Saturday 31 October 2020

चेक का डिसऑनर: सुप्रीम कोर्ट के हालिया 14 निर्णय 7 July 2019

 चेक का डिसऑनर: सुप्रीम कोर्ट के हालिया 14 निर्णय 7 July 2019

 एनआई अधिनियम की धारा 148 का प्रभाव है भूतलक्षी (Retrospective) [सुरिंदर सिंह देशवाल @ कर्नल एस. एस. देसवाल बनाम वीरेंद्र गांधी] इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की संशोधित धारा 148, एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सजा और सजा के आदेश के खिलाफ अपील के संबंध में लागू होगी। यहां तक कि यह ऐसे मामले में भी यह लागू होगी जहां धारा 138 के तहत अपराध की शिकायत वर्ष 2018 के संशोधन अधिनियम से पहले यानी 01.09.2018 से पहले दायर की गयी थी। NI अधिनियम की धारा 148, जिसे वर्ष 2018 में एक संशोधन द्वारा पेश किया गया, अपीलीय अदालत को यह शक्ति देती है कि वह अभियुक्त/अपीलार्थी को ट्रायल कोर्ट द्वारा तय 'जुर्माना' या 'मुआवज़े' का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश दे सके। पीठ ने यह भी कहा कि अपीलीय अदालत के पास, ट्रायल कोर्ट द्वारा तय 'जुर्माना' या 'मुआवज़े' का न्यूनतम 20%, जमा करने के आदेश देने की शक्ति है। यह भी देखा गया कि अपीलीय अदालत द्वारा जमा करने का निर्देश नहीं देना एक अपवाद है जिसके लिए विशेष कारणों को दिया जाना होगा। प्रश्न पूछे जाने पर वित्तीय क्षमता की व्याख्या करने के लिए शिकायतकर्ता है बाध्य [बसलिंगप्पा बनाम मुदीबसप्पा] यहां, अभियुक्त ने शिकायतकर्ता की वित्तीय क्षमता पर सवाल उठाया था, जिसे समझाया नहीं गया था। ट्रायल कोर्ट ने इन पहलुओं पर विचार करते हुए आरोपी को बरी कर दिया था। हालांकि, उच्च न्यायालय ने इस आदेश को उलट दिया और उसे दोषी ठहराया। शीर्ष अदालत ने यह माना कि चेक बाउंस के मामले में एक शिकायतकर्ता अपनी वित्तीय क्षमता की व्याख्या करने के लिए बाध्य है, जब अभियुक्तों द्वारा सबूतों के साथ उस पर सवाल उठाए जाते हैं। धारित कर लेने के बाद, शिकायतकर्ता को निधि के स्रोत सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, [रोहितभाई जीवनलाल पटेल बनाम गुजरात राज्य] सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि यदि एक बार न्यायालय ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 139 के अनुसार कानूनी रूप से लागू किए गए ऋण (legally enforceable debt) के अस्तित्व के विषय में परिकल्पना धारित कर ली है, उसके बाद यदि आरोपी उक्त परिकल्पना को ग़लत साबित करने में सक्षम नहीं है, तो धन के स्रोत (source of funds) जैसे कारक प्रासंगिक नहीं हैं। "यह जांच करने के दौरान कि क्या अभियुक्त द्वारा, परिकल्पना को ग़लत साबित किया गया है या नहीं, जब ऐसी परिकल्पना धारित कर ली गयी है, तो प्राप्तियों या खातों के रूप में दस्तावेजी सबूतों की जरुरत या धन के स्रोत के संबंध में सबूत जैसे कारक प्रासंगिक नहीं हैं", हाईकोर्ट के एक फैसले, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के आदेश को रद्द कर दिया गया, की अपील को खारिज करते हुए जस्टिस ए. एम. सप्रे और दिनेश माहेश्वरी की बेंच ने कहा। Also Read - संविदा विधि (Law of Contract ) भाग 12 : संविदा का पालन कैसे किया जाता है? जानिए विशेष बातें (Performance of Contracts) खाली एवं हस्ताक्षरित चेक का बाद में भरा जाना, बदलाव नहीं [बीर सिंह बनाम मुकेश कुमार] सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि बाद में भरे गए एक खाली हस्ताक्षरित चेक को भरना एक परिवर्तन (alteration) नहीं है और यहां तक कि एक खाली चेक लीफ, जो स्वेच्छा से हस्ताक्षरित है और जिसे आरोपी द्वारा सौंप दिया गया है, जो कि भुगतान की ओर है, किसी भी स्पष्ट सबूत के अभाव में (यह दिखाने के लिए कि वह चेक किसी ऋण के निर्वहन में जारी नहीं किया गया था) नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट की धारा 139 के तहत अनुमान को आकर्षित करेगा। न्यायमूर्ति आर. बनुमथी और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने यह भी देखा कि चेक के आदाता और उसके ड्रॉअर के बीच एक विश्वासाश्रित संबंध (fiduciary relationship) का अस्तित्व, अनुचित प्रभाव (undue influence) या जोर-जबरदस्ती (coercion) के साक्ष्य के अभाव में, आदाता (payee) को निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा 139 के तहत परिकल्पना के लाभ से वंचित नहीं करेगा । बिक्री समझौते के उद्देश्य से जारी किए गए चेक- धारा 138 के अंतर्गत आयेंगे [रिपुदमन सिंह बनाम बालकृष्ण] उच्चतम न्यायालय ने यह देखा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत एक शिकायत लायी जा सकती है, जब बिक्री समझौते (agreement to sell) हेतु जारी किए गए चेक का अनादर (bounce) हुआ हो। यह माना गया कि चेक, बिक्री समझौते के अनुसरण में जारी किए गए थे. हालांकि, एक बिक्री समझौता, अचल संपत्ति में कोई अधिकार को जन्म नहीं देता है, फिर भी यह पार्टियों के बीच कानूनी रूप से लागू करने योग्य एक अनुबंध का गठन करता है, अदालत ने कहा। दूसरी सूचना के आधार पर चेक-बाउंस की शिकायत विचारणीय है [सिकाज़ेन इंडिया लिमिटेड बनाम महिंद्रा वादिनेनी] इस मामले में आरोपियों द्वारा जारी किए गए 3 चेक शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत किए गए थे, और जब वो बाउंस हो गए, तो 31.08.2009 को आरोपियों को नोटिस जारी किये गए थे, जिनमे राशि के पुनर्भुगतान की मांग की गयी थी। इसके बाद, ये चेक फिर से प्रस्तुत किए गए, जो फिर से बाउंस हो गए। शिकायतकर्ता ने 25.01.2010 को एक सांविधिक नोटिस जारी किया और बाद में दूसरी सांविधिक सूचना के आधार पर परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की। शीर्ष अदालत ने कहा कि चेक की पुन: प्रस्तुति के बाद जारी किए गए दूसरे वैधानिक नोटिस के आधार पर दायर एक 'चेक बाउंस' शिकायत, विचारण योग्य है. पीठ ने एमएसआर लेदर्स बनाम एस. पलान्यप्पन और अन्य में 3-न्यायाधीश पीठ के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि अधिनियम की धारा 138 के प्रावधानों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो चेक के धारक को चेक की क्रमिक प्रस्तुति (successive presentation) करने से और उस द्वितीय चेक की प्रस्तुति के आधार पर आपराधिक शिकायत दर्ज कराने से मना करता हो। आनुपातिकता के परीक्षण (Test of Proportionality) के अनुसार यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या परिकल्पना (PRESUMPTION) को ग़लत साबित (rebutted) किया गया था [ANSS राजशेखर बनाम अगस्टस जेबा अनंत] यह अभिनिर्णीत करते हुए कि कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण (legally enforceable debt) के अस्तित्व के संबंध में, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 के तहत धारित परिकल्पना (presumption) को ग़लत साबित कर दिया गया था, उच्चतम न्यायालय ने धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में एक अभियुक्त को बरी कर दिया। "यह निर्धारित करने में कि क्या धारित परकल्पना को ग़लत साबित कर दिया गया है, आनुपातिकता के परीक्षण को अपनाया जाना चाहिए। अधिनियम की धारा 139 के तहत, धारित परिकल्पना के खंडन के लिए प्रमाण का मानक (standard of proof) संभावनाओं के एक पूर्वनिर्धारण (preponderance of probabilities) द्वारा निर्देशित है", जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और एम. आर. शाह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए, जिसने प्रथम अपीलीय अदालत द्वारा बरी के आदेश को पलट दिया था, यह अवलोकन किया। कंपनी निदेशक के खिलाफ चेक बाउंस की शिकायत को रद्द किया जाना [एआर राधा कृष्ण बनाम दसारी दीप्ति] सर्वोच्च न्यायालय ने यह दोहराया है कि, कंपनी और उसके निदेशक के खिलाफ 'चेक बाउंस' की शिकायत में यह ख़ास तौर पर कहा और बताया जाना चाहिए, कि निदेशक उक्त समय के लिए, जब परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138/141 के तहत अपराध हुआ, तो वह कंपनी के व्यवसाय का संचालन एवं जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहा था। ऋण/देयता के मात्र इनकार से सबूत का भार (burden of proof) स्थानांतरित नहीं होता है [किशन राव बनाम शंकर गौड़ा] सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि एक चेक के अनादर के मामले में केवल ऋण या देनदारी से इनकार करना, आरोपी के ऊपर से सबूत के भार (burden of proof) को स्थानांतरित नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति ए. के. सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 139, धारक के पक्ष में परिकल्पना धारित करने की व्यवस्था करती है, और ऋण के अस्तित्व एवं प्रतिफल के पास होने से केवल इनकार करने से अभियुक्त के उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। डिक्री राशि के प्रतिशत के आधार पर वकील का फीस का दावा, धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत एक शिकायत का आधार नहीं हो सकता है [बी. सुनीता बनाम तेलंगाना राज्य] सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह अभिनिर्णित किया कि मुकदमेबाजी में विषय वस्तु के प्रतिशत के आधार पर एक वकील द्वारा शुल्क राशि का दावा, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा 138 के तहत एक शिकायत का आधार नहीं हो सकता है। इसमें कहा गया है कि विषय वस्तु में हिस्सेदारी के आधार पर वकील द्वारा किया गया ऐसा दावा एक पेशेवर कदाचार (professional misconduct) है और उसके द्वारा दायर शिकायत को कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा और उसे रद्द करना होगा। अभियुक्त से मुआवजा प्राप्त किया जा सकता है, भले ही 'डिफ़ॉल्ट सेंटेंस' से गुजरा जा चुका है [कुमारन बनाम केरल राज्य] सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि न्यायालय द्वारा आदेशित क्षतिपूर्ति/मुआवजा, वसूली योग्य होगा, भले ही एक डिफ़ॉल्ट सजा भुगती जा चुकी है। न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने केरल उच्च न्यायालय के एक फैसले को बरकरार रखा, जिसमें धारा 421 सीआरपीसी के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के आदेश को मंजूरी दी गयी थी, जिसमें चेक बाउंस के मामले में आरोपी के खिलाफ मुआवजा देने हेतु एक डिस्ट्रेस वारंट का आदेश जारी किया गया था, लेकिन एक अलग तर्क के लिए। रिमाइंडर नोटिस, प्रथम सूचना के सर्विस न होने का एडमिशन नहीं है [एन. परमेश्वरन उन्नी बनाम जी. कन्नन] सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि चेक के ड्रावर को रिमाइंडर नोटिस भेजा जाना, शिकायतकर्ता द्वारा भेजी गयी प्रथम नोटिस के सर्विस न होने के एडमिशन/स्वीकृति के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस मामले में, शिकायतकर्ता ने चेक बाउंस होने के 15 दिनों के भीतर एक नोटिस जारी किया था, लेकिन इसे एक तस्दीक (endorsement), 'सूचना दी गयी, पते पर रहने वाला अनुपस्थित' के साथ लौटा दिया गया था। उन्होंने फिर से एक नोटिस भेजा, जिस इस डाक को इस तस्दीक के साथ लौटाया गया कि, "इनकार किया गया, प्रेषक को लौटाया गया"। शीर्ष अदालत की खंडपीठ ने कहा कि यह कानून है कि जब कोई नोटिस पंजीकृत डाक से भेजा जाता है और डाक इस तस्दीक के साथ लौटाया जाता है कि "इनकार कर दिया" या "घर में उपलब्ध नहीं" या "घर बंद" या "दुकान बंद", तो नियत सेवा (due service) मान ली जाती है। 138 NI अधिनियम के तहत अपराध व्यक्ति विशिष्ट है [एन. हरिहर कृष्णन बनाम जे. थॉमस] सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध व्यक्ति विशेष है। यह भी स्पष्ट किया गया कि Cr.P.C के तहत सामान्य अवधारणा कि अपराध के खिलाफ संज्ञान लिया जाता है और अपराधी के खिलाफ नहीं, यह एनआई अधिनियम के तहत अभियोजन के मामले में उचित नहीं है। मामले में शिकायतकर्ता को एक चेक जारी किया गया था, जिस पर एक हरिहर कृष्णन ने हस्ताक्षर किए थे। यह चेक कथित तौर पर मेसर्स नॉर्टन ग्रेनाइट्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा देय, शेष बिक्री पर प्रतिफल के निर्वहन में ड्रा किया गया था। हालांकि, चेक वास्तव में एक अन्य निजी लिमिटेड कंपनी, मेसर्स दक्षिण ग्रेनाइट्स प्राइवेट लिमिटेड के खाते पर ड्रा किया गया था, जिसमें हरिहर कृष्णन एक निदेशक भी थे। 15 दिनों के नोटिस की अवधि समाप्त होने से पहले शिकायत विचारणीय नहीं [योगेंद्र प्रताप सिंह बनाम सावित्री पांडे] उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान 15 दिनों की अवधि पूरी होने से पहले दर्ज की गई सूचना के आधार पर नहीं लिया जा सकता है, जो अवधि, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 (सी) के संदर्भ में चेक के ड्रॉअर को दिए जाने के लिए आवश्यक नोटिस अवधि के रूप में निर्धारित की गई है। यह भी कहा गया है कि चेक payee या धारक द्वारा आपराधिक मामले में फैसले की तारीख से एक महीने के भीतर एक नई शिकायत दर्ज की जा सकती है और उस दशा में, शिकायत दर्ज करने में देरी को एनआई अधिनियम की धारा 142 की धारा (बी) के परंतुक के तहत 'condoned' माना जाएगा।


Wednesday 28 October 2020

अभियुक्त की 'डिफॉल्ट बेल' की माकूल स्थिति आ जाने पर कोर्ट को उसके इस अधिकार के बारे में बताना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 28 Oct 2020

 

*अभियुक्त की 'डिफॉल्ट बेल' की माकूल स्थिति आ जाने पर कोर्ट को उसके इस अधिकार के बारे में बताना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 28 Oct 2020*

"मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह की जानकारी साझा करने से अभियोजन पक्ष का टालमटोल वाला रवैया विफल होगा" सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त की 'डिफॉल्ट जमानत' की माकूल स्थिति आ जाने पर कोर्ट को चाहिए कि वह अभियुक्त को उसके इस अपरिहार्य अधिकार की उपलब्धता के बारे में बताये। न्यायमूर्ति यू. यू. ललित, न्यायमूर्ति एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति विनीत सरन की खंडपीठ ने सोमवार को दिये गये अपने फैसले में कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167(2) के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उपलब्ध अत्यधिक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों का ही हिस्सा हैं। बेंच ने यह भी कहा है कि यदि कोर्ट जमानत अर्जी पर कोई फैसला नहीं लेता है और अभियोजन पक्ष को समय देकर सुनवाई टाल देता है तो यह विधायी आदेश का उल्लंघन होगा।  कोर्ट ने कहा कि 'डिफॉल्ट जमानत' का प्रावधान निष्पक्ष ट्रायल तथा त्वरित जांच एवं ट्रायल सुनिश्चित करने और ऐसी युक्तियुक्त प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए है, जिससे समाज के गरीबों, वंचितों के हित संरक्षित हो सकें। कोर्ट ने 'राकेश कुमार पॉल बनाम असम सरकार, (2017) 15 एससीसी 67' के मामले का उल्लेख करते हुए कहा : "एक सावधानी के उपाय के तौर पर अभियुक्त के वकील के साथ-साथ मजिस्ट्रेट को भी माकूल वक्त और स्थिति आ जाने पर सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकार की उपलबधता के बारे में बगैर किसी विलंब के सूचित करना चाहिए। यह समाज के वंचित वर्ग के अभियुक्तों के मामले में खासतौर पर किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे अभियुक्तों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी होने की संभावना नहीं होती है। मजिस्ट्रेट द्वारा इस तरह की जानकारी साझा किये जाने से अभियोजन पक्ष के टालमटोल वाले रवैये पर विराम लगेगा और यह सुनिश्चित होगा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार एवं सीआरपीसी के कारण एवं उद्देश्यों को लागू किया जा सका है।"  कोर्ट ने यह भी दोहराया कि 'डिफॉल्ट जमानत' की अर्जी पर सरकार को नोटिस सिर्फ इसलिए जारी किया जाता है कि सरकारी वकील कोर्ट को इस बात से संतुष्ट कर सकें कि अभियोजन ने कोर्ट से समय बढ़ाने का आदेश प्राप्त किया हुआ है, या निर्धारित अवधि समाप्त होने से पहले संबंधित कोर्ट में चालान फाइल किया जा चुका है, या निर्धारित अवधि वास्तव में समाप्त नहीं हुई है। अभियोजन पक्ष तदनुसार कोर्ट से 'डिफॉल्ट' के आधार पर जमानत अर्जी मंजूर किये जाने का अनुरोध कर सकता है।  कोर्ट ने कहा : "इस प्रकार के नोटिस जारी करने से अभियुक्तों द्वारा जानबूझकर या कुछ तथ्यों को बेपरवाह तरीके से तोड़ - मरोड़कर डिफॉल्ट जमानत हासिल करने की संभावना से रोका जा सकेगा, साथ ही कई स्तर पर कार्यवाही पर विराम भी लगेगा। हालांकि, सरकारी वकीलों को मुकदमे को लंबा खींचने और जांच एजेंसी की जांच में कमी को छुपाने के लिए अतिरिक्त समय मांगने के उद्देश्य से दूसरी याचिका/ रिपोर्ट दायर करके सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत दायर जमानत अर्जी पर कोर्ट की ओर से जारी सीमित नोटिस के दुरुपयोग की अनुमति नहीं दी जा सकती।" कोर्ट ने अभियुक्तों को जमानत पर रिहा होने के अति महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित रखने के लिए अभियोजकों की ओर से संबंधित कोर्ट के समक्ष अतिरिक्त शिकायत दर्ज करने की प्रवृत्ति की भी निंदा की। "यदि इस तरह की प्रथा की अनुमति दी जाती है तो धारा 167(2) के तहत प्रदत्त अधिकार निरर्थक हो जायेंगे, क्योंकि जांच अधिकारी अभियुक्त को उसके अधिकार के इस्तेमाल से वंचित रखने के लिए अंतिम समय तक प्रयास कर सकते हैं और जमानत अर्जी पर विचार से ऐन पहले अभियुक्त के नाम के साथ अतिरिक्त शिकायत दर्ज कर सकते हैं। इस तरह की शिकायत फिल्मी कहानियों पर आधारित या अभियुक्त को हिरासत में रखने के लिए हो सकती है ... अपराध की गम्भीरता और उपलब्ध साक्ष्यों की विश्वसनीयता के बावजूद, डिफॉल्ट जमानत की अर्जी को नाकाम करने के इरादे से दर्ज अतिरिक्त शिकायतें, हमारे विचार से अनुचित रणनीति है।" केस का नाम : एम रवीन्द्रन बनाम खुफिया अधिकारी केस का नंबर : क्रिमिनल अपील नंबर 699 / 2020 कोरम: न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनगौदर और न्यायमूर्ति विनीत सरन वकील : एडवोकेट अरुणिमा सिंह,

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/the-court-should-tell-about-this-right-when-the-accused-gets-the-default-status-of-default-bail-supreme-court-165079

Friday 2 October 2020

सजा की अवधि या मूल अपराध की गंभीरता, समय से पहले रिहाई से इनकार करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती : सुप्रीम कोर्ट

 

*सजा की अवधि या मूल अपराध की गंभीरता, समय से पहले रिहाई से इनकार करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती : सुप्रीम कोर्ट  Oct 2020*

       सजा की अवधि या मूल अपराध की गंभीरता, समय से पहले रिहाई से इनकार करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती है, सुप्रीम कोर्ट ने दो दोषियों की प्रोबेशन यानी परिवीक्षा पर रिहाई का निर्देश देते हुए टिप्पणी की। न्यायमूर्ति एनवी रमना की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि रिहाई पर अपराध करने की पूर्वधारणा के बारे में कोई भी आकलन जेल में रहते हुए कैदियों के आचरण के साथ-साथ पृष्ठभूमि पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल उनकी उम्र या पीड़ितों और गवाहों की आशंकाओं पर। 
       विकी और सतीश फिरौती के लिए अपहरण के जुर्म में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। समय से पहले रिहाई के लिए सतीश की याचिका को निम्नलिखित आधारों पर खारिज कर दिया गया- पहला, अपराध जघन्य है, दूसरा, याचिकाकर्ता मुश्किल से 53-54 वर्ष का है और अपराध को दोहरा सकता है, तीसरा, मुखबिर को उसकी रिहाई के खिलाफ गंभीर आशंका है, और चौथा, सरकारी अधिकारी ने समाज पर इसके प्रत्यक्ष प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए उसकी रिहाई पर प्रतिकूल टिप्पणी की है। इसी प्रकार, विकी के लिए, 43 वर्ष की आयु, स्वस्थ शारीरिक स्थिति, मुखबिर की आशंका और अपराध की प्रकृति को आधार बनाया गया। 
समय से पहले रिहाई के लिए याचिका खारिज करने के इन आधारों को ध्यान में रखते हुए, जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा कि यूपी प्रोबेशन एक्ट, 1938 में कैदियों की रिहाई की धारा 2 के तहत तीनों का मूल्यांकन *(i) पिछला इतिहास (ii) कैद के दौरान आचरण और (iii) अपराध से दूरी की संभावना* पर पूरी तरह से किया जाना चाहिए। यह कहा: "यह प्राप्त किया जाएगा कि सजा की अवधि या मूल अपराध की गंभीरता समय पूर्व रिहाई से इंकार करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकती है। रिहाई पर अपराध करने के किसी भी तरह का आकलन, पूर्व इतिहास और जेल में रहते हुए कैदी के आचरण पर आधारित होना चाहिए, और न केवल उसकी उम्र या पीड़ितों और गवाहों की आशंका पर।" 
राज्य के खुद के हलफनामे के अनुसार, दोनों याचिकाकर्ताओं का आचरण संतोषजनक से अधिक रहा है। उनके पास कोई आपराधिक इतिहास नहीं है, और उन्होंने लगभग 16 साल जेल ( छूट समेत 22 साल तक की सजा) की काट ली है। हालांकि, लगभग 54 और 43 साल के होने के बावजूद, उनके पास अभी भी जीवन के पर्याप्त वर्ष शेष हैं, लेकिन यह साबित नहीं करता है कि वे अपराध करने के लिए प्रवृत्ति बनाए रखे हुए हैं। "उत्तरवादी राज्य की बार-बार उम्र पर निर्भरता से कुछ भी नहीं होता, बल्कि ये समय से पहले रिहाई के लिए सभी वैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाले याचिकाकर्ताओं को छूट और परिवीक्षा के उद्देश्य को पराजित करता है।" 
पीठ ने शोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और मुन्ना बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में हाल के निर्णयों का उल्लेख किया। जेल में उनके आचरण पर ध्यान देते हुए, पीठ ने कहा कि यह बहुत कम संभावना है कि वे कोई भी ऐसा काम करेंगे जो उनके पारिवारिक सपनों को चकनाचूर कर सकता है या शर्मिंदा कर सकता है। यह कहा: "वर्तमान मामले में, यह देखते हुए कि याचिकाकर्ताओं ने लगभग दो दशकों तक कैद में कैसे सेवा की है और इस तरह से अपने कार्यों का परिणाम भुगतना पड़ा है; याचिकाकर्ताओं को उनके निरंतर अच्छे आचरण के अधीन सशर्त समय पूर्व रिहाई प्रदान करके व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण के बीच संतुलन बनाया जा सकता है। यह दोनों सुनिश्चित करेंगे कि याचिकाकर्ताओं की स्वतंत्रता पर अंकुश न लगे और न ही समाज के लिए कोई खतरा बढ़े। यह कहने के लिए पर्याप्त है कि यह आदेश अपरिवर्तनीय नहीं है और याचिकाकर्ताओं द्वारा किसी भी भविष्य के कदाचार या उल्लंघन की स्थिति में हमेशा वापस किया जा सकता है।" केवल दंडात्मक दृष्टिकोण और व्यवहार्यता के माध्यम से सभ्य समाज प्राप्त नहीं किया जा सकता है। उनकी रिहाई का निर्देश देते हुए, पीठ ने सुधारवादी सिद्धांत पर जोर देते हुए कहा: "जबकि यह निस्संदेह सच है कि समाज को एक शांतिपूर्ण और भयमुक्त जीवन जीने का अधिकार है, बिना भय के घूमने वाले अपराधियों ने सामान्य शांतिप्रिय नागरिकों के जीवन में कहर ढा दिया है। लेकिन समान रूप से मजबूत सुधारवादी सिद्धांत की नींव है जो यह दावा करती है कि एक सभ्य समाज केवल दंडात्मक दृष्टिकोण और प्रतिशोध के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता है; और इसके बजाय सार्वजनिक सद्भाव, भाईचारे और आपसी स्वीकार्यता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इस प्रकार, पहली बार अपराधियों को उदारतापूर्वक अपने अतीत पर पछतावा करने और एक उज्ज्वल भविष्य की आशा करने का मौका मिला। भारत का संविधान अनुच्छेद 72 और 161 के माध्यम से, इन सुधारवादी सिद्धांतों को भारत के राष्ट्रपति और राज्य के राज्यपाल को दोषियों की सजा निलंबित करने, छूट देने या रद्द करने की अनुमति देता है। इसके अलावा, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 ("सीआरपीसी ') की धारा 432 इसकी प्रक्रिया जारी करने और पूर्व शर्तों को तय करके ऐसी शक्तियां सुव्यवस्थित करती है। सीआरपीसी की धारा 433 ए के तहत एकमात्र रोक आजीवन कारावास की सजा वाले व्यक्तियों की रिहाई के खिलाफ है जब तक वे कम से कम चौदह साल की वास्तविक सजा काट चुके हों। "

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/the-duration-of-the-sentence-or-the-seriousness-of-the-original-offense-cannot-be-the-sole-basis-for-denial-of-premature-release-supreme-court-163803