारण परिवाद द्वारा आपराधिक मामलों को दर्ज किए जाने हेतु मजिस्ट्रेट को संज्ञान दिया जाता है।

http://hindi.livelaw.in/know-the-law/defamation-and-its-types-151103

वकील के अदालत एवं न्यायिक अधिकारी के प्रति प्रमुख कर्त्तव्य

जानिए वकील के अदालत एवं न्यायिक अधिकारी के प्रति प्रमुख कर्त्तव्य
 कानूनी पेशा, विश्व के सबसे पुराने पेशों में से एक है, और एक रूप में या दूसरे रूप में, यह सदियों से अपनी पहचान के साथ हमारे सामने रहा है। भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद, कानून की प्रैक्टिस के संबंध में कुछ नियम लागू किए गए थे। आजादी से पहले मुख्तार और वकील थे, जिन्हें मुफस्सिल अदालतों में कानून प्रैक्टिस करने की अनुमति थी, हालांकि वे सभी लोग, कानून में स्नातक डिग्री धारक नहीं थे। हालांकि, धीरे-धीरे ऐसे लोगों को इस पेशे से दूर किया गया और उनकी जगह उन लोगों द्वारा ली गई, जिन्हें कानून में डिग्री हासिल करने के बाद जिला स्तर पर प्रैक्टिस करने की अनुमति दी गयी। ऐसे लोगों को अधिवक्ता के रूप में नामांकित किया गया था, वे उच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी भी अदालत में अभ्यास कर सकते थे। जब ऐसे अधिवक्ताओं की संख्या बढ़ी और कुछ हद तक इस पेशे में प्रोफेशनलिज्म बढ़ा, और फिर यह जरुरत महसूस की जाने लगी कि इन अधिवक्ताओं के सम्बन्ध में कुछ ऐसे मानक तय किये जाने चाहिए, जिनका पालन उन्हें अदालत के सामने प्रैक्टिस करने के दौरान करना चाहिए। स्वतंत्रता के बाद, वह अधिनियम आया (अधिवक्ता अधिनियम, 1961) जिसने कानूनी पेशेवरों से संबंधित कानून को मजबूत किया। इस अधिनियम के अंतर्गत, राज्य के लिए एक बार काउंसिल के अस्तित्व की परिकल्पना की गई है। काउंसिल का कार्य, अधिवक्ताओं के लिए एक रोल तैयार करना और उसे बनाये रखना है। इसके अलावा, राज्य बार काउंसिल को अपने सदस्यों को कदाचार के लिए दंडित करने का दायित्व भी दिया गया है (अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार के तहत), इसी प्रकार राज्य बार काउंसिल का दायित्व, अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करना भी है। जैसा की हम जानते हैं कि एक वकील का कर्तव्य, न्याय के प्रशासन में अदालत की सहायता करना होता है, और चूँकि कानून का सम्बन्ध जनसाधारण से है, इसलिए, एक वकील को सावधानीपूर्वक अपने पेशे से जुडी आचार संहिता का पालन करना चाहिए। एक वकील को ऐसे किसी कार्य में लिप्त नहीं होना चाहिए जो इस महान पेशे की शुचिता को कम करे या समाज में इस पेशे की छवि को धूमिल करे। यही कारण है कि बार काउंसिल के कार्यों में पेशेवर आचरण और शिष्टाचार के मानकों को शामिल किया गया है, जिनका पालन अधिवक्ताओं को इस पेशे की गरिमा और शुद्धता को बनाए रखने के लिए करना चाहिए। अधिवक्ता अधिनियम एवं बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स अधिवक्ता अधिनियम एवं बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स कानूनी के अनुसार इस पेशे की प्रैक्टिस के दौरान, एक वकील को अदालत के प्रति कुछ कर्तव्यों का निर्वहन करना होता है। जैसा कि हम जानते हैं, भारत सरकार ने अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत 'बार काउंसिल ऑफ इंडिया' के रूप में जाना जाने वाला एक वैधानिक निकाय स्थापित किया है। 'बार काउंसिल ऑफ इंडिया' की स्थापना अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 4 के तहत की गयी है। इसी कानून की धारा 7 (1) (बी) के अनुसार, काउंसिल को अधिवक्ताओं के लिए पेशेवर आचरण और शिष्टाचार के मानकों के सम्बन्ध में दिशानिर्देश/नियम बनाने होंगे। वहीँ धारा 49 (1) (c) के अंतर्गत, बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के मानकों के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए नियम बनाने की अनुमति दी गयी है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के चैप्टर- II के सेक्शन I, भाग VI का शीर्षक "पेशेवर आचरण और शिष्टाचार के मानक" है, जो न्यायालय के प्रति, अधिवक्ता के कर्तव्यों को निर्दिष्ट करता है। इस भाग में अदालत, मुवक्किल, प्रतिद्वंदी आदि के प्रति एक वकील के 39 नियम या कर्तव्य मौजूद हैं। मौजूदा लेख में हम एक वकील के अदालत के प्रति मुख्य कर्तव्यों को समझेंगे और इसके लिए हम बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के चैप्टर- II के सेक्शन I, भाग VI के तहत तय नियमों का सहारा लेंगे। एक वकील के अपने मुवक्किल के प्रति मुख्य कर्तव्यों को हम पहले ही एक लेख में समझ चुके हैं। वकील के अदालत के प्रति प्रमुख कर्तव्य गरिमापूर्ण तरीके से कार्य करना अपने मामले की प्रस्तुति के दौरान और अदालत के सामने कार्य करते समय, एक वकील को गरिमापूर्ण तरीके से काम करना चाहिए। उसे हर समय आत्म-सम्मान के साथ कार्य करना चाहिए। कानूनी पेशे के एक सदस्य के रूप में, जो अपने आप में एक महान पेशा है, वकीलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सम्मानजनक और निर्धारित तरीके से इस पेशे के लिए निर्धारित मानकों के अंतर्गत कार्य करेंगे। और जैसा कि नोरतनमल चौररिया बनाम एम. आर. मुरली AIR -2004 SC 2440 के मामले में अभिनिर्णित किया गया, एक वकील उन मानदंडों का पालन करने के लिए बाध्य होता है, जो उसे अदालत के एक अधिकारी के रूप में इस समुदाय से जुड़े लोगों के बीच के विश्वास के योग्य बनाते हैं। हालांकि, जब भी किसी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ गंभीर शिकायत के लिए एक वकील के पास उचित आधार मौजूद होता है, तो अधिवक्ता के पास यह अधिकार और कर्तव्य होता है कि वह उचित अधिकारियों को अपनी शिकायत प्रस्तुत कर सके। इसी प्रकार इन रे:, अजय कुमार पांडे, एडवोकेट, (1998) 7 एससीसी 248 के मामले में, एक अधिवक्ता पर अभद्र भाषा के इस्तेमाल और विभिन्न न्यायिक अधिकारियों के प्रति अनुचित आचरण करने के चलते आपराधिक अवमानना का आरोप लगाया गया था। न्यायालय का सम्मान करना एक वकील को हमेशा अदालत के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए। एक वकील को यह ध्यान रखना होगा कि इस पेशे के सफल अस्तित्व के लिए न्यायिक कार्यालय के प्रति सम्मान एक आवश्यक अवयव है। चेतक कंस्ट्रक्शन लिमिटेड बनाम ओम प्रकाश एवं अन्य (1998) 4 एससीसी 577 के मामले में, न्यायालय ने यह अभिनिर्णित किया कि न्यायाधीशों पर किसी प्रकार का आरोप लगाने की प्रथा गलत है। एक न्यायाधीश, निष्पक्ष रूप से और बिना किसी डर के मामलों का फैसला करने के लिए बाध्य हैं। वकीलों को "आतंकित" या "डराने" की अनुमति नहीं दी जा सकती है, केवल इसलिए कि वे न्यायाधीशों से मनचाहे आदेश/फैसले चाहते हैं। न्यायिक अधिकारी से अकेले में संवाद नहीं जैसा कि शम्भू राम यादव बनाम हनुम दास खत्री AIR 2001 SC 2509 के मामले में यह कहा गया था कि कानूनी पेशा, कोई व्यापार या व्यवसाय नहीं है। यह एक महान पेशा है। इस पेशे से जुड़े सदस्यों को बेईमानी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, और जहाँ तक यह कानूनी रूप से संभव है, वहां तक अपने मुवक्किलों को न्याय दिलाने के लिए प्रयास करना होगा। इस पेशे की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर करती है कि पेशे के सदस्य, खुद को किस तरह से संचालित करते हैं। किसी न्यायाधीश के समक्ष लंबित किसी भी मामले के संबंध में एक वकील को न्यायाधीश के समक्ष निजी रूप से संवाद नहीं करना चाहिए। एक अधिवक्ता को किसी भी मामले में, अवैध या अनुचित साधनों जैसे कि ज़बरदस्ती करके, रिश्वत आदि का उपयोग करके अदालत के फैसले को प्रभावित नहीं करना चाहिए। विपक्ष के प्रति गैरकानूनी तरीके से कार्य करने से इंकार करना एक वकील को विरोधी वकील या विरोधी पक्षों के प्रति अवैध या अनुचित तरीके से कार्य करने से इनकार करना चाहिए। एक वकील को अपने मुवक्किल को किसी भी गैरकानूनी, अनुचित तरीके से काम करने से रोकना चाहिए और न्यायपालिका में लंबित किसी भी मैटर में, विरोधी वकील या विरोधी पक्ष के प्रति अनुचित व्यवहार का उपयोग करने से रोकने के लिए सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए। अनुचित साधनों पर जोर देने वाले मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व करने से इंकार करना एक वकील को किसी भी ऐसे मुवक्किल का प्रतिनिधित्व करने से इंकार करना होगा, जो अनुचित साधनों का उपयोग करने पर जोर देता है। एक वकील इस तरह के मामलों में ईमानदारी से फैसला करेगा। वह मुवक्किल के निर्देशों का आँख बंद करके पालन नहीं करेगा। एक वकील को अदालत में बहस के दौरान सम्मानजनक भाषा का उपयोग करना चाहिए। वह प्रैक्टिस के दौरान, झूठे आधार पर पार्टियों की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। वह अदालत में बहस के दौरान अनुचित भाषा का उपयोग नहीं करेगा। उचित ड्रेस कोड में दिखाई देना बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के तहत निर्धारित ड्रेस में हर समय एक वकील को अदालत में उपस्थित होना चाहिए और एक अधिवक्ता की उपस्थिति हमेशा प्रस्तुत किये जाने योग्य होनी चाहिए। सार्वजनिक स्थानों पर बैंड या गाउन न पहनना एक वकील को अदालत में या बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा बताए गए स्थानों एवं समाराहों के अलावा, सार्वजनिक स्थानों पर बैंड या गाउन नहीं पहनना चाहिए। आर्थिक हित के मामलों में कार्य नहीं करना चाहिए एक वकील को किसी भी ऐसे मामले में कार्य नहीं करना चाहिए या प्रस्तुत नहीं होना चाहिए जिसमें उसके वित्तीय हित हों। उदाहरण के लिए, एक वकील को उस कंपनी की ब्रीफ भी स्वीकार नहीं करनी चाहिए, जिसका वो स्वयं निदेशक है। मुवक्किल के लिए श्योरिटी के रूप में उपस्थित न होना एक वकील को एक ज़मानत के रूप में नहीं खड़ा होना चाहिए, या एक ज़मानत की साउंडनेस को प्रमाणित नहीं करना चाहिए, जो उसके मुवक्किल के लिए, किसी भी कानूनी कार्यवाही के उद्देश्य के लिए आवश्यक है। आम तौर पर यह माना जाता है कि कानूनी पेशे के सदस्यों के कुछ सामाजिक दायित्व होते हैं, उदाहरण के लिए, गरीबों और वंचितों के लिए प्रो-बोनो सेवा प्रदान करना, इसी प्रकार वकीलों के अदालत के प्रति कर्त्तव्य भी होते हिं। चूंकि एक वकील का कर्तव्य, न्याय के प्रशासन में अदालत की सहायता करना है, इसलिए यह जरुरी हो जाता है कि काउंसिल द्वारा तय आचार संहिता का पालन एक अधिवक्ता द्वारा किया जाए और वो ऐसी किसी भी गतिविधि में शामिल न हो, जो समाज में इस पेशे की छवि को कम कर सकती है।

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व्यभिचार का आरोप साबित हो गया हो तो पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार नहीं

व्यभिचार का आरोप साबित हो गया हो तो पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट 
 बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर पत्नी के खिलाफ व्यभिचार के आरोप साबित हो जाते हैं तो वह भरण-पोषण की हकदार नहीं होगी। जस्टिस एनडब्ल्यू साम्ब्रे ने दो याचिकाओं की सुनवाई की, जिनमें से एक याचिका संजीवनी कोंडलकर ने दायर की थी, जिन्होंने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, सांगली के एक फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें याचिकाकर्ता के पति द्वारा रखरखाव के आदेश को रद्द करने के लिए एक संशोधन आवेदन दायर करने को अनुमति दी गई थी। याचिकाकर्ता और उनके पति रामचंद्र कोंडलकर ने 6 मई, 1980 को शादी की ‌थी। रामचंद्र द्वारा हिंदू विवाह अध‌िनियम की धारा 13 के तहत व्यभिचार के आधार पर आवेदन दायर करने के बाद दोनों एक दूसरे से अलग हो गए थे। कोर्ट ने तलाक के उस फैसले को अपील के अधीन रखा था, हालांकि अपील दायर नहीं हो पाई। जिसके बाद याचिकाकर्ता पत्नी ने 12 अगस्त, 2010 के गुजाराभत्ता में वृद्धि के लिए एक आवेदन दायर किया। जिसके बाद मजिस्ट्रेट ने क्रमशः पत्नी और पुत्र को 500 रुपए और 400 रुपए गुजाराभत्ता की राशि बढ़ा दी, जबकि, पति द्वारा रखरखाव को रद्द करने के लिए दायर आवेदन का खारिज कर दिया गया। हालांकि अंत में प्रतिवादी-पति द्वारा दायर संशोधन आवेदन की अनुमति दे दी गई। याचिकाकर्ता पत्नी की ओर से एडवोकेट महेंद्र देशमुख पेश हुए और उन्होंने दलील दी कि भले ही याचिकाकर्ता तलाकशुदा है, सीआरपीसी, 1973 की धारा 125 (4) के प्रावधानों के तहत, वह रखरखाव की हकदार है क्योंकि अधिनियम की धारा 125 की उपधारा (4) के आशयों के अंतर्गत वह एक महिला है । देशमुख ने सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णयों, वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्टा, 1995 और रोहतास सिंह बनाम रामेंद्री, 2000 पर भरोसा किया। दूसरी ओर प्रतिवादी पति के वकील काव्यल शाह ने दलील दी कि प्रतिवादी पति द्वारा शुरू की गई तलाक की कार्यवाही को अनुमति दी जानी चाहिए, क्योंकि याचिकाकर्ता पत्नी के खिलाफ व्यभिचार का आरोप साबित हो चुका है। इस प्रकार, अधिनियम की धारा 125 की उप-धारा (4) के तहत वैधानिक प्रतिबंधों के मद्देनजर, नीचली अदालत ने ठीक ही कहा है कि याचिकाकर्ता रखरखाव के लिए हकदार नहीं है। दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद कोर्ट ने कहा- "तथ्य यह है कि, अधिनियम की धारा 125 की उप-धारा (4) के तहत प्रावधानों के मुताबिक, रखरखाव का दावा करने के लिए महिला के अधिकार पर एक स्पष्ट प्रतिबंध है। यदि ऐसी महिलाओं के खिलाफ व्यभिचार के आरोप साबित होते हैं या पति द्वारा उसे गुजारभत्ता द‌िए जाने के ल‌िए तैयार होने के बावजूद, वह साथ रहने से मना कर देती है, तब महिलाओं/ पत्नी को गुजाराभत्ता दिए जाने से इनकार किया जा सकता है।" याचिकाकर्ता के वकील द्वारा दलील के तहत पेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए जस्टिस साम्‍ब्रे ने कहा कि दोनों निर्णय याचिकाकर्ता की शायद ही किसी भी प्रकार की मदद करते हैं, क्योंकि दोनों निर्णयों में एक ऐसी महिला के अधिकार की पहचान की गई है, जो तलाकशुदा है, जिसे व्यभिचार के आधार पर तलाक नहीं दिया गया है। कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा- "विशेष रूप से रखरखाव का दावा करने के लिए याचिकाकर्ता के अधिकार पर लगे स्पष्ट प्रतिबंध को ध्यान में रखते हुए, जिसे व्यभिचार के आरोप के आधार पर 27 अप्रैल 2000 को तलाक का आदेश दिया गया था, निचली अदालत ने सही फैसला दिया है कि याचिकाकर्ता-पत्नी गुजाराभत्ता की हकदार नहीं है।"

http://hindi.livelaw.in/category/news-updates/wife-not-entitled-to-maintenance-if-allegation-of-adultery-is-proved-against-her-bombay-hc-151113

Saturday 28 December 2019

अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए नियुक्त निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता

अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए नियुक्त निजी वकील जिरह और गवाहों का परीक्षण नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हालांकि, पीड़ित व्यक्ति अभियोजन पक्ष की सहायता के लिए एक निजी वकील को मामले में शामिल कर सकता है, लेकिन ऐसे वकील को मौखिक रूप से दलील देने या गवाहों का परीक्षण करने और जिरह करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए एक आपराधिक मामले में पीड़िता द्वारा दिए गए आवेदन को खारिज कर दिया। इस आवेदन में लोक अभियोजक के बाद उसके वकील को गवाह का क्रॉस एक्ज़ामिन करने के लिए उसके वकील की अनुमति मांगी। न्यायालय ने कहा कि पीड़ित के वकील के पास अभियोजन पक्ष की सहायता करने का एक सीमित अधिकार है, जो अदालत या अभियोजन पक्ष को प्रश्न सुझाने तक विस्तारित हो सकता है, लेकिन उन्हें स्वयं नहीं पूछ सकता। रेखा मुरारका बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में बेंच ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रासंगिक प्रावधानों का हवाला देते हुए इस मामले में उठाए गए विवाद को खारिज कर दिया कि धारा 24 ( 8) में परंतुक में "इस उप-धारा के तहत" शब्दों का उपयोग तात्पर्य यह है कि पीड़ित की ओर से कोई वकील विशेष लोक अभियोजक की केवल सहायता के लिए हो सकते हैं। इसमें कहा गया कि केवल विशेष लोक अभियोजकों के संबंध में प्रावधान लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। अदालत ने इसमेें यह जोड़ा, "इस तरह की व्याख्या धारा 301 (2) के खिलाफ जाएगी, जो याचिकाकर्ता को एक निजी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के निर्देशों के अधीन बनाती है। हमारे विचार में उन्हें पूरा प्रभावपूर्ण बनाने के लिए इन प्रावधानों एक सामंजस्यपूर्ण रूप से पढ़ना चाहिए। " अपीलार्थी का तर्क यह था कि इस तरह के निजी वकील की भूमिका लिखित दलीलों को दर्ज करने तक सीमित नहीं होनी चाहिए, जैसा कि धारा 301 (2) के तहत निजी पक्षकारों द्वारा लगाई गई याचिकाकर्ताओं के संबंध में कहा गया है। इसके बजाय, इसे मौखिक तर्क देने और गवाहों की जांच करने के लिए विस्तारित करना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि पीड़ित के वकील को मौखिक दलील देने और गवाहों की जिरह करने की अनुमति देना किसी सहायक भूमिका से परे है और एक समानांतर अभियोजन पक्ष का गठन करता है। पीठ ने कहा कि मुकदमे के संचालन में लोक अभियोजक को दी गई धारा 225 और धारा 301 (2) से स्पष्ट है कि इस तरह के फ्री हैंड की अनुमति देना सीआरपीसी के तहत परिकल्पित योजना के खिलाफ होगा। यह देखा गया, "जैसा कि धारा 301 (2) में कहा गया है, निजी पक्ष की याचिका लोक अभियोजक के निर्देशों के अधीन है। हमारे विचार में, धारा 24 (8) के प्रावधान के तहत पीड़ित के वकील को एक ही सिद्धांत लागू करना चाहिए, क्योंकि यह पर्याप्त रूप से यह सुनिश्चित करता है कि पीड़ित के हितों का प्रतिनिधित्व किया जाए। यदि पीड़ित के वकील को लगता है कि गवाहों की परीक्षण या लोक अभियोजक द्वारा दी गई दलीलों के परीक्षण में एक निश्चित पहलू अविकसित हो गया है, तो वह स्वयं लोक अभियोजक के माध्यम से किसी भी प्रश्न या बिंदु को पूछ सकता है। यह न केवल सीआरपीसी की योजना के तहत लोक अभियोजक के सर्वोपरि स्थान को संरक्षित करेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि लोक अभियोजक और पीड़ित के वकील द्वारा उन्नत मामले के बीच कोई असंगतता न हो।" उच्च न्यायालय के आदेश को कायम रखते हुए, पीठ ने आगे कहा, "यहां तक कि अगर ऐसी स्थिति है, जहां लोक अभियोजक पीड़ित के वकील द्वारा सुझाव दिए जाने के बावजूद महत्व के कुछ मुद्दे को उजागर करने में विफल रहता है, तो भी पीड़ित के वकील को मौखिक तर्क देने या गवाहों की जांच करने का अनियंत्रित अधिकार नहीं दिया जा सकता। इस तरह के मामलों में वह अभी भी पहले जज के माध्यम से अपने सवालों या तर्कों को रख सकता है, उदाहरण के लिए, यदि पीड़ित के वकील ने पाया कि लोक अभियोजक ने किसी गवाह की ठीक से जांच नहीं की है और उसके सुझावों को शामिल नहीं किया है, तो वह न्यायालय के नोटिस में ये सवाल ला सकता है। यदि न्यायाधीश इन सवालों में योग्यता देखते हैं तो वह सीआरपीसी की धारा 311 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 16 के तहत अपनी शक्तियों को लागू करके तदनुसार कार्रवाई कर सकता है। "

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एनडीपीएस : निजी तलाशी के दौरान धारा 50 का पालन नहीं करने से वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती

एनडीपीएस : निजी तलाशी के दौरान धारा 50 का पालन नहीं करने से वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती : सुप्रीम कोर्ट 
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरोपी की निजी तलाशी के दौरान नशीला पदार्थ अधिनियम ‌(एनडीपीएस ) की धारा 50 का पालन नहीं करने के कारण वाहन से हुई बरामदगी अमान्य नहीं हो जाती है। न्यायमूर्ति यूयू ललित, इंदु मल्होत्रा और कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 50 सिर्फ निजी तलाशी तक सीमित है न कि वाहन या किसी कंटेनर परिसर की। हाईकोर्ट ने आरोपी को किया था बरी इस मामले में हाईकोर्ट ने एनडीपीएस अधिनियम के तहत एक आरोपी को दोषी ठहराए जाने के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि आरोपी की निजी तलाशी मजिस्ट्रेट या किसी गजेटेड अधिकारी के समक्ष नहीं ली गई और इस तरह से धारा 50 के प्रावधानों का पालन नहीं हुआ। पंजाब राज्य बनाम बलजिंदर सिंह मामले में दाखिल अपील में राज्य ने कहा कि हो सकता है कि जहां तक आरोपी की तलाशी की बात है, हो सकता है कि धारा 50 का अतिक्रमण हुआ होगा पर वाहन से बरामदगी की बात एक स्वतंत्र मामला है जिस पर गौर किया जाना चाहिए। पीठ ने इस बात पर गौर किया... अगर किसी व्यक्ति के वाहन से नशीला पदार्थ बरामद होता है जो कि हो सकता है कि धारा 50 के अनुरूप नहीं हो; लेकिन वाहन की तलाशी से नशीला पदार्थ बरामद हुआ जिसकी स्वतंत्र रूप से जांच की जा सकती है तो क्या दोषी को इसलिए बरी किया जा सकता है, क्योंकि वाहन की तलाशी के दौरान हुई बरामदगी में धारा 50 की शर्तों का पालन नहीं हुआ? पीठ ने कहा कि तलाशी के दौरान धारा 50 का उल्लंघन करते हुए उस व्यक्ति से प्रतिबंधित वस्तु बरामद हुई है तो गैरकानूनी ढंग से इस प्रतिबंधित नशीला पदार्थ रखने की बात को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। पीठ ने पंजाब राज्य बनाम बलदेव सिंह (1999) 6 SCC 172 मामले में संविधान पीठ ने कहा, "अधिकारों से लैस एक अधिकारी का पूर्व सूचना के आधार पर तलाशी लेना और तलाशी से पहले उस व्यक्ति को उसके अधिकारों के बारे में यह नहीं बताना कि अगर वह चाहे तो उसे एक गजेटेड अधिकारी या मजिस्ट्रेट के पास तलाशी के लिए ले जाया जा सकता है। उससे मामले की कार्यवाही प्रभावित नहीं होगी पर इससे तलाशी में मिली नशीली वस्तु की बरामदगी संदेहास्पद हो जाएगी और आरोपी को दोषी ठहराए जाने की प्रक्रिया को उस स्थिति में प्रभावित करेगी, जिसमें दोषी ठहराने की बात सिर्फ उस वस्तु की बरामदगी पर निर्भर है, जिसमें धारा 50 के प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है।" यह भी कहा गया कि विजयसिंह चंदुभा जडेजा बनाम गुजात राज्य (2011) 1 SCC 609 मामले में एक अन्य संविधान पीठ ने कहा कि प्रावधान का पालन नहीं करने से तलाशी में बदामद की गई वस्तु की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएगी और इससे आरोपी को दोषी ठहराने की प्रक्रिया प्रभावित होगी अगर इसकी रिकॉर्डिंग इस व्यक्ति की तलाशी के दौरान इस गैरकानूनी वस्तु की बरामदगी पर आधारित है। पीठ ने कहा कि धारा 50 के प्रावधान 'निजी तलाशी' तक सीमित है न कि किसी वाहन या कंटेनर परिसर की तलाशी तक। इस सन्दर्भ में पीठ ने कहा, "वर्तमान मामले में आरोपी की निजी तलाशी में किसी भी तरह के नशीले पदार्थ की बरामदगी नहीं हुई और अगर इस तरह की किसी वस्तु की बरामदगी हुई भी तो अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का पालन नहीं किये जाने के कारण इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता, लेकिन वाहन की तलाशी के दौरान नशीली पदार्थ की बरामदगी और इसकी पुष्टि होना पर धारा 50 के प्रावधानों का पालन नहीं होने का लाभ तलाशी में मिली वस्तु की बरामदगी को अमान्य नहीं बना देगा..." पीठ ने यह भी कहा कि दिलीप बनाम एमपी राज्य (2007) 1 SCC 450 मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ का फैसला सही नहीं है क्योंकि इस फैसले में आरोपी को इस आधार पर फ़ायदा पहुंचाया गया कि निजी तलाशी से संबंधित धारा 50 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया। पीठ ने इसके बाद निचली अदालत के फैसले को दोबारा बहाल कर दिया और कहा कि वाहन से अफीम की 7 बोरियां बरामद हुईं और इनमें से प्रत्येक का वजन 34 किलो था। इस वाहन को आरोपी चला रहा था और अन्य आरोपी उसके साथ थे और बरामद हुई वस्तु के साथ इन लोगों का संबंध स्थापित हो चुका है।

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा, दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा, सड़क यातायात के अपराध को आईपीसी और मोटर वाहन अधिनियम दोनों के तहत अभियोजित किया जा सकता है

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा, ,सड़क यातायात के अपराध को आईपीसी और मोटर वाहन अधिनियम दोनों के तहत अभियोजित किया जा सकता है 
 ''इस तरह की व्याख्या के परिणाम यह होंगे कि दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकल सकेगा।'' सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सड़क यातायात के अपराधों पर मोटर वाहन अधिनियम और भारतीय दंड संहिता दोनों के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति खन्ना की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश राज्य को जारी निर्देशों को रद्द कर दिया है। इन निर्देशों में हाईकोर्ट ने कहा था कि सड़क यातायात अपराधों के मामले में कार्रवाई केवल मोटर वाहन अधिनियम के प्रावधानों के तहत की जाए, न कि भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत। गुवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला हाईकोर्ट के अनुसार, एम.वी. अधिनियम का स्टेटस आईसीपी के समान है (दोनों को समवर्ती सूची में रखा गया है), और यह नहीं माना जा सकता है कि मोटर व्हीकल एक्ट (एम.वी) अधिनियम या तो अधीनस्थ कानून है, या स्टेटस के मामले में आईपीसी और सीआरपीसी से किसी तरह कमतर है। यह भी कहा गया है कि आईपीसी की धारा 5 में विशेष कानूनों की सर्वोच्चता को मान्यता दी गई है, जिसे सामान्य खंड अधिनियम, 1897 की धारा 26 की आड़ में हल्का नहीं किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि यदि किसी व्यक्ति को लापरवाही और खतरनाक तरीके से मोटर वाहन चलाते समय किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के मामले में अगर एमवी एक्ट के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, तो उस अपराधी को आईपीसी के तहत भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। चूंकि आईपीसी स्पष्ट रूप से सड़क यातायात के अपराधों को अपने दायरे में नहीं लेता है। हाईकोर्ट ने इस फैसले में असम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश राज्यों को निर्देश दिया था और सभी अधीनस्थ अधिकारियों को उचित निर्देश जारी करते हुए कहा था कि मोटर वाहन दुर्घटनाओं के अपराधियों के खिलाफ केवल एम.वी एक्ट के तहत केस दर्ज किए जाएं, आईपीसी की धारा 304 के तहत दिए गए अपवादों को छोड़कर। त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस फैसले को चुनौती दी थी। अरुणाचल प्रदेश राज्य बनाम रामचंद्र रबीदास / रतन रबीदास, मामले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने देखा कि एम.वी अधिनियम के अध्याय आठ के तहत किए गए अपराध, आईपीसी की धारा 297, 304, 304ए, 337 और 338 के तहत प्रावधानों की प्रयोज्यता या उपयुक्तता को रद्द या निरस्त नहीं कर सकते हैं। यह भी पाया गया कि मोटर वाहन दुर्घटनाओं से संबंधित अपराध के मामलों में एमवी एक्ट के तहत या अन्यथा ऐसी कोई रोक नहीं है कि इन अपराधों के लिए आईपीसी के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा की गई व्याख्या के परिणाम यह होंगे कि दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा और उसे अपने अपराध के लिए किसी भी अभियोजन या मुकदमें का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस निर्णय में किए गए महत्वपूर्ण अवलोकन निम्नलिखित हैं। आईपीसी और एमवी अधिनियम के प्रावधानों के बीच कोई मतभेद या विरोधाभास या टकराव नहीं है। पीठ ने दोनों अधिनियमों के प्रावधानों का जिक्र करते हुए कहा कि वे पूरी तरह से अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं। दोनों कानून पूरी तरह से अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं। दोनों कानूनों के तहत बताए गए अपराध एक दूसरे से पृथक है और एक दूसरे से अलग हैं। दोनों विधियों के तहत प्रदान किए गए दंडात्मक परिणाम भी एक दूसरे से स्वतंत्र और अलग हैं। जैसा कि पहले चर्चा की गई है, दोनों कानूनों के तहत अपराधों की सामग्री या तथ्य भी अलग-अलग हैं, और एक अपराधी पर दोनों कानूनों के तहत स्वतंत्र रूप से केस चलाया जा सकता है और उसे दंडित किया जा सकता है। यह सिद्धांत कि ,विशेष कानून को सामान्य कानून पर हावी या प्रबल होना चाहिए, आईपीसी और एम.वी.एक्ट के तहत सड़क दुर्घटनाओं के मामले में अपराधियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के मामलों में लागू नहीं होता है। एमवी एक्ट में कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसके तहत मौत व गंभीर चोट आदि के अपराधों से निपटा जा सके। एम.वी एक्ट के तहत कोई ऐसा प्रावधान नहीं है, जो अलग से मोटर वाहन दुर्घटनाओं के मामलों में मोटर वाहन से हुई मौत, या गंभीर चोट या चोट के मामलों से निपट सकें। तेज व लापरवाही से ड्राइविंग करते समय हुई लोगों की मृत्यु, या चोट, या गंभीर चोट के मामले में एम.वी एक्ट का अध्याय आठ मूक है। न ही इस अध्याय में इस तरह के मामलों के लिए अलग से किसी सजा के बारे में कुछ बताया गया है। जबकि आईपीसी की धारा 279, 304 पार्ट-दो, 304ए, 337 और 338 को ऐसे अपराधों से निपटने के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है। यदि आईपीसी एम.वी अधिनियम के लिए रास्ता दे देता है, और सीआरपीसी के प्रावधान एम.वी अधिनियम के प्रावधानों के तहत दब जाते हैं, जैसा कि हाईकोर्ट ने माना है तो ऐसी स्थिति में तेज व लापरवाही से वाहन चलाते समय हुई मौत, गैर इरादतन हत्या ¼, ½ गैर इरादतन हत्या , या गंभीर चोट, या सामान्य चोट आदि के मामले कंपाउंडेबल हो जाएंगे। इस तरह की व्याख्या के परिणाम यह होंगे कि दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा और उसे अपने अपराध के लिए किसी भी अभियोजन या मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ेगा। अपराध और सजा के बीच आनुपातिकता के सिद्धांत को ध्यान में रखना होगा। आईपीसी में सजा कड़ी पीठ ने कहा कि सिर्फ सजा का सिद्धांत, एक आपराधिक अपराध के संबंध में सजा का आधार है। एम.वी अधिनियम के अध्याय आठ के तहत पहली बार अपराध के लिए अधिकतम कारावास केवल छह महीने तक है, जबकि सड़क यातायात अपराधों के संबंध में आईपीसी के तहत पहली बार अपराध करने पर अधिकतम कारावास की सजा आईपीसी की धारा 304 भाग दो के तहत 10 साल तक हो सकती है। अदालतों द्वारा दी जाने वाली सजा को अपराध की गंभीरता के साथ सराहा जाना चाहिए और गलत काम करने वालों पर इसका प्रभाव कड़ा होना चाहिए। अगर एम.वी अधिनियम से तुलना करें तो आईपीसी के तहत मोटर वाहन दुर्घटनाओं के अपराधियों की सजा कठोर है और अपराध के लिए आनुपातिक है। इस तरह की व्याख्या के परिणाम यह होंगे कि दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकल सकेगा। अदालत ने यह भी कहा, कि एम.वी अधिनियम के अध्याय आठ के तहत किए गए अपराध अपनी प्रकृति के अनुरूप एम.वी अधिनियम की धारा 208 (3) के मद्देनजर कंपाउंडेबल हैं। जबकि धारा 279, 304 भाग-दो और 304ए आईपीसी के तहत अपराध कंपाउंडेबल नहीं हैं। अदालत ने कहा कि- "यदि आईपीसी एम.वी अधिनियम के लिए रास्ता दे देता है, और सीआरपीसी के प्रावधान एम.वी अधिनियम के प्रावधानों के तहत दब जाते हैं/अधीन हो जाते हैं,जैसा कि हाईकोर्ट ने माना है तो ऐसी स्थिति में तेज व लापरवाही से वाहन चलाते समय हुई मौत,गैर इरादतन हत्या ¼, ½ गैर इरादतन हत्या, या गंभीर चोट, या सरल चोट आदि के मामले कंपाउंडेबल हो जाऐंगे। इस तरह की व्याख्या के परिणाम यह होंगे कि दोषी अपना अपराध स्वीकारते हुए जुर्माना देकर बच निकलेगा और उसे अपने अपराध के लिए किसी भी अभियोजन या मुकदमें का सामना नहीं करना पड़ेगा। "

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साथ नहीं रहने के आधार पर तलाक लेने वाली महिला भरण पोषण की हकदार है?

साथ नहीं रहने के आधार पर तलाक लेने वाली महिला भरण पोषण की हकदार है? पढ़िए क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट 

 “पति इस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता कि वह अब उसके साथ नहीं रह रही है और फिर वह उसे गुज़ारे की राशि न दे जिसकी वह हक़दार है…।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी पत्नी को उसके पति ने इस आधार पर तलाक़ दिया है कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया है, तो उसे (पत्नी को) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)की धारा 125 के तहत भरण पोषण की राशि प्राप्त करने का अधिकार है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस ने इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट लगातार यह कहता रहा है और उसका यह मत दंड प्रक्रिया संहिता के पूरी तरह अनुरूप है। पीठ ने इस संदर्भ में वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्ट और रोहतास सिंह बनाम रमेंद्री मामलों में दो जजों की पीठ और मनोज कुमार बनाम चम्पा देवी मामले में तीन जजों की पीठ के फ़ैसले का हवाला दिया। पीठ ने कहा, "दो जजों की पीठों द्वारा दिए गए फ़ैसलों को तीन जजों की पीठ सही ठहरा चुका है और हम किसी बड़ी पीठ को यह मामला नहीं सौंप सकते। वैसे भी इस अदालत ने भी लगातार यही राय व्यक्त की है और जो राय दी गई है वह सीआरपीसी की भावना के अनुरूप है। यह दलील कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है, तर्कहीन है।" दलील डॉक्टर स्वपन कुमार बनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के संदर्भ में वक़ील देबल बनर्जी ने कहा कि कोई भी पत्नी जिसने अपनी पति को छोड़ दिया है वह सीआरपीसी की धारा 125 भरण पोषण की राशि का दावा नहीं कर सकती। उनकी दलील थी कि चूँकि 'पत्नी' के तहत 'तलाकशुदा महिला'भी आती है इसलिए ऐसी महिला जिसे पति को छोड़ देने के कारण तलाक़ दिया गया है, वह भी सीआरपीसी की धारा 125 की उप-धारा 4 के तहत गुज़ारा राशि की मांग नहीं कर सकती है। उप-धारा 4 में कहा गया है कि किसी भी पत्नी को इस धारा के तहत गुज़ारे की राशि या अंतरिम गुज़ारे की राशि नहीं मिल सकती अगर वह व्यभिचार के तहत या बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से मना कर देती है या अगर दोनों आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हैं। पीठ ने इस दलील को ख़ारिज करते हुए कहा - "…सवाल है कि उप-धारा 4 के प्रावधानों को इस संदर्भ में कैसे पढ़ा जाए जब हम विशेषकर ऐसी महिलाओं की चर्चा करते हैं जिनके ख़िलाफ़ इस आधार पर तलाक़ का आदेश प्राप्त किया जा चुका है कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है। एक बार जब शादी का संबंध ख़त्म हो जाता है तो पत्नी पर अपने पूर्व पति के साथ रहने का कोई दबाव नहीं होता। यह बात कि तलाकशुदा पत्नी को पत्नी माना जाए इस बात को अतार्किकता की हद तक खींचा नहीं जा सकता कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है। पति यह आग्रह नहीं कर सकता कि वह अपनी पत्नी को इसलिए तलाक़ देना चाहता है क्योंकि उसने उसके साथ रहना बंद कर दिया है और उसके बाद वह उसको गुज़ारे की राशि देना बंद कर दे, जबकि उसे यह राशि इस आधार पर मिलना चाहिए कि तलाक़ के बाद भी वह अपने पूर्व पति के साथ नहीं रहना चाहती है।" यह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करना चाहती है। इस मामले में पति को इस आधार पर तलाक़ का अधिकार दिया गया कि पत्नी ने उसको छोड़ दिया है। एक साल बाद उसने दुबारा शादी कर ली और इसके बाद ही पत्नी ने गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन किया। इस मामले पर पीठ ने कहा, "हमारी राय में यह पूरी तरह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करती है। हो सकता है कि उस समय तक वह जो भी कमा रही थी वह उसके लिए पर्याप्त रहा होगा और हो सकता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन देने के समय तक बातों को ज़्यादा खींचना नहीं चाहती थी। कारण चाहे जो भी रहा हो, पर शादी संबंधी मामलों के लंबित रहने के दौरान अगर उसने इसके लिए आवेदन नहीं दिया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह बाद में इस तरह का आवेदन नहीं दे सकती है।" पत्नी अपने गुज़ारे लायक़ पर्याप्त राशि कमा रही है इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता है। इस मामले में एक अन्य मुद्दा यह था कि पत्नी कलकत्ता के जादवपुर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और वह एक योग्य आर्किटेक्ट है और इसलिए यह मान लिया जाए कि उसकी आमदनी पर्याप्त है। पीठ ने कहा कि पति ने इस बारे में कोई सबूत पेश नहीं किया है कि पत्नी की आय पर्याप्त है और वह कहां काम कर रही है, जबकि यह सब सबूत उसे ही पेश करना है। इस तरह के किसी भी साक्ष्य के अभाव में इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि पत्नी ख़ुद का ख़र्चा चलाने के लिए पर्याप्त राशि कमा रही है।

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भ्रष्टाचार के सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं

भ्रष्टाचार के सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट 
 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सभी भ्रष्टाचार के मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ राज्य की अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई को रद्द कर दिया गया था, जिसके पास आय के अपने ज्ञात स्रोतों के अनुपातहीन कथित रूप से रु 3,18,61,500 की संपत्ति होने का आरोप था। तेलंगाना राज्य बनाम श्री मनगीपेट @ मंगिपेट सर्वेश्वर रेड्डी मामलेे पर सुनवाई के दौरान ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले पर भरोसा करते हुए शीर्ष न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया कि एक अपराध के पंजीकरण से पहले एक प्रारंभिक जांच अनिवार्य है। उक्त निर्णय का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा, "यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस न्यायालय ने यह नहीं माना है कि सभी मामलों में प्रारंभिक जांच जरूरी है। वैवाहिक विवादों / पारिवारिक मतभेदों, वाणिज्यिक अपराधों, चिकित्सा लापरवाही मामलों, भ्रष्टाचार मामलों आदि के संबंध में प्रारंभिक जांच की जा सकती है। ललिता कुमारी के मामले में यह अदालत यह नहीं कहती है कि प्रारंभिक जांच किए बिना एक आरोपी के खिलाफ कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती। " सुप्रीम कोर्ट ने कहा, प‌ीड़िता को यौन संबंधों की आदत होना, रेप के आरोप में बचाव का वैध आधार नहीं "प्राथमिकी दर्ज करने से पहले एक प्रारंभिक जांच का दायरा और सीमा प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगी। कोई निर्धारित प्रारूप या तरीका नहीं है जिसमें किसी मामले की प्रारंभिक जांच की जानी है। उसका उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि एक छोटी और अस्थिर शिकायत पर आपराधिक जांच प्रक्रिया शुरू न की जाए। ललिता कुमारी मामले में इसी का परीक्षण किया गया।" इसमें कहा गया है कि प्रारंभिक जांच का उद्देश्य पूरी तरह निष्पक्ष और निष्पक्ष रूप से कार्य करने की अभिपुष्टि के लिए प्रेरित शिकायतों की स्क्रीनिंग करना है। लेकिन इस मामले में, पीठ ने देखा, प्राथमिकी से ही पता चलता है कि एकत्र की गई जानकारी अभियुक्त अधिकारी की अनुपातहीन संपत्ति के संबंध में है। पीठ ने यह कहा, "इसलिए एफआईआर दर्ज करने वाला अधिकारी इस तरह के खुलासे से संतुष्ट है तो वह किसी भी जांच के बिना या उसके द्वारा प्राप्त विश्वसनीय जानकारी के आधार पर भी अभियुक्त के खिलाफ कार्रवाई में आगे बढ़ सकता है। यह नहीं कहा जा सकता है कि एफआईआर केवल इस कारण से खारिज करने योग्य है, क्योंकि इस मामले की प्रारंभिक जांच नहीं की गई थी। ऐसा केवल तभी किया जा सकता है, जब किसी एफआईआर को पूरी तरह से पढ़ने के बाद किसी अपराध का खुलासा नहीं किया जाता।" पीठ ने आगे स्पष्ट किया, "इसलिए, हम मानते हैं कि ललिता कुमारी मामले में प्रारंभिक जांच सभी भ्रष्टाचार के मामलों में अनिवार्य रूप से संचालित करने की आवश्यकता नहीं है। इस न्यायालय द्वारा कई उदाहरणों में यह दोहराया गया है कि किस प्रकार की प्रारंभिक जांच की जानी है, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। ऐसे कोई निश्चित पैरामीटर नहीं हैं, जिन पर इस तरह की जांच की जा सके। इसलिए, एफआईआर दर्ज करने वाले व्यक्ति की संतुष्टि के लिए एक संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली औपचारिक और अनौपचारिक जानकारी पर्याप्त है।"

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CrPC धारा 207: अगर दस्तावेज काफी अधिक नहीं हैं, तो मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के साथ सौंपे गए किसी भी दस्तावेज को रोक नहीं सकता

सीआरपीसी की धारा 207: अगर दस्तावेज काफी अधिक नहीं हैं, तो मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के साथ सौंपे गए किसी भी दस्तावेज को रोक नहीं सकता : सुप्रीम कोर्ट 
 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जांच अधिकारी ने जो दस्तावेज सौंपे हैं, मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट के साथ उनमें से किसी को अदालत के समक्ष रखने से रोक नहीं सकता। ऐसा वह उसी स्थिति में कर सकता है जब रिपोर्ट काफी विस्तृत या मोटी हो। अदालत ने कहा कि रिपोर्ट या दस्तावेजों के काफी ज्यादा मोटा होने की स्थिति में आरोपी को इन दस्तावेजों को खुद या अपने वकील के माध्यम से देखने की इजाजत दी जा सकती है। पी गोपालकृष्णन @दिलीप बनाम केरल राज्य मामले में अपील पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और दिनेश माहेश्वरी की पीठ ने कहा। पीठ केरल के फिल्म अभिनेता दिलीप ने फरवरी 2017 में केरल की अभिनेत्री के खिलाफ यौन अपराध के मामले में विजुअल्स की कॉपी वापस करने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि किसी अपराध से संबंधित मेमरी कार्ड के कंटेंट एक 'दस्तावेज'है कोई 'मटेरियल ऑब्जेक्ट' नहीं है। अपने फैसले में अदालत ने सीआरपीसी की धारा 207 के स्कोप पर गौर किया जिसमें आरोपी को पुलिस रिपोर्ट की कॉपी और अन्य दस्तावेज देने के प्रावधानों का जिक्र है। इस स्तर पर धारा 207 के तहत मजिस्ट्रेट का काम प्रशासनिक कार्य इस तरह है जिसके तहत उसको यह देखना होता है कि इस धारा के प्रावधानों का पालन किया गया है की नहीं, पीठ ने कहा. जहां तक बयानों की बात है, प्रथम प्रावधान मजिस्ट्रेट को यह इजाजत देता है कि क्लाज़-iii में कही गई किसी भी बात की जानकारी आरोपी को देने से रोक सकता है, अगर इसके बारे में धारा 173 की उपधारा 6 के तहत जांच अधिकारी ने इसके बारे में पर्याप्त कारण दिए हैं। जहां तक जांच अधिकारी द्वारा पुलिस रिपोर्ट सहित अन्य दस्तावेजों को पेश करने की बात है, मजिस्ट्रेट सिर्फ उन्हीं दस्तावेजों को पेश होने से रोक सकता है जिन्हें क्लाज़ (v)के तहत उसके हिसाब से काफी मोटा (वोलुमिनस) बताया गया है। अदालत ने कहा, "उस स्थिति में आरोपी को निजी रूप से या अदालत में उसकी पैरवी करने वाले अपने वकील की मदद से इसको देखने की इजाजत दी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, सीआरपीसी 1973 की धारा 207 मजिस्ट्रेट को यह अधिकार नहीं देता कि वह किसी दस्तावेज को पेश किए जाने से रोके, जिसे जांच अधिकारी न पुलिस रिपोर्ट के साथ पेश किया है बशर्ते वह काफी वोलुमिनस न हो। इसका मतलब यह हुआ कि इसके बावजूद कि जांच अधिकारी किसी दस्तावेज के बारे में नोट लिखा है, मजिस्ट्रेट ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह सीआरपीसी की धारा 173 की उपधारा 6 के तहत ही ऐसा कर सकता है। वर्तमान मामले में यद्यपि अदालत ने कहा कि मेमरी कार्ड के कंटेंट को दस्तावेज माना जाना चाहिए, लेकिन उसने कहा कि अगर इसमें शिकायतकर्ता/गवाह की निजता का मामला जैसा कोई मामला है तो अदालत का आरोपी को इसको देखने की अनुमति देना जायज है ताकि उसके वकील सुनवाई के दौरान प्रभावी बचाव कर सकें। "

http://hindi.livelaw.in/category/news-updates/section-207-crpc-magistrate-cannot-withhold-any-document-submitted-along-with-police-report-except-when-it-is-voluminous-150338

पुलिस जांच के दौरान CrPC की धारा 102 के तहत अचल संपत्ति ज़ब्त नहीं कर सकती,

पुलिस जांच के दौरान CrPC की धारा 102 के तहत अचल संपत्ति ज़ब्त नहीं कर सकती, सुप्रीम कोर्ट का फैसला BY: LIVELAW NEWS NETWORK 24 Sep 2019 11:10 AM 2.2K SHARES सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि पुलिस के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 102 के तहत जांच के दौरान अचल संपत्ति को ज़ब्त करने की शक्ति नहीं है। यह निर्णय जस्टिस दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना की पीठ ने सुनाया। हालांकि, पुलिस के पास आरोपियों की चल संपत्तियों को फ्रीज़ करने का अधिकार है, पीठ ने स्पष्ट किया। सीआरपीसी की धारा 102 (1)कहती है कि "कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी संपत्ति को जब्त कर सकता है जो कथित रूप से चोरी की हुई या संदिग्ध हो सकती है, या जो किसी भी अपराध से जुड़ी होने का संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियों में पाई जा सकती है।" बॉम्बे हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने बहुमत के फैसले में माना था कि पुलिस के पास जांच के दौरान अचल संपत्ति को जब्त करने की कोई शक्ति नहीं है। इसे चुनौती देते हुए, महाराष्ट्र राज्य ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। विस्तृत खबर और आदेश की कॉपी शीघ्र ही प्रकाशित की जाएगी.....।

http://hindi.livelaw.in/category/news-updates/police-cannot-attach-immovable-property-under-sec102-crpc-during-investigation-148390

जहां महिला रहती है, उसी स्थान पर कर सकती है आईपीसी की धारा 498ए के तहत शिकायत, सुप्रीम कोर्ट ने दी इजाज़त

जहां महिला रहती है, उसी स्थान पर कर सकती है आईपीसी की धारा 498ए के तहत शिकायत, सुप्रीम कोर्ट ने दी इजाज़त Rupali Devi V. State of Uttar Pradesh "प्रीति कुमारी बनाम बिहार राज्य" मामले में न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील को स्वीकार कर लिया है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि उस स्थान पर कार्रवाई की कोई वजह या कारण नहीं है, जहां पर वह रहती है। पीठ ने कहा कि यह मामला 'रुपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य' मामले में दिए गए निर्णय द्वारा कवर होता है। 'रूपाली देवी' मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने माना था कि पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के कृत्यों के कारण जब पत्नी अपने पति का घर छोड़ देती है या उसे घर से निकाल दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में यह मामले की तथ्यात्मक स्थिति पर निर्भर करता है कि महिला जहां पर भी शरण लेती है, वह उस स्थान पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत अपराधों का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कर सकती है।

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मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक मामले में आगे की जांच के आदेश दे सकते हैं

मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक मामले में आगे की जांच के आदेश दे सकते हैं, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला BY: LIVELAW NEWS NETWORK 17 Oct 2019 9:19 AM 711 SHARES सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दिए एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि मजिस्ट्रेट के पास किसी अपराध की आगे की जांच करने का आदेश देने की शक्ति है। यहां तक कि मामले में संज्ञान लेने के चरण के बाद भी मजिस्ट्रेट ट्र्रायल शुरू होने से पहले तक जांच का आदेश दे सकते हैं। न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति वी रामासुब्रमण्यन की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि मजिस्ट्रेट के पास एक अपराध की जांच करने का आदेश देने की शक्ति नहीं होगी। विनुभाई हरिभाई मालवीय बनाम गुजरात राज्य में पीठ द्वारा विचार किया गया प्रश्न यह था कि क्या पुलिस द्वारा चार्जशीट दायर किए जाने के बाद,मजिस्ट्रेट के पास आगे की जांच का आदेश देने की शक्ति है और यदि ऐसा है तो यह शक्ति अपराध के किस चरण तक है। कोड के विभिन्न प्रावधानों की जांच करने के बाद, बेंच ने देखा, "स्पष्ट है कि सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट की शक्ति बहुत व्यापक हैं, क्योंकि यह न्यायिक प्राधिकरण है जिसे इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस द्वारा की गई जांच उचित और निष्पक्ष है, उसकी निगरानी मजिस्ट्रेट करता है - भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 यह कहता है कि सभी आवश्यक शक्तियां, जो आकस्मिक या निहित भी हो सकती हैं , एक उचित जांच सुनिश्चित करने के लिए मजिस्ट्रेट पास उपलब्ध हैं, जो संदेह के बिना, धारा 173 (2) के तहत उसके द्वारा एक रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद आगे की जांच के आदेश को शामिल करेगा और ट्रायल शुरू होने तक आपराधिक कार्यवाही के सभी चरणों में ऐसी शक्ति मजिस्ट्रेट के पास जारी रहेगी। दरअसल, यहां तक ​​कि धारा 2 (एच) के तहत "जांच" की परिभाषा के अनुसार, सीआरपीसी की धारा 156 (1) में उल्लिखित "जांच" में पुलिस अधिकारी द्वारा साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए सभी कार्यवाही शामिल हैं, जो निश्चित रूप से सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच के माध्यम से कार्यवाही शामिल होगी।" कानून में इस सवाल का जवाब खोजते हुए कि क्या धारा 156 (3) के तहत शक्ति का प्रयोग केवल पूर्व-संज्ञान चरण (अंतिम रिपोर्ट देने से पहले) में करना गलत होगा? अदालत ने कहा कि देवरपल्ली लक्ष्मीनारायण रेड्डी और अन्य बनाम वी नारायण रेड्डी में यह पाया गया कि धारा 156 (3) के तहत शक्ति का प्रयोग केवल संज्ञान लेने से पूर्व के चरण में किया जा सकता है, यह गलत धारणा है। अदालत ने इस निर्णय में धारा 156 (3) के तहत शक्ति के प्रयोग के विवरण को सही नहीं पाया और कहा, "जबकि यह सच है कि 1973 कोड लागू होने के बाद भी धारा 156 (3) अपरिवर्तित बनी हुई है, फिर भी 1973 कोड का एक बहुत महत्वपूर्ण है, अर्थात् धारा 173 (8), जो 1898 कोड के तहत मौजूद नहीं थी, उसका अधिनियम में जुड़ना महत्वपूर्ण है। जैसा कि हमने इस निर्णय में पहले देखा है, 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (h) इस अंतर से "जांच" को उसी रूप में परिभाषित करती है, जिसमें 1898 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (l) में निहित अंतर इस परिभाषा के साथ है कि - 1973 की संहिता लागू होने के बाद "जांच" में अब एक पुलिस अधिकारी द्वारा किए गए सबूतों के संग्रह के लिए सीआरपीसी के तहत सभी कार्यवाही शामिल होगी। "सभी" में स्पष्ट रूप से धारा 173 (8) के तहत कार्यवाही शामिल होगी। इस प्रकार, जब धारा 156 (3) में कहा गया है कि धारा 190 के तहत सशक्त मजिस्ट्रेट "इस तरह की जांच" का आदेश दे सकते हैं, तो इस तरह के मजिस्ट्रेट धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच का आदेश भी दे सकते हैं, जिसके संबंध में धारा 2 (एच) में "जांच" की परिभाषा निहित थी। धारा 2 (एच) को पूर्वोक्त निर्णय द्वारा ध्यान नहीं दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप कानून में गलत धारणा है कि धारा 156 (3) के तहत शक्ति केवल पूर्व-संज्ञान चरण में ही प्रयोग की जा सकती है। धारा 156 (3) में कही गई "जांच" पूरी प्रक्रिया को अपनाएगी, जो सबूतों के संग्रह से शुरू होती है और तब तक जारी रहती है जब तक कि अदालत द्वारा आरोप तय नहीं किए जाते हैं, जिस स्तर पर ट्रायल शुरू किया जा सकता है। इन कारणों से, देवरापल्ली लक्ष्मीनारायण रेड्डी में पैरा 17 में निहित कानून के विवरण पर भरोसा नहीं किया जा सकता।" पीठ ने यह भी पाया कि यह गलत धारणा अमृतभाई शंभुभाई पटेल बनाम सुमनभाई कांतिबाई पटेल में दोहराई गई थी जब उन्होंने यह देखा कि मामले में संज्ञान लेने के चरण के बाद मजिस्ट्रेट द्वारा मामले में आगे कोई भी जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता है। इन निर्णयों (जो इस आदेश का पालन करते हैं) को खारिज करते हुए, पीठ ने देखा, "इन फैसलों में कोर्ट द्वारा कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है कि क्यों आगे की जांच का आदेश देने की मजिस्ट्रेट की शक्ति अचानक समाप्त हो जाएगी और मजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्त के पेश होने से लेकर आगे की जांच करने के लिए पुलिस की शक्ति मुकदमे की सुनवाई शुरू होने तक जारी रहेगी। इस तरह का विचार इस अदालत के पहले के निर्णयों के अनुरूप नहीं होगा, विशेष रूप से, सकरी (सुप्रा), समाज परिवार समुदाय (सुप्रा), विनय त्यागी (सुप्रा), और हरदीप सिंह (सुप्रा); हरदीप सिंह (सुप्रा) ने स्पष्ट रूप से कहा कि संज्ञान लेने के बाद आपराधिक मुकदमा शुरू नहीं होता है, बल्कि यह तब शुरू होता है जब आरोप तय हो जाते हैं। हाल के निर्णयों में संविधान का अनुच्छेद 21 को महत्व नहीं दिया गया है और यह तथ्य है कि अनुच्छेद 21 निष्पक्ष और न्यायपूर्ण जांच की मांग से कम नहीं है। "

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Friday 27 December 2019

पूर्व-न्याय Res judicata -Section 11 CPC

*पूर्व-न्याय Res judicata -Section 11 CPC.*

         सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 11 निम्न प्रकार से उपबंधित की गई है--
धारा 11-- कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य विषय उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच या ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमे में से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी एस्से न्यायालय में प्रत्यक्षत और सारतः विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चातवर्ती वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचरण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है।

स्पष्टीकरण 1-- “पूर्ववर्ती वाद” पद ऐसे वाद का घोतक है जो प्रश्न गत वाद के पूर्व ही विनिश्चित जा चुका है चाहे वह उससे पूर्व संस्थित किया गया हो या नहीं।

स्पष्टीकरण 2 -- इस धारा के प्रयोजन के लिए, न्यायालय की सक्षमता का अवधारण ऐसे न्यायालय के विनिश्चय से अपील करने के अधिकार विषयक किन्ही उपबंधों का विचार किए बिना किया जाएगा।

स्पष्टीकरण 3-- ऊपर निर्देशित विषय का पूर्ववर्ती वाद में एक पक्ष कार द्वारा अभिकथन और दूसरे द्वारा अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से प्रत्याख्यान या स्वीकृति आवश्यक है।

स्पष्टीकरण 4-- ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनाना जाना चाहिए था, समझा जायेगा कि ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य रहा है।

स्पष्टीकरण 5 -- वाद पत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा अभिव्यक्त रूप से नहीं दिया गया है, इस धरा के प्रयोजनो के लिए नामंजूर कर दिया गया समझा जाएगा।

स्पष्टीकरण 6 -- जहां कोई व्यक्ति किसी लोक अधिकार के या किसी ऐसे प्राइवेट अधिकार के लिए सद्भाव पूर्वक मुकदमा करते हैं जिसका वे अपने लिए और अन्य व्यक्तियों के लिए सामान्यत दावा करते हैं वहां ऐसे अधिकार से हितबद्ध सभी व्यक्तियों के बारे में इस धरा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जायेगा कि वे ऐसे मुकदमा करने वाले व्यक्तियों से व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करते हैं।

   स्पष्टीकरण 7 - धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिए कार्रवाई को लागू होंगे और इस धारा मैं किसी वाद,विवाद्यक या पूर्ववर्ती वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः उस डिक्री के निष्पादन के लिए कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न और उस डिक्री के निष्पादन के लिए पूर्ववर्ती कार्रवाई के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।

स्पष्टीकरण 8 -- कोई विवाद्यक जो सीमित अधिकारिता वाले किसी न्यायालय द्वारा, जो ऐसा विवाद्यक विनिश्चित करने के लिए सक्षम है, सुना गया है और अंतिम रुप से विनिश्चित किया जा चुका है, किसी पश्चातवर्ती वाद में पूर्व न्याय के रूप में इस बात के होते हुए भी प्रवर्त होगा कि सिमित अधिकारिता वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चातवर्ती वाद का यह उस वाद का जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचारण करने के लिए सक्षम नहीं था।

 न्याय प्रशासन मे वाद की रचना करना महत्वपूर्ण हैं। इसमे वाद की बहुलता (multiplicity of suit) को रोकना एक आवश्यक तत्व हैं। इसे रोकने के लिए संहिता मे विविध प्रावधान किए गए हैं। जेसे -
1 विचाराधीन न्याय (res - subjudice ) धारा10 cpc ,
2  पूर्व न्याय (res - judicata ) धारा  11cpc ,
3 अपर वाद का वर्जन (bar to furthersuit ) धारा 12 cpc , आदि का प्रावधान किया गया हैं। सहिंता आदेश 2 मे वाद की रचना की व्यवस्था की गई हैं। उपरोक्त धाराओ में न्यायिक प्रक्रिया में पूर्व न्याय का सिद्धांत अति महत्वपूर्ण होने से सहिंता में धारा11में इसका समावेश किया गया हैं | यह प्रावधान अति महत्वपूर्ण है जिसका विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।
       उपरोक्त धारा के बारे  में सीधे अर्थो में यह कहा जा सकता हैं की कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिंदु का विचारण नही करेगा जिसमे वाद पद में वह विषय उन्ही पक्षकारो के मध्य अथवा उन पक्षकारो के मध्य जिनके अधीन वे अथवा कोई उसी हक के अंतर्गत उसी विषय बाबत दावा प्रस्तुत करता हैं तब ऐसे पश्चातवर्ती वाद में जो विवाद बिंदु उठाया गया हैं और न्यायालय विचारणमें सक्षम हैं उस विवाद बिंदु बाबत पूर्व वाद में प्रत्यक्ष व सरवान बिंदु बाबत सुना जा चूका हो तथा अंतिम रूप से न्यायालय द्वारा निर्णित किया जा चूका हो तो ऐसे पश्चातवर्ती वादों का विचारण धारा 11 पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार विचारण से प्रवरित करता हैं ।

      इस सिद्धांत का मुख्य उद्येश्य वादों की बहुलता को रोकना हैं । सीधे अर्थो में हम यह कह सकते हैं कि उन्ही पक्षकारो के बिच किसी विवाद विषय-वस्तु का कोई निष्पादन योग्य निर्णय हो जाने के बाद उन्ही पक्षकारो के बिच उसी विवाद बाबत नये वाद के विचारण को रोकना हैं |

*--: महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय :--*

 (1) एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की किसी दस्तावेज     की प्रकृति को अपीलीय न्यायालय लंबित रहने से उसे अंतिम नही माना  गया -       अभिनिर्धारित धारा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंते हैं ।
  1998(2) DNJ (S.C.) 353

 (2) स्पष्टीकरण V||| सिमित क्षेत्राधिकार -पहले वाद में उन्ही पक्षकारो के बिच निर्णय - अगले वाद में बंधनकारी होगा, अगर पश्चावर्ती वाद में उठए गये मुद्दे      स्पष्तः एवं सारतः वही हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु होगा ।
2000(1)DNJ(Raj.) 245

(3) यदि पूर्व वाद अनुपस्थिति में ख़ारिज हुआ हो तथा मेरिट पर निर्णित नही हुआ      एवं वाद हेतुक भी भिन्न रहा हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु नही होता हैं ।
 2002 DNJ (Raj.) 910

 (4) किसी मामले में सिविल न्यायालय में वसीयत को धारा 68 साक्ष्य अधिनियम के     अनुसार प्रयाप्त रूप से सिद्ध किया गया | राजस्व न्यायालय में पुनः सिद्ध करने     की आवश्यकता नही है पूर्व न्याय का सिद्धांत के अनुसार वसीयत सिद्ध हुयी मानी     जाएगी।
 2000(2) DNJ (Raj.) 503

(5) पूर्व वाद जो करार दिनांक 20/12/1976 की विनिर्दिष्ट पालना बाबत पेश किया       जो साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हुआ पश्चातवर्ती वाद करार दिनांक 14/9/1987 .के     आधर पर पेश हुआ, पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार प्राथना-पत्र न्यायालय द्वारा     ख़ारिज किया गया | अभिनिर्धारित - दोनों वादों में वाद हेतुक व पक्षकार तथा       करार भिन्न भिन्न हैं जिससे आदेश में अधिकारिता की त्रुटी या अवेधता नही मानी गयी।
 2014(4) DNJ (Raj.)1446

(6) किसी वाद में न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः या सारतः किसी विवाद्द्यक का अंतिम      निर्णय नही होने पर धरा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंगे।
AIR 1990 (Bom.) 134

(7) किसी रिट याचिका को बिना अधिकार सुरक्षित रखे वापस लेने के उपरांत उसी      आधार पर प्रस्तुत रिट याचिका धारा 11 के अनुसार वर्जित होंगी।
AIR 1990 (Guj.) 20

(8) जहां किसी मामले में आयकर कार्यवाही का प्रश्न किसी न्यायालय के समक्ष आता है। वहां पूर्व न्याय का सिद्धांत प्रयोज्य नहीं होता है।
1992 ए.आई. आर. (सुप्रीम कोर्ट) 377

(9) कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभीनिर्धारित किया है कि ऐसे मामलों में पूर्व न्याय का सिद्धांत प्रयोज्य होता है जहां की किसी वाद में पूर्ववर्ती कार्यवाही को उन्ही पक्षकारों के मध्य सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय के समक्ष विचारणार्थ प्रस्तुत किया जाता है।
1993 ए .आई .आर. (कर्नाटक) 188

(10) जब न्यायालय के निर्णय के पश्चात विधि में परिवर्तन हुआ हो इससे पूर्व निर्णय का सिद्धांत प्रभावी नहीं होगा।
1994  ए .आई .आर. (गुजरात) 75

(11) माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि भूमि अर्जन संशोधन अधिनियम 1984 लागू होने के बाद भी याची द्वारा अर्जन कार्यवाही की वैधता को चुनौती नहीं दिया गया है तब वाद में अर्जन कार्रवाई की वैधता को चुनौती नहीं दिया जा सकता क्योंकि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के स्पष्टीकरण 4के अधीन वह बाधित है।
1996 ए .आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट) 61

(12) निष्पादन के विरुद्ध द्वितीय आपत्ती की। धारा 47 के अधीन आवेदन पर भी पूर्व न्याय का सिद्धांत लागू होता है। निर्णित ऋणी को उसी निष्पादन में ए के पश्चात अन्य आवेदन करने का कोई अधिकार नहीं है।निर्णित ऋणी को अनुवर्ती आवेदन में आपत्ति प्रस्तुत करने का अधिकार मात्र इसी आधार पर उपलब्ध नहीं होगा कि उसने आपत्ती विशेष पूर्व के आवेदन में नहीं की थी। द्वितीय आवेदन में अनुवर्ती आक्षेप आदेश 2 नियम 2 से भी बाधित है। प्रथम आवेदन का खारिज किया जाना पुनरीक्षण तक मान्य रहने से निष्पादन न्यायालय के लिए द्वितीय आवेदन जो पोषणीय नहीं था इसी प्रकार की जांच करना आवश्यक नहीं रहा।
2007 (3) WLC (Raj) 618

(13) डिक्री धारक डिक्री के निष्पादन हेतु अनेक बार आवेदन पत्र सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में प्रस्तुत करने का एक विधिक अधिकार रखता है, जबकि पक्षकार डिक्री के पारित होने की तिथि से 12 वर्ष परिसीमा की अवधि के अंदर ही उक्त प्रार्थना पत्र को प्रस्तुत करने का अधिकार रखता है। तो वहां उस उस पक्षकार को डिक्री का लाभ लेने से केवल इस तकनीक आधार पर मना नहीं किया जा सकता है कि तथाकथित मुद्दा एक लोकनीति का मामला है।

(14) पूर्व न्याय के सिद्धांत का आधार एक तकनीकी नियम नहीं है बल्कि यह लोक नीति के नियम पर आधारित होता है।
1997 ए आई आर (मुंबई) 79

(15) पूर्वन्याय के सिद्धांत को बड़ी सतर्कता एवं सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए। कारण यह है कि कपट एक तीव्र संपार्श्विक कार्य होता है जो कि न्याय की न्यायालयों की अत्यधिक गंभीर कार्यवाही  को निःसार बना देती है। यदि एक व्यक्ति कपट दुःसंधि का प्रयोग करके डिक्री प्राप्त करता है, तो उसे यह कहने की अनुज्ञा नहीं प्रदान की जा सकती है कि यह पूर्व न्याय के का मुद्दा है और वहां इसे पुनः खोल नहीं सकता है। ऐसे मामले में पूर्व न्याय का प्रश्न उद्भ्त नहीं हो सकता है जहां कपट या दुरभिसंधि का हस्ताक्षर अभिलेख पर सुलभ्य तथ्यों से प्रत्यक्ष व सुस्पष्ट होता है।
1995 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1205

(16) जहां कोई बात इस आधार पर निरस्त किया गया था कि पूर्व के वाद में इस हेतु वाद हेतुक समाप्त हो चुका था अथवा किसी समान साक्ष्य का अभाव था वहां यह तथ्य की प्रतिवादी ने उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं किया वहां उक्त मामले में पूर्वन्याय का सिद्धांत लागू होगा।
1999 ए.आई.आर. (सुप्रीम कोर्ट)1823

(17) विचारण न्यायालय द्वारा अभिलिखित निष्कर्षों की अंतिमता के बाबत यह धारण  किया गया कि वे निष्कर्ष जो डिक्री के आधार थे पूर्व न्याय के रुप में प्रवृत्त होंगे।
1995 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 2001

( 18) पति इस आधार पर विवाह विच्छेद करना चाह रहा था कि पत्नी ने उसका अभित्यजन कर दिया था। जब की पत्नी ने साक्ष्य दिया कि वह एक दूसरी स्त्री रखे हुए था इसलिए उसने अपने वैवाहिक भवन को छोड़ दिया था। न्यायिक पृथक्करण हेतु पति द्वारा दाखिल की गई पूर्ववर्ती याचिका में विचारण न्यायालय द्वारा निष्कर्ष की पत्नी को पति को छोड़ने के लिए विवश किया गया था और उसने स्वयं उसका अभित्यजनकर दिया था, को पूर्वन्याय के रूप में प्रवर्तनीय होने वाला माना गया।
2000 ए.आई.आर(एनओसी)209( छत्तीसगढ़)

( 19) जहां किसी रिट याचिका को उसके गुण एवं दोष के आधार पर निरस्त किया जाता है तो वहां उक्त न्यायालय द्वारा पारित किया गया निर्णय, पूर्व न्याय का सिद्धांत जैसा संचालित नहीं होता है।
1989 ए .आई .आर. (दिल्ली) 301

( 20) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि पूर्ण न्याय का सिद्धांत एक ऐसा सार्वभौमिक पक्षकारों के  बीच प्रश्नगत विवाद को अंतिमता प्रदान करता है।
1990 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 334

(21) पूर्व न्याय उन परीक्षणों में एक होता है जो यह सुनिश्चित करने हेतु प्रयुक्त होते हैं क्या उक्त अधिगम द्वारा व्यथित पक्षकार इसे अर्थार्थ (पूर्व न्याय के सिद्धांत को) चुनौती दे सकता था।
1991 ए.आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट ) 264

(22) एक वाद में जहां दत्तक ग्रहण की वैधता को चुनौती दी गई थी। दोनों पक्षकारो ने अपने साक्ष्य प्रस्तुत किए थे किसके द्वारा यह तथ्य प्रकाश में आया कि दत्तक ग्रहण वेध नहीं था। जहां वाद का आधार दत्तक ग्रहण था वाद को निरस्त  करने के स्थान पर वाद की वैधता शून्यता निर्धारित की जानी चाहिए। घोषणा की अवैधता का तथ्य पूर्व निर्णय का गठन करता है। वाद निरस्त किया गया किंतु यह भी निर्णय दिया गया कि गोदनामा अवैध है तो अपील ना होने से निर्णय पूर्व होगा।
1994 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 16

(23) एक मामले में वादी में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 नियम 7 के अंतर्गत न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया इसके पश्चात उसने पुनः नए सिरे से आदेश 9 नियम 7 के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत किया। न्यायालय ने इसे पूर्व न्याय के सिद्धांत द्वारा बाधित माना।
2001 ए.आई.आर. (इलाहाबाद) 78

(24) कोई भी खंडपीठ, उसी न्यायालय के समकक्ष अखंड पेट के कार्य करने पर टिप्पणी नहीं कर सकता है।
1992 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 474



(25) जब प्रतिवादी के विरुद्ध वादी ने पूर्व वाद किराएदार कह कर बकाया राशि के लिए वाद संस्थित  किया था तथा पश्चातवर्ती वाद मैं पूर्ववाला बिंदु निहित नहीं था तब ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह धारण किया गया कि वादी का वाद धारा 11 द्वारा बाधित नहीं है।
1996 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 378

(26) किसी भी वाद के विचारण के दौरान सिद्ध करने का भार उस पक्षकार पर होता है जो कि पूर्व न्याय के सिद्धांत पर विश्वास करता है।
1992 ए आई आर (उड़ीसा) 51

(27) यदि सक्षम अधिकारिता वाली न्यायालय द्वारा निर्णय किया गया तो यह दोनों पक्षकारों पर बाध्यकारी प्रभाव रखेगा यदि यह त्रुटिपूर्ण है तो भी जहां सहदायिकी द्वारा दिए गए उपहारो को सहदायको के बीच पूर्ववर्ती वाद में हिंदू विधि के अधीन अवैधानिक माना गया। इस प्रकार के निर्णय विभाजन के लिए पश्चातवर्ती वाद के पक्षकारों पर बाध्यकारी प्रभाव रखेंगे और इस आधार पर विबंध के नियम को लागू करने के लिए उद्बभूत नहीं होता कि सहदायको के बीच परिवारिक वयस्थापन था।
1997 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 808

(28) जब आज्ञप्ति करने वाले न्यायालय में आपत्ति न की गई हो तो निष्पादन में आपत्ति विचारनीय नहीं होगी।
1994 ए आई आर (केरल) 75

(29) विचारण न्यायालय में एक विभाजन के वाद में अंतिम डिक्री को क्रमबद्ध करने के संबंध में पीड़ित पक्षकार कोई आवेदन प्रस्तुत करता है तो वहां पर परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत उस आवेदन पत्र को विचारण न्यायालय में प्रस्तुत करने का प्रावधान सुलभ नहीं होता है।
1993 ए.आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट)1756