Thursday 26 March 2020

ज़मानत देना एक नियम है और जेल अपवाद : 21 मार्च 2020 सुप्रीम कोर्ट

ज़मानत देना एक नियम है और जेल अपवाद : सुप्रीम कोर्ट

*जितेंद्र विरुद्ध मध्यप्रदेश राज्य व अन्य,  क्रिमिनल अपील 408 वर्ष 2020 आदेश दिनांक, 21 March 2020 फुल बैंच- चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे, जस्टिस वीआर गवाही एवं जस्टिस सूर्यकांत*

         एक आरोपी को ज़मानत देने से हाईकोर्ट के इंकार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे ज़मानत देते हुए कहा कि *ज़मानत देना नियम है और जेल में रखना अपवाद।* 

*(न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर मोती राम व अन्य विरुद्ध  मध्य प्रदेश राज्य 1978 एआईआर 1594 के प्रकरण  में पहली बार के यह मशहूर वक्तव्य दिया था कि- ‘नियम जमानत का है, और जेल अपवाद है.)*

इस आदमी के ख़िलाफ़ पुलिस ने मामले को बंद कर दिया था लेकिन हाईकोर्ट ने इसके बाद भी उसे ज़मानत नहीं दी।
इस आदमी के ख़िलाफ़ 2012 में धोखाधड़ी का एक मामला दर्ज किया गया था और 2013 में पुलिस ने इस मामले को बंद कर दिया। लेकिन पाँच साल बाद न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इस मामले की दुबारा जाँच का आदेश दिया।
इसके बाद उसे जनवरी 2019 में गिरफ़्तार कर लिया गया। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने उसकी पहली ज़मानत याचिका रद्द कर दी और दूसरी याचिका को वापस ले लिया गया यह कहते हुए ठुकरा दिया गया।
इस बीच पुलिस ने मामले की जाँच की और दूसरी रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया था कि अपीलकर्ता ने कोई अपराध नहीं किया है और उसे छोड़ दिया जाना चाहिए। मामले को बंद कर दिए जाने की इस रिपोर्ट के बाद आरोपी ने हाईकोर्ट में इस आधार पर फिर ज़मानत की अर्ज़ी दी।
आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे, बीआर गवई और सूर्य कांत की पीठ ने कहा,
"हाईकोर्ट को यह बात ध्यान में रखने चाहिए थी कि 'ज़मानत का नियम है, जेल अपवाद है'।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ज़मानत यांत्रिक तरीक़े से न तो दी जानी चाहिए और न ही इससे इंकार की जानी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की स्वतंत्रता से यह जुड़ा हुआ है।
इस मामले की विचित्र परिस्थिति यह है कि इसको दो बार बंद किया गया, हाईकोर्ट को सिर्फ़ इसलिए ज़मानत से इंकार नहीं करना चाहिए क्योंकि निचली अदालत ने अभी इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया है।
फिर, गवाहों की जाँच दूसरी रिपोर्ट की स्थिति पर निर्भर करेगा। अपीलकर्ता के ख़िलाफ़ जिस तरह के आरोप लगाए गए हैं उसकी प्रकृति को देखते हुए और हिरासत में उसने जो समय बिताया है उसे देखते हुए हम इस बारे में आश्वस्त हैं कि उसे तत्काल ज़मानत दे दी जानी चाहिए।"
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*जमानत पर विधि आयोग की सिफारिशें*

1-   ऐसा विचाराधीन कैदी जिसने सात साल की कैद के अपराध के मामले में अधिकतम सजा की अवधि का एक तिहाई पूरा कर लिया है, उसे जमानत पर रिहा किया जाए.

2-  ऐसा विचाराधीन कैदी जिसने सात साल से अधिक कैद की सजा के अपराध में आधी से ज्यादा अवधि पूरा कर ली है, उसे जमानत दी जाए.

3-  ऐसे मामलों में जिसमें आरोपी अधिकतम सजा की अवधि पूरी कर चुका हो, उसकी माफी के लिए कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए.
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COVID-19: जेलों से कैदियों की रिहाई के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अमल करने के लिए अधिवक्ता ने मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिखा

एक वरिष्ठ वकील ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, गृह मंत्री और अतिरिक्त मुख्य सचिव (अपील और सुरक्षा) को पत्र लिखा है जिसमें जेलों में कोरोना वायरस की महामारी को रोकने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को छोटे अपराधों में कैदियों को पैरोल देने पर विचार करने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देश को लागू करने के लिए तत्काल कदम उठाने का अनुरोध किया गया है। कोरोना वायरस के फैलने के संभावित खतरे को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों / केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वे जेल में बंद कैदियों के बीच सामाजिक दूरी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाएं। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की जेलों में कैदियों की संख्या को कम करने के लिए राज्यों से उन कैदियों को पैरोल या अंतरिम जमानत पर रिहा करने के लिए विचार करने पर कहा था जो अधिकतम 7 साल की सजा काट रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे और जस्टिस एल नागेश्वर राव की बेंच ने राज्य सरकारों को उच्च शक्ति समिति का गठन करने को कहा है जो यह निर्धारित करेगी कि कौन सी श्रेणी के अपराधियों को या मुकदमों के तहत पैरोल या अंतरिम जमानत दी जा सकती है अधिवक्ता एसबी तालेकर, जो महाराष्ट्र और गोवा की बार काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष और औरंगाबाद में पीठ के बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष हैं, उन्होंने लिखा कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च को एक उच्च शक्ति समिति के गठन के आदेश दिए थे, लेकिन अभी तक ऐसी समिति का गठन नहीं किया गया है और राज्य की जेलों में कैदियों की संख्या कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। पत्र में कहा गया कि " महाराष्ट्र राज्य में दोषियों को रिहा करने की मौजूदा नीति 14 साल की अवधि के दोषी हैं और 65 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं कैदी को रिहा करने की है। हालाँकि, 50 वर्ष की आयु पार कर चुके व्यक्तियों पर COVID-19 के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, उक्त नीति को संशोधित करना और 55 वर्ष की आयु पार कर चुके व्यक्तियों को तत्काल प्रभाव से मुक्त करना आवश्यक हो गया है, जिन्हें 12 वर्ष की सजा सुनाई गई है। " पत्र में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है कि महाराष्ट्र में सभी जेलों की स्वीकृत क्षमता 24032 है, जबकि 29 फरवरी, 2020 तक लगभग 36713 कैदी जेल में थे। इस प्रकार, जेल पहले से ही भीड़भाड़ और स्वीकृत क्षमता से अधिक कैदी रखे हुए हैं, "इसलिए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार तत्काल कदम उठाना आवश्यक हो गया है, ताकि जेलों के में स्वास्थ्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके और सभी संभावित स्थानों पर सामाजिक-दूरी के उपाय को सक्षम किया जा सके।" यह सुनिश्चित करने के लिए कि वायरस कैदियों के बीच न फैले कुछ अन्य सुझाव दिए गए हैं। -

(i) जेल अधिकारियों को धारा 436 ए को लागू करने और उन लोगों को रिहा करने का निर्देश दें, जो पहले से ही या बिना किसी जमानत के अपने व्यक्तिगत बंधन पर कुल कारावास का आधा हिस्सा बिता चुके हैं।
(ii) मौजूदा जेलों को बंद करने के अलावा, यह सुनिश्चित करना सभी के लिए आवश्यक हो गया है कि किसी भी नए कैदियों को जेल में अन्य कैदियों के साथ शामिल नहीं किया जाए।
(iii) कैदियों की रिहाई के अलावा, भीड़भाड़ वाली जेलों से कैदियों को उन जेलों को स्थानांतरित करना जो कम भीड़भाड़ वाली हैं, भी एक प्रभावी उपाय है। उनकी स्वीकृत क्षमता के विपरीत कुछ जिला कारागार में कम कैदी हैं। कैदियों को केंद्रीय कारागार से जिला कारागार में स्थानांतरित करने का प्रयास मौजूदा जेलों को का भार खत्म करने के लिए एक प्रभावी उपाय होगा।

अधिवक्ता तालेकर ने तुरंत एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति के गठन और जेल अधिकारियों को निर्देश देने की मांग की कि वे ऐसे सभी कैदियों के आंकड़ों के साथ तैयार रहें, जो पूर्वोक्त मापदंडों पर रिहा होने के पात्र हैं।

जाति प्रमाणपत्र की जांच के संबंध में कहा - हाईकोर्ट रिट अधिकार का उपयोग कर कानूनी कल्पना पर प्रतिबंध लगा सकता है, बशर्ते वह कल्पना संचालन में न आ चुकी हो :- सुप्रीम ‌कोर्ट

हाईकोर्ट रिट अधिकार का उपयोग कर कानूनी कल्पना पर प्रतिबंध लगा सकता है, बशर्ते वह कल्पना संचालन में न आ चुकी होः सुप्रीम ‌कोर्ट 

         *अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट में और अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में निहित न्यायिक समीक्षा की शक्ति, संविधान की अभिन्न और आधारभूत विशेषता है। यह संविधान की मूल संरचना है।*

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हाईकोर्ट संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दिए गए अधिकारों का उपयोग करते हुए कानून में शामिल की गई कानूनी कल्पना पर प्रतिबंध लगा सकता है, बशर्ते उक्त कानूनी कल्पना संचालन में न आ चुकी हो। जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने दोहराया कि अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय की शक्ति को किसी क़ानून के विपरीत प्रावधान के ज‌रिए वापस लिया या संकुचित किया नहीं जा सकता है। कानून और तथ्य मुंबई नगर निगम कानून की धारा 5 बी के अनुसार उम्मीदवार को नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख को जाति वैधता प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। एक उम्मीदवार, जिसने नामांकन दाखिल करने की तारीख से पहले अपने जाति प्रमाण पत्र के सत्यापन के लिए स्क्रूटनी कमेटी में आवेदन किया है, लेकिन उसने नामांकन दाखिल करने की तिथि तक वैधता प्रमाणपत्र प्राप्त नहीं किया है, तब उसे एक हलफनामा देना होगा होगा कि वह चुनाव की तारीख से छह महीने के भीतर स्क्रूटनी कमेटी की ओर से जारी वैध प्रमाण पत्र जमा कर देगा। यदि एक व्यक्ति चुनाव की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर वैधता प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो उस चुनाव को पूर्वव्यापी प्रभाव से रद्द माना जाएगा, और उस व्यक्ति को काउंसलर पद के लिए अयोग्य माना जाएगा। संशोधन अधिनियम, 2018 के बाद छह महीने की अवधि को बारह महीने कर दिया गया था। *मौजूदा मामले में कास्ट (जाति) स्क्रूटनी कमेटी ने एक चुने हुए उम्मीदवार को जाति वैधता प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया।* उम्मीदवार ने कमेटी के *आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी* थी। *उच्‍च न्यायालय ने अपने फैसले में स्क्रूटनी कमेटी के आदेश को रद्द कर दिया और मामले पर नए सिरे से विचार करने के लिए कमेटी को वापस भेज दिया।* यह कहा गया कि हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश के बाद उम्‍मीदवार का चुनाव बरकरार रहेगा, जबकि स्क्रूटनी कमेटी के आदेश को रद्द कर दिया गया। मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील में मुद्दा था कि क्या हाईकोर्ट द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत ‌दिए गए अधिकार का उपयोग कर दिए गए आदेश से उक्त अवधि बढ़ाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में, यह कि क्या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकार के प्रयोग के जर‌िए उच्च न्यायालय राज्य अधिनियमन में शामिल कानूनी कल्पना का समाप्त करने का आदेश दे सकता है? 

इन मुद्दों का जवाब देते हुए पीठ ने कहा कि मुंबई नगर निगम काननू की धारा 5 बी संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय को दिए गए अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है। 

*अपील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित टिप्पणियां कीं- अनुच्छेद 226 के तहत प्रदत्त शक्तियां-*

(i)अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट में और अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में निहित न्यायिक समीक्षा की शक्ति, संविधान की अभिन्न और आधारभूत विशेषता है। यह संविधान की मूल संरचना है। अनुच्छेद 226 के तहत प्रदत्त अधिकार क्षेत्र वास्तविक, असाधारण और विवेकाधीन है। हाईकोर्ट का काम यह देखना है कि क्या किसी संवैधानिक प्राधिकरण, ट्रिब्यूनल, वैधानिक प्राधिकरण या संविधान के अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर किसी प्राधिकरण के किसी फैसले के कारण अन्याय तो नहीं हुआ है। 
(ii) न्यायालय नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता का संरक्षक है। यदि वे नागरिकों के प्रति अपे कर्तव्य से विमुख होते हैं तो वे अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पाएंगे। अनुच्छेद 226 का दायरा व्यापक है और जहां कहीं भी अन्याय पाया जाता है, इसका इस्तेमाल कर उसका खात्मा किया जा सकता है। 
(iii) संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत प्रदत्त शक्ति किसी भी कानून के विपरीत प्रावधान को अधिरोहित करती है और अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय की शक्ति को किसी कानून के विपरीत प्रावधान के ज‌रिए न वापस लिया जा सकता है और न निरस्त किया जा सकता है। 
(iv) जब किसी नागरिक के पास किसी भी वैधानिक प्राधिकरण के किसी भी निर्णय की न्यायिक समीक्षा कराने का अधिकार है, तो उच्च न्यायालय के पास, न्यायिक समीक्षा के लिए, यथास्थिति बनाए रखने का अधिकार है,...उच्च न्यायालय रिट अधिकार क्षेत्र का उपयोग कर अंतरिम आदेश कर सकता है। धारा 5 बी कानूनी कल्पना 
(v) यह सच है कि मुंबई नगर निगम कानून की धारा 5 बी के तहत एक वर्ष की अवधि के भीतर जाति वैधता प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य है, लेकिन वर्तमान मामले में छह माह की अवधि समाप्त होने से पहले, कास्ट स्क्रूटनी कमेटी ने पीड़ित व्यक्तियों द्वारा रिट याचिका दायर करने की आवश्यकता के दावे को अवैध रूप से खारिज कर दिया, जिस रिट याचिका में हाईकोर्ट अंतरिम राहत दी थी। हाईकोर्ट की किसी अनुचित मामले में अंतरिम राहत प्रदान करने की शक्ति को केवल एक वर्ष की अवधि के लिए सीमित नहीं किया जा सकता है, जो अवणि जाति वैधता प्रमाणपत्र जमा करने के लिए धारा 5 बी में परिकल्पित की गई है। 
(vi) वर्तमान मामले में जहां प्र‌तिवादियों का जाति का दावा छह महीने की अवधि समाप्त होने से पहले अवैध रूप से खारिज कर दिया गया था, अंतरिम आदेश देने के मामले में उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर कोई रोक नहीं है,और उच्च न्यायालय ने छह महीने की अवधि के समाप्ति से पहले अंतरिम आदेश दिया था। 
(vii) वर्तमान मामले के अनुसार उच्च न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम आदेश के कारण, चुनाव की पूर्वव्यापी समाप्ति की धारा 5 बी कल्पना क्रियान्वित नहीं होगी।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/hc-in-exercise-of-writ-jurisdiction-can-pass-an-order-interdicting-legal-fiction-provided-it-had-not-come-into-operation-sc-154143?infinitescroll=1

Wednesday 25 March 2020

उपभोक्ता संंरक्षण अधिनियम के अनुसार उपभोक्ता कौन है? लालाराम मीणा

उपभोक्ता संंरक्षण अधिनियम के अनुसार उपभोक्ता कौन है?


जानिए उपभोक्ता संंरक्षण अधिनियम के अनुसार उपभोक्ता कौन है? 

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में उपभोक्ता कौन है? इसको लेकर समय-समय पर विवाद रहे हैं। न्यायालय अनेक मामलों में उपभोक्ता कौन है, इसकी परिभाषा स्पष्ट करता रहा है। अनेक मामलों में हमें यह मालूम हुआ है कि इस अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता किसे माना जा सकता है। उपभोक्ता संरक्षणअधिनियम 1986 भारत भर के उपभोक्ताओं के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए बनाया गया है। अधिनियम तो उपभोक्ता के अधिकारों को सुरक्षित कर भी रहा है, परंतु अधिकांश मामलों में यह तय करना मुश्किल होता है कि उपभोक्ता है कौन? इस लेख के माध्यम से उपभोक्ता शब्द को समझने का प्रयास किया जा रहा है। अधिनियम में बताए गए उपभोक्ता की परिभाषा को भी समझने का प्रयास किया जा रहा है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (घ) में परिभाषा खंड में उपभोक्ता की विस्तृत परिभाषा दी गयी है जिसके अनुसार, "उपभोक्ता वह है जो किसी प्रतिफल के बदले कोई वस्तु खरीदता है, परंतु उस वस्तु का पुनः विक्रय वाणिज्यिक उद्देश्य से नहीं करता ऐसी परिस्थिति में वस्तु खरीदने वाला व्यक्ति उपभोक्ता कहलाता है।" उपभोक्ता से सीधा सा अर्थ वस्तु या सेवा के उपभोग से लिया जाना चाहिए। लेख में परिभाषा को छोटा करके सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया गया है अन्यथा अधिनियम में बतायी गई परिभाषा अधिक विस्तृत और विषाद है, परंतु उस परिभाषा का अर्थ यही है। न्यायालय ने समय-समय पर अपने निर्णय के माध्यम से उपभोक्ता की परिभाषा को और अधिक विस्तृत कर दिया है और अब भविष्य तथा वर्तमान के न्याय निर्णय में यह पूर्व में दिए निर्णय दलील बन रहे। कुछ महत्वपूर्ण निर्णय निम्नानुसार हैं उपभोक्ता होने के लिए शर्तें कंज़्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान व अन्य 1991 (सीपीआर) स्टेट कमीशन जयपुर के मामले में यह बताया गया है कि उपभोक्ता के रूप में दावा करने के लिए होने वाली अपेक्षित शर्तें निम्न हैं। 1) उसको सेवा प्रदान की जानी चाहिए। 2) उसके द्वारा सेवा को भाड़े पर लिया जाना चाहिए 3) सेवा के भाड़े के लिए उसे अधिनियम की धारा 2(1) (डी) (2) के अनुसार प्रतिफल का भुगतान करना चाहिए। सतीश कुमार बनाम मैसर्स ऑफ अल्फा ऑटोमोबाइल्स 1992 सी पी जे 202 स्टेट कमीशन हिमाचल प्रदेश के मामले में यह कहा गया है कि माल विक्रय हेतु एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने वाला उपभोक्ता नहीं है। इस मामले में परिवादी ने एक ट्रक खरीदा था जो ट्रक माल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए प्रयोग किया जाना था। न्यायालय ने इस मामले में परिवादी को उपभोक्ता नहीं माना। प्रतिफल पर चिकित्सा परिवादी उपभोक्ता है मैसर्स कॉस्मोपॉलिटन हॉस्पिटल बनाम बसंत नैयर 1992 (1) सी पी जे 302 नेशनल कमीशन के मामले में परिवादी द्वारा प्रतिफल पर चिकित्सा प्राप्त की गयी थी। परिवादी उपभोक्ता की कोटि में आता है उसके द्वारा अस्पताल के विरुद्ध प्रस्तुत परिवाद प्रचलनशील है। एक अन्य मामले में परिवादी बीमार था। परिवादी ने प्राइवेट अस्पताल में प्रतिफल देकर चिकित्सा सेवाएं प्राप्त की थी। अस्पताल को परिवादी ने दस हजार रुपए दिए थे। अस्पताल ने सुझाव दिया था की विशेषज्ञ की सेवाएं प्राप्त करना चाहिए। परिवादी ने प्रतिवादी को विशेषज्ञ की सेवाएं प्राप्त करने के लिए शुल्क भुगतान किया था। अस्पताल में शुल्क संबंधित विशेषज्ञ को दे दिया। इन परिस्थिति में परिवादी की उपभोक्ता परिस्थिति पर विचार किया जाना था। परिवादी अस्पताल व संबंधित विशेषज्ञ दोनों के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत करने की दशा में उपभोक्ता की प्रस्थिति रखने वाला माना गया। वाहन खरीदने हेतु उधार लेने की स्थिति में उधार लेने वाला उपभोक्ता माना गया है सुरेंद्र कुमार अग्रवाल बना टेल्को फाइनेंस लिमिटेड 2006 सी पी जे 68 राज्य आयोग छत्तीसगढ़ इस मामले में तर्क दिया गया था कि परिवादी ने प्रश्नगत वाहन का क्रय कमर्शियल प्रयोजन के लिए किया गया था, इसलिए परिवादी की प्रस्थिति अधिनियम के तहत उपभोक्ता के रूप में नहीं थी। राज्य आयोग द्वारा निर्धारित किया कि हम पाते है कि विवाद प्रश्नगत वाहन क्रय करने में वित्त सेवा प्रदान करने के संबंध में है। परिवादी की प्रस्थिति उपभोक्ता के रूप में मानी गयी। इस संबंध में नेशनल कमीशन के द्वारा निर्णय हरसोलिया मोटर्स विरुद्ध नेशनल इंश्योरेंस कंपनी 2005 एक सी पी जे 27 नेशनल कमीशन पर निर्भरता व्यक्त की गयी। परिवादी के उपभोक्ता नहीं होने संबंधी आपत्ति अमान्य कर दी गयी। निगम उपभोक्ता नहीं है पंजाब लैंड डेवलपमेंट बनाम महेंद्र जीत सिंह 2004 (3) 156 सीपीजे यूनियन टेरिटरी आयोग चंडीगढ़ के मामले में निगम ने परिवाद प्रस्तुत किया था। निगम की प्रस्थिति उपभोक्ता कि नहीं मानी गयी। इसका कारण यह बताया गया है कि प्रश्नगत सेवाएं प्राप्त करने वाला निगम सेवाओं को वाणिज्यिक रूप में उपयोग में लाता है इसलिए उसे उपभोक्ता नहीं माना जा सकता। निशुल्क ऑपरेशन में परिवादी उपभोक्ता नहीं माना गया है सी व्ही मधुसूदन बनाम डायरेक्टर जयदेव इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोलॉजी 1992 (2) सीपीजे 519 स्टेट कमीशन पंजाब के मामले में परिवादी से धान के रूप में राशि वसूल की गई परंतु ऑपरेशन शुल्क पेटे कुछ भी वसूल नहीं किया गया। ऐसी दशा में परिवादी उपभोक्ता की कोटि में नहीं आता है।दान पेटे प्रदत राशि को इस संबंध में सेवा के प्रतिफल के रूप में नहीं माना गया। राव सहिद देवराज बनाम उल्लासनगर नगर पालिका 1993 के एक मामले में परिवादी द्वारा नगर पालिका के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत किया गया। परिवादी यह कह रहा था कि नगरपालिका द्वारा निर्मित शौचालय का उचित रखरखाव नहीं है। राज्य आयोग महाराष्ट्र ने परिवादी की पीड़ा से सहमति व्यक्त की परंतु परिवादी को सहायता प्रदान करने में असमर्थता व्यक्त की क्योंकि परिवादी जो कि कर भुगतान करता था उपभोक्ता नहीं माना गया। संतोष वर्सेस चीफ जनरल मैनेजर टेलीकम्युनिकेशन के मामले में टेलीफोन विभाग में रजिस्ट्रेशन आवेदन को जयपुर से पूना के एक्सचेंज में अंतरित नहीं किया था। यह कृत्य सेवा में कमी माना गया और प्रतिकार ब्याज सहित मंजूर किया गया। पी नागभूषण राव बनाम यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया 1991 सीपीआर 197 स्टेट कमिशन हैदराबाद बैंक का ग्राहक अधिनियम में परिभाषित उपभोक्ता की कोटि में आता है। बैंक द्वारा सेवा में कमी होने के आधार पर ग्राहक द्वारा परिवाद प्रस्तुत की जा सकती है। बैंक परिवादी द्वारा जमा राशि पर मात्र 5% ब्याज का भुगतान करती थी जबकि बैंक द्वारा यह राशि अधिक ब्याज दर पर अन्य उधार देने वालों को प्रदान की जाती थी। इसी दशा में परिवादी द्वारा बैंक से सेवा प्रतिफल पर प्राप्त होना माना गया तथा परिवादी उपभोक्ता को उपभोक्ता की कोटि में रखा गया। सेवा की कमी के आधार पर बैंक के विरुद्ध परिवाद प्रस्तुत किया जा सकता है। चेतन प्रकाश राजपुरोहित बनाम जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट 2006 एक सी पी जे 33 राज्य आयोग राजस्थान के मामले में यह माना गया है कि विद्यार्थी उपभोक्ता की श्रेणी में आते है। अमृतलाल बनाम इंटरनेट ग्रोथ फंड लिमिटेड 1992 (2) सी पी जे 463 स्टेट कमिशन दिल्ली के मामले में चेक अनादर होने पर चेक प्राप्त करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता माना गया है। वाहन बुकिंग के समय अग्रिम राशि देने वाला उपभोक्ता है उपभोक्ता शब्द में क्रेता के अलावा वस्तु का उपयोगकर्ता भी शामिल है- मैसर्स वाणिज्य भंडार बनाम उमेश चरण 1992 (2) सी पी आर 330 स्टेट कमिशन उड़ीसा। इस मामले में उपभोक्ता से आशय वस्तु के क्रेता से है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है की वस्तु का क्रेता ही उपभोक्ता माना जाएगा तथा उस उस वस्तु को उपयोग करने वाला उपभोक्ता नहीं माना जाएगा। प्रकरण में वस्तु क्रय करने वाले के अलावा इसका उपयोगकर्ता भी उपभोक्ता माना जाता है यदि वह उस वस्तु को क्रय करने वाले व्यक्ति के अधिकार से या अनुमोदन से वस्तु का उपयोग करता है। प्रस्तुत प्रकरण में एक व्यक्ति ने सीमेंट खरीदी थी तथा सीमेंट का उपयोग उसके दामाद द्वारा किया गया था। इस प्रकरण में यह माना गया कि सीमेंट खरीदने वाले व्यक्ति का दामाद जिसने उस सीमेंट का उपयोग किया था वह भी उपभोक्ता माना जाएगा। एक अन्य मामले में एक व्यक्ति ने कुछ दवाइयां खरीदी तथा दवाइयां अपनी स्त्री को उपयोग करने हेतु दी वही स्त्री भी उपभोक्ता मानी गयी तथा उसे परिवाद प्रस्तुत करने का अधिकार है। सभी प्रकरण अंत में इस बात पर लौट कर आते है कि वस्तु को क्रय करना या सेवाओं को क्रय करना या उसके बदले कोई प्रतिफल देना उपभोक्ता होने की पहचान है। वस्तु को खरीदने के बाद पुनः विक्रय उसका वाणिज्य उपयोग करने के आशय से नहीं होना चाहिए या फिर बहुत बड़ी मात्रा में वस्तु को बेचने के आशय से नहीं खरीदा जाना चाहिए जिससे ऐसी खरीदी बेची में कोई लाभ कमाने का लक्ष्य रखा गया हो।

Tuesday 24 March 2020

भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की धारा 24: गलत व्याख्याओं की एक शृंखला


भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 की धारा 24: गलत व्याख्याओं की एक शृंखला 

 भूमिका- इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल व अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट एक संविधान पीठ ने छह मार्च, 2020 (आईडीए 2020) को दिए अपने फैसले में एक विवाद को समाप्त करने की कोशिश की थी। यह विवाद भूमि अधिग्रहण के मामलों में उचित मुआवजा, पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 (2013 अधिनियम) की धारा 24 की व्याख्या से पैदा हुआ था। धारा 24 का संबंध निरस्त हो चुके भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 (1894 अधिनियम) के तहत शुरू की गई भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही की वैधता या अभाव से है। सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्ण पीठ धारा 24 की दो भिन्न व्याख्याएं पेश कर चुकी है, जिसके बाद यह मामला 5-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखा गया था। संवैधानिक पीठ ने अपने फैसले में इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम शैलेन्द्र व अन्य मामले के दृष्टिकोण को अपनाया था। यह फैसला आठ फरवरी 2018 (आईडीए 2018) को आया था। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर स्टडी) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार 2014 और 2016 के बीच धारा 24 के तहत सुप्रीम कोर्ट में 270 से अधिक मामले आए थे, जिनमें से एक प्र‌तिशत मामले ही ऐसे थे, जिनमें धारा 24 के तहत‌ भूमि का वैध अधिग्रहण किया गया था। ये आंकड़े धारा 24 के महत्व को दर्शाते हैं। साथ ही इसकी व्याख्या का भूमि अधिग्रहण परिदृश्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा, ये भी दर्शाते हैं। हमारा तर्क है कि विगत 6 वर्षों में धारा 24 को उसके पूरे विचित्र कानूनी इतिहास में गलत तरीके से व्याख्यायित किया गया है और इस संविधान पीठ के फैसले ने पिछली गलतियों को गहरा किया है। हमने 2013 अधिनियम की धारा 24 का विश्लेषण किया है और पुराने भूमि अधिग्रहण कानून के संबंधित प्रावधानों की रोशानी में इसकी शाब्दिक व्याख्या के लिए एक मामला पेशा किया है; 2013 अधिनियम का उद्देश्य; धारा 24 की व्याख्या पर दो परस्पर विरोधी निर्णय; और स्वतंत्रता के बाद से शीर्ष न्यायालय के स्तर पर भूमि अधिग्रहण मुकदमे के डेटा। 2013 अधिनियम की धारा 24 क्या कहती है? धारा 24 में एक से अधिक परिदृश्य की परिकल्पना की गई है, जिसमें 1894 अधिनियम के तहत शुरू की गई कार्यवाही को समाप्त माना जाएगा। सबसे पहले, यह कहता है कि जहां 1894 के अधिनियम की धारा 11 के तहत कोई पार‌ितोषिक नहीं दिया गया था, वहां 2013 के अधिनियम के प्रावधान मुआवजे के रूप में लागू होंगे। इसके बाद यह तब की स्थिति से संबंधित है,जहां 1894 अधिनियम की धारा 11 के तहत पारितोषिक दिया गया था, लेकिन यह पारितोषिक 2013 अधिनियम के आरंभ होने से पांच साल या उससे अधिक पहले दिया गया था। इन स्थितियों में, यदि (i) भूमि का भौतिक कब्जा अभी भी नहीं लिया गया था, या (ii) मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया था, तो 1894 अधिनियम के तहत भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही समाप्त हो जाएगी। धारा 24 की व्याख्या में जो कठिनाई पैदा हुई, वह 'भुगतान' शब्द के संबंध में थी। इसके अर्थ के रूप में दो अलग-अलग व्याख्याएं सामने आईं: (i) 'भुगतान' का अर्थ यह हो सकता है कि यह राशि वास्तव में उन लोगों को भुगतान की गई थी, जिनकी ज़मीन अधिग्रहित की गई थी (लाभार्थी); या (ii) 'भुगतान' का अर्थ यह हो सकता है कि यह राशि राज्य द्वारा उन लाभार्थियों को प्रदान की गई / प्रस्तावित की गई, जिन्होंने इसे प्राप्त करने से इनकार कर दिया और बाद में इसे अदालत या सरकारी खजाने में जमा किया गया। कानून के पठन से यह स्पष्ट नहीं है कि में कानून का अर्थ बिंदु ii की तर्ज पर होना था। वास्तव में धारा की शाब्दिक व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि 'भुगतान' का अर्थ वह है, जिसे हम बोलचाल की भाषा में समझते हैं, वह यह कि यह वास्तव में एक लाभार्थी को किया गया भुगतान था। यह अवलोकन धारा 24 की शर्तों से प्रभावित है। यह शर्त कहती है कि जब कई लाभार्थी हैं, तो वे सभी 2013 के अधिनियम के अनुसार मुआवजे ‌के हकदार होंगे यदि ज्यादातर भूमि मलिककों का उनके खातों में मुआवजा जमा नहीं किया गया है। तथ्य यह है कि कानून ने अलग-अलग उद्देश्यों के लिए एक ही खंड में दो अलग-अलग शब्दों, 'भुगतान' और 'जमा' का उपयोग किया है, स्पष्ट रूप से इसका मतलब है कि शब्द के अर्थ अलग-अलग हैं,। इस निष्कर्ष को नीचे अधिक विस्तार से दिया जाएगा। इस स्थिति की पुष्टि 1894 अधिनियम की धारा 31 के संदर्भ में भी की जाती है। धारा 31 'मुआवजे के भुगतान या अदालत में उसी को जमा' के लिए प्रदान की गई है। यह निर्धारित किया गया कि 1894 अधिनियम की धारा 11 के तहत पार‌ितोषिक देने पर पर, कलेक्टर को लाभार्थियों को भुगतान का प्रस्ताव देना ‌था और उन्हें भुगतान करना था। यह अनिवार्य बाध्यता केवल तब ही समाप्त हो सकती है, जब कलेक्टर को लाभार्थियों के मुआवजे से इनकार करने, भूमि के स्‍वामित्व पर विवाद या मुआवजे के विभाजन के कारण भुगतान को निष्पादित करने से रोका जाए। इन सभी मामलों में कलेक्टर अदालत में मुआवजे को जमा करने के लिए बाध्य थे। इस प्रकार, 1894 के अधिनियम ने भुगतान और जमा के बीच बहुत स्पष्ट अंतर किया गया था। यह देखते हुए कि 2013 अधिनियम की धारा 24 में 1894 अधिनियम का उल्लेख है, यह कहा जा सकता है कि विधानमंडल ने 1894 अधिनियम के तहत अंतर को नोटिस किया था और जब उन्होंने धारा 24 में विभिन्न संदर्भों में दो शब्दों का इस्तेमाल किया, तो उन्होंने 1894 अधिनियम की धारा 31 में दो शब्दों को दिए गए संबंधित अर्थों को आगे बढ़ने की मांग की। यद्यपि शाब्दिक अर्थ स्पष्ट होने पर व्याख्या के अन्य साधनों का सहारा लेने की बहुत कम आवश्यकता होती है, लेकिन यह देखना उचित है कि 2013 अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है। यह उस उथल-पुथल को हल करने के लिए पेश किया गया था, जिससे पुराने कानून के कारण भूमि धारक गुजर रहे थे। इसलिए, 2013 के अधिनियम के इन उद्देश्यों की तर्ज पर एक आम बोलचाल की भाषा में भी व्याख्या होगी। सुप्रीम कोर्ट ने पुणे नगर निगम मामले में क्या किया? पुणे नगर ‌निगम बनाम हरकचंद मिसिरिमल सोलंकी व अन्य के मामले, जिसका फैसला 24.01.2014 को किया गया, लोढ़ा जे के माध्यम से एक पूर्ण पीठ ने 2013 अधिनियम की धारा 24 और 1894 अधिनियम की धारा 31 का विश्लेषण किया। न्यायालय ने धारा 31 में भुगतान और जमा के बीच अंतर की सराहना की, जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है और कहा कि 2013 अधिनियम की धारा 24 को लागू करते हुए, संसद ने निश्चित रूप से धारा 31 के बारे में विचार किया होगा, जिसका अर्थ है कि उनका इरादा 'भुगतान' शब्द को 'प्रस्तावित' या 'निवेद‌ित' शब्‍द के बराबर रखने का नहीं था। यह निर्णय में कई बार इस अंतर को संदर्भित करता है। हालांकि, आश्चर्यजनक रूप से, इसने धारा 24 की शाब्दिक व्याख्या नहीं की और निष्कर्ष निकाला कि धारा 24 के प्रयोजनों के लिए मुआवजे को 'भुगतान' के रूप में माना जाएगा यदि यह उस व्यक्ति को प्रस्तावित किया गया है और अदालत में जमा किया गया है। निष्कर्ष था कि ऐसा नहीं करना धारा 31 के तहत जमा करने प्रक्रिया और तरीके को नजरअंदाज करने के बराबर होगा। हालांकि, कोट इस तर्क का विस्तृत करने में विफल रहा, जहां हमारा मानन है क‌ि न्यायालय ने गलती की। इस प्रकार, पुणे नगर निगम के मामले के अनुसार, यदि मुआवजे का भुगतान अदालत के बजाय सरकारी खजाने में किया गया है तो 'भुगतान' नहीं माना जाएगा , जो वास्तव में उक्त मामले में हुआ था। इंदौर विकास प्राधिकरण में सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया? हमने आईडीए 2020 और आईडीए 2018 की की एक सामन्या आलोचना प्रस्तुत की है क्योंकि संविधान पीठ ने आईडीए 2018 में दिए गए तर्क को आगे बढ़ाया है। आईडीए 2018 में, मिश्रा जे के माध्यम से एक पूर्ण पीठ ने पुणे नगर निगम के फैसले से असहमति व्यक्ति की थी। आईडीए 2018 की सबसे खास बात यह थी कि इसने 'भुगतान' शब्द के शाब्दिक/बोलचाल के अर्थ को नहीं माना। इसके बजाय, यह कहा कि 'भुगतान' शब्द का अर्थ 'किसी लाभार्थी के खाते में जमा' नहीं हो सकता, क्योंकि 'जमा' शब्द का उपयोग केवल धारा 24 की शर्त में किया गया था, मुख्य धारा में नहीं। इस तथ्य पर भी जोर दिया गया कि शर्त का परिणाम यह नहीं था कि कार्यवाही समाप्त हो जाएगी- केवल यह था कि 2013 के अधिनियम के अनुसार क्षतिपूर्ति का भुगतान करना होगा। हालांकि, वह फैसला यह ध्यान देने में विफल रहा कि शर्त में परिणाम अलग था क्योंकि वह ऐसे परिदृश्य से संबंध‌ित था, जहां कई भूमि धारक थे। ऐसे परिदृश्य में भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया की समाप्त‌ि और दोबारा शुरु करना, एक प्रशासनिक दुःस्वप्न साबित हो सकता है। किसी भी मामले में, तब यह निरीक्षण (बिना किसी तर्क के) किया गया कि धारा 24 (2) की शर्त में 'जमा' शब्द का उल्लेख 'अदालत में जमा' के लिए नहीं किया गया, बल्कि भूमि अधिग्रहण अधिकारी या ट्र‌िजरी के पास जमा राशि के लिए‌ किया गया था। विशेष रूप से, यह वह नहीं है, जो शर्त का पाठ कहता है। हालांकि, न्यायालय ने यह कहते हुए इस संदर्भ में भरोसा किया कि इस कारण से, धारा 24 (2) में दिया गया 'भुगतान' शब्द भी 'अदालत में जमा' का संदर्भ नहीं दे सकता है। इस आलेख के लेखकों को यह समझ नहीं आता कि ऐसी समझ कैसे बनाई जा सकती है। फिर भी, इस तर्क के आधार पर कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची कि 'भुगतान' शब्द का अर्थ 'निविदा' था। अगर निवे‌दित रा‌श‌ि को अस्वीकार भी कर दिया गया हो तो भी भुगतान की जिम्मेवारी पूरी हो गई थी। इस प्रकार, धारा 24 (2) में 'भुगतान' शब्द का अर्थ 'निविदा' था। यद्यपि न्यायालय 1894 के अधिनियम की धारा 31 में अपने निष्कर्ष का आधार चाहता है, यह अपरिहार्य है कि न्यायालय उस धारा की योजना को प्रभावी ढंग से लागू करता है। यह 'भुगतान' का ऐसा अर्थ निकालता है, जो धारा 31 में कहीं मौजूद नहीं है। आईडीए 2020 में, कोर्ट आईडीए 2018 में दिए अपने तर्क से एक कदम आगे बढ़ा है। अदालत ने 'भुगतान' शब्द की व्याख्या की, लेकिन कहा कि इसे कलेक्टर के खिलाफ रखना अनुचित होगा कि भूस्वामी ने भुगतान स्वीकार करने से इनकार कर दिया या उसे भुगतान करने से रोका गया था। 1894 के अधिनियम की धारा 31 न्यायालय को ज्ञात थी। तब भी, अदालत ने यह नहीं माना कि कलेक्टर इस पैसे को अदालत में जमा कर सकते थे, भले ही भूमि मालिक ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया हो। हालांकि व्याख्या प्रावधान के पाठ के के अनुरूप नहीं हो सकती थी, लेकिन यह निश्चित रूप से पुणे नगर निगम के बाद निर्धारित स्थिति को आगे बढ़ाती और हालात को दुरुस्त रखती। अदालत इस तथ्य पर जोर देती दिख रही है कि न तो 1894 अधिनियम और न ही 2013 अधिनियम में कोई प्रावधान है जो कार्यवाही की समाप्‍ति का आधार हो। इसलिए, यह कहा कि धारा 24 भी ऐसा नहीं करती। यह तर्क, हमारे विचार में, पूरी तरह से कमजोर है। सिर्फ इसलिए कि दोनों कानूनों में किसी अन्य प्रावधान ने ऐसे उपाय पर विचार नहीं किया, इसका मतलब यह नहीं है कि धारा 24 भी नहीं कर सकती है। न्यायालय ने इस तर्क पर भी अपना फैसला सुनाया कि, यदि किसी भूस्वामी ने प्रदत्त मुआवजे को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है, तो वह स्वयं की गलती का लाभ नहीं उठा सकता। हालांकि, यह तर्क इस तथ्य की सराहना करने में विफल रहता है कि 2013 अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है और धारा 24 (2) केवल उन परिदृश्यों से संबंधित है जहां 2013 अधिनियम के बनने से पांच साल या उससे अधिक पहले मुआवजे दिया गया हो। इसलिए, यह केवल उन मामलों में लागू होता है जहां 1 जनवरी, 2009 से पहले पारितोषिक दिया गया था। भूमि मालिकों ने मुआवजे से इनकार नहीं किया क्योंकि उन्हें कार्यवाही की समाप्‍ति की उम्मीद थी। अनुचित मुआवजे इंकार का एक प्रमुख कारण रहे। सीपीआर की स्टडी के अनुसार ऐसे मामले जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक आना पड़ा, उनमें मुकदमेबाजों को अपने मुआवजे का हिस्सा पाने में औसतन 20 साल का समय लगा। 195 से 2016 के बीच 445 मामलों में से, 392 (लगभग 88 प्रतिशत) मामलों में मुआवजे में वृद्धि हुई। 10 प्रतिशत मामलों में मुआवजे में कोई बदलाव नहीं हुआ। मात्र 7 मामले ऐसे थे, जिनमें मुआवजे में मामूली कमी की गई। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने जो मुआवे तय किए वो कलेक्टर की ओर से दिए गए मुआवजों से लगभग 6 गुना ज्यादा थे। स्वाभाविक रूप से, सुप्रीम कोर्ट के आंकड़ें हालात की संकेत भर देते हैं, हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट में लंबित ऐसे मामलों की संख्या बहुत ज्यादा हो सकती है। यह मानना ​​उचित है कि 2013 अधिनियम जैसे कल्याणकारी कानून को लागू करते समय संसद ऐसे हालात से वाकिफ रही होगी। धारा 24 (2) समाज के उस हिस्से की सहायत के लिए बनी है, जो 1 जनवरी, 2009 के बाद से लगातार अदालतों के चक्कर लगा रहा है, वह भी केवल उचित मुआवजा पाने के लिए। सीपीआर की एक स्टडी के मुताबिक, 2013 अधिनियम की धारा 24 के तहत 83 फीसदी मामले ऐसे हैं, जहां किसी को भी मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया। और उनमें से 11 फीसदी ऐसे मामले हैं, जहां न तो मुआवजे का भुगतान किया गया था और न ही भूमि पर भौतिक कब्जा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ऐसे 95 फीसदी मामलों में अधिग्रहण की कार्यवाही को अमान्य करार दे चुका है और 3.5 फीसदी निचली अदालतों को भेज चुका है। निष्कर्ष संविधान पीठ के निर्णय का सर्वाधिक प्रत्यक्ष निहितार्थ यह हो सकता है कि जिनकी भूमि 1 जनवरी, 2009 से पहले अधिग्रहित की गई थी, अब ऐसे भूमि धारक उचित मुआवजे के लिए दोबारा मुकदमा लड़ सकत हैं। ध्रुव गांधी बॉम्बे हाईकोर्ट में अधिवक्ता हैं। उन्होंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बीसीएल और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया, बैंगलोर से बीए, एलएलबी. (ऑनर्स) किया है। शुभम जैन लंदन स्थित अधिवक्ता हैं। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से एलएलएम और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बैंगलोर से बीए, एलएलबी (ऑनर्स) किया है।

Saturday 21 March 2020

चुने हुए प्रतिनिधि को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि किसी विशेष कर्मचारी की नियुक्ति कहांं की जाए : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

चुने हुए प्रतिनिधि को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि किसी विशेष कर्मचारी की नियुक्ति कहांं की जाए : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट


हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि चुना हुआ प्रतिनिधि यह तय करने का अधिकार नहीं रखता कि किसी विशेष कर्मचारी की नियुक्ति किस जगह पर होगी और इसका फैसला प्रशासनिक प्रमुख कर सकता है, कोई विधायक नहीं।
मामला यह है कि किसी अधिकारी की नियुक्ति कहाँ होगी यह मंत्री तय करता है और प्रशासनिक विभाग के लिए इसमें किसी तरह की भूमिका नहीं छोड़ी जाती है।
खंडपीठ ने कहा,
"…यह देखा गया है कि संबंधित मंत्री ने न केवल पाँच लोगों के ट्रांसफ़र की इच्छा जतायी और इस बारे में सुझाव दिया बल्कि यह भी बताया कि उन्हें कहाँ नियुक्ति देनी है…।"
अदालत ने कहा,
"मुख्यमंत्री और मंत्री/चुने हुए प्रतिनिधि किसी कर्मचारी के ट्रांसफ़र का सुझाव दे सकते हैं पर ट्रांसफ़र का आदेश अंततः प्रशासनिक प्रमुख ही अपनी संतुष्टि के अनुरूप लेगा और वह सुझाव से प्रभावित हुए बिना…", । अदालत ने आगे कहा, "इस मामले में प्रशासनिक प्रमुख ने स्वतंत्र निर्णय नहीं लिए और इस उद्देश्य कि लिए किसी तरह का अवसर छोड़ा नहीं गया था और इसलिए यह निर्णय संबंधित मंत्री के सुझावों से प्रभावित था।"
अदालत ने कहा कि विधानसभा के सदस्य या संबंधित मंत्री को सुझाव देने का अधिकार है पर इन सुझावों को अंतिम नहीं माना जा सकता। सिद्धांततः ट्रांसफ़र जनहित में प्रशासनिक ज़रूरतों के हिसाब से होता है जो कि इस मामले में पूरी तरह अनुपस्थित है…।

Friday 20 March 2020

छात्रों को अपनी खुद की उत्तर पुस्तिका के निरीक्षण का अधिकार - RTI-सीआईसी


छात्रों को अपनी खुद की उत्तर पुस्तिका के निरीक्षण का अधिकार - RTI-सीआईसी

 केंद्रीय सूचना आयोग यानि सीआईसी ने पिछले दिनों माना है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत एक परीक्षार्थी को अपनी उत्तर पुस्तिका की जांच या निरीक्षण करने का अधिकार है। सीआईसी इस मामले में यूजीसी में कार्यरत एक सीनियर रिसर्च फैलो की तरफ से दायर अर्जी पर सुनवाई कर रहा था। इस मामले में एक आरटीआई की अर्जी सीपीआईओ,नेशनल इंस्ट्टियूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (एनआईएमएचएएनएस) के खिलाफ दायर की गई थी। इस मामले में अर्जी दायर करने वाले ने अपनी उत्तर पुस्तिका के संबंध में सात तथ्यों पर जानकारी मांगी थी। यह उत्तर पुस्तिका उसकी एम.फिल पीएसडब्ल्यू के पार्ट-एक की वार्षिक व पूरक परीक्षा की थी। उसने यह परीक्षा वर्ष 2017 में दी थी। इस आरटीआई के जवाब में सीपीआईओ ने उसे एक पत्र के जरिए सभी तथ्यों का जवाब दे दिया। परंतु अर्जी दायर करने वाला इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने एफएए से जानकारी मांगी,जिन्होंने उसे कुछ अतिरिक्त जानकारी उपलब्ध करा दी। एफएए के आदेश का पालन करते हुए प्रार्थी ने सीआईसी के समक्ष अर्जी दायर कर दी। मामले की सुनवाई के दौरान प्रार्थी ने दलील दी कि उसे पूरी सूचना उपलब्ध नहीं कराई गई ओर जो उत्तर पुस्तिका उसने मांगी थी,उसे गलत तरीके से उपलब्ध कराने से इंकार कर दिया गया। इसके लिए हवाला दिया गया कि एनआईएनएचएएनएस में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है,जिसके तहत पीजी के छात्र को वह उत्तर पुस्तिका उपलब्ध कराई जाए,जिसका मूल्याकंन या जांच हो चुकी हो। इसके अलावा प्रार्थी ने और भी कई मुद्दे उठाए,जिनमें संस्थान द्वारा परिणाम देने में देरी करने व पादर्शिता,पीएचडी कोर्स की मैरिट लिस्ट प्रकाशित न करा आदि शामिल है। प्रतिवादी के वकील ने दलील दी कि आरटीआई एक्ट की धारा 6 के तहत प्रार्थी वह सूचना ले सकता है जो सार्वजनिक अॅथारिटी के तहत उपलब्ध है। इस मामले में एनआईएनएचएएनएस के वर्तमान सिस्टम के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि पीजी के किसी छात्र को वह उत्तर पुस्तिका उपलब्ध कराई जाए,जिसका मूल्यांकन या जांच हो चुकी हो। चूंकि सार्वजनिक अॅथारिटी की पहुंच इस तरह के परिणाम तक नहीं है। इसलिए प्रार्थी को परिणाम उपलब्ध नहीं कराया गया। सीआईसी ने कहा कि एक छात्र की उसकी उत्तर पुस्तिका तक पहुंच के मामले में कानून पहले से ही तय हो चुका है। सीआईसी ने सीबीएसई एंड अन्य बनाम अदित्य बंदोपाध्याय एडं अदर्स एसएलपी (सी)नंबर 7526/2009 केस का हवाला दिया,इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि हर परीक्षार्थी को अपनी मूल्यांकित हो चुकी उत्तर पुस्तिका की जांच या निरीक्षण करने या उसकी फोटोकाॅपी लेने का अधिकार है,बशर्ते इसको आरटीआई एक्ट 2005 की धारा 8 (1)(ई) के तहत छूट न दी गई हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि जब कोई उम्मीदवार परीक्षा में भाग लेता है और अपना जवाब उत्तर पुस्तिका में लिखता है और उसे मूल्यांकन के लिए देता है,जिसके बाद परिणाम घोषित होता है। यह उत्तर पुस्तिका एक कागजात या रिकार्ड है। उत्तर पुस्तिका में जो ''विचार'' समाया होता है,वह आरटीआई के तहत सूचना बन जाता है। मूल्यांकित उत्तर पुस्तिका को आरटीआई एक्ट की धारा 8 से छूट होगी और परीक्षार्थी तक इसकी पहुंच होगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को देखते हुए पाया गया कि प्रार्थी ने अपनी उत्तर पुस्तिका तक अपनी पहुंच संस्थान के नियमों के तहत नहीं बल्कि आरटीआई एक्ट के तहत मांगी है। इसलिए वह यह सूचना पाने का हकदार है। आरटीआई एक्ट की धारा 22 के तहत इसके प्रावधान किसी अन्य कानून से उपर है। ऐसे में संस्थान के नियम या कानून से उपर आरटीआई के प्रावधान है। सीआईसी ने यह भी कहा कि अगर प्रार्थी छात्र को उसकी जांच का अधिकार नहीं दिया गया तो इससे उसके जीवन और आजीविका का अधिकार प्रभावित होगा। ''सीआईसी ने यह भी महसूस किया जो मामला उनके समक्ष लाया गया है,उसमें व्यापक जनहित शामिल है,जो उन सभी छात्रों के भविष्य को प्रभावित करेगा जो अपनी उत्तर पुस्तिका या उनके द्वारा प्राप्त किए गए अंकों के संबंध में जानकारी लेना चाहते है। जो उनके भविष्य के कैरियर की संभावनाओं पर असर डालेंगा और उससे उनके जीवन व आजीविका का अधिकार प्रभावित होगा। इसलिए आरटीआई एक्ट 2005 के तहत छात्रों को उनकी खुद की उत्तर पुस्तिका का निरीक्षण या जांच करने की अनुमति दी जा रही है।'' इस मामले में सीआईसी ने कई अन्य फैसलों का भी हवाला दिया और कहा कि सार्वजनिक अॅथारिटी का हर काम सार्वजनिक हित में होना चाहिए,जिससे देश की सामाजिक-आर्थिक कर्मशक्ति प्रभावित होती है। प्रार्थी द्वारा उठाए गए अन्य मुद्दों के संबंध में सीआईसी ने कहा कि यह सभी मामले उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर के है। उनका क्षेत्र सिर्फ यह देखना है कि मांगी गई सूचना उपलब्ध कराई गई है या नहीं या किस आधार पर सूचना देने से मना किया गया है। इसलिए अन्य मामले उनके अधिकारक्षेत्र में नहीं आते है। सीआईसी ने आदेश दिया है कि प्रतिवादी इस मामले में परीक्षार्थी को उसकी मूल्यांकित उत्तर पुस्तिका की काॅपी उपलब्ध करा दे। साथ ही कहा है कि प्रतिवादी समय-समय पर कांफ्रेंस आदि का आयोजन करवाए ताकि संबंधित अधिकारियों को कानून की जानकारी उपलब्ध कराई जा सके या सूचित किया जा सके। ताकि वह अपना उत्तरदायित्व ठीक से पूरा कर पाए। इसी के साथ अर्जी का निपटारा कर दिया गया। 

दहेज मृत्यु से संबंधित अपराध और प्रमुख केस


दहेज मृत्यु से संबंधित अपराध और प्रमुख केस 

 भारतीय समाज के लिए दहेज एक अभिशाप है। दहेज ने स्त्रियों के जीवन को दूभर कर दिया है। दहेज की प्रथा के खिलाफ संपूर्ण भारतवर्ष में समय-समय पर आंदोलन होते रहे हैं। नवाचार की क्रांति के माध्यम से दहेज का उन्मूलन करने तथा समाज से दहेज के समूल को नष्ट करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। दहेज की मांग, दहेज संबंधित कई अपराधों को जन्म देती है। भारतीय संसद ने भी समय-समय पर दहेज के खिलाफ विधि विधान का निर्माण किया है तथा समाज में दहेज समर्थक विचारों का अंत करने का प्रयास किया है। आवश्यक रूप से दहेज दिए जाने की प्रथा को नष्ट करने के अपने सारे प्रयास किए हैं। घरेलू हिंसा अधिनियम, दहेज प्रतिषेध अधिनियम इत्यादि अधिनियम बनाकर भारत की संसद में दहेज जैसे अभिशाप से महिलाओं के संरक्षण के संपूर्ण प्रयास किए हैं। दहेज मृत्यु दहेज संबंधी अपराधों में दहेज मृत्यु सबसे जघन्य अपराध है। दहेज मृत्यु दहेज की मांग के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है। भारतीय समाज के लिए यह एक विकराल समस्या है। इस विकराल समस्या से निपटने हेतु भारतीय दंड संहिता के अधीन संपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी दहेज मृत्यु से संबंधित है। आगे इस लेख के माध्यम से दहेज मृत्यु के अपराध के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां दी जा रही है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के अनुसार दहेज मृत्यु की परिभाषा 'जहां किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के 7 वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा उसकी मौत हो जाती है और यह दर्शाया जाता है कि उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने दहेज की किसी मांग के लिए उसके संबंध में उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था, वहां ऐसी मृत्यु को दहेज मृत्यु कहा जाएगा और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जाएगा।' इस धारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह धारा हत्या नहीं अपितु मृत्यु के संबंध में उल्लेख कर रही है। यह धारा किसी ऐसी स्त्री को संरक्षण प्रदान कर रही है, जिसकी मृत्यु विवाह के दिनांक से 7 वर्ष की अवधि के भीतर किसी शारीरिक दाह या क्षति के कारण हो जाती है। दहेज की मांग के परिणाम स्वरूप ऐसी स्त्रियां सूली चढ़ा दी जाती हैं, जो दहेज लोभी को दहेज दे पाने में असमर्थ होती हैं। कई स्त्रियां बीमारियों से घिरकर मर जाती हैं या फिर आत्मदाह कर लेती हैं। स्त्रियों के संबंध में इस तरह की घटना घटती ही रहती हैं। इस धारा के माध्यम से ऐसे ही परिणामों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया गया है। दहेज मृत्यु के लिए आवश्यक बातें धारा 304 बी के अंतर्गत दहेज मृत्यु के अपराध के गठन के लिए मुख्य रूप से दो बातें आवश्यक होती हैं। 1 दहेज की मांग का किया जाना 2 इसी मांग को लेकर स्त्री की मृत्यु से ठीक पूर्व उसे यातना दिये जाना किसी भी अभियुक्त के संदर्भ में जब यह दोनों बातें साबित हो जाती हैं तो दहेज मृत्यु के अपराध के लिए दोष सिद्ध मान लिया जाता है। इन दोनों बातों के साबित होने के आधार पर ही दहेज मृत्यु जैसे जघन्य अपराध के अंतर्गत अभियुक्त को दंडित किया जाता है। यदि किसी मामले में दहेज की मांग के बारे में कोई साक्ष्य नहीं है तो भी उसको धारा 304 बी के अंतर्गत घोषित नहीं किया जा सकता। यह बात स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम महेश चंद्र पांडे ए आई आर 2000 एस सी 3631 के मामले में कही गयी है। बकसीसराम बनाम स्टेट ऑफ पंजाब एआईआर 2013 एस सी 1484 के मामले में दहेज मृत्यु के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न तथ्य आवश्यक माने हैं। 1अप्राकृतिक मृत्यु का साक्ष्य 2 मृत्यु से ठीक पूर्व दहेज की मांग को लेकर परेशान किए जाने का साक्ष्य कश्मीर कौर बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब एआईआर 2013 एसी 1039 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दहेज मृत्यु के निर्माण की आवश्यक बातें बताई गई हैं। 1 दहेज की मांग को लेकर मृत्यु से ठीक पूर्व मृतका को परेशान किया जाना। 2 मृतका की मृत्यु जलने से या किसी शारीरिक क्षति से अप्राकृतिक परिस्थितियों में होना। 3 ऐसी मृत्यु विवाह के 7 वर्ष के भीतर होना। 4 मृतका को कष्ट उसके साथ क्रूरता का व्यवहार अथवा परेशान स्वयं उसके पति या पत्नी के नातेदार और द्वारा किया जाना। 5 यह सब कुछ दहेज की मांग को लेकर किया जाना। 6 मृत्यु से ठीक पूर्व यातना दिया जाना अथवा परेशान किया जाना। एक बार फिर याद दिलाया जा रहा है, हत्या के विषय में चर्चा नहीं हो रही है, अपितु यहां पर दहेज मृत्यु के विषय में चर्चा हो रही है। ऐसी मृत्यु जो ऊपर वर्णित निम्न परिस्थितियों में होती है तो ही 304 बी का अपराध घटित होगा। जहां तक मृत्यु से ठीक पूर्व का प्रश्न है, क्रूरता का आचरण मृत्यु के बीच सीधा संबंध होना तथा दोनों के बीच में अधिक अंतराल नहीं होना है। क्रूरता और मृत्यु के बीच में इतना युक्तियुक्त अंतराल होना चाहिए कि यह माना जा सके की मृत्यु क्रूरता के परिणाम स्वरूप ही हुई है। भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा यही मत मुस्तफा शहादल शेख़ बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में दिया गया है। पवन कुमार बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा एआईआर 1995 एससी 774 के मामले में माना गया कि दहेज मृत्यु के अपराध के गठन के लिए दहेज की मांग किए जाने के विषय में किसी करार का होना आवश्यक नहीं है। दहेज का अर्थ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के अंतर्गत दहेज की परिभाषा नहीं दी गई है परंतु भारतीय दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 में जो दहेज की परिभाषा दी गई है वही दहेज इस धारा के अंतर्गत मानी जाएगी। यह बात स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश बनाम राजगोपाल आसावा ए आई आर 2004 एस सी 1933 के मामले में कही गई है। मृत्यु से पूर्व दहेज मृत्यु से पूर्व घटने वाली घटनाओं पर चिंतन के बाद ही इस तरह के अपराध पर चिंतन किया जा सकता है। एम श्रीनिवासुलू बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह भी निर्धारित किया गया है कि किसी मामले को धारा 304 बी की परिधि में मानने के लिए दहेज की मांग मृत्यु के बीच संबंध होना आवश्यक था। मृत्यु दहेज़ की मांग के परिणामस्वरूप होना अपेक्षित है। घटना के कुछ दिनों पूर्व पत्नी को यातना देना भी धारा 304 बी की परिधि में आता है। श्रीमती शांति और अन्य बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा एआईआर 1991 एससी 1226 के मामले में यह अभिनिर्धारित हुआ है कि अभियुक्तगण का मृतक के पिता तथा भाई से दहेज की मांग करना तथा पत्नी के साथ निर्दयता पूर्वक व्यवहार करना, मृतक का विवाह के 7 साल के भीतर मर जाना, मृतक के माता-पिता को सूचना दिए बिना जल्दीबाजी में मृतक का दाह संस्कार कर देना, यह सब अप्राकृतिक मृत्यु के संकेत हैं। धारा 304 बी के अंतर्गत अपराध का गठन करते हैं। स्टेट ऑफ कर्नाटक बनाम एमवी मंजूनाथ का मामला। इस मामले में पत्नी की विवाह की 6 माह के भीतर मृत्यु हो गई थी। मृत्यु से पूर्व उसे दहेज के लिए तंग किया गया था। मृतक के भाई की गवाही से यह बात की पुष्टि होती थी, इसे दहेज हत्या माना गया। रामबदन शर्मा बनाम बिहार राज्य इस विषय पर एक अच्छा उदाहरण है। मामला यह है कि अभियुक्त द्वारा मृतका से निरंतर दहेज की मांग की जाती रही। दहेज को लेकर मृतक को परेशान किया जाता रहा। उसके साथ आमानवीय व्यवहार भी किया जाता रहा। समय-समय पर उसे पीटा जाता रहा। अंत में उसे विष दिया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। पवन कुमार बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा का मामला। इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि दहेज मृत्यु के मामले में दहेज के लिए करार का होना आवश्यक नहीं है। मृतक और उसके पिता से निरंतर टीवी और स्कूटर की मांग करते रहना दहेज़ की परिधि में आता है। दहेज की मांग के संबंध में कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। ऐसी परिस्थिति में मामला खारिज भी किया जा सकता है। धीरज कुमारी बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में धारा 304 बी के अंतर्गत की गई दोष सिद्धि को इसलिए नहीं माना गया क्योंकि मृत्यु से ठीक पूर्व दहेज की मांग को लेकर मृतका को यातना देने अथवा परेशान करने वाले साक्ष्य का अभाव था। ध्यान देने योग्य है की दहेज की मांग का साक्ष्य इस मामले में अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम निक्कूराम एआईआर 1995 एससी 67 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारा 304 बी के आवश्यक तत्व पर प्रकाश डाला है। उसमें एक मृतक रोशनी के पति राम उसकी माता वतथा बहन कमला देवी पर रोशनी की मृत्यु दहेज मृत्यु का आरोप था। यह कहा गया कि दहेज की मांग को लेकर रोशनी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। उसे दरांती से चोट पहुंचाई गई। अनंत रोशनी ने विषपान कर मृत्यु कारित कर ली। उच्चतम न्यायालय ने धारा 304 बी की परिधि में आने वाला अपराध नहीं माना क्योंकि ना तो रोशनी के शरीर पर से चोट पाई गई जो मृत्यु पारित करने वाली हो और ना ही दहेज के कारण निर्दयता पूर्वक व्यवहार करने की कोई साक्ष्य थी। सरोजिनी बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश एक महत्वपूर्ण मामला है।उसमें मृतक का शव उसके सुसराल के मकान के स्टोर रूम में पूर्ण रूप से जली हुई अवस्था में पाया गया। उसकी जीभ और आंखें बाहर निकल आयी थी और मुंह से खून रिस रहा था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मेडिकल रिपोर्ट तथा अन्य प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने हत्या का मामला माना न कि आत्महत्या का। इसी प्रकार हरबंस लाल बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में पति और सास ने बहू को एक 9 माह के शिशु के साथ इसलिए जलाकर मार डाला के दहेज में पर्याप्त संपत्ति ना मिलने से व्यथित थे। उच्चतम न्यायालय ने उसे भी हत्या का मामला माना। के प्रेमा एस राव बनाम माई श्रीनिवास राव के मामले में यह कहा गया कि जहां पिता द्वारा अपनी पुत्री को विवाह के समय कुछ भूमि दी गई हो वहां अभियुक्त द्वारा पत्नी से भूमि को अपने नाम अंतरित कराने के लिए कहा जाना दहेज की मांग नहीं है। ऐसे मामलों में भी न्याय 304 बी के अंतर्गत नहीं किया जा सकता। धारा 304 बी के अंतर्गत दंड धारा 304 बी के अंतर्गत न्यूनतम 7 वर्ष का कारावास और आजीवन कारावास तक का प्रावधान रखा गया है। इसके साथ जुर्माने की व्यवस्था रखी गई है। यह संज्ञेय अपराध है और गैर जमानती अपराध है, जिसे सत्र न्यायालय द्वारा विचारण किया जाता है।

आत्म सुरक्षा के लिए लाइसेंसी बंदूकों का इस्तेमाल जश्न में फायरिंग के लिए नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

आत्म सुरक्षा के लिए लाइसेंसी बंदूकों का इस्तेमाल जश्न में फायरिंग के लिए नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट


 सुप्रीम कोर्ट ने जश्न के दौरान फायरिंग की बढ़ती घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए इस तरह की फायरिंग में दो व्यक्तियों की मौत के जिम्मेदार व्यक्ति को 10 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की खंडपीठ ने कहा : "जश्न के दौरान गोलीबारी की घटनाएं अफसोसजनक रूप से बढ़ रही हैं, क्योंकि इसे प्रतिष्ठा के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। आत्म सुरक्षा या फसलों एवं मवेशियों की सुरक्षा के लिए लाइसेंस प्राप्त बंदूक का इस्तेमाल जश्न के दौरान फायरिंग के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह घातक दुर्घटनाओं का संभावित कारण बनता है। आग्नेयास्त्रों के इस तरह के दुरुपयोग से खुशी का माहौल पल भर में गम के अंधियारों में तब्दील हो जाता है।" ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने भगवान सिंह को हत्या का दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनायी थी। इस फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत के समक्ष अपील में दलील दी गयी थी कि यह जश्न के दौरान हुई गोलीबारी का मामला था, जिसके कारण दुर्भाग्यवश दो व्यक्तियों की गैर-इरादतन मौत हो गयी थी और तीन अन्य घायल हुए थे। यह भी दलील दी गयी थी कि 'सदोष हत्या' (कल्पेबल होमिसाइड) का मामला नहीं है, क्योंकि अभियुक्त ने छत की तरफ बंदूक का रुख करके गोली चलायी गयी थी और उसे इस बात का इल्म नहीं था कि ऐसा करने से किसी की मौत भी हो सकती है। बेंच ने आंशिक तौर पर उसकी अपील स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के उस निष्कर्ष से असहमति जतायी, जिसमें कहा गया था कि छत की ओर बंदूक की नली करके की गई फायरिंग उतनी ही खराब थी, जितनी लोगों की भीड़ की ओर करके की गयी फायरिंग, क्योंकि अभियुक्त को पता होना चाहिए था कि ऐसा करते वक्त मौत की या इतने गम्भीर रूप से घायल होने की आशंका थी, जिसके कारण मौत भी हो सकती थी। बेंच ने कहा : "यह मिसफायरिंग (गलती से गोली चल जाने) की दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। निश्चित रूप से अपीलकर्ता इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि उसने भीड़भाड़ वाली जगह में लोडेड (गोली भरी) बंदूक ले रखी थी, जहां उसके अपने ही मेहमान शादी समारोह में शामिल होने के लिए एकत्र हुए थे। उसने हवा में या आसमान की ओर बंदूक करके गोली चलाने जैसा कोई उपाय भी नहीं किया था, बल्कि उसने पूर्ण जोखिम उठाते हुए बंदूक की नली छत की ओर करके गोली चला दी थी। उससे यह जानकारी होने की अपेक्षा की जाती थी कि एक भी गोली चलाने पर आसपास के व्यक्तियों को कई छर्रे लग सकते थे, जिससे वे घायल हो सकते हैं। इस प्रकार अपीलकर्ता उस कृत्य का दोषी है, जिसके परिणामस्वरूप आसपास के लोगों के घातक रूप से घायल होने की आशंका थी। इसलिए अपीलकर्ता द्वारा किया गया अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 299 के दायरे में 'सदोष हत्या'की श्रेणी में आयेगा, लेकिन यह धारा 304(2) के तहत दंडनीय होगा।" इसलिए बेंच ने अभियुक्त को धारा 304(2) के तहत दोषी ठहराते हुए 10 साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी। 

Sunday 15 March 2020

हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण कानून- वैध तरीके से गोद लेने के लिए पत्नी की मंजूरी और दत्तक समारोह आवश्यक : सुप्रीम कोर्ट

(हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण कानून) वैध तरीके से गोद लेने के लिए पत्नी की मंजूरी और दत्तक समारोह आवश्यक : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण कानून के तहत वैध तरीके से गोद लेने के लिए दत्तक लेने वाले पुरुष की पत्नी की मंजूरी जरूरी होती है, साथ ही दत्तक लेने-देने संबंधी समारोह भी अनिवार्य होता है। बंटवारे के एक मुकदमे में, वादी की दलील थी कि बचाव पक्षों ने उसे गोद लिया था। ट्रायल कोर्ट ने वादी की याचिका इस आधार पर खारिज कर दी थी कि वह दत्तक समारोह साबित करने में असफल रही है। हाईकोर्ट ने भी अपील खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव एवं न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने अपील यह कहते हुए खारिज कर दी कि वादी ने अपनी गवाही में यह बात स्वीकार की है कि उसे गोद लेने और देने संबंधी समारोह का प्रमाण उसके पास नहीं है। साथ ही, याचिका में संबंधित कानून के प्रावधानों के अनुरूप दत्तक लेन-देन का भी जिक्र नहीं किया गया है। बेंच ने यह भी कहा कि 'मां' ने अपनी गवाही के दौरान स्पष्ट तौर पर कहा था कि वादी को कभी दत्तक पुत्री नहीं बनाया गया था, बल्कि उसे उसने और उसके पत्नी ने केवल लालन-पालन किया था। बेंच ले हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण कानून 1956 के प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा, " उपरोक्त प्रावधानों को सामान्य तौर पर पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि किसी दत्तक लेन-देन की प्रक्रिया को तभी वैध माना जायेगा, जब 1956 के इस अधिनियम के चैप्टर-एक की उपरोक्त शर्तों पर अमल किया गया हो। 1956 के संबंधित कानून की धारा-7 एवं 11 में जिन दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है, पहली बात- कोई हिन्दू पुरुष किसी बच्चे को दत्तक लेता है तो उसकी पत्नी से मंजूरी जरूरी है और दूसरी बात- दत्तक लेन-देन के समारोह का प्रमाण अनिवार्य है।" 1956 के इस कानून में यह व्यवस्था की गयी है कि दत्तक लेने की प्रक्रिया तब तक वैध नहीं होगी, जब तक कि इस कानून के चैप्टर-एक में उल्लेखित दो शर्तों पर अमल न किया गया हो। ये दोनों शर्त हैं, पहली- कोई हिन्दू पुरुष किसी बच्चे को दत्तक लेता है तो उसकी पत्नी से मंजूरी जरूरी है दूसरी- दत्तक लेन-देन के समारोह का प्रमाण अनिवार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने ही 'घीसालाल बनाम धापूबाई (मृत) कानूनी प्रतिनिधि के जरिये एवं अन्य' के मामले में व्यवस्था दी है कि दत्तक को साबित करने के लिए पत्नी की मंजूरी अनिवार्य है। कोर्ट के समक्ष 'एल. देवी प्रसाद (मृत) (कानूनी प्रतिनिधियों के जरिये) बनाम श्रीमती त्रिवेणी देवी एवं अन्य' मामले पर भरोसा जताते हुए दलील दी गयी थी थी कि दत्तक को साबित करने के लिए बाद की घटनाओं पर भी विचार किया जा सकता है। बेंच ने इन दलीलों को यह कहते हुए खारिज दिया :- हालांकि तथ्य समान हैं, लेकिन हम इस मुकदमे में 'एल. देवी प्रसाद (मृत) मामले' में तय कानून का इस्तेमाल करने में अक्षम हैं। 'एल देवी प्रसाद मामला' गोद लेने की प्रक्रिया से संबंधित है, जो 1892 में हुई थी और हम उस दत्तक प्रक्रिया पर विचार कर रहे हैं जो 1956 के कानून के बाद हुई थी। हालांकि अपीलकर्ता ने यह प्रदर्शित करने के लिए साक्ष्य पेश किये हैं कि स्वर्गीय नरसिम्हुलु नायडू एवं प्रतिवादी ने पुत्री की तरह लालन-पालन किया था, लेकिन वह दत्तक लेन-देन की प्रक्रिया को साबित करने में असफल रही हैं। केस का नाम: एम. वनजा बनाम एम. सरला देवी केस नं. सिविल अपील संख्या 8814/2020 कोरम : न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव एवं न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता वकील : एडवोकेट केदारनाथ त्रिपाठी एवं टी. वी. रत्नम

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/consent-of-wife-actual-ceremony-of-adoption-essential-for-valid-adoption-153612

Thursday 12 March 2020

बिना मेरिट पर ध्यान दिए तकनीकी आधार पर किये गये अतार्किक फैसले बाध्यकारी दृष्टांत नहीं : सुप्रीम कोर्ट


बिना मेरिट पर ध्यान दिए तकनीकी आधार पर किये गये अतार्किक फैसले बाध्यकारी दृष्टांत नहीं : सुप्रीम कोर्ट 

बिना तार्किक कारणों वाला कोई फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान नहीं कहा जा सकता, भले ही यह मुकदमे के निपटारे के लिए पक्षकारों पर बाध्यकारी क्यों न हो?” सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अर्जी दायर करने में विलंब या न दायर करने के आधार पर मामले को खारिज किया जाना बाध्यकारी दृष्टांत नहीं है। न्यायमूर्ति आर भानुमति, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने विभिन्न हाईकोर्ट के उन निर्णयों के खिलाफ भारत सरकार की अपील पर विचार करते हुए यह टिप्पणी की, जिनमें उच्च न्यायालयों ने 'भारत सरकार एवं अन्य बनाम राज पाल' मामले के फैसले पर भरोसा जताते हुए पदोन्नति के अगले सोपान पर ग्रेड पे में बढोतरी संबंधी केंद्रीय प्रशासकीय न्यायाधिकरण (कैट) की विभिन्न पीठों द्वारा दिये गये फैसलों को बरकरार रखा था। कोर्ट के विचारणीय मुद्दों में से एक था कि : "जब फाइलिंग में देरी या (राजपाल के मामले की तरह) रि-फाइलिंग के आधार पर विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) खारिज की गयी हो, तो क्या इसे किसी केस के गुण-दोष के निर्धारण के लिए "भारतीय संविधान के अनुच्छेद 141 के दायरे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून" के तौर पर बाध्यकारी दृष्टांत के रूप में लिया जायेगा? भारतीय संविधान का अनुच्छेद 141 कहता है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान भारत की सभी अदालतों पर बाध्यकारी होगा अर्थात् संबंधित बिंदु पर दी गयी व्यवस्था भारत की सभी अदालतों में बाध्यकारी दृष्टांत के तौर पर लागू होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी व्यवस्था को अनिवार्य तौर पर न्यायालय द्वारा निर्धारित सिद्धांत के तौर पर समझा जाना चाहिए और यही वह सिद्धांत है जिसमें दृष्टांत का असर है। 'सिद्धांत'शब्द खुद से ही एक कर्तव्यनिदृष्ट प्रस्ताव है जिसे मामले की गुण-दोष के आधार पर समीक्षा किये जाने के बाद ही दिया जा सकता है। यह कभी भी संक्षिप्त तरीके से नहीं हो सकता, बल्कि मेरिट में गये बिना तकनीकी आधार पर दिये गये फैसलों में बहुत कम प्रदर्शित किया जाता है। बिना तार्किक कारणों वाला कोई फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित विधान नहीं कहा जा सकता, भले ही यह मुकदमे के निपटारे के लिए पक्षकारों पर बाध्यकारी क्यों न हो? बेंच ने इस मामले में 'सुप्रीम कोर्ट इम्प्लॉयज वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत सरकार एवं अन्य (1989) 4 एससीसी 187' और 'भारत सरकार बनाम ऑल इंडिया सर्विस पेंशनर्स एसोएिशन एवं अन्य (1988) 2 एससीसी 580' का हवाला भी दिया। केस का नाम : भारत सरकार बनाम एम वी मोहनन नायर केस नं. : सिविल अपील नं. 2016/2020 कोरम : न्यायमूर्ति आर भानुमति, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय

अनुकम्पा पर नियुक्ति के लिए विवाहित महिलाओं के नाम पर विचार न करने की सरकार की नीति असंवैधानिक : मप्र हाईकोर्ट फुल बैंच

*अनुकम्पा पर नियुक्ति के लिए विवाहित महिलाओं के नाम पर विचार न करने की सरकार की नीति असंवैधानिक : मप्र हाईकोर्ट फुल बैंच* 

 *“बेटे के नाम पर विचार करते वक्त उसके विवाहित होने को लेकर कोई शर्त नहीं रखी गयी है, जबकि पुत्री के मामले में ‘अविवाहित’ विशेषण/शर्त जोड़ा गया है। यह शर्त बगैर किसी औचित्य के है और इसलिए प्रकृति में यह मनमाना एवं भेदभावपूर्ण है।”* 
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट फुल बैंच ने दिनांक 2 मार्च 2020 को व्यवस्था दी है कि अनुकम्पा के आधार पर नियुक्ति के लिए शादीशुदा पुत्री के नाम पर विचार न करने की सरकार की नीति संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल, न्यायमूर्ति जे. पी. गुप्ता और न्यायमूर्ति नंदिता दुबे की पीठ ने कहा कि विवाहित महिलाओं को अनुकम्पा पर नियुक्ति के अधिकार से वंचित करने वाली इस तरह की नीति समानता के अधिकार का हनन है। कोर्ट उस संदर्भ (रेफरेंस) का जवाब दे रहा था जिसमें यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या अनुकम्पा के आधार पर नियुक्ति के मामले में राज्य सरकार द्वारा तैयार की गयी नीति के उपबंध 2.2 और 2.4 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 25 और 51(ए)(ई) का उल्लंघन कहा जा सकता है, जिसमें आश्रितों की निश्चित श्रेणी निर्धारित की गयी है, जिसके तहत अविवाहित, विधवा और तलाकशुदा पुत्री को शामिल किया गया है। यदि सरकारी नौकर के पास केवल विवाहित पुत्री है और वह पूरी तरह से पिता पर आश्रित थी, ऐसी स्थिति में विवाहित पुत्री को अपने मृतक पिता के अन्य आश्रितों की जिम्मेदारी वहन करने को लेकर अंडरटेकिंग देना होगा। बेंच ने कहा है कि लिंग के आधार पर भेदभाव के सभी प्रकार मौलिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का उल्लंघन हैं और सरकार को महिलाओं के साथ भेदभाव को समाप्त करने के लिए कानून/नीति को संशोधित करने तथा महिला-विरोधी मौजूदा कानूनों, नियमों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं को समाप्त करने के वास्ते उचित उपाय करने चाहिए। बेंच ने कहा :- यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संबंधित उपबंध 2.2 एक हद तह विवाहित महिला को अनुकम्पा के आधार पर नियुक्ति के लिए विचारित किये जाने से वंचित करता है, यह समानता के अधिकार का हनन करता है और इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। उपबंध 2.4 लाकर सरकार ने आंशिक तौर पर विवाहित बेटी के नाम पर विचार के अधिकार को मान्यता तो दी है, लेकिन यह अधिकार ऐसी बेटियों तक ही सीमित था, जिसका कोई भाई नहीं था। जैसा कि देखा गया है कि उपबंध 2.2 मृतक सरकारी नौकर की पत्नी/पति को पुत्र या अविवाहित बेटी को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी के लिए नामित करने का विकल्प देता है। इसमें बेटे के नाम पर विचार करते वक्त उसके विवाहित होने को लेकर कोई जिक्र नहीं किया गया है, जबकि पुत्री के मामले में 'अविवाहित' विशेषण/शर्त जोड़ा गया है। यह शर्त बगैर किसी औचित्य के है और इसलिए प्रकृति में यह मनमाना एवं भेदभावपूर्ण है। 

*केस का नाम* : मीनाक्षी दुबे बनाम मध्य प्रदेश पूर्वा क्षेत्र विद्युत वितरण निगम लिमिटेड,  केस नं. – डब्ल्यू ए. नं. 756/2019 निर्णय दिनांक 2 मार्च 2020
*कोरम फुल बैंच* : न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल, न्यायमूर्ति जे पी गुप्ता और न्यायमूर्ति नंदिता दुबे 
*वकील* : एडवोकेट अनुभव जैन, अंकित अग्रवाल, एडवोकेट जनरल शशांक शेखर

Monday 9 March 2020

एक समान तथ्यों पर दायर दूसरी शिकायत सुनवाई योग्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट

एक समान तथ्यों पर दायर दूसरी शिकायत सुनवाई योग्य नहीं, 2 मार्च 2020: सुप्रीम कोर्ट 


 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि किसी शिकायत का पहले निपटारा योग्यता के आधार पर और कानून के तहत निर्धारित तरीके से हो चुका हो तो लगभग उन्हीं तथ्यों के समान तथ्यों के आधार पर दायर दूसरी शिकायत (जो तथ्य पहली शिकायत में उठाए गए थे) सुनवाई योग्य नहीं होगी। जस्टिस यू.यू ललित और जस्टिस विनीत सरन की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि पहली शिकायत के समान तथ्यों पर दायर दूसरी शिकायत सुनवाई योग्य नहीं हो सकती। पीठ ने कहा कि यदि दोनों शिकायतों का मूल एक ही था तो दूसरी शिकायत पर सुनवाई नहीं की जानी चाहिए। मामले की पृष्ठभूमि अपीलकर्ता के ससुर के पास मारुति 800 कार थी और 12 दिसंबर, 2001 को उनका निधन हो गया। ससुर की मौत के बाद परिवार में विधवा सास, उनके तीन बेटे और एक बेटी रह गए। अपीलकर्ता के पति के भाई (शिकायतकर्ता) ने अपीलकर्ता और उसके पति के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 409, 420, 467, 468 और 471 के तहत शिकायत दर्ज कराते हुए आरोप लगाया कि उनके पिता के जाली हस्ताक्षर शपथ पत्र पर इस्तेमाल किए गए और मारुति 800 कार को बेच दिया गया था। 05 जुलाई 2013 को जब यह शिकायत न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी, जबलपुर के सामने सुनवाई के लिए आई तो कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया और कहा कि अपीलकर्ता और उसके पति के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बनता है। शिकायतकर्ता ने VIII अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, जबलपुर के समक्ष पुनःविचार अर्जी दायर की। हालांकि, बाद में उन्होंने कहा कि वह पुनर्विचार अर्जी वापस लेना चाहते हैं, इसलिए उनको कुछ नए तथ्यों के आधार पर एक नई शिकायत दायर करने की स्वतंत्रता देते हुए रिवीजन को वापस लेने की अनुमति दी जाए। कोर्ट ने कहा कि ऐसा करने के लिए कोई अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि नए तथ्यों के आधार पर किसी भी समय एक नई शिकायत दर्ज की जा सकती है। इसके बाद शिकायतकर्ता ने उन्हीं आरोपों के आधार पर शिकायत दर्ज की, लेकिन अपनी शिकायत को पुष्ट करने के लिए अतिरिक्त सामग्री प्रस्तुत की और कहा कि आईपीसी की धारा 201, 409, 420, 467, 468 और 471 के तहत संज्ञान लिया जाए। न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, जबलपुर ने आईपीसी की धारा 420 के तहत दंडनीय अपराध के संबंध में संज्ञान लिया, लेकिन इस शिकायत को अन्य अपराधों के संबंध में खारिज कर दिया। इस आदेश को शिकायतकर्ता ने आपराधिक पुनर्विचार के तहत चुनौती दी थी, जिसे स्वीकार कर लिया गया था। साथ ही मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया गया था कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध दस्तावेजों पर पुनर्विचार करें और उचित अपराधों के संबंध में संज्ञान लेने के बाद उचित आदेश पारित करें। अपीलकर्ताओं ने इस आदेश को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी। उस आदेश के सदंर्भ में प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने शिकायत में लगाए गए सभी कथित अपराधों पर संज्ञान लिया और अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप तय किए गए। इसके बाद, अपीलकर्ताओं ने हाईकोर्ट के समक्ष आरोप तय करने के आदेश को भी चुनौती दे दी थी। हाईकोर्ट ने कहा हाईकोर्ट ने दोनों रिवीजन पर सुनवाई की और दूसरी शिकायत को बनाए रखने के सवाल पर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और रिवीज़न याचिकाओं को खारिज कर दिया। साथ ही अपीलकर्ताओं को निर्देश दिया कि दो सप्ताह के भीतर न्यायालय की रजिस्ट्री में 45000 रुपये ( केवल पैंतालीस हजार रुपये) की राशि जमा कराएं। लेकिन इस तरह के सुझाव शिकायतकर्ता को स्वीकार्य नहीं थे और इसलिए हाईकोर्ट ने इस मामले की विस्तार से सुनवाई की। बाद में हाईकोर्ट ने रिवीज़न याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि दूसरी शिकायत को बनाए रखा जा सकता है। इससे दुखी होकर अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील को अनुमति देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहली शिकायत के समान तथ्यों पर दर्ज की गई दूसरी शिकायत सुनवाई योग्य नहीं है। प्रमथा नाथ तालुकदार बनाम सरोज रंजन सरकार मामले में दिए फैसले पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा कि, ''वर्तमान मामले में दायर पहली शिकायत में कोई कानूनी दुर्बलता नहीं थी। वाहन की बिक्री के लगभग एक साल बाद शिकायत दर्ज की गई थी इसका मतलब यह था कि शिकायतकर्ता के पास उसके निपटान के बाद उचित समय था। न्यायिक मजिस्ट्रेट ने पाया कि कोई भी प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, जिसके बाद पहली शिकायत को खारिज कर दिया गया था, इसलिए पहली शिकायत को किसी तकनीकी आधार पर नहीं निपटाया गया था। दूसरी शिकायत में बताए गए तथ्य या सामग्री केवल सहायक सामग्री की प्रकृति के थे और दूसरी शिकायत में जिन तथ्यों पर विश्वास किया गया है वे ऐसे नहीं थे जो पहले नहीं बताए जा सकते थे या एकत्रित नहीं किए जा सकते थे। प्रासंगिक रूप से, दोनों शिकायतों में मुख्य आरोप समान थे।'' वहीं, न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि अपीलकर्ताओं द्वारा जमा की गई राशि उनको वापस लौटा दी जाए। अगर उस राशि पर कोई ब्याज बनता है तो वह भी अपीलकर्ताओं को दिया जाए। वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत कामत, साथ में वकील अमित पई और राजेश इनामदार अपीलकर्ता के लिए उपस्थित हुए। वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा प्रतिवादियों के लिए पेश हुई।

न्यायिक दृष्टिकोण स्वयं न्यायिक अधिकारी की ईमानदारी और अखंडता पर संदेह करने के लिए आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट

राहत उन्मुख न्यायिक दृष्टिकोण स्वयं न्यायिक अधिकारी की ईमानदारी और अखंडता पर संदेह करने के लिए आधार नहीं, 6 मार्च 2020 : सुप्रीम कोर्ट  


 सुप्रीम कोर्ट ने एक न्यायिक अधिकारी की बर्खास्तगी को रद्द करते हुए कहा कि किसी न्यायिक अधिकारी की ईमानदारी और अखंडता पर संदेह करने के लिए राहत उन्मुख न्यायिक दृष्टिकोण स्वयं आधार नहीं हो सकता। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे , जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि सिर्फ संदेह 'कदाचार' का गठन नहीं कर सकता है और कदाचार की किसी भी 'संभावना' को मौखिक या दस्तावेजी सामग्री के साथ समर्थन करने की आवश्यकता है, हालांकि प्रमाण के मानक स्पष्ट रूप से किसी आपराधिक मामले के समान नहीं होंगे। अपीलकर्ता को एक अनुशासनात्मक जांच के बाद बर्खास्त कर दिया गया था जिसमें पाया गया कि उसने भूमि अधिग्रहण के दो मामलों में दावेदारों को एक अतिरिक्त राशि दी। उच्च न्यायालय ने बर्खास्तगी के आदेश के खिलाफ चुनौती को खारिज कर दिया। राहत उन्मुख न्यायिक दृष्टिकोण अपील में, अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता की ओर से वास्तव में प्राप्त किए गए या किसी भी प्रकार के असहनीय आचरण का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। पीठ ने कहा : हम इस तथ्य से भी बेखबर नहीं हैं कि मात्र संदेह 'कदाचार' नहीं बन सकता। कदाचार की किसी भी 'संभावना' को मौखिक या दस्तावेजी सामग्री के साथ समर्थन करने की आवश्यकता होती है, भले ही सबूत के मानक स्पष्ट रूप से एक आपराधिक परीक्षण के समान नहीं होंगे। इन मानकों को लागू करते समय, उच्च न्यायालय के विभिन्न न्यायाधीशों के बीच अलग-अलग मानकों और दृष्टिकोणों के अस्तित्व पर विचार करने की उम्मीद की जाती है। न्यायिक अधिकारियों के ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो जमानत देने में उदार हैं, MACT के तहत मुआवजा देने या अधिग्रहित भूमि के लिए, काम करने वालों को पुराना भत्ता या देनदारियों के अन्य मामलों में अनिवार्य मुआवजा देते हैं। इस तरह के राहत उन्मुख न्यायिक दृष्टिकोण किसी अधिकारी की ईमानदारी और अखंडता को संदेह को डालने के लिए आधार नहीं बन सकते। सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ईमानदार और सीधे न्यायिक अधिकारियों को एकतरफा हमले के अधीन ना किया जाए। पीठ ने आगे कहा कि यह उच्च न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे अपनी सुरक्षात्मक छतरी का विस्तार करें और यह सुनिश्चित करें कि ईमानदार और सीधे न्यायिक अधिकारी एकतरफा हमले के अधीन नहीं हैं। यह जोड़ा गया: इसके अलावा, कोई भी हमारे देश की वास्तविकता को नजरअंदाज नहीं कर सकता है, जिसमें अनगिनत शिकायतकर्ता न्यायपालिका की छवि को धूमिल करने के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के उपलब्ध हैं, अक्सर महज छोटी या सस्ती क्षणभंगुर लोकप्रियता के लिए। कभी-कभी बार के कुछ असंतुष्ट सदस्य भी उनसे हाथ मिला लेते हैं, और अधीनस्थ न्यायपालिका के अधिकारी आमतौर पर सबसे आसान लक्ष्य होते हैं। इसलिए, उच्च न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे अपनी सुरक्षात्मक छतरी का विस्तार करें और यह सुनिश्चित करें कि ईमानदार और सीधे न्यायिक अधिकारी एकतरफा हमले के अधीन नहीं हों। हालांकि, उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से सहमत था कि स्थगन का अंतिम परिणाम कोई मायने नहीं रखता है, और केवल इस बात पर कि क्या अधिकारी ने अवैध संतुष्टि (मौद्रिक या अन्यथा) ले ली थी या प्रक्रिया का संचालन करते समय किसी अन्य विचार द्वारा बहकाया गया था । वास्तव में, कई बार यह संभव है कि एक न्यायिक अधिकारी एक आदेश देने के साथ-साथ उसी समय अपने कार्यालय के गलत संचालन में लिप्त हो सकता है, जिसका परिणाम कानूनी रूप से मजबूत हो। इस तरह का असहयोगी आचरण या तो एक न्यायाधीश के रूप में हो सकता है, जो मामले को तुरंत ले सकता है, स्थगन के माध्यम से सुनवाई में देरी कर सकता है, पक्षकारों को उनके कानूनी बकाया आदि देने के लिए रिश्वत की मांग कर सकता है। बर्खास्तगी को रद्द करते हुए, पीठ ने कहा: अपीलकर्ता की ओर से वास्तव में प्राप्त होने वाले किसी भी बहिष्कृत विचार का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इसके बजाय, 'दुर्व्यवहार' की खोज का आधार ही अंतिम परिणाम है, जो उच्च न्यायालय के अनुसार इतना चौंकाने वाला था कि इसने अपीलकर्ता की ईमानदारी और अखंडता के रूप में एक स्वाभाविक संदेह को जन्म दिया। यद्यपि यह एक शून्य में सही हो सकता है, हालांकि, यह देखते हुए कि कैसे अंतिम परिणाम खुद बेहतर अदालतों से अछूता रहा है और दो मामलों में से एक में, केवल मुआवजा बढ़ा है, इस तरह का कोई विरोध नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, अपीलकर्ता के खिलाफ पूरा मामला ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने वकील शिरीन खजूरिया की सहायता से केस में निशुल्क पैरवी की।

कंज़्यूमर फोरम के पास प्रतिवादी के जवाब दाखिल करने की अवधि 45 दिनों से अधिक बढ़ाने का अधिकार नहीं : सुप्रीम कोर्ट

कंज़्यूमर फोरम के पास प्रतिवादी के जवाब दाखिल करने की अवधि 45 दिनों से अधिक बढ़ाने का अधिकार नहीं : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि उपभोक्ता मामले में प्रतिवादी (opposite party) के जवाब दाखिल करने की समय अवधि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत निर्धारित 45 दिनों की अवधि से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती। न्यायालय ने कहा कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 ने उपभोक्ता फोरम को 45 दिनों की अवधि से आगे का समय बढ़ाने का अधिकार नहीं दिया है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 13 के तहत निर्धारित समय अवधि अनिवार्य है, और निर्देशिका नहीं, पीठ के लिए न्यायमूर्ति विनीत सरन द्वारा लिखित निर्णय अभिनिर्धारित किया गया।

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आपराधिक मामला दायर करने और उसके बाद बरी होने को स्वत: ही तलाक देने का आधार नहीं माना जा सकता, यदि तलाक की याचिका में इस तरह का आधार न दिया गया हो : सुप्रीम कोर्ट

आपराधिक मामला दायर करने और उसके बाद बरी होने को स्वत: ही तलाक देने का आधार नहीं माना जा सकता, यदि तलाक की याचिका में इस तरह का आधार न दिया गया हो, 3 मार्च 2020 : सुप्रीम कोर्ट 


 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि विवाह के लिए एक पक्ष द्वारा कोई आपराधिक मामला दायर करने और उसके बाद बरी होने को स्वत: ही तलाक देने के लिए आधार के रूप में नहीं माना जा सकता यदि तलाक की याचिका में इस तरह का आधार नहीं उठाया गया है। न्यायमूर्ति आर बानुमति , न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार किया, जिसमें (दूसरी अपील की अनुमति देते हुए) एक व्यक्ति को इस आधार पर तलाक दे दिया कि उसके खिलाफ पत्नी द्वारा दायर की गई शिकायत का परिणाम बरी होने के तहत हुआ है, भले ही ऐसा कोई आधार तलाक की याचिका का आधार नहीं था। न्यायालय ने कहा कि तलाक की याचिका में पत्नी के बारे में केवल ये आरोप लगाया गया था कि वह रिश्तेदारों और दोस्तों की उपस्थिति में गंदी भाषा का उपयोग कर रही थी और पति के छात्रों की उपस्थिति में भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रही थी। कोर्ट ने कहा: "जिस तारीख को पति के लिए विवाह को समाप्त करने की कार्यवाही शुरू करने का कारण उत्पन्न हुआ था, उस दिन उसके खिलाफ दायर आपराधिक मामले में वो आधार नहीं था और इस तरह की आपराधिक शिकायत को मानसिक क्रूरता आधार बनाते हुए दर्ज किया गया था।" यदि वह स्थिति है, एक ऐसी स्थिति जो विवाह को भंग करने के लिए याचिका शुरू करने का आधार नहीं थी और जब वह भी ट्रायल कोर्ट के समक्ष कोई मुद्दा नहीं था, ताकि साक्ष्य और निर्णय लिया जा सके, तो उच्च न्यायालय कानून के एक महत्वपूर्ण सवाल के रूप में ही उठाने और उस संबंध में अपने निष्कर्ष पर पहुंचने में उचित नहीं था।" उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से असहमत, पीठ ने कहा: "तात्कालिक मामले में जिस तरह के आधार पर कानून के पर्याप्त सवालों को मंजूरी दे दी जाती है तो इससे ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी कि हर मामले में अगर एक पक्ष द्वारा विवाह और बरी किए जाने पर आपराधिक मामला दायर किया जाता है, इसमें तलाक को मंजूरी देने के लिए इस निर्णय को एक आधार के रूप में माना जाएगा जो वैधानिक प्रावधान के खिलाफ होगा।" यह संदेह नहीं किया जा सकता है कि एक उपयुक्त मामले में दहेज की मांग या इस तरह के अन्य आरोपों का निराधार आरोप लगाया जाता है और पति और उसके परिवार के सदस्यों को आपराधिक मुकदमेबाजी से अवगत कराया जाता है और अंततः अगर यह पाया जाता है कि ऐसा आरोप अनुचित और बिना आधार के है यदि पत्नी का यह कृत्य स्वयं पति के लिए यह आधार बनाता है कि उस पर मानसिक क्रूरता का आरोप लगाया गया है, तो निश्चित रूप से, ऐसी परिस्थिति में यदि विवाह को समाप्त करने की याचिका उस आधार पर दायर की जाती है और मूल अदालत के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत किए जाते हैं, मानसिक क्रूरता के आरोप के इस आधार पर विवाह को भंग करने के उद्देश्य से इसकी सराहना की जा सकती है। हालांकि, वर्तमान तथ्यों में जैसा कि पहले ही संकेत दिया गया है, स्थिति ऐसी नहीं है। हालांकि पत्नी और पति द्वारा एक आपराधिक शिकायत दर्ज की गई थी, लेकिन उक्त कार्यवाही में पति को बरी कर दिया गया है, जिसके आधार पर पति ने ट्रायल कोर्ट से संपर्क किया था, उस संबंध में वो मानसिक क्रूरता का आरोप नहीं लगा रहा है, लेकिन उसके साथ घिनौने व्यवहार के संबंध में सबूतों की सराहना करने के लिए निचली अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि यह साबित नहीं हुआ था। पीठ ने अनुच्छेद 142 की शक्तियों को लागू करने से इनकार कर दिया ताकि इस प्रकार विवाह को भंग किया जा सके: "ऐसे मामले में जहां पक्षकारों के बीच मतभेद इतने अधिक नहीं हैं और यह वैवाहिक जीवन के सामान्य आचरण की प्रकृति में है, बच्चे के भविष्य और उसकी वैवाहिक संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए और ऐसी परिस्थिति में विवाह भंग करना, केवल इसलिए कि वे मुकदमेबाजी कर रहे हैं और वे काफी समय से अलग-अलग रह रहे हैं, वर्तमान तथ्यों में उचित नहीं होगा, विशेष रूप से जब वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर भी एक साथ विचार किया गया था। "


डीआरएटी प्री-डिपोजिट पर जोर दिये बिना SARFAESI एक्ट की धारा 18 के तहत अपील की सुनवाई नहीं कर सकता : सुप्रीम कोर्ट

डीआरएटी प्री-डिपोजिट पर जोर दिये बिना SARFAESI एक्ट की धारा 18 के तहत अपील की सुनवाई नहीं कर सकता, 2 मार्च 20
 : सुप्रीम कोर्ट 


“डीआएटी कारणों को रिकॉर्ड पर लाने के बाद डिपोजिट राशि को अधिक से अधिक 25 प्रतिशत तक कम कर सकता है, लेकिन राशि पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता।” सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऋण वसूली अपीलीय न्यायाधिकरण (डीआरएटी) प्री-डिपोजिट पर जोर दिये बिना सिक्यूरिटाईजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एन्फोर्समेंट ऑफ़ सिक्यूरिटी इंटरेस्ट (SARFAESI) अधिनियम की धारा 18 के तहत एक अपील की सुनवाई नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को निरस्त कर दिया जिसमें उसने कहा था कि डीआरएटी द्वारा अपील की सुनवाई के लिए प्री-डिपोजिट की आवश्यकता नहीं है। बेंच ने 'नारायण चंद्र घोष बनाम यूको बैंक एवं अन्य' के मामले का उल्लेख करते हुए कहा : "धारा की भाषा को ध्यान में रखते हुए, ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) द्वारा भले ही राशि या ऋण का निर्धारण नहीं किया गया हो, लेकिन डीआरएटी द्वारा प्री-डिपोजिट पर जोर दिये बिना अपील की सुनवाई नहीं की जा सकती। डीआरएटी कारणों को दर्ज करने के बाद राशि 25 फीसदी तक कम कर सकता है, लेकिन डिपोजिट को पूरी तरह माफ नहीं कर सकता। इस कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि धारा 18(एक) के तहत अपील का अधिकार दूसरे प्रावधान में निर्धारित शर्तों पर निर्भर करता है, जिसमें कहा गया है कि ऋणी व्यक्ति जब तक रक्षित ऋणदाता के दावे के अनुसार बकाये ऋण या डीआरटी द्वारा निर्धारित ऋण राशि (दोनों में से जो भी कम हो) का 50 फीसदी जमा नहीं कर देता तब तक उसकी अपील नहीं सुनी जायेगी। तीसरा प्रावधान डीआरएटी को यह अधिकार देता है कि वह कारण दर्ज करने के बाद प्री-डिपोजिट राशि को 25 फीसदी तक कम कर सकता है।" बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि एक गारंटर या ऋण पुनर्भुगतान को सुरक्षित करने के लिए अपनी सम्पत्ति रेहन (बंधक) रखने वाला व्यक्ति भी ऋणी के रूप में एक ही पायदान पर खड़ा है और यदि वह अपील दायर करना चाहता है तो उसे भी सरफेसी कानून की धारा 18 की शर्तोँ का पालन करना होगा। केस नाम : यूनियन बैँक ऑफ इंडिया बनाम रजत इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड केस नं. सिविल अपील नं. 1902/2020 कोरम : न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस वकील : एडवोकेट ओ. पी. गग्गर और सीनियर एडवोकेट विक्रम चौधरी


Saturday 7 March 2020

अदालत डीएनए टेस्ट से पितृत्व का निर्धारण करने के लिए सामान्य रूप से आदेश नहीं दे सकती : एमपी हाईकोर्ट

अदालत डीएनए टेस्ट से पितृत्व का निर्धारण करने के लिए सामान्य रूप से आदेश नहीं दे सकती : एमपी हाईकोर्ट 


मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि अदालतें डीएनए परीक्षण के माध्यम से पितृत्व के निर्धारण के लिए सामान्य रूप से आदेश नहीं दे सकतीं, क्योंकि किसी को चिकित्सीय परीक्षण के लिए बाध्य करना उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन है। यह आदेश भबानी प्रसाद जेना बनाम संयोजक सचिव, उड़ीसा राज्य महिला आयोग व अन्य, (2010) 8 एससीसी 633 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को देखते हुए दिया गया है, जिसके तहत एक डिवीजन बेंच ने माना था कि- " हमारे विचार में जब किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार कि वह स्वयं को मेडिकल परीक्षण के लिए प्रस्तुत न करे और सच्चाई तक पहुंचने के लिए अदालत के कर्तव्य के बीच स्पष्ट टकराव होता है तो पक्षकारों के हितों को संतुलित करने और इस बात पर विचार करने के बाद ही कि क्या इस मामले में निर्णय के लिए डीएनए परीक्षण की आवश्यकता है, अदालत को अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए। " एक बच्चे के पितृत्व से संबंधित एक मामले में जब भी डीएनए परीक्षण का अनुरोध किया जाए तो कोर्ट को इस टेस्ट का निर्देश नियमित रूप नहीं देना चाहिए। अदालत को इसके लिए विविध पहलुओं पर विचार करना चाहिए, जिसमें, साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत आने वाले अनुमान , इस तरह के आदेश के फायदे और नुकसान और परीक्षण की ''सख्त जरूरत'' कि क्या अदालत के लिए इस तरह के परीक्षण के उपयोग के बिना सच्चाई तक पहुंचना संभव नहीं है,आदि शामिल हैं।'' वर्तमान मामले में न्यायमूर्ति जी.एस अहलूवालिया एडीशनल कलेक्टर, जिला विदिशा के आदेश के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे, जिसमें याचिकाकर्ता के उस आवेदन पत्र को खारिज कर दिया था, जिसमें उसने पितृत्व को निर्धारित करने के लिए प्रतिवादी नंबर 2 का डीएनए परीक्षण कराने की मांग की थी। रघुवर (मृतक) की पत्नी और बेटे के रूप में खुद को प्रस्तुत करते हुए प्रतिवादी नंबर 1 और 2 ने रघुवर की संपत्ति में उनके नाम उत्तराधिकारी के तौर पर शामिल करने के लिए एक आवेदन दायर किया था। याचिकाकर्ता, मृतक के भतीजे ने उस आवेदन पर अपनी आपत्ति दर्ज की और कहा कि प्रतिवादी नंबर 2 स्वर्गीय रघुवर का पुत्र नहीं था, इसलिए प्रतिवादी को अपने नाम उत्तराधिकारी के तौर पर शामिल करवाने का कोई अधिकार नहीं था। मामले के इन्हीं तथ्यों को देखते हुए याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि प्रतिवादी नंबर 2 के पितृत्व को डीएनए टेस्ट के माध्यम से स्थापित किया जाए। याचिकाकर्ता के अनुरोध को खारिज करते हुए अदालत ने कहा है कि जब तक बहुत जरूरी कारणों को नहीं दिखाया जाता है तब तक वह डीएनए परीक्षण का आदेश देने की इच्छुक नहीं हैं। कोर्ट ने दोहराया कि ''ऐसे मामले में जहां एक बच्चे का पितृत्व अदालत के सामने आता है, वहां डीएनए परीक्षण का उपयोग एक अत्यंत नाजुक और संवेदनशील पहलू है। एक दृष्टिकोण यह है कि जब आधुनिक विज्ञान एक बच्चे के पितृत्व का पता लगाने का साधन देता है, तो जब भी आवश्यकता हो इन साधनों का उपयोग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। अन्य दृष्टिकोण यह है कि अदालत को ऐसी वैज्ञानिक प्रगति और साधनों के उपयोग में अनिच्छुक होना चाहिए जिनके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार पर हमला हो सकता है और यह न केवल पक्षकारों के अधिकारों के लिए पूर्वाग्रहपूर्ण हो सकता है, बल्कि बच्चे पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकता है। कभी-कभी इस तरह के वैज्ञानिक परीक्षण का परिणाम एक निर्दोष बच्चे के जन्म को अवैध बना सकता हैै, भले ही उसकी मां और उसका जीवनसाथी गर्भाधान के समय साथ रहे हों।'' अदालत ने एक वसीयत के जरिए संपत्ति पर याचिकाकर्ता के दावे को भी खारिज कर दिया है और माना है कि- ''इस न्यायालय का विचार है कि उत्परिवर्तन या दाखिलखारिज की कार्यवाही के लिए,प्रतिवादी नंबर 2 को डीएनए परीक्षण से गुजरने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है। इसके अलावा, याचिकाकर्ता वसीयत के आधार पर अपने नाम का म्यूटेशन या दाखिलखारिज करवाना चाहता है और वसीयत की वास्तविकता का निर्धारण करने का काम राजस्व अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र से परे है। यदि याचिकाकर्ता का यह विचार है कि स्वर्गीय रघुवर द्वारा उसके पक्ष में एक वसीयत निष्पादित की गई थी या बनाई गई थी, तो उसे उचित रूप से गठित सिविल सूट दाखिल करके अपना शीर्षक या दावा स्थापित करना होगा। " मामले का विवरण- केस का शीर्षक- अजय सिंह बनाम श्रीमती रमा बाई व अन्य। केस नंबर- एमपी नंबर 1239/2020 कोरम- न्यायमूर्ति जी.एस अहलूवालिया

Thursday 5 March 2020

किसी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के कानूनी प्रावधान का कड़ाई से पालन होना चाहिएः सुप्रीम कोर्ट


किसी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के कानूनी प्रावधान का कड़ाई से पालन होना चाहिएः सुप्रीम कोर्ट 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के किसी भी कानूनी प्रावधान का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। पीठ ने भूमि अधिग्रहण मामले में दायर अपील की अनुमति देते हुए पाया था कि राज्य यह स्थापित करने में विफल रहा है कि उन्होंने कानून के मुताबिक, भूमि अधिग्रहण किया था और उचित मुआवजा दिया था। अपीलार्थी के मामले में सिक्किम भूमि (अनुरोध व अधिग्रहण) अधिनियम, 1977 (इसे आगे में अध‌िनयम कहा गया है) के तहत परिकल्पित की गई प्रक्रिया पर अमल या अनुकरण नहीं किया गया था और राज्य सरकार ने उसकी संपत्ति पर अतिक्रमण कर लिया था। मामले में जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ ने कहा कि राज्य के पास ऐसी कोई स्‍थ‌िति नहीं थी कि उन्होंने प्रतिकूल कब्जा किया, उन्होंने उचित प्रक्रिया के जरिए जमीन का अधिग्रहण किया और मुआवजा दिया। यह साबित करने का बोझ कि राज्य पर है कि जमीन के अधिग्रहण में उक्त अधिनियम के तहत परिकल्पित प्रक्रिया का पालन किया गया और मुआवजे का भुगतान किया गया। बेंच ने कहा कि इनमें से किसी भी पहलू के समर्थन में एक भी प्रमाण नहीं दिया गया है। बेंच ने अपील की अनुमति देते हुए कहा, "भले ही भूमि का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, फिर भी यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत एक संवैधानिक अधिकार है, और किसी भी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के लिए बने अधिनियम के प्रावधानों का सख्ती से पालन होना चा‌‌हिए। "यह भी कानून है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 (उक्त अधिनियम की धारा 5 (1) के समान) की धारा 4 (1) की प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है, और जब तक कि निहित प्रावधानों के अनुसार नोटिस नहीं दिया जाता है, पूरी अधिग्रहण की कार्यवाही को समाप्त कर दिया जाएगा। गैर-अनुपालन के अधार पर परिसर में किया गया प्रवेश, प्रवेश को गैर-कानूनी बना देगा। नोटिस का उद्देश्य भूमि अधिग्रहण के उद्देश्य के बारे में इच्छुक व्यक्तियों को सूचित करना है। उक्त अधिनियम के प्रावधानों को, जैसे कि वे पढ़े जाते हैं, इसके बाद भी पालन की आवश्यकता होती है।" 

केस टाइटल: डीबी बेसनेट (डी) बनाम दी कलेक्टर केस नंबर: CIVIL APPEAL NO.196 Of 2011 
कोरम: जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस केएम जोसेफ

वाहन मालिक का बीमा दावा सिर्फ इसलिए नकारा नहीं जा सकता कि ड्राइवर के पास फर्जी लाइसेंस था : सुप्रीम कोर्ट


*वाहन मालिक का बीमा दावा सिर्फ इसलिए नकारा नहीं जा सकता कि ड्राइवर के पास फर्जी लाइसेंस था : सुप्रीम कोर्ट*
“अगर चालक लाइसेंस दिखाता है, जो देखने में असली लगता हो तो नियोक्ता से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह लाइसेंस की प्रामाणिकता की आगे जांच करे, जब तक उसे अविश्वास का कोई कारण नजर न आता हो।” सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है बीमा कंपनी वाहन मालिक के बीमा दावे को केवल इस आधार पर नकार नहीं सकती कि चालक के पास फर्जी लाइसेंस था। न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने कहा कि *यह साबित करने का दायित्व बीमा कंपनी पर है कि बीमित व्यक्ति ने लाइसेंस की प्रामाणिकता सत्यापित करने के लिए पर्याप्त सावधानी नहीं बरती या उसने बीमा पॉलिसी की शर्तों या बीमा करार का जानबूझकर उल्लंघन किया था।* बेंच शिकायतकर्ता द्वारा एनसीडीआरसी के उस आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रही थी, जिसने बीमा कंपनी को उसकी देयता से वंचित कर दिया था, क्योंकि चालक के लाइसेंस का कोई रिकॉर्ड लाइसेंसिंग प्राधिकरण के पास नहीं था। बेंच ने इस मुद्दे पर विचार किया था कि *चालक को नौकरी पर रखते वक्त नियोक्ता/बीमित व्यक्ति से कितनी सावधानी/ तत्परता की अपेक्षा की जा सकती है?* कोर्ट ने कहा कि "यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम लेहरु एवं अन्य" के मामले में यह व्यवस्था दी गयी थी कि बीमा कंपनी को इस आधार पर अपनी देयता से बचने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि दुर्घटना के समय वाहन चालक के पास विधिवत लाइसेंस नहीं था। बेंच ने कहा, "ड्राइवर को काम पर रखते वक्त नियोक्ता से यह सत्यापित करने की अपेक्षा की जाती है कि चालक के पास ड्राइविंग लाइसेंस है या नहीं। अगर चालक लाइसेंस दिखाता है, जो देखने में असली लगता हो तो नियोक्ता से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह लाइसेंस की प्रामाणिकता की आगे जांच करे, जब तक उसे अविश्वास का कोई कारण नजर न आता हो। यदि नियोक्ता चालक को वाहन चलाने के लिए सक्षम पाता है और वह इस बात को लेकर संतुष्ट है कि *चालक के पास ड्राइविंग लाइसेंस है तो धारा 14 (2)(ए) (ii) का उल्लंघन नहीं माना जायेगा तथा बीमा कंपनी पॉलिसी के तहत उत्तरदायी होगी।* ड्राइविंग लाइसेंस की सत्यता का पता लगाने के लिए पूरे देश में आरटीओ के साथ पूछताछ करने का दायित्व बीमित व्यक्ति पर देना अनुचित होगा।" न्यायालय ने स्पष्ट किया कि *यदि बीमा कंपनी यह साबित करने में सक्षम रहती है कि मालिक / बीमित व्यक्ति को पता था या उसने यह महसूस किया था कि लाइसेंस फर्जी या अमान्य है, उसके बावजूद उस चालक को गाड़ी चलाने की अनुमति दी है, तब बीमा कंपनी उत्तरदायी नहीं होगी।*

 केस का नाम : *निर्मला कोठारी बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड* केस न.- सिविल अपील संख्या 1999-2000/2020 
कोरम : न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा एवं न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी 
वकील : एडवोकेट जसमीत सिंह (एओआर) 

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