Thursday 18 April 2019

विधवा हिंदू महिला कि अगर बिना वसीयत किए हो जाती है मौत, तो महिला की वंशागत या पैतृक तौर पर मिली संपत्ति बेटे व बेटी को हस्तांतरित

विधवा हिंदू महिला का मामला-अगर बिना वसीयत किए हो जाती है मौत,तो महिला की वंशागत या पैतृक तौर पर मिली संपत्ति हो जाएगी बेटे व बेटी को हस्तांतरित-बाॅम्बे हाईकोर्ट । BY: LIVE LAW HINDI 15 April 2019 10:00 AM 905 SHARES - हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट 1956 के सेक्शन 14 के प्रावधानों के अनुसार माना जाता है कि वादी व प्रतिवादी की मां का संपत्ति पर पूरा अधिकार था,जो कि पहले सीमित अधिकार माना जाता था। -हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट के अनुसार किसी महिला की मौत हो जाने के बाद उसकी पैतृक संपत्ति में उसके पति,बेटों व बेटी का अधिकार है। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने पिछले दिनों उस व्यक्ति को राहत देने से इंकार कर दिया है,जिसने कहा था कि उसके माता-पिता की मौत के बाद उनकी पैतृक संपत्ति पर उसका अकेले का अधिकार है। कोर्ट ने इस व्यक्ति की बहन के पक्ष में फैसला दिया है,जिसने कहा था कि उसका भी संपत्ति में हिस्सा है। याचिकाकर्ता जगन्नाथ उंद्रे की एक बड़ी बहन यमुनाबाई है। उसकी बहन ने केस दायर कर मांग की थी कि पैतृक संपत्ति में उसका भी हिस्सा है। इस केस को निचली अदालत ने खारिज कर दिया,परंतु पूने के जिला जज की कोर्ट ने उस फैसले को पलट दिया। जस्टिस संदीप के शिंदे ने उंद्रे की अपील पर सुनवाई करते हुए माना कि अपीलेट जिला कोर्ट का आदेश सही था और उसने निचली अदालत के फैसले को पलट कर कुछ गलत नहीं किया। कोर्ट ने माना कि एक विधवा हिंदू महिला की पैतृक संपत्ति हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट के तहत बेटा व बेटी,दोनों को मिलेगी। क्या था मामला वमान उंद्रे की मौत 15 अप्रैल 1944 को हो गई थी। उसके पीछे पत्नी शांताबाई,बेटी यमुनाबाई(वादी) व बेटा जगन्नाथ (प्रतिवादी) रह गए थे। वमान की मौत के बाद संपत्ति पर अधिकार के रिकार्ड के मामले में जगन्नाथ का अकेले का नाम था। परंतु उस समय वह नाबालिग था,इसलिए उसकी मां का नाम वास्तविक गार्जियन के तौर पर लिख दिया गया। शांताबाई करीब 65 साल की उम्र में मानसिक तौर पर बीमार हो गई और उसने 1972 में घर छोड़ दिया। उसकी बेटी की तरफ से केस दायर करने से पहले ही शांताबाई की मौत हो गई। ऐसे में वमान उंद्रे के उत्तराधिकारी के तौर पर वादी व प्रतिवादी ही रह गए। फैसला प्रतिवादी के वकील उत्कर्ष देसाई ने दलील दी कि वमान उंद्रे की मौत 1944 में हुई थी। उस समय के उत्तराधिकारी कानून के अनुसार घर के पुरूष सदस्य को ही पैतृक संपत्ति मिल सकती थी। इसलिए दाखिलखारिज के रिकार्ड में सिर्फ उसके मुविक्कल का नाम लिखकर सही किया गया है। कोर्ट ने संपत्ति में हिंदू महिला के अधिकार से संबंधित बने एक्ट 1937 व हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट 1956 को देखने के बाद कहा कि- हिंदू महिला संपत्ति में अधिकार एक्ट 1937 के सेक्शन तीन के सब-सेक्शन दो के अनुसार अगर कोई हिंदू,जिस पर हिंदू कानून लागू होते है,मर जाता है और उसकी मौत के समय उसका हिंदू परिवार की संयुक्त संपत्ति में हिस्सा था,तो उसकी मौत के बाद यह हिस्सा उसकी पत्नी का माना जाएगा। हालांकि इस संपत्ति में उसकी पत्नी के हिस्से की कुछ सीमाएं है। कोर्ट ने कहा कि एक हिंदू महिला की संपत्ति चाहे वह उसे एक्ट बनने से पहले मिली हो या उसके बाद,वह संपत्ति पूरी तरह उसकी मानी जाएगी और वहीं उसकी मालकिन है। वह उस संपत्ति की एक सीमित मालकिन नहीं है। कोर्ट ने निष्कर्ष देते हुए कहा कि अपीलेट कोर्ट ने मामले के तथ्यों व कानून को सही तरीके से लिखा है। इसलिए हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट 1956 के सेक्शन 14 के प्रावधानों के अनुसार माना जाता है कि वादी व प्रतिवादी की मां का संपत्ति पर पूरा अधिकार था,जो कि पहले सीमित अधिकार माना जाता था। इस मामले में इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि वादी व प्रतिवादी की मां की मौत 1956 में हो गई थी। ऐसे में हिंदू उत्तराधिकारी एक्ट 1956 के अनुसार उसकी मां का संपत्ति में जो हिस्सा था,उस पर इसी एक्ट के नियम लागू होंगे। इस एक्ट के नियमों के अनुसार उस सपंति पर मृतका के बेटों,बेटी व पति का अधिकार है। इसलिए इस मामले में दायर अपील को खारिज किया जाता है।

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पत्नी को गुजारा भत्ता देने के लिए कुर्क की जा सकती है पेंशन

पत्नी को गुजारा भत्ता देने के लिए कुर्क की जा सकती है पेंशन-बाॅम्बे हाईकोर्ट ।BY: LIVE LAW HINDI 14 April 2019 4:32 PM 894 SHARES बाॅम्बे हाईकोर्ट ने माना है कि पत्नी को गुजारे भत्ते की राशि देने के लिए सरकार द्वारा दी जा रही पेंशन को अटैच या कुर्क किया जा सकता है। नागपुर बेंच के जस्टिस एम.जी गिराटकर इस मामले में एक पुनःविचार याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। यह याचिका भगवंत नारनावारे ने एक दंडाधिकारी कोर्ट द्वारा गुजारे भत्ते के मामले में दिए अंतरिम आदेश के खिलाफ दायर की थी। कोर्ट ने दंडाधिकारी कोर्ट के आदेश को सही ठहराया है,परंतु मासिक गुजारे भत्ते की राशि में संशोधन कर दिया है। उसे प्रतिमाह तीस हजार रुपए से घटाकर बीस हजार रुपए प्रतिमाह कर दिया है। यह महत्वपूर्ण है कि पति के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले में दायर शिकायत पर सुनवाई अभी चल रही है। याचिकाकर्ता के वकील पी.के मिश्रा ने दलील दी कि दंडाधिकारी कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए पेंशन को कुर्क करने के आदेश दे दिए। रिटायर होने से पहले याचिकाकर्ता पति को एक लाख 53 हजार रुपए प्रतिमाह मिलते थे। रिटायरमेंट के बाद उसे 72 हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन मिलती है। ऐसे में उसका मुविक्कल इस स्थिति में नहीं है कि वह प्रतिमाह तीस हजार रुपए अपनी पत्नी को गुजारे भत्ते के तौर पर दे। पेंशन एक्ट 1871 के सेक्शन 11 का हवाला देते हुए वकील मिश्रा ने दलील दी कि पेंशन को कुर्क नहीं किया जा सकता है। वहीं गुजारे भत्ते की राशि ज्यादा है,उसे कम करके बीस हजार रुपए किया जाए। वहीं याचिकाकर्ता की पत्नी की तरफ से पेश वकील एस.जे काडू ने दलील दी कि गुजारे भत्ते की राशि को रिकवर करने के लिए पेंशन को अटैच या कुर्क किया जा सकता है। उसने दलील दी कि याचिकाकर्ता पति का अच्छा रहन-सहन है और 72 हजार रुपए पेंशन मिलती है।उसने याचिकाकर्ता से हुई जिरह का जिक्र करते हुए बताया कि उसने पेंशन के भत्तों के तौर पर बीस लाख रुपए मिले है और उसके पास दो घर भी है। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने और पेंशन एक्ट के सेक्शन 11 को देखने के बाद कोर्ट ने कहा कि-इस सेक्शन को देखने के बाद पता चलता है कि घरेलू या सिविल विवाद के मामलों में किसी लेनदार के कहने पर किसी की पेंशन कुर्क नहीं की जा सकती है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील की दलीलों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि सीरियल नंबर 16 के तहत,जो कि कुर्की से संबंधित है-पत्नी को दिए जाने वाले गुजारे भत्ते को लोन नहीं मान सकते है। न ही पत्नी कोई लेनदार है। इसलिए सेक्शन 11 के तहत दी गई छूट को इस मामले में पति को नहीं दिया जा सकता है। इसलिए इस सेक्शन की इस व्याख्या को देखते हुए कहा जा सकता है कि गुजारे भत्ते की राशि को रिकवर करने के लिए पेंशन को कुर्क किया जा सकता है। इसलिए याचिकाकर्ता की इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि पेंशन की कुर्की नहीं हो सकती है। इसलिए कोर्ट ने इस मामले में दायर पुनःविचार याचिका को आंशिक तौर पर स्वीकार करते हुए दंडाधिकारी कोर्ट के आदेश में संशोधन कर दिया है।

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मध्यस्थता क्लाउज पर्याप्त रूप से स्टांप नहीं लगे हैं तो अदालत मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट

अगर मध्यस्थता क्लाउज पर्याप्त रूप से स्टांप नहीं लगे हैं तो अदालत मध्यस्थ की नियुक्ति नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट ।BY: LIVE LAW HINDI 14 April 2019 2:32 PM 70 SHARES सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 11(6) के अधीन किसी अपील पर कोई अंतिम निर्णय देने से पहले उन मामलों में जहाँ जिन दस्तावेज़ों पर आपत्ति की गई है अगर उस पर पर्याप्त स्टांप नहीं लगे हैं तो स्टांप अथॉरिटीज़ के फ़ैसले की प्रतीक्षा करना ज़रूरी है। न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरनन्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने कहा कि SMS Tea Estates (P) Ltd. v. Chandmari Tea Co. (P) Ltd. मामले में जिस क़ानून को निर्धारित किया गया था वह मध्यस्थता और समाधान (संशोधन) अधिनियम, 2015 में धारा 11(6A) को जोड़ने के बाद भी लागू होता है। इत्तीफ़ाकन, अभी एक सप्ताह पहले ही बॉम्बे हाइकोट की पूर्ण पीठ ने इसके विपरीत फ़ैसला दिया था। पीठ ने आज अपने फ़ैसले में इसकी चर्चा की और कहा कि यह निर्णय ग़लत था। पीठ के समक्ष यह मामला गरवारे वाल रोप्स लिमिटेड बनाम कोस्टल मरीन कंस्ट्रक्शन एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड से संबंधित था और मामला यह था कि क्या धारा 11(6A) ने SMS Tea Estates (P) Ltd. के इस फ़ैसले के आधार को समाप्त कर दिया है ताकि इस दस्तावेज़ को जज द्वारा नहीं बल्कि मध्यस्थ द्वारा ज़ब्त किया जाए जिसे धारा 11 के तहत नियुक्त किया गया है? धारा 11(6A) में प्रावधान है कि किसी फ़ैसले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट या फिर हाईकोर्ट कोर्ट, उप-धारा 4 या 5 या 6 के अधीन किसी आवेदन पर विचार करते हुए ख़ुद को सिर्फ़ मध्यस्थता समझौते तक सीमित रखेगा। अदालत ने कहा : "…यह याद रखना ज़रूरी है कि भारतीय स्टांप अधिनियम इस समझौते या समर्पण पत्र पर पूरी तरह लागू होता है। इसलिए इस तरह के समझौते में मध्यस्थता के प्रावधानों को अलग नहीं किया जा सकता ताकि इसको स्वतंत्र अस्तित्व दिया जा सके।" पीठ ने अपने निष्कर्ष में कहा कि SMS Tea Estates (P) Ltd. में जो फ़ैसला आया है वह धारा 11(6A) में हुए संशोधनों से परे हैं।

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अधिकारियों को अदालत बुलाने की परिपाटी उचित नहीं : सुप्रीम कोर्ट

अधिकारियों को अदालत बुलाने की परिपाटी उचित नहीं : सुप्रीम कोर्ट
 [निर्णय पढ़े] BY: LIVE LAW HINDI 13 April 2019 8:14 PM 371 SHARES 
          सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अधिकारियों को अदालत में बुलाए जाने की परिपाटी उचित नहीं है और इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्तियों के विभाजन को देखते हुए न्याय प्रशासन का उद्देश्य पूरा नहीं होता। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की पीठ ने एक अपील पर ग़ौर करते हुए कहा कि हाईकोर्ट समय समय पर राज्यों के अधिकारियों को अदालत में पेश होने के बारे में आदेश देता रहा है।हाईकोर्ट ने इस तरह के आदेश ऐसे कुछ कर्मचारियों द्वारा दायर अवमानना के मामलों में पास किया। इन कर्मचारियों ने नियमित नहीं किए जाने या न्यूनतम वेतनमान नहीं दिए जाने पर यह याचिका दायर की थी। पीठ ने कहा कि नियमित नहीं किए जाने या न्यूनतम वेतनमान नहीं दिए जाने के मामले में एक मात्र उपचार यह है कि इस बारे में रिट याचिका दायर की जाए। राज्य के अधिकारियों को अदालत में पेश होने के लिए बाध्य करने के लिए आदेश जारी कर हाइकोर्ट ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण किया है। इस अपील का निस्तारन करते हुए अदालत ने कहा : "राज्य के कर्मचारी सार्वजनिक कार्य और दायित्वों को पूरा करते हैं। आदेश अमूमन भलाई के लिए जारी किए जाते हैं बशर्ते कि इसमें कोई खोट ना साबित हो जाए। सार्वजनिक धन का संरक्षक होने के कारण इस तरह का आदेश पारित करते हैं। सो, इसलिए कि उन्होंने कोई आदेश जारी किया है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्हें निजी रूप से अदालत में पेश होने का आदेश दे दिया जाए।" कोर्ट ने आगे कहा कि इस तरह के आदेश के कारण लोगों को ही घाटा होता है क्योंकि उस स्थिति में ये अधिकारी अपना सार्वजनिक काम छोड़कर अदालत का चक्कर लगा रहे होते हैं। कोर्ट ने कहा : "…अधिकारियों को अदालत में बुलाने की परिपाटी उचित नहीं है और कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बँटवारे को देखते हुए इससे न्याय का भला नहीं होता है। अगर कोई आदेश क़ानूनी तौर पर वैध नहीं है तो अदालत के पास इसे निरस्त करने के अधिकार हैं और वह इस बारे में मामले के तथ्यों पर ग़ौर करते हुए उपयुक्त निर्देश जारी कर सकता है।"

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दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत 'क्षमा-दान': परिस्थितयां, प्रावधान एवं कुछ जरुरी बातें

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत 'क्षमा-दान': परिस्थितयां, प्रावधान एवं कुछ जरुरी बातें BY: SPARSH UPADHYAY 17 April 2019 10:31 AM 386 SHARES एक अप्रूवर को क्षमा-दान देने की प्रक्रिया को हमारी दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत जगह दी गयी है। आज इस लेख के माध्यम से हम उन परिस्थितियों के बारे में समझेंगे जहाँ क्षमा-दान दिया जा सकता है। इससे जरुरी हर वो बात हम आपको समझाने का प्रयास करेंगे, जो समझना आपके लिए आवश्यक है। उपरोक्त विषय से संबंधित कानून के प्रावधान धारा 306 से 308 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 में उपस्थित हैं। आइये हम इन प्रावधानों को समझते हैं जिसके बाद हम इससे जुडी अन्य जानकारी आपको देंगे, जिससे इस विषय के बारे में हमारी और आपकी समझ गहरी हो सके। क्षमा दान की महत्वता? इन प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य किसी बेहद गंभीर किस्म के अपराध (जो कई लोगों द्वारा मिलकर किये गए हों अथवा उसमे कई लोगों की सहभागिता रही हो) की जड़ तक जाना है। क्षमा-दान का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, जो किसी गंभीर अपराध में सम्मिलित रहा हो, वो क्षमा-दान का लाभ उठाकर उस अपराध से जुडी हर जानकारी/सबूत दे सके जिसकी मदद से उस अपराध में शामिल अन्य लोगों को उनकी सहभागिता के अनुसार सजा दी जा सके एवं पीड़ित/पीड़िता को न्याय दिलाया जा सके। आंध्र प्रदेश राज्य बनाम चीमलापति गणेश्वर राव, (1963) 2 Cri LJ 671 के मामले में अदालत ने भी क्षमा-दान के इस पहलू पर गौर किया है। क्षमा-दान देने की अधिकारिता धारा 306 (1) के अनुसार, किसी भी व्यक्ति से (जिस पर यह धारा लागू होती है) साक्ष्य प्राप्त करने की दृष्टि से, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी अपराध से संबंधित है, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट जांच (inquiry), अन्वेषण (investigation), या ट्रायल (विचारण) के किसी भी स्तर पर उस व्यक्ति को पूर्ण एवं सच्चे तौर पर उस अपराध से जुडी एवं उसकी जानकारी में मौजूद हर परिस्थिति बताने की शर्त पर क्षमा-दान दे सकते हैं। वहीँ प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट, जांच या ट्रायल के किसी भी स्तर पर, ऐसे व्यक्ति को पूर्ण एवं सच्चे तौर पर उस अपराध से जुडी एवं उसकी जानकारी में मौजूद हर परिस्थिति एवं उस अपराध से जुड़े हर व्यक्ति के विषय में (भले उसने अपराध किया हो या उस व्यक्ति ने अपराध को abet किया हो) बताने की शर्त पर क्षमा-दान दे सकता हैं। किसी व्यक्ति को क्षमा करने के पीछे का सिद्धांत गंभीर अपराध में सत्य को उजागर करना है, ताकि अपराध से संबंधित अन्य आरोपी व्यक्तियों के अपराध को उजागर किया जा सके। (महाराष्ट्र राज्य बनाम अबू सलेम अब्दुल कयूम अंसारी - (2010) 10 एससीसी 179)। एक व्यक्ति को क्षमा-दान देने के खिलाफ कोई आपत्ति केवल इसलिए नहीं हो सकती है, क्योंकि वह अपने कबूलनामे में खुद को उसी हद तक आरोपित नहीं करता है, जैसा कि अन्य अभियुक्तों को करता है, क्योंकि धारा 306 के लिए केवल यह जरूरी है कि क्षमा किसी भी ऐसे व्यक्ति को दी जा सकती है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से या निजी तौर पर अपराध में शामिल रहा हो। (सुरेश चंद्र बहरी बनाम बिहार राज्य - (1995) Supp (1) SCC 80 = AIR 1994 SC 2420)। Accomplice कौन होता है? एक "Accomplice", अपराध में एक सहयोगी है, चाहे वो प्रिंसिपल के तौर पर हो या सहायक के रूप में। ब्लैक लॉ शब्दकोश एक "Accomplice" को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जो किसी भी तरह से अपराध के कमीशन में किसी अन्य के साथ शामिल है, चाहे वह पहले या दूसरे डिग्री में एक प्रिंसिपल के रूप में हो या एक सहायक के रूप में। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति अपराध करने में किसी दूसरे व्यक्ति का साथी या Accomplice है, अगर वह, अपराध के कमीशन को बढ़ावा देने या उसे सुविधाजनक बनाने के इरादे से, दूसरे व्यक्ति से इसे करने के लिए आग्रह करता है या आदेश देता है एवं अपराध की योजना बनाने या करने में दूसरे व्यक्ति का साथ देता है। एम. ओ. शमसुद्दीन बनाम केरल राज्य [(1995) 3 एससीसी 351] में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह देखा गया था कि "साधारण अर्थ में प्रयुक्त होने पर" Accomplice शब्द का अर्थ "अपराध में भागीदार या सहयोगी" है। किस प्रकार के अपराधों में दिया जा सकता है क्षमा-दान? निम्नलिखित 2 मामलों में क्षमा-दान दिया जा सकता है:- (a) विशेष रूप से सत्र न्यायालय या आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1952 (1952 का 46) के तहत नियुक्त एक विशेष न्यायाधीश की अदालत द्वारा विचरण किया जा सकने वाला अपराध। (b) ऐसे कारावास से, जिसकी अवधि 7 वर्ष तक की हो या अधिक कठोर दंड से दंडनीय कोई अपराध। हालाँकि हम यह जानते हैं की कई बार अपराध की एक श्रृंखला में तमाम ऐसे अपराध भी होते हैं जो ऊपर बताई गयी दोनों ही श्रेणी में नहीं आते हैं, हालाँकि अगर उस श्रृंख्ला का कोई एक भी अपराध इस श्रेणी में आता है और अगर अन्य अपराध उसी श्रृंख्ला का हिस्सा हैं तो वे ऊपर बताई गई श्रेणी में समझे जायेंगे। यह स्थिति हसमुखलाल बनाम भैरवनाथ सिंह [1972 Cri LJ 560 (Guj)] के मामले में भी साफ़ की गयी है। उदहारण के तौर पर अगर कोई अपराध विशेष रूप से केवल सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है और अगर उस अपराध की श्रृंख्ला में कुछ ऐसे अपराध भी किये गए हैं जो मजिस्ट्रेट द्वारा भी विचारणीय हैं तो मजिस्ट्रेट, धारा 209 एवं जोइंडर ऑफ़ चार्जेज की अन्य धाराओं के चलते ऐसे मामले को सत्र न्यायालय के समक्ष पेश करदेगा और इस वजह से उस अपराध की श्रृंखला के अन्य अपराध भी सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हो जायेंगे और इसलिए यह उपधारा उन अपराधों पर भी लागू होगी। मजिस्ट्रेट का अनिवार्य कर्त्तव्य प्रत्येक मजिस्ट्रेट जो उप-धारा (1) के तहत क्षमा प्रार्थना करता है, रिकॉर्ड करेगा- (a) ऐसा करने के लिए उसके कारण; (b) क्या क्षमा-दान उस व्यक्ति द्वारा स्वीकार किया गया था या नहीं किया गया था, और आरोपी द्वारा किए गए आवेदन पर, उसे इस तरह के रिकॉर्ड की एक प्रति प्रस्तुत करनी होगी। [देखें धारा 306 (3) दंड प्रक्रिया संहिता] यहाँ यह ध्यान रखने वाली बात है कि अगर मजिस्ट्रेट ने क्षमा-दान करने के पीछे के कारण का उल्लेख अपने आदेश में नहीं किया तो मजिस्ट्रेट का यह पूरा आदेश इसी आधार पर निष्क्रिय किया जा सकता है [देखें उत्तर प्रदेश राज्य बनाम कैलाश नाथ अग्रवाल, (1973) 1 SCC 751]। धारा 306 (3) (b) में भले ही आरोपी को उसके आवेदन पर क्षमा-दान के रिकॉर्ड की कॉपी देनी होगी लेकिन एक आरोपी क्षमा-दान पर सवाल उठा नहीं सकता है [देखें राय अम्ब्रीश बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 2003 Cri LJ 3830 (Cal)] जिस समय एक आरोपी को क्षमा किया जाता है, उसे आरोपों से मुक्ति दे दी जाती है और वह अभियोजन का गवाह बन जाता है। उसे डिस्चार्ज करने का कोई औपचारिक आदेश आवश्यक नहीं है। (ए. जे. पीरिस बनाम मद्रास राज्य - AIR 1954 SC 616) Accomplice के अभियोजन गवाह बनने के बाद की प्रक्रिया जब धारा 303 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत एक मजिस्ट्रेट क्षमा-दान करता है तो वही मजिस्ट्रेट धारा 306 (4) (a) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत उस व्यक्ति को गवाह के रूप में जांचे, ऐसा आवश्यक नहीं है। इसका सीधा सा मतलब है की यदि किसी Accomplice ने धारा 306 (1) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत निर्दिष्ट शर्त को स्वीकार कर लिया है और वह अप्रूवर बन गया है तो, उसे धारा 306 (4) (a) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत गवाह के रूप में जांचना आवश्यक है। और यह जांच, अपराध का संज्ञान लेने के लिए उपयुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष और मामले का विचरण करने वाले या विचारण के लिए भेजने वाले मजिस्ट्रेट द्वारा किया जा सकता है। आइये समझते हैं धारा 306 (4) (a) दंड प्रक्रिया संहिता (4) प्रत्येक व्यक्ति जो उप - धारा (1) के तहत किए गए क्षमा-दान को स्वीकार करता है - (a) अपराध का संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट (और अगर आगे कोई विचारण होगा तो उसमें) द्वारा उस व्यक्ति की एक गवाह के रूप में जांच की जाएगी; उदहारण के तौर पर, यदि कोई मामला JFCM द्वारा ट्रायल योग्य है और मामले में अन्वेषण लंबित है, तो क्षमा केवल CJM/MM द्वारा निविदा की जा सकती है। लेकिन CJM/MM धारा 164 सीआरपीसी के तहत अप्रूवर के कबूलनामे को दर्ज करने का कार्य JFCM को सौंप सकते हैं। CJM/MM, इसके बाद जब पुलिस द्वारा अपेक्षित हो, JFCM द्वारा दर्ज किए गए बयान पर विचार करके धारा 306 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के संदर्भ में एक इस बाबत जानकारी दर्ज कर सकते हैं। CJM/MM द्वारा क्षमा-दान करने की इस शक्ति का उपयोग उनके द्वारा तब भी किया जा सकता है जब JFCM द्वारा विचारणीय केस JFCM के समक्ष जांच या विचरण के लिए लंबित हो। धारा 306 (3) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत जानकारी दर्ज करने के बाद CJM/MM, JFCM को धारा 306 (3)दंड प्रक्रिया संहिता के तहत जानकारी सहित पूरे रिकॉर्ड को अग्रेषित करना चाहिए। धारा 306 (4) (a) दंड प्रक्रिया संहिता के तहत गवाह के रूप में अप्रूवर का परिक्षण JFCM द्वारा अपराध का संज्ञान लेते हुए कार्रवाई की जाएगी। दूसरे शब्दों में, यदि क्षमा-दान को अनुमोदनकर्ता (अप्रूवर) द्वारा स्वीकार कर लिया गया है, तो उस व्यक्ति की धारा 306 (4) दंड प्रक्रिया संहिता के मद्देनजर अपराध के संज्ञान लेने और बाद के मुकदमे में उसकी, मजिस्ट्रेट की अदालत में गवाह के रूप में जांच की जानी चाहिए। इसके आगे की प्रक्रिया जहाँ किसी व्यक्ति ने उप-धारा (1) के तहत की गई क्षमा की निविदा स्वीकार कर ली है और उप-धारा (4) के तहत उसकी जांच की गई है, तो अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट, मामले में कोई और जाँच किए बिना , - (ए) विचारण के लिए प्रतिबद्ध करेगा- (i) सत्र न्यायालय को, यदि अपराध उस न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचरण योग्य है या यदि संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट है; (ii) आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1952 (1952 का 46) के तहत नियुक्त विशेष न्यायाधीश की अदालत में, यदि अपराध उस अदालत द्वारा विशेष रूप से विचरण योग्य है; (ख) किसी अन्य मामले में, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को मामला सौंपना चाहिए जो स्वयं मामले का विचारण करेगा। मामले की सुपुर्दगी (Commitment) के बाद की स्थिति में क्षमा-दान किसी मामले की सुपुर्दगी के बाद, किसी भी समय लेकिन निर्णय पारित होने से पहले, जिस न्यायालय को मामला सुपुर्द किया जाता है, वह इस दृष्टिकोण से, की किसी व्यक्ति से उस मामले के साक्ष्य हासिल किये जा सकें जिससे वह व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित है या निजी तौर पर किसी भी अपराध में सम्मिलित रहा है, ऐसे व्यक्ति को इस शर्त पर क्षमा-दान दे सकता है। [देखें धारा 307 दंड प्रक्रिया संहिता] धारा 307 के तहत, न्यायालय की वह शक्ति जिसे मामला सुपुर्द किया जाता है, धारा 306 दंड प्रक्रिया संहिता में निहित प्रावधानों से स्वतंत्र है। हालाँकि धारा 307 दंड प्रक्रिया संहिता में उल्लिखित शर्त, धारा 306 (1) दंड प्रक्रिया संहिता में निर्धारित शर्त को संदर्भित करती है, अर्थात्, जिस व्यक्ति के पक्ष में क्षमा-दान दिया गया है, वह अपने ज्ञान के अंतर्गत पूरी परिस्थितियों का पूर्ण और सच्चा खुलासा करेगा [देखें संतोष कुमार सतीश भूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र राज्य - (2009) 6 एससीसी 498 मामला]। अप्रूवर द्वारा दिए गए साक्ष्य की वैधता एवं विश्वसनीयता किसी गवाह की विश्वसनीयता के बारे में सामान्य परीक्षणों को लागू करके, साक्ष्य की विश्वसनीयता निर्धारित की जानी चाहिए। (ए. पी. बनाम चेमलापति गणेश्वर राव AIR 1963 SC 1696)। साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 के अनुसार जो कानून का एक नियम है, बताता है की एक Accomplice सबूत देने के लिए सक्षम है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 के अनुसार उदाहरण (बी) के अनुसार जो एक नियम है कि अकेले Accomplice की गवाही पर अभियुक्त को दोषी ठहराना लगभग हमेशा असुरक्षित होता है। हालांकि एक Accomplice की गवाही पर एक अभियुक्त की सजा को अवैध नहीं कहा जा सकता है, हालाँकि ऐसे मामलों में उचित सावधानी बरती जानी चाहिए (देखें भिवा डोलु पाटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य - AIR 1963 SC 599)। एक अप्रूवर के मामले में लागू किया जाने वाला एक नियम यह भी है की उसके द्वारा दिए गए साक्ष्य की पर्याप्त रूप से पुष्टि की जानी चाहिए (देखें लच्छी राम बनाम पंजाब राज्य - AIR 1967 SC 792 मामला)। क्षमा-दान की शर्तों का पालन न करने के परिणाम यदि एक अप्रूवर जिसे धारा 306 अथवा 307 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत क्षमा-दान दिया गया है और यदि वह व्यक्ति क्षमा-दान की शर्तों का पालन नहीं करता है, गलत साक्ष्य देता है या जानबूझकर कोई चीज़ छुपता जो उसे 306 (1) दंड प्रक्रिया संहिता के सापेक्ष बतानी चाहिए, और लोक अभियोजक धारा 308 (1) दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत इस बाबत सर्टिफिकेट देता है तो ऐसे व्यक्ति को उस अपराध हेतु, जिसके लिए उस क्षमा-दान दिया गया था या उससे जुड़े किसी अपराध के लिए एवं झूठे साक्ष्य देने के लिए (हाई-कोर्ट की पूर्व स्वीकृति से) उसके खिलाफ विचरण किया जा सकता है। एक बार जब लोक-अभियोजक द्वारा दिए गए प्रमाण पत्र पर व्यक्ति से क्षमा-दान वापस ले लिया जाता, तो वह अभियुक्त की स्थिति में वापस कर दिया जाता है। वह अलग से उत्तरदायी हो जाता है और सबूत, यदि कोई है, तो वह सबूत सह-अभियुक्त के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाता है। हालांकि इस तरह के सबूत का उपयोग, इस व्यक्ति के खिलाफ (जिसे क्षमा-दान दिया गया था) अलग मुक़दमे में किया जा सकता है, जहाँ उसे यह दिखाने का अवसर मिलता है कि उसने क्षमा की शर्त का अनुपालन किया था। इस सम्बन्ध में धारा 308 दंड प्रक्रिया संहिता को पढ़ा जा सकता है। अंत में, यह कहना आवश्यक है की क्षमा-दान का प्रावधान गंभीर अपराधों को उजागर करने एवं न्याय दिलाने में मुख्य रूप से सहायक होते हैं। इन प्रावधानों के चलते किसी व्यक्ति को यह मौका मिलता है कि वह सामने आकर किसी अपराध से जुड़े साक्ष्य देने में अदालत की मदद करे एवं इसके बदले वो कुछ लाभ भी उठाये। इन प्रावधानों के पीछे का प्रमुख मकसद, यह सुनिश्चित करना था कि जघन्य और गंभीर अपराधों के अपराधी, बिना सजा बचकर न निकल जाएं। क्षमा-दान का आधार उस व्यक्ति की दोषीता का परिमाण नहीं है, जिसे क्षमा प्रदान किया जा रहा है, बल्कि इसका उद्देश्य जघन्य अपराधों के मामले में, सबूतों के अभाव में अपराधियों को सजा से बचने से रोकना है।

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NI अधिनियम की धारा 143A (अंतरिम मुआवज़ा) को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं

*NI अधिनियम की धारा 143A (अंतरिम मुआवज़ा) को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं : पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट*
        पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रुमेंट ऐक्ट (एनआईए) की धारा 143A को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है जबकि 148 के प्रावधान उन लंबित अपीलों पर लागू होंगे जिस दिन इसके प्रावधान को लागू करने की अधिसूचना जारी की गई। न्यायमूर्ति राजबीर सहरावत ने कहा कि अधिनियम कि धारा 143A ने आरोपी के ख़िलाफ़ एक नया दायित्व तय किया है जिसका प्रावधान वर्तमान क़ानून में नहीं था। लेकिन धारा 148 को यथावत रहने दिया गया है; और कुछ हद तक इसे आरोपी के हित में संशोधित किया गया है। *वर्ष 2018 में इस अधिनियम दो नए प्रावधान जोड़े गए। इसमें पहला है धारा 143A जिसके द्वारा निचली अदालत को आरोपी को अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश जारी करने का अधिकार दिया गया है पर यह राशि 'चेक की राशि' से 20% से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। एक अन्य धारा 148 जोड़ा गया जो अपीली अदालत को आरोपी/अपीलकर्ता को यह आदेश देने का अधिकार देता है कि वह निचली अदालत ने जो 'जुर्माना' या 'मुआवजा' चुकाने को कहा है उस की 20% राशि वह जमा करे।*  वर्तमान मामले में कोर्ट के समक्ष जो अपील लंबित है वे निचली और अपीली अदालतों के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील है। अधिनियम की नई धारा 143A के प्रावधानों को आधार बनाकर फ़ैसले दिए गए जिसे अब चुनौती दी गई है। कोर्ट ने कहा, "चूँकि अधिनियम का जो संशोधन हुआ है उसमें इस नए प्रावधानों को पिछले प्रभाव से लागू करने का प्रावधान नहीं है विशेषकर लंबित मामलों में। इसलिए लंबित मामलों के बारे में जो कि इन प्रावधानों के लागू होने के पहले से मौजूद हैं, के बारे में इन नए प्रावधानों के आधार पर फ़ैसला नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने कहा, "…अंतरिम मुआवज़ा जो कि किसी मामले में करोड़ों रुपए भी हो सकता है और ऐसे व्यक्ति के लिए जो कुछ लाख रुपए भी मुश्किल से जुगाड़ सकता है, इस धारा का परिणाम तबाही पैदा करने वाला हो सकता है…इसलिए इस प्रावधान को ज़्यादा से ज़्यादा आगे होने वाले इस तरह के मामलों में लागू किया जा सकता है क्योंकि वर्तमान मामले में आरोपी इस बात से अवगत होगा कि वह जो कर रहा है उसका परिणाम क्या हो सकता है …पर *ये प्रावधान उन मामलों में लागू नहीं हो सकते जहाँ अदालती कार्रवाई उस समय शुरू हुई जब ये संशोधित प्रावधानों का अस्तित्व भी नहीं था।* अदालत ने धारा 148 के बारे में कहा कि किसी दोषी व्यक्ति से जुर्माने या मुआवजे की राशि वसूलने का प्रावधान सीआरपीसी में धारा 148 के अस्तित्व में आने से पहले से ही मौजूद है। ये प्रावधान दोषी/अपीलकर्ता को ज़्यादा राहत देने वाला है।

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आरोपी की अनुपस्थिति में गवाहों के बयान दर्ज करना है एक साध्य उल्लंघन


*आरोपी की अनुपस्थिति में गवाहों के बयान दर्ज करना है एक साध्य उल्लंघन-* सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के मामले में फिर से सुनवाई के आदेश को ठहराया सही
         सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अभियोजन पक्ष की गवाही के समय अगर आरोपी अनुपस्थित है तो इससे अपने आप में केस की सुनवाई दूषित नहीं होती है,बशर्ते इससे आरोपी पर कोई प्रतिकूल असर न हो। जस्टिस उदय उमेश ललित वाली बेंच ने इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। हाईकोर्ट ने एक मामले में फिर से सुनवाई के आदेश देते हुए निचली अदालत से कहा था कि कानूनीतौर पर गवाहों के बयान दर्ज करे। हाईकोर्ट ने कहा था कि पहले राउंड में जो बयान दर्ज किए गए है,उस समय आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की गई थी। आरोपी की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने दलील दी कि आरोपी के पास यह अधिकार होता है कि उसके सामने गवाही हो। यह उसका मूल्यवान अधिकार है और इससे छेड़छाड़ करने से गंभीर प्रतिकूल असर पड़ता है। कोर्ट ने इन दलीलों पर सहमति जताते हुए कहा कि यह अधिकार मूल्यवान है और इस मामले में उल्लंघन हुआ है। परंतु कोर्ट ने इन सवालों पर भी ध्यान दिया। इस तरह के उल्लंघन का प्रभाव देखने के क्या तथ्य उपलब्ध है। क्या इससे मामले की सुनवाई प्रभावित हुई है या इस तरह का उल्लंघन साध्य है। कोर्ट ने कहा कि कोर्ट के चैप्टर XXV का मुख्य विषय व सेक्शन 461 में बताए गए नियम 'अनियमित सुनवाई' से संबंधित है।जिनमें कहा गया है कि किसी उल्लंघन या अनियमितता से मामले की सुनवाई नष्ट नहीं होती है या हानि नहीं पहुंचती है,बशर्ते इस अनियमितता या उल्लघंन से आरोपी को बहुत क्षति न हुई हो या उसके साथ पक्षपात न हुआ हो। कोर्ट ने कहा कि- हाईकोर्ट का आदेश यह नहीं है कि सारे सबूतों को फिर से पढ़ा जाए। हाईकोर्ट का निर्देश यह है कि सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज किए जाए,जिनके बयान आरोपी के समक्ष नहीं हुए थे।उस निर्देश के अनुसार कोर्ट में आरोपी की उपस्थिति जरूरी है ताकि वह गवाह को कोर्ट में बयान देेते समय देख सके और उस गवाह से जिरह कर सके। इसलिए इन मूल जरूरतों को निष्ठा से पूरा किया जाए। इसके अलावा कोई क्षति या हानि नहीं हुई है। कोड में दिए आरोपी या याचिकाकर्ता के अधिकारों के बारे में बेंच ने कहा कि-पाॅवर की जो बात है तो पूरे मामले की दोबारा सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है। जबकि इस मामले में तो हाईकोर्ट ने कमतौर पर इस अधिकार का प्रयोग करते हुए सिर्फ 12 गवाहों के बयान फिर से करवाने के लिए कहा है। ऐसे में हाईकोर्ट का यह निर्देश अधिकारक्षेत्र के अंतर्गत आता है। ऐसे में हाईकोर्ट ने किसी भी तरह अपने अधिकारक्षेत्र का उल्लंघन नहीं किया है। हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए व निचली अदालत को फिर से सुनवाई करने की अनुमति देते हुए बेंच ने कहा कि- एक परिवार के चार लोगों की मौत हुई है। इसलिए ऐसे मामले में समाज का भी हित होगा कि आरोपी को सजा मिले। साथ ही इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि मामले की सुनवाई निष्पक्ष हो। सिर्फ उन गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने के लिए कहा गया है,जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि अभियोजन पक्ष का हित बना रहे,वहीं दूसरी तरफ आरोपी को यह अधिकार मिले िकवह गवाह को अपने खिलाफ बयान देते हुए देख सके। जिसके बाद वह अपने वकील को अच्छे से निर्देश दे पाए कि गवाह से क्या-क्या सवाल जिरह में किए जाए। इस प्रक्रिया में आरोपी के हित की रक्षा भी होगी। अगर हम इन दलीलों को स्वीकार कर ले कि इससे मामले की सुनवाई खराब होगी और हाईकोर्ट के पास यह अधिकार नहीं है िकवह संबंधित गवाहों के बयान फिर से दर्ज करने का आदेश दे सके,तो इससे न्याय निष्फल होगा। आरोपी,जिन पर चार लोगों की मौत को केस चल रहा है,उनके खिलाफ प्रभावी तरीके से सुनवाई नहीं चल पाएगी। तकनीकी तौर पर उल्लंघन होने के कारण उनके खिलाफ दर्ज सबूतों को प्रयोग नहीं किया जा सकेगा,जिससे न्याय को बहुत बड़ा अघात पहुंचेगा और न्याय निष्फल हो जाएगा।
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आपसी सहमति से तलाक के मामले में भी निर्धारित समय-सीमा खत्म नहीं

*आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित समय-सीमा को किसी दंपत्ति को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर खत्म नहीं कर सकते है ।*

       मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा है कि दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत निर्धारित छह माह की अवधि को खत्म नहीं किया जा सकता है। इस मामले में एक दंपत्ति ने आपसी सहमति से तलाक की अर्जी कोर्ट के समक्ष दायर की थी और मांग की थी कि छह महीने के कूलिंग आॅफ यानि शीलतन की समय अवधि को खत्म किया जाए। इन दोनों पक्षकारों की तरफ से दलील दी गई थी कि वह जल्दी-जल्दी कोर्ट के चक्कर नहीं काट सकते है क्योंकि उनमें से एक डाबरा में निजी स्कूल में शिक्षक है और दूसरा डाक्टर। इसलिए इस समय अवधि को खत्म करने की मांग की थी। कोर्ट ने इस अर्जी को खारिज कर दिया, जिसके बाद उन्होंने उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
          हाईकोर्ट ने अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि उस फैसले में माना गया था कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई समय अवधि अनिवार्य प्रकृति की नहीं है, बल्कि यह निर्देशिका प्रकृति की है। इसलिए हर मामले की परिस्थितियों व तथ्यों को देखने के बाद निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। जिन मामलों में निचली अदालत को यह लगे कि दोेनों पक्षों में सुलह की कोई संभावना नहीं है और न ही साथ रहने के कोई चांस नहीं है, उन मामलों में निचली अदालत इस समय अवधि से छूट दे सकती है। परंतु जस्टिस गुरपाल सिंह अहलुवानिया ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले में जो आधार पक्षकारों ने दिया, वह इस अवधि को खत्म करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है क्योंकि इस मामले में दोनों पक्षकारों का कहना है कि वह बार-बार कोर्ट नहीं आ सकते है। कोर्ट ने कहा कि-जब कोई पक्षकार किसी निश्चित प्रावधान के तहत कोर्ट से राहत मांगने के लिए जाते है तो उस समय उनको कानून के तहत बनाई या उपलब्ध प्रक्रिया का पालन करना चाहिए।
           अगर वह चाहते थे कि निचली अदालत आपसी सहमति से तलाक के मामले में निर्धारित हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(2) के तहत दी गई छह माह की अवधि को खत्म कर दे तो उनको इंगित करना चाहिए था कि अब उनके बीच वैकल्पिक पुर्नवास या आपस में साथ रहने का कोई मौका नहीं है। परंतु दोनों पक्षकारों को हो रही व्यक्तिगत परेशानी के आधार पर इस निर्धारित अवधि से छूट नहीं दी जा सकती है। इसी के साथ कोई इस मामले में दायर पुनःविचार याचिका को खारिज कर दिया।

प्रोबेशन आॅफ आफेंडर एक्ट नहीं वर्जित करता है सीआरपीसी की धारा 360 के प्रावधानों को-सुप्रीम कोर्ट


*प्रोबेशन आॅफ आफेंडर एक्ट नहीं वर्जित करता है सीआरपीसी की धारा 360 के प्रावधानों को-सुप्रीम कोर्ट*
       सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि सीआरपीसी की धारा 360 के प्रावधानों को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 (प्रोबेशन आॅॅॅफ आफेंडर एक्ट) वर्जित या बाहर नहीं करता है। इस मामले में कोर्ट मध्यप्रदेश हाईकोर्ट द्वारा दिए गए एक आदेश पर विचार कर रही थी। इस मामले में हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 360 के तहत एक अर्जी को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह कोई अर्जी नहीं है क्योंकि जिस मामले में यह अर्जी दायर की गई है उस मामले पर अपराधी परिवीक्षा अधिनियम १९५८ (प्रोबेशन आॅॅॅफ आफेंडर एक्ट) की धारा 3 व 4 लागू होती है। इस मामले में आरोपी को आईपीसी की धारा 325 रीड विद धारा 34 के तहत दोषी करार दिया गया था। उसे एक साल के कारवास की सजा पर व उस पर एक हजार रुपए जुर्माना किया गया था। सीआरपीसी की धारा 360 के तहत किसी दोषी करार दिए गए आरोपी को उसके अच्छे व्यवहार के आधार पर नेकचलनी यानि प्रोबेशन पर छोड़े जाने पर विचार किया जाता है। इस प्रावधान के अनुसार अगर कोई व्यक्ति 21 साल से कम उम्र का नहीं है और उसे ऐसे मामले में दोषी करार दिया जाता है, जिसमें उस पर या तो जुर्माना लगाया जाता है या फिर उसे सात साल या उससे कम के कारावास की सजा दी जाती है। दूसरा अगर कोई व्यक्ति 21 साल से कम उम्र का है या कोई महिला है, उनको ऐसे मामले में दोषी करार दिया जाता है,जिसमें फांसी या उम्रकैद की सजा का प्रावधान नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को नेकचलनी यानि प्रोबेशन का लाभ दिया जा सकता है। दोनों श्रेणियों के आरोपियों को यह भी शर्त पूरी करनी होती है कि उनको पहले कभी दोषी करार नहीं दिया गया है, उनकी उम्र, उनके चरित्र व पुराने आपराधिक रिकार्ड व जिन परिस्थितियों में अपराध को अंजाम दिया गया था, इन सभी तथ्यों पर अदालत को नेकचलनी का लाभ लेने के लिए संतुष्ट करना पड़ता है। इसी तरह अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 (प्रोबेशन आॅॅॅफ आफेंडर एक्ट) के प्रावधान कोर्ट के अधिकार के बारे में बताते है कि कोर्ट किन आरोपियों के उनका अच्छा व्यवहार व अन्य तथ्य देखकर नेकचलनी पर रिहा कर सकती है या इस प्रावधान का लाभ दे सकती है। दोनों प्रावधानों को देखने के बाद कोर्ट ने कहा कि- सीआरपीसी की धारा 360 के सब-सेक्शन 10 में साफ तौर पर इच्छा जाहिर करते हुए कहा गया है कि एक्ट 1958 के प्रावधान या बाल अधिनियम 1960 के प्रावधान या कुछ समय के लिए लागू किया गया काननू जो किसी युवा आरोपी के इलाज के लिए, प्रशिक्षण के लिए या पुर्नवास के लिए लागू किया गया हो, यह सभी कानून कोड़ से प्रभावित नहीं होंगे। इसलिए साफ है कि कोड़ के प्रावधाना को एक्ट 1958 वर्जित या बाहर नहीं करता है। ऐसे में *कोर्ट के समक्ष किसी आरोपी पर दोनों, कोड़ की धारा 360 व एक्ट 1958 के प्रावधान लागू होते है।* कोर्ट ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने *संजय दत्त बनाम महाराष्ट्रा राज्य के मामले* में माना था कि दोनों अधिनियमों के प्रावधानों के एक साथ होने से (कोड के सेक्शन 360 व प्रोबेशन आॅॅॅफ आफेंडर एक्ट के सेक्शन 3 व 4) बहुत बड़ा परिणाम भी हो सकता है। परंतु कोर्ट ने कहा कि -हमने पाया है कि कोर्ट का ध्यान सेक्शन के सब-सेक्शन 10 की तरफ आकर्षित नहीं किया गया। जिसमें कहा गया है कि सेक्शन 360 एक्ट 1958 के प्रावधानों या किसी अन्य ही ऐसे कानून को जो किसी युवा अपराधी को परीक्षण देने, उसका इलाज करने या पुर्नवास के लिए लागू किया गया हो, को प्रभावित नहीं करेगा। वहीं एक्ट 1958 के सेक्शन में ऐसा उपनियम दिया गया है,जो किसी भी अन्य कानून के प्रवाधानों के प्रभाव को कम कर देता है या उस पर अधिभावी होता है। दोनों अधिनियमों के प्रावधानों को एक साथ देखने के बाद हमने पाया है कि कोड़ के सेक्शन 360 के प्रावधान अधिनियम 1958 के प्रावधानों में या बाल अधिनियम 1960 या कुछ समय के लिए किसी युवा अपराधी के परीक्षण, इलाज या पुर्नवास के लिए लागू किए गए कानून के प्रावधानों के लिए अतिरिक्त प्रावधान की तरह है।
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