Monday 17 February 2014

अस्थायी निषेधाज्ञा

अस्थायी व्यादेश या अस्थायी निषेधाज्ञा

प्रायः विचारण न्यायालयों में वाद पत्र के साथ अस्थायी निषेधाज्ञाा का आवेदन पत्र प्रस्तुत होता है और इस आवेदन पत्र के निराकरण में वादी पक्ष को अत्यावश्यकता निषेधाज्ञा पाने की होती हैं वहीं प्रतिवादी पक्ष आवेदन पत्र के जवाब और दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए समय की प्रार्थना करते है और कई बार न्यायालय में काफी तनाव पूर्ण स्थिति निर्मित हो जाती हैं। यहां हम अस्थायी व्यादेश के संबंध में कुछ ऐसी ही प्रायोगिक समस्याओं पर चर्चा करेंगे और उनके बारे में आवश्यक वैधानिक स्थिति पर चर्चा करेंगे।
अस्थायी व्यादेश के बारे में आदेश 39 नियम 1 एवं 2 सी.पी.सी. तथा धारा 94 (सी) सी.पी.सी. में तथा एकपक्षीय अस्थायी व्यादेश के संबंध में आदेश 39 नियम 3 एवं 3ए सी.पी.सी. में प्रावधान है तथा आदेश 39 नियम 1 एवं 2 सी.पी.सी. में म0प्र0 के स्थानीय संशोधन भी ध्यान रखने योग्य हैं।
     यथास्थिति बनाये रखने का आदेश 
1.     वादी की प्रार्थना रहती हैं कि ेजंजने दृ फनव या यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया जाये वहीं प्रतिवादी पक्ष या तो इससे इंकार करता है या इसमें सहमत हो जाता हैं न्यायालय की भूमिका ऐसे अवसर पर महत्वपूर्ण होती हैं।
जब तक यह सुनिश्चित न हो जाये कि वाद प्रस्तुती दिनांक की स्थिति क्या है ? तब तक यथास्थिति बनाये रखने का अस्पष्ट आदेश नहीं करना चाहिये। उभय पक्ष से पूछ ताछ करके वाद प्रस्तुती दिनांक की स्थिति सुनिश्चित करना चाहिये तभी उस स्थिति को यथावत बनाये रखने संबंधी आदेश किया जाना चाहिये।
न्याय दृष्टांत किशोर कुमार खेतान विरूद्ध प्रवीण कुमार सिंह, (2006) 3   एस.सी.सी. 312 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि ऐसा आदेश की पक्षकार यथास्थिति बनाये रखे पारित नहीं करना चाहिये जब तक की न्यायालय यह सुनिश्चित न कर ले की स्थिति या स्टेटस क्या हैं। 
यदि निर्माण संबंधी मामला है तब मौके के फोटो ग्राफ्स बुलवाये जा सकते है वर्तमान में ऐसे फोटो ग्राफ्स आने लगे है जिनमें फोटो ग्राफ लेने का तारीख और समय भी आ जाता है इन फोटो ग्राफ्स से मौके के निर्माण की स्थिति अभिलेख पर आ सकती हैं।
यदि अंतरण संबंधी मामला है तब वाद प्रस्तुती दिनांक तक पंजीकृत विक्रय पत्र के निष्पादन की क्या स्थिति है यह सुनिश्चित किया जा सकता है।
जहां एक पक्ष अपना आधिपत्य बतलाता है और दूसरा पक्ष अपना आधिपत्य बतलाता है तब यथास्थिति बनाये रखने संबंधी अस्पष्ट आदेश नहीं करना चाहिये।
न्याय दृष्टांत अशोक कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा (2007) 3 एस.सी.सी. 470 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सिमित समय के लिए पारित निषेधाज्ञा का आदेश प्रकरण के निराकरण तक नहीं माना जा सकता मामले में 30.08.1998 को पारित स्थगन आदेश को जवाब दावा प्रस्तुत करने तक बढ़ाया गया था। उसे आगे निरंतर नहीं किया गया बाद में वाद निरस्त हो गया यह प्रतिपादित किया गया कि सिमित समय के लिए व्यादेश दिया गया था वह प्रकरण के निराकरण तक नहीं माना जा सकता।
इस तरह जब भी यथास्थिति बनाये रखने का उक्त अनुसार स्पष्ट आदेश पारित करे तब उसे समय-समय पर क्या आगे निरंतर करना है या नहीं इसे ध्यान रखे।
न्याय दृष्टांत अजय मोहन विरूद्ध एच.एन. राई, (2008) 2 एस.सी.सी. 507 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद या अपील वापस ले ली जाने पर संबंधित न्यायालय पदेन वृत्त या  थ्नदबने व्ििपबपव हो जाता है और उन मामलों में वह आगे दो माह तक यथास्थिति बनाये रखने संबंधी आदेश करने की शक्तियाॅं नहीं रखता हैं इस वैधानिक स्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिये।
अस्थायी व्यादेश के सिद्धांत
2.     अस्थायी व्यादेश देने या न देने के बारे में तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिये जो इस प्रकार है:-
ए.     प्रथम दृष्टया मामलाः- वादी का प्रथम दृष्ट्या ऐसा स्थापित मामला अस्थायी निषेधाज्ञाा के लिए होना चाहिए जिसमें जांच के लिए एक विचारणीय प्रश्न निहित हो जो साक्ष्य लेकर ही तय हो सकता है और उसमें वादी के विजयी होने के प्रबल संभावना हो ।
बी.     अपूर्णीय क्षतिः- प्रत्येक क्षति अपूर्णीय क्षति नहीं होती है अपूर्णीय क्षति उसे कहते हैं जो किसी अवैध कृत्य का परिणाम हो और जिसे धन से नहीं तोला जा सकता हो ।
धारा 38 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के उप पैरा 3 में स्थायी व्यादेश देने के जो सिद्धांत बतलाये गये हैं उसमें भी यह प्रावधान है जहां वास्तविक नुकसान या संभावित कारित नुकसान को निश्चित करने के लिए कोई पैमाना न हो या धन के रूप में प्रतिकर जहां उचित अनुतोष न हो वहां स्थायी व्यादेश दिया जाता है ।
सी.     सुविधा का संतुलनः- निषेधाज्ञाा देने या न देने से किस पक्ष को तुलनात्मक रूप से अधिक असुविधा होगी यह देखना होता है और इसी को सुविधा का संतुलन कहते हैं।
विभिन्न प्रकार के अस्थायी व्यादेश के मामले
3.     यहां हम दिन-प्रतिदिन काम में आने वाले विभिन्न प्रकार के मामलों के बारे में क्रमवार चर्चा करेंगे।
साझा दिवार या च्ंतजल ॅंसस के बारे में
4.     जहां दो पड़ोसियों के मकान एक दूसरे से लगे हुये हो और उनके बीच की दिवार साझा दिवार हो वहां जब एक पक्ष अपने भाग के निर्माण का कार्य प्रारंभ करता है तब दूसरा पक्ष निषेधाज्ञा का मामला लेकर आता है उसके अनुसार कथित निर्माण से उसका मकान क्षतिग्रस्त होगा ऐसे मामलों में प्रायः कठिनाई होती है न्यायालय को ऐसे समय पर न्याय दृष्टांत गुलाब चंद विरूद्ध माणिकचंद, 1960 जे.एल.जे. 419 में साझा दिवार के अधिकार के बारे में प्रतिपादित निम्न विधि ध्यान रखना चाहिये:-
ए.     प्रत्येक सह-स्वामी युक्तियुक्त रूप से साझा दिवार का उपयोग दूसरे सह-स्वामी के उपभोग के अधिकारों में हस्तक्षेप किये बिना कर सकता है किन्तु उसे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये जो साझा दिवार को क्षतिग्रस्त या कमजोर करे।
बी.     यदि एक सह-स्वामी साझा दिवार के उपर नई दिवार दूसरे सह-स्वामी की सहमति से या उसकी जानकारी में बनाता है तब नव निर्मित दिवार का भाग वैसे ही साझा दिवार समझा जायेगा जैसे मूल दिवार समझी जाती हैं उसका करेक्टर वहीं रहेगा।
सी.     यदि एक सह-स्वामी साझा दिवार के उपर नई दिवार दूसरे सह-स्वामी के सहमति के बिना या उसकी जानकारी के बिना बनाता है तब वह अपने आपको निषेधाज्ञा के लिए उत्तरदायी बनाता हैं।
डी.     यदि साझा दिवार किसी एक सह-स्वामी ने अपने खर्च से पुनःनिर्मित की है तब भी उस दिवार का मूल चरित्र साझा दिवार ही रहता है और नवनिर्माण करने वाला पक्ष ऐसा व्यादेश नहीं पा सकता की दूसरा सह-स्वामी अब स्वामित्व क्लेम नहीं कर सकता।
5.     न्याय दृष्टांत प्रसन्न कुमार जैन विरूद्ध डाॅं. बसंत बामन राव, 2009 (3) एम.पी.एच.टी. 478 (डी.बी.) में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने साझा दिवार शब्द को स्पष्ट किया है।
इस तरह जब कभी साझा दिवार के मामले में निर्माण रोकने संबंधी अस्थायी व्यादेश की स्थिति उत्पन्न हो तब उक्त न्याय दृष्टांत गुलाब चंद विरूद्ध माणिकचंद से मार्गदर्शन लेना चाहिये और मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित आदेश करना चाहिये यदि पड़ोसी सहमति नहीं देता है तो मात्र इस कारण दूसरे पड़ोसी को निर्माण का अधिकार नहीं रहेगा ऐसी वैधानिक स्थिति नहीं हैं बल्कि कोई एक पक्ष अपना पूरा खर्च लगाकर साझा दिवार पुर्नर्निमित कर सकता है और ऐसा होने पर भी दिवाल का मूल चरित्र साझा दिवार का ही रहता हैं।
वाद प्रस्तुत करने में विधिक बाधा होने की स्थिति
6.     कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है की वादी को वाद प्रस्तुत करने में विधिक बाधा रहती है लेकिन उसे कुछ अत्यावश्यक अनुतोष जैसे अस्थायी व्यादेश की भी आवश्यकता रहती है जैसे धारा 401 म0प्र0 नगर पालिक अधिनियम, 1956 में यह प्रावधान है कि सूचना पत्र दिये बिना और सूचना पत्र देने के बाद दो माह का समय व्यतीत होने के बाद ही वाद लाया जा सकता है इस अधिनियम में धारा 80 (2) सी.पी.सी. 1908 की तरह कोई प्रावधान भी नहीं है ऐसी परिस्थितियों में न्याय के उद्देश्य को निष्फल होने से रोकने के लिए आवश्यक वैधानिक स्थिति ध्यान में रखना चाहिये।
उक्त परिस्थितियों में वादी धारा 94 (सी) सी.पी.सी. 1908 के तहत अस्थायी व्यादेश के लिए आवेदन प्रस्तुत करता है और उस आवेदन पत्र में वाद पत्र के समान सारे अभिवचन होते है और न्यायालय से अस्थायी व्यादेश की प्रार्थना की जाती है न्यायालय को यह देख लेना चाहिये की धारा 401 म0प्र0 नगर पालिक अधिनियम का सूचना पत्र दे दिया गया हैं तथा अभी दो माह की अवधि पूर्ण नहीं हुई है तब न्यायालय उक्त आवेदन को विविध दिवानी पंजी या एम.जे.सी. रजिस्टर में दर्ज करते हैं प्रतिवादी पक्ष को सूचना पत्र जारी करते है तथा उभय पक्ष को सुनकर अस्थायी निषेधाज्ञा के आवेदन पत्र का निराकरण करते हैं और उक्त दो माह की अवधि के लिए वादी को अस्थायी निषेधाज्ञा दे सकते हैं। इस संबंध में  न्याय दृष्टांत म्युनसिपल काॅर्पोरेशन रतलाम विरूद्ध दिलीप सिंह, 2003 (1) जे.एल.जे. 396 अवलोकनीय हैं लेकिन धारा 94 (सी) सी0पी0सी0 के आवेदन के साथ वाद पत्र प्रस्तुत करना होगा जो दर्ज नहीं किया जायेगा।
जहां वादी को वाद प्रस्तुत करने में कोई विधिक बाधा न हो और वह धारा 94 (सी) सी.पी.सी. का आवेदन पत्र लेकर आता है और वाद प्रस्तुत नहीं करता वहां ऐसा आवेदन पत्र बिना वाद प्रस्तुत किये प्रचलन योग्य नहीं होता हैं। वादी यह अभिवचन लेकर आवेदन लाता है कि सौहाद्र पूर्ण समझौता होने की संभावना है और तब तक व्यादेश की प्रार्थना करता है तब ऐसा आवेदन बिना वाद के प्रचलन योग्य नहीं होगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुरेन्द्र राठौर विरूद्ध विश्वनाथ भसीन, 2009 (3) एम.पी.एच.टी. 60 डी.बी. अवलोकनीय हैं जिसमें यह विधि प्रतिपादित की गई हैं।
इस तरह न्यायालय को यह परीक्षण करना चाहिये की क्या वादी को वाद लाने में कोई विधिक बाधा है या नहीं। यदि विधिक बाधा है तब धारा 94 (सी) सी.पी.सी. 1908 के तहत आवेदन प्रचलन योग्य है और उसे एम.जे.सी. रजिस्टर में दर्ज कर उक्त अनुसार निराकृत किया जायेगा लेकिन आवेदन के साथ वाद पत्र आवश्यक स्टाम्प लगाकर पेश करना आवश्यक हैं वाद पत्र  पंजीबद्ध नहीं किया जायेगा विधिक बाधा हट जाने पर अर्थात सूचना पत्र की अवधि दो माह जैसा की धारा 401 म0प्र0 नगर पालिक अधिनियम में आवश्यक है व्यतित हो जाने पर वाद पंजीबद्ध किया जायेगा। जहां वाद लाने में विधिक बाधा नहीं है वहां बिना वाद प्रस्तुत किये ऐसा आवेदन प्रचलन योग्य नहीं होगा और नियमित वाद प्रस्तुत करके उसमें आदेश 39 नियम 1 एवं 2 सी0पी0सी0 का आवेदन लगाना होगा।
व्यापार चिन्ह, व्यापार नाम या टेªडमार्क, टेªडनेम के मामले
7.     वर्तमान समय में व्यापारिक गतिविधियाॅं तेज हो गई हैं बाजार में नये-नये उत्पाद आ रहे है ऐसे में व्यापार चिन्ह व व्यापार नाम के उपयोग को लेकर विवाद की स्थिति बनती हैं जहां एक ओर न्यायालय को वादी पक्ष के अधिकारों की रक्षा करना होता है वही यह रक्षा इस प्रकार करना होता है कि सही तरीके से उपयोग किये जा रहे विपक्षी के किन्हीं अधिकारों में व्यवधान या बाधा न हो इन दोनों के बीच एक संतुलन बनाना होता है जैसा की न्याय दृष्टांत मार्बल सिटी हाॅस्पिटल एवं रिसर्च सेन्टर प्रायवेट लिमिटेड विरूद्ध सिटी हाॅस्पिटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, 2009 (2) एम.पी.एल.जे. 73 में प्रतिपादित किया गया हैं।
8.      न्याय दृष्टांत केडीला हेल्थ केयर लिमिटेड विरूद्ध केडीला फारमा सुटिकल लिमिटेड (2001) 5 एस.सी.सी. 73 में निर्णय चरण 35 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दो व्यापार चिन्हों में समानता तय करने के बारे में कुछ बिन्दु दिये है जो ध्यान में रखना चाहिये जो निम्न प्रकार से है:-
ए.     चिन्ह की प्रकृति जैसे शब्द चिन्ह है या लेबल चिन्ह है या शब्द चिन्ह और लेबल चिन्ह है।
     बी.     व्यापार चिन्हों के आपस में सदृश होने की कोटि या डिग्री, फोनेटिकली समानता।
     सी.     सामान या गुडस की प्रकृति जिसके लिए व्यापार चिन्ह प्रयोग में लाये जा रहे है।
     डी.     व्यापार चिन्हों में उनकी प्रकृति, चरित्र और प्रदर्शन में समानता।
ई.     खरीददारों का वर्ग जो सामान्यतः उस वस्तु को खरीदता है उनकी शैक्षणिक योग्यता, बुद्धिमानी और सामान खरीदते समय उनके द्वारा रखी जाने वाली सावधानी।
     एफ.     सामान खरीदने का तरीका।
     जी.     अन्य कोई परिस्थितियाॅं जो सुसंगत हो और चिन्हों में असमानता दर्शाती हो।

9.      न्याय दृष्टांत पारले प्रोडेक्ट प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध जे.पी. एण्ड कंपनी मैसूर,    ए.आई.आर. 1972 एस.सी. 1359 में भी इस संबंध में प्रकाश डाला गया है और एक व्यापार चिन्ह दूसरे के समान है इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए ध्यान रखे जाने योग्य बाते बतलाई हैं जैसे एक व्यक्ति प्रायः उस सामान को उपयोग में लाता है उसे यदि एक के बजाये दूसरा सामान आॅफर किया जाये और उसे स्वीकार करने की त्रूटि कर ले।
इस तरह यदि कोई व्यक्ति एक ब्रांड का गुडस या सामान उपयोग में लेता है उसे यदि उसी जैसा दूसरा ब्रांड दिया जाये तो उसे वह पहला समझ कर स्वीकार कर ले इतनी समानता होना चाहिये।
10.      न्याय दृष्टांत हेन्ज इटालिया विरूद्ध डाबल इंडिया (2007) 6 एस.सी.सी. 1 के अनुसार वादी को पूर्व से टेªडमार्क का उपयोग करना प्रमाणित करना होगा टेªडमार्क का रजिस्टेªशन हो जाना तात्विक नहीं है इन मामलों में दो टेªडमार्क में समानतायें क्या है यह ध्यान रखना चाहिये असमानताएॅं नहीं।
11.      न्याय दृष्टांत मीडास हाईजिन इंडस्ट्रीड प्राईवेट लिमिडेट विरूद्ध सुधीर भाटिया, (2004) 3 एस.सी.सी. 90 में यह प्रतिपादित किया गया है कि टेªडमार्क के उल्लंधन के मामलों में और काॅपी राईट के मामलों में न्यायालय को सामान्यतया अंतरित व्यादेश देना चाहिये।
11ए.     धारा 134 टेªडमार्क एक्ट, 1999 के तहत ऐसे मामले जिला न्यायालय में ही प्रस्तुत हो सकते है जिनके क्षेत्राधिकार में वाद कारण उत्पन्न होता है इस तरह इन मामलों में सुनवाई का क्षेत्राधिकार जिला न्यायाधीश को होता है व्यवहार न्यायाधीश को नहीं होता हैं।
भवन गिराने के मामले
12.     न्याय दृष्टांत सीमा अरशद जहीर विरूद्ध म्युनसिपल काॅर्पोरेशन ग्रेटर मुंबई, (2006)  5 एस.सी.सी. 282 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि भवन गिराने से रोकने संबंधी मामलों में अस्थायी निषेधाज्ञा जारी करते समय न्यायालय को विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय सावधान रहना चाहिये जहां निर्माण प्रथम दृष्ट्या ही अवैध प्रतीत हो वहां वादी का प्रथम दृष्ट्या मामला ही नहीं बनता है वहां निर्माण गिराने से रोकने की अस्थायी निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती हैं जहां यह जाॅंच का विषय हो की क्या निर्माण अवैध है वहां वादी को अपना मामला प्रमाणित करने का अवसर निर्माण गिराने के पूर्व मिलना चाहिए। 
13.      न्याय दृष्टांत एम.आई. बिल्डर्स विरूद्ध राधेश्याम साहू, (1999) 6 एस.सी.सी. 464 में निर्णय के चरण 73 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि जहां निर्माण अप्राधिकृत हो वहां बिल्डर या अन्य व्यक्ति के विरूद्ध कोई लिहाज या कंसीडेªशन नहीं दिखाना चाहिये यह कथन लगभग कानून का नियम है यह मानना चाहिये अप्राधिकृत निर्माण यदि वह अवैध है और राजीनामा योग्य भी नहीं है उसे गिराना चाहिये इसके अलावा कोई रास्ता नहीं होता हैं।
मानहानि कारक प्रकाशन के विरूद्ध व्यादेश
14.     मानहानि कारक प्रकाशन को रोकने के विरूद्ध व्यादेश के मामले में यह ध्यान रखना चाहिये  प्रकाशन असत्य कथनों पर आधारित हो तब भी नहीं रोका जा सकता जब तक की यह स्थापित न हो कि प्रकाशन सत्य की लापरवाही पूर्ण अवहेलना हैं। लेखक व प्रकाशक ने प्रत्येक अभिकथन के बारे में अनुसंधान या रिसर्च वर्क किया और उस पर आधारित प्रकाशन था उसे नहीं रोका गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत डोमेनिकल लेपियर विरूद्ध स्वराजपुरी, ए.आई.आर. 2010 एम.पी. 121 अवलोकनीय हैं।
15.      न्याय दृष्टांत आर. राजगोपाल उर्फ आर.आर. गोपाल विरूद्ध स्टेट आॅफ तमिलनाडू, ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 264 भी इस संबंध में अवलोकनीय हैं जिसमें एक आत्मकथा के प्रकाशन पर सरकार द्वारा उसके मानहानि कारक हो सकने की संभावना के आधार पर रोक लगाने के विरूद्ध निष्कर्ष दिया गया हैं।
लागत आधारित योजनाओं के विरूद्ध व्यादेश
16.     किन्हीं योजनाओं के विरूद्ध व्यादेश देने के मामले में न्यायालय को सावधान व धीमा रहना चाहिये जो लागत पर आधारित हो इस संबंध में न्याय दृष्टांत एम.पी. हाउसिंग बोर्ड विरूद्ध अनिल कुमार 2005 (2) जे.एल.जे. 168 एस.सी. अवलोकनीय हैं।
अंतरित अस्थायी आज्ञापक व्यादेश के बारे में
17.     न्याय दृष्टांत एफ.एफ.आई. एल.सी. विरूद्ध मेसर्स सुप्रीम इंजीनियर, 2010 (5)      एम.पी.एच.टी. 173 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अंतरित अस्थायी आज्ञापक व्यादेश देते समय यह देखना चाहिये की वादी का मजबूत प्रथम दृष्ट्या मामला हो प्रथम दृष्ट्या मामले से उच्च स्तर का मामला होना चाहिये विपक्षी को नोटिस भी देना चाहिये इस मामले में न्याय दृष्टांत दोराब जी विरूद्ध सौरभ (1990) 2 एस.सी.सी. 117, मेसर्स विजय श्रीवास्तव विरूद्ध राहुल, ए.आई.आर. 1988, देहली 140, बबन नारायण विरूद्ध मधु भीखा जी, ए.आई.आर. 1989 बाॅम्बे 247, इंडियन केबल कंपनी विरूद्ध श्रीमती सुमित्रा, ए.आई.आर. 1985 कलकत्ता 248 पर विचार किया गया।
18.      न्याय दृष्टांत मेटरो मेरिस विरूद्ध बोनस वाच (2004) 7 एस.सी.सी. 478 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अंतरिम अस्थायी आज्ञापक व्यादेश अपवाद स्वरूप मामलों में देना चाहिये।
19.      न्याय दृष्टांत बद्री लाल विरूद्ध राधेश्याम, 2003 आर.एन. 107 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अंतरिम आज्ञापक व्यादेश अपवाद स्वरूप मामलों में वाद प्रस्तुती दिनांक की स्थिति को पुनः स्थापित करने के लिए देना चाहिये इसके द्वारा कोई नई स्थिति नहीं बनाई जा सकती।
19ए.     एक पक्षीय अंतरित आज्ञापक अस्थायी निषेधाज्ञा के मामलें में यह भी देखना चाहिये की वादी विलंब का दोषी तो नहीं हैं। ऐसे मामले में प्रतिवादी जैसे ही अवैध कृत्य प्रारंभ करता है वादी को आपत्ति करना चाहिये और प्रतिवादी को सावधान करना चाहिये की अवैध कृत्य रोक दे अन्यथा उसके विरूद्ध आज्ञापक आदेश की या वैधानिक कार्यवाही की जायेगी और अनुचित विलंब के बिना वादी को वाद पेश कर देना चाहिये ऐसी दशा में न्यायालय उचित मामलों में वाद प्रस्तुती दिनांक की स्थिति पुनः स्थापित करने के लिए अस्थायी आज्ञापक व्यादेश दे सकते हैं।
एन्टी सूट व्यादेश
20.      न्याय दृष्टांत इंडिया हाउस होल्ड एण्ड हेल्थ केयर प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध एल.जी. हाउस होल्ड एण्ड हेल्थ केयर प्राईवेट लिमिटेड (2007) 5 एस.सी. 510 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायालय को एन्टी सूट व्यादेश में ऐसा आदेश पारित नहीं करना चाहिये जो किसी सक्षम न्यायालय द्वारा पारित आदेश से विरोधित हो। 
21.     न्याय दृष्टांत स्टेट बैंक आॅफ इंडिया विरूद्ध बैंक आॅफ आयरलैंड, आई.एल.आर. (2010) एम.पी. 924 में यह प्रतिपादित किया गया है कि इन शक्तियों का उपयोग बहुत कम मामलों में करना चाहिये अन्य न्यायालयों के क्षेत्राधिकार का सम्मान करते हुये त्नसम व िबवउपजल  को ध्यान में रखना चाहिये इन मामलों में भी निषेधाज्ञा के सामान्य सिद्धांत लागू होते हैं।
अंतरण रोकने के बारे में
22.     अंतरण रोकने के मामले में अस्थायी निषेधाज्ञा देते समय न्यायालय को अतिरिक्त सावधानी बरतना चाहिये क्योंकि वादी को धारा 52 संपत्ति अंतरण अधिनियम का संरक्षण प्राप्त होता है साथ ही यह देखना चाहिये की वादी निषेधाज्ञा किसी गलत हेतुक के कारण तो नहीं ले रहा है क्योंकि कोई भी व्यक्ति अकारण अपनी संपत्ति नहीं बेचता हैं इन तथ्यों को ध्यान रखना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवी प्रसाद विरूद्ध बाबू लाल, 1993 (1) एम.पी.जे.आर. 462 अवलोकनीय हैं।
23.     न्याय दृष्टांत जयप्रकाश एसोसियेट विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. 2011 (3) एम.पी.एल.जे. 44 में यह प्रतिपादित किया गया है कि राज्य के विरूद्ध अस्थायी व्यादेश दिया गया था बाद में प्रार्थी को संपत्ति पट्टे पर दी गई प्रार्थी को भी पक्षकार बनाया गया उसके विरूद्ध भी अस्थायी व्यादेश दिया गया क्योंकि धारा 52 संपत्ति अंतरण अधिनियम में डिक्री और आदेश दोनों पश्चातवर्ती अंतरिती पर लागू होंगे क्योंकि उसने राज्य से संपत्ति में हित प्राप्त किया था राज्य के विरूद्ध पहले से व्यादेश था।
बैंक गारंटी के विरूद्ध व्यादेश
24.     न्याय दृष्टांत एस. हंडेल बैंक विरूद्ध इंडियन चार्ज चारमे, ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 626 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बैंक गारंटी के भुगतान कि विरूद्ध व्यादेश नहीं देना चाहिये जब तक यह न दर्शाया हो बैंक गारंटी कपट से प्राप्त की गई है।
प्रथम दृष्टया मामला
25.     न्याय दृष्टांत एम. गुरूदास विरूद्ध रसरंजन, (2006) 8 एस.सी.सी. 367 में प्रथम दृष्ट्या मामला किस स्तर का होना चाहिये यह बताया गया हैं वादी का प्रथम दृष्ट्या विचारण योग्य मामला होना चाहिये सुविधा का संतुलन और अपूर्णनीय क्षति का सिद्धांत भी उसके पक्ष में होना चाहिये इनमें से कोई भी एक न हो तो निषेधाज्ञा से इंकार किया जा सकता है वादी द्वारा जो विचारण योग्य मामला उठाया गया है वह एक गंभीर प्रश्न होना चाहिये वादी का आचरण भी महत्वपूर्ण होता हैं इन सब तथ्यों पर इस न्याय दृष्टांत में पकाश डाला गया हैं।
26.     न्याय दृष्टांत नगर पालिका परिषद् मिलाजखंड विरूद्ध हिन्दुस्तान काॅपर लिमिटेड, 2009 (1) एम.पी.एच.टी. 48 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करने में वादी को स्पष्ट विधिक स्वत्व स्थापित नहीं करना होता है वादी को केवल यह स्थापित करना होता है कि उसके पक्ष में उसके विधिक अधिकार के संबंध में एक फेयर प्रश्न है जिसका विचारण होना हैं।
अपूर्णनीय क्षति के बारे में
27.     न्याय दृष्टांत कुलदीप सिंह विरूद्ध सुभाषचंद्र जैन, ए.आई.आर. 2000 एस.सी.सी. 1410 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसी क्षति जिसकी पूर्ति धन से नहीं हो सकती है और जिसे मापने का कोई पैमाना न हो उसे अपूर्णनीय क्षति कहते हैं।
28.     न्याय दृष्टांत महारावल खेवजी ट्रस्ट विरूद्ध बलदेव दास, (2004) 8 एस.सी.सी. 488 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जब तक अपूर्णनीय क्षति का मामला न बनता हो न्यायालय संपत्ति के स्वरूप में परिवर्तन की अनुमति नहीं देते हैं।
29.     न्याय दृष्टांत ईश्वर चंद विरूद्ध सुशील जैन, आई.एल.आर. (2009) एम.पी. 2796   डी.बी. में भागीदार फर्म के विभाजन के बाद में प्रतिवादी को फर्म के नाम, गुड विल व संपत्ति के उपयोग से रोकने अस्थायी व्यादेश दिया गया था जबकि प्रतिवादीगण व्यापार चला रहे थे यह प्रतिपादित किया गया कि प्रतिवादीगण जो व्यापार चला रहे है उन्हें अपूर्णनीय क्षति होना है और सुविधा का संतुलन भी व्यापार चला रहे प्रतिवादीगण के पक्ष में हैं व्यादेश उचित नहीं माना गया।
वाद की प्रचलनशीलता व क्षेत्राधिकार के बारे में
30.     न्याय दृष्टांत विद्या टेलीलिंक्स विरूद्ध स्टेट बैंक आॅफ इंडिया, 1995 जे.एल.जे. 609 डी.बी. में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि अस्थायी व्यादेश के प्रक्रम पर भी प्रथम दृष्ट्या मामले पर विचार करते समय प्रथम दृष्ट्या क्षेत्राधिकार और वाद की प्रचलनशीलता देखी जा सकती है अतः इस वैधानिक स्थिति के प्रकाश में अस्थायी व्यादेश के आवेदन पर विचार करते समय क्षेत्राधिकार और वाद की प्रचलनशीलता पर विचार करना चाहिये।
आधिपत्य के बारे में
31.     कृषि भूमि के मामलों में और खुली भूमि के मामलों में सामान्यतः वास्तविक स्वामी का आधिपत्य माना जा सकता है और जो कोई इसके विपरीत कथन करता है उसे यह प्रमाणित करना होता है आधिपत्य उसका है क्योंकि आधिपत्य स्वत्व का अनुसरण करता है या पजेशन फलोस टायटल का सिद्धांत लागू होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत नगर पालिका बीना विरूद्ध नंद लाल, ए.आई.आर. 1961 एम.पी. 212 निर्णय चरण 4 उप पैरा 2 एवं अमृत लाल विरूद्ध केशरी प्रसाद, ए.आई.आर. 1978 एम.पी. 76 डी.बी. से मार्गदर्शन लिया जा सकता हैं।
32.     स्थापित आधिपत्य के बारे में वैधानिक स्थिति यह है कि जो व्यक्ति किसी संपत्ति के स्थापित आधिपत्य में होता है उसका आधिपत्य संरक्षित किया जाना चाहिये और उसे मूल स्वामी में वैधानिक प्रक्रिया अपना कर ही हटा सकता है जैसा की न्याय दृष्टांत राम गोड़ा विरूद्ध एम. वरदप्पा नायडू, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4609, प्रताप राई एन. कोठारी विरूद्ध चांद ब्रेगेंजा, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 166 निर्णय चरण 11 में प्रतिपादित किया गया हैं।
स्थापित आधिपत्य के बारे में न्याय दृष्टांत गजेन्द्र सिंह विरूद्ध मानसिंह, 2000 (2) एम.पी.एल.जे. 316, कृष्ण कुमार विरूद्ध स्टेट, 2000 (1) जे.एल.जे. 336, शिवराम विरूद्ध देउबाई, 2006 (2) एम.पी.एल.जे. 450 भी अवलोकनीय है जिसमें स्थापित आधिपत्य क्या है और उसे संरक्षित करने के बारे में विधि प्रतिपादित की गई हैं।
33.     निषेधाज्ञा के माध्यम से अतिक्रामक का आधिपतय सुरक्षित नहीं करना चाहिये क्योंकि यह एक साम्य पूर्ण अनुतोष है अतः इसे पाने वाले व्यक्ति को स्वच्छ हाथों से न्यायालय में आना चाहिये न्याय दृष्टांत कमल सिंह विरूद्ध जयराम सिंह, 1996 सी.सी.एल.जे. 349 एम.पी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि अस्थायी निषेधाज्ञा केवल आधिपत्य के आधार पर नहीं दी जाना चाहिये अन्यथा शक्ति के बल पर संपत्ति पर कब्जा करने वाले व्यक्ति इसका लाभ लेंगे आधिपत्य ऐसा होना चाहिये जिसकी कुछ विधिक मान्यता हो न्याय दृष्टांत महादेव सावल राम विरूद्ध पुणे म्युनसिपल काॅर्पोरेशन, (1995) 3 एस.सी.सी. 33 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि वास्तविक स्वामी के विरूद्ध और अवैध आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति के पक्ष में व्यादेश नहीं देना चाहिये।
     न्याय दृष्टांत गंगू बाई विरूद्ध सीताराम, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 742 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि विधि पूर्ण आधिपत्य रखने वाले व्यक्ति के पक्ष में ही निषेधाज्ञा देना चाहिये।
34.     उक्त वैधानिक स्थितियों के प्रकाश में न्यायालय को यह देखना चाहिये की कौन अतिक्रामक है और कौन संपत्ति के लंबे शांति पूर्ण और स्थापित आधिपत्य में है और उसी अनुसार प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में आदेश पारित करना चाहिये।
34ए.     खसरा पंचसाला में आधिपत्य संबंधी इंद्राज रहते है एवं बी 1 किस्त बंदी खतौनी में अभिलिखित भूमि स्वामी कौन है इसका पता लगता है अतः आधिपत्य देखने के लिए खसरा पंचसाला देखा जाता हैं।
सह-स्वामी के बारे में
35.     यह स्थापित विधि हैं कि एक सह-स्वामी के पक्ष में और दूसरे सह-स्वामी के विरूद्ध संपत्ति के आधिपत्य उपयोग और उपभोग को रोकने के लिए व्यादेश नहीं दिया जाना चाहिये इसका एक अपवाद यह है कि जहां संयुक्त हिन्दु परिवार की संपत्ति में सह-स्वामी परस्पर सहमति से पृथक-पृथक आधिपत्य में हो वहां ऐसे पृथक एकमेव आधिपत्य की रक्षा के लिए निषेधाज्ञा दी जा सकती हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तनूश्री बसू विरूद्ध ईशानी प्रसाद, (2008) 4 एस.सी.सी. 791 अवलोकनीय हैं।
साम्या के बारे में
36.     व्यादेश एक साम्य पूर्ण अनुतोष है और जो पक्ष ऐसा अनुतोष चाहता है उसे स्वच्छ हाथों से न्यायालय में आना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत अमर सिंह विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया (2011) 7 एस.सी.सी. 69 अवलोकनीय है जिसमें साम्या को स्पष्ट किया गया है और यह भी प्रतिपादित किया गया है कि व्यादेश के मामले में अभिवचन स्पष्ट और असंदिग्ध होना चाहिये न्याय दृष्टांत मेसर्स गुजरात बाटलिंग कंपनी विरूद्ध कोका कोला कंपनी, ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 2372 भी इस बारे में अवलोकनीय हैं।
म0प्र0 स्थानीय संशोधन
37.     अस्थायी व्यादेश के आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में हुये म0प्र0 के स्थानीय संशोधन भी ध्यान में रखना चाहिये जिनमें कुछ मामलों में अस्थायी व्यादेश दिये जाने पर प्रतिबंध लगाये गये है और इन प्रावधानों के उल्लंघन में जारी व्यादेश को शून्य समझा जायेगा ऐसे प्रावधान किये गये हैं जो निम्न प्रकार से हैंः-
         ’’परंतु कोई ऐसा व्यादेश मंजूर नहीं किया जायेगा:-
ए.     जहां विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 38 तथा 41 के प्रावधनों के अनुसार कोई स्थायी व्यादेश मंजूर नहीं किया जा सकता अथवा,
बी.     किसी व्यक्ति जो लोक सेवा या राज्य के मामले से संबंधित पद पर नियुक्त किया गया हो, जिसमें राज्य सरकार के स्वामित्व या राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित किसी कंपनी या निगम का कर्मचारी भी शामिल है, के स्थानांतरण, निलंबन, पदोन्नती, अनिवार्य सेवा निवृत्ति, पदच्युति, पद से हटाने या सेवा के अन्यथा पर्यवसान या प्रभार ग्रहण करने के लिए आदेश के प्रवर्तन का स्थागित करने के लिए या
सी.     किसी व्यक्ति जो लोक सेवा या राज्य के मामलों से संबंधित पद पर नियुक्त किया गया हो जिसमें राज्य सरकार के स्वामित्व में या राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित कंपनी का कर्मचारी भी शामिल है के विरूद्ध किसी अनुशासनात्मक कार्यवाही जो लंबित हो उसे स्थागित करने
         डी.     किसी निर्वाचन को रोकने के लिए या
ई.     किसी निलामी, जो किये जाने के लिए आशचित है को रोकने या सरकार द्वारा की गई किसी निलामी के प्रभाव को रोकने के लिए जो भू-राजस्व के रूप में बकाया की वसूली की तरह हो को स्थागित करने के लिए जब तक की पर्याप्त प्रतिभूति न दे दी जाये।
प्रतिवादी के पक्ष में अस्थायी व्यादेश
38.     कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि प्रतिवादी अस्थायी व्यादेश की मांग करता है जैसे वादी ने निष्कासन का वाद प्रस्तुत किया है और वादी ही वाद ग्रस्त संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का कृत्य भी करता है मकान मालिक किरायेदार के इन विवादों में ऐसी स्थिति कभी-कभी उत्पन्न हो जाती है तब उचित मामले में प्रतिवादी के पक्ष में भी अस्थायी व्यादेश वाद ग्रस्त संपत्ति के क्षतिग्रस्त होने से रोकने के लिए दी जा सकती हैं अतः इस स्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिये।
एक पक्षीय अस्थायी व्यादेश
39.     वादी वाद पत्र और अस्थायी निषेधाज्ञा के आवेदन के साथ आदेश 39 नियम 3 सी.पी.सी. का एक आवेदन पत्र एक पक्षीय अस्थायी निषेधाज्ञा पाने के लिए प्रस्तुत करता है ऐसे आवेदन पत्रों को अत्यंत सावधानी से निराकृत करना चाहिये यदि प्रतिवादी पर विशेष वाहक से सूचना पत्र का निर्वाह करवाया जा सकता हो और उस बीच वाद ग्रस्त संपत्ति को या मामले के अन्य तथ्यों में कोई गंभीर हानि कारित होने की संभावना न हो तब सामान्यतः प्रतिवादी को एक या दो दिन की तिथि नियत कर सूचना पत्र विशेष वाहक से तामील करवा लेना चाहिये।
39ए.     एक पक्षीय अस्थायी निषेधाज्ञा देने का यदि उचित मामला हो तब सकारण आदेश लिखना चाहिये और आदेश 39 नियम 3 (ए) (बी) सी.पी.सी. की पालना भी करवाना चाहिये और आदेश 39 नियम 3ए सी.पी.सी. के प्रावधानों के तहत मूल आवेदन को 30 दिन के भीतर निपटाने का प्रयास करना चाहिये 
लिखित वचन या न्दकमत ज्ंापदह के बारे में
40.     कभी-कभी प्रतिवादी पक्ष यह लिखित वचन या न्दकमत ज्ंापदह देने के लिए तैयार रहता है कि यदि वह वाद में असफल रहा तो अपना निर्माण स्वयं के खर्च पर हटा लेगा या मामले तथ्यों और परिस्थितियों में न्यायालय भी उससे अस्थायी निषेधाज्ञा के आवेदन निराकरण के समय ऐसे लिखित वचन की अपेक्षा कर सकता है ऐसा लिखित वचन स्पष्ट और असंदिग्ध रूप से लिया जाना चाहिये उस पर प्रतिवादी /प्रतिवादीगण के हस्ताक्षर उनके पहचानने वाले अभिभाषक के हस्ताक्षर भी लेना चाहिये।
अस्थायी व्यादेश की अवधि
41.     अस्थायी व्यादेश सामान्यतः वाद के अंतिम निराकरण तक के लिए दिया जाता है कुछ न्यायाधीश इसे अन्य आदेश तक भी देते है ताकि जिस पक्ष को अस्थायी व्यादेश दिया गया है यदि वह विलंब कारित करता है तो व्यादेश का आदेश अपास्त किया जा सकता है ऐसी दशा में इस तरह लिखा जा सकता है कि यह आदेश अन्य आदेश तक या वाद के अंतिम निराकरण तक, जो भी पहले हो, प्रभावशील रहेगा।
इस प्रकार विचारण न्यायालयों को अस्थायी व्यादेश के आवेदन पत्रों के निराकरण के समय उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये और प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उभय पक्ष के शपथ पत्रों और अन्य दस्तावेजी साक्ष्य पर सावधानी से विचार करके आदेश पारित करना चाहिये आदेश में यह अवश्य स्पष्ट करना चाहिये कि आदेश में कही गई कोई बात गुणदोष पर पारित निर्णय पर प्रभाव नहीं डालेगी।

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