Monday 27 January 2020

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता

High Court Judgement on Use of Loudspeakers for Worship | कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता

High Court Judgement on Use of Loudspeakers for Worship:- कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दो मस्जिदों की अजान के लिए लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति की मांग को खार‌िज कर दिया है।

High Court Judgement on Use of Loudspeakers for Worship:- जस्ट‌िस पंकज मिठल और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित ने अपने आदेश में कहा

“कोई भी धर्म ये आदेश या उपदेश नहीं देता है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों के जर‌िए प्रार्थना की जाए या प्रार्थना के लिए ड्रम बजाए जाएं और यदि ऐसी कोई परंपरा है, तो उससे दूसरों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, न किसी को परेशान किया जाना चा‌हिए।”

मामले में चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड ऑर्म्स, 2000 (7) एससीसी 282 के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान केअनुच्छेद 25 और 26 के तहत प्रदत्त अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं। ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के नियम 5 के तहत संबंधित प्राध‌िकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक स्‍थलों पर लाउडस्पीकर / पब्लिक एड्रेस सिस्टम/ ध्वनि उत्पादक यंत्र/ उपकरण या एम्पलीफायर का उपयोग नहीं किया जा सकता है।

मामले में याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्थलों पर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण और इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी।

याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह उनकी धार्मिक परंपरा का एक अनिवार्य हिस्सा है और बढ़ती आबादी के मद्देनजर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल (High Court Judgement on Use of Loudspeakers for Worship)कर लोगों को प्रार्थना के लिए बुलाना आवश्यक हो गया है। हाईकोर्ट ने उक्त दलील को खारिज करते हुए कहा कि- “यह सच है कि जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के तहत गारंटीकृत है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार कर सकता है, हालांकि उक्त अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है।

कोई भी धर्म पूजा के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दो मस्जिदों की अजान के लिए लाउडस्पीकर लगाने की अनुमति की मांग को खार‌िज कर दिया है। जस्ट‌िस पंकज मिठल और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित ने अपने आदेश में कहा, “कोई भी धर्म ये आदेश या उपदेश नहीं देता है कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों के जर‌िए प्रार्थना की जाए या प्रार्थना के लिए ड्रम बजाए जाएं और यदि ऐसी कोई परंपरा है, तो उससे दूसरों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए, न किसी को परेशान किया जाना चा‌हिए।” मामले में चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक कॉलोनी वेलफेयर एसोसिएशन एंड ऑर्म्स, 2000 (7) एससीसी 282 के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26के तहत प्रदत्त अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन हैं।

ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 के नियम 5 के तहत

संबंधित प्राध‌िकरण की अनुमति के बिना सार्वजनिक स्‍थलों पर लाउडस्पीकर / पब्लिक एड्रेस सिस्टम/ ध्वनि उत्पादक यंत्र/ उपकरण या एम्पलीफायर का उपयोग नहीं किया जा सकता है। मामले में याचिकाकर्ताओं ने धार्मिक स्थलों पर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों के लाइसेंस का नवीनीकरण और इस्तेमाल की अनुमति मांगी थी। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि यह उनकी धार्मिक परंपरा का एक अनिवार्य हिस्सा है और बढ़ती आबादी के मद्देनजर एम्पलीफायरों और लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल कर (High Court Judgement on Use of Loudspeakers for Worship)लोगों को प्रार्थना के लिए बुलाना आवश्यक हो गया है।

हाईकोर्ट ने उक्त दलील को खारिज करते हुए कहा कि- “यह सच है कि जैसा किभारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1)के तहत गारंटीकृत है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार कर सकता है, हालांकि उक्त अधिकार निरपेक्ष अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त अधिकार व्यापक स्तर परअनुच्छेद 19 1) (ए) के अधीन है और इस तरह दोनों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और सामंजस्यपूर्ण ढंग से लागू किया जाना चाहिए।” मामले में आचार्य महाराजश्री नरंद्रप्रसादजी आनंदप्रसादजी महाराज बनाम गुजरात राज्य, 1975 (1) एससीसी 11 के फैसले पर भरोसा किया गया।

कोर्ट ने कहा कि

मामले में शामिल मस्जिदें, जिस क्षेत्र में हैं, वो हिंदू और मुसलमानों की मिश्रित आबादी का इलाका है, और अतीत में इस मसले पर हुए विवादों ने गंभीर रूप ले चुके हैं। इसलिए अगर किसी भी पक्ष को साउंड एम्पलीफायरों का उपयोग करने की अनुमति दी जाती है तो दो समूहों के बीच तनाव बढ़ने की आशंका होगी। कोर्ट ने कहा कि अधिकारियों ने लाउडस्पीकरों के उपयोग की अनुमति न देकर ठीक ही किया, विशेष रूप से उस इलाके में जहां दो धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी पैदा होने की संभावना थी, जिससे कानून और व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती थी।

कोर्ट ने कहा कि

“किसी भी क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी के साथ प्रशासनिक अधिकारियों की होती है और वो अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए बाध्य होते हैं और उन्हें ये सुनिश्चित करना होता है कि क्षेत्र की शांति और व्यवस्‍था भंग न हो और अगर किसी घटना के संबंध में कोई तनाव या विवाद हो तो उस पर सुलह और समझौता किया जा सकता है। इस प्रकार, उन पर तनाव कम करने और यह सुनिश्चित करने के जिम्‍मेदारी होती है कि क्षेत्र में शांति बनी रहे।” अदालत ने ध्वनि प्रदूषण और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य और शांति होने वाले नुकसान पर कहा- “… भारत में लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि शोर अपने आप में एक प्रकार का प्रदूषण है। वे स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभावों को लेकर पूरी तरह से सचेत भी नहीं हैं।

हालांकि हाल के दिनों में इसके बारे में कुछ चिंता दिखाई दी है।

” कोर्ट ने कहा कि, दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमेरिका, इंग्लैंड और ऐसे अन्य देशों में, लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर काफी सचेत हैं और वे अपनी कारों के हॉर्न भी नहीं बजाते हैं और हॉन्‍किंग को बुरा व्यवहार माना जाता है, क्योंकि इससे न केवल दूसरों को असुविधा होती है बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान होता है।

ध्‍वनि प्रदूषण (V), IN RE, 2005 (8) SCC 796 के नियमों में कहा गया है और जहां सुप्रीम कोर्ट ने राय दी है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी आजादी किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, हालांकि ये निरपेक्ष नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपनी आवाज़ को बढ़ाने के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को अपना मौलिक अधिकार बताने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि प्रत्येक नागरिक को अपने घर में आराम और शांति से रहने का मौलिक अधिकार है। “सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो चुका है कि शोर मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभावित डालता है। शोर बहरेपन, उच्च रक्तचाप, अवसाद, थकान और झुंझलाहट का कारण हो सकता है। अत्यधिक शोर से हृदय संबंधी बीमारियों, न्यूरोसिस और नर्वस ब्रेकडाउन जैसी ब‌ीमारियां हो सकती हैं।

हाईकोर्ट ने कहा

हमारा स्पष्ट मत है कि कोर्ट को अपने असाधारण क्षेत्राधिकार को प्रयोग करते हुए इस मामले में किसी तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, ऐसा करने से सामाजिक असंतुलन पैदा हो सकता है, । उल्‍लेखनीय है कि पिछले साल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य में डीजे के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था।

- : Case Title: -
Masroor Ahmad & Anr. v. State of UP & Ors.
Case No.: Writ C No. 43167/2019
Quorum: Justice Pankaj Mithal and Justice Vipin Chandra Dixit

Sunday 26 January 2020

घरेलू हिंसा की शिकायत पर नोटिस जारी करने से पहले अदालत को प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना होगा कि घरेलू हिंसा हुई है : सुप्रीम कोर्ट

घरेलू हिंसा की शिकायत पर नोटिस जारी करने से पहले अदालत को प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना होगा कि घरेलू हिंसा हुई है : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि घरेलू हिंसा का आरोप लगाने वाली एक शिकायत में नोटिस जारी करने से पहले अदालत को इस बात से संतुष्ट होना होगा कि वास्तव में घरेलू हिंसा की घटना हुई है। इस मामले में एक पत्नी ने अपने पति और उसके माता-पिता सहित चौदह व्यक्तियों के खिलाफ घरेलू हिंसा के आरोप लगाए थे। अन्य सभी उत्तरदाता शिकायतकर्ता के माता-पिता के रिश्तेदार हैं, जो अन्य राज्यों में रहते हैं। जस्टिस आर बानुमति, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने उल्लेख किया कि, पति और माता-पिता पर घरेलू हिंसा को लेकर औसतन आरोप हैं कि उन्होंने उसके पिता द्वारा शादी के दौरान उपहार में दी गई प्रतिवादी की ज्वैलरी को छीन लिया है और प्रतिवादी को परेशान करने के कथित कार्य किया है । पीठ ने कहा, "इस बात के लिए कोई विशिष्ट आरोप नहीं हैं कि अपीलकर्ता नंबर 14 के अन्य रिश्तेदारों ने घरेलू हिंसा के कृत्यों को कैसे अंजाम दिया। यह भी ज्ञात नहीं है कि गुजरात और राजस्थान के निवासी अन्य रिश्तेदारों को पैसे के फायदे के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उच्च न्यायालय यह कहने में सही नहीं था कि प्रथम दृष्टया अन्य अपीलकर्ता संख्या.3 से 13 तक का मुकदमा चलाना सही था। चूंकि अपीलकर्ताओं नं .3 से 13 तक के खिलाफ कोई विशेष आरोप नहीं हैं, उनके खिलाफ घरेलू हिंसा का आपराधिक मामला जारी नहीं रखा जा सकता है और रद्द किया जा सकता है।" पीठ ने घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का जिक्र किया, " घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 संरक्षण आदेश से संबंधित है। अधिनियम की धारा 18 के संदर्भ में, विधायिका का इरादा महिला को अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। अधिनियम की धारा 20 अदालत को " पीड़ित पक्ष" को मौद्रिक राहत देने का आदेश देती है। जब घरेलू हिंसा के कृत्य का आरोप लगाया जाता है, तो नोटिस जारी करने से पहले, अदालत को इस बात से संतुष्ट होना पड़ता है कि घरेलू हिंसा हुई है। " अधिकार क्षेत्र के संबंध में आपत्ति के संबंध में, पीठ ने कहा, "उपर्युक्त प्रावधान का पठन यह स्पष्ट करता है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत याचिका अदालत में दायर की जा सकती है जहां " व्यथित व्यक्ति "स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से रहता है या व्यवसाय करता है या कार्यरत है। वर्तमान मामले में, प्रतिवादी मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट, बेंगलुरु की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर अपने माता-पिता के साथ रहती है। अधिनियम की धारा 27 (1) (ए) के मद्देनजर, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत, बेंगलुरु के पास शिकायत का मनोरंजन करने और अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार क्षेत्र है। बेंगलुरु में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के रूप में आपत्ति उठाने वाले विवाद में कोई योग्यता नहीं है। "

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/domestic-violence-court-has-to-be-prima-facie-satisfied-that-there-have-been-instances-of-violence-before-issuing-notice-in-complaint-151924

दीवानी मुकदमे का इस्तेमाल करना आपराधिक मामला निरस्त करने का आधार नहीं है: सुप्रीम कोर्ट

दीवानी  मुकदमे का इस्तेमाल करना आपराधिक मामला निरस्त करने का आधार नहीं है: सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि किसी पक्ष ने भले ही दीवानी उपाय का इस्तेमाल किया हो, लेकिन उसे आपराधिक कानून के तहत मुकदमा शुरू करने से वंचित नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने कहा कि कुछ मामलों में बिल्कुल समान तथ्य दीवानी के साथ-साथ आपराधिक मुकदमों में राहत दे सकते हैं। इस मामले में हाईकोर्ट ने शिकायतकर्ता की ओर से दायर आपराधिक मुकदमा यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि संबंधित मामला पंजीकृत बिक्री विलेख से जुड़ा था और अपीलकर्ता ने आरोप लगाया था कि बिक्री विलेख किसी कारण से वैध नहीं था, तो उसे दीवानी मुकदमा दायर करना चाहिए था और कानून के दायरे में अपने पक्ष में उचित राहत मांगना चाहिए था। शिकायत की मूल बात यह थी कि उसे आरोपी ने ट्रांजेक्शन के लिए विवश किया गया था। यह आरोप लगाया गया था कि कोई भुगतान नहीं किया गया था, लेकिन शिकायतकर्ता को कुल 49.38 लाख रुपये मूल्य के तीन पोस्ट-डेटेड (बाद की तारीख के) चेक शिकायतकर्ता को सौंपे गये थे और उसे चेक को भुनाने की धमकी दी गयी थी। इस फैसले को दरकिनार करते हुए बेंच ने कहा : " यह पूरी तरह से निर्धारित तथ्य है कि कुछ मामलों में एक तरह के तथ्य दीवानी और आपराधिक दोनों तरह के मुकदमों में राहत दिला सकते हैं और भले ही पार्टी द्वारा दीवानी मुकदमा दायर किया गया हो, उसे आपराधिक मुकदमा शुरू करने से वंचित नहीं किया जा सकता।" बेंच ने 'आर कल्याणी बनाम जनक सी मेहता' सहित विभिन्न मामलों में पूर्व के फैसलों का उल्लेख किया जिसमें व्यवस्था दी गयी है कि यदि आरोप दीवानी विवाद के दायर में आता है, तो यह स्वयं में इस बात का आधार नहीं बन सकता कि आपराधिक मुकदमा जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। मुकदमे का ब्योरा :- केस नाम : के. जगदीश बनाम उदय कुमार जीएस केस नं. : क्रिमिनल अपील नं. 56/2020 कोरम : न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित और न्यायमूर्ति विनीत सरन वकील : जवाहर राजा (अपीलकर्ता की ओर से) एवं विद्या सागर (प्रतिवादी की ओर से)

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/availing-of-civil-remedy-is-not-a-ground-to-quash-criminal-proceedings-reiterates-sc-151918

चोरी के बारे में बीमा कंपनी को सूचना देने में हुई देर के एकमात्र आधार पर बीमा क्लेम खारिज नहीं हो सकता : सुप्रीम कोर्ट

चोरी के बारे में बीमा कंपनी को सूचना देने में हुई देर के एकमात्र आधार पर बीमा क्लेम खारिज नहीं हो सकता : सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बीमा कंपनी को केवल चोरी की घटना के बारे में बताने में हुई देरी, बीमित व्यक्ति के दावे को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता। एक मामले की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि सिर्फ चोरी की घटना की सूचना देने में देरी के आधार पर बीमा का दावा खारिज नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति एन.वी रमना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीश की पीठ एक मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें यह मुद्दा उठाया था कि हालांकि प्राथमिकी सूचना रिपोर्ट तुरंत दर्ज करा दी गई थी, लेकिन क्या बीमा कंपनी को वाहन की चोरी की सूचना देने में हुई देरी, बीमा दावा के दावेदार के बीमा पाने के अधिकार खारिज कर देगा। जस्टिस एन.वी रमना,जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी.आर गवई पीठ ने ओमप्रकाश बनाम रिलायंस जनरल इंश्योरेंस के फैसले में व्यक्त विचारों से सहमति व्यक्त की, जिसमें कहा गया था कि अगर दावेदार को केवल इस आधार पर दावा (क्लेम) देने इनकार किया जाता है कि चोरी की घटना के बारे में बीमा कंपनी को सूचना देने में कुछ देरी हुई है, तो यह एक उच्च तकनीकी दृष्टिकोण होगा। यह माना गया था कि वास्तविक दावों को अस्वीकार करना उचित और तर्कपूर्ण नहीं होगा जो पहले ही सत्यापित हो चुके हैं और जांचकर्ता द्वारा सही पाए गए थे। इस संदर्भ में जवाब देते हुए बेंच ने कहा कि " जब किसी बीमा धारक ने वाहन की चोरी के तुरंत बाद प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज करा दी थी और जांच के बाद पुलिस वाहन का पता नहीं लगा पाई है और उन्होंने अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी है और जब बीमा कंपनी द्वारा नियुक्त सर्वेक्षकों/जांचकर्ताओं ने चोरी के दावे को सही पाया किया है तो केवल चोरी की घटना के बारे में बीमा कंपनी को सूचित करने में हुई देरी, बीमाधारक के दावे को खारिज करने के लिए एक आधार नहीं हो सकती।" न्यायालय ने कहा कि- " वाहन चोरी होने के बाद एक व्यक्ति, जिसने अपना वाहन खो दिया है, तुरंत प्राथमिकी दर्ज कराएगा और ऐसे व्यक्ति से अपेक्षित तत्काल आचरण वाहन की तलाश में पुलिस की सहायता करना होगा। वाहन की चोरी के संबंध में प्राथमिकी का दर्ज होना और वाहन न मिलने के बाद पुलिस की अंतिम रिपोर्ट, इस बात की पुष्टि करती है कि दावेदार का यह दावा सही है कि उसका वाहन चोरी हो गया है। इतना ही नहीं, बल्कि बीमा कंपनी द्वारा नियुक्त किए गए सर्वेक्षणकर्ताओं को भी यह जांचना आवश्यक होता है कि चोरी के संबंध में दावेदार का दावा वास्तविक है या नहीं। यदि बीमा कंपनी द्वारा नियुक्त किया गया सर्वेक्षणकर्ता, जांच के बाद यह पता लगाता है कि चोरी का दावा वास्तविक है, इसी के साथ मामले में एफआईआर तत्काल दर्ज की जाना , हमारे विचार में, वाहन चोरी होने का निर्णायक प्रमाण होगा।" केस का नाम-गुरशिन्दर सिंह बनाम श्रीराम जनरल इंश्योरेंस कपनी लिमिटेड केस नंबर-सिविल अपील नंबर 653/2020 कोरम- जस्टिस एन.वी रमना, जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी और जस्टिस बी.आर गवई

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कथित अपराधों की गम्भीरता जमानत अर्जी खारिज करने का आधार नहीं बन सकती : सुप्रीम कोर्ट

कथित अपराधों की गम्भीरता जमानत अर्जी खारिज करने का आधार नहीं बन सकती : सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी आरोपी के खिलाफ अपराधों की गम्भीरता जमानत अर्जी ठुकराने का आधार नहीं हो सकती है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील खारिज करते हुए यह टिप्पणी की। हाईकोर्ट ने हत्या में शामिल होने के आरोपों का सामना कर रहे दो अभियुक्तों को जमानत दे दी थी। जमानत आदेश खारिज करने के अपीलीय अदालत के अधिकार क्षेत्र का निर्धारण करने वाले सुप्रीम कोर्ट के ही हालिया आदेश का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा : दो ही कारणों से इस तरह के आदेश में हस्तक्षेप किया जाता है- या तो जमानत मंजूर करने वाले कोर्ट ने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया हो या जमानत देने में कोर्ट की राय पहली ही नजर में रिकॉर्ड पर लाये गये साक्ष्यों से नहीं बनी हो। हाईकोर्ट के आदेश पर ध्यानपूर्वक विचार करते हुए बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट ने आरोपी की जमानत मंजूर करके न तो कोई गलती की है, न अपने विवेक का अनुचित इस्तेमाल। बेंच ने कहा कि उपलब्ध तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सही नहीं हैं कि हाईकोर्ट ने संबंधित आदेश जारी करते वक्त विवेक का इस्तेमाल नहीं किया या जमानत देने में कोर्ट की राय पहली ही नजर में रिकॉर्ड पर लाये गये साक्ष्यों से नहीं बनी है। बेंच ने कहा :- निस्संदेह कथित अपराध गंभीर हैं और आरोपी के खिलाफ कई आपराधिक मामले लंबित भी हैं। इसके बावजूद ये कारण खुद में जमानत की अर्जी ठुकराने का आधार नहीं बन सकते। केस का नाम : प्रभाकर तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार केस नं:- क्रिमिनल अपील नं. 153-154/2020 कोरम : जस्टिस दीपक गुप्ता एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस

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अभियुक्त को 24 घंटे मे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और 60 या 90 दिन में चालान पेश करना होगा अन्यथा जमानत- CRPC धारा 167

अभियुक्त को 24 घंटे मे मजिस्ट्रेट  के समक्ष पेश किया जाएगा और 60 या 90 दिन में चालान पेश करना होगा अन्यथा जमानत- CRPC धारा 167

 सीआरपीसी की धारा 167 अभियुक्त के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को जमानत तक मिल जाती है तथा अभियुक्त को कितने समय अवधि के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना है। इसकी जानकारी इस धारा के अंतर्गत दी गई है। यह धारा अभियुक्त के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, इस धारा को पुलिस अन्वेषण वाले अध्याय में रखा गया है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 किया धारा 167 अभियुक्त के लिए तीन प्रकार की राहत प्रदान करती है तथा इन तीनों बातों का उल्लेख इस धारा के अंतर्गत किया गया है।
1. गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने की अवधि
2. मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाने वाला पुलिस रिमांड
3. पुलिस द्वारा चार्जशीट पेश करने में देरी के कारण अभियुक्त की ज़मानत गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने की अवधि इस धारा के अंतर्गत पुलिस को निर्देश दिया गया है, कितने समय के भीतर अपने द्वारा गिरफ्तार किए गए, व्यक्ति को क्षेत्र अधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करेगी। इस धारा को अधिनियम की धारा 57 के संयुक्त अध्ययन में पढ़ा जाता है। अन्वेषण प्रथम बार धारा 57 के उपबंध के अधीन 24 घंटे के भीतर पूरा किया जाए यदि ऐसा नहीं हो सकता है तो धारा 167 के अधीन उस तिथि से 15 दिन के भीतर किया जाए जिस तिथि को प्रथम बार सक्षम क्षेत्राधिकार की धारा 57 में 24 घंटों की अवधि के भीतर पूरा अभियुक्त को पेश किया गया है। जब पुलिस अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की जाती है तो उस व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अंतर्गत 24 घंटों के भीतर क्षेत्राधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है। इन 24 घंटों की अवधि में न्यायालय तक लाने के समय को काटा जाता है अर्थात पुलिस को अपने द्वारा गिरफ्तार किए गए, व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर प्रस्तुत करना ही होगा।
*मनोज बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले* में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की धारा 167 के अधीन औपचारिक रूप से गिरफ्तार अभियुक्त यदि धारा 167 (2) तथा धारा 57 की अपेक्षा के अनुसार मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो ऐसी गिरफ्तारी 24 घंटे पश्चात व्यर्थ हो जाती है। मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाने वाला पुलिस रिमांड अधिनियम की धारा 167 (1) के अंतर्गत पुलिस को 24 घंटे के भीतर अन्वेषण पूरा करने के निर्देश दिए गए हैं तथा व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर सक्षम न्यायालय के समक्ष उपस्थित करना होगा। यदि पुलिस का समय पूरा नहीं होता है तो उसके लिए रिमाइंड जैसी व्यवस्था रखी थी। धारा 167 (1) के अनुसार जब अभिरक्षा में निरुद्ध व्यक्ति का अन्वेषण 24 घंटे के भीतर पूरा नहीं हो पाता है और इस बात के विश्वास का पर्याप्त आधार है कि अभियोग के समुचित आधार है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, अन्वेषणकर्ता अधिकारी जो पद में उप निरीक्षक से निम्तर नहीं है। मामले से संबंधित डायरी की प्रविष्टि की एक प्रति के साथ अभियुक्त व्यक्ति को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष भेजेगा।
*देवेंद्र कुमार बनाम हरियाणा राज्य के मामले* में यह निर्धारित किया गया है कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस रिमांड 15 दिनों से अधिक नहीं हो सकेगी। यदि आवश्यक हुआ तो इसके बाद अभियुक्त को न्यायिक अभिरक्षा (हिरासत) में रखा जाएगा। यदि पुलिस द्वारा अन्वेषण अधिकारी द्वारा हेतु मजिस्ट्रेट से गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का रिमांड मांगा जाता है तो मजिस्ट्रेट ऐसा रिमांड आवश्यकता के अनुसार समय अवधि के लिए दिए देगा परंतु ऐसे किसी भी *रिमांड की समय अवधि 15 दिवस से अधिक नहीं होगी।* पुलिस द्वारा चार्जशीट पेश करने में देरी के कारण अभियुक्त की ज़मानत दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के ज़मानत के उपबंधों के अलावा धारा 167 (2) के अंतर्गत भी जमानत के कुछ प्रावधान रखे गए हैं। इस धारा के अंतर्गत यदि पुलिस द्वारा चालान पेश करने में देरी की जाती है। पुलिस धारा 173 के अंतर्गत अपना अंतिम प्रतिवेदन उपस्थित नहीं करती है, तो इस आधार पर अभियुक्त को ज़मानत दी जा सकती है, परंतु यदि पुलिस द्वारा चालान पेश कर दिया गया है तो अभियुक्त को ज़मानत इस आधार पर नहीं दी जाएगी। इस धारा में पुलिस रिमांड एव पुलिस द्वारा पेश किया जाने वाला अंतिम प्रतिवेदन इन दोनों को संयुक्त रूप से रखा गया है। पुलिस को अपना अंतिम प्रतिवेदन एक समय अवधि के भीतर पेश किए जाने के लिए बाध्य करने के प्रयास इस धारा के अंतर्गत किए गए। कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु आजीवन कारावास यह 10 वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय है। अर्थात यदि अभियुक्त के ऊपर उन धाराओं के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा रहा है, जिन धाराओं में *10 वर्ष से ऊपर का कारावास रखा गया है तो पुलिस द्वारा 90 दिनों के भीतर* अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 के अंतर्गत प्रस्तुत किया जाएगा। यदि अभियुक्त पर कोई ऐसी धाराओं में अभियोजन चलाया जा रहा है, जिनमें कारावास की अवधि या फिर दंड , मृत्यु या आजीवन कारावास या *10 वर्ष से अधिक के कारावास के अलावा कोई भी अन्य दंड रखा गया है तो* ऐसी परिस्थिति में इस अपराध में अभियुक्त को जमानत मिल सकती है यदि पुलिस द्वारा *60 दिन की अवधि* तक अपना अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया है।
       न्यायालय द्वारा *इस अवधि की गणना उस दिवस से की जाती है जिस दिवस से अभियुक्तों को न्यायालय में पेश किया जाता है।* न्यायालय द्वारा अभियुक्तों इस धारा के अंतर्गत जमानत दे दी गई है तो वह दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की जमानत के प्रावधानों के अनुरूप निरंतर जमानत ही कह लाएगी, *अभियोजन पक्ष यह दलील नहीं दे सकता की ज़मानत को केवल इसलिए रद्द किया जाए की अभियोजन पक्ष द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन पेश कर दिया गया है।* इस मामले पर *बशीर बनाम हरियाणा राज्य* का एक वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के अंतर्गत अभियुक्तों पर धारा 302 सहपाठित धारा 149, धारा 347 सहपाठित धारा 149, धारा 143 सहपाठित धारा 147 के आरोप थे। इस वाद में पुलिस द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत पेश किए जाने में देरी की गई थी। इस आधार पर अभियुक्तों को सेशन न्यायालय द्वारा जमानत धारा 167 (2) के अंतर्गत प्रदान कर दी गई थी। अभियोजन पक्ष द्वारा यह दलील दी गई कि अब चालन पेश कर दिया गया है तथा अभियुक्तों की जमानत रद्द कर दी जाए। सेशन न्यायालय द्वारा अभियुक्तों की जमानत रद्द कर दी गई। अंत में यह वाद उच्चतम न्यायालय तक गया तथा उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा कि यदि अभियुक्तों को धारा 167 (2) के अंतर्गत ज़मानत प्रदान कर दी जाती है तो यह जमानत को निरस्त किए जाने का आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 (5) के आधार पर ही निरस्त किया जा सकता है। अर्थात *धारा 437 - 439 के अधीन निरंतर जमानत पर माना जाएगा।*
        *कमलजीत सिंह बनाम राज्य* के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय लिया है कि *जहां अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष समर्पण कर दिया* तथा वह इस प्रकार समर्पण के बाद न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया गया तथा उस मामले में आरोप पत्र 90 दिन के पश्चात पेश किया गया तो उक्त दशा में अभियुक्त जमानत पर छोड़े जाने का हकदार होगा।

https://hindi.livelaw.in/know-the-law/know-the-law-crpc-152015

न्याय दिलाने में कोर्ट की मदद करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य, सरकार निजी मुकदमेबाज की तरह व्यवहार नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट

न्याय दिलाने में कोर्ट की मदद करना सरकार का संवैधानिक कर्तव्य, सरकार निजी मुकदमेबाज की तरह व्यवहार नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार निजी मुकदमेबाज की तरह व्यवहार नहीं कर सकती और न्याय दिलाने में कोर्ट की मदद करना उसका (सरकार का) पवित्र एवं संवैधानिक दायित्व है। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अपील पर विचार कर रहा था। हाईकोर्ट ने सीमा शुल्क (कस्टम ड्यूटी) में छूट न देने के सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली रिट याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि न तो सरकारी अधिकारियों को सीमा शुल्क से छूट संबंधी 'स्पष्टीकरण अधिसूचना' की जानकारी नहीं थी, न ही याचिकाकर्ता ने इसे रिकॉर्ड में लाया था। न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने फैसले से असहमति जताते हुए कहा, "यह हमेशा देखा गया है कि सरकार सबसे ज्यादा मुकदमे लड़ती है। न्याय दिलाने में कोर्ट की मदद करने का पवित्र एवं संवैधानिक दायित्व निभाने के बजाय यह अलग श्रेणी में खड़ी है। सरकार निजी मुकदमेबाज की तरह बर्ताव नहीं कर सकती। यह आरोप साबित करने के दायित्व (बर्डेन ऑफ प्रूफ) के अमूर्त सिद्धांत पर भरोसा करती है। सरकार अपने अधिकारियों के जरिये संचालन करती है, जिन्हें भरोसे के साथ शक्तियां प्रदान की गयी हैं। चाहे अनियमितता के कारण हो या लापरवाही से, यदि ये अधिकारी भरोसा तोड़ते हैं तो क्या सरकार भरोसा तोड़ने जैसे अपराध के लिए खुद जिम्मेदार होगी या ऐसे अधिकारी निजी तौर पर जवाबदेह होंगे?" कोर्ट ने कहा कि सरकारी अधिकारियों की यह दलील देना कि उन्हें अपने ही विभाग की ओर से जारी अधिसूचनाओं के बारे में मालूम नहीं था, अनुचित था। कोर्ट ने आगे कहा कि इसका पूरा दायित्व अधिकारियों पर होता है और बेपरवाह सरकार द्वारा इस तरह के बेढंगे बयानों से मुकदमेबाजी को बढ़ावा देने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। मुकदमे का ब्योरा :- केस का नाम : मेसर्स ग्रेनुएल्स इंडिया लिमिटेड बनाम भारत सरकार केस नं. – सिविल अपील नं. 593-594/2020 कोरम : न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/state-has-solemn-constitutional-duty-to-assist-court-in-dispensation-of-justice-cannot-behave-like-private-litigant-sc-152026

Friday 24 January 2020

निष्पादन संबंधी मुकदमे में कानूनी प्रतिनिधियों के असंगत दावों का भी निर्धारण किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट


*निष्पादन संबंधी मुकदमे में कानूनी प्रतिनिधियों के असंगत दावों का भी निर्धारण किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट*
सीपीसी के आदेश XXII, नियम पांच के संदर्भ में, कानूनी वारिस निर्धारित करने का अधिकार क्षेत्र संक्षिप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दीवानी प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के आदेश XXII, नियम 5 के सिद्धांतों के मद्देनजर डिक्री पर अमल संबंधी में कानूनी प्रतिनिधियों के असंगत दावों का निर्धारण किया जा सकता है। इस मामले में, उमा देवी को हुक्मनामा (डिक्री) मिला हुआ था, जिसपर अमल संबंधी याचिका की सुनवाई लंबित होने के दौरान उसकी मृत्यु हो गयी। उमा देवी की छोटी बहन के बेटे ने एक वसीयत के आधार पर खुद को कानूनी प्रतिनिधि बताते हुए हुक्मनामे पर अमल के लिए अर्जी दायर की थी, जिसे ट्रायल कोर्ट ने स्वीकार कर लिया था। संबधित अदालत ने व्यवस्था दी कि मृतका उमा देवी के कानूनी प्रतिनिधि डिक्री पर अमल कराने के लिए अधिकृत हैं। अदालत ने देनदार की उन आपत्तियों को खारिज कर दिया था कि वसीयत फर्जी थी और हिन्दू उत्तराधिकार कानून, 1956 की धारा 15 के तहत बहन का बेटा कानूनी वारिस नहीं होता है। देनदार की ओर से दायर की गयी संशोधन याचिका में हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी कि वसीयत का निष्पादन असंगत परिस्थितियों से घिरा नजर आता है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के निर्णय से असहमति जताते हुए कहा : "अपीलकर्ता उमादेवी की वसीयत के आधार पर खुद को उनका कानूनी प्रतिनिधि होने का दावा करता है। उसने वसीयत लिखने वाले मुंशी तथा उसके गवाहों को भी पेश किया है। गवाहों ने उमा देवी द्वारा अपनी बहन के बेटे (अपीलकर्ता) के पक्ष में वसीयत करने संबंधी बयान दिये हैं। किसी और व्यक्ति ने हुक्मनामा जीतने वाली (डिक्री-धारक) मृतका के कानूनी प्रतिनिधि के तौर पर डिक्री पर अमल के लिए अर्जी नहीं दायर की है। उमादेवी ने ही खुद से हुक्मनामे पर अमल के लिए याचिका दायर की थी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद अपीलकर्ता ने उसे जारी रखने की अर्जी दायर की है। मृतका के कानूनी प्रतिनिधि के दावेदार के तौर पर किसी अन्य व्यक्ति के दावा न करने की स्थिति में हाईकोर्ट ने हुक्मनामे के निष्पादन कराने वाले कोर्ट के आदेश को दरकिनार करके उचित नहीं किया है, क्योंकि सीपीसी के आदेश XXII, नियम पांच के तहत कानूनी प्रतिनिधि के निर्धारण का उसका अधिकारक्षेत्र संक्षिप्त है।" इसने आगे कहा : "हम कह सकते हैं कि सीपीसी का आदेश XXII किसी मुकदमे में लंबित कार्यवाही के लिए लागू होता है, लेकिन आदेश XXII के नियम 5 के सिद्धांतों के मद्देनजर कानूनी प्रतिनिधि के परस्पर विरोधी दावों का निर्धारण निष्पादन कार्यवाही में होता है।" बेंच ने 'वी उतिरापति बनाम अशरब' मामले में एक फैसले का उल्लेख किया था, जिसमें 'मुल्लाज कॉमेंट्री ऑन सीपीसी की इस टिप्पणी पर भरोसा किया गया था: "नियम 12 एक छूट प्रदान करता है, जिसके तहत यदि निष्पादन संबंधी मुकदमे के लंबित रहने के दौरान ही कोई पार्टी की मौत हो जाती है तो निष्पादन संबंधी कार्यवाही पर रोक के प्रावधान नहीं लगते हैं। इसलिए नियम यह है कि डिक्री-धारक के फायदे के लिए उसके वारिस को नियम दो के तहत प्रतिस्थापन (सब्सटीट्यूशन) के लिए कोई कदम उठाने की जरूरत नहीं होती है, बल्कि मुकदमा जारी रखने के लिए प्रतिस्थापन तुरंत होता है या कानूनी वारिस डिक्री पर अमल के लिए नयी अर्जी भी दे सकता है।" इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अपीलकर्ता वसीयत के आधार पर मृतका की सम्पत्ति का अकेला दावेदार था, बेंच ने अपील स्वीकार करते हुए व्यवस्था दी कि अपीलकर्ता मृतका के कानूनी प्रतिनिधि के तौर पर डिक्री के निष्पादन कराने के लिए सक्षम है।
मुकदमे का ब्योरा :
केस का नाम : वरदराजन बनाम कनकवल्ली एवं अन्य
केस नं. : सिविल अपील संख्या 5673/2009
कोरम : न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव एवं न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता
https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/conflicting-claims-of-legal-representatives-can-be-decided-in-execution-proceedings-151959

Thursday 23 January 2020

" जज हत्यारे को माफ नहीं कर सकते" : मौत की सजा पाए दंपत्ति की पुनर्विचार याचिका पर CJI बोबडे ने कहा

" जज हत्यारे को माफ नहीं कर सकते" : मौत की सजा पाए दंपत्ति की पुनर्विचार याचिका पर CJI बोबडे ने कहा

 गुरुवार 23/1/2020 को भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अमरोहा हत्याकांड के दोषियों, सलीम और शबनम की ओर से मौत की सजा के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया। 2015 में शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मृत्युदंड देने के आदेश की पुष्टि की थी जिसमें 2010 में सत्र न्यायालय द्वारा शबनम के परिवार के सात सदस्यों की हत्या के लिए उन्हें मौत की सजा देने के फैसले को बरकरार रखा गया था। यह स्थापित किया गया है कि सलीम और शबनम ने शादी पर जोरदार विरोध करने पर शबनम के परिवार की हत्या कर दी थी, जिसमें उसके पिता और उसके 10 महीने के भतीजे सहित सात लोग थे। ये अपराध 15 अप्रैल, 2008 को किया गया था। पीठ, जिसमें जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस संजीव खन्ना भी शामिल थे, ये दलील भी दी गई कि दोषी ठहराए जाने के बाद अच्छे व्यवहार के मद्देनज़र सजा को कम करने का आधार माना जाए। अदालत के लिए यहां पर विचार करने का मुद्दा यह है कि क्या जघन्य अपराध के दोषी ठहराए जाने के बाद अच्छे व्यवहार के चलते सुधार के आधार पर मौत की सजा को आजीवन कारावास की सजा की मांग की जा सकती है। वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने अदालत को बताया कि शबनम ने जेल के अंदर साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया और कैदियों को पढ़ा रही है। उन्होंने कहा कि सजा के पहले एक अपराध के विभिन्न पहलुओं और दोषी की जांच होनी चाहिए, और इस उदाहरण में, अपराधी पहली बार का दोषी था जिसने जेल में असाधारण आचरण का प्रदर्शन किया है। वो एक जघन्य अपराध अपराधी के समान नहीं है, जिसे सुधार की अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि मुख्य न्यायाधीश बोबडे ने सहमति व्यक्त की कि सुधार की संभावना वास्तव में सजा का एक महत्वपूर्ण पहलू है, उन्हें उस प्रभाव को देखना होगा क्या दोषी पाए जाने के बाद जेल में एक अपराधी के व्यवहार पर मौत की सजा पर विचार किया जा सकता है "यह मुकदमेबाजी की बाढ़ को खोल देगा", उन्होंने कहा। अपराध की प्रकृति और एक अपराधी के तर्क के संबंध में मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "मनुष्य शुद्ध आत्माओं के साथ पैदा होते हैं, वे निर्दोष हैं, और जबकि कोई भी अपने दिल की गहराई में अपराधी नहीं है, "अदालतें अपराध के लिए दंडित करती हैं और व्यक्ति को नहीं। "हम समाज के लिए न्याय करते हैं, न कि इस आधार पर कि कैसे वो जेल में अन्य अपराधियों के साथ व्यवहार करते हैं।" उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा कि 10 महीने के बच्चे का गला घोंटने के बाद आचरण 'असाधारण' हो गया था। पीठ ने यह कहा कि सजा अपराध के अनुपात में ही होनी चाहिए और यह मामला अपने ही परिवार के सात सदस्यों की हत्या को मृत्युदंड के साथ संतुलित करने के बारे में है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "यह कानून है जो अपराधियों से निपटता है ... एक न्यायाधीश नहीं ... एक इंसान होने के नाते, एक न्यायाधीश एक हत्यारे को माफ नहीं कर सकता है ...इसके असर के बारे में सोचिए कि जज ने एक हत्यारे को कहा कि 'मैंने तुम्हें माफ कर दिया!" पीठ ने यूपी राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल (SG) तुषार मेहता से पूछा कि क्या सजा को बदला जा सकता है यदि दोषी को सजा सुनाए जाने के बाद उनके तरीके बदल जाते हैं, तो SG ने कहा कि इस तरह से मौत की सजा नहीं बदलेगी। हर कोई कहेगा कि उन्हें सुधार दिया गया है, और वो इससे बाहर आ जाएगा। आप अपने माता-पिता को मार नहीं सकते हैं और फिर कहते हैं कि मैं अनाथ हो गया हूं इसलिए कृपया मुझ पर दया दिखाओ, मेहता ने कहा। दंपति के वकील, आनंद ग्रोवर ने उनकी ओर से दया का अनुरोध किया कि वे गरीब और अनपढ़ थे। हालांकि, पीठ ने यह कहकर जवाब दिया कि कई ऐसे हैं जो गरीब और अशिक्षित हैं, लेकिन पुनर्विचार याचिका की अनुमति देने के लिए कोई आधार नहीं है। सजा पर पुनर्विचार की दलील देते हुए, आपको सजा में त्रुटि दिखानी चाहिए, बेंच ने याद दिलाया और गलती के लिए आधार दिखाने को कहा। सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने मृत्युदंड की सजा के संबंध में कुछ गंभीर टिप्पणियां भी कीं। इस बात पर जोर दिया गया कि मौत की सजा को अंतिम रूप देना बेहद महत्वपूर्ण है और निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए और उसे समय पर अंजाम दिया जाना चाहिए। 2012 के दिल्ली गैंगरेप मामले (निर्भया) में हालिया नाटकीय मोड़ के बारे में संकेत देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि दोषियों को यह मानने की अनुमति नहीं होनी चाहिए कि सजा किसी भी समय चुनौती के लिए खुली है। उन्होंने कहा, "मुकदमेबाजी जारी नहीं रह सकती है।" SG मेहता ने इस बिंदु पर भी उल्लेख किया है कि गृह मंत्रालय के माध्यम से केंद्र ने 2014 में शत्रुघ्न चौहान मामले में बनाए गए 'दोषी-केंद्रित' दिशानिर्देशों को संशोधित करने के लिए शीर्ष अदालत के समक्ष एक आवेदन दायर किया है। मौत की सजायाफ्ता कैदियों के समय पर फांसी देने के लिए 'पीड़ित-केंद्रित' दिशानिर्देश तैयार किए जाने चाहिएं।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/judge-cannot-forgive-a-murderer-cji-bobde-remarks-on-hearing-review-plea-of-death-row-convicts-151957

कारावास और जुर्माने की मिश्रित सजा के खिलाफ दायर अपील अभियुक्त की मौत होने पर भी समाप्त नहीं होती

कारावास और जुर्माने की मिश्रित सजा के खिलाफ दायर अपील अभियुक्त की मौत होने पर भी समाप्त नहीं होती

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि अभियुक्त-अपीलार्थी कारावास और जुर्माने की मिश्रित सज़ा के खिलाफ दायर आपराधिक अपील के लंबित रहने के दौरान मर जाता है तो भी अपील समाप्त नहीं होती। इस मामले में आरोपी को आबकारी अधिनियम की धारा 55 (ए), (जी) के तहत दोषी ठहराया गया था। दो साल के कारावास की सज़ा के साथ उस पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था। अपील के लंबित रहने के दौरान हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की मृत्यु के तथ्य पर गौर किया। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 394 के तहत सिद्धांत का हवाला देते हुए योग्यता के आधार पर अपील पर सुनवाई की। हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड पर सबूतों पर विचार करने के बाद दोषसिद्धि को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने यह विचार किया कि चूंकि अपीलकर्ता की मौत इस अपील पर सुनवाई के दौरान हो गई थी, इसलिए कारावास की सजा अयोग्य हो गई है। हालांकि, जुर्माना लगाने के संबंध में, हाईकोर्ट ने कहा कि कोई ऐसा कारण नहीं है, जिसके आधार पर यह कहा जाए कि निचली अदालत ने कोई गलती की है, इसलिए अपील को खारिज कर दिया गया। अभियुक्त के कानूनी उत्तराधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। अपील में दिया गया तर्क यह था कि जब कारावास के साथ-साथ जुर्माने की मिश्रित सजा होती है, तो अपील में दोनों कारावास की सजा के साथ-साथ जुर्माने को भी निरस्त करना होगा। न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एम.आर शाह की पीठ ने संहिता की धारा 431 के संदर्भ में शीर्ष अदालत के कुछ पूर्व निर्णयों का उल्लेख किया और कहा कि- उपर्युक्त निर्णय में स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है कि भले ही धारा 431 के तहत कारावास की सजा के साथ-साथ जुर्माने की सजा भी दी गई हो, इस तरह की अपील निरस्त नहीं होगी। धारा 431 (जुर्माने की सजा की एक अपील के अलावा) में जैसे विचार या अभिव्यक्ति प्रयोग किया गया है, ठीक ऐसी ही अभिव्यक्ति का उपयोग सीआरपीसी की धारा 394 में हुआ है। इस प्रकार, वर्तमान मामले में जहां अभियुक्त को कारावास के साथ-साथ जुर्माने के लिए सजा सुनाई गई थी, उसे जुर्माने के खिलाफ अपील के रूप में माना जाना चाहिए और उसे समाप्त नहीं करना चाहिए और हाईकोर्ट ने गुण या योग्यता के आधार पर अपील तय करने में कोई त्रुटि नहीं की थी। हालांकि, पीठ ने आंशिक रूप से अपील की अनुमति दी और कहा कि हाईकोर्ट को जुर्माने की सजा के खिलाफ अभियुक्त के कानूनी उत्तराधिकारियों को उनकी दलीलें पेश करने का एक मौका देना चाहिए था, जो जुर्माना बहुत अच्छी तरह से अभियुक्त की उस संपत्ति से वसूल किया जा सकता था जो कानूनी वारिसों के पास है।

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मध्यस्थता के तर्कहीन फ़ैसले मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत लोक नीति के विपरीत : हाईकोर्ट

मध्यस्थता के तर्कहीन फ़ैसले मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत लोक नीति के विपरीत : हाईकोर्ट

 “तर्क तथ्यों और निष्कर्षों के बीच संपर्क सूत्र है और वह आलोच्य मुद्दे के पीछे किस तरह का विचार काम कर रहा था, उसका परिचय देता है और यह नैरेटिव से निर्देश तक की यात्रा का पता देता है। तर्क किसी भी स्वीकार्य फ़ैसले की प्रक्रिया का जीवन-रक्त है और यह कि कोई फ़ैसले या आदेश तार्किक है कि नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनकी मात्रा नहीं बल्कि गुणवत्ता क्या है।” कलकत्ता हाईकोर्ट ने मध्यस्थता के एक फ़ैसले को निरस्त कर दिया। अदालत ने कहा कि फ़ैसला तर्क से परे है और इसमें दिमाग़ का प्रयोग नहीं हुआ है। अदालत ने दावेदार पक्ष को क़ानून के अनुरूप दुबारा अपने दावे पर आदेश प्राप्त करे। न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी और न्यायमूर्ति कौशिक चंदा की पीठ ने कहा कि अगर कोई फ़ैसला तर्कसंगत नहीं है तो यह एक ऐसा फ़ैसला होगा जो लोक नीति के ख़िलाफ़ होगा। पीठ ने कहा, "अगर कोई फ़ैसला किसी भी दावे के समर्थन में पर्याप्त कारण नहीं देता है तो यह फ़ैसला टिकाऊ नहीं हो सकता। इस तरह का आधार अधिनियम की धारा 34 के तहत आम नीति के ख़िलाफ़ भी होगा।" सड़क बनाने के एक ठेके को रद्द किए जाने के बाद यह मामला शुरू हुआ। राज्य का कहना था कि दावेदार-प्रतिवादी ने जानबूझकर परियोजना में देरी की और उनसे अतिरिक्त राशि ऐंठ लिए। प्रतिवादी का कहना था कि परियोजना में देरी के लिए राज्य ज़िम्मेदार है, क्योंकि उसे सही समय पर ज़मीन नहीं उपलब्ध कराई गई। प्रतिवादी के दावे को सही मानते हुए मध्यस्थ ने उसके पक्ष में फ़ैसला दिया और 10 मदों में उसे ₹15 करोड़ देने का आदेश दिया। इसके ख़िलाफ़ अपील में हाईकोर्ट ने प्रत्येक मदों की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि उद्देश्यपरक आधार नहीं होने के कारण कोई भी मद टिकाऊ नहीं है। अदालत ने कहा कि ठेकेदार की दलील के नोट को आदेश में काफ़ी जगह दी गई और इस आदेश में आकलन या मध्यस्थता की बात का पता नहीं चलता है जबकि यह मध्यस्था की प्रक्रिया की मुख्य बात है। अदालत ने कहा कि अगर ठेकेदार का दावा किसी अनुमान पर आधारित था, पर मध्यस्थ को यह बताना चाहिए था कि क्यों यह अनुमान उचित था। अदालत ने राज्य की इस दलील को माना कि आदेश में कॉपी किए गए हिस्से को निकाल दिया जाए और इस बात का आकलन किया जाए कि आदेश में इसके बाद जो बचता है वह तर्क और उचित मध्यस्थता की जाँच पर खड़ा उतरता है। इस तरह, इस आदेश को स्वीकृति नहीं दी गई। अदालत ने कहा, "…अगर कॉपी करने के आधार पर इस आदेश के तीन हिस्से को नज़रंदाज़ किया जाता है, क्योंकि इस तरह के हिस्से में सिर्फ़ बातें और तथ्य हैं, तो इस आदेश के व्यावसायिक ध्येय को टिकने का आधार ही नहीं मिलेगा अगर ठेकेदार के नोट से जो कॉपी किया गया है उसे निकाल दिया जाए और आदेश के तार्किक हिस्से का उस आधार पर आकलन किया जाए।" इसलिए यह कहते हुए कि यह आदेश लोक नीति के ख़िलाफ़ है, हाईकोर्ट इस आदेश को ख़ारिज करता है और ठेकेदार को निदेश देता है कि वह उस सारी राशि को ब्याज सहित लौटा दे जिसका भुगतान उसे किया गया है। उसे यह भी निर्देश दिया गया कि वह मध्यस्थ और अदालत के समक्ष मुक़दमे पर हुए ख़र्चे का वहन भी करेगा।

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/unreasoned-arbitral-awards-are-opposed-to-public-policy-us-34-of-arbitration-151951

क्या वकीलों को है विरोध प्रदर्शन या न्यायालय का बहिष्कार करने का अधिकार है?


क्या वकीलों को है विरोध प्रदर्शन या न्यायालय का बहिष्कार करने का अधिकार है?
न्यायालय, न्याय का एक ऐसा मंदिर है जहाँ एक हर कोई अपने विवाद को सुलझाने/निपटाने के लिए आता है। वकील एवं न्यायिक अधिकारी ऐसे लोगों को न्याय दिलाने में एक अहम् भूमिका निभाते हैं। यह भी अपेक्षा की जाती है कि जब कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाए तो हमे उसके लिए ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए जहाँ वो बिना किसी झंझट एवं परेशानी के अपने विवाद का निपटारा कर सके। हालाँकि, *अक्सर ही हम देखते हैं की वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई जाती है, जहाँ वे सभी प्रकार के न्यायिक कार्य से विरत रहते हैं।* इसके चलते न्याय के मंदिर में न केवल समय का, बल्कि आम-जन के पैसों का नुकसान भी होता है। हड़ताल के चलते न्यायिक कार्य से विरत रहने का निर्देश कई बार, बार एसोसिएशन की ओर से दिया जाता है, और कई बार वकीलों के एक विशेष समूह के द्वारा हड़ताल का आह्वान किया जाता है। दोनों ही मामलों में न्यायिक कार्यों में बाधा पहुँचती है एवं आम-जन को मुश्किल का सामना करना पड़ता है। अक्सर ऐसा होता है कि एक गरीब व्यक्ति, सुदूर गाँव से नियत तारीख पर अदालत आता है और वहां उसको पता चलता है कि अदालत में वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई गयी है, इसलिए उसका कार्य नहीं हो सकेगा। ऐसे व्यक्ति को न केवल मानसिक कष्ट पहुँचता है, बल्कि उसके वक्त और पैसे, दोनों की बर्बादी भी होती है। ऐसे करोड़ों लोग हैं जिन्हें वकीलों द्वारा बुलाई गयी हड़ताल के चलते मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जहाँ करोड़ों मुक़दमे हमारे देश की अदालतों में लंबित हों, वहां वकीलों का अनुचित प्रकार से हड़ताल पर जाना, बहुत ही निराशाजनक है। मुश्किलें तब और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं जब वकीलों द्वारा अपनी माँगों को लेकर न्यायालय का बहिष्कार किया जाता है, ऐसे मामलों में न्यायिक अधिकारी भी बेबस हो जाता है और वह हड़ताल/बहिष्कार को ख़त्म करने को लेकर ज्यादा कुछ नहीं कर पाता है।
         हालाँकि, *इसमें कोई दो राय नहीं है की वकीलों के भी अपने मुद्दे होते हैं,* जिसके लिए वे हड़ताल पर जाने का फैसला लेते हैं। लेकिन यह जरुर है की चूँकि वकीलों का पेशा ऐसा है जो यदि कार्यशील न रहे तो न्यायिक कार्य ठप हो जाता है, इसलिए उनका अनुचित प्रकार से हड़ताल पर जाना न्यायिक प्रक्रिया पर बेहद नकारात्मक प्रभाव डालता है। हाँ, वकीलों को अपनी वाजिब मांगों/मुद्दों को लेकर विरोध प्रदर्शन करने का हक अवश्य है, जिसपर हम आगे चर्चा भी करेंगे लेकिन वह किस प्रकार का विरोध होगा यह भी हम आगे लेख में जानेंगे। हम यह भी समझेंगे कि वे अपनी शिकायतों का निवारण किस फोरम में जाकर कर सकते हैं। इसके अलावा इस लेख में हम समझेंगे कि वकीलों द्वारा बुलाई जाने वाली हड़ताल एवं न्यायालय के बहिष्कार किये जाने को लेकर क्या है कानून। कुछ मामले जिनको लेकर वकील हड़ताल पर जाते हैं हड़ताल पर जाने के तमाम कारण होते हैं जिनमे से ज्यादातर अनुचित प्रतीत होते हैं। *उदहारण के लिए पाकिस्तान स्कूल में बम विस्फोट, श्रीलंका के संविधान में संशोधन, अंतरराज्यीय नदी जल विवाद में संशोधन, अधिवक्ता की हत्या/हमला, नेपाल में भूकंप, अपने निकट संबंधियों की मृत्यु पर शोक स्टेट, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आंदोलनों का नैतिक समर्थन, भारी बारिश, या कुछ धार्मिक अवसरों जैसे श्राद्ध, अग्रसेन जयंती, आदि पर या यहाँ तक कि कवि सम्मेलन के लिए भी हमारे देश में वकीलों द्वारा हड़ताल बुलाई गई है/जाती है।*  इसके अलावा एक मुख्य समस्या जो उभर कर आती है वो है वकीलों द्वारा न्यायालय या किसी विशेष न्यायिक अधिकारी का बहिष्कार किया जाना, इसके चलते भी अदालत का काफी समय बर्बाद होता है और न्यायिक अधिकारी एवं वकीलों के बीच दूरी भी बढती है जिन्हें आमतौर पर समन्वय के साथ मिलकर कार्य करना चाहिए। न्यायपालिका, लोकतंत्र का एक स्तम्भ है जहां वकील-गण, अदालतों के अधिकारी के तौर पर कार्य करते हैं जिनकी न केवल अदालत के प्रति, अपने क्लाइंट के प्रति बल्कि समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेदारियां होती हैं। इन जिम्मेदारियों का प्रदर्शन, लोगों को न्याय देने में एक अहम् भूमिका निभाते समय प्रभावी ढंग से करने की आवश्यकता होती है। न्याय प्राप्त करना हम सभी का मूलभूत अधिकार है और ऐसा *करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य 1994 SCC (3) 569* में भी अभिनिर्णित किया गया, जहाँ यह कहा गया कि *'स्पीडी ट्रायल' का अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है।* हालाँकि हाल के वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब वकीलों ने हड़ताल और विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया। इनमे से एक प्रमुख कारण, बार और बेंच के बीच संघर्ष है। शीर्ष न्यायालयों द्वारा सुनाये गए विभिन्न निर्णयों के बावजूद, वकीलों ने हड़ताल पर जाना जारी रखा है। जो वकील कानूनी मूल्यों के रक्षक होने चाहिए थे, उन्होंने स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को धता बताकर अदालत के भरोसे को कई बार तोड़ा है। *इन तमाम संघर्षों के बीच न्याय पाने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति असली पीड़ित है, जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अपने मौलिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है।*
        क्या वकीलों को न्यायालय का बहिष्कार करने का है अधिकार? तार्किक यही लगता है कि यदि कोई वकील किसी विशेष अदालत में पेश नहीं होना चाहता है, और वह भी उचित कारणों के चलते तो पेशेवर शिष्टाचार यही कहता है कि उसे उस अदालत में चल रहे अपने क्लाइंट के मामले से हट जाना चाहिए ताकि वह पक्षकार किसी दूसरे वकील को मामले में संलग्न कर सके। लेकिन अपने मुवक्किल के ब्रीफ/मामले को अपने पास रखना और उसी समय उस अदालत में पेश होने से परहेज करना, वह भी किसी विशेष कारण - जैसे वकील की कुछ व्यक्तिगत असुविधा के कारण नहीं, बल्कि एक स्थायी प्रक्रिया के रूप, अपने आप में अव्यवसायिक है। वकीलों के किसी भी संघ द्वारा दिए गए हड़ताल के आह्वान या अदालतों के सामान्य या किसी विशेष अदालत के बहिष्कार के निर्णय के कारण कोई भी न्यायालय, किसी मामले को स्थगित करने के लिए बाध्य नहीं है। अदालत के कामकाज के घंटों के दौरान न्यायिक कार्यों के साथ आगे बढ़ना हर अदालत का एकमात्र कर्तव्य है और यदि एक वकील या वकीलों का समूह अदालत का बहिष्कार नियत रूप से कर रहा है तो अदालत उस मामले के साथ बिना वकीलों की उपस्थिति में आगे बढ़ सकती है। किसी भी अदालत को दबाव की रणनीति या बहिष्कार करने की घटना का समर्थन किसी भी तरह से नहीं करना चाहिए - *महाबीर प्रसाद सिंह बनाम जैक एविएशन प्राइवेट लिमिटेड (1999) 1 SCC। कोलूटूमोट्टल रजाक बनाम केरल राज्य (2000) 4 SCC 465* के मामले में, एक वकील कोर्ट में उपस्थित नहीं हुए, क्योंकि अधिवक्ताओं ने हड़ताल का आह्वान किया था। अब चूंकि अपीलार्थी जेल में बंद था, इसलिए अदालत ने यह कहा कि मामले के स्थगन को उचित नहीं ठहराया जाएगा। न्यायालय ने यह माना कि इस मामले को स्वयं देखना न्यायालय का कर्तव्य है। आर्टिकल 19 के तहत वकीलों द्वारा हड़ताल का अधिकार संवैधानिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार हड़ताल करते हुए अपनी बात रखने का अधिकार, संविधान के भाग III द्वारा प्रदान किया गया है, जो कि 19 (c) की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत है, जहां एक समान हित रखने वाले लोगों का समूह एक साथ आ सकता है और अपने अधिकारों की मांग कर सकता है। हालाँकि, अनुच्छेद 19 के तहत संघ की स्वतंत्रता एक पूर्ण अधिकार नहीं है, इस पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसलिए कानूनी पेशे में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वकीलों को हड़ताल का आह्वान करने का अधिकार है। *सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि वकीलों की हड़ताल गैरकानूनी है* और हड़ताल पर जाने की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए। एक मुकदमे में पक्षकारों को त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है। जैसा कि *हुसैनारा खातून बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य (1980) 1 SCC 81: (AIR 1979 1979 1360)* के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया है कि त्वरित न्याय पाने का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक अभिन्न और आवश्यक हिस्सा है। वकीलों द्वारा हड़ताल पर जाना, पक्षकारों के उपर्युक्त मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा और इस तरह के उल्लंघन की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अगर यह मान भी लिया जाये कि वकील, संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) द्वारा गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने मौलिक अधिकार के प्रयोग में हड़ताल के माध्यम से अपनी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं तो भी इस अनुच्छेद के तहत उनका यह अधिकार वहां समाप्त हो जाएगा जहाँ इस अधिकार के प्रयोग से किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन होने का खतरा है। इस तरह की सीमा अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अधिकार के अभ्यास में अंतर्निहित है। इसलिए, मुकदमे के त्वरित निपटारे के वादियों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हुए वकील हड़ताल पर नहीं जा सकते हैं। और जैसा कि *एक्स कप्तान हरीश उप्पल बनाम भारत संघ (2003) 2 SCC 45* के मामले में कहा गया है, किसी भी पेशे का अभ्यास करने का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (जी) द्वारा गारंटीकृत है, इसके अंतर्गत किसी भी तरह के पेशे को बंद करने का अधिकार भी शामिल हो सकता है, लेकिन इसके अंतर्गत अदालत में वकालत करते हुए किसी अदालत के सामने उपस्थित होने से बचने या इंकार करने का कोई अधिकार शामिल नहीं होगा। विरोध जताने के लिए क्या करें वकील? *हुसैन बनाम भारत संघ 2017 (5) SCC 702* के मामले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वकीलों की हड़ताल और उनके द्वारा अदालत का बहिष्कार किया जाना पूर्ण रूप से अवैध है और यह वो समय है जब हम कानूनी बिरादरी समाज के लिए अपने कर्तव्य का एहसास करें जोकि सबसे महत्वपूर्ण है। *कृष्णकांत ताम्रकार बनाम मध्य प्रदेश राज्य AIR 2018 SC 3635* के मामले में भी कहा गया कि हर हड़ताल से, न्यायिक प्रणाली, विशेषकर न्याय कि मांग करने वाले लोगों को अपूरणीय क्षति होती है। उन्हें न्याय तक पहुंच के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। करदाताओं का पैसा न्यायिक और सार्वजनिक समय खो जाने के कारण बर्बाद हो जाता है। *एक्स कप्तान हरीश उप्पल बनाम भारत संघ (2003) 2 SCC 45* के मामले में अदालत ने यह माना है कि वकीलों को हड़ताल पर जाने या बहिष्कार का आह्वान करने का कोई अधिकार नहीं है, वे टोकन हड़ताल पर भी नहीं जा सकते हैं। हाँ, अगर उन्हें किसी प्रकार का विरोध करना है और यदि ऐसा करना आवश्यक है, तो वे केवल प्रेस स्टेटमेंट, टीवी साक्षात्कार, कोर्ट परिसर के बाहर बैनर और/या तख्तियां लेकर, काले या सफेद या किसी भी रंग के कपड़े पहने हुए, शांतिपूर्ण विरोध मार्च आदि जैसे कार्य कर सकते हैं।
            इसके अलावा *अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 7 के खंड (d) के अंतर्गत वकीलों के अधिकारों, विशेषाधिकारों, और उनके हितों की रक्षा की जिम्मेदारी 'बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया' को दी गयी है,* इसलिए वकीलों की शिकायतों की सुनवाई की जानी चाहिए और कौंसिल द्वारा आगे के कदम उठाए जाने चाहिए, ताकि उन मुद्दों से निपटा जा सके जिसका वे सामना कर रहे हैं। *भारत के विधि आयोग की 266वीं रिपोर्ट में यह सुझाव* दिया गया था कि प्रत्येक जिला मुख्यालय पर, जिला न्यायाधीश एक न्यायिक अधिकारी की अगुवाई में एक *'अधिवक्ता शिकायत निवारण समिति'* का गठन कर सकते हैं जो दिन प्रतिदिन के मामलों से निपटेगी, और बड़ी संख्या में अधिवक्ताओं के सुचारू कामकाज से जुडी शिकायतों को सुन सकेगी। इस संबंध में, उच्च न्यायालय, अधिवक्ताओं की शिकायतों के निवारण के लिए संविधान के अनुच्छेद 235 के तहत अपनी शक्ति के अभ्यास में एक परिपत्र जारी कर सकता है जो वकीलों कि दक्षता में सुधार करने में मदद करेगा। यदि किसी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ कुछ शिकायत है, तो सम्बंधित बार, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शिकायत उठा सकता है। इन सुझावों को ध्यान में रखते हुए अधिवक्ताओं की शिकायतों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अंत में, हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने *ईश्वर शांडिल्य बनाम उत्तराखंड राज्य एवं अन्य* के मामले में कहा की वकीलों द्वारा अदालतों में हड़ताल करना/अदालत के बहिष्कार का सहारा लेना अवैध है और यह भी एक कदाचार है, जिसके लिए स्टेट बार काउंसिल और इसकी अनुशासन समितियों द्वारा अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। अदालत ने आगे कहा कि "विरोध के अन्य तरीके, जो अदालती कार्यवाही में बाधा नहीं डालते हैं या न्याय को गति देने के लिए मुकदमों के मौलिक अधिकारों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं करते हैं, उनका सहारा लिया जा सकता है। एक उचित कारण के मामले में, अधिवक्ता जिला न्यायाधीश या उच्च न्यायालय में अपना प्रतिनिधित्व देकर अपनी बात कह सकते हैं। विरोध करना यदि बहुत आवश्यक हो तो प्रेस में बयान देने, टीवी साक्षात्कार, बैनर और/या अदालत परिसर के बाहर तख्तियां, काले या सफेद या किसी भी रंग के मेहराब पहने हुए, शांतिपूर्ण विरोध मार्च जैसे अन्य तरीकों का सहारा लिया जा सकता है। जहां बार और/या बेंच की गरिमा, अखंडता और स्वतंत्रता दांव पर है, ऐसी स्थिति में सिर्फ एक दिन के लिए काम से दूर रहा जा सकता। इसके लिए बार के अध्यक्ष को पहले मुख्य न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश से परामर्श करना चाहिए और इस बारे में मुख्य न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश का निर्णय अंतिम होगा।"
https://hindi.livelaw.in/know-the-law/can-an-advocate-do-protest-151720

टेप कर लिया गया हो तो ऐसी टेप सुसंगत होगी

 *आर एम मलकानी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया जब कोई ऐसी बातचीत चल रही हो जो किसी व्यवहार का भाग होने के नाते से सुसंगत है तो यदि उसे तत्काल टेप कर लिया गया हो तो ऐसी टेप सुसंगत होगी।* यह रेस जेस्टे होगी। 

साक्ष्य विधि : क्या होती है एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति, जानिए रेस जेस्टे का सिद्धांत

साक्ष्य विधि : क्या होती है एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति, जानिए रेस जेस्टे का सिद्धांत

साक्ष्य विधि का कार्य उन नियमों का प्रतिपादन करना है, जिनके द्वारा न्यायालय के समक्ष तथ्य साबित और खारिज किए जाते हैं। किसी तथ्य को साबित करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जा सकती है, उसके नियम साक्ष्य विधि द्वारा तय किये जाते हैं। साक्ष्य विधि अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है। समस्त भारत की न्याय प्रक्रिया भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की बुनियाद पर टिकी हुई है। साक्ष्य अधिनियम आपराधिक तथा सिविल दोनों प्रकार की विधियों में निर्णायक भूमिका निभाता है। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही यह तय किया जाता है कि सबूत को स्वीकार किया जाएगा या नहीं किया जाएगा। क्या होता है सबूत का भार? जानिए साक्ष्य अधिनियम की खास बातें अधिनियम को बनाने का उद्देश्य साक्ष्यों के संबंध में सहिंताबद्ध विधि का निर्माण करना है, जिसके माध्यम से मूल विधि के सिद्धांतों तक पहुंचा जा सके। इस साक्ष्य अधिनियम के माध्यम से ही जो इतने सारे अधिनियम बनाए गए हैं, उनके लक्ष्य तक पहुंचा जाता है। कोई भी कार्यवाही या अभियोजन चलाया जाता है, अभियोजन पूर्ण रूप से इस अधिनियम पर ही आधारित होता है। बिना साक्ष्य अधिनियम के अभियोजन चलाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है तथा किसी भी सिविल राइट को बरकरार नहीं रखा जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम 1872 अपने निर्माण से आज तक सबसे कम संशोधित किया गया है। साक्ष्य अधिनियम में क्या है रेस जेस्टे का सिद्धांत : साक्ष्य विधि में रेस जेस्टे के सिद्धांत का अत्यधिक महत्व है। यह सिद्धांत विश्व भर की साक्ष्य विधियों में अलग-अलग नामों से लागू किया गया है। भारत में इस सिद्धांत को साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 6 के अंतर्गत लागू किया गया है। साक्ष्य अधिनियम 1872 (Indian Evidence Act 1872) की धारा 6 के अनुसार, एक ही संव्यवहार के भाग होने वाले तथ्यों की सुसंगति- 'जो तथ्य विवाधक न होते हुए भी किसी भी विवाद्यक तथ्य से उस प्रकार संसक्त है कि वे एक ही संव्यवहार के भाग हैं, वे तथ्य सुसंगत है, चाहे वे उसी समय और स्थान पर या विभिन्न समय और स्थान पर घटित हुए हैं।' साक्ष्य अधिनियम की यह धारा बताती है कि कोई तथ्य विवाद्यक ना होकर भी यदि किसी एक व्यवहार का हिस्सा है तो सुसंगत माने जा सकते हैं। शब्द रेस जेस्टे का शाब्दिक अर्थ है संबंधित तथ्य। ऐसे तथ्य जो एक ही संव्यवहार के भाग माने जाते हैं। जैसे किसी भी घटना के लिए अलग-अलग तथ्य होते हैं, ये तथ्य किसी एक संव्यवहार का हिस्सा होते हैं। ये सब आपस में जुड़ते हैं और कोई एक संव्यवहार का जन्म होता है। इस बात को इस सरल उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है : जैसे राम ने एक तलवार श्याम से खरीदी थी।खरीदने के बाद उसने इस तलवार से धर्मेंद्र की हत्या कारित की।राम तलवार खरीदने किसी अन्य स्थान गया वहां से तलवार खरीद कर लाया।किसी अन्य स्थान पर उसने धर्मेंद्र की हत्याकांड की।धर्मेंद्र की हत्या राम द्वारा उसी तलवार से की गई जिस तलवार को उसने श्याम से कुछ रुपयों में किसी प्रतिफल के बदले खरीदा था। श्याम से तलवार खरीदना,तलवार खरीदने श्याम के नगर जाना,उसके बदले श्याम को प्रतिफल देना,किसी अन्य स्थान पर जाकर धर्मेंद्र की हत्या करना यह सब कुछ सुसंगत तथ्य है। इन सभी का केवल एक ही लक्ष्य है, इससे यह सभी एक ही संव्यवहार के भाग हैं तथा सब तथ्य मिलकर किसी एक लक्ष्य को भेदना चाहते हैं। एक संव्यवहार धर्मेंद्र की हत्या कारित करना है। राम का श्याम से तलवार खरीदना तथा उसे प्रतिफल के बदले कुछ देना यह तो सिद्ध नहीं करता है की राम द्वारा धर्मेंद्र की हत्या की गई है, परंतु यह सिद्ध जरूर करता है की राम का तलवार खरीदने का कारण किसी व्यक्ति को क्षति पहुंचाना ही था, क्योंकि तलवार का क्रय करना भारत की सीमाओं के भीतर अपराध है। राम द्वारा ऐसा अपराध कारित किया गया, उसने तलवार खरीदी थी। इसका आशय यह था कि वह किसी को क्षति पहुंचाना चाहता था। इस धारा का सिद्धांत यह है कि जब कोई संव्यवहार जैसे कि कोई संविदा या अपराध विवाधक तथ्य हो तो प्रत्येक ऐसे तथ्य का साक्ष्य दिया जाता है,जो उसी संव्यवहार का एक भाग है। रेस जेस्टे शब्द भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 में प्रयोग नहीं किए गए हैं। कारण यह है कि यह सिद्धांत अनिश्चितता को जन्म देता है। यह शब्द लेटिन भाषा के है। उनके शाब्दिक अर्थ है-'जो काम किया गया है' जब अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए तो अर्थ या होंगे 'ऐसे कथन तथा कार्य जो किसी संव्यवहार के साथ हुए हैं।' जो मामले न्यायालय के सामने आते है उनमें कोई ना कोई घटना छिपी रहती है। प्रत्येक घटना से जुड़े हुए कुछ कार्य या लोप तथा कुछ कथन होते हैं। ऐसा कार्य या कथन जिससे संव्यवहार की प्रकृति का कुछ प्रकाश पड़ता है या जो उसके सही रूप को दर्शाता है उसे संव्यवहार का भाग कहा जाता है, इसका साक्ष्य दिया जा सकता है। अर्थात राम ने कोई तलवार श्याम से खरीदी थी इसका साक्ष्य दिया जा सकता है। इस सिद्धांत और साक्ष्य अधिनियम की इस धारा के अंतर्गत एक बड़ा महत्वपूर्ण मामला है, इसे 'रटन बनाम क्वीन' का मामला कहा जाता है। इस मामले में एक व्यक्ति पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप था। उसका कहना था कि गोली दुर्घटनावश चल गई थी। एक साक्ष्य यह था कि अभियुक्त की पत्नी ने टेलीफोन मिलाया और ऑपरेटर लड़की से कहा-मुझे पुलिस दीजिए। ऑपरेटर अभी कुछ भी नहीं कह पाई थी कि स्त्री जो बहुत तकलीफ से बोल रही थी, उसने जल्दी से अपना पता बताया और कॉल ठप हो गई। ऑपरेटर ने पुलिस को सूचित कर दिया। पुलिस वहां पहुंची और स्त्री का शव वहां पर पाया गया। उसके द्वारा टोलीफोन करना और पुलिस मांगना, उसकी हत्या के संव्यवहार का भाग माना गया। माना गया की घबराहट की हालत में उसका टेलीफोन करना, उसकी हत्या की आशंका को दर्शाता है। यह घटना दुर्घटनावश नहीं थी, किसी दुर्घटना से पीड़ित होने वाला व्यक्ति स्वपन में भी नहीं सोच सकता कि वह दुर्घटना से पहले ही पुलिस बुला ले। रेस जेस्टे के सिद्धांत का यही एक लाभ है। यह न्यायालय को प्रत्येक संव्यवहार के सभी आवश्यक अंग ध्यान में लेने के अनुज्ञा देता है। रेस जेस्टे में कथन का महत्व- अधिनियम धारा 6 के अंतर्गत तथा इस सिद्धांत के अंतर्गत कथन का अत्यधिक महत्व है। सिद्धांत के अंतर्गत या माना गया है यह कथन संव्यवहार से बिल्कुल जुड़ा होना चाहिए। कथन और संव्यवहार के बीच में इतनी लंबी दूरी नहीं होना चाहिए कि कथन पर विश्वास करने के संबंध में संशय होने लगे। इस संबंध में जनतेला वी राव बनाम स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश ए आई आर 1996 एस सी 2791 का एक अच्छा प्रकरण है। इस मामले में एक बस मेंआग लगा दी गई थी, जिसमें कई लोग घायल हुए थे जिन्हें अस्पताल पहुंचाया गया था। मजिस्ट्रेट ने इनके कथन लिखे। इन कथनों को एक ही संव्यवहार में नहीं माना गया क्योंकि घटना के काफी समय पश्चात ये दर्ज किए गए। आर बनाम बैंडिंगफील्ड के मामले में ऐसे कथनों का महत्व बताया गया है। जहां एक घायल महिला कमरे से निकली और निकल कर उसने कहा-ओ माय डिअर चाची देखिए बैंडिंगफील्ड ने मेरा क्या हाल किया। महिला का गला कटा हुआ था, परन्तु इस घटना के बहुत देर बाद वह कमरे से निकल कर आयी और उसमें अपनी चाची को यह कथन कहा। न्यायलय ने इस कथन को ग्राहम नहीं माना इस तथ्य को सुसंगत भी नहीं माना गया। कथन घटना से अत्यंत जुड़ा होना चाहिए क्योंकि भी व्यक्ति जब घायल किया जाएगा तो वह मदद मांगेगा या प्रतिरोध करेगा, लेकिन इस घटना में ऐसा कुछ नहीं था। एक ऐसा ही प्रकरण भारतीय उच्चतम न्यायालय का भी है। उस प्रकरण को *आर एम मलकानी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया जब कोई ऐसी बातचीत चल रही हो जो किसी व्यवहार का भाग होने के नाते से सुसंगत है तो यदि उसे तत्काल टेप कर लिया गया हो तो ऐसी टेप सुसंगत होगी।* यह रेस जेस्टे होगी। एक वारदात जिसमें एक महिला बंदूक की गोली से मृत्यु को प्राप्त हुई, उसने घटना के कुछ ही समय पूर्व चीख कर कहा था कि उसके पास कोई व्यक्ति बंदूक लिए खड़ा था। यह कथन समय के हिसाब से घटना के इतना निकटतम था कि उसे संव्यवहार का भाग माना गया।

https://hindi.livelaw.in/know-the-law/indian-evidence-act-1872-151914

क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार

क्या सांसद/विधायक वकालत कर सकते हैं, जानिए अधिवक्ता अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का विचार

 वकालत पेशे से जुड़ा हर व्यक्ति यह मानता और महसूस करता है कि वकील, मुखर प्रकृति के होते हैं और वे अपनी तार्किक सोच के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। कानून की शिक्षा ग्रहण करने के पश्च्यात, उन्हें कानून को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है। अंतत: देश को कानून के शासन के अनुसार ही चलना होता है। यही कारण है कि हमारे संसद में और विभिन्न राज्यों के विधायी सदनों में हमे तमाम कानून के जानकार एवं वकील, सदस्य के रूप में दिखाई पड़ते हैं। जैसा कि हम जानते हैं, कानून बनाना विधायिका का कार्य है और इसमें वकीलों का सीधे तौर पर तो कोई हस्तक्षेप नहीं होता है, लेकिन हाँ, यदि हम संसद/विधानसभाओं/विधानपरिषदों में मौजूद तमाम सदस्यों को देखें तो हम यह पाएंगे कि उनमे से कई सदस्यगण या तो वकालत कर चुके हुए होते हैं या उन्होंने कानून की शिक्षा ले रखी होती है। आजादी से लेकर अबतक, संसद और प्रत्येक राज्य के विधायी सदनों के सदस्यों के शैक्षिक एवं उनके पेशे को देखकर यह बात साबित भी की जा सकती है। हम यह भी जानते हैं कि जब भी कोई कानून, विधायिका द्वारा बनाया जाता है, तो उससे पहले जब उसकी ड्राफ्टिंग होती है या उसपर आंतरिक चर्चा होती है तो उसमे भी कानून के जानकर/वकीलों द्वारा (या सदन के सदस्यों के रूप में, कमिटी सदस्य के रूप में या अन्यथा) एक अहम् भूमिका निभाई जाती है एवं उनकी भी राय ली जाती है जिससे वह कानून बेहतर से बेहतर हो सके। यहाँ यह सवाल अवश्य उठता है कि जब कानून बनाने की प्रक्रिया एवं उसे पारित करने में वकालत पेशे से जुड़े व्यक्तियों की भी एक अहम् भूमिका होती है तो क्या हमारे संसद एवं विधानसभा/विधानपरिषद् सदस्यों को, किसी सदन का हिस्सा होते हुए वकालत करने की अनुमति दी जानी चाहिए? यह सवाल इसलिए बेहद अहम् है क्योंकि जहाँ एक ओर जनप्रतिनिधि होने के नाते एक व्यक्ति को सरकारी फण्ड से वेतन/भत्ता प्राप्त होता है और उसका ज्यादातर समय जनप्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हुए बीतता है, वहीँ दूसरी ओर अधिवक्ता अधिनियम, 1961, एक वकील से यह अपेक्षा रखता है कि वह इस पेशे के प्रति पूर्णकालिक संलग्नता बनाये रखे और जब वो कहीं और से वेतन प्राप्त कर रहा हो तो वह वकील के तौर पर अदालत में प्रैक्टिस न करे। इस लेख में हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्या एक सांसद या विधायक को वकालत करने की अनुमति है। वकालत पेशा: एक पूर्णकालिक गतिविधि? जैसा कि हम अनुभव करते हैं, वकालत का पेशा एक पूर्णकालिक गतिविधि है। यह जगजाहिर है कि एक वकील को हर अगले दिन, अदालत में बहस के लिए अपने मामलों को तैयार करने के लिए हर रोज काफी मेहनत करनी पड़ती है। जब वकील अदालतों में अपने मुवक्किल के लिए पेश होते हैं तो यह प्रतिदिन किसी परीक्षा से गुजरने जैसा होता है। अदालत में घंटों की मेहनत के बाद वकीलों को अपने या अपने सीनियर के चैंबर में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। वकील को अपने क्लाइंट की दिक्कतों/समस्याओं को सुनना और सुलझाना होता है, उसकी काउन्सलिंग करनी पड़ती है और नए मुवक्किलों की परामर्श के लिए भी स्वयं उपलब्ध होना पड़ता है। एक वकील के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को जारी रखने एवं अपने क्लाइंट के हितों को सर्वोपरि रखने के लिए वकीलों को अपने पेशे पर पूरा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है। अपने कानूनी पेशे के अलावा अन्य महवपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देने से निश्चित रूप से एक वकील की पेशेवर क्षमता और विशेषज्ञता पर प्रभाव पड़ता है। बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स क्या कहता है? यह निर्विवाद है कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिवक्ताओं के नामांकन और अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण के सम्बन्ध में नियमों और शर्तों को विनियमित करने का कार्य और कर्तव्य दिया गया है। गौरतलब है कि वकीलों के लिए वकील के तौर पर बने रहने के लिए जिन शर्तों/प्रतिबंधों को लागू किया जाना है, वे उचित होने चाहिए। जैसा कि हम जानते हैं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार भी, किसी भी व्यक्ति को किसी भी पेशे को अपनाने के लिए दिया गया अधिकार, अपने आप में एक पूर्ण अधिकार नहीं होता है और इस अधिकार के उपयोग पर उचित प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। हालाँकि यह जरुरी है कि यह प्रतिबंध, स्पष्ट रूप से या तो अधिवक्ता अधिनियम, 1961 या उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के तहत होने चाहिए (एवं ये अनुचित नहीं होने चाहिए)। उक्त अधिनियम का अध्याय IV, एक व्यक्ति के एक वकील के रूप में प्रैक्टिस करने के अधिकार से संबंधित है। अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 49, उप-धारा (1) (ए) से (जे) में निर्दिष्ट मामलों के तहत अपने कार्यों के निर्वहन के लिए नियम बनाने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को अधिकार देती है। बार काउंसिल, पहले ही उक्त अधिनियम की धारा 16 (3) और 49 (1) (जी) के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग में, वकीलों द्वारा अन्य व्यवसाय/पेशे को अपनाने पर प्रतिबंध के बारे में नियम तैयार कर चुकी है। उक्त नियमों के भाग VI में सेक्शन VII, हमारे आज के लेख के विषय से संबंधित है, जिसका नियम 49 यह कहता है कि, कोई एडवोकेट, अगर वह प्रैक्टिस कर रहा है, तो उसको उस दौरान किसी लाभ के पद (वेतन प्राप्त होने वाली नौकरी) पर आसीन नहीं होना चाहिए। रूल 49 - एक अधिवक्ता किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी नहीं होगा, इसलिए जब तक वह इस तरह के किसी भी रोजगार को जारी रखता है, और इस तरह के रोजगार लेने पर, वह व्यक्ति/अधिवक्ता उस बार काउंसिल को यह तथ्य बताएगा जिसके रोल के अंतर्गत उसका नाम मौजूद है और वह अधिवक्ता के रूप में अभ्यास करना तबतक बंद कर देगा, जब तक कि वह ऐसे रोजगार में रहना जारी रखता है। दरअसल यह नियम, वकालत पेशे के प्रति वकीलों का सम्पूर्ण ध्यान एवं समर्पण सुनिश्चित करने और अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए लागू किया गया है, ताकि वकील, अदालत के एक अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका को असल मायनों में पूरा कर सकें और न्याय के प्रशासन में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। और इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नियम, किसी भी तरह से मनमाना है या यह वकीलों पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है। डॉक्टर हनिराज एल. चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा 1996 SCC (3) 342 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि एक व्यक्ति, जो एक वकील होने के योग्य है, उसे वकील के रूप में प्रैक्टिस करने की इजाजत उन मामलों में नहीं दी जा सकती जहाँ वह पूर्णकालिक या अंशकालिक सेवा या रोजगार में है। हालांकि, बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया रूल्स का नियम 49 वहां लागू होता है, जहां एक वकील, किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या कंसर्न का पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी होता है। स्पष्ट रूप से, विधायकों या सांसदों को पूर्ण वेतनभोगी कर्मचारियों की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। हम इस बात को लेख में आगे समझेंगे। सांसदों एवं विधायकों के कार्य की प्रकृति सांसदों और विधायकों का कार्य अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण होता है; वे संसद और विधानसभाओं/विधानपरिषदों के पूर्णकालिक होते सदस्य हैं। उन्हें सदन की कार्यवाही में भाग लेना होता है, अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लोगों से मिलना होता है, और लोगों के मुद्दों से जूझना पड़ता है। उनके काम को सुविधाजनक बनाने के लिए, उन्हें एक बंगला और एक कार, एक कार्यालय और वेतन भी दिया जाता है जिससे वे अपना कार्य बेहद सुचारू ढंग से कर सकें। जैसा कि हमने जाना, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियम 49 में यह कहा गया है कि कोई भी पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी, चाहे वह निगम का हो, निजी फर्म का हो या सरकार का हो, कानून की अदालत के समक्ष वकील के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर सकता है। कोई भी लोक सेवक, किसी अन्य पेशे/व्यवसाय में संलग्न नहीं हो सकता है और निश्चित रूप से वह लोक सेवा में रहते हुए वकील के रूप में अपनी सेवाएं नहीं दे सकता है। एम. करुणानिधि बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1979) 3 SCC 431 के मामले में 5 न्यायाधीशों वाली बेंच ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि सांसद और विधायक, जनता के सेवक हैं (हालांकि नियोक्ता-कर्मचारी संबंध उनके लिए लागू नहीं होंगे)। दरअसल श्री करुणानिधि ने उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोप से सम्बंधित इस मामले में यह तर्क दिया था कि वह एक लोक सेवक नहीं थे। सांसदों/विधायकों/एमएलसी की स्थिति, सदन (संसद/राज्य विधायी सदन) के सदस्य की होती है। सिर्फ यह तथ्य कि वे The Salary, Allowances and Pension of Members of Parliament Act, 1954 के तहत या उक्त अधिनियम के तहत बनाए गए संबंधित नियमों के तहत, अलग-अलग भत्तों के तहत वेतन प्राप्त करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि सरकार और विधायकों/सांसदों के बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer-Employee) के संबंध का निर्माण हो जाता है। भले ही उनके द्वारा प्राप्त भुगतान को वेतन का नाम दिया जाता हो। वास्तव में, विधायकों/सांसदों को लोक सेवक माना जाता है, लेकिन उनकी स्थिति सुई जेनेरिस है और निश्चित रूप से वे किसी भी व्यक्ति, सरकार, फर्म, निगम या इस तरह के कंसर्न के पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारी में से एक नहीं बन जाते है (इसलिए बार काउंसिल रूल्स का रूल 49 उनपर लागू नहीं हो सकता है)। इसके अलावा सदन के अध्यक्ष द्वारा विधायकों/सांसदों के खिलाफ अनुशासनात्मक या विशेषाधिकार कार्रवाई शुरू की जा सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें पूर्णकालिक वेतनभोगी कर्मचारियों के रूप में माना जा सकता है। क्या विधायक एवं सांसद को वकालत करने की है अनुमति? हालाँकि, इस सवाल का जवाब शायद आपको अबतक मिल गया होगा, लेकिन फिर भी यदि एक वाक्य में कहना हो तो हम यह कह सकते हैं कि सांसदों एवं विधायकों को वकालत करने से रोकने के सम्बन्ध में कोई भी नियम मौजूद नहीं है। अर्थात, वे बिना रोक-टोक वकालत कर सकते हैं। इसके अलावा वर्ष 2018 में अश्विनी उपाध्याय बनाम भारत संघ [WRIT PETITION (CIVIL) NO।95 OF 2018] के मामले में अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के अंतर्गत ऐसा कोई सीधा प्रावधान/नियम नहीं है जो यह सुझाव दे सके कि चुने गए जनप्रतिनिधियों, सांसदों/विधायकों/ एमएलसी पर एक वकील बने रहने के सम्बन्ध में कोई प्रतिबंध लगाया गया है। अदालत ने यह भी कहा कि जब ऐसा कोई नियम/प्रावधान अधिनियम में मौजूद नहीं है तो न्यायालय द्वारा, जनप्रतिनिधियों को उस समय के दौरान जब वे सांसद/विधायक/एमएलसी हैं, अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने से वंचित नहीं किया जा सकता है। जैसा कि डॉ. हनिराज एल चुलानी के मामले में अदालत द्वारा कहा गया है, यह बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कर्त्तव्य है कि वे अपनी नियमावली के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों को जगह दें। आज तक, चुने हुए जनप्रतिनिधियों पर वकालते प्रैक्टिस करने पर प्रतिबंधित लगाने के लिए कोई नियम नहीं बनाया गया है, इसलिए उनपर अदालत में वकील के रूप में प्रैक्टिस करने पर कोई रोक नहीं है। यह हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी संसद एवं राज्यों के विधायी सदन, विभिन्न प्रतिभाओं, विभिन्न अनुभवों और विभिन्न व्यावसायिक कौशल द्वारा समृद्ध होने के हकदार हैं।

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जांच से पहले एफआईआर दर्ज न करने के मामले में पुलिस को फटकार लगाई

जांच से पहले एफआईआर दर्ज न करने के मामले में पुलिस को फटकार लगाई

''ऐसा लगता है कि उन्हें आपराधिक कानून का प्राथमिक ज्ञान नहीं है''कर्नाटक हाईकोर्ट ने जांच से पहले एफआईआर दर्ज न करने के मामले में पुलिस को फटकार लगाई
 कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को चाइल्ड पोर्नोग्राफी के कथित मामले की जांच करने से पहले प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं करने के मामले में राज्य सरकार और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में संज्ञेय अपराध की जांच से पहले एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य किया था। मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति हेमंत चंदागौदर की खंडपीठ ने कहा, ''ऐसा लगता है कि उनको (पुलिस अधिकारी) आपराधिक कानून का प्राथमिक ज्ञान नहीं है।'' पीठ ने यह अवलोकन पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिरीक्षक नीलमणि एन राजू द्वारा दायर एक हलफनामे पर किया। इस हलफनामे में यह कहा गया कि ''भारत सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट पहले कोर्ट के समक्ष पेश की गई थी। हालांकि, यह इस तथ्य को देखते हुए आश्चर्य है कि कर्नाटक में कहीं भी इस तरह की किसी भी चाइल्ड पोर्नोग्राफी की घटना के आरोप नहीं हैं। कर्नाटक स्टेट इंटीग्रेटेड चाइल्ड प्रोटेक्शन सोसाइटी ने उन स्थानों की जानकारी दी थी, जिन पर घटनाएँ घटित हुई थी। सूचना मिलने के तुरंत बाद, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (अपराध) ने कथित चाइल्ड पोर्नोग्राफी की घटना का पता लगाने और एक दिन के भीतर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए सभी पुलिस अधीक्षक को एक पत्र जारी किया था। यह इस आधार पर था कि पुलिस अधीक्षक ने रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें चाइल्ड पोर्नोग्राफी के किसी भी घटना को इंगित नहीं किया गया था।'' पीठ ने कहा कि ''कौन सा कानून शिकायत दर्ज किए बिना संज्ञेय अपराधों में जांच करने की अनुमति देता है। जब एक संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट दर्ज की जाती है तो पुलिस अधिकारियों द्वारा इस तरह की नौटंकी क्यों की जा रही है? इन लोगों को कानून के प्राथमिक सिद्धांतों को सिखाना होगा।'' न्यायमूर्ति ओका ने कहा, ''ललिता कुमारी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किस तरह के मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की अनुमति है, लेकिन अब इन मामलों में पूरी प्रक्रिया कमजोर हो गई है।'' हलफनामे में यह भी कहा गया है कि ''महिला और बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार की रिपोर्ट को सूचना के स्रोत के रूप में हवाला देते हुए एफआईआर को सुधारा गया है, जिसको प्राथमिकी में शामिल किया जाना चाहिए था और आगे की जांच सीआईडी करेगी।'' एनजीओ बचपन बचाओ आंदोलन की ओर से पेश वकील वेंकटेश पी दलवई ने कहा कि एफआईआर को पहले ही संबंधित मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा चुका है और बाद में संशोधित किया गया है, जो कानून में अस्पष्ट है। पीठ ने कहा कि ' 'लगता है कि कोई प्राथमिक गलती हुई है।'' न्यायमूर्ति ओका की पीठ ने कहा कि वह एफआईआर और उसके संशोधन पर अपने विचार व्यक्त नहीं करेंगे, क्योंकि इससे बचाव पक्ष को लाभ होगा, लेकिन सुझाव दिया कि ''वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी यहां तक कि आईएएस अधिकारियों को भी ललिता कुमारी के फैसले से अवगत कराया जाना चाहिए। इनके लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि मुंबई में मैंने इसी तरह की पहल की थी।'' जनहित याचिका में कहा गया है कि कर्नाटक में चाइल्ड पोर्नोग्राफी के 87 लड़कों और 26 लड़कियों सहित 113 बच्चे पीड़ित थे। इन सभी बच्चों को राज्य द्वारा संचालित घरों में रखा गया है। अदालत ने अब मामले में आगे की सुनवाई के लिए 7 फरवरी की तारीख तय की है। साथ ही राज्य को उपचारात्मक उपायों के साथ कोर्ट आने का निर्देश दिया है।

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उपभोक्ता फोरम का शैक्षिक संस्थानों परअधिकार क्षेत्र नहीं, वे 'सेवाएं नहीं देते : एनसीडीआरसी

उपभोक्ता फोरम का शैक्षिक संस्थानों परअधिकार क्षेत्र नहीं, वे 'सेवाएं नहीं देते : एनसीडीआरसी

 राष्ट्रीय उपभोगता निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) ने सोमवार को यह कहते हुए एक संदर्भ का जवाब दिया है कि 'शैक्षणिक संस्थान' 'सेवाएं' प्रदान नहीं करते हैं और इसलिए उपभोक्ता फोरम के पास उनके खिलाफ दायर शिकायतों पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र नहीं है। इस निर्णय के साथ न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल (अध्यक्ष), न्यायमूर्ति वी.के जैन (सदस्य) और एम.श्रीशा (सदस्य) की पीठ ने सर्वोच्च न्यायालय के दो परस्पर विरोधी निर्णयों द्वारा बनाए गए गतिरोध को खत्म कर दिया। 2010 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय बनाम सुरजीत कौर, 2010 (11) एससीसी 159, के मामले में शिक्षण संस्थानों द्वारा सेवा की कमी के संबंध में शिकायत दर्ज करने के लिए उपभोक्ता फोरम के अधिकार क्षेत्र का विस्तार से वर्णन किया था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि वे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत 'सेवा प्रदाता' नहीं हैं और परीक्षा देने वाला छात्र 'उपभोक्ता' नहीं है। इस निर्णय का पालन पी.टी कोशी और अन्य बनाम एलेन चैरिटेबल ट्रस्ट और अन्य 2012 (3) सीपीसी 615 (एससी) में किया गया और माना गया था कि, ''शिक्षा एक वस्तु नहीं है। शैक्षणिक संस्थान किसी भी तरह की सेवा प्रदान नहीं कर रहे हैं, इसलिए, प्रवेश व फीस आदि के मामले में, सेवा की कमी का सवाल नहीं हो सकता। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत उपभोक्ता फोरम द्वारा ऐसे मामलों पर विचार नहीं किया जा सकता है।'' हालांकि, इन निर्णयों से बेखबर सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य दो सदस्यीय खंडपीठ ने पी.श्रीनिवासुलु व अन्य बनाम वी.पी.जे अलेक्जेंडर और अन्य, सिविल अपील नंबर 7003-7004/2015 में कहा था कि शैक्षिक संस्थान उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के दायरे में आएंगे और शिक्षा एक सेवा है। इस कानूनी सवाल को हल करते हुए, एनसीडीआरसी ने महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के मामले में निर्धारित कानून का पालन करने का निर्णय लिया। पीठ ने कहा कि यह फैसला मैरिट के आधार पर दिया गया था और अधिक विस्तृत और सटीक प्रतीत होता है। अदालत ने अमर सिंह यादव व अन्य बनाम शांता देवी और अन्य, एआईआर 1987 पटना 191,मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा किया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के पूर्व निर्णय के संबंध में निर्णय लेते हुए कहा था कि जब सर्वोच्च न्यायालय की दो एकसमान पीठ के दो फैसलों के बीच सीधा टकराव होता है, तो अधीनस्थ न्यायालय को उस फैसले का पालन करना चाहिए, जो कानून को अधिक विस्तृत और सटीक रूप से बताता है। ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं रहता है कि वह फैसला पहले दिया गया था या बाद में। आयोग ने कहा कि- ''महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय मामले (सुप्रा) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कानून पर विस्तृत रूप से चर्चा की थी। चूंकि महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (सुप्रा) मामले में गुण-दोष और कानून के प्रश्न पर विस्तार से विचार किया गया था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दिए गए फैसले का पालन पी.टी कोशी और अन्य (सुप्रा), प्रो के.के रामचंद्रन (सुप्रा) और नवीनतम केस अनुपमा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (सुप्रा) के फैसले में लगातार किया है। हमारा मानना है कि अनुपमा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (सुप्रा) के अंतिम निर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वार निर्धारित अनुपात का पालन किया जाना चाहिए।'' फिर भी, अदालत ने उल्लेख किया कि उपर्युक्त निर्णयों में से किसी ने भी यह जवाब नहीं दिया कि 'मूल शिक्षा'में क्या शामिल है और क्या शिक्षा /शैक्षणिक संस्थानों से संबंधित सभी गतिविधियों को अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाएगा? इस पहलू पर स्थिति स्पष्ट करते हुए आयोग ने माना कि संस्थान शिक्षा प्रदान करते हैं, जिसमें व्यावसायिक पाठ्यक्रम और प्रवेश के साथ-साथ प्रवेश के बाद की प्रक्रिया की गतिविधियां शामिल हैं और भ्रमण पर्यटन, पिकनिक, अतिरिक्त सह पाठ्यक्रम गतिविधियां, तैराकी, खेल इत्यादि गतिविधियां भी संचालित की जाती हैं, सिवाय कोचिंग संस्थानों को छोड़कर, ये सभी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों के तहत नहीं आएंगे। आयोग ने यह टिप्पणी उस शिकायत में की है, जिसमें एक डेंटल कॉलेज के खिलाफ सेवा की कथित कमी के आरोप लगाए गए थे। इस शिकायत में कहा गया था कि कॉलेज ने छात्रों को दाखिला दे दिया, जबकि यह कॉलेज न तो विश्वविद्यालय से संबद्ध था और न ही डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा मान्यता प्राप्त था। मामले का विवरण- केस का शीर्षक-मनु सोलंकी व अन्य बनाम विनायक मिशन विश्वविद्यालय (अन्य जुड़े मामलों के साथ) केस नंबर- सीसी नंबर 261/2012 कोरम- न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल (अध्यक्ष), न्यायमूर्ति वीके जैन (सदस्य) और एम.श्रीशा (सदस्य)

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घरेलू हिंसा की शिकायत पर नोटिस जारी करने से पहले अदालत को प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना होगा कि घरेलू हिंसा हुई है : सुप्रीम कोर्ट

घरेलू हिंसा की शिकायत पर नोटिस जारी करने से पहले अदालत को प्रथम दृष्टया संतुष्ट होना होगा कि घरेलू हिंसा हुई है : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि घरेलू हिंसा का आरोप लगाने वाली एक शिकायत में नोटिस जारी करने से पहले अदालत को इस बात से संतुष्ट होना होगा कि वास्तव में घरेलू हिंसा की घटना हुई है। इस मामले में एक पत्नी ने अपने पति और उसके माता-पिता सहित चौदह व्यक्तियों के खिलाफ घरेलू हिंसा के आरोप लगाए थे। अन्य सभी उत्तरदाता शिकायतकर्ता के माता-पिता के रिश्तेदार हैं, जो अन्य राज्यों में रहते हैं। जस्टिस आर बानुमति, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने उल्लेख किया कि, पति और माता-पिता पर घरेलू हिंसा को लेकर औसतन आरोप हैं कि उन्होंने उसके पिता द्वारा शादी के दौरान उपहार में दी गई प्रतिवादी की ज्वैलरी को छीन लिया है और प्रतिवादी को परेशान करने के कथित कार्य किया है । पीठ ने कहा, "इस बात के लिए कोई विशिष्ट आरोप नहीं हैं कि अपीलकर्ता नंबर 14 के अन्य रिश्तेदारों ने घरेलू हिंसा के कृत्यों को कैसे अंजाम दिया। यह भी ज्ञात नहीं है कि गुजरात और राजस्थान के निवासी अन्य रिश्तेदारों को पैसे के फायदे के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उच्च न्यायालय यह कहने में सही नहीं था कि प्रथम दृष्टया अन्य अपीलकर्ता संख्या.3 से 13 तक का मुकदमा चलाना सही था। चूंकि अपीलकर्ताओं नं .3 से 13 तक के खिलाफ कोई विशेष आरोप नहीं हैं, उनके खिलाफ घरेलू हिंसा का आपराधिक मामला जारी नहीं रखा जा सकता है और रद्द किया जा सकता है।" पीठ ने घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों का जिक्र किया, " घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 संरक्षण आदेश से संबंधित है। अधिनियम की धारा 18 के संदर्भ में, विधायिका का इरादा महिला को अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। अधिनियम की धारा 20 अदालत को " पीड़ित पक्ष" को मौद्रिक राहत देने का आदेश देती है। जब घरेलू हिंसा के कृत्य का आरोप लगाया जाता है, तो नोटिस जारी करने से पहले, अदालत को इस बात से संतुष्ट होना पड़ता है कि घरेलू हिंसा हुई है। " अधिकार क्षेत्र के संबंध में आपत्ति के संबंध में, पीठ ने कहा, "उपर्युक्त प्रावधान का पठन यह स्पष्ट करता है कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत याचिका अदालत में दायर की जा सकती है जहां " व्यथित व्यक्ति "स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से रहता है या व्यवसाय करता है या कार्यरत है। वर्तमान मामले में, प्रतिवादी मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट, बेंगलुरु की क्षेत्रीय सीमाओं के भीतर अपने माता-पिता के साथ रहती है। अधिनियम की धारा 27 (1) (ए) के मद्देनजर, मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अदालत, बेंगलुरु के पास शिकायत का मनोरंजन करने और अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार क्षेत्र है। बेंगलुरु में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के रूप में आपत्ति उठाने वाले विवाद में कोई योग्यता नहीं है। "

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आपराधिक जांच लंबित होने के कारण किसी कर्मचारी की ग्रेच्युटी रोकना संविधान के अनुच्छेद 300A का उल्लंघन: हाईकोर्ट

आपराधिक जांच लंबित होने के कारण किसी कर्मचारी की ग्रेच्युटी रोकना संविधान के अनुच्छेद 300A का उल्लंघन:  हाईकोर्ट

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 22 जनवरी 2020 को कहा कि राज्य के एक सेवानिवृत्त कर्मचारी की ग्रेच्युटी की रकम को सेवानिवृत्ति के समय केवल इस आधार पर रोकना उसके खिलाफ आपराधिक जांच विचाराधीन है, संविधान के अनुच्छेद 300 ए का उल्लंघन है। "एक सेवानिवृत्त कर्मचारी के पेंशन और ग्रेच्युटी प्राप्त करने के अधिकार को एक संपत्ति के रूप में मान्यता दी जाती है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 300-ए के मद्देनजर कानून के जरिए ही वंचित किया जा सकता है।" जस्टिस अश्विनी कुमार मिश्रा ने कहा, "पेंशन और ग्रेच्युटी को पर रोक लगाने की राज्य की शक्ति का प्रयोग कानून सम्‍मत ढंग से होना चाहिए और अगर राज्य कार्रवाई कानून सम्‍मत नहीं पाई जाती है तो ग्रेच्युटी रोकना संविधान के अनुच्छेद 300-ए का उल्लंघन होगा। इस प्रकार संवैधानिक अधिकार का उल्‍लंघन, संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कोर्ट को हस्तक्षेप की इजाजत देता है।" कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य को पेंशन का एक हिस्सा, स्थायी रूप से या एक निर्दिष्ट अवधि के लिए, वापस लेने या रोक लगाने का अधिकार है, वह भी तब, जब पेंशनभोगी को विभागीय या न्यायिक कार्यवाहियों में गंभीर कदाचार का दोषी पाया जाता है या उसने नौकरी या रिटायरमेंट के बाद रि-इम्प्लॉयमेंट के दौरान कदाचार या लापरवाही से सरकार को गंभीर आर्थिक नुकसान कराया हो। शिवगोपाल बनाम यूपी व अन्य, विशेष अपील संख्या 40/2017 मामले में हाईकोर्ट की फुल बेंच के दिए फैसले पर कोर्ट ने भरोसा किया। कोर्ट ने ये टिप्‍पणी मौजूदा मामले में दायर याचिका की सुनवाई में की। राज्य ने याचिकाकर्ता की पेंशन पर रोक इस आधार पर लगाई है कि उसके खिलाफ गबन का एक आपराधिक मामला लंबित है। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता पर लगे आरोप उसकी रिटायरमेंट से लगभग चार साल पहले के हैं, हालांकि मामले में चार्जशीट उसकी ‌रिटायरमेंट के चार महीने बाद दाखिल की गई थी। याचिकाकर्ता के सेवानिवृत्त होने की तारीख से लगभग चार साल पहले के आरोपों को खारिज कर दिया गया था, लेकिन याचिकाकर्ता के सेवानिवृत्त होने के चार महीने बाद आरोप पत्र दायर किया गया था। अदालत ने कहा कि चूंकि सेवानिवृत्ति के बाद चार्जशीट दायर की गई थी, इसलिए मामले में न्यायिक कार्यवाही का गठन उसी ‌दिन से माना जाएगा, जैसा कि सिविल सेवा विनियमन के अनुच्छेद 351-ए से संबंधित स्पष्टीकरण के तहत निर्धारित किया गया है। मामले में प्रक्रियागत अनियमितताओं और संविधान के अनुच्छेद 300 ए के उल्लंघन को देखते हुए हाईकोर्ट ने ग्रेच्युटी वापस लेने के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा- "4 साल की अवधि घटना की तारीख के बाद से चार्जशीट जमा करने के लिए अच्छी-खासी अवधि है, और राज्य या जांच एजेंसी की ओर से किसी भी अनपेक्षित या अनुचित देरी के लिए कर्मचारी को पीड़ित नहीं बनाया जा सकता है।"

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/withholding-gratuity-amount-merely-due-to-pendency-of-criminal-investigation-violates-article-300a-of-the-constitution-allahabad-hc-151936

Saturday 18 January 2020

पाक्षकार के अलावा अन्य प्रभावित व्यक्ति द्वारा अपील की जा सकती है

The Province Of Bombay vs Western India Automobile ... on 9 September, 1948
 = (1949) 51 BOMLR 58
Showing the contexts in which not a party to the suit appealappears in the document

3. Now, as far as the Province of Bombay is concerned, it was not a party to the petition, although under the direction of the learned Judge notice was served upon the Province of Bombay, and pursuant to that notice the Province of Bombav appeared before the learned Judge and submitted its point of view before the Court; and a preliminary point is taken that inasmuch as the Province of Bombay was not a party to the petition, it is not competent for the Province of Bombay to prefer an appeal from the decision of the learned Judge. The Civil Procedure Code does not in terms lay down as to who can be a party to an appeal. But it is clear, and this fact arises from the very basis of appeals, that only a party against whom a decision is given has a right to prefer an appeal. Even in England the position is the same. But it is recognised that a person who is not a party to the suit may prefer an appeal if he is affected by the order of the trial Court, provided he obtains leave from the Court of Appeal. Therefore, whereas in the case of a party to a suithe has a right of appeal, in the case of a person, not a party to the suit who is affected by the order he has no right, but the Court of Appeal may in its discretion allow him to prefer an appeal. It is difficult to understand why the Province of Bombay, which is vitally affected by the decision of Mr. Justice Coyajee, did not think lit to get itself made a party to the petition. Not only it did not do so, but it preferred an appeal without obtaining any leave or any direction from the Court of Appeal, and there can be no doubt that Mr. Vimadalal's contention is sound that as the record stands the appeal preferred by the Province of Bombay is not competent. It is an appealpreferred by a person who was not a party to the proceedings before Mr. Justice Coyajee and who has not been given any leave by the Court of Appeal to prefer this appeal. It was open to the Province of Bombay to come before us before filing this appeal and get the necessary leave and directions, but that, again, the Province of Bombay did not choose to do. But I do not think it would be right to deprive the Province of Bombay of the right to challenge Mr. Justice Coyajee's decision merely on this technical ground. Technicalities should never be permitted to override substantial justice, and we think that the Province of Bombay should be heard provided it pays all the costs of this appeal up to date. We would, therefore, give leave to the Province of Bombay to maintain this appeal although it was not a party to the proceedings before Mr. Justice Coyajee.

16. When Appeal No. 81 of 1948 was called on before us counsel for the respondent took a preliminary objection that the Province of Bombay not having been a party to the petition it was not competent to the Province of Bombay to file the appeal. It was contended that it was only the parties to the proceedings before the lower Court that had a right of appeal and those persons who were not parties to the proceedings were not competent to file any appeal even though the judgment and the decree appealed from might adversely affect their interests. Our attention was directed to the relevant provisions of the Civil Procedure Code, namely, Sections 96 and 146 and Order XLI, Rule 1, of the Civil Procedure Code. It may be noted however that in none of these provisions of the Civil Procedure Code has it been laid down who can prefer an appeal It was further pointed out that in the commentary of Sir Dinshah Mulla on the Civil Procedure Code and also in a judgment of Mr. Justice Madhavan Nair in Indian Bank Ltd. v. Seth Bansiram Jeshamal Firm [1933] I.L.R. 57 Mad. 670 it was stated that no person who is not a party to the suit or proceedings has a right of appeal. This is no doubt the position so far as the right of appeal is concerned. A person who is not a party to the suitor proceedings has no right to appeal against the decision and this is the position where a person who is not such party is aggrieved by the decision and wants to appeal against it. He can only ask for leave to appeal from the appellate Court before he can be allowed to file an appeal. There is no right of appeal vested in him by any of the provisions of the Civil Procedure Code or by any other provision of law. The only remedy open to him, if his interests are adversely affected or if he is aggrieved by a decision of the Court, is to approach the Appellate Court and ask for leave to appeal which the appellate Court would grant in proper cases. This is the position in England as one finds it laid down in In re Securities Insurance Company [1894] 2 Ch. 410 where Lindley L.J. observed (p. 413):

Friday 17 January 2020

पावर ऑफ अटर्नी पर प्रोपर्टी खरीदना है खतरनाक- SC

Supreme Court Judgement On Power of Attorney | पावर ऑफ अटर्नी पर प्रोपर्टी खरीदना है खतरनाक

*सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि जीपीए बिक्री और एसए/जीपीए/वसीयत ट्रांसफ़र क़ानूनी रूप से वैध नहीं है और इससे स्वामित्व का हस्तांतरण नहीं होता और न ही यह अचल संपत्ति के हस्तांतरण का वैध तरीक़ा है।*

Case Number C.A. No.- 008003 -008003 – 201914 -10-2019
Petitioner - SHIVKUMAR
Respondent- UNION OF INDIA
Bench HON’BLE MR. JUSTICE ARUN MISHRA, HON’BLE MR. JUSTICE S. RAVINDRA BHAT Judgment ByHON’BLE MR. JUSTICE ARUN MISHRA

यह मामला एक अधिसूचित ज़मीन का एसए/जीपीए/वसीयत के माध्यम से ख़रीद का है। पीठ ने कहा कि अचल संपत्ति ख़रीदने का यह तरीक़ा क़ानूनी रूप से वैध नहीं है क्योंकि इन अग्रीमेंट के द्वारा अचल संपत्ति में किसी भी तरह के स्वामित्व के अधिकार का सृजन नहीं होता।

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीआर गवई की खंडपीठ ने शिव कुमार बनाम भारत संघ में यह अवलोकन किया, जिसमें यह कहा गया था कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4 के तहत अधिसूचना जारी करने के बाद संपत्ति का एक खरीदार बाद में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार की धारा 24 में निहित प्रावधान का आह्वान नहीं कर सकता।

इस तरह की ख़रीद की वैधता पर ग़ौर करते हुए पीठ ने सूरज लैंप एंड इंडस्ट्रीज़ प्रा. लि. माध्यम निदेशक बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2012) 1 SCC 656 मामले में आए फैसले का ज़िक्र किया। इस फ़ैसले में कहा गया था कि इस तरह के तरीक़ों का प्रयोग कुछ ट्रांसफ़र पर लगी रोक से बचने, स्टैम्प शुल्क और पंजीकरण शुल्क चुकाने से बचने, संपत्ति के ट्रांसफ़र पर कैपिटल गेन चुकाने से बचने, इस कारोबार में काले धन का प्रयोग करने और विकास प्राधिकरणों को शुल्कों में की गई बढ़ोतरी की राशि नहीं चुकाने के लिए किया जाता है।

एसए/जीपीए/वसीयत ट्रांसफ़र के तरीक़े

(a) विक्रेता क्रेता के पक्ष में एक बिक्री क़रार बनाता है जो बिक्री, डिलीवरी और परिसंपत्ति पर क़ब्ज़े के लिए संबंधित राशि की पूर्ण भुगतान और ज़रूरत पड़ने पर किसी भी तरह के दस्तावेज़ तैयार करने के लिए होता है। या, बिक्री क़रार किया जाता है जिसमें संबंधित परिसंपत्ति को बेचने की सहमति व्यक्त की जाती है, जिसके साथ एक अलग से हलफ़नामा होता है, जिसमें पूरी क़ीमत प्राप्त हो जाने और क़ब्ज़ा दिलाने और बाद में जब भी ज़रूरत हो, बिक्री क़रार की बात का ज़िक्र होता है।

(b) विक्रेता द्वारा क्रेता या उसके नोमिनी के पक्ष में एक जनरल पावर ऑफ़ अटर्नी तैयार किया जाता है जो उसकी ओर से सौदे का प्रबंधन करेगा और विक्रेता के संदर्भ के बिना परिसंपत्ति को बेच देगा। या, विक्रेता क्रेता या उसके नोमिनी के पक्ष में एक जनरल पावर ऑफ़ अटर्नी तैयार करता है और अटर्नीधारक को संपत्ति को ट्रांसफ़र करने या बेचने का अधिकार देता है और इस संपत्ति के प्रबंधन के लिए विशेष पीओए किया जाता है।

(c) एक वसीयत तैयार किया जाता है जिसके माध्यम से क्रेता को संपत्ति का अधिकार दिया जाता है। यह उस स्थिति के लिए तैयार किया जाता है जब संपत्ति के ट्रांसफ़र से पहले विक्रेता की मौत हो जाए। सूरज लैंप मामले के फ़ैसले में अदालत ने कहा, “अचल संपत्ति सिर्फ़ पंजीकृत क़रार से ही क़ानूनी और वैधानिक तरीक़े से ट्रांसफ़र किया जा सकता है।”
अदालत ने कहा कि एसए/जीपीए/वसीयत से होने वाले ट्रांसफ़र को वह क़रार पूरा हुआ ऐसा नहीं मानेगा क्योंकि इससे न तो स्वामित्व का पता चलता है और न ही किसी अचल संपत्ति के संदर्भ में किसी भी तरह के अधिकार का सृजन होता है।
इन दस्तावेज़ों को टीपी अधिनियम की धारा 53A के सीमित दायरे को छोड़कर स्वामित्व हस्तांतरण का क़रार नहीं माना जा सकता। इस तरह के लेन-देन पर भरोसा नहीं किया जा सकता और नगर निगम या राजस्व रेकर्ड में इसके आधार पर कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। जो ऊपर बताया गया है वह न केवल फ़्री होल्ड प्रॉपर्टी को लेकर की गई डीड्ज़ ऑफ़ कन्वेयेंस पर लागू होगा बल्कि लीज़होल्ड प्रॉपर्टी के ट्रांसफ़र पर भी लागू होगा।

कोई लीज़ तभी वैध होगा अगर वह पंजीकृत होता है।

अब समय आ गया है जब एसए/जीपीए/वसीयत पर रोक लगाया जाए जिसे जीपीए सेल्स कहा जाता है। वास्तविक लेनदेन समझने की भूल न करेंं इस फ़ैसले में यह कहा गया कि इन लेनदेन को ऐसा वास्तविक लेनदेन समझने की भूल नहीं की जाए या उनसे तुलना नहीं की जाए जहाँ किसी संपत्ति के मालिक परिवार के किसी व्यक्ति या दोस्त के पक्ष में अपनी संपत्ति की देखभाल या उसको बेचने के लिए पीओए तैयार करता है क्योंकि वह इसका ख़ुद प्रबंधन नहीं कर सकता या बेच नहीं सकता।
इस फ़ैसले में कुछ और बातें भी स्पष्ट की गई “हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारी राय पूर्व में हुए सही बिक्री क़रारों को प्रभावित करने का नहीं है। उदाहरण के लिए जैसे कोई व्यक्ति अपनी पत्नी, बेटे, बेटी, भाई, बहन या किसी भी रिश्तेदार को डीड ऑफ़ कन्वेयेंस करने के लिए पीओए दे सकता है।
कोई व्यक्ति किसी लैंड डेवलपर या बिल्डर के साथ किसी भूमि पर निर्माण कार्य को लेकर क़रार कर सकता है और इस सिलसिले में बिक्री कार्य को काम पूरा करने के लिए डेवलपर के पक्ष में पीओए कर सकता है।
कई राज्यों में इस तरह के डेवलपमेंट क़रार और पीओए का विनियमन क़ानून के द्वारा होता है और इसे तभी वैध माना जाता है जब इस पर स्टैम्प शुल्क चुकाया जाता है। एसए/जीपीए/वसीयत के बारे में हमारी राय का असर सही लेनदेन पर नहीं होगा।”

डॉक्टर की लापरवाही के लिए अस्पताल भी जिम्‍मेदार - SC

*सुप्रीम कोर्ट का फैसला डॉक्टर की लापरवाही के लिए अस्पताल भी जिम्‍मेदार | Supreme Court Judgement on Medical Negligence*

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि डॉक्टरो द्वारा ईलाज में बरती गई लापरवाही के लिए अस्पताल भी स्पष्ट रूप से जिम्मेदार है। जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की बेंच ने एनसीडीआरसी के आदेश को बरकरार रखते हुए, जिसमें डॉक्टरों द्वारा ईलाज में बरती गई लापरवाही के लिए अस्पताल को स्पष्ट रूप से जिम्मेदार माना गया था, ये टिप्‍पणी की।

मामले में डॉक्टरों ने कथित रूप से एक प्री-टर्म बेबी के रेटिनोपैथी की अनिवार्य नहीं की, जिसके कारण वो अंधा हो गया। (महाराजा अग्रसेन अस्पताल बनाम मास्टर ऋषभ शर्मा) चिकित्सा लापरवाही पर बोलम टेस्ट और अन्य फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि प्रीमैच्योर बेबी की देखभाल के लिए बने उचित मानक के मुताबिक आरओपी की जांच अनिवार्य है:

कोर्ट ने कहा: एक चिकित्सा पेशेवर को किसी भी पेशेवर कार्य में खतरों और जोखिमों के प्रति इस हद तक सतर्क होना चाहिए कि पेशे के अन्य सक्षम सदस्य सतर्क रहें। उसे किसी भी पेशेवर कार्य में, जिसे वो कर रहा है, उचित कौशल के साथ करना चाहिए, जिसे पेशे के दूसरे सक्षम सदस्य भी अपना सकें।” एनसीडीआरसी की जांच को बरकरार रखते हुए बेंच ने लड़के और उसकी मां को 76,00,000 रुपए का मुआवजा दिया और राशि के उपयोग का निर्देश भी जारी किया।
कोर्ट ने आगे कहा: “यह सामान्य अनुभव है कि जब भी कोई मरीज किसी अस्पताल में जाता है तो वह अस्पताल की प्रतिष्ठा के आधार पर वहां जाता है, और इस उम्मीद के साथ कि अस्पताल के अधिकारियों द्वारा उचित देखभाल की जाएगी। यदि अस्पताल अपने डॉक्टरों के माध्यम से, जो नौकरी या अनुबंध के आधार पर नियुक्त किए गए होते हैं, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है तो हैं, यह अस्पताल है जिसे अपने डॉक्टरों की ओर से की गई चूक की सफाई देनी पड़ती है।”

कोर्ट ने मेडिकल लापरवाही पर कहाः मेडिकल लापरवाही में निम्नलिखित कृत्य शामिल हैं:

(1) चिकित्सा पेशेवर द्वारा उचित देखभाल करने का कानूनी कर्तव्य;
(2) इलाज में शामिल जोखिमों के बारे में रोगी को न बता पाना;
(3) रोगी को चिकित्सा पेशेवर द्वारा अज्ञात जोखिम बारे में जानकारी न देने पर क्षति होती है;
(4) यदि जोखिम का खुलासा किया गया होता तो मरीज चोट से बचा जाता;
(5) उक्त कर्तव्यों का उल्लंघन लापरवाही की कार्रवाई के दावे को जन्म देगा।
क्षति के लिए कार्रवाई का कारण केवल तब पैदा होता है, जब क्षति होती है, क्योंकि क्षति यातना का एक आवश्यक घटक है। चिकित्सकीय लापरवाही की शिकायत में, कर्तव्य का उल्लंघन, चोट और कारण साबित करने की जिम्‍मेदारी शिकायतकर्ता पर होती है। चोट को चिकित्साकर्मी के कर्तव्य के उल्लंघन का साबित करने के लिए पर्याप्त हो। कोर्ट ने मेडिकल लापरवाही के कानून के विकास का भी उल्‍लेख किया। अरुण कुमार मांगलिक बनाम चिरायु हेल्थ एंड मेडिकेयर (पी) लिमिटेड के मामले का उल्‍लेख करते हुए यह कहा गया कि बोलम (सुप्रा) में दी जाने वाली देखभाल का मानक अंग्रेजी और भारतीय अदालतों द्वारा अपनाई गई व्याख्या के अनुरूप होना चाहिए।

पति इस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता कि वह अब उसके साथ नहीं रह रही है

Supreme Court Judgement on Crpc 125

*पति इस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता कि वह अब उसके साथ नहीं रह रही है*

डॉक्टर स्वपन कुमार बनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

Diary Number 33665-2009 Judgment Case Number Crl.A. No.-000232- 000233 –  201519-09- 2019 (English) Petitioner Name - DR. SWAPAN KUMAR BANERJEE
Respondent Name - THE STATE OF WEST BENGAL

Bench- HON’BLE MR. JUSTICE DEEPAK GUPTA, HON’BLE MR. JUSTICE ANIRUDDHA BOSE
Judgment ByHON’BLE MR. JUSTICE DEEPAK GUPTA


“पति इस आधार पर अपनी पत्नी को तलाक़ नहीं दे सकता कि वह अब उसके साथ नहीं रह रही है और फिर वह उसे गुज़ारे की राशि न दे जिसकी वह हक़दार है…।”

*सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी पत्नी को उसके पति ने इस आधार पर तलाक़ दिया है कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया है, तो उसे (पत्नी को) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)की धारा 125 के तहत भरण पोषण की राशि प्राप्त करने का अधिकार है।* न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस ने इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट लगातार यह कहता रहा है और उसका यह मत दंड प्रक्रिया संहिता के पूरी तरह अनुरूप है।

पीठ ने इस संदर्भ में *वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्ट और रोहतास सिंह बनाम रमेंद्री मामलों में दो जजों की पीठ और मनोज कुमार बनाम चम्पा देवी मामले में तीन जजों की पीठ के फ़ैसले का हवाला दिया।* पीठ ने कहा, *“दो जजों की पीठों द्वारा दिए गए फ़ैसलों को तीन जजों की पीठ सही ठहरा चुका है* और हम किसी बड़ी पीठ को यह मामला नहीं सौंप सकते। वैसे भी इस अदालत ने भी लगातार यही राय व्यक्त की है और जो राय दी गई है वह सीआरपीसी की भावना के अनुरूप है। यह दलील कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है, तर्कहीन है।”

दलील डॉक्टर स्वपन कुमार बनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के संदर्भ में वक़ील देबल बनर्जी ने कहा कि कोई भी पत्नी जिसने अपनी पति को छोड़ दिया है वह सीआरपीसी की धारा 125 भरण पोषण की राशि का दावा नहीं कर सकती। उनकी दलील थी कि चूँकि ‘पत्नी’ के तहत ‘तलाकशुदा महिला’ भी आती है इसलिए ऐसी महिला जिसे पति को छोड़ देने के कारण तलाक़ दिया गया है, वह भी सीआरपीसी की धारा 125 की उप-धारा 4 के तहत गुज़ारा राशि की मांग नहीं कर सकती है। उप-धारा 4 में कहा गया है कि किसी भी पत्नी को इस धारा के तहत गुज़ारे की राशि या अंतरिम गुज़ारे की राशि नहीं मिल सकती अगर वह व्यभिचार के तहत या बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से मना कर देती है या अगर दोनों आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हैं। पीठ ने इस दलील को ख़ारिज करते हुए कहा –

“…सवाल है कि उप-धारा 4 के प्रावधानों को इस संदर्भ में कैसे पढ़ा जाए जब हम विशेषकर ऐसी महिलाओं की चर्चा करते हैं जिनके ख़िलाफ़ इस आधार पर तलाक़ का आदेश प्राप्त किया जा चुका है कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है। एक बार जब शादी का संबंध ख़त्म हो जाता है तो पत्नी पर अपने पूर्व पति के साथ रहने का कोई दबाव नहीं होता। यह बात कि तलाकशुदा पत्नी को पत्नी माना जाए इस बात को अतार्किकता की हद तक खींचा नहीं जा सकता कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व पति के साथ रहने के लिए बाध्य है। पति यह आग्रह नहीं कर सकता कि वह अपनी पत्नी को इसलिए तलाक़ देना चाहता है क्योंकि उसने उसके साथ रहना बंद कर दिया है और उसके बाद वह उसको गुज़ारे की राशि देना बंद कर दे, जबकि उसे यह राशि इस आधार पर मिलना चाहिए कि तलाक़ के बाद भी वह अपने पूर्व पति के साथ नहीं रहना चाहती है।”

यह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करना चाहती है। इस मामले में पति को इस आधार पर तलाक़ का अधिकार दिया गया कि पत्नी ने उसको छोड़ दिया है। एक साल बाद उसने दुबारा शादी कर ली और इसके बाद ही पत्नी ने गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन किया। इस मामले पर पीठ ने कहा, “हमारी राय में यह पूरी तरह पत्नी पर निर्भर करता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए कब याचिका दायर करती है।

हो सकता है कि उस समय तक वह जो भी कमा रही थी वह उसके लिए पर्याप्त रहा होगा और हो सकता है कि वह गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन देने के समय तक बातों को ज़्यादा खींचना नहीं चाहती थी। कारण चाहे जो भी रहा हो, पर शादी संबंधी मामलों के लंबित रहने के दौरान अगर उसने इसके लिए आवेदन नहीं दिया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह बाद में इस तरह का आवेदन नहीं दे सकती है।” पत्नी अपने गुज़ारे लायक़ पर्याप्त राशि कमा रही है इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता है।
इस मामले में एक अन्य मुद्दा यह था कि पत्नी कलकत्ता के जादवपुर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और वह एक योग्य आर्किटेक्ट है और इसलिए यह मान लिया जाए कि उसकी आमदनी पर्याप्त है। पीठ ने कहा कि पति ने इस बारे में कोई सबूत पेश नहीं किया है कि पत्नी की आय पर्याप्त है और वह कहां काम कर रही है, जबकि यह सब सबूत उसे ही पेश करना है। इस तरह के किसी भी साक्ष्य के अभाव में इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि पत्नी ख़ुद का ख़र्चा चलाने के लिए पर्याप्त राशि कमा रही है।

Monday 13 January 2020

केवल इसलिए कि मृतक 100% जलने से घायल था, यह नहीं कहा जा सकता कि वह मरने से पहले बयान देने में असमर्थ था : सुप्रीम कोर्ट

केवल इसलिए कि मृतक 100% जलने से घायल था, यह नहीं कहा जा सकता कि वह मरने से पहले बयान देने में असमर्थ था : सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल इसलिए कि मृतक 100% जलने के कारण घायल था, यह नहीं कहा जा सकता है कि वह मरने से पहले बयान देने में असमर्थ था/थी, जिसे उसका मरने से पहले दिया गया बयान (dying declaration) माना जा सकता था। इस मामले में ध्यान देने वाली बात यह थी कि पीड़ित 100% जल चुका था और वह पहले से ही गंभीर स्थिति में था और इससे आगे भी उसकी हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। यह तर्क दिया गया कि ऐसी गंभीर और बिगड़ती हालत में वह उचित, सुसंगत और समझदारी भरा बयान नहीं दे सकता था। इस मामले के अभियुक्तों को शेर सिंह की मौत का दोषी ठहराया गया और जिन्होंने उसे आग में डाल दिया था।

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वैकल्पिक उपचार उपलब्ध होने के बावजूद हाईकोर्ट के रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर पूरा प्रतिबंध नहीं : सुप्रीम कोर्ट

वैकल्पिक उपचार उपलब्ध होने के बावजूद हाईकोर्ट के रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर पूरा प्रतिबंध नहीं : सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वैकल्पिक उपचार का नियम विवेक का नियम है, क्षेत्राधिकार का नहीं। शीर्ष अदालत ने कहा कि वैकल्पिक उपचार उपलब्ध होने के बावजूद हाईकोर्ट के रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह बात कही। इस मामले में मुद्दा यह उठा था कि सशस्त्र बल अधिकरण अधिनियम, 2007 को देखते हुए सशस्त्र बल के एक कर्मी के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में लंबित मामले को सशस्त्र बल अधिकरण (एएफटी) को भेजा जाए या हाईकोर्ट उसकी सुनवाई करे। हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने कहा कि अगर इस तरह का कोई मुक़दमा हाईकोर्ट में इस अधिकरण के गठन से पहले लंबित था, ऐसे मामलों को अधिकरण को नहीं भेजा जाएगा। दलील यह दी गई थी कि एएफटी अधिनियम के तहत आने वाले मामलों के संदर्भ में हाईकोर्ट का स्थान लेगा, लेकिन पीठ इससे सहमत नहीं थी।

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