Tuesday 28 July 2020

सुप्रीम कोर्ट ने फिज़िकल फाइलिंग के साथ साथ याचिका की सॉफ्ट कॉपी फाइल करना अनिवार्य किया, सर्कुलर जारी 27 July 2020

*सुप्रीम कोर्ट ने फिज़िकल फाइलिंग के साथ साथ याचिका की सॉफ्ट कॉपी फाइल करना अनिवार्य किया, सर्कुलर जारी  27 July 2020*

 भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सूचित किया है कि अब से एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड (एओआर) और पार्टी-इन-पर्सन को एससी रजिस्ट्री के फाइलिंग काउंटर पर फिज़िकल फाइलिंग के साथ-साथ याचिका की एक सॉफ्ट कॉपी के साथ दस्तावेजों की सॉफ्ट कॉपी भी दाखिल करनी होगी। सर्कुलर में कहा गया है, "माननीय न्यायालयों के समक्ष मामले की लिस्टिंग के लिए ई-कॉपी दाखिल करना अनिवार्य होगा।" यह स्पष्ट किया गया है कि याचिका दाखिल करना और भौतिक रूप से अन्य दस्तावेजों दाखिल करना और डिफेक्ट (दोष) की अधिसूचना मौजूदा प्रक्रिया के अनुसार होगी। हालांकि, रिफिलिंग के समय, सभी दोषों को ठीक करने के बाद, एओआर / पार्टी-इन-पर्सन को फाइलिंग काउंटर पर दायर की जाने वाली हार्ड कॉपी के अलावा, याचिका की सॉफ्ट कॉपी अन्य दस्तावेजों के साथ फाइल करना आवश्यक होगा।  सॉफ्ट कॉपी को ईमेल soft.petition@sci.nic.in पर भेजा जाना आवश्यक है। ईमेल का विषय स्पष्ट रूप से "Soft copy of petition and the accompanying documents in Diary No…" ...दर्ज हो और ईमेल के टेकस्ट में निर्धारित सत्यापन शामिल होगा। इस आवश्यकता के अनुपालन का एक अंडरटेकिंग हार्ड कॉपी के साथ संलग्न किया जाएगा। अतिरिक्त रजिस्ट्रार (I-B) प्रभारी याचिका की सॉफ्ट कॉपी और दस्तावेजों की रसीद रिटर्न ईमेल के साथ स्वीकार करेंगे।  इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई 2020 से ई-फाइलिंग मोड के माध्यम से दायर मामलों में प्रति पृष्ठ मुद्रण शुल्क (प्रति पृष्ठ 1.50 रु से प्रति पृष्ठ 0.75 पैसे ) कम कर दिया।

मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति - गुणक पद्धति को लागू करते समय जीवन और करियर में उन्नति की भावी संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जाए : सुप्रीम कोर्ट* 28 July 2020

      • *मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति - गुणक पद्धति को लागू करते समय जीवन और करियर में उन्नति की भावी संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जाए : सुप्रीम कोर्ट* 28 July 2020 

      •      सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति में गुणक पद्धति को लागू करते समय, जीवन और करियर में उन्नति की भावी संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। 2011 में, बस, जिसमें ई प्रिया यात्रा कर रही थीं, एक लॉरी से टकरा गई और उन्हें अपने शरीर की 31.1% अक्षमता का सामना करना पड़ा। उन्होंने मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के तहत मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण ( MACT), मदुरै के समक्ष एक दावा याचिका दायर की।
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      •  MACT ने कहा कि 31.1% की स्थायी अक्षमता पर विचार करना होगा और कमाने की क्षमता के नुकसान की गणना के लिए गुणक विधि को लागू करना होगा। यह माना गया कि राज्य निगम 35,24,288 रुपये का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है वो भी 7.5% प्रति वर्ष के ब्याज के सहित, याचिका की तारीख से मुआवजा प्राप्ति की तारीख तक। 
      •       आंशिक रूप से निगम द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए, उच्च न्यायालय ने मुआवजे को कम कर 25,00,000 रुपये कर दिया, मुख्य रूप से इस आधार पर कि कमाई की शक्ति को जानने के लिए गुणक विधि को गलत तरीके से लागू किया गया है क्योंकि यह रिकॉर्ड पर नहीं आया था कि अपीलकर्ता को चोटों का सामना करने से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में उसकी कमाई क्षमता पर कैसे असर पड़ेगा।
      •       इसलिए, प्रिया ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, यह दावा करते हुए कि वह MACT द्वारा प्रदान किए गए और उससे भी अधिक मुआवजे की वृद्धि की हकदार है। अदालत ने उसके इस तर्क से सहमति जताई कि, 15- 25 वर्ष की आयु में, गुणक को अक्षमता की सीमा में अक्षमता के फैक्टर के साथ '18' होना चाहिए। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा: उक्त निर्णय के पैरा 42 में, संविधान पीठ ने सरला वर्मा (श्रीमती) और अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम और दूसरे के मामले में तालिका में उल्लिखित गुणक पद्धति को प्रभावी ढंग से लागू करने की पुष्टि की।
      •       15- 25 वर्ष की आयु में, गुणक को अक्षमता की सीमा में फैक्टरिंग के साथ '18' होना चाहिए। उत्तर प्रदेश राज्य निगम के लिए पेश वकील द्वारा पूर्वोक्त स्थिति वास्तव में विवादित नहीं है और इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अपीलकर्ता के मामले में लागू किए जाने वाले गुणक को '18' होना चाहिए न कि '17'। 
      •        अदालत ने यह भी कहा कि जगदीश बनाम मोहन में, यह देखा गया कि *मुआवजे के अवार्ड में भविष्य की आय सहित नुकसान की भरपाई होनी चाहिए।* 
      •          पीठ ने यह कहा: "उन्होंने कहा कि पूर्ववर्ती निर्णय में संदीप खनूजा मामले (सुप्रा) पर जोर दिया गया है, यह बताते हुए कि गुणक विधि तार्किक रूप से ध्वनि और कानूनी रूप से अच्छी तरह से स्थापित की गई थी, ताकि दुर्घटना में मृत्यु या स्थायी अक्षमता के परिणामस्वरूप आय की हानि को कम किया जा सके । *" संदीप खनूजा मामले (सुप्रा) के पैरा 12 में यह कहा गया है कि गुणक पद्धति को लागू करते समय, जीवन और करियर में उन्नति की भावी संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। "* अपील की अनुमति देते हुए, पीठ ने कहा कि प्रिया आवेदन की तिथि से 9% प्रति वर्ष की दर से सरल ब्याज के साथ भुगतान की तारीख तक 41,69,831 / - रुपये के मुआवजे की हकदार होगी।

Saturday 25 July 2020

किशोर/नाबालिग भी है अग्रिम जमानत का हकदार

*किशोर/नाबालिग भी है अग्रिम जमानत का हकदार, जघन्य अपराध करने वालों को अग्रिम जमानत मिल सकती है तो किशोर को क्यों नहीं?: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट  25 July 2020*

 पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने शुक्रवार (24 जुलाई) को सुनाये एक आदेश/मामले में, जिसमे एक किशोर युवक की माता द्वारा हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की याचिका दायर करते हुए अपने पुत्र के लिए अग्रिम जमानत की मांग की गयी थी, अग्रिम जमानत के उस आवेदन पर विचार करते हुए उसे अनुमति दे दी। दरअसल इस मामले में सिरसा की ऐलनाबाद तहसील के एक गांव में दो परिवारों के बीच हुए विवाद के बाद एफआइआर दर्ज की गई थी जिसमे मौजूदा किशोर का नाम भी शामिल था।   न्यायमूर्ति एच. एस. मदान की एकल पीठ ने साथ ही यह टिप्पणी भी की कि, "यह निश्चित रूप से विधायिका का उद्देश्य नहीं हो सकता कि विधि से संघर्षरत किशोर को पहले गिरफ्तार किया जाए और फिर किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए, इस प्रक्रिया में एक किशोर को राहत से इंकार किया जाए, जो राहत अन्य व्यक्तियों के लिए उपलब्ध है, जिन पर जघन्य अपराध का आरोप है।" याचिकाकर्ता/अभियुक्त की ओर से पेश दलील याचिकाकर्ता/अभियुक्त के लिए पेश वकील ने अदालत में यह दलील दी कि 'किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015' [Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015] के अंतर्गत, गिरफ्तारी पूर्व जमानत (अग्रिम जमानत) देने के लिए याचिका दायर करने पर कोई विशिष्ट रोक नहीं लगायी गयी है।  उनकी मुख्य दलील यह थी कि उक्त अधिनियम की धारा 10 और 12 नियमित जमानत देने से संबंधित है और गिरफ्तारी पूर्व जमानत से सम्बंधित नहीं है, इसलिए यह कहना कि जमानत मांगने के लिए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के समक्ष एक किशोर/याचिकाकर्ता को पेश होना होगा, यह उचित नहीं होना चाहिए। याचिकाकर्ता/अभियुक्त/किशोर के लिए वकील ने आगे यह तर्क दिया है कि यद्यपि कुछ मामलों में इस न्यायालय ने यह विचार किया है कि गिरफ्तारी पूर्व जमानत के सम्बन्ध में जुवेनाइल (किशोर) की याचिका को बरकरार नहीं रखा जा सकता है परन्तु, उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उन कुछ मामलों का भी जिक्र किया जहाँ यह राहत अदालत द्वारा याचिकाकर्ता को दी गयी थी।  अदालत का मत अदालत ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, एक सामाजिक कल्याण कानून है, जिसे बच्चों के कल्याण का ख्याल रखने और उन्हें कठोर अपराधियों में बदलने से बचाने के लिए अधिनियमित किया गया था। अपने आदेश में अदालत द्वारा यह भी कहा गया कि इस कानून का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि 18 साल से कम उम्र के किशोर, जो कभी कभार अपराध करके विधि से संघर्षरत (conflict with law) हो जाते हैं उन्हें इस तरह से और ऐसे वातावरण के तहत ट्राई किया जाए, जो उन्हें सुधार के रास्ते पर ले जा सकता है, बजाय इसके कि इन किशोरों को जेल में बंद अपराधियों के साथ घुलने-मिलने की इजाजत दी जाए जिससे ये खुद कठोर अपराधियों में परिवर्तित हो जाएंं।   अदालत ने अपने आदेश में मुख्य रूप से यह देखा कि, "(इस कानून का) यही उद्देश्य है कि विधि से संघर्षरत जुवेनाइल (किशोर) को अलग अवलोकन घरों में रखा जाये बजाय उन्हें जेल में डालने के। यहां तक कि अगर कानून के साथ संघर्षरत एक किशोर द्वारा कुछ अपराध किया गया है, तो निवारक सजा देने के बजाय, उसके पुनर्वास और सामाजिक एकीकरण की मांग की जाती है। यदि यह विशेष अधिनियम, एक विशेष प्रावधान (अग्रिम जमानत) के संबंध में मौन है तो उसे सामान्य कानून यानी दण्ड प्रक्रिया संहिता, (1973) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। एक अनुमान निश्चित रूप से आकर्षित नहीं किया जा सकता है कि गिरफ्तारी पूर्व जमानत (अग्रिम जमानत) की मांग करने से किशोर को दूर रखने का विधायिका का इरादा है।" आगे अदालत ने यह देखा कि यदि ऐसा होता (कि जुवेनाइल से सम्बंधित जेजे कानून, किशोर को अग्रिम जमानत दिए जाने पर रोक लगाता है) तो उस संबंध में इस कानून में एक विशिष्ट प्रावधान किया गया होता। जैसा कि 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989' [The Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989] की धारा 18 में किया गया है, जो धारा स्पष्ट रूप से किसी व्यक्ति के, जिसने उक्त अधिनियम के तहत अपराध किया है, गिरफ्तारी पूर्व जमानत देने के अधिकार पर रोक लगाती है। अदालत ने इस बात पर भी गौर किया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015, यह प्रदान करता है कि किशोर की परिभाषा के भीतर आने वाले 18 वर्ष से कम आयु के किशोरों, जो कानून के साथ संघर्षरत पाए जाते हैं, उनके साथ भी दया और करुणा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए। यही नहीं, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले, हेमा मिश्रा बनाम यू. पी. राज्य एवं अन्य, 2014 (1) CCR 385 मामले का भी जिक्र किया जिसमे यह देखा गया था कि चूँकि उत्तर-प्रदेश राज्य में Cr.P.C. के तहत अग्रिम जमानत देने के लिए कोई प्रावधान मौजूद नहीं है (हालाँकि अब कानून अलग है और उत्तर प्रदेश राज्य में सामान्य तौर पर अग्रिम जमानत हाईकोर्ट से ली जा सकती है) लेकिन फिर भी उच्च न्यायालय के पास उचित मामलों में रिट अधिकार क्षेत्र के तहत अग्रिम जमानत देने की क्षमता है। आगे अदालत ने अपना आदेश सुनाते हुए कहा कि, "याचिकाकर्ता को आज से सात दिनों के भीतर अन्वेषण अधिकारी से संपर्क करके अन्वेषण में शामिल होने और हर प्रकार का सहयोग प्रदान करने के निर्देश दिए जाते हैं। याचिकाकर्ता को अपने पासपोर्ट को, यदि उसके पास है तो, जांच अधिकारी के समक्ष सौंपना होगा अन्यथा उस संबंध में हलफनामा प्रस्तुत करना होगा। यदि इस बीच, उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है, तो उसे अन्वेषण अधिकारी/गिरफ्तार अधिकारी की संतुष्टि के साथ जमानत पर रिहा कर दिया जाए।" पूर्व के कुछ उल्लेखनीय मामले गौरतलब है कि राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर पीठ ने 28-अगस्त-2019 को सुनाये एक आदेश में यह माना था कि एक किशोर जिसे अपने गिरफ्तार होने की आशंका है वह सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत की अर्जी दायर कर सकता है। इससे पहले, केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. नारायण पिसराडी ने इस सवाल का जवाब दिया था कि कानून के साथ संघर्ष में एक किशोर अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है क्योंकि किशोर न्याय (जेजे) अधिनियम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसे ऐसा करने से रोकता हो। हालाँकि, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने मार्च 2019 के एक आदेश में यह माना था कि एक किशोर सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए आवेदन दायर करने का हकदार नहीं है। इससे पहले वर्ष 2017 में भी के. विग्नेश बनाम राज्य के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय (जस्टिस एस. नागमुत्थु एवं जस्टिस अनीता सुमंत की पीठ) ने यह फैसला सुनाया था कि एक किशोर को अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है क्योंकि जेजे कानून, पुलिस को केवल किशोर को केवल 'apprehend' करने को कहता है लेकिन पुलिस को एक किशोर को 'गिरफ्तार' करने का अधिकार कानून में नहीं दिया गया है। इसी क्रम में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि कानून के साथ संघर्ष में किशोर के मामले में गिरफ्तारी का कोई डर नहीं हो सकता है, और यह कानूनी स्थिति किशोर के लिए अग्रिम जमानत लेने की आवश्यकता को खत्म करती है।

अभियुक्त को केवल इस 'धारणा' के आधार पर कस्टडी में नहीं रखा जा सकता कि वह ट्रायल में अड़चन डालेगा या समाज को संदेश देना है

*अभियुक्त को केवल इस 'धारणा' के आधार पर कस्टडी में नहीं रखा जा सकता कि वह ट्रायल में अड़चन डालेगा या समाज को संदेश देना है : दिल्ली हाईकोर्ट* 25 July 2020 

 दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि जांच एजेंसी की इस धारणा के आधार पर कि अभियुक्त न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करेगा, किसी अभियुक्त को जमानत देने से इनकार करते हुए उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम नहीं आंका जा सकता। न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की एकल पीठ ने कहा कि- ''कहीं भी यह कानून नहीं है कि एक अभियुक्त, जिसके मुकदमे की अभी सुनवाई होनी हैै, उसे केवल इस धारणाया अनुमान के आधार पर हिरासत में रखा जाना चाहिए कि वह मुकदमे में अड़चन डालेगा या समाज को कोई संदेश देना है। कुछ भी हो, किसी अभियुक्त को दोषी करार दिए जाने से पहले जेल में रखने से समाज को एकमात्र संदेश यह जाता है कि हमारी प्रणाली केवल धारणा और अनुमानों पर काम करती है और दोषी होने के अनुमान के आधार पर भी एक अभियुक्त को हिरासत में रख सकती है।''  न्यायालय ने यह टिप्पणी मनी लॉन्ड्रिंग मामले में फोर्टिस हेल्थकेयर के प्रमोटर शिविंदर मोहन सिंह की जमानत याचिका को स्वीकार करते हुए की है। पीठ ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वह सिंह को जमानत पर 1 करोड़ रुपये के निजी मुचलके और दो जमानती लाने की शर्त पर रिहा कर दें। उपर्युक्त टिप्पणी एक अंडरट्रायल कैदी को जमानत देने के मामलों में प्रयोग किए जाने वाले अधिकार के संबंध में काफी महत्वपूर्ण साबित होंगी।  पीठ ने स्पष्ट किया है कि आपराधिक मामले की जांच कर रहे अधिकारियों को ठोस तथ्यों के आधार पर जमानत दिए जाने का विरोध करना चाहिए जो ''उचित संदेह से परे''केस बनाते हों। उन्हें ट्रायल खत्म होने से पहले केवल ''दंडित'' करने के इरादे से अभियुक्तों की कस्टडी में नहीं रखना चाहिए। पीठ ने कहा कि- ''एक जांच एजेंसी को इस विश्वास के साथ अदालत में आना चाहिए कि उन्होंने एक आरोपी को विश्वसनीय सामग्री के आधार पर गिरफ्तार किया है। वहीं इस आधार पर एक शिकायत या आरोप पत्र दायर किया है कि वे अदालत को संदेह से परे संतुष्ट करने में सक्षम होते हुए आरोपी को दोषी करार दिलाएंगे। लेकिन जब एक जांच एजेंसी शिकायत या आरोप पत्र दायर करने के बाद भी यह सुझाव देती है कि एक अभियुक्त को एक लंबे समय के लिए हिरासत में रखा जाना चाहिए तो ऐसा प्रतीत होता है कि जांच एजेंसी अपने मामले को लेकर आश्वस्त नहीं है और इसलिए उनको आशंका है कि आरोपी डिस्चार्ज या बरी होकर 'गेट-ऑफ या बाहर निकल' सकता है। इसीलिए 'आरोपी को दंडित' करने का एकमात्र तरीका यह है कि उसे बतौर अंडरट्रायल कस्टडी में ही रखा जाए।''   वर्तमान मामले में, शिविंदर के साथ उनके भाई मालविंदर सिंह और सुनील गोधवानी पर 3000 करोड़ रुपये का वित्तीय घोटाला करने का आरोप है, जो रेलिगेयर फिनवेस्ट में उनके स्वामित्व की अवधि के दौरान हुआ था। सिंह की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता हरिहरन ने दलील दी थी कि याचिकाकर्ता को जमानत दी जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान मामले में साक्ष्य पहले ही दर्ज किए जा चुके हैं और रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर आगे भी याचिकाकर्ता को जेल में रखा जाए।  दूसरी ओर, प्रवर्तन निदेशालय ने इस आधार पर जमानत याचिका का विरोध किया था कि अभियुक्त द्वारा सबूतों के साथ छेड़छाड़ किए जाने की संभावना है। वह जमानत पर रिहा होने के बाद फरार हो सकता है और गवाहों को प्रभावित कर सकता है। पीठ ने उल्लेख किया कि शिविंदर के खिलाफ ईसीआईआर दर्ज करने की ''पर्याप्त'' अवधि के बाद ही उसे ईडी ने गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उसके खिलाफ कोई ऐसा आरोप नहीं है कि इस अवधि में उसने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की या किसी गवाह को प्रभावित किया या किसी भी रिकॉर्ड को नष्ट कर दिया था। वास्तव में, यह देखा गया कि उपरोक्त लेनदेन कई रिकॉर्ड में दर्ज किए गए है या दर्शाए गए हैं। इसलिए इनको किसी भी तरीके से हटाया, संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। इन परिस्थितियों में पीठ ने कहा कि- ''वास्तव में पूरे कथित अपराध को उजागर करने के लिए लंबे और श्रमसाध्य प्रयास की जरूरत पड़ सकती है। वहीं आवेदक के पिछले आचरण से साफ है कि उसके द्वारा आगे की जांच में हस्तक्षेप करने का कोई वास्तविक और संभावित जोखिम नहीं है,जिसके आधार पर उसे जमानत देने से इनकार कर दिया जाए।'' पीठ ने यह भी कहा कि- ''यद्यपि कथित अपराध अगर साबित हो जाता है तो यह एक गंभीर आर्थिक अपराध हैं। परंतु यह तथ्य भी अपने आप में जमानत से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता है क्योंकि जमानत आवेदन पर विचार करते समय अपराध की प्रकृति की एक सीमित भूमिका होती है।'' पीठ ने माना है कि एक आरोपी, जिसे सामान्य या लोकप्रिय रूप से दोषी माना जाता है, उसे केवल ''बदला लेने की चाह'' के लिए हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। पीठ ने कहा,''इस तरह की कार्रवाई निश्चित रूप से हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभुता या प्रतिष्ठा को खत्म कर देगी। ... ट्रायल पूरी होने से पहले जेल में अभियुक्तों को बंद रखकर सजा देने के मामले में लोगों को पूरा भरोसा आपराधिक न्याय प्रणाली में होना चाहिए।'' पीठ ने 'संजय चंद्रा बनाम सीबीआई, (2012) 1 एससीसी 40' मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर विश्वास जताया है। इस फैसले में माना गया था कि जमानत का उद्देश्य जमानत की उचित राशि के आधार पर मुकदमे में आरोपी व्यक्ति की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है। 'जमानत का उद्देश्य न तो दंडात्मक है और न ही निवारक है।' पीठ ने दिल्ली जेल की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि इन आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2019 में दिल्ली की जेलों में अंडर ट्रायल व अपराधियों का अनुपात लगभग 82 प्रतिशत व 18 प्रतिशत था। पीठ ने कहा कि, ''यह संख्या बता रही है कि जेल सजा देने के लिए बनाई गई एक जगह है और कोई भी सजा बिना मुकदमे के वैध नहीं हो सकती है। ज्यूडिशियल कस्टडी में किसी अंडरट्रायल को रखने के लिए बाध्यकारी आधार और कारण होने चाहिए, जो कि इस अदालत को वर्तमान मामले में नजर नहीं आए हैं।'' यह भी एक कारगर तथ्य है कि एक अंडरट्रायल को जेल में रखना उसकी कानूनी रक्षा या डिफेंस की तैयारी को ''गंभीर रूप से खतरे में डालता है।'' आदेश में कहा गया है कि- ''यदि कस्टडी में रखा जाता है तो आवेदक अपने वकीलों के साथ प्रभावी ढंग से परामर्श नहीं कर पाएगा,न ही अपने बचाव में सबूतों को एकत्रित कर पाएगा और इस तरह वह खुद का प्रभावी ढंग से बचाव नहीं कर पाएगा। इस तरह आवेदक संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी के अधिकार से वंचित हो जाएगा।'' मामले का विवरण- केस का शीर्षक- डॉ शिविंदर मोहन सिंह बनाम प्रवर्तन निदेशालय केस नंबर- बीए नंबर 1353/2020 कोरम-न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी प्रतिनिधित्व-वरिष्ठ अधिवक्ता एन हरिहरन साथ में एडवोकेट तनवीर अहमद, महेश अग्रवाल, श्री सिंह, अभिषेक सिंह, निर्विकार सिंह, शाली भसीन और मेनका खन्ना (याचिकाकर्ता के लिए),सीजीएससी अमित महाजन साथ में एसपीपी नितेश राणा व एडवोकेट्स मल्लिका हिरेमथ और रमनजीत कौर (ईडी के लिए)

Friday 24 July 2020

पीड़िता की डीएनए रिपोर्ट का मैच न होना, अपराध में शामिल नहींं होने का कोई आधार नहींं है : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने गैंगरेप के आरोपी को ज़मानत देने से इनकार किया 24 July 2020


पीड़िता की डीएनए रिपोर्ट का मैच न होना, अपराध में शामिल नहींं होने का कोई आधार नहींं है : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने गैंगरेप के आरोपी को ज़मानत देने से इनकार किया 24 July 2020 

 पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने गैंगरेप के एक आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए कहा कि, ''केवल इसलिए कि डीएनए रिपोर्ट (बलात्कार पीड़िता की) याचिकाकर्ता के साथ मेल नहीं खाती है, यह निष्कर्ष निकालने के लिए एक आधार नहीं हो सकता है कि याचिकाकर्ता अपराध में शामिल नहीं था।'' न्यायमूर्ति विवेक पुरी के समक्ष याचिकाकर्ता ने आईपीसी की धारा 342/363/366 ए /376 डी/ 506 रिड विद 34 और प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्राम सैक्सुअल आफेंस एक्ट (POCSO) की धारा 6 और 7 के तहत 4 मई 2018 को दर्ज की गई एफआईआर के संबंध में नियमित जमानत मांगी थी।  सिंगल बेंच ने पाया कि उपरोक्त एफआईआर शिकायतकर्ता के आरोपों के आधार पर दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि 03/04 मई, 2018 की रात में 12 बजे से सुबह दो बजे के बीच उसकी बेटी उसे दुकान पर चाय देने आई थी। जब वह उसे चाय देकर वापस घर लौट रही थी तो रास्ते में बीर सिंह, नवीन (वर्तमान याचिकाकर्ता) और एक अज्ञात लड़के ने उसका अपहरण कर लिया था। शिकायतकर्ता ने उसे खोजनेे की कोशिश की और बाद में उसे अपनी बेटी एक कमरे में मिली,जहां पर सभी लड़के मौजूद थे। पीड़िता ने आरोप लगाया था कि उपरोक्त तीनों और एक सोनू नामक व्यक्ति ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। साथ ही उसे धमकी दी कि अगर घटना में बारे में किसी को बताया तो उसे जान से मार देंगे। याचिकाकर्ता के वकील ने दावा किया था कि जांच के दौरान वह निर्दोष पाया गया था और वास्तव में सीआरपीसी की धारा 319 के तहत ही उसे समन जारी किया गया था। इसके अलावा, सह-अभियुक्त सोनू को हाईकोर्ट ने की एक समन्वय बेंच ने जमानत दे दी है। वहीं पीड़िता की डीएनए रिपोर्ट याचिकाकर्ता के साथ मेल नहीं खाती है। दूसरी ओर राज्य के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता का मामला सोनू के जैसा नहीं था। इसके अलावा यह भी दलील दी गई कि यह एक सामूहिक बलात्कार का मामला है और याचिकाकर्ता को सीआरपीसी की धारा 319 के तहत तलब किया गया है। पीड़िता ने सामूहिक बलात्कार के मामले के संबंध में उसके खिलाफ विशिष्ट और स्पष्ट आरोप लगाए थे। इसके अलावा यह भी बताया गया था कि याचिकाकर्ता को सात जनवरी 2019 के आदेश के तहत समन जारी किया गया था। बाद में हाईकोर्ट ने 9 जुलाई 2019 के आदेश के तहत समन के उस आदेश को सही ठहराया था। न्यायमूर्ति पुरी ने कहा, ''यह सामूहिक बलात्कार का मामला है और केवल इसलिए कि डीएनए रिपोर्ट याचिकाकर्ता के साथ मेल नहीं खाती है, यह निष्कर्ष निकालने के लिए कोई आधार नहीं हो सकता है कि याचिकाकर्ता अपराध में शामिल नहीं था।'' इसके अलावा, एकल न्यायाधीश ने कहा कि याचिकाकर्ता के मामले को सह आरोपी सोनू के समान नहीं माना जा सकता है। चूंकि ''मुकदमे के दौरान दर्ज बयान में, पीड़िता ने विशेष रूप से बीर सिंह और नवीन की पहचान की है। हालांकि उसने सह-आरोपी सोनू के अपराध में शामिल होने की बात से इनकार कर दिया था।''  पीठ ने माना कि- ''केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता को जांच के दौरान निर्दोष पाया गया था, उसे जमानत की रियायत का विस्तार देने के लिए कोई गंभीरता कम करने वाली परिस्थिति नहीं बनाती है।'' सिंगल बेंच ने कहा कि याचिकाकर्ता को ट्रायल कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 319 के तहत समन जारी किया था और उक्त आदेश को हाईकोर्ट ने भी उचित ठहराया था। इस प्रकार न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि याचिकाकर्ता को जमानत की रियायत का लाभ देने के लिए कोई आधार नहीं बनता है।


Tuesday 21 July 2020

कौन होता है सरकारी गवाह और कैसे मिलता है उसे क्षमादान 21 July 2020

कौन होता है सरकारी गवाह और कैसे मिलता है उसे क्षमादान 21 July 2020 


 संयुक्त रूप से किए गए अपराध में कभी-कभी यह परिस्थिति होती है कि इस संयुक्त षड्यंत्र के साथ किसी अपराध को कारित करने वाले लोगों में कोई एक भेदी गवाह (approver) बन जाता है, जिसे सरकारी गवाह भी कहा जाता है। कभी-कभी गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामले में अभियोजन पक्ष को यथेष्ट साक्ष्य नहीं मिल पाते हैं, जिस कारण आरोपी को दोषमुक्त होने का अवसर मिल सकता है। अभियोजन पक्ष प्रकरण की सभी वास्तविक बातों को न्यायालय के सामने लाने हेतु अभियुक्तों में से किसी एक अभियुक्त को सरकारी गवाह बना देता है। यह अभियुक्त मामले के सभी वास्तविक तथ्यों को न्यायालय के सामने रख देता है तथा यह अपराध करने वाले अन्य लोगों से भेद कर जाता है। ऐसी परिस्थिति में न्यायालय के पास में यह अधिकार है कि इस प्रकार के सरकारी गवाह को क्षमादान प्रदान कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 सहिंता की धारा 306 के अंतर्गत सह अपराधी को क्षमादान दिए जाने का प्रावधान किया गया है। इस धारा में अपराधी को क्षमादान किए जाने संबंधी व्यवस्थित प्रावधान उपलब्ध हैं। क्षमादान कब दिया जा सकता है किसी मामले में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंध रखने वाले या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस प्रकरण में जुड़े हुए व्यक्ति से साक्ष्य प्राप्त करने के उद्देश्य से न्यायालय उसे क्षमादान की शर्त पर मामले की सभी वास्तविक परिस्थितियों का स्पष्ट और सत्य प्रकटन करने का कहता है। सह अपराधी मामले की वास्तविकता का प्रकटन न्यायालय के समक्ष कर देता है तो न्यायालय द्वारा उसे क्षमादान दिया जा सकता है। क्षमादान दिए जाने का उद्देश्य गंभीर प्रकृति के मामलों में अभियुक्तों को दंड देने के उद्देश्य से दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 306 के अंतर्गत अभियुक्त को क्षमादान का प्रावधान रखा गया है। संयुक्त रूप से किए गए अपराध में कोई ऐसा अभियुक्त जिसका मामले से सीधा संपर्क हो उसे क्षमादान देकर अन्य अभियुक्तों को दंडित किया जा सकता है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 के अंतर्गत सह अपराधी सक्षम साक्षी होता है।  क्षमादान दिए जाने के लिए कौन सा मजिस्ट्रेट सक्षम है दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 के अंतर्गत उन मजिस्ट्रेट का उल्लेख किया गया है जो क्षमादान दिए जाने के संबंध में सशक्त होते हैं। 1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट 2) कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग जहां मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट तथा महानगर मजिस्ट्रेट का संबंध है, वहां अपराध के अन्वेषण, जांच या विचारण के किसी भी चरण में से अभियुक्त को क्षमादान कर सकता है, परंतु प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट केवल जांच या विचारण के किसी प्रक्रम में सह अपराधी को समाधान कर सकता है। अन्वेषण के प्रक्रम में किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग को क्षमादान दिए जाने की शक्ति प्राप्त नहीं है। सह अपराधी को इस शर्त पर समाधान किया जा सकता है कि वह अपराध की वास्तविक घटना या उससे संबंधित व्यक्तियों के बारे में न्यायालय को यथेष्ट तथा सही सही जानकारी देगा, यह शर्त पूर्ण होना चाहिए, क्षमादान उसी परिस्थिति में दिया जाता है जब व्यक्ति सह अपराधी होता है। कौन से अपराधों में क्षमादान दिया जा सकता है दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 उन अपराधों का भी उल्लेख करती है, जिनमे क्षमादान दिया जा सकता है। ऐसे अपराध निम्न हैं 1) वह अपराध जो सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय हैं। 2) वह अपराध जो दंड विधि संशोधन अधिनियम 1952 के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश के न्यायालय द्वारा विचारणीय हैं। 3) ऐसे अपराध जो 7 वर्ष तक यह इससे अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय हैं। मेसी नैंसी जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1985 के मामले में कहा गया है कि धारा 306 के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी उपरोक्त वर्णित अपराध से संबंधित है उसे इस शर्त पर क्षमादान किया जा सकता है कि वह अपराध एवं घटना से संबंधित सभी परिस्थितियों को जो कि उसे ज्ञात है सही-सही बता देगा। के सरस्वती बनाम विशेष पुलिस प्रतिस्थापन सीबीआई के मामले में कहा गया है कि क्षमादान संबंधी मजिस्ट्रेट की अधिकारिता में उच्च न्यायालय द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। मामले की सुपुर्दगी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 की उपधारा 5 के अंतर्गत यदि सुनवायी करने वाला मजिस्ट्रेट सक्षम नहीं है और मामला सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो संज्ञान करने वाला मजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट है तो ऐसे मामले को सेशन न्यायालय के सुपुर्द कर देगा। धारा 209 के अंतर्गत मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द कर दिया जाता है। मजिस्ट्रेट द्वारा क्षमादान संबंधी शक्ति का प्रयोग विरोधी पक्षकार के आवेदन पर न करते हुए विधि के प्रति स्थापित सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए। इस प्रकार से क्षमादान की शक्ति का प्रयोग आवेदनों के आधार पर नहीं किया जाता है। अभियोजन पक्ष उस सरकारी गवाह को पेश करता है जिसे क्षमादान दिलवाया जाना है। सरकारी गवाह, जिसे इस आधार पर समाधान किया गया हो कि वह मामले से संबंधित सभी तथ्य सरकार अभियोजकों को सही-सही बता देगा, अभियुक्त नहीं रह जाता है, बल्कि उसकी स्थिति साक्षी की तरह हो जाती है। न्यायालय द्वारा सरकारी गवाह को क्षमादान करने का उद्देश्य अभियुक्त का एक साक्षी के रूप में साक्ष्य लेना होता है। यह तथ्य की अभियुक्त ने धारा 164 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत संस्वीकृति का कथन किया है धारा 306 के अधीन क्षमादान करने के विरुद्ध नहीं होगा। बंगारू लक्ष्मण बनाम राज्य एआईआर 2012 उच्चतम न्यायालय 1377 के वाद में आरोपी के विरुद्ध षड्यंत्र का तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 52 के अधीन आरोप था उसके सह अपराधी द्वारा अपराध की घटना का पूरा ब्यौरा खुलासा किए जाने के फलस्वरूप उसे विशेष न्यायालय ने क्षमा दान कर दिया। अपीलार्थी द्वारा इस क्षमादान का इस आधार पर विरोध किया गया कि मजिस्ट्रेट जिसमे विशेष न्यायाधीश भी सम्मिलित हैं के द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध आरोप पत्र फाइल किए जाने के पूर्व ही उसे क्षमादान किया जाना था तथा धारा 306 के उल्लंघन में होने के कारण उक्त आदेश अपास्त किए जाने योग्य है। इस दलील को खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने विनिश्चय किया कि अभियुक्त के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल किए जाने के पूर्व यदि मजिस्ट्रेट या विशेष न्यायाधीश का समाधान हो जाए कि सह अभियुक्त अपराध के बारे में पूरी जानकारी दे रहा है और वह क्षमादान किए जाने योग्य है तो वह ऐसा कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 के अंतर्गत इस बारे में कोई विरोध नहीं है तथा स्पष्ट उल्लेख है। इस संबंध में मजिस्ट्रेट न्यायालय का निर्णय उसके न्यायिक विवेक पर आधारित होने के कारण विधि माननीय तथा धारा 306 के प्रावधानों के अनुरूप होगा। उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय का समर्थन करते हुए अभिकथन किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा इस चरण में क्षमादान की शक्ति प्रदान करने का मूल उद्देश्य है कि अभियुक्तों के प्रति किसी तरह का अन्याय ना हो तथा विचारण कार्यवाही त्वरित निपटायी जा सके। ,रेणुका बाई बनाम महाराष्ट्र राज्य के एक मुकदमे में सह अपराधी जिसने धारा 306 के अंतर्गत क्षमादान दिया गया था उसने अभियुक्त के साथ में मिथ्या साक्ष्य देने का अपराध किया था। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि क्षमादान दिए गए अपराधी ने न्यायालय को अपराध के बारे में सही जानकारी उपलब्ध नहीं कराई थी तथा उच्च न्यायालय ने अपनी अंतर्निहित शक्ति को प्रयुक्त करते हुए उसके विरुद्ध कार्रवाई संस्थित की जिसे उच्चतम न्यायालय ने न्यायोचित ठहराया। एसएस चौधरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में कहा गया है कि यदि कोई साक्षी स्वेच्छा से स्वयं को फंसाने वाले कथन करता है, जिससे उसका आत्म अभिशंसन होता हो और ऐसा साक्ष्य देता है तो वह धारा 306 के अधीन क्षमादान के योग्य नहीं होगा। न्यायालय अपने विवेक अनुसार उसके विरुद्ध कार्रवाई कर सकता है। भेदी साक्षी द्वारा दी गयी साक्ष्य की विश्वसनीयता दो बातों पर निर्भर करती हैं 1) विश्वास करने का उचित कारण हो कि वह विश्वास करने योग्य साक्षी है तथा वह कोई असत्य जानकारी नहीं दे रहा है। 2) उसके द्वारा दी गयी साक्ष्य की पर्याप्त रूप से संपुष्टि होनी चाहिए। धारा 307 धारा 307 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत क्षमादान का निर्देश देने की शक्ति का प्रावधान दिया गया है। मामले की सुपुर्दगी के पश्चात किसी भी समय निर्णय दिए जाने के पहले न्यायालय सह अपराधी को क्षमादान दे सकता है। यदि उसे यह प्रतीत हो जाता है कि उसके द्वारा दी गयी सभी जानकारियां सही और स्पष्ट हैं। क्षमादान की शर्तों का पालन नहीं करने के परिणाम (धारा 308) दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 308 क्षमादान की शर्तों का पालन नहीं करने वाले व्यक्ति पर विचारण चलाने संबंधी प्रक्रिया का उल्लेख करती है। इससे संबंधित सभी व्यवस्था इस धारा के अंतर्गत दी गयी है। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार वह व्यक्ति जिसे धारा 306 एवं 307 के अधीन शमादान प्रदान की गयी है उस अपराध के विचारण का पात्र हो सकता है जिसके बारे में उसे क्षमादान दिया गया है। किसी अन्य अपराध के लिए भी जिस के संबंध में उसका दोषी होना प्रतीत होता है उसे विचारण हेतु बुलाया जा सकता है बशर्ते कि लोक अभियोजक यह प्रमाणित कर दें कि उसने उस बात को या किसी अन्य बात को जानबूझकर छिपाकर या साथ देकर क्षमादान की शर्त का उल्लंघन किया है। यदि न्यायालय को लगता है कि सह अपराधी ने सही और स्पष्ट जानकारी नहीं दी है तो न्यायालय उसके समाधान के अधिकार का हरण कर लेता है तथा उस पर विचारण की कार्यवाही करता है। इस प्रकार के सरकारी गवाह द्वारा यदि अपने दिए गए कथन से पलटा जाता है तो उसके विरुद्ध मिथ्या कथन देने के लिए अभियोजन का आवेदन खुले न्यायालय में राज्य की ओर से दिया जा सकता है। इस लेख के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण विषय यह है कि अभियोजन पक्ष द्वारा ही सरकारी गवाह को प्रस्तुत किया जाता है। किसी सह अपराधी द्वारा स्वयं को सरकारी गवाह होने के लिए कोई आवेदन नहीं दिया जाता है। यदि वह ऐसा आवेदन देगा तो मजिस्ट्रेट के विवेक पर है कि वह उसका आवेदन स्वीकार करें अन्यथा ऐसा आवेदन संस्वीकृति माना जाएगा। सामान्यतः अभियोजन पक्ष अपनी ओर से इस प्रकार से अपराधी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करता है।

Saturday 18 July 2020

जब सत्यापित करने वाले दोनों गवाहों की मौत हो गई हो तो वसीयत के निष्पादन को कैसे साबित किया जाए ? सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की 18 July 2020


जब सत्यापित करने वाले दोनों गवाहों की मौत हो गई हो तो वसीयत के निष्पादन को कैसे साबित किया जाए ? सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या की 18 July 2020

"Section 68 of the Evidence Act, as interpreted by this Court, contemplates attestation of both attesting witnesses to be proved. But that is not the requirement in Section 69 of the Evidence Act."  सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को सुनाए गए फैसले में कहा है कि ऐसी स्थिति में जहां वसीयत में गवाही देने वाले दोनों गवाहों की मौत हो जाती है, यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि गवाही देने वाले कम से कम एक गवाह की लिखावट उसकी ही है। इस मामले में, प्रासंगिक समय पर, प्रश्न में वसीयत में गवाही देने वाले दोनों व्यक्ति जीवित नहीं थे। सीआरपीसी की धारा 145 के तहत कार्यवाही में गवाहों को एक गवाह द्वारा दिए गए सत्यापित बयान की प्रति प्रस्तुत करके वसीयत को साबित करने की मांग की गई थी।  हालांकि, उच्च न्यायालय ने माना कि वसीयत को सत्यापित करने वाले गवाहों में से एक की गवाही ने वसीयत के उचित निष्पादन को स्थापित नहीं किया है, इसमें उसने दूसरे कथित गवाह द्वारा वसीयत को सत्यापित करने की पुष्टि नहीं की है। इसलिए जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस केएम जोसेफ की शीर्ष अदालत की पीठ के समक्ष अपील में मुद्दा यह था कि जबकि दोनों साक्षी गवाह मर चुके हैं तो क्या अभी भी साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के तहत, सत्यापन कानून की आवश्यकता है और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 के तहत, दो गवाहों द्वारा सत्यापन को प्रमाणित किया जाना है? या यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि गवाही देने वाले कम से कम एक गवाह की लिखावट उसकी ही है, जो उसको साबित करने के अलावा साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 की शाब्दिक कमान है? न्यायमूर्ति जोसेफ द्वारा लिखित निर्णय में वसीहत के निष्पादन के प्रमाण से संबंधित कानून को सफलतापूर्वक निपटाया गया है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 अप्राधिकृत वसीयत के निष्पादन से संबंधित है, इस आदेश में कि न केवल एक वैध वसीयत बनाई जाएगी, यह आवश्यक है कि वसीयतकर्ता को दस्तावेज़ को निष्पादित करना चाहिए, बल्कि निष्पादन को कम से कम दो गवाहों द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 68, कानून द्वारा सत्यापित किए जाने वाले दस्तावेज के निष्पादन के प्रमाण से संबंधित है। इस प्रावधान के अनुसार, वसीहत के मामले में, यदि कोई गवाह जीवित है और अदालत की प्रक्रिया के अधीन है और सबूत देने में सक्षम है, तो, वसीयत तभी साबित की जा सकती है, जब इसके निष्पादन को साबित करने को लिए गवाह में से किसी एक को गवाही के लिए बुलाया जाए।इसके अलावा, यह भी एक सुलझा हुआ कानून है, ऐसे मामलों में, कम से कम एक गवाह को न केवल उसके द्वारा जांच को प्रमाणित करने के लिए छानबीन की जानी चाहिए, बल्कि उसे अन्य गवाह [[1995 (6) SCC 213]) द्वारा सत्यापन भी साबित करना होगा। इस मुद्दे का जवाब देते हुए अदालत ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 69, साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 में सन्निहित आवश्यकता से प्रस्थान को दर्शाती है। बेंच द्वारा इस संबंध में की गई प्रासंगिक टिप्पणियों को नीचे उद्धृत किया गया है "वसीयत के मामले में, जिसे भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 में प्रदान किए गए मोड में निष्पादित किया जाना आवश्यक है, जब कोई गवाह उपलब्ध है, तो वसीयत को उसकी जांच करके साबित किया जाना चाहिए। उसे न केवल साबित करना होगा कि साक्षत्कार उसके द्वारा किया गया था, बल्कि उसे दूसरे गवाह द्वारा भी सत्यापित गवाही को साबित करना चाहिए। यह, कोई संदेह नहीं है, इस स्थिति के अधीन जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 71 में चिंतन किया गया है जो अन्य दस्तावेज़ों के बीच में, अन्य साक्ष्य को सबूत में जोड़ने की अनुमति देता है, जहां उपस्थित गवाह ने वसीयत या अन्य दस्तावेज़ के क्रियान्वयन से इंकार किया है या याद नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, दस्तावेज़ के तहत वसीयत करने वाले या वसीयत के उत्तराधिकारी का भाग्य, जिसे कानून द्वारा सत्यापित किया जाना आवश्यक है, सत्यापित गवाह की गवाही पर ही आधारित नहीं रखा गया है और कानून गवाह द्वारा दस्तावेज के निष्पादन से इनकार करने के बावजूद दस्तावेज़ को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है। " (पैरा 70) अदालत ने आगे कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के तहत कवर किए गए मामले में, जहां तक ​​साबित हो रहा है कि जहां तक ​​साक्षी गवाह का संबंध है, यह है कि साक्षी में से किसी एक की गवाही उसकी लिखावट में है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 पर वापस लौटते हुए, हमारा विचार है कि इसमें आवश्यकता यह होगी कि यदि दस्तावेज को निष्पादित करने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर उसकी लिखावट में साबित होते हैं, तो एक गवाह की गवाही को साबित करना है। दूसरे शब्दों में, साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के तहत कवर किए गए एक मामले में, साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अनुसार आवश्यक है कि दोनों गवाहों द्वारा किए गए सत्यापन को कम से कम एक गवाह की जांच करके साबित किया जाए, जिसके साथ विवाद किया गया है। ऐसा हो सकता है कि साक्ष्य के गवाह द्वारा दिए गए सबूत, साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के अर्थ के भीतर, अन्य गवाह द्वारा सत्यापन से संबंधित सबूत हो सकते हैं, लेकिन यह वैसा नहीं है, जैसा कि इसे कानूनी आवश्यकता बताया गया है। धारा के तहत दोनों गवाहों द्वारा सत्यापन को साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 द्वारा कवर किए गए मामले में साबित किया जाना है। संक्षेप में, साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 के तहत कवर किए गए एक मामले में, जहां तक ​​साबित हो रहा है कि जहां तक ​​साक्षी गवाह का संबंध है, वह यह है कि उपस्थित गवाह में से एक का सत्यापन उसकी लिखावट में है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 धारा की भाषा स्पष्ट और असंदिग्ध है जैसा कि अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि दोनों गवाहों के सत्यापन को साबित करना होगा लेकिन साक्ष्य अधिनियम की धारा 69 में इसकी आवश्यकता नहीं है। (पैरा 71)


Monday 13 July 2020

कानून विदों के अध्ययन के लिए आवश्यक किताबें 13 July 2020


कानून विदों के अध्ययन के लिए आवश्यक किताबें 13 July 2020 

       हमजा लकड़वाला विचार भारत में कानून के अधिकांश छात्रों को उनकी कानूनी शिक्षा पुरानी और अधूरी लगती है। कॉलेज और विश्वविद्यालय अक्सर मूलभूत सिद्धांतों और अवधारणाओं के सा‌थ कुछ बुनियादी प्रक्रियात्मक और ठोस कानूनों को सिखाते हैं। यह बुनियादी समझ बनाने में मदद करता है, मगर, किसी भी तरह से पर्याप्त नहीं है। ज्ञान क्षुधा की पूर्ति के लिए अधिकांश छात्र स्वाध्याय का सहारा लेते हैं, हालांकि ऐसा करने में, उन्हें यह महसूस होता है कि उन्हें नहीं पता कि उन्हें क्या पढ़ना है ओर क्या नहीं। हालांकि कई रीडिंग लिस्ट ऑनलाइन उपलब्ध हैं, मगर ज्यादातर सामान्य और सतही हैं, और अक्सर एक गैर-भारतीय पाठक की जरूरतों को पूरा करती हैं। उदाहरण के लिए, मैंने कभी भी केजी कन्नबिरन की वेजेस ऑफ इम्प्यू‌निटी को इन ऑनलाइन लिस्टों में नहीं देखा। एक अच्छी किताब पढ़ने के लिए, आपको पहले यह जानना चाहिए कि किताब मौजूद है। रीडिंग लिस्ट प्रोजेक्ट भारत में कानून के छात्रों और वकीलों के लिए आवश्यक पठनीय किताबें को समेटने का प्रयास है। इस सूची का उद्देश्य छात्रों और वकीलों को उन किताबों से वाकिफ करना, जिन्हें पढ़ा जाना वाकई बहुत जरूरी है। सूची में उल्लिखित किताबों को अधिवक्ताओं, पत्रकारों और प्रमुख शिक्षाविदों के बाद शामिल किया गया है। Also Read - [लॉ ऑन रील्स] 'आप लोग हैं कौन?' बोस्टन लीगल और रेप के अपराध में मृत्युदंड चयन की प्र‌क्रिया सूची के लिए किताबे चयन‌ित करने के लिए मैंने गूगल डॉक्स पर एक पेज बनाया और उनमें उन किताबों को जोड़ा, जो मुझे लगा कि महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, अनुज भुवानिया की कोर्टिंग द पीपल। इसके बाद मैंने कानूनी बिरादरी के कई सदस्यों के साथ यह पेजा साझा किया। उनसे कानून के विभिन्न क्षेत्रों से पठनीय पुस्तकों का सुझाव देने का अनुरोध किया; जिसके बाद घरेलू और विदेशी लेखकों द्वारा लिख‌ि गई पुस्तकों की एक विविध और व्यापक सूची तैयार हुई। सूची स्थायी नहीं है और आगे और चीजें जुड़ती रहेंगी। इसमें नियमित अंतराल पर नई किताबों को जोड़ा जाएगा, साथ ही रेस, संस्कृति, वित्त, आदि जैसे अध्ययन के विभिन्न क्षेत्रों में उप-सूचियों को भी जोड़ा जाएगा। मेरा विनम्र प्रयास है कि मैं कानून के छात्रों के, और अपने लिए भ, कानून के अध्ययन को थोड़ा आसान और थोड़ा अधिक सुखद बनाऊं। मैं आशान्वित हूं कि इससे आपको सहायता मिलेगी। यदि आपके पास सूची के लिए कोई सुझाव है, तो कृपया ट्विटर पर @legallyhamza पर मुझसे साझा करें। मैं अपना महत्वपूर्ण समय देने और सूच‌ी तैयार करने में मदद देने के लिए राधिका रॉय, विक्रम हेगड़े, अनुज भुवानिया, भावना गांधी, अपार गुप्ता, वसुंधरा सरनेत, आफरीन आलम और अरुशी सिंह का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा। मैं उन कानून छात्रों, वकीलों और उत्साही पाठकों को धन्यवाद देना चाहता हूं, जिन्होंने मुझे इस सूची को बनाने और साझा करने में मदद की है! पठन सूची (यह सूची पूर्ण नहीं है, और किताबों के चयन का कोई विशेष क्रम भी नहीं है।) लैंडमार्क जजमेंट्स पर जिया मोदी - 10 जजमेंट्स दैड चेंज्ड इंड‌िया जस्टिस एके गांगुली - लैंडमार्क जजमेंट्स चेंज्‍ड इंडिया चिन्तन चंद्रचूड़ - केसेज दैड इं‌डिया फॉरगॉट प्रशांत भूषण - द केस दैट शूक इंडिया: द वेरीड दैट लेड टू द इमरजेंसी इंदु भान - द ड्रामेटिक डिकेड: लैंडमार्क केसेज ऑफ मॉडर्न इंडिया टॉम डेनिंग -लैंडमार्क्स इन द लॉ एलन हचिंसन - इज़ इटिंग पीपल रॉग? ग्रेट लीगल केसेज एंड हाऊ दे शेप्ड द वर्ल्ड अंध्यार्ज‌िना, तेहमन आर - केसवानंद भारती केस: दी अनटोल्‍ड स्टोरी ऑफ स्ट्रगल फॉर सुप्रीमेसी बाय सुप्रीम कोर्ट एंड पार्लियामेंट कॉन्‍स्ट‌िट्यूशन जस्टिस ओ चिन्नाप्पा रेड्डी - द कोर्ट एंड द कॉन्‍स्ट‌िट्यूशनऑफ इंडियाः समिट्स एंड शैलोज जस्टिस वी आर कृष्णा अय्यर - कॉन्स्टीटयूशनल मिसलैनी गौतम भाटिया - द ट्रांसफॉर्मेटिव कॉन्‍स्ट‌िट्यूशन: ए रेडिकल बायोग्राफी इन नाइन एक्ट्स अरुण के थिरुवेंगडम - कॉन्‍स्ट‌िट्यूशन ऑफ इंड‌िया: ए कॉन्टेक्स्चुअल एनालिसिस (कॉन्‍स्ट‌िट्यूशनल स‌िस्टम ऑफ वर्ल्ड) अरुण के थिरुवेंगडम, विक्रम राघवन और सुनील खिलनानी (एडि) - कम्‍प्रेटिव कॉन्‍स्ट‌िट्यूशनल‌िज्म इन साउथ एश‌िया ग्रेनविल ऑस्टिन - वर्किंग ए डेमोक्रेटिक कॉन्‍स्ट‌िट्यूशन ग्रेनविल ऑस्टिन - 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डकैती के अपराध मे 5 से कम व्यक्तियों को सजा देने के लिए ट्रायल कोर्ट को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि अपराध में 5 या अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी: इलाहाबाद हाईकोर्ट 13 July 2020


[डकैती का अपराध] 5 से कम व्यक्तियों को सजा देने के लिए ट्रायल कोर्ट को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि अपराध में 5 या अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी: इलाहाबाद हाईकोर्ट 13 July 2020 

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुवार को एक मामले में यह साफ़ किया कि अगर आईपीसी की धारा 395/397 के तहत 5 से कम व्यक्तियों को सजा दी जाती है, तो ट्रायल कोर्ट को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि डकैती के अपराध में 5 या अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी। इस तरह की फाइंडिंग/खोज के अभाव में, उपरोक्त धाराओं के तहत कोई भी सजा नहीं दी जा सकती। न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की पीठ ने यह आदेश सुनाते हुए, श्री डी. सी. श्रीवास्तव, न्यायाधीश विशेष न्यायालय (डकैती), कानपुर देहात द्वारा सत्र ट्रायल संख्या 467 ऑफ़ 1981 (राज्य बनाम बलबीर और अन्य) में सुनाये गए निर्णय और आदेश को पलट दिया जिसमे अपीलकर्ताओं को डकैती (395 एवं 395 r/w 397) के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था। क्या था यह मामला अभियोजन का मामला यह था कि 26/27-जून-1981 की रात में, अपीलकर्ताओं द्वारा चार अन्य लोगों के साथ, ग्राम बदरा माजरा नकौठिया, पुलिस स्टेशन काकवन, कानपूर देहात जिला में तीन घरों में डकैती की गई। लगभग 11:00 बजे चार डकैतों ने पहले प्रथम सूचनाकर्ता के आंगन में कूदकर दरवाजा खोला, जिससे अन्य डकैत घर में प्रवेश कर सके। इसके पश्च्यात, उन्होंने घर में मौजूद लोगों की पिटाई शुरू कर दी और सामान लूट लिया। प्रथम सूचनाकर्ता के घर में डकैती करने के बाद सभी ने उसी गांव में ओछी लाल और गंगा राम के घरों को लूट लिया। उन्होंने डकैती के दौरान बन्दूक का भी इस्तेमाल किया।  ICAI ने सुप्रीम कोर्ट को बताया  अभियोजन के अनुसार, लालटेन और टोर्च की रोशनी में गवाहों ने ज्ञात डकैतों को देखा और तीन ज्ञात डकैतों को भी पहचान लिया, जो कि अपीलकर्ता हैं। ट्रायल कोर्ट का निर्णय ट्रायल कोर्ट ने सबूतों और अन्य सामग्री पर विचार के बाद अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराया, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है। हालाँकि, ट्रायल अदालत द्वारा ऐसा कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकाला गया कि इस मामले में 5 या अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी (इसके बावजूद 3 अपीलकर्ताओं को 395/397 के अपराध के लिए दोषी ठहराया गया)। अंततः वर्ष 1981 के सेशन ट्रायल नंबर 467 (राज्य बनाम बलबीर और अन्य) में अपीलकर्ता, बलबीर और लाला राम को धारा 395 आईपीसी (डकैती के लिए दण्ड) के तहत और अपीलकर्ता, मोहर पाल उर्फ छकौरी को धारा 395 r/w 397 आईपीसी (मृत्यु या घोर उपहति कारित करने के प्रयत्न के साथ लूट या डकैती) के तहत दोषी ठहराया गया और अपीलकर्ता, बलबीर और लाला राम को 5 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई और अपीलकर्ता, मोहर पाल उर्फ छकौरी को 7 साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। हाईकोर्ट का मत दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 (Cr.PC) के तहत यह आपराधिक अपील, 3 अपीलकर्ताओं, अर्थात् बलबीर, मोहर पाल उर्फ छकौरी और लाला राम द्वारा सत्र परीक्षण संख्या 467 ऑफ़ 1981 (राज्य बनाम बलबीर और अन्य) के मामले में पारित किये निर्णय और आदेश के खिलाफ दायर की गई। बचाव पक्ष का तर्क था कि ट्रायल कोर्ट ने धारा 395 और 397 आईपीसी के तहत अपीलकर्ताओं को गलत तरीके से दोषी ठहराया है, जो कि संख्या में 3 ही हैं, और वे 5 व्यक्तियों से कम हैं, जो कि धारा 391 आईपीसी के अनुसार डकैती के अपराध के लिए एक अनिवार्य शर्त है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपीलकर्ताओं की अपील को अनुमति दी। अदालत द्वारा अपीलकर्ताओं को आरोपों से बरी करते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनाये गए दो निर्णयों पर भरोसा किया गया - राज कुमार उर्फ राजू बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड) [(2008) 11 एससीसी 709] और मनमीत सिंह उर्फ गोल्डी बनाम पंजाब राज्य [(2015) 7 एससीसी 167]। दरअसल, राज कुमार उर्फ राजू बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड) [(2008) 11 एससीसी 709] के मामले में यह कहा गया था कि डकैती के अपराध की सजा के लिए, 5 या अधिक व्यक्ति होने चाहिए (जोकि धारा 391 की एक अनिवार्य शर्त है)। अदालत ने इस मामले में आगे यह कहा था कि इस तरह की खोज के अभाव में, एक अभियुक्त को डकैती या उससे सम्बंधित अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। हालाँकि, किसी दिए गए मामले में, ऐसा हो सकता है कि पांच या अधिक व्यक्ति हों और पांच या अधिक व्यक्तियों की मौजूदगी का तथ्य या तो विवादित नहीं है या स्पष्ट रूप से स्थापित है, लेकिन अदालत उन लोगों की पहचान दर्ज करने में सक्षम नहीं हो पाती है, जिनके बारे में यह कहा जा रहा है कि उन्होंने डकैती की है और अदालत उन्हें दोषी नहीं ठहरा पाती है और उन्हें यह कहते हुए दोषमुक्त किया जाता है कि उनकी पहचान स्थापित नहीं है। ऐसे मामले में, पांच से कम व्यक्तियों की सजा - या यहां तक कि एक व्यक्ति को डकैती के अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। लेकिन इस तरह की खोज के अभाव में, पांच से कम व्यक्तियों को इन धाराओं के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। राज कुमार उर्फ राजू बनाम उत्तरांचल राज्य [(2008) 11 एससीसी 709] के मामले में, पूर्व में डकैती के अपराध में 6 आरोपी के सम्मिलित होने का दावा था, उन 6 अभियुक्तों में से, 2 को ट्रायल कोर्ट ने बिना यह टिपण्णी देते हुए बरी कर दिया, कि हालांकि 6 लोगों द्वारा डकैती का अपराध किया गया था, परन्तु 2 आरोपियों की पहचान नहीं की जा सकी इसलिए उन्हें बरी किया जा रहा है। वास्तव में, इन 2 आरोपियों को बिना इस टिपण्णी के अदालत ने बस बरी कर दिया। इस मामले में अदालत ने यह राय दी कि, इसलिए, तय कानून के अनुसार, 4 व्यक्तियों को डकैती के अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह संख्या 5 से कम है, जो डकैती के कमीशन के लिए एक अनिवार्य शर्त है (धारा 391 आईपीसी के अनुसार)। चूँकि राज कुमार उर्फ राजू बनाम उत्तरांचल राज्य (अब उत्तराखंड) [(2008) 11 एससीसी 709] के मामले का अनुसरण मनमीत सिंह उर्फ गोल्डी बनाम पंजाब राज्य [(2015) 7 एससीसी 167] के मामले में किया गया है और इसीलिए इस मामले में भी समान निष्कर्ष अदालत द्वारा निकाला गया। मौजूदा मामले में आगे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने देखा कि, "अगर आईपीसी की धारा 395/397 के तहत पांच से कम व्यक्तियों को सजा दी जाती है, तो ट्रायल कोर्ट को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि अपराध में पांच या अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी। इस तरह की फाइंडिंग के अभाव में, उपरोक्त धाराओं के तहत कोई भी सजा नहीं दी जा सकती थी। ट्रायल कोर्ट ने इस संबंध में इस तरह की कोई खोज दर्ज नहीं की कि अपराध में 5 या 5 से अधिक व्यक्तियों की संलिप्तता थी। इस फैसले में बस इतना कहा गया था कि 'मेरे सामने मुकदमे का सामना करने वाले तीन आरोपी भी डकैतों के साथ थे, जिन्होंने राज कुमार के घर में डकैती की' और 'अभियोजन ने सफलतापूर्वक स्थापित किया है कि तीनों अभियुक्तों ने घटना की रात में राज कुमार के घर डकैती की।" आगे हाईकोर्ट ने कहा कि "मेरी राय में, उपरोक्त उल्लिखित निष्कर्ष, यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त नहीं है कि अपराध में पांच या अधिक व्यक्ति शामिल थे और यह पर्याप्त नहीं कि अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराया जा सके, जो कि संख्या में तीन हैं।" उपरोक्त के मद्देनजर, अदालत ने यह माना कि वर्तमान मामले में अभियोजन पक्ष पूरी तरह से, या तो अपराध के कमीशन में पांच या अधिक व्यक्तियों की भागीदारी थी यह साबित करने में या उनकी पहचान क्या थी यह स्थापित करने में विफल रहा है। केस विवरण केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 648 ऑफ़ 1983 केस शीर्षक: बलबीर एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य कोरम: न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी

Thursday 9 July 2020

अगर पीड़ित बच्चा एससी/एसटी से है तो POCSO विशेष अदालत एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामले की सुनवाई कर सकती है : बॉम्बे हाईकोर्ट 9 July 2020


अगर पीड़ित बच्चा एससी/एसटी से है तो POCSO विशेष अदालत एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामले की सुनवाई कर सकती है : बॉम्बे हाईकोर्ट 9 July 2020  

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि जिस बच्चे के ख़िलाफ़ अपराध हुआ है,यदि वह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है तो प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012 (POCSO) कोर्ट के अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत इस मामले की सुनवाई का अधिकार समाप्त नहीं होते। न्यायमूर्ति भारती डांगरे ने पुणे के 21 साल के एक युवक की याचिका पर सुनवाई के दौरान यह कहा। इस युवक पर एक नाबालिग के साथ बलात्कार का आरोप है। नवंबर 2019 में इस घटना के बाद लड़की की मां ने इस मामले में एफआईआर दर्ज कराई थी। एफआईआर में कहा गया था कि लड़की की उम्र 16 वर्ष 6 महीने है लेकिन पीठ ने कहा कि उसके जन्म प्रमाणपत्र के हिसाब से उसकी उम्र 15 वर्ष से अधिक होती है। अभियोजन का कहना था कि पीड़िता के आवेदक के साथ दोस्ताना संबंध थे और वह उसके साथ पुणे से दूर मोटरसाइकिल से आती-जाती थी। दोनों एक साथ डेढ़-दो घंटे एक लॉज में भी रहे। न्यायमूर्ति डांगरे ने कहा, "शादी के वादे के कारण शारीरिक संबंध बनाए गए, इस बात का निर्धारण मामले की सुनवाई के दौरान होगा। पर यह निर्विवाद है कि लड़की नाबालिग थी और यह मामला आईपीसी की धारा 376 के तहत आता है और इसमें सहमति का कोई सवाल ही नहीं उठता है।" 19 जून को हुई सुनवाई में एपीपी एसपी गवंद ने एकल जाज एसवी कोतवाल की पीठ को कहा कि चूंकि अपराध अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के अंतर्गत आता है इसलिए इस मामले को इस अधिनियम की धारा 14A के तहत दायर किया जाना चाहिए न कि सीआरपीसी की धारा 439 के तहत। इस संदर्भ में आवेदक के वक़ील अभिजीत देसाई ने इन मामलों का भी ज़िक्र किया - 1. रजिस्ट्रार (न्यायिक हाईकोर्ट) [मद्रास हाईकोर्ट] 2. रिंकु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (इलाहाबाद हाईकोर्ट) 3. सरवन सिंह बनाम कस्तुरीलाल (AIR 1977 सुप्रीम कोर्ट 265) 4. गुड्डू कुमार यादव बनाम बिहार राज्य (पटना हाईकोर्ट) कोर्ट ने कहा, "…POCSO अधिनियम एक विशेष क़ानून है और बाद का क़ानून है और इसमें non obstante क्लाज़ है और अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम की धारा 14A जो अवरोध उत्पन्न करता है वह इस पर प्रभावी नहीं होगा।" अदालत ने अंततः कहा, "जिस बच्चे के ख़िलाफ़ अपराध हुआ है,यदि वह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है तो प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट 2012 (POCSO) कोर्ट के अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के तहत इस मामले की सुनवाई का अधिकार समाप्त नहीं होते।" इस बात पर ग़ौर करते हुए कि पीडिता धनोरी, पुणे की है, कोर्ट ने आरोपी से कहा कि वह पुणे की सीमा में प्रवेश नहीं करने का लिखित वादा करेगा और आवेदक के वक़ील देसाई ने इस आदेश पर अमल करने की बात कही। जहां तक एससी/एसटी अधिनियम के तहत लगाए गए आरोप की बात है, न्यायमूर्ति डांगरे ने कहा कि पीड़ित लड़की ने अपने बयान में कहा कि आरोपी ने उसको उसकी जाति का उल्लेख करते हुए उसका शोषण किया इसको छोड़कर ऐसी कोई बात नहीं है जो इस अधिनियम के तहत आए। अदालत ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत इस बयान का प्रभाव और उसके कंटेंट पर सुनवाई के दौरान ग़ौर किया जाएगा। यह देखने का काम अभियोजन पक्ष का नहीं है कि आवेदक यह जानता था कि लड़की अनुसूचित जाति की है और इसलिए जानबूझकर उसने उसका यौन उत्पीड़न किया….चार्ज शीट पर ग़ौर करने से पता चलता है कि प्रथम दृष्टया यह मामला 1989 के अधिनियम के प्रावधानों के तहत नहीं आता है। अदालत ने ₹25,000 के बॉंड पर आरोपी को ज़मानत दे दी। मामला: ज़मानत के लिए आवेदन, 817, 2017 मामले का नाम: सूरज एस पैठनकर बनाम महाराष्ट्र राज्य कोरम: भारती डांगरे वक़ील: अभिजीत देसाई एवं अमोल


बिक्री के एक हिस्से का भुगतान न होना एक रजिस्टर्ड सेल डीड को रद्द करने का आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट 9 July 2020

बिक्री के एक हिस्से का भुगतान न होना एक रजिस्टर्ड सेल डीड को रद्द करने का आधार नहीं : सुप्रीम कोर्ट  9 July 2020 


 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बिक्री के एक हिस्से का भुगतान न होना एक रजिस्टर्ड सेल डीड को रद्द करने का आधार नहीं है। अदालत गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर विचार कर रही थी जिसने ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की थी, जिसमें CPC के आदेश VII नियम 11 (डी), के तहत प्रतिवादियों द्वारा दायर किए गए आवेदन की अनुमति देते हुए कि वादी द्वारा दायर मुकदमे पर समय सीमा के कारण रोक लग गई थी। ज़मीन पर सेल डीड (जो पांच साल से अधिक पहले निष्पादित की गई थी) को रद्द करने के लिए इस आधार पर वाद दायर किया गया था कि कलेक्टर द्वारा निर्धारित बिक्री राशि का प्रतिवादी द्वारा पूरी तरह से भुगतान नहीं किया गया था। सेल डीड को रद्द करने की राहत की मांग करने वाले एक सूट के लिए सीमा की अवधि तीन साल है, जो उस तारीख से शुरू होती है जब पहले मुकदमा दायर करने का अधिकार शुरू होता है।   अपील को खारिज करने के अपने फैसले में जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​की पीठ ने CPC के आदेश VII नियम 11 के तहत आवेदन तय करने के लिए लागू कानून का सार दिया है। विद्याधर बनाम मणिकराव (1999) 3 SCC 573 के फैसले और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 54 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि शब्द "भुगतान किया गया या वादा किया गया या भाग में भुगतान किया गया और भाग में भुगतान का वादा किया गया है, "  इंगित करता है कि वास्तविक भुगतान बिक्री विलेख के निष्पादन के समय मूल्य की पूरे भुगतान के लिए एक गैर-योग्य योग्यता नहीं है। "भले ही पूरे मूल्य का भुगतान नहीं किया गया हो, लेकिन दस्तावेज़ निष्पादित किया गया है, और उसके बाद पंजीकृत किया गया है, तो बिक्री पूरी हो जाएगी, और लेनदेन के तहत टाइटल ट्रांसफर होगा।एक हिस्से का गैर-भुगतान बिक्री मूल्य या बिक्री की वैधता को प्रभावित नहीं करेगा। एक बार संपत्ति का टाइटल ट्रांसफर हो गया और भले ही शेष बिक्री राशि का भुगतान न किया गया हो, इस आधार पर बिक्री को अमान्य नहीं किया जा सकता है। "बिक्री" का गठन करने के लिए पक्षकारों को संपत्ति के स्वामित्व का हस्तांतरण करने का इरादा करना चाहिए, वर्तमान या भविष्य में मूल्य का भुगतान करने के लिए समझौते पर, सेल डीड का विवरण पक्षकारों के आचरण और रिकॉर्ड पर सबूत से इकट्ठा किया जाना है। इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के मद्देनजर, भले ही अभियोगी की दलीलों को सही माना जाता है कि पूरी बिक्री राशि का वास्तव में भुगतान नहीं किया गया था, तो भी यह बिक्री विलेख को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता है। वादी के पास शेष राशि की वसूली के लिए कानून के मुताबिक अन्य उपाय हो सकते हैं लेकिन पंजीकृत बिक्री विलेख को रद्द करने की राहत नहीं दी जा सकती है। न्यायालय ने उल्लेख किया कि वादी ने यह दावा किया है कि समय सीमा की अवधि 21.11.2014 को शुरू हुई, जब उन्होंने 02.07.2009 को बिक्री विलेख के सूचकांक की एक प्रति प्राप्त की। इस संबंध में पीठ ने कहा, " वादी की दलील कि उन्हें 2014 में बिक्री के सूचकांक की प्राप्ति पर कथित धोखाधड़ी के बारे में जानकारी हुई, पूरी तरह से गलत है, क्योंकि सूचकांक की प्राप्ति सूट दाखिल करने के लिए कार्रवाई का कारण नहीं बनेगी। वादी की दलीलें पढ़ने पर, यह स्पष्ट है कि कार्रवाई का कारण बिक्री के विचार के पूरे भुगतान न करने पर उत्पन्न हुआ, जो कि वर्ष 2009 में हुआ था।" वादी द्वारा दाखिल गई याचिका एक भ्रामक कार्रवाई का कारण बनाने के लिए है, ताकि समय सीमा की अवधि पर काबू पाने के लिए। जो दलील दी गई है, वह किसी भी सच्चाई से रहित और निरर्थक है। अदालत ने अपीलकर्ता पर 1 लाख रुपये का जुर्माना लगाकर अपील को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि बिक्री पर विचार के बचे हुए भुगतान के लिए 2009 में बिक्री विलेख के निष्पादन से साढ़े पांच साल की अवधि के दौरान कानूनी कार्रवाई के लिए सहारा नहीं लेने में वादी का आचरण भी प्रतिबिंबित करता है कि वर्तमान सूट सोच विचार के बाद दाखिल किया है।

Tuesday 7 July 2020

न्यायालय की उन्मोचन ( डिस्चार्ज) की शक्ति, ट्रायल के पहले ही कब छोड़ा जा सकता है आरोपी 7 July 2020


क्या होती है न्यायालय की उन्मोचन ( डिस्चार्ज) की शक्ति, ट्रायल के पहले ही कब छोड़ा जा सकता है आरोपी 7 July 2020 

जब कभी कोई व्यक्ति अपराध करता है तो न्यायालय में उस व्यक्ति पर अभियोजन चलाया जाता है। जिस व्यक्ति के ऊपर आयोजन चलाया जाता है उस व्यक्ति को अभियुक्त कहा जाता है। पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामले में न्यायालय में अभियुक्त का विचारण होता है। विचारण के उपरांत अभियुक्त की दोषमुक्ति या दोषसिद्धि तय होती है। परंतु अभियुक्त के पास विचारण के पूर्व ही मामले में उन्मोचित ( डिस्चार्ज) हो जाने का अवसर होता है। 

उन्मोचन ( डिस्चार्ज) 
        दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 उन्मोचन का उल्लेख करती है। इस धारा के शब्दों के अनुसार यदि मामले के अभिलेख और उसके साथ दिए गए दस्तावेजों पर विचार कर लेने पर और इस निमित्त अभियुक्त और अभियोजन के निवेदन की सुनवायी कर लेने के पश्चात न्यायाधीश यह समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा। 
 
           यह दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के शब्दों के आकलन से यह ज्ञान होता है कि अभियुक्त विचारण के पूर्व ही उन्मोचित हो सकता है तथा ऐसा उन्मोचन न्यायालय पर निर्भर करता है। जब कभी अभियुक्त पर विचारण किया जाता है तो वह सत्र न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है, यह धारा 227 सत्र न्यायालय द्वारा विचारण किए जाने के संबंध में है। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार मामले के रिकॉर्ड और उसके साथ किए गए दस्तावेजों पर विचार करने के पश्चात इस संबंध में अभियुक्त एवं अभियोजन की दलीलों को सुनकर न्यायाधीश समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा। ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा। 

*मोहम्मद अकील बनाम दिल्ली राज्य 1988* के मामले में यह कहा गया है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई अपराध बनता है या नहीं इस हेतु सत्र न्यायालय द्वारा केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद यथास्थिति को ही विचार में नहीं लिया जाएगा अपितु सीआरपीसी की धारा 161 के अधीन रिकॉर्ड किए गए साक्षी के कथनों को भी विचार में लिया जाएगा। दिल्ली राज्य के इस निर्णय को पढ़ने के बाद यह मालूम होता है कि ऐसा उन्मोचन न्यायालय में अभियुक्त के विरुद्ध पुलिस या जांच एजेंसी का अंतिम प्रतिवेदन जो धारा 173 के अंतर्गत पेश किया जाता है उसके पेश हो जाने के पश्चात दोनों पक्षों को सुनने के पश्चात सेशन न्यायाधीश जब अभियुक्त पर आरोप तय करने वाला होता है, उसके पहले एक परिस्थिति होती है जिसमें अभियुक्त को उन्मोचित किया जाता है वह यही परिस्थिति है जिसे धारा 227 में उल्लेखित किया गया है। 
             अंतिम प्रतिवेदन प्राप्त हो जाने के बाद यदि न्यायाधीश को यह लगता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई मामला नहीं बनता है तथा साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद में यह जानकारी प्राप्त होती है कि जो प्राथमिकी दर्ज की गयी थी उसके बाद की कहानी अभियुक्त को दोषी सिद्ध कर पाने में सफल नहीं होगी तो ही ऐसी परिस्थिति में धारा 227 का उन्मोचन किया जाता है। 

*जगदीश चंद्र बनाम एस के शर्मा एआईआर 1999* उच्चतम न्यायालय (217) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर मामला सिविल प्रकृति का बनता हो तो अभियुक्त को आपराधिक आरोपों से उन्मोचन किया जा सकता है। इस वाद में कंपनी के अधिकारी को कंपनी ने सेवा के दौरान रहने के लिए कंपनी का घर दिया था। बाद में वह अधिकारी कंपनी की सेवा में नहीं रहा फिर भी उसने कंपनी का आवास खाली नहीं किया। उसके विरुद्ध कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 630 एवं भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 408 तथा 409 के अंतर्गत परिवाद प्रस्तुत किया गया। न्यायालय ने इस प्रकरण को सिविल प्रकृति का मानते हुए आपराधिक आरोपों से अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया। पीड़ित पक्षकार कभी-कभी सिविल प्रकृति के मामलों को आपराधिक प्रवृत्ति के मामलों में परिवर्तित कर देता है, जबकि प्रकरण सिविल प्रकृति का होता है। सिविल प्रकरण के संचालन एवं उसके संस्थित किए जाने की प्रक्रिया आपराधिक प्रकरणों से थोड़ी कठिन होती है, इस कठिनाई से बचने हेतु व्यक्ति आपराधिक प्रकरण संस्थित करवाने का प्रयास करता है। 

*महाराष्ट्र राज्य बनाम सलमान खान 2004* के मामले में यह बात कही गयी है कि-आपराधिक प्रकरणों में विचारण संबंधी विधि में यह व्यवस्था दी गयी है कि उपलब्ध साक्ष्य के अनुसार कार्यवाही के किसी भी चरण में आरोपों में परिवर्तन किया जा सकता है। अतः यदि विचारण के किसी भी चरण में साक्ष्य के आधार पर मजिस्ट्रेट यह अनुभव करता है कि प्रकरण का विचारण वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए तो वह मामले को संबंधित न्यायालय को सुपुर्द कर देगा। सुम्मन बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में न्यायालय ने यह तय किया कि एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा मामला सत्र न्यायालय को कमिट करने के पश्चात उस पर सत्र न्यायालय के अधिकारिता होगी। विचारण के दौरान यह पता लगता है कि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है फिर भी उस मामले में सत्र न्यायालय की अधिकारिता बनी रहेगी और उसके विचारण से वंचित नहीं होगा। 

*भारत संघ बनाम प्रफुल्ल कुमार एआईआर 1979* उच्चतम न्यायालय (366) के मामले में अभिमत प्रकट किया गया है कि इस धारा 227 के अधीन अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते समय न्यायालय को साक्ष्य दस्तावेजों के आधार पर मामले का बारीकी से विचारण करना चाहिए तथा मामले की कमजोरियों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि अभियुक्त के अपराधी होने के विषय में तनिक भी संदेह है तो उसे संदेह का लाभ देकर उन्मोचित कर देना ही न्याय हित में उचित होगा। 

*नीलोफर बनाम गुजरात राज्य 2004* के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध वेश्यावृत्ति के निवारण के लिए बनाए गए अनैतिक देह व्यापार निवारण अधिनियम 1956 की धारा 4 तथा 9 के अंतर्गत आरोप था कि अभियुक्त इस अपराध की शिकार हुई लड़कियों को एक स्थान पर ले जाकर उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए दुष्प्रेरित एवं प्रलोभित किया। उन्हें वेश्यावृत्ति करने के लिए लालच दिया गया। इन लड़कियों को किसी ऐसी जगह पर रखा गया जहां से उनकी मांग होने पर आपूर्ति की जा सके। ग्राहक इन लड़कियों की मांग करते थे तथा इस स्थान से यह लड़कियां सप्लाई कर दी जाती थी। न्यायालय ने इस धारा 6 के अधीन निरोध मानते हुए अभियुक्तों को दोषसिद्धि माना तथा उन्हें उन्मोचित किए जाने से इनकार कर दिया। 

*सायरा बानो बनाम झारखंड राज्य 2006* के वाद में अभियुक्त के विरुद्ध आरोप था कि उसने परिवादी की अवयस्क पुत्री का अपहरण करके भगाया तथा अन्वेषण के दौरान एकत्रित किए गए साक्ष्य सामग्री तथा पुलिस डायरी के आधार पर ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि अभियुक्त ने उक्त बालिका का अपहरण करने का कोई षड‌यंत्र किया होगा, अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण उसे धारा 227 के अंतर्गत उन्मोचित कर दिया गया। मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त उन्मोचन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 245 के अंतर्गत अभियुक्त को मजिस्ट्रेट द्वारा उन्मोचित किए जाने का उल्लेख है। धारा 245 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को यह शक्ति दी गयी है कि इस धारा में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनमें पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारंट मामले में अभियुक्त को उन्मोचित कर सकता है। मजिस्ट्रेट को प्राप्त उन्मोचन करने की शक्ति के अंतर्गत अभियुक्त उस समय भी उन्मोचित हो सकता है जब उसका विचारण मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा किया जा रहा है। जब पुलिस ने अपना अंतिम प्रतिवेदन मजिस्ट्रेट के न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया हो तथा मजिस्ट्रेट ऐसा विचारण करने के लिए सशक्त है तो मजिस्ट्रेट विचारण के पूर्व ही समस्त साक्षी एवं दस्तावेज़ी साक्ष्यों पर विचार कर लेने के पश्चात अभियुक्त को विचारण के पूर्व भी उन्मोचित कर सकता है। जैसे यदि किसी मजिस्ट्रेट के न्यायालय में किसी व्यक्ति के ऊपर मारपीट का कोई मामला संस्थित है तथा प्रथमिक साक्ष्य जैसे धारा 161 के साक्ष्य जिसे पुलिस द्वारा अपने अंतिम प्रतिवेदन में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे बयान साक्षियों से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के विरुद्ध मारपीट का कोई मामला नहीं बन रहा है तथा उस पर विचारण चलाए जाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता तो ऐसी सुगम परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्तों को उन्मोचित कर दिया जाता है। धारा 243 के अधीन मजिस्ट्रेट से अपेक्षित है कि वह अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए प्रथमदृष्टया मामला निश्चित करे। मजिस्ट्रेट ऐसे साक्ष्य पर विचार नहीं कर सकेगा जो अभी प्रस्तुत न किए गए हों। यदि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथमदृष्टया मामला बनता हो तो ही मजिस्ट्रेट उसके विरुद्ध आरोप परिचित करेगा। इस प्रकार का उन्मोचन मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपित किए जाने के पूर्व में ही हो जाता है। मजिस्ट्रेट पाता है कि प्रथमदृष्टया अभियुक्त के विरुद्ध कोई मामला बन रहा है तो ही वह आरोप परिचित करने की अगली प्रक्रिया के लिए कोई कदम उठाता है। 

*बिहार राज्य बनाम बैजनाथ प्रसाद एआरआई 2002* के वाद में एकत्रित किए गए प्रथमिक साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विचरित किया जाना उचित था। उच्च न्यायालय इस आधार पर अभियुक्त को उमोचित दिया था कि उसका प्रकरण 7 वर्षों से लंबित पड़ा था। उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय को अनुचित मानते हुए इसको उन्मोचन के प्रावधानों के प्रतिकूल माना। केवल 7 वर्ष के बाद के आधार पर उन्मोचन उचित नहीं था क्योंकि उसके विरुद्ध आरोप विचरित हो चुके थे उसका विचारण आवश्यक था, आरोप विचरित हो जाने के पश्चात उन्मोचन नहीं हो सकता। जब अभियुक्त के पर आरोप विचरित कर दिए जाते हैं तो फिर किसी भी परिस्थिति में अभियुक्त का विचारण किया ही जाएगा।

Monday 6 July 2020

समर्पण को सहमतिपूर्ण यौन संबंध कभी नहीं माना जा सकता : केरल हाईकोर्ट ने बलात्कार के आरोपी की सज़ा बरकरार रखी 6 July 2020


समर्पण को सहमतिपूर्ण यौन संबंध कभी नहीं माना जा सकता : केरल हाईकोर्ट ने बलात्कार के आरोपी की सज़ा बरकरार रखी 6 July 2020

 केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि ऐसे यौन संबंध जो मान्य हैं, सिर्फ उन्हीं के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे पीड़िता के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते और उन्हें ही सहमतिपूर्ण माना गया है। आरोपी के ख़िलाफ़ मामला यह था कि उसने एक नाबालिग लड़की से फ़रवरी 2009 में बलात्कार किया और बाद में भी ऐसा करता रहा। यह लड़की अनुसूचित जाति की है। ट्रायल कोर्ट ने उसे आईपीसी की धारा 376 के तहत बलात्कार का दोषी माना। ट्रायल कोर्ट ने पाया कि अभियोजन लड़की की उम्र का निर्धारण नहीं कर पाया और यह साबित नहीं कर पाया कि यह मामला आईपीसी की धारा 375 के तहत बलात्कार की परिभाषा के तहत छठे वर्णन के अधीन आता है, जैसा कि वह उस समय था।  आरोपी ने कहा कि यह यौन संबंध सहमति से हुआ था। यह कहा गया कि लड़की ने माना कि वह आरोपी के घर आती थी और जब भी आरोपी की इच्छा होती थी, वह उसके साथ यौन संबंध बनाता था। न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार ने कहा, "जब कोई महिला बलात्कार का आरोप लगाती है तो उसके बचाव में महिला की सहमति की बात के लिए इसमें स्वैच्छिक भागीदारी का होना ज़रूरी है …जो प्रतिरोध और सहमति के बीच मुक्त चुनाव है। दूसरे शब्दों में, एक आपराधिक व्यक्ति के बलात्कार जैसे कार्य से छुटकारा पाने के लिए सहमति निश्चित रूप से तर्कसंगत होगी क्योंकि मस्तिष्क ने तराज़ू के दोनों पलड़े की तरह अच्छे और बुरे को तौला होगा और इस क्रम में वह अपनी ताक़त का ख़याल रखते हुए अपनी इच्छा और आनंद के अनुरूप सहमति वापस लेने की ताक़त का ध्यान रखा होगा।"  कोर्ट ने आगे कहा कि बलात्कार जैसी यौन हिंसा यौनिक असमानता के अपराध हैं। सामाजिक वास्तविकता में, महिला वास्तव में जिस यौन संबंध की इच्छा रखती है उसे कभी भी सहमतिपूर्ण नहीं कहा जाता क्योंकि जब कोई यौन संबंध बराबरी का होता है तब सहमति की ज़रूरत नहीं होती है और जब यह असमान होता है उस स्थिति में सहमति उसे बराबरी का नहीं बना सकती। पीठ ने इस संबंध में मेरिटोर सेविंज़ बैंक, एफएसबी बनाम मीशेल विन्सन एवं अन्य [477 US. 57 (1986)], मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का भी ज़िक्र किया। अदालत ने कहा, "दूसरे शब्दों में, हमारे जैसे देश, जो जेंडर समानता के लिए प्रतिबद्ध है, सिर्फ़ ऐसे यौन संबंध जो मान्य हैं, सिर्फ़ उन्हें ही पीड़ित के अधिकारों का हनन नहीं करने वाला कहा जा सकता है और सहमति के रूप में स्वीकार किया जाता है।" अदालत ने कहा कि जो साक्ष्य अदालत में पेश किए गए हैं उसके अनुसार, पीड़िता सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दर्जे की वजह से ख़तरे में थी। जब परिस्थिति इस प्रकृति की हो, तो पीड़ित लड़की का आरोपी व्यक्ति के समक्ष उसकी इच्छा के अनुरूप समर्पण को कभी भी सहमति से होने वाला यौन संबंध नहीं कहा जा सकता। इस अपील को खरिज करते हुए और आरोपी की सज़ा को बरकरार रखते हुए कोर्ट ने एक अमेरिकी मनोचिकित्सक और अभिघात लगने के कारण पैदा होने वाले तनाव के शोधकर्ता जूडिथ लेविस हर्मन को भी उद्धृत किया - "जब कोई महिला पूरी तरह शक्तिहीन होती है और किसी भी तरह के प्रतिरोध का कोई मतलब नहीं होता है, तो वह आत्मसमर्पण की स्थिति को स्वीकार कर सकती है। स्व-रक्षा की व्यवस्था पूरी तरह बंद हो चुकी होती है। यह निस्सहाय महिला इस दुनिया में वास्तविक रूप से अपने प्रतिरोध से नहीं बल्कि अपनी चेतना को बदलकर वह इससे बचती है....."।

बिना किसी छूट के आजीवन कारावास की सजा पाए हत्या के दोषियों को फर्लो नहीं दी जा सकतीः दिल्ली हाईकोर्ट 6 July 2020


बिना किसी छूट के आजीवन कारावास की सजा पाए हत्या के दोषियों को फर्लो नहीं दी जा सकतीः दिल्ली हाईकोर्ट 6 July 2020 

 दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि एक दोषी, जिसे किसी विशेष अवधि के लिए या इस शर्त के साथ आजीवन कारावास की सजा दी गई है कि उस अवधि में उसे कोई छूट नहीं दी जाएगी, तो वह सजा की उक्त अवधि के दरमियान फर्लो का हकदार नहीं है। ज‌स्टिस मुक्ता गुप्ता की एकल पीठ के समक्ष पेश याचिकाकर्ताओं, पहला- संजय कुमार वाल्मीकि बलात्कार और हत्या का दोषी है, उसे धारा 302/376 (2) (एफ) / 363 /201आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया था और सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसमें यह शर्त ‌थी कि न्यूनतम 25 साल की अवधि की सजा बिना किसी छूट के रहेगी; जबकि दूसरे दोषी चंद्र कांत झा सीरियल किलर है, उसे धारा 302 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों में तीन तीन अलग-अलग एफआईआर में दोषी ठहराया गया था और दो एफआईआर में ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई ‌थी। दूसरे मामले में, हालांकि, हाईकोर्ट ने मृत्युदंड की पुष्टि नहीं की थी और सश्रम आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, साथ ही यह निर्देश दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग को छोड़कर दोषी का ताउम्र सजा भुगतनी होगी, उसे रिहा नहीं किया जाएगा या कोई छूट नहीं दी जाएगी। छूट और फर्लो देने के दिल्ली जेल अधिनियम, 2000 और दिल्ली जेल नियम 2018 के प्रासंगिक प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा, "अभिरक्षा में एक कैदी तीन अलग-अलग उपचारों के जर‌िए दण्ड विराम पा सकता है-ट्रायल या अपील लंबित होने की स्थिति में जमानत, और दोषसिद्धी ओर सजा दिए जाने के बाद और अपील लंबित होने की स्थिति में पैरोल और फर्लो।  यह उल्लेख किया गया कि छूट को नियम 1174 के तहत और छूट पाने की पात्रता को नियम 1175 के तहत परिभाष‌ित किया गया है। इन नियमों को एक संयोजन में पढ़ने से पता चलता है कि जब कोई कैदी साधारण छूट का पात्र नहीं होता है, तो वह एनुअल गुड कंडक्ट रिमिशन (संक्षेप में एजीएलआर) के पाने का भी पात्र नहीं होता है। एजीसीआर प्राप्त करने के लिए नियम 1178 की शर्तों के अनुसार, एक कैदी को पहले साधारण छूट के लिए पात्र होना चाहिए। अदालत ने कहा, "नतीजतन, एक कैदी, जिसे एक निश्चित अवधि की सजा सुनाई गई है, एनुअल गुड कंडक्ट रिपोर्ट का हकदार नहीं होगा, जैसा कि ऊपर बताया गया है, यह फर्लो पाने की पात्रता है।" इसके अलावा, यह देखा गया कि दिल्ली जेल नियम, 2018 के नियम 1171 में जोड़ा गया नोट यह स्पष्ट करता है कि यदि किसी भी कानून या अदालत ने अपने आदेश में कैदी को छूट देने से इनकार कर दिया है और यह स्‍पष्ट से नहीं किया गया है कि किस प्रकार की छूट से इनकार किया गया है तो सभी प्रकार की छूट से वंचित कर दिया जाएगा। इसलिए, जब तक कि छूट से इनकार करते हुए अदालत रोक के प्रकार का स्पष्ट रूप उल्लेख नहीं करती है, तब तक सभी प्रकार की छूट पर रोक रहेगी। पीठ ने कहा, "नतीजतन, याचिकाकर्ताओं को दी गई सजाओं में छूट पर रोक लगाई गई है, जैसा कि वाल्मीकि के मामले में तय वर्षों तक के लिए रोक लगाई गई है, और झा के मामले में शेष जीवन के लिए सजा सुनाई गई है, इसलिए दोनों य‌ाचिकाकर्ताओं को याचिकाकर्ताओं को छूट का पात्र नहीं माना जा सकता है और परिणामस्वरूप उन्हें फर्लो नहीं दी जा सकती है।" सिंगल जज ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में तय किया है कि पैरोल के मामले में विवेकाधिकार का प्रयोग किया जाता है, जबकि फर्लों विचाराधीन दोषी का कल्याणकारी अधिकार है, जिस दोषी दावा कर सकता है यदि वह अधिनियम और नियम की आवश्यकता को पूरा करता है। पैरोल की अनुमति आपात स्थितियों में दी जाती है, जबकि याचिकाकर्ता निर्धारित शर्तों का अनुपालन कर फर्लो पा सकता है। दिल्ली जेल नियम, 2018 के नियम 1171 से 1178 और नियम 1223 से यह स्पष्ट होता है कि एक कैदी केवल तभी फर्लो का हकदार होता है, जब उसने तीन एनुअल गुड कंडक्ट रिपोर्ट अर्जित की हो और परिणामस्वरूप तीन एनुअल गुड कंडक्ट रिमिशन अर्ज‌ित किया हो। जहां दोषी को छूट देने पर रोक लगाई गई हो, तीन एनुअल गुड कंडक्ट रिमिशन प्राप्त करने की पूर्व-आवश्यकता संतोषप्रद नहीं होती, और इसलिए फर्लो के प्राप्त करने अर्हता पूरी नहीं होती है। पीठ ने कहा, "इसलिए एक कैदी, जिसे किसी विशेष अवधि के लिए या शेष जीवन के लिए छूट नहीं दी गई है, वह फर्लो का हकदार नहीं होगा, क्योंकि वह न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ती नहीं करता है।" न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने न तो दिल्ली जेल अधिनियम और दिल्ली जेल नियम, 2018 के प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी है और न ही यह कहा है कि नियम 1171 मामलों के एक वर्ग के संबंध में, विशेष श्रेणी बनाता है, जहां अदालतें सजा की तीसरी श्रेणी अपनाती है, यानी बिना छूट के 14 साल से अधिक कारावास, ताकत का मनमाना प्रयोग है। पीठ ने कहा, "नियम 1199 के तहत प्रदान की गई सजा के रूप में फर्लो की अवधि की गणना की जाती है, ऐसे दोषी को फर्लो देना, जिसे जिसे किसी विशेष अवधि के लिए छूट नहीं दी जा सकती है, सजा में मना किए जाने के बावजूद दी गई राहत के बराबर है।"

Thursday 2 July 2020

प्रताड़ना से ससुराल छोड़ने वाली महिला कहीं से भी दर्ज करा सकती है केस 9 Apr 2019 रूपाली देवी बनाम यूपी

*प्रताड़ना से ससुराल छोड़ने वाली महिला कहीं से भी दर्ज करा सकती है केस 9 Apr 2019* 
*रूपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, क्रिमिनल अपील 71 ऑफ 2012*

ससुराल से प्रताड़ित महिलाओं के लिए Supreme Court ने बड़ा फैसला दिया है।

नई दिल्ली। दहेज प्रताड़ना और घरेलु हिंसा की पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं लेकिन कईं बार वक्त पर मामला दर्ज ना होने की वजह से पीड़ित महिला को न्याय नहीं मिल पाता।
लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि क्रूर व्यवहार या प्रताड़ना के कारण ससुराल छोड़कर मायके आ गई या किसी और जगह शरण लेने वाली महिला जहां शरण लेती है वहीं पर आईपीसी की धारा 498ए (प्रताड़ना) का मुकदमा दर्ज करा सकती है। अब तक महिला को वहीं मामला दर्ज करवाना होता था जहां अपराध हुआ हो।

इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि महिला जहां है वहां की अदालत को उस मुकदमे को सुनने का क्षेत्राधिकार होगा। कोर्ट ने धारा 498ए की व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों प्रताड़नाएं शामिल मानी जाएंगी।

जानकारी के अनुसार, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एल. नागेश्वर राव और जस्टिस संजय किशन कौल की पीठ ने दो न्यायाधीशों की पीठों के विरोधाभासी फैसलों के चलते तीन न्यायाधीशों की पीठ को भेजे गए कानूनी सवाल का जवाब देते हुए यह अहम व्यवस्था दी है। रूपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश के इस मामले में कोर्ट ने धारा 498ए की व्याख्या करते हुए उसमें दिए गए क्रूरता के व्यवहार का विश्लेषण किया है।

कोर्ट ने कहा है कि क्रूरता किसी भी तरह की हो सकती है फिर चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक। अदालत ने कहा कि 498ए में दी गई क्रूरता की परिभाषा के मद्देनजर ससुराल द्वारा सताई गई महिला के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पति या रिश्तेदारों की क्रूरता के कारण पत्नी का मानसिक तनाव मायके आने के बाद भी कायम रहता है।
कोर्ट के अनुसार, शारीरिक प्रताड़ना के कारण मिली मानसिक प्रताड़ना, बेइज्जती, गंदी बातें, लड़ाई झगड़े का असर मायके आने के बाद भी महिला पर बना रहता है जबकि वहां उसे शारीरिक प्रताड़ना नहीं मिलती। ऐसे में यह एक अलग अपराध है जो उसके मायके या जहां वह शरण लेती है वहां तक जारी रहता है।

यह अपराध धारा 498ए के तहत क्रूरता माना जाएगा। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल था कि क्या सताए जाने के कारण ससुराल छोड़ने को मजबूर हुई महिला मायके आकर या जहां वह शरण लेती है वहां सताने वालों के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकती है। इस मामले में दो न्यायाधीशों की पीठों के अलग-अलग फैसले थे।

फैसले का यह होगा असर

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। इससे उन बहुत सी महिलाओं को राहत मिलेगी जो सताए जाने के कारण ससुराल छोड़कर मायके आ जाती हैं। अगर उनका मायका ससुराल से दूर किसी और राज्य में स्थित है तो वे अपने मायके में ससुराल वालों के खिलाफ प्रताड़ना का आपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं करा पाती थीं। उन्हें मुकदमा दर्ज कराने के लिए वहीं जाना पड़ता था जहां उनकी ससुराल स्थित होती थी। लेकिन अब सताए जाने के कारण ससुराल छोड़कर मायके या किसी और जगह शरण लेने वाली महिला जहां शरण लेगी वहीं ससुरालियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए (प्रताड़ना) का मुकदमा दर्ज करा सकती है।

धारा 498 ए भारतीय दंड संहिता: सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले Liv- 11 Jun 2019


धारा 498 ए भारतीय दंड संहिता: सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले Liv- 11 Jun 2019 

 धारा 498A भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत शिकायतें एक ऐसी जगह पर दायर की जा सकती हैं, जहां एक महिला, जो अपने वैवाहिक घर से बाहर निकाली गयी है, आश्रय लेती है 

[रूपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य] 

इस मामले में, CJI रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की 3 न्यायाधीशों की पीठ ने निम्नलिखित प्रश्न पर विचार किया: "क्या उस मामले में जहां पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा पत्नी के साथ उसके वैवाहिक घर (matrimonial home) में क्रूरता की गई थी, और जहाँ वह महिला उस वैवाहिक घर को छोड़ देती है और एक अलग जगह पर स्थित अपने माता-पिता के घर में शरण लेती है, तब क्या पत्नी के पैतृक घर (parental home) के स्थान पर स्थित अदालतें धारा 498 ए के तहत शिकायत को सुन सकती हैं, वो भी तब जब पति द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न का कोई भी कार्य पत्नी के उस पैतृक घर में नहीं किया जाता है। 

       पीठ ने यह कहा कि शारीरिक क्रूरता या अपमानजनक मौखिक आदान-प्रदान से उत्पन्न मानसिक क्रूरता माता-पिता के घर में भी जारी रहेगी, भले ही ऐसी जगह पर शारीरिक क्रूरता का कोई भी कार्य नहीं किया गया हो। इस प्रकार, यह माना गया कि जहाँ पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा पत्नी के खिलाफ की गई क्रूरता के कृत्यों के कारण वह महिला अपने वैवाहिक घर से चली जाती है या घर से भगा दी जाती है, और वह कहीं और शरण लेती है, तब तथ्यात्मक स्थिति पर निर्भर होते हुए, उस स्थान पर स्थित अदालतों का भी ऐसे मामले का संज्ञान लेने का अधिकार क्षेत्र है। और ऐसी अदालतें भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के तहत अपराधों के कमीशन का संज्ञान ले सकती हैं। 

          जिस महिला के साथ क्रूरता की गयी जरुरी नहीं की वह उसकी शिकायत स्वयं करे [रश्मि चोपड़ा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य] यहां, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ की खंडपीठ ने इस बात पर विचार किया कि चूंकि मामले की शिकायत महिला द्वारा स्वयं नहीं की गई है, बल्कि उसके पिता द्वारा दायर की गई है, तब क्या इसे अदालत द्वारा संज्ञान में लिया जा सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए, यह माना गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए इस पर विचार नहीं करती है कि धारा 498 ए के तहत अपराध के तहत शिकायत केवल उन पीड़ित महिलाओं द्वारा, जो पति या उसके रिश्तेदार द्वारा क्रूरता की शिकार हैं, दायर की जानी चाहिए। धारा 498 ए में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो यह संकेत दे सके कि जब किसी महिला के साथ क्रूरता की जाती है, तो आवश्यक रूप से महिलाओं द्वारा ही उस मामले की शिकायत दर्ज की जानी चाहिए। फैमिली वेलफेयर कमेटी को 'ना' 

[सोशल एक्शन फ़ोरम फ़ॉर मानव अधिकार बनाम भारत संघ] 

सितंबर 2018 में, 3 जजों की बेंच ने राजेश शर्मा मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के दुरुपयोग को रोकने के लिए जारी किए गए निर्देशों को संशोधित किया। इस मामले में 2 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा जारी पूर्व निर्देश का पुनर्वालोकन किया गया कि पुलिस द्वारा आगे की कानूनी कार्रवाई से पहले परिवार कल्याण समितियों द्वारा धारा 498 ए आईपीसी के तहत शिकायतों की जांच की जानी चाहिए। हालाँकि 2 जजों की बेंच द्वारा इस मामले में जारी अन्य निर्देशों में हस्तक्षेप नहीं किया गया था। 498A के दुरुपयोग को रोकने के निर्देश 

[राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य] 

न्यायमूर्ति ए. के. गोयल और यू. यू. ललित की 2 सदस्य पीठ ने यह देखा कि धारा 498 ए को कानून में इसलिए स्थापित किया गया था जिससे पति या उसके रिश्तेदारों के द्वारा महिला के खिलाफ की गयी क्रूरता को दण्डित किया जा सके, खासकर ऐसे मामले में जहाँ उस क्रूरता के चलते महिला के आत्महत्या करने या हत्या होने की संभावना होती है। पीठ ने धारा 498 ए के अंतर्गत बड़ी संख्या में मामले दर्ज किए जाने पर भी अपनी चिंता व्यक्त की, जिसमें विवाहित महिलाओं के साथ उत्पीड़न का आरोप लगाया गया। पीठ ने निम्नलिखित निर्देशों को निम्नानुसार जारी किया: धारा 498 ए और अन्य जुड़े अपराधों के तहत शिकायतों की जांच केवल क्षेत्र के एक नामित जांच अधिकारी द्वारा की जा सकती है। आज से 1 महीने के भीतर ऐसे पदनाम (designations) बनाए जा सकते हैं। ऐसे नामित अधिकारी को ऐसी अवधि (1 सप्ताह से कम नहीं), जिसे उपयुक्त माना जा सकता है, के लिए प्रशिक्षण से गुजरना पड़ सकता है। प्रशिक्षण आज से 4 महीने के भीतर पूरा हो सकता है; ऐसे मामलों में जहां कोई समझौता होता है, यह जिला और सत्र न्यायाधीश या जिले में उनके द्वारा नामित किसी अन्य वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी के लिए खुला होगा कि वह कार्यवाही के निपटान के साथ आपराधिक मामले को बंद करे यदि विवाद मुख्य रूप से वैवाहिक कलह से संबंधित है; यदि लोक अभियोजक/शिकायतकर्ता को कम से कम 1 स्पष्ट दिन के नोटिस के साथ जमानत याचिका दायर की जाती है, तो जहाँ तक संभव हो यह उसी दिन हो सकता है। विवादित दहेज की वस्तुओं की वसूली स्वयं जमानत से इनकार करने का आधार नहीं हो सकती है यदि रखरखाव/पत्नी/नाबालिग बच्चों के अन्य अधिकारों को अन्यथा संरक्षित किया जा सकता है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि जमानत के मामलों से निपटने में, व्यक्तिगत भूमिका, आरोपों की प्राथमिक सच्चाई, आगे की गिरफ्तारी/हिरासत की आवश्यकता और न्याय के हित को सावधानीपूर्वक तौला जाना चाहिए; आमतौर पर भारत से बाहर रहने वाले व्यक्तियों के संबंध में पासपोर्ट या रेड कॉर्नर नोटिस जारी करना नियमित नहीं होना चाहिए; यह जिला न्यायाधीश या जिला न्यायाधीश द्वारा नामित एक वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी के लिए खुला होगा कि उनके द्वारा पार्टियों के बीच वैवाहिक विवादों से उत्पन्न होने वाले सभी जुड़े मामलों को क्लब करें ताकि न्यायालय, जिसे सभी मामले सौंपे गए हैं, द्वारा एक समग्र दृष्टिकोण लिया जाए; परिवार के सभी सदस्यों और विशेष रूप से बाहरी सदस्यों (outstation members) के व्यक्तिगत उपस्थिति की आवश्यकता नहीं हो सकती है और परीक्षण (ट्रायल) अदालत को परीक्षण की प्रगति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किए बिना, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग द्वारा उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति की अनुमति या उपस्थिति से छूट देने की आवश्यकता होगी। यह निर्देश, शारीरिक चोटों या मृत्यु से संबंधित अपराधों पर लागू नहीं होंगे। धारा 498 ए/306 भारतीय दंड संहिता आकर्षित करने के लिए, पति द्वारा मात्र विवाहेतर संबंध, 'क्रूरता' नहीं। 

[प्रकाश बाबू बनाम कर्नाटक राज्य]

 इस मामले में, यह देखा गया कि, केवल इसलिए कि पति एक विवाहेतर संबंध में शामिल है और पत्नी के मन में इसको लेकर कुछ संदेह है, इसे मानसिक क्रूरता नहीं माना जा सकता है, जिससे भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए/306 आकर्षित हो सके। अभियोजन का मामला यह था कि पत्नी बहुत आहत महसूस करती थी और अंततः पति के आचरण, जो विवाहेतर संबंध में कथित रूप से शामिल था, को झेलने में असमर्थ होने के कारण उसने अपने जीवन का अंत कर दिया। उच्च न्यायालय ने धारा 498 ए के तहत पति को दोषी ठहराते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था और उसे अपनी पत्नी की आत्महत्या के लिए दोषी ठहराया था। विवाहेतर संबंध एक अवैध या अनैतिक कृत्य हो सकता है, लेकिन अन्य सामग्रियों को सामने लाया जाना चाहिए ताकि यह एक आपराधिक कृत्य का गठन कर सके, पीठ ने सजा को रद्द करते हुए कहा था। ऐसी घटनाएं जो पत्नी की मौत से पहले घटित हुई हैं, उन्हें ऐसे आचरण के रूप में नहीं माना जा सकता है, जिसके कारण उसके द्वारा आत्महत्या कर ली गई 

[जगदीशराज खट्टा बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य] 

सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा कि आत्महत्या से बहुत पहले पति और पत्नी के बीच हुई घटनाएं, उस आचरण के रूप में नहीं मानी जा सकती जिसने उसे आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया। इस मामले में, पति द्वारा कथित क्रूरता की उन सभी घटनाओं को मृतक द्वारा आत्महत्या के बहुत पहले अंजाम दिया गया था, इसलिए, उन्हें मृतक को इस कदम को उठाने के लिए उकसाने के तत्काल कारण के रूप में नहीं माना जा सकता है। जब तलाक के लंबे समय बाद शिकायत दर्ज की जाती है, तो अभियोजन पक्ष स्थायी नहीं हो सकता है 

[मोहम्मद मियाँ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य] 

यह माना गया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत अभियोजन तब नहीं ठहर सकता है, जब शिकायत तलाक के लंबे समय बाद दर्ज की जाती है। इस मामले में, FIR दर्ज होने से लगभग 4 वर्ष पहले इस दंपति का तलाक हो गया था। 498 ए के अंतर्गत दोष-मुक्ति (Acquital), अभियोजन द्वारा आत्महत्या का उत्प्रेरण सिद्ध करने हेतु धारा 113 ए के उपयोग पर लगाएगा रोक 

[हीरा लाल बनाम राजस्थान राज्य] 

शीर्ष अदालत की पीठ ने यह देखा कि पत्नी की आत्महत्या के मामले में, धारा 498A आईपीसी के तहत रिश्तेदारों या पति को बरी होना, साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 ए के तहत उपलब्ध presumption का अभियोजन द्वारा आत्महत्या का उत्प्रेरण सिद्ध करने पर रोक की तरह कार्य करेगा। न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति मोहन एम. शांतनगौदर की खंडपीठ ने यह भी कहा कि 'उत्पीड़न', 'क्रूरता' की तुलना में कुछ हद तक कम है, और केवल इस तथ्य के पता लगने से कि 'उत्पीड़न' किया गया था, यह निष्कर्ष नहीं निकलेगा कि "आत्महत्या" के लिए उत्प्रेरण दिया गया है।

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