Thursday 27 August 2020

स्वामित्व और प्रतिकूल कब्जे की याचिकाओं को एक साथ और उसी तारीख से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट 27 Aug 2020


*स्वामित्व और प्रतिकूल कब्जे की याचिकाओं को एक साथ और उसी तारीख से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट 27 Aug 2020*
  सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि स्वामित्व और प्रतिकूल कब्जे की याचिका को एक साथ और एक ही तारीख से उन्नत नहीं किया जा सकता है। इस मामले में, वादी ने यह दावा करते हुए मुकदमा दायर किया था कि वह शेड्यूल प्रॉपर्टी का पूर्ण और एक मात्र मालिक है और प्रतिवादी द्वारा शेड्यूल प्रॉपर्टी पर बनाए गए अस्थायी निर्माण को हटाने का निर्देश मांगा था। बचाव पक्ष ने दावा किया था कि उक्त संपत्ति वादी के भाई द्वारा उसकी पत्नी को बेची गई थी और उसे पूर्ण मालिक बना दिया गया था। हालांकि, सेल डीड पंजीकृत नहीं की गई, क्योंकि वहा भूमि के पंजीकरण पर रोक थी। प्रतिवादी ने यह भी दावा किया कि उसकी पत्नी को प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से उक्त स्थल की संपत्ति पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त है। 
ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा खारिज कर दिया। बाद में, हाईकोर्ट ने इसे उलट दिया और इस आधार पर मुकदमे का फैसला किया कि मूल प्रतिवादी प्रतिकूल कब्जे की याचिका स्थापित करने में सक्षम नहीं था। हाईकोर्ट की राय से सहमत होते हुए जस्टिस संजय किशन कौल, अजय रस्तोगी और अनिरुद्ध बोस की बेंच ने कहा कि 1976 से स्वामित्व का दावा और 1976 से ही प्रतिकूल कब्जे की याचिका एक साथ नहीं की जा सकती है। स्वामित्व की याचिका को स्थापित करने में विफलता पर, यह साबित करना आवश्यक था कि किस तारीख से प्रतिवादी की पत्नी का कब्जा शांतिपूर्ण, खुले और निरंतर तरीके से शत्रुतापूर्ण कब्जे के बराबर था
"हम इस बात की सराहना करने में विफल हैं कि एक तरफ, अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि मूल प्रतिवादी की पत्नी, यहां अपीलकर्ता एक, के पास 1976 में संपत्ति का स्वामित्व था, लेकिन स्वामित्व स्थापित करने में उनकी विफलता पर, वैकल्पिक रूप से, प्रतिकूल ‌कब्जे की याचिका को उसी तारीख से मान्यता दी जानी चाहिए।" पीठ ने कहा कि इस मामले में, यह मुद्दा है कि क्या एक साथ एक स्वामित्व की याचिका और प्रतिकूल कब्जे को लिया जा सकता है, यानी, क्या यह विरोधाभासी याचिकाओं को लेने के बराबर नहीं होगा? 
इस मुद्दे का जवाब देने के लिए, पीठ ने निम्नलिखित फैसलों का उल्लेख किया: 1) कर्नाटक बोर्ड ऑफ वक्फ बनाम भारत सरकार (2004) 10 एससीसी 779 (2) मोहन लाल (मृत) Thr.LRs.बनाम मिर्ज़ा अब्दुल गफ़ार 1996 एससीसी (1) 639 (3) पीटी मुनिचक्कम्मा रेड्डी और अन्य, बनाम रेवम्मा (2007) 6 एससीसी 59 (4) एम सिद्दीक (मृत) LRs(राम जन्मभूमि मंदिर मामला) के माध्यम से बनाम महंत सुरेश दास और अन्य। (2020) 1 एससीसी 1 (5) राम नगीना राय और अन्य बनाम देव कुमार राय (मृतक) by LRs (2019) 13 SCC 324। 
अदालत ने कहा कि इन निर्णयों में, यह माना गया है कि 1) स्वामित्व और प्रतिकूल कब्जे की याचिकाएं पारस्प‌रिक रूप से असंगत हैं और दूसरा तब तक काम करना शुरू नहीं करता, जब तक कि पहला छोड़ नहीं दिया जाता है 2) प्रतिकूल कब्जे को स्थापित करने के लिए इस प्रकार के प्रतिकूल कब्जे के आरंभिक बिंदु में एक जांच की आवश्यकता होती है और इस प्रकार, रिकॉर्ड किए गए मालिक का बेदख़ल हो जाना महत्वपूर्ण होता है। 3) यह विशेष रूप से निवेदन किया जाना है और साबित किया जाना है कि जब कब्ज़ा आदेश में असली मालिक के लिए प्रतिकूल हो जाता है, तो उस समय से 12 साल का स्वामित्व खो देता है। "कब्जे को सार्वजनिक होना चाहिए, और सच्चे मालिक के ज्ञान में होना चाहिए, और यह आवश्यक है कि प्रतिकूल कब्जे की याचिका सही मालिक के अधिकारों को पराजित करना चाहती है। इस प्रकार, कानून ऐसे मामले को आसानी से स्वीकार नहीं करेगा जब तक कि एक स्पष्ट और सुसंगत आधार नहीं बनाया गया हो ...। ... वर्तमान मामले के तथ्यों में, यह तथ्य बिल्कुल साबित नहीं हुआ है। प्रतिवादी की नरसम्मा के कब्जे को विचार के आधार पर बताया गया है, यह मानते हुए कि लेन-देन, जिन भी कारणों से सेल डीड में नहीं बदल पाए, फिर भी तारीख, जब इस तरह के कब्जा प्रतिकूल हो जाता है, तो इसे सेट करना होगा। इस प्रकार, प्रतिकूल कब्जे की या‌च‌िका में सामग्री विशेष में कमी है ... .. कानूनी स्थिति, इस प्रकार, स्वामित्‍व और प्रतिकूल कब्जे की याचिका को एक साथ और एक ही तारीख से आगे बढ़ाने में अपीलकर्ताओं के खिलाफ है। " पीठ ने प्रतिवादी की ओर से रविन्द्र कौर ग्रेवाल व अन्य बनाम मंजीत कौर पर भरोसा कर दिए गए तर्क को खारिज कर दिया और कहा, तीन जजों की बेंच के समक्ष विचार के लिए जो सवाल उठाया गया था, वह यह था कि स्वामित्व की घोषणा के लिए एक मुकदमा सुनवाई योग्य है और प्रतिकूल कब्जे की एक याचिका पर सुरक्षा की मांग करते हुए स्‍थायी निषेधाज्ञा की मांग की जा सकता है या कि यह मुकदमे में इस तरह एक व्यक्ति के खिलाफ बचाव का एक साधन है। वास्तव में, यह कहा जा सकता है कि लंबे समय तक न्यायालय का एक सुसंगत दृष्टिकोण रहा है कि याचिका केवल ढाल हो सकती है, तलवार नहीं। इस फैसले ने इस कानूनी स्थिति को बदल दिया कि यह अधिकार (सुप्रा) कब्जे को बनाए रखने के लिए प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से स्वामित्व के पकने से प्रबंधित किया जा सकता है। हालांकि, इस तरह के प्रतिकूल कब्जे का गठन करने के लिए, तीन क्लासिक आवश्यकताओं, जिनके सह-अस्तित्व की आवश्यकता है, फिर से जोर दिया गया है-निरंतरता में पर्याप्त, प्रचार में पर्याप्त, और एक प्रतिद्वंद्वी के प्रतिकूल, स्वामित्व और उसके ज्ञान के इनकार में। केस का विवरण केस नं : CIVIL APPEAL NO.2710 OF 2010 केस टाइटल: नरसम्मा बनाम ए कृष्णप्पा (मृत) कोरम: जस्टिस संजय किशन कौल, अजय रस्तोगी और अनिरुद्ध बोस

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/pleas-of-title-and-adverse-possession-cannot-be-advanced-simultaneously-and-from-the-same-date-sc-162044

पेंशन देने का मूल आधार सेवानिवृत्त कर्मचारी को वृद्धावस्था में सम्मानित जीवन जीने का साधन उपलबध कराना है : सुप्रीम कोर्ट* 27 Aug 2020


*पेंशन देने का मूल आधार सेवानिवृत्त कर्मचारी को वृद्धावस्था में सम्मानित जीवन जीने का साधन उपलबध कराना है : सुप्रीम कोर्ट* 27 Aug 2020
         “इस बात को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस तरह के पेंशन देने का मूल आधार सेवानिवृत्त कर्मचारी को वृद्धावस्था में सम्मानित जिन्दगी जीने का साधन उपलबध कराना है तथा इस प्रकार के लाभ से किसी कर्मचारी को अनुचित तरीके से, खासकर बारीकियों के आधार पर वंचित नहीं किया जाना चाहिए।” सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि पेंशन कोई उपहार नहीं जिसका भुगतान मर्जी से किया जाये, बल्कि यह सेवानिवृत्त कर्मचारी के लिए समाज कल्याण का एक उपाय है, ताकि कर्मचारी नौकरी के बाद भी सम्मानित तरीके से जीवन यापन कर सके। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि पेंशन के प्रावधान को समाज कल्याण के उपाय का एक उदार अभिप्राय माना जाना चाहिए। इस मामले के अपीलकर्ता वी सुकुमारन ने केरल सरकार के मत्स्य पालन विभाग में सात जुलाई 1976 को 'कैजुअल लेबर रॉल (सीएलआर) वर्कर'  (अनियमित कर्मचारी) के तौर पर नौकरी शुरू की थी। उन्होंने वहां 29 नवम्बर 1983 तक यानी सात वर्ष चार माह और 23 दिनों तक सीएलआर कामगार के तौर पर योगदान किया। केरल लोक सेवा आयोग के जिला अधिकारी ने उन्हें कन्नूर जिला स्थित राजस्व विभाग में 'लोअर डिवीजन क्लर्क' (एलडीसी) के रूप में नौकरी करने की सलाह दी और उन्होंने वहां नौकरी शुरू कर दी।  उन्हें 18 सितम्बर 1989 को नौकरी में नियमित कर दिया गया और बाद में उन्हें 'अपर डिवीजन क्लर्क' के रूप में पदोन्नति भी दी गयी थी। सेवानिवृत्ति की उम्र हासिल करने के बाद वह 31 दिसम्बर 2008 को सेवानिवृत्त हो गये। उन्होंने सेवानिवृत्ति के समय मिलने वाले पेंशन संबंधी लाभ के लिए एक रिट याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने कहा था कि सात जुलाई 1976 और 29 नवम्बर 1983 के बीच सीएलआर कामगार के तौर पर उनकी आठ साल की क्वालिफाइंग सर्विस को भी पेंशन में शामिल किया जाये। उनकी रिट याचिका हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी।  उनकी अपील पर विचार करते हुए खंडपीठ ने कहा कि पेंशन संबंधी प्रावधानों को समाज कल्याण के उपाय के तौर पर उदार अभिप्राय प्रदान किया जाना चाहिए। खंडपीठ में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस भी शामिल हैं। कोर्ट ने कहा : "इसका अर्थ यह नहीं है कि नियम के विरुद्ध कुछ भी दिया जा सकता है, लेकिन इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस तरह के पेंशन देने का मूल आधार सेवानिवृत्त कर्मचारी को बुढ़ापे में सम्मानित जीवन जीने के लिए साधन मुहैया कराना है और इस प्रकार के लाभ से कर्मचारी को अनुचित तरीके से, खासकर बारीकियों के आधार पर वंचित नहीं किया जाना चाहिए।" 
इस मामले में फैसले की शुरुआत इस टिप्पणी से की गयी : "पेंशन सेवानिवृत्ति के बाद की अवधि के लिए एक सहायता है। यह कोई उपहार नहीं है जिसका भुगतान अपनी मर्जी से किया जाये, बल्कि यह सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारी के सम्मानित जीवन के लिए समाज कल्याण का एक तरीका है। अपीलकर्ता पिछले 13 साल से पेंशन का अपना दावा करते रहे हैं, लेकिन वह इसमें असफल रहे, जबकि उन्होंने 32 सालों तक विभिन्न सरकारी विभागों में अपनी सेवाएं दी हैं।" 
प्रांसगिक सर्विस रूल्स को ध्यान में रखते हुए बेंच ने व्यवस्था दी कि अपीलकर्ता द्वारा सीएलआर कामगार के तौर पर दी गयी सेवा भी अन्य सीएलआर कामगारों के समान ही पेंशन संबंधी लाभों में शामिल की जायेगी। कोर्ट ने राज्य सरकार को आठ सप्ताह के भीतर बकाये पेंशन का भुगतान करने का निर्देश भी दिया। केस का ब्योरा केस का नाम : वी. सुकुमारन बनाम केरल सरकार केस नं. : सिविल अपील नंबर 389/2020 कोरम : न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस वकील : सीनियर एडवोकेट के. पी. कैलाशनाथ पिल्लै, एओआर ए. वेनायागम बालान (अपीलकर्ता के लिए), एओरआर निशी राजन शोनकर, एओआर जोगी सारिया (प्रतिवादियों के लिए)

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/pensionary-provisions-must-be-given-liberal-construction-as-a-social-welfare-measure-sc-162047

Tuesday 25 August 2020

अदालत में किसी आरोपी की ज़मानत लेने वाले व्यक्ति पर क्या जिम्मेदारियां आ सकती हैं


अदालत में किसी आरोपी की ज़मानत लेने वाले व्यक्ति पर क्या जिम्मेदारियां आ सकती हैं 27 Jun 2020

       . आपराधिक विधि में ज़मानत अत्यधिक प्रचलन में आने वाला शब्द है। दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय 33 में ज़मानत से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं। ज़मानत का अर्थ विस्तृत है, परंतु आपराधिक विधि में ज़मानत से तात्पर्य है- 'किसी अपराध में किसी व्यक्ति को न्यायालय में पेश कराने की जिम्मेदारी लेना।' इससे सरल शब्दों में ज़मानत को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अदालत में अभियुक्त को समय-समय पर पेश कराने एवं जब भी न्यायालय अभियुक्त को न्यायालय में प्रस्तुत होने के लिए आदेश करें, तब उसके प्रस्तुत होने की गारंटी लेने वाले व्यक्ति को जमानतदार अर्थात प्रतिभू (Surety) कहा जाता है। आपराधिक विधि में किसी अपराध में किसी अभियुक्त की जमानत लेने पर कुछ दायित्व ज़मानतदार व्यक्ति पर भी होते हैं। यह लेख विधि के छात्रों के साथ आम साधारण व्यक्ति के लिए भी सार्थक जानकारी है तथा उन्हें भी इस पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जीवन में कभी ना कभी एक साधारण व्यक्ति अपने मित्र या रिश्तेदार की जमानत ले ऐसा समय भी आ ही जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436, 437, 438 और धारा 439 के अंतर्गत न्यायालय द्वारा बंदी व्यक्ति को ज़मानत पर छोड़े जाने के प्रावधान है। 
          ज़मानत पुलिस अधिकारियों द्वारा भी दी जाती है। जो ज़मानती अपराध जो होते हैं, उनमें पुलिस अधिकारियों द्वारा भी जमानत दी जाती है परंतु गैर ज़मानतीय अपराध की दशा में न्यायालय अभियुक्त को ज़मानत देता है। न्यायालय द्वारा ज़मानत दिए जाते समय व्यक्तिगत मुचलका जो आरोपी स्वयं देता है या फिर ज़मानतदार की ओर से कोई बंधपत्र दिया जाता है। प्रतिभू (Surety) प्रतिभू का अर्थ है ज़मानतदार अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अभियुक्त के न्यायालय में पेश होने की जिम्मेदारी ले रहा है। जब कोई व्यक्ति इस तरह का दायित्व लेता है तो न्यायालय उससे किसी एक निश्चित धनराशि का बंधपत्र न्यायालय मांगता है। 
          प्रतिभू दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 441(ए) के अंतर्गत यह घोषणा करता है की वह अभियुक्त को जब भी आवश्यक हो या न्यायालय द्वारा बुलाया जाए, तब न्यायालय में पेश करेगा। ऐसी घोषणा के अंतर्गत प्रतिभू का दायित्व होता है की वह अभियुक्त को लाकर अदालत में पेश करे। न्यायालय द्वारा निश्चित की गई एक धनराशि का बंधपत्र प्रतिभू द्वारा प्रस्तुत कर दिया जाता है। बंधपत्र के ज़ब्त कर लिए जाने के परिणाम इस मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 446 सबसे महत्वपूर्ण धारा है, जो यह उल्लेख करती है कि ज़मानतदार के दायित्वों से क्या परिणाम होते हैं। धारा 446 के अंतर्गत यदि बंधपत्र को ज़ब्त कर लिया जाता है तो ऐसे बंधपत्र में जितनी धनराशि का उल्लेख होता है, इतनी धनराशि की वसूली के लिए न्यायालय को ऐसा अधिकार मिल जाता है जैसा अधिकार जुर्माना वसूल करने के लिए होता है। 
        समाधानप्रद रूप से यह साबित हो जाता है कि बंधपत्र ज़ब्त हो चुका है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय बंधपत्र की जो राशि है उसकी वसूली के एक नवीन वाद की रचना करती है। यदि ज़मानतदार द्वारा जितनी धनराशि का बंधपत्र अपने ज़मानत पत्र में दिया था, उसे शास्ति के रूप में जमा नहीं करता है तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय द्वारा 6 माह तक का कारावास जमानतदार को दिया जा सकता है। न्यायालय किन्हीं विशेष कारणों से बंधपत्र की राशि को कम कर सकता है या फिर उसको आधा कर सकता है, परंतु ऐसे कारणों का स्पष्ट वर्णन किया जाना होगा। ज़मानतदार की मृत्यु हो जाने पर किसी प्रकरण में कोई व्यक्ति किसी अभियुक्त की ज़मानत लेता है और ज़मानतपत्र में एक निश्चित धनराशि का उल्लेख करता है, जिसे बंधपत्र के रूप में न्यायालय को सौंपता है और ज़मानतदार की मृत्यु हो जाती है, ऐसी स्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 446 उपधारा (4) के अंतर्गत में जिस संपदा का उल्लेख किया गया है जैसे कोई रजिस्ट्री या कोई फिक्स डिपॉज़िट इत्यादि हो तो वह उन्मोचित हो जाती है और किसी भी संपदा पर कोई दायित्व नहीं रह जाता है। ज़मानतदार के जीवित होते हुए ही केवल संपदा पर दायित्व रहता है। यदि ज़मानतदार की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी परिस्थिति में ज़मानतदार की संपदा पर दायित्व नहीं होगा। अभियुक्त को न्यायालय द्वारा पुनः नया ज़मानतदार न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने का आदेश किया जाता है यदि अभियुक्त नया ज़मानतदार नहीं पेश कर पाता है तो उसे गिरफ्तारी वारंट जारी कर कारावास भेज दिया जाता है। मोहम्मद कुंजू तथा अन्य बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की ज़मानत बंधपत्र के संबंध में प्रतिभूओ का महत्वपूर्ण दायित्व है कि जब भी अपेक्षा की जाए न्यायालय में अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करें। बंधपत्र का मूल तत्व अभियुक्त की उपस्थिति कराना है। बंधपत्र के आदेश में अन्य शर्तें भी होती है यदि ज़मानत आदेश (बैल ऑर्डर) में किसी शर्त में परिवर्तन किया जाता है तो प्रतिभू उसका लाभ नहीं ले सकता, यदि प्रतिभू परिवर्तित शर्तों से सहमत नहीं होता है तो उसे संहिता की धारा 444 के अधीन अपने उन्मोचन के लिए आवेदन प्रस्तुत करना चाहिए। ज़मानतदार और अभियुक्त के बीच कोई मित्रता या रिश्ता नाता होना आवश्यक नहीं है, केवल आवश्यक यह है कि ज़मानतदार अभियुक्त को न्यायालय में पेश करवाने की गारंटी ले रहा है और इसके बदले कोई बंधपत्र न्यायालय के समक्ष अपनी संपदा से जुड़ा हुआ रख रहा है। अब यदि वह न्यायालय में अभियुक्त को पेश नहीं कर पाता है तो न्यायालय उस बंधपत्र में उल्लेखित धनराशि को जुर्माने की तरह वसूल कर सकता है। ज़मानतदार द्वारा अपनी उल्लेख की गयी धनराशि को न्यायालय में जमा कर दिया जाता है तो भार मुक्त हो जाता है तथा न्यायालय उस अपराध के लिए ज़मानतदार को दोषी नहीं ठहरा सकती तथा यह कदापि नहीं होता है कि जिस अपराध में अभियुक्त को अभियोजित किया गया था, उसका दंड ज़मानतदार को भोगना पड़े। ज़मानतदार केवल उस धनराशि तक ही दायित्व रखता है, जिसका उल्लेख उसने अपने बंधपत्र में किया है, जिस संपत्ति को बंधपत्र में उल्लेखित करता है उस संपत्ति को अपनी स्वतंत्रता से व्ययन कर पाने में असफल हो जाता है। ज़मानत वापस लेना कोई भी ज़मानतदार यदि किसी व्यक्ति की ज़मानत लेता है और वह ज़मानत पर छोड़ दिया जाता है, परंतु बाद में उस व्यक्ति के लिए दी ज़मानत वापस लेना चाहता है या फिर उसे इस बात का विश्वास नहीं रहा उसके कहने पर या उसके लाने पर अभियुक्त व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित होगा। ऐसी परिस्थिति में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 444 के अंतर्गत एक आवेदन संबंधित न्यायालय में ज़मानतदार द्वारा प्रस्तुत करना होगा तथा ज़मानत प्रभाव से मुक्त हो जाती है। किसी भी समय मजिस्ट्रेट से ऐसा आवेदन किया जा सकता है। जब ज़मानत वापस ले ली जाती है तो अभियुक्त को कोई अन्य ज़मानतदार प्रस्तुत करना होता है। प्रतिभू द्वारा बंधपत्र खारिज किए जाने हेतु आवेदन प्रस्तुत किए जाते ही मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अभियुक्त की गिरफ्तारी का वारंट जारी करें। ज़मानत कौन ले सकता है कोई भी स्वास्थ्यचित्त और वयस्क व्यक्ति ज़मानत ले सकता है। न्यायालय जितनी धनराशि बंधपत्र में उल्लेख करती है। इतनी धनराशि की कोई संपदा ज़मानतदार को न्यायालय ने बताना होती है तथा यह सिद्ध करना होता है कि वह इतनी हैसियत रखता है कि ज़मानत में बंधपत्र में निश्चित की गई धनराशि यदि जब्त की जाए तो वह न्यायालय में इतनी राशि डिपॉजिट कर सकता है। इसके लिए ज़मानतदार को किसी संपत्ति का मालिक होना आवश्यक होता है। जब तक मामला न्यायालय में चलता है, जब तक ज़मानत प्रभावशाली रहती है, तब तक उस संपत्ति को स्वतंत्रता पूर्वक उसका मालिक व्ययन नहीं कर पाता है। जैसे यदि किसी भूखंड कि कोई रजिस्ट्री न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तो जिस समय तक ज़मानत प्रभावशाली रहती है उस समय तक उस भूखंड को किसी अन्य व्यक्ति को नामांतरण नहीं किया जा सकता। जिस समय ज़मानत प्रभाव मुक्त हो जाती है, केवल उसी समय भूखंड को बेचा जा सकेगा या उसका नामांतरण किया जा सकेगा। न्यायालय साधारण तौर पर जमीन की पावती या बैंक का 50% फिक्स डिपॉज़िट तथा मकान की कोई रजिस्ट्री या भूखंड की कोई रजिस्ट्री इत्यादि को ही ज़मानत के तौर पर हैसियत मानता है तथा स्वीकार करता है।

Friday 21 August 2020

यौन शोषण के मामलों में ट्रायल कोर्ट को पीड़िता से अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए

 *यौन शोषण के मामलों में ट्रायल कोर्ट को पीड़िता से अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट 


21 Aug 2020 पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि बलात्कार के मामलों में पीड़िता से ''अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल'' पूछने की अनुमति ट्रायल कोर्ट को नहीं देनी चाहिए। साथ ही हाईकोर्ट ने गुरुवार को अपने रजिस्ट्रार जनरल से कहा है कि वह पंजाब,हरियाणा व चंडीगढ़ में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों को सुनने वाले पीठासीन अधिकारियों/विशेष कोर्ट को उनकी उपरोक्त टिप्पणी का प्रसार कर दें या उनको इस संबंध में सूचित कर दें। 

        न्यायमूर्ति अरविंद सिंह सांगवान ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का इस तरह का आचरण 'पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996) मामले' में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों का उल्लंघन है। इस मामले में अपना फैसला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता से जिरह करते समय न्यायालय को सतर्क रहना चाहिए ताकि बचाव पक्ष का वकील पीड़िता से बलात्कार का विवरण जानने के लिए पूछे जाने वाले सवालों को जारी रखने के लिए कोई रणनीति न अपना पाए। न ही अदालत को उस समय मूकदर्शक बनकर बैठना चाहिए,जब बचाव पक्ष का वकील पीड़िता से जिरह कर रहा हो। अदालत को दर्ज की जानी वाली गवाही को प्रभावी तरीके से नियंत्रित करना चाहिए ताकि पीड़िता को प्रताड़ित न किया जा सकें।       

       एकल न्यायाधीश की पीठ बलात्कार के एक मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा के आदेश के खिलाफ दायर कई सारी अपील पर सुनवाई कर रही थी। सिंगल बेंच ने कहा कि आरोपियों की ओर से प्रति परीक्षण या जिरह करते समय, उनके वकीलों ने पीड़िता से कुछ सवाल किए थे। जो ''इस अदालत की राय में'', बलात्कार पीड़िता से आरोपी की बेगुनाही साबित करने के लिए नहीं किए जा सकते थे। अपने फैसले में जस्टिस सांगवान ने कहा कि ''एक प्रश्न और इसका उत्तर इस प्रकार है- 'प्रश्न' क्या आरोपी अशरफ मीर ने अपनी पूर्ण संतुष्टि में आपके साथ संभोग किया था या नहीं और क्या संभोग का कार्य पूरा हुआ था? 'जवाब' मैंने अपने कपड़े उतार दिए थे और कोई पुरुष एक महिला के साथ संभोग करते समय जो भी करता है,वो सब आरोपी मोहम्मद अशरफ मीर ने पूरी तरह से मेरे साथ किया था।'' 

         सिंगल बेंच ने कहा कि ''अगर बचाव पक्ष के वकील पीड़िता की गवाही को तोड़ नहीं पा रहे थे तो ट्रायल कोर्ट को इस तरह के सवालों को पीड़िता से पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी।'' हाईकोर्ट ने कहा कि बचाव पक्ष इतनी मजबूती से स्थापित किया गया था कि पीड़िता से जिरह के दौरान कुछ सवाल इस हद तक भी पूछे गए थे-''क्या मोहम्मद अशरफ मीर (ए -5) के साथ संभोग करते समय, वह (पीडब्लू-1) उसे संतुष्ट करने में सक्षम थी ", जिसका उसने जवाब दिया। '' 

 उससे एक और सवाल भी पूछा गया कि दो व्यक्तियों में से यानी मोहम्मद अशरफ मीर (ए-5) और एक (सी-20) में से पहले उसके साथ संभोग किसने किया था? इसके बाद फिर से पीडब्ल्यू-1 (डब्ल्यू-1) ने इसका जवाब दिया कि मोहम्मद अशरफ मीर (ए -5) ने पहले सेक्स किया था।'' पीठ ने इस बात पर भी अचंभा जाहिर किया कि '' प्रति परीक्षण के बाकी हिस्से को देखने के बाद पता चलता है कि बचाव पक्ष के वकील ने विभिन्न सवाल पूछकर पीड़िता के चरित्र पर भी आरोप लगाने की कोशिश की थी। उसे सुझाव दिया गया था कि कई अन्य व्यक्तियों के साथ उसने अपनी मर्जी से संबंध बनाए थे क्योंकि वह देह व्यापार में लिप्त थी।'' अपने फैसले में, एकल न्यायाधीश ने 'पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह'' मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के कुछ ऑपरेटिव पार्ट को उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है- ''हाल ही में, अदालतों में यौन उत्पीड़न की पीड़ितों से जिरह के दौरान किए जाने वाले व्यवहार की काफी आलोचना की गई है। तथ्यों की प्रासंगिकता के संबंध में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान होने के बावजूद भी कुछ बचाव पक्ष के वकील बलात्कार के विवरण के रूप में पीड़िता से लगातार सवाले पूछने की रणनीति अपनाते हैं। पीड़िता से बार-बार बलात्कार की घटना का विवरण पूछा जाता है। लेकिन ऐसा तथ्यों को रिकॉर्ड पर लाने के लिए या उसकी विश्वसनीयता का चेक करने के लिए नहीं बल्कि उसकी कहानी में विसंगतियों को खोजने के लिए किया जाता है ताकि उसके द्वारा बताई गई घटना की व्याख्या को तरोड़ा-मरोड़ा जा सकें और यह दिखाया जा सकें कि वह अपने आरोपों में अस्थिर है या परस्पर-विरोधी तथ्य पेश कर रही है। इसलिए, जब बचाव पक्ष पीड़िता से प्रति परीक्षण कर रहा हो उस समय अदालत को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिए। अदालत को साक्ष्य की रिकॉर्डिंग को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना चाहिए। जब भी अभियुक्त को प्रति परीक्षण या जिरह के जरिए पीड़िता के पक्ष की सत्यता और विश्वसनीयता को चेक करने की अनुमति दी जाए तो अदालत को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इस प्रति परीक्षण को पीड़िता का उत्पीड़न करने या उसे अपमानित करने का साधन न बनाया जाए। यह याद रखना चाहिए कि एक बलात्कार की पीड़िता पहले ही एक दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ता है। ऐसे में अगर अपरिचित परिवेश में बार-बार उसके साथ हुई घटना के बारे में पूछा जाएगा तो वह बहुत शर्मिंदा हो सकती है। इतना ही नहीं ऐसी स्थिति में वह नर्वस भी हो सकती है या बोलने में भ्रमित हो सकती है। वहीं उसकी चुप्पी या उसके एक भ्रमित वाक्य की गलत तरीके से व्याख्या की जा सकती है और उसे उसकी गवाही की ''विसंगतियों और विरोधाभासों'' के रूप में माना जा सकता है।''


https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/lewd-filthy-indecent-questions-to-prosecutrix-in-sexual-assault-cases-to-not-be-allowed-by-trial-courts-p-h-hc-directs-courts-161782

Thursday 20 August 2020

बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, विनीता शर्मा विरुद्ध राकेश शर्मा 11 अगस्त 2020

 *बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, विनीता शर्मा विरुद्ध राकेश शर्मा 11 अगस्त 2020* संकलनकर्ता लालाराम मीणा पूर्व न्यायाधीश भोपाल


     *सिविल अपील डायरी नंबर 32 601/ 2018, विनीता शर्मा विरुद्ध राकेश शर्मा निर्णय दिनांक 11/8/2020,* लड़कियों का पैतृक संपत्ति पर अधिकार के संबंध में लैंड मार्क सुप्रीम कोर्ट जजमेंट


       सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पैतृक संपत्ति के बंटवारे में पुरुषों की प्राथमिकता को सिरे से खत्म करते हुए मंगलवार 11 अगस्त 2020 को एक बड़ा फैसला दिया। कोर्ट ने कहा कि *बेटियों का पिता, दादा और परदादा की संपत्तियों में 1956 से ही बेटों जैसा अधिकार होगा।* 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू हुआ था।


         सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने मंगलवार को पैतृक संपत्ति में बेटियों के हक पर बड़ा फैसला दिया। इसके साथ ही पीठ ने कहा कि *यह लैंगिक समानता हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम है।* हालांकि, पीठ ने कहा कि इसमें देरी हो गई। इसने कहा, 'लैंगिक समानता का संवैधानिक लक्ष्य देर से ही सही, लेकिन पा लिया गया है और विभेदों को 2005 के संशोधन कानून की धारा 6 के जरिए खत्म कर दिया गया है। पारंपरिक शास्त्रीय हिंदू कानून बेटियों को हमवारिस होने से रोकता था जिसे संविधान की भावना के अनुरूप प्रावधानों में संशोधनों के जरिए खत्म कर दिया गया है।' 


आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर 10 बड़े सवालों के जवाब...


1. *सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?*


सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का बेटों के बराबर अधिकार होता है। उसने पैतृक संपत्ति पर बेटियों को अधिकार को जन्मजात बताया। मतलब, बेटी के जन्म लेते ही उसका अपने पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार हो जाता है, ठीक वैसे जैसे एक पुत्र जन्म के साथ ही अपने पिता की पैतृक संपत्ति का दावेदार बन जाता है।


*2. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा?*


सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल उठा कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 के प्रावधानों को पिछली तारीख (बैक डेट) से प्रभावी माना जाएगा? इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हां, यह बैक डेट से ही लागू है। 121 पन्नों के अपने फैसले में तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा, 'हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 की संशोधित धारा 6 संशोधन से पहले या बाद जन्मी बेटियों को हमवारिस (Coparcener) बनाती है और उसे बेटों के बराबर अधिकार और दायित्व देती है। बेटियां 9 सितंबर, 2005 के पहले से प्रभाव से पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार का दावा ठोक सकती हैं।'


3. 9 सितंबर, 2005 का मामला क्यों उठा?


इस तारीख को हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 लागू हुआ था। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 से अस्तित्व में है जिसे 2005 में संशोधित किया गया था। चूंकि 2005 के संशोधित कानून में कहा गया था कि इसके लागू होने से पहले पिता की मृत्यु हो जाए तो बेटी का संपत्ति में अधिकार खत्म हो जाता है। यानी, अगर पिता संशोधित कानून लागू होने की तारीख 9 सितंबर, 2005 को जिंदा नहीं थे तो बेटी उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मांग सकती है।


4. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में वर्ष 1956 का जिक्र क्यों?


जैसा कि ऊपर बताया गया है- हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 में ही आया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 की धारा 6 की व्याख्या करते हुए कहा कि बेटी को उसी वक्त से पिता की पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया जबसे बेटे को मिला था, यानी साल 1956 से।


5. 20 दिसंबर, 2004 का जिक्र क्यों?


सुप्रीम कोर्ट ने बेटी को पिता की पैतृक संपत्ति में 1956 से हकदार बनाकर 20 दिसंबर, 2004 की समयसीमा इस बात के लिए तय कर दी कि अगर इस तारीख तक पिता की पैतृक संपत्ति का निपटान हो गया तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। मतलब, 20 दिसंबर, 2004 के बाद बची पैतृक संपत्ति पर ही बेटी का अधिकार होगा। उससे पहले संपत्ति बेच दी गई, गिरवी रख दी गई या दान में दे दी गई तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 में ही इसका जिक्र है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को सिर्फ दोहराया है।


*6. क्या बेटों के अधिकार पर ताजा फैसले का कोई असर होगा?*


कोर्ट ने संयुक्त हिंदू परिवारों को हमवारिसों को ताजा फैसले से परेशान नहीं होने की भी सलाह दी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा, 'यह सिर्फ बेटियों के अधिकारों को विस्तार देना है। दूसरे रिश्तेदारों के अधिकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। उन्हें सेक्शन 6 में मिले अधिकार बरकरार रहेंगे।'


7. क्या बेटी की मृत्यु हो जाए तो उसके बच्चे नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग सकते हैं?


इस बात पर गौर करना चाहिए कि कोर्ट ने पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार दिया है। अब इस सवाल का जवाब पाने कि लिए एक और सवाल कीजिए कि क्या पुत्र की मृत्यु होने पर उसके बच्चों का दादा की पैतृक संपत्ति पर अधिकार खत्म हो जाता है? इसका जवाब है नहीं। अब जब पैतृक संपत्ति में अधिकार के मामले में बेटे और बेटी में कोई फर्क ही नहीं रह गया है तो फिर बेटे की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार कायम रहे जबकि बेटी की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार खत्म हो जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? मतलब साफ है कि बेटी जिंदा रहे या नहीं, उसका पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार कायम रहता है। उसके बच्चे चाहें कि अपने नाना से उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी ली जाए तो वो ले सकते हैं।


*8. पैतृक संपत्ति क्या है?*


 *पैतृक संपत्ति में ऊपर की तीन पीढ़ियों की संपत्ति शामिल होती है। यानी, हमारी पैतृक संपत्ति वह है जो हमारे पिता को उनके पिता यानी दादा से और दादा को उनके पिता यानी परदादा से मिली संपत्ति हमारी पैतृक संपत्ति है।* पैतृक संपत्ति में पिता द्वारा अपनी कमाई से अर्जित संपत्ति शामिल नहीं होती है। इसलिए उस पर पिता का पूरा हक रहता कि वो अपनी अर्जित संपत्ति का बंटवारा किस प्रकार करें। *पिता चाहे तो अपनी अर्जित संपत्ति में बेटी या बेटे को हिस्सा नहीं दे सकता है, कम-ज्यादा दे सकता है या फिर बराबर दे सकता है।* अगर पिता की मृत्यु बिना वसीयतनामा लिखे हो जाए तो फिर बेटी का पिता की अर्जित संपत्ति में भी बराबर की हिस्सेदारी हो जाती है।


9. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में क्या कहा?


केंद्र सरकार ने भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए पैतृक संपत्ति में बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी का जोरदार समर्थन किया। केंद्र ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जस्टिस मिश्रा ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि बेटियों के जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि उसके अधिकार पर यह शर्त थोपना कि पिता का जिंदा होना जरूरी है, बिल्कुल अनुचित होगा। बेंच ने कहा, 'बेटियों को जन्मजात अधिकार है न कि विरासत के आधार पर तो फिर इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है कि हिस्सेदारी में दावेदार बेटी का पिता जिंदा है या नहीं।'


10. बेटियां ताउम्र प्यारी... जैसी कौन सी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने की?


सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपनी तरफ से इस पर कुछ नहीं कहा। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए गए फैसले के वक्त ही कही थी। तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने इसे दोहराया। उन्होंने कहा, 'बेटा तब तक बेटा होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती है। बेटी जीवनपर्यंत बेटी रहती है।' तीन सदस्यीय पीठ में जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह भी शामिल थे।


http://scourtapp.nic.in/supremecourt/2018/32601/32601_2018_33_1501_23387_Judgement_11-Aug-2020.pdf

Wednesday 19 August 2020

गोद लेने से जैविक पिता के साथ रिश्ता खत्म नहीं होताः

 

*गोद लेने से जैविक पिता के साथ रिश्ता खत्म नहीं होताः* मद्रास हाईकोर्ट 19 Aug 2020

       मद्रास हाईकोर्ट ने हाल में दिए गए फैसले में एक नाबालिग लड़की के जन्म प्रमाण पत्र में मृतक जैविक पिता के नाम की जगह दत्तक पिता का नाम डालने से इनकार कर दिया। दत्तक प‌िता लड़की की जैविक मां का दूसरा पति है। अदालत किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 56 (2), गोद लेने के विनियमों (52) (4) और 55 (2) के साथ पढ़ें, के तहत मामले की सुनवाई कर रही थी। मामले में दत्तक पिता की नियुक्ति के लिए प्रार्थना की गई थी, (जैविक मां ने नाबालिग लड़की को अपने दूसरे पति को गोद देने के लिए सहमति व्यक्त की है।) ताकि लड़की को जैव‌िक पुत्री की कानूनी स्थिति प्राप्त हो जाए और उसे उत्तराधिकार और विरासत के सभी सभी प्रयोजनों के लिए कानूनी अनुमति प्राप्‍त हो जाए।
       याचिकाकर्ताओं की ओर से आग्रह किया गया था कि दूसरी याचिकाकर्ता ने पहले याचिकाकर्ता से शादी की है और दोंनो एक खुशहाल जीवन जी रहे हैं। नाबालिग बेटी भी इस परिवार का हिस्सा है और उसने पहले याचिकाकर्ता को अपने पिता के रूप में मान्यता दी है और स्वीकार किया है। पहला याचिकाकर्ता नाबालिग लड़की को गोद लेना चाहता है और दूसरी याचिकाकर्ता, यान‌ी नाबालिग की जैविक मां, की भी इच्छा है कि पहला याचिकाकर्ता कानूनी रूप से नाबालिग लड़की के पिता के रूप में मान्यता प्राप्त कर ले।
        हालांकि मामले में राहत देने से इनकार करते हुए, जस्टिस पीटी आशा ने कहा कि "दिवंगत वी वेंकटेश सहाना के जैविक/ प्राकृतिक पिता थे और जिस दिन अधिकारियों ने जन्म प्रमाण पत्र जारी किया था, वो जीवित थे और उन्हें ही जन्म प्रमाण पत्र में नाबालिग का पिता बताया गया है।" सिंगल जज ने कहा कि गोद लेने से बच्‍चे का अपने जैविक पिता के साथ रिश्ते खत्म नहीं होता है, एकमात्र अपवाद तब होता है जब जैविक पिता खुद नाबालिग के पिता के रूप में अपने अधिकार का त्याग करता है और गोद लेने के लिए दत्तक पिता द्वारा बच्चे की सहमति ली जाती है।
        जज ने कहा, "यहां तक ​​कि ऐसे मामलों में, मेरा विचार है कि जैविक पिता होने की स्थिति नहीं बदलती है। यह केवल दत्तक पिता की स्थिति, नाबालिग की कस्टडी और भरणपोषण की स्थिति बदलती है।" अदालत ने कहा कि इस पर विवाद नहीं है कि जैविक / प्राकृतिक मां को नाबालिग को दूसरे याचिकाकर्ता को गोद देने का अधिकार है, लेकिन वह बच्चे को जन्म प्रमाण पत्र पर अपने जैविक/ प्राकृतिक पिता के नाम से वंचित नहीं कर सकती।  पीठ ने इस बात की सराहना की कि जन्म का पंजीकरण जन्म व मृत्यु अधि‌नियम, 1969 के पंजीकरण के प्रावधानों द्वारा नियंत्रित होता है। धारा 8, 9 और 10 में कहा गया है कि जन्म और मृत्यु की सूचना सूचीबद्ध व्यक्तियों द्वारा दी जाएगी। अधिनियम में विलंबित पंजीकरण का भी प्रावधान है और इस प्रक्रिया को अधिनियम की धारा 13 में समझाया गया है। धारा 15 उन परिस्थितियों के बारे में बात करती है, जिनके तहत जन्म व मृत्यु रजिस्टर की किसी प्रविष्टि को सही या रद्द किया जा सकता है। इस खंड के अनुसार जन्म व मृत्यु रजिस्टर की प्रविष्टि में सुधार या रद्द निम्नलिखित परिस्थितियों में किया जा सकता है:
(ए) जब प्रविष्टि फार्म या सबस्टांस में गलत है; और
(b) प्रविष्टि धोखाधड़ी या अनुचित तरीके से की गई है। उपरोक्त घटनाओं की स्थित‌ि में, प्राधिकरण को कारण बताकर सुधार या रद्द करने के लिए आवेदन किया जा सकता है।
उक्त धारा में यह प्रावधान है कि मूल प्रविष्टि में कोई फेरबदल नहीं किया जाएगा और सुधार केवल अधिकारी के हस्ताक्षर के सा‌थ हाशिए पर किया जा सकता है। बेंच ने कहा, "इसलिए, धारा 15 को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि मूल प्रविष्टि को सुधारा / हटाया नहीं जा सकता है और नए विवरणों का समावेश केवल हाशिए पर ही किया जा सकता है।" कोर्ट ने आगे कहा कि तमिलनाडु ने जन्म व मृत्यु अधिनियम, 1969 की धारा 30 के तहत निहित शक्तियों के अनुसरण में तमिलनाडु पंजीकरण और जन्म व मृत्यु संशोधित नियमों को अधिसूचित किया है, जिन्हें जन्म व मृत्यु का तमिलनाडु पंजीकरण नियम, 2000 कहा जाता है। बेंच का विचार था कि जैविक पिता जीवित नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने अपनी बेटी के साथ संबंध तोड़ लिया है। भले ही जैविक/ प्राकृतिक मां ने इस याचिका को दायर करके पहले याचिकाकर्ता को जैविक पिता का स्‍थान देने पर अपनी सहमति दी हो, यह न्यायालय नाबालिग के जैविक / प्राकृतिक पिता के रूप में पहले याचिकाकर्ता के नाम के प्रतिस्थापित करने की अनुमति नहीं दे सकती है।

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/adoption-does-not-sever-relationship-with-biological-father-even-if-he-renounces-right-as-father-madras-hc-161633

Sunday 16 August 2020

हाईकोर्ट द्वारा जारी सामान्य दिशानिर्देश न्यायिक पक्ष से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से ऊपर नहीं हो सकते

 *हाईकोर्ट द्वारा जारी सामान्य दिशानिर्देश न्यायिक पक्ष से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से ऊपर नहीं हो सकते : सुप्रीम कोर्ट* 16 Aug 2020 


       सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के एक मुकदमे का छह माह के भीतर निपटारा करने के आदेश के बावजूद ट्रायल पूरा करने में असफल रहने पर गत शुक्रवार को मध्य प्रदेश की एक स्थानीय अदालत को आड़े हाथों लिया। न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की खंडपीठ ने ट्रायल कोर्ट की ओर से दिये गये उस स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया जिसमें उसने कहा था कि कोरोना महामारी के संकट के कारण फिलहाल केवल अर्जेंट मामलों की ही सुनवाई की जा रही है। शीर्ष अदालत ने गहरी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि सभी से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी नाज-नखरे के उसके आदेश का अक्षरश: पालन करें। 

       निचली कोर्ट ने दलील दी थी कि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कोरेाना काल में राज्य की सभी अदालतों में केवल अर्जेंट मामलों की सुनवाई करने का ही दिशानिर्देश दिया था और इसी के कारण मामले में ट्रायल पूरा नहीं हो सका। तीन सदस्यीय खंडपीठ ने इस दलील को अस्वीकार्य करार देते हुए आगे कहा, "हाईकोर्ट की ओर से जारी सामान्य दिशानिर्देश इस मामले में शीर्ष अदालत के न्यायिक निर्देश से ऊपर कतई नहीं हो सकता। संबंधित अदालत और सभी संबंधित पक्षों से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी नाज-नखरे के तब तक उसके आदेश का अक्षरश: पालन करेंगे, जब तक उसमें कोई छूट नहीं मिल जाती।" 

           यह मामला 15 वर्षीया लड़की के अपहरण एवं उसके साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी अंकित माहेश्वरी की जमानत याचिका से जुड़ा है। आरोपी ने पिछले वर्ष दिसम्बर में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज किये जाने के फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। यद्यपि शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया था, लेकिन इसने ट्रायल कोर्ट को छह माह के भीतर मुकदमे का निपटारा करने का निर्देश जारी किया था। महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की खंडपीठ ने ही गत दिसम्बर में ट्रायल कोर्ट को यह आदेश जारी किया था और शुक्रवार को सुनवाई करने वाली बेंच में भी दोनों जज शामिल थे। 

         शीर्ष अदालत ने संबंधित स्थानीय अदालत को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि इस मामले का निपटारा दिसम्बर 2020 के अंत तक हो जाना चाहिए। कोर्ट ने इस वर्ष के अंत तक आदेश पर अमल संबंधी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री में दाखिल करने का भी निर्देश दिया है। इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को यह निर्देश भी दिया गया है कि वह मध्य प्रदेश हाईकोर्ट को इस बाबत आवश्यक कार्रवाई करने तथा अधीनस्थ अदालतों को उचित स्पष्टीकरण / निर्देश जारी करने के लिए संबंधित आदेश की प्रति अग्रसारित करे। 

         केस का विवरण केस का नाम : अंकित माहेश्वरी उर्फ चिट्टू बनाम मध्य प्रदेश सरकार एवं अन्य केस नं. : एसएलपी (क्रिमिनल) नं. 11315/2019 कोरम : न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना

Saturday 15 August 2020

धारा 146 (1) CrPC कार्यपालक मजिस्ट्रेट की विवादित संपत्ति कुर्क करने की विशेष शक्ति?

*धारा 146 (1) CrPC कार्यपालक मजिस्ट्रेट की विवादित संपत्ति कुर्क करने की विशेष शक्ति?* 15 Aug 2020 


          दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 145, अचल संपत्ति से जुड़े विवादों से संबंधित है, और जब इस विवाद से शांति भंग होने की संभावना हो सकती है, तो इस धारा की उपधारा (1) के तहत कार्यवाही करते हुए एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट के लिए पार्टियों को एक विशिष्ट तिथि और समय पर बुलाने करने की आवश्यकता होती है, ताकि वे उक्त संपत्ति पर अपने संबंधित दावे उसके समक्ष रखें, जिसके संबंध में लोक शांति के उल्लंघन की आशंका है। 

         धारा 145 का यह उद्देश्य है कि यह धारा केवल कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए है और इसके अंतर्गत एक या अन्य पक्षों को कब्जे में रखकर परिशान्ति भंग करने से रोका जाता है, न कि इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को कब्जे से बाहर निकालना है। इस धारा के विषय में हम विस्तार से एक पूर्व के लेख में जानकरी हासिल कर चुके हैं। अचल संपत्ति को लेकर होने वाले विवाद में क्या हैं कार्यपालक मजिस्ट्रेट की शक्तियां मौजूदा लेख में हम संहिता की अगली धारा, यानी की धारा 146 की उपधारा (1) की बात करेंगे। 

        इस धारा के अंतर्गत जब स्थावर संपत्ति (जैसे भूमि या जल) को लेकर विवाद उत्पन्न हो और उन विवादों से समाज के भीतर शांति भंग होने और लोक व्यवस्था भंग होने का खतरा होने हो तो कार्यकारी मजिस्ट्रेट को एक विशेष शक्ति प्रदान की गयी है। आखिर क्या कहती है धारा 146 (1) यह धारा मजिस्ट्रेट को उस परिस्थिति में कार्रवाई करने का अधिकार देती है, जब वह 145 (1) के तहत एक आदेश पारित कर चुका हो और उसे मामला आकस्मिक आवश्यकता के रूप में प्रतीत होता हो या अगर वह जांच के बाद यह तय करता है कि कोई भी पक्ष उक्त संपत्ति के कब्जे में नहीं था (जैसा कि धारा 145 में दिया गया है) या अगर वह खुद को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है कि कौनसा पक्षकार, विवाद के विषय के कब्जे में धारा 145 के अंतर्गत तिथि को था, तो वह उस संपत्ति को अटैच/कुर्क कर सकता है। 

          आगे बढ़ने से पहले, इस धारा को पढ़ लेते हैं जिससे हमे इसे समझने में आसानी हो। धारा 146 (1) यह कहती है कि:- (1) यदि धारा 145 की उपधारा (1) के अधीन आदेश करने के पश्चात् किसी समय मजिस्ट्रेट मामले को आपातिकक (emergency) समझता है अथवा यदि वह विनिश्चय (decides) करता है कि पक्षकारों में से किसी का धारा 145 में यथानिर्दिष्ट कब्जा उस समय नहीं था, अथवा यदि वह अपना समाधान नहीं कर पाता है कि उस समय उनमें से किसका ऐसा कब्जा विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर था तो वह विवाद की विषयवस्तु को तब तक के लिए कुर्क (attach) कर सकता है जब तक कोई सक्षम न्यायालय उसके कब्जे का हकदार व्यक्ति होने के बारे में उसके पक्षकारों के अधिकारों का अवधारण (determined) नहीं कर देता है:  परंतु यदि ऐसे मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि विवाद की विषयवस्तु के बारे में परिशांति भंग (breach of the peace) होने की कोई संभाब्यता (likelihood) नहीं रही तो वह किसी समय भी कुर्की वापस ले सकता है (withdraw the attachment)। धारा का प्रमुख उद्देश्य संहिता की धारा 146 की उप धारा (1) को पढने भर से संहिता की इस धारा की योजना बहुत स्पष्ट हो जाती है। जैसा कि हमने जाना, सामान्य परिस्थितियों में, यदि किसी संपत्ति के संबंध में परिशांति भंग होने की आशंका है, तो पार्टियों को संबंधित मजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित होने और अपने संबंधित दावों को लागू करने की आवश्यकता होती है (धारा 145 के अनुसार)। हालाँकि, धारा 146 की उपधारा 1 के मद्देनजर, यदि धारा 145 (1) के तहत एक आदेश पारित करने के बाद:- 1- मजिस्ट्रेट मामले को आपातिक (emergency) में से एक मानता है, या 2- वह विनिश्चय (decide) करता है कि पक्षकारों में से किसी का धारा 145 में यथानिर्दिष्ट कब्जा उस समय नहीं था, या 3- वह यह समाधान नहीं कर पाता है कि उस समय उनमें से किसका ऐसा कब्जा, विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर था। तीनो ही परिस्थितियों में से किसी एक के मौजूद होने पर वह एक सक्षम न्यायालय के विवाद की विषयवस्तु के संबंध में पार्टियों के अधिकार निर्धारित करने/निर्णय के आने तक, एक कुर्की आदेश पारित कर सकता है। मथुरलाल बनाम भंवरलाल एवं एक अन्य 1979 (4) एससीसी 665 के मामले में, माननीय उच्चतम न्यायालय ने संहिता की धारा 145 और धारा 146 की योजनाओं पर चर्चा की थी और उस मामले में यह देखा था कि उन स्थितियों में, जहां मजिस्ट्रेट यह तय करने में असमर्थ है कि किन पार्टियों का कब्ज़ा विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर था, या जहाँ उसका विचार है कि कोई भी पक्षकार कब्जे में नहीं था, या वह ऐसा करना आवश्यक समझता है तो वह न्यायालय द्वारा पक्षकारों के अधिकारों के निर्धारण तक विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) को संलग्न/कुर्क कर सकता है। आपातिक मामला क्या होगा? गौरतलब है कि धारा 146 को धारा 145, Cr.P.C से अलग नहीं किया जा सकता है। इसे केवल धारा 145 सीआरपीसी के संदर्भ में ही पढ़ा जा सकता है। मसलन, यदि संहिता की धारा 145 के तहत जांच के बाद, मजिस्ट्रेट की राय है कि धारा 145 (1) के तहत पारित आदेश के समय, कोई भी पक्षकार विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) के वास्तविक कब्जे में नहीं था या वह यह तय करने में असमर्थ है कि कौनसी पार्टियों को इस तरह के कब्जे में था, तो वह विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) को कुर्क कर सकता है, जब तक कि एक सक्षम अदालत द्वारा विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) के कब्जे के हकदार व्यक्ति के संबंध में अधिकार का निर्धारण नहीं जाता है। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोड की धारा 145 (1) के तहत आवश्यक सामग्री के होने पर एक आदेश पारित करने के पश्च्यात, संपत्ति का कुर्क होना स्वचालित रूप से आकर्षित नहीं हो सकता है। हां, यह जरुर है कि वह धारा 145 (1) के तहत एक आदेश पारित करने के तुरंत बाद आपातकाल की स्थिति में तुरंत ही 146 (1) के अंतर्गत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए मजिस्ट्रेट संपत्ति कुर्क कर सकता है। वास्तव में, धारा 146 के तहत, मजिस्ट्रेट को खुद को संतुष्ट करना होता है कि क्या आपातिक स्थिति मौजूद है। आपातकाल के एक मामले में, जैसा कि संहिता की धारा 146 के तहत अधिनियमित है, उसे महज़ परिशांति भंग होने की आशंका के एक मामले से अलग किया जाना चाहिए। एक मजिस्ट्रेट को, धारा 146 (1) के तहत एक आदेश पारित करने से पहले, परिस्थितियों को स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वह इसे आपातकाल का मामला क्यों मानता है। दूसरे शब्दों में, आपातकाल की स्थिति का पता लगाने के लिए, मजिस्ट्रेट के सामने रिकॉर्ड पर सामग्री होनी चाहिए, जब पार्टियों द्वारा सबमिशन दायर किया जाता है, दस्तावेजों का उत्पादन किया जाता है या सबूतों को सामने रखा जाता है। अशोक कुमार बनाम उत्तराखंड राज्य (2013) 3 SCC 366 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यहाँ तक माना था कि जब रिपोर्ट्स यह बताती हों कि पार्टियों में से एक, सही या गलत तरीके से विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) के कब्जे में है, तो मजिस्ट्रेट आपातकाल के आधार पर कुर्की का आदेश पारित नहीं कर सकता है। गौरतलब है कि, आपातकालीन स्थिति में, मजिस्ट्रेट धारा 145 (1) के तहत प्रारंभिक आदेश करने के बाद किसी भी समय संपत्ति कुर्क कर सकता है। कार्यवाही को रोकने और प्रारंभिक आदेश को रद्द करने का एकमात्र प्रावधान धारा 145 (5) में पाया जाता है और यह इस आधार पर हो सकता है कि परिशांति भंग होने का कोई खतरा/विवाद होने की संभावना/आशंका अब मौजूद नहीं है। जब कब्जे को लेकर विवाद हो गौरतलब है कि जहाँ आपातिक स्थिति हो, वहां तो 145 (1) के तहत आदेश के तुरंत बाद ही कुर्की का एक आदेश दिया जा सकता है। हालाँकि, जहाँ कब्जे को लेकर विवाद हो, मसलन निम्नलिखित 2 परिस्थितियां मौजूद हों, तो 146 (1) के तहत कुर्की का आदेश, 145 (1) के आदेश के तुरंत बाद नहीं दिया जा सकता। वे 2 परिस्थितियां हैं:- 1- जब मजिस्ट्रेट विनिश्चय (decide) करता है कि पक्षकारों में से किसी का धारा 145 में यथानिर्दिष्ट कब्जा उस समय नहीं था, या 2- जब वह यह समाधान नहीं कर पाता है कि उस समय उनमें से किसका ऐसा कब्जा, विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर था। इसका मुख्य कारण यह है कि धारा 145 (1) के तहत दिए गए एक आदेश के आखिरी स्तर/स्टेज [मसलन धारा 145 (4) का स्तर] पर ही एक कार्यपालक मजिस्ट्रेट यह तय कर पायेगा कि किसी व्यक्ति/पक्षकार का वास्तव में विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर कब्ज़ा था अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में, जब तक धारा 145 (1) के तहत दिए गए आदेश के अनुपालन में मजिस्ट्रेट के समक्ष पक्षकार प्रस्तुत होकर अपने दावे नहीं पेश कर देते, तब तक एक मजिस्ट्रेट के लिए कब्जे को लेकर विवाद के सम्बन्ध में एक निर्णय लेना संभव नहीं होगा। एक बार जब पक्षकार मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होकर अपने दावे प्रस्तुत कर देते हैं उसके बाद ही मजिस्ट्रेट यह तय कर पाता है कि निम्नलिखित 2 परिस्थितियां मौजूद हैं यहाँ या नहीं। यानी कि:- 1- क्या पक्षकारों में से किसी का धारा 145 में यथानिर्दिष्ट कब्जा उस समय नहीं था, या 2- उस समय उनमें से किसका ऐसा कब्जा, विवाद की विषयवस्तु (subject of dispute) पर था यह वह मजिस्ट्रेट रिकार्ड्स जांच कर तय नहीं कर पाता। इसके पश्च्यात, वह कुर्की (attachment) का आदेश दे सकता है। अंत में, इस धारा के परंतुक (proviso) के अनुसार, यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को यह समाधान हो जाता है कि विवाद की विषयवस्तु के बारे में परिशांति भंग (breach of the peace) होने की कोई संभाब्यता (likelihood) नहीं रही तो वह किसी समय भी कुर्की आदेश को वापस ले सकता है (can withdraw the attachment order)।

Thursday 13 August 2020

बेटियों का पिता, दादा और परदादा की संपत्तियों में 1956 से ही बेटों जैसा अधिकार होगा

 *बेटियों को पैतृक संपत्ति में हक पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, विनीता विरुद्ध राकेश शर्मा 11 अगस्त 2020* संकलनकर्ता लालाराम मीणा पूर्व न्यायाधीश भोपाल


       सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पैतृक संपत्ति के बंटवारे में पुरुषों की प्राथमिकता को सिरे से खत्म करते हुए मंगलवार 11 अगस्त 2020 को एक बड़ा फैसला दिया। कोर्ट ने कहा कि *बेटियों का पिता, दादा और परदादा की संपत्तियों में 1956 से ही बेटों जैसा अधिकार होगा।* 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू हुआ था।


         सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने मंगलवार को पैतृक संपत्ति में बेटियों के हक पर बड़ा फैसला दिया। इसके साथ ही पीठ ने कहा कि *यह लैंगिक समानता हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम है।* हालांकि, पीठ ने कहा कि इसमें देरी हो गई। इसने कहा, 'लैंगिक समानता का संवैधानिक लक्ष्य देर से ही सही, लेकिन पा लिया गया है और विभेदों को 2005 के संशोधन कानून की धारा 6 के जरिए खत्म कर दिया गया है। पारंपरिक शास्त्रीय हिंदू कानून बेटियों को हमवारिस होने से रोकता था जिसे संविधान की भावना के अनुरूप प्रावधानों में संशोधनों के जरिए खत्म कर दिया गया है।' 


आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर 10 बड़े सवालों के जवाब...


1. *सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?*


सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का बेटों के बराबर अधिकार होता है। उसने पैतृक संपत्ति पर बेटियों को अधिकार को जन्मजात बताया। मतलब, बेटी के जन्म लेते ही उसका अपने पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार हो जाता है, ठीक वैसे जैसे एक पुत्र जन्म के साथ ही अपने पिता की पैतृक संपत्ति का दावेदार बन जाता है।


*2. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा क्यों कहा?*


सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल उठा कि क्या हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 के प्रावधानों को पिछली तारीख (बैक डेट) से प्रभावी माना जाएगा? इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हां, यह बैक डेट से ही लागू है। 121 पन्नों के अपने फैसले में तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा, 'हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 की संशोधित धारा 6 संशोधन से पहले या बाद जन्मी बेटियों को हमवारिस (Coparcener) बनाती है और उसे बेटों के बराबर अधिकार और दायित्व देती है। बेटियां 9 सितंबर, 2005 के पहले से प्रभाव से पैतृक संपत्ति पर अपने अधिकार का दावा ठोक सकती हैं।'


3. 9 सितंबर, 2005 का मामला क्यों उठा?


इस तारीख को हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2005 लागू हुआ था। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 से अस्तित्व में है जिसे 2005 में संशोधित किया गया था। चूंकि 2005 के संशोधित कानून में कहा गया था कि इसके लागू होने से पहले पिता की मृत्यु हो जाए तो बेटी का संपत्ति में अधिकार खत्म हो जाता है। यानी, अगर पिता संशोधित कानून लागू होने की तारीख 9 सितंबर, 2005 को जिंदा नहीं थे तो बेटी उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं मांग सकती है।


4. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में वर्ष 1956 का जिक्र क्यों?


जैसा कि ऊपर बताया गया है- हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 में ही आया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 की धारा 6 की व्याख्या करते हुए कहा कि बेटी को उसी वक्त से पिता की पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया जबसे बेटे को मिला था, यानी साल 1956 से।


5. 20 दिसंबर, 2004 का जिक्र क्यों?


सुप्रीम कोर्ट ने बेटी को पिता की पैतृक संपत्ति में 1956 से हकदार बनाकर 20 दिसंबर, 2004 की समयसीमा इस बात के लिए तय कर दी कि अगर इस तारीख तक पिता की पैतृक संपत्ति का निपटान हो गया तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। मतलब, 20 दिसंबर, 2004 के बाद बची पैतृक संपत्ति पर ही बेटी का अधिकार होगा। उससे पहले संपत्ति बेच दी गई, गिरवी रख दी गई या दान में दे दी गई तो बेटी उस पर सवाल नहीं उठा सकती है। दरअसल, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) कानून, 2005 में ही इसका जिक्र है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को सिर्फ दोहराया है।


*6. क्या बेटों के अधिकार पर ताजा फैसले का कोई असर होगा?*


कोर्ट ने संयुक्त हिंदू परिवारों को हमवारिसों को ताजा फैसले से परेशान नहीं होने की भी सलाह दी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा, 'यह सिर्फ बेटियों के अधिकारों को विस्तार देना है। दूसरे रिश्तेदारों के अधिकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। उन्हें सेक्शन 6 में मिले अधिकार बरकरार रहेंगे।'


7. क्या बेटी की मृत्यु हो जाए तो उसके बच्चे नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग सकते हैं?


इस बात पर गौर करना चाहिए कि कोर्ट ने पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार दिया है। अब इस सवाल का जवाब पाने कि लिए एक और सवाल कीजिए कि क्या पुत्र की मृत्यु होने पर उसके बच्चों का दादा की पैतृक संपत्ति पर अधिकार खत्म हो जाता है? इसका जवाब है नहीं। अब जब पैतृक संपत्ति में अधिकार के मामले में बेटे और बेटी में कोई फर्क ही नहीं रह गया है तो फिर बेटे की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार कायम रहे जबकि बेटी की मृत्यु के बाद उसके बच्चों का अधिकार खत्म हो जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? मतलब साफ है कि बेटी जिंदा रहे या नहीं, उसका पिता की पैतृक संपत्ति पर अधिकार कायम रहता है। उसके बच्चे चाहें कि अपने नाना से उनकी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी ली जाए तो वो ले सकते हैं।


*8. पैतृक संपत्ति क्या है?*


 *पैतृक संपत्ति में ऊपर की तीन पीढ़ियों की संपत्ति शामिल होती है। यानी, हमारी पैतृक संपत्ति वह है जो हमारे पिता को उनके पिता यानी दादा से और दादा को उनके पिता यानी परदादा से मिली संपत्ति हमारी पैतृक संपत्ति है।* पैतृक संपत्ति में पिता द्वारा अपनी कमाई से अर्जित संपत्ति शामिल नहीं होती है। इसलिए उस पर पिता का पूरा हक रहता कि वो अपनी अर्जित संपत्ति का बंटवारा किस प्रकार करें। *पिता चाहे तो अपनी अर्जित संपत्ति में बेटी या बेटे को हिस्सा नहीं दे सकता है, कम-ज्यादा दे सकता है या फिर बराबर दे सकता है।* अगर पिता की मृत्यु बिना वसीयतनामा लिखे हो जाए तो फिर बेटी का पिता की अर्जित संपत्ति में भी बराबर की हिस्सेदारी हो जाती है।


9. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में क्या कहा?


केंद्र सरकार ने भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के जरिए पैतृक संपत्ति में बेटियों की बराबर की हिस्सेदारी का जोरदार समर्थन किया। केंद्र ने कहा कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जस्टिस मिश्रा ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि बेटियों के जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब है कि उसके अधिकार पर यह शर्त थोपना कि पिता का जिंदा होना जरूरी है, बिल्कुल अनुचित होगा। बेंच ने कहा, 'बेटियों को जन्मजात अधिकार है न कि विरासत के आधार पर तो फिर इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है कि हिस्सेदारी में दावेदार बेटी का पिता जिंदा है या नहीं।'


10. बेटियां ताउम्र प्यारी... जैसी कौन सी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने की?


सुप्रीम कोर्ट ने अभी अपनी तरफ से इस पर कुछ नहीं कहा। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए गए फैसले के वक्त ही कही थी। तीन सदस्यीय पीठ के अध्यक्ष जस्टिस अरुण मिश्रा ने इसे दोहराया। उन्होंने कहा, 'बेटा तब तक बेटा होता है जब तक उसे पत्नी नहीं मिलती है। बेटी जीवनपर्यंत बेटी रहती है।' तीन सदस्यीय पीठ में जस्टिस एस. अब्दुल नजीर और जस्टिस एमआर शाह भी शामिल थे।

Wednesday 12 August 2020

अभियुक्त के पास ज़मानतदार नहीं हो तब क्या करें, क्या है प्रावधान 12 Aug 2020

 जब अभियुक्त के पास ज़मानतदार नहीं हो तब क्या करें, क्या है प्रावधान 12 Aug 2020 

 संपूर्ण भारत में कोई अभियुक्त किसी अन्य स्थान पर निवास करता है और किसी अन्य स्थान पर कोई अपराध घटित हो जाता है, जहां अपराध घटित होता है वहां अभियुक्त पर अन्वेषण ( Investigation), जांच (Inquiry) और विचारण (Trial) की कार्यवाही होती है। ऐसे में दूरस्थ स्थानों के व्यक्तियों को भी अभियुक्त बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति कलकत्ता में रहता है और उसे चेन्नई में किसी अपराध में अभियुक्त बनाकर कार्यवाही की जा रही है। 

 ज़मानत नियम है तथा जेल अपवाद है। किसी भी व्यक्ति को जब किसी प्रकरण में अभियुक्त बनाया जाता है तो न्यायालय का प्रयास होता है कि उस व्यक्ति को विचाराधीन (Under trial) रहने तक ज़मानत पर छोड़ा जाए। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है कि अभियुक्त के पास कोई ज़मानतदार (Surety) नहीं होता है तथा अभियुक्त अकेला पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में अभियुक्त को न्यायालय द्वारा जमानत के आदेश दे दिए जाने के उपरांत भी कारागार में रहना होता है क्योंकि अभियुक्त को जितनी राशि के बंधपत्र पर ज़मानतदार (प्रतिभू) सहित पेश करने को कहा जाता है वह पेश नहीं कर पाने में असमर्थ होता है।  दूर के स्थानों के रहने वाले या फिर ऐसे व्यक्ति जिनके अपने कोई मित्र और संबंधी ज़मानत नहीं लेते हैं तथा प्रकरण में प्रतिभू नहीं बनते है, उनके लिए ज़मानतदार प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन होता है। भारतीय न्याय व्यवस्था अत्यंत समृद्ध और उदार है। इस विकट परिस्थिति से निपटने हेतु दंड प्रक्रिया संहिता में भी धारा 445 के अंतर्गत स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने अभिषेक कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य के हाल ही के एक प्रकरण में जस्टिस अनूप चीत्कारा ने कहा कि-  "ज़मानत के लिए गिड़गिड़ाना तथा किसी व्यक्ति से अपने प्रकरण में प्रतिभू बनने हेतु निवेदन करना अपनी गरिमा एवं प्रतिष्ठा को ठेंस पहुंचाने जैसा है। यह गरिमा एवं प्रतिष्ठा किसी व्यक्ति को संविधान के अंतर्गत दिए गए मूल अधिकारों में निहित है। यदि ऐसी गरिमा और प्रतिष्ठा पर कानून के किसी नियम के कारण कोई प्रहार हो रहा है तो ऐसी परिस्थिति में व्यक्तियों के इस अधिकार को संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है तथा न्यायालय को इस बात को बढ़ावा देना चाहिए कि उन मामलों में जिनमें अभियुक्त कोई प्रतिभू प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है कोई राशि निक्षेप (डिपॉजिट) करवा लें। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 के अंतर्गत इस संबंध में संपूर्ण प्रावधान दिए गए हैं।"

क्या है सीआरपीसी की धारा 445 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 445 के शब्दों के अनुसार- "जब किसी व्यक्ति से किसी न्यायालय या अधिकारी द्वारा प्रतिभू सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करने की अपेक्षा की जाती है तब वह न्यायालय या अधिकारी उस दशा में जब वह बंधपत्र सदाचार के लिए नहीं है, उसे ऐसे बंधपत्र के निष्पादन के बदले में जितनी धनराशि के सरकारी वचन पत्र वह न्यायालय या अधिकारी नियत करें निक्षेप करने की अनुज्ञा दे सकता है।" सीआरपीसी (Crpc) 1973 की यह धारा इस बात का स्पष्ट उल्लेख कर रही है कि यदि कोई व्यक्ति मुचलके के बजाय निक्षेप (Deposit) देना चाहता है तो न्यायालय उसे ऐसा करने की अनुज्ञा दे सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 अभियुक्त को अनुज्ञा दे रही है कि वह प्रतिभू सहित यह रहित बंधपत्र के बदले में न्यायालय और पुलिस अधिकारी दोनों ही के द्वारा निर्धारित रकम या सरकारी नोटों की राशि का निक्षेप कर सकता है। इस धारा का यह अपवाद भी है कि सदाचरण के लिए बंधपत्र की दशा में यह उपबंध लागू नहीं होता है। यह एक हितकारी प्रावधान है ताकि ऐसा अभियुक्त जो उस स्थान पर अजनबी है, जहां उसकी गिरफ्तारी की जा रही है, स्वयं को गिरफ्तारी से बचा सके तथा ज़मानतदार नहीं होने पर कोई निक्षेप दे सके। एडमंड स्चुस्टर बनाम सहायक कलेक्टर कस्टम्स एआईआर 1967 पंजाब 189 के मामले में कहा गया है कि यह धारा की व्यवस्था केवल अभियुक्त के प्रति ही लागू होगी तथा प्रतिभूओ के लिए इसका प्रयोग नहीं किया जा सकेगा। अर्थात इस धारा के अंतर्गत यह नहीं हो सकता कि कोई प्रतिभू जिसके पास कोई निश्चित धनराशि का कोई साक्ष्य नहीं हो तो वह प्रतिभू नकद धनराशि सरकार के वचन पत्र में जमा कर दे। ज्ञातव्य है कि किसी प्रतिभू को उस समय जब वह किसी अभियुक्त की बंधपत्र पर जमानत लेता है तो ऐसी स्थिति में उसे न्यायालय द्वारा जमानत के संबंध में दिए गए आदेश की रकम के जितने साक्ष्य प्रस्तुत करना होते हैं। जैसे यदि किसी किसी अभियुक्त को ₹100000 के बंधपत्र पर जमानत दी जा रही है तो ऐसे अभियुक्त के प्रतिभू को ₹100000 की धनराशि का कोई साक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। लक्ष्मण लाल बनाम मूलशंकर 1908 बॉम्बे के पुराने मामले में यह कहा गया है कि इस धारा में प्रयुक्त शब्द बदले में से पर्याय के निक्षेप की जाने वाली नकद रकम बंधपत्र के बदले में होगी ना कि बंधपत्र में उल्लेखित राशि के अतिरिक्त होगी। इस धारा का मुख्य उद्देश्य ऐसे अभियुक्त को रियायत प्रदान करना है जो प्रतिभू प्रस्तुत करने में असमर्थ है। किस धारा के अंतर्गत न्यायालय कोई भी ऐसी आयुक्तियुक्त राशि नहीं मांगता है, जिस राशि को कोई अभियुक्त सरकारी वचन पत्र में जमा नहीं कर सकता है। किसी भी अभियुक्त की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ही उससे सरकारी वचन पत्र में किसी राशि को जमा करने हेतु कहा जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 445 के अंतर्गत न्यायालय को यह शक्ति अपने विवेकाधिकार के अधीन प्राप्त हैं। यदि न्यायालय चाहे तो ही इस शक्ति का प्रयोग करेगा। यदि न्यायालय की दृष्टि में किसी अभियुक्त से बंधपत्र लिया जाना आवश्यक है तथा किसी अभियुक्त को बगैर प्रतिभू के नहीं छोड़ा जा सकता तो न्यायालय इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को राहत प्रदान नहीं करता है। अभिषेक कुमार के हाल ही के मुकदमे में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों को इस प्रकार के निक्षेप पर अभियुक्त को छोड़े जाने हेतु बल देते हुए निर्देशित किया है।


https://hindi.livelaw.in/know-the-law/what-to-do-when-the-accused-does-not-have-surety-what-is-the-provision-161299

90 दिनों अवधि चूकने के बाद दाखिल हुई फाइनल रिपोर्ट, इससे पहले ही डिफॉल्ट जमानत 167(2) के लिए याचिका

 

*'90 दिनों अवधि चूकने के बाद दाखिल हुई फाइनल रिपोर्ट, इससे पहले ही डिफॉल्ट जमानत के लिए याचिका दायर हुई ': मद्रास हाईकोर्ट ने हत्या के आरोपी को रिहा किया 12 Aug 2020*
       यह देखते हुए कि अंतिम रिपोर्ट (Final Report) 90 दिनों की वैधानिक अवधि के बाद ही दायर की गई है और अंतिम रिपोर्ट दायर करने से पहले ही, याचिकाकर्ता ने निचली अदालत में डिफ़ॉल्ट जमानत की मांग की थी, मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि पिछले हफ्ते 5 महीने से हिरासत में रहे हत्या का एक आरोपी को सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत जमानत पाने का हकदार है। न्यायमूर्ति वी भारतीदासन ने कहा कि घटना 06.03.2020 को हुई है और याचिकाकर्ता को *08.03.2020 को गिरफ्तार किया गया और उसे 09.03.2020 को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया* और अब वह लगभग पांच महीने से जेल में है। एकल न्यायाधीश ने कहा  कि *धारा 167 (2) के तहत 90 दिनों की वैधानिक अवधि 07.06.2020 को पूरी हो गई है,* हालांकि, प्रतिवादी पुलिस ने संबंधित अदालत के समक्ष अंतिम रिपोर्ट 18.06.2020 को दाखिल की है
        एकल पीठ ने याचिकाकर्ता के प्रस्तुतिकरण पर ध्यान दिया कि 90 दिनों की समाप्ति के बाद और प्रतिवादी पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट (Final Report) दाखिल करने से पहले ही जमानत याचिका दायर की गई थी, लेकिन मजिस्ट्रेट की अदालत ने ज़मानत याचिका खारिज कर दी। तदनुसार, न्यायमूर्ति भारतीदासन ने सरकारी अधिवक्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि प्रतिवादी पुलिस ने जांच पूरी कर ली है और 18.06.2020 को संबंधित अदालत के समक्ष अंतिम रिपोर्ट दायर की है, और इसलिए वह वैधानिक जमानत का हकदार नहीं हैं।
      दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत प्रावधान को लागू करने की मांग कर रहा है, इस आधार पर कि 90 दिनों की समाप्ति के बाद भी, प्रतिवादी पुलिस द्वारा कोई अंतिम रिपोर्ट दायर नहीं की गई। एकल पीठ ने कहा "दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 पुलिस अधिकारी को 24 घंटे तक आरोपी को हिरासत में लेने का अधिकार देती है। हालांकि, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 में संशोधन के अनुसार मजिस्ट्रेट को आरोपी को पूरे पंद्रह दिनों से अधिक हिरासत में देने का अधिकार नहीं है । धारा 167 में मजिस्ट्रेट को एक व्यक्ति को हिरासत में लेने का भी अधिकार है, जबकि पुलिस द्वारा जांच की जा रही हो और इसके लिए अधिकतम अवधि निर्धारित की गई है,जिसके लिए ऐसी हिरासत का आदेश दिया जा सकता है।
       हालांकि, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) अभियुक्त को अधिकार भी प्रदान करती है जिसमें हिरासत में दी गई अधिकतम अवधि की समाप्ति के बाद उसे जमानत पर रिहा किया जा सकता है।" "माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में स्पष्ट रूप से माना है कि धारा 167 की उप-धारा (2) प्रोविज़ो को अनिश्चित काल के लिए जांच को लम्बा खींचने के लिए एक लाभदायक प्रावधान है, जो अंततः एक नागरिक की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है।"
        पीठ ने खंडपीठ के फैसले को प्रतिबिंबित करते हुए दोहराया कि *धारा 167 (2) के तहत जमानत का अधिकार एक अपरिहार्य अधिकार है* और यह अभियोजन पक्ष द्वारा असफल नहीं किया जा सकता। पीठ ने कहा, *"किसी भी प्रावधान के अभाव में अदालत को अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं होने के कारण अदालत उस अवधि का विस्तार नहीं कर सकती,* जिसके भीतर किसी भी कारण से जांच पूरी होनी चाहिए। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित वैधानिक अवधि की समाप्ति के बाद अभियुक्त को हिरासत में नहीं रखा जा सकता।"
*न्यायमूर्ति भारतीदासन ने शीर्ष अदालत के 19 जून के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि सरकार के लॉकडाउन प्रतिबंधों के मद्देनज़र सीमा अवधि बढ़ाने के उसका आदेश आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत डिफ़ॉल्ट जमानत लेने के लिए किसी आरोपी के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा।*
          इस प्रकार जस्टिस अशोक भूषण,जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यम की बेंच ने एस कासी बनाम पुलिस इंस्पेक्टर के माध्यम से राज्य में मद्रास उच्च न्यायालय की एकल पीठ के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि CrPC की धारा 167 (2) के तहत आरोप पत्र दायर करने की समय सीमा भी लॉकडाउन प्रतिबंध के कारण सुप्रीम कोर्ट के सीमा अवधि विस्तार के आदेश के कारण विस्तारित हो जाएगी। मद्रास उच्च न्यायालय के इस फैसले के कारण यह था कि वर्तमान मामले में मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता की डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए प्रार्थना को खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति भारतीदासन ने कहा, *"अभी हाल ही में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने क्रिमिनल अपील संख्या 452/ 2020 ( SLP ( CRL.NO.2433 / 2020) [ एस कासी बनाम पुलिस इंस्पेक्टर के माध्यम से समयनाल्लुरपुर पुलिस स्टेशन, जिला मदुरै] 19.06.2020 को विभिन्न अन्य निर्णयों पर विचार करने के बाद, ये निर्णय सुनाया गया जिसमें यह माना गया कि एक अभियुक्त को पुलिस द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के तहत निर्धारित अधिकतम अवधि से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।"* तदनुसार, एकल पीठ का विचार था कि अंतिम रिपोर्ट 90 दिनों के अंतराल के बाद दायर की गई थी और अंतिम रिपोर्ट दायर करने से पहले ही, याचिकाकर्ता ने अदालत से जमानत की मांग की थी, इसलिए याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा होने का अधिकार है।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/final-report-filed-only-after-lapse-of-90-days-even-before-which-plea-for-default-bail-filed-madras-hc-releases-murder-accused-161334

Friday 7 August 2020

सीपीसी : ऑर्डर VII नियम 10 एवं 10ए वाद लौटाये जाने पर उसे नये सिरे से सुना जाएगा

 सीपीसी : ऑर्डर VII नियम 10 एवं 10ए वाद लौटाये जाने पर उसे नये सिरे से सुना जाएगा : सुप्रीम कोर्ट 7 Aug 2020 

       सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि यदि नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के ऑर्डर VII नियम 10 और 10ए के तहत किसी वाद को समुचित अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए वापस किया जाता है, तो मुकदमा नये सिरे से आगे बढ़ेगा। संदर्भ न्यायमूर्ति रोहिंगटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ इस बाबत एक संदर्भ का जवाब दे रही थी। गत वर्ष न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने 'तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड बनाम मॉडर्न कंस्ट्रक्शन [(2014) 1 एससीसी 648]' तथा 'जोगिन्दर तुली बनाम एस एल भाटिया [(1997) 1 एससीसी 502]' मामलों में दिये गये फैसलों के बीच स्पष्ट विरोधाभास के मद्देनजर कहा था कि इस मसले पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। यह कहा गया था कि जब तक कोई पक्षकार यह साबित नहीं करता कि बगैर अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट के समक्ष मुकदमे की सुनवाई किया जाना वास्तविक तौर पर पूर्वग्रह से ग्रसित है, तब तक उस मुकदमे की समुचित अदालत में नये सिरे से सुनवाई व्यापक हित में नहीं होगी। 

             'मॉडर्न कंस्ट्रक्शन' मामले में पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है बेंच ने संदर्भ का जवाब देते हुए कहा कि दोनों फैसलों के बीच कोई विभेद नहीं है। इसने कहा कि जैसा कि जोगिन्दर तुली मामले में कानून को लेकर कोई चर्चा नहीं है, इसलिए इसका कानून के तौर पर कोई अधिमान मूल्य नहीं है। बेंच ने कहा : "हम संबंधित कानून पर विचार करने के बाद मॉडर्न कंस्ट्रक्शन और जोगिन्दर तुली मामलों में दिये गये फैसलों में कोई विरोधाभास नहीं पाते हैं और हमें इस पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं महसूस होती है। 'मॉडर्न कंस्ट्रक्शन' मामले में कानून की प्रामाणिक व्याख्या की गयी है। हम तदनुसार संदर्भ का जवाब देते हैं।" 

              'ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम तेजपारस एसोसिएट्स एंड एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड' का फैसला निष्प्रभावी कोर्ट ने ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड [(2019) 9 एससीसी 435] मामले में दिये गये उस फैसले को भी खारिज कर दिया, जिसमें सीपीसी में 1997 में संशोधन के जरिये ऑर्डर VII में नियम 10ए जोड़े जाने के मद्देनजर कहा गया था कि यह नहीं कहा जा सकता कि सभी परिस्थितियों में किसी समुचित अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए लौटाये गये वाद को नयी फाइलिंग के तौर पर विचार किया जायेगा। 

          बेंच ने कहा कि सीपीसी के ऑर्डर VII नियम 10ए की भाषा नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 24(2) और 25(3) की भाषा के विपरीत है। "सांविधिक व्यवस्था अब स्पष्ट हो गयी है। अधिकार क्षेत्र वाले एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट में मुकदमे को हस्तांतरित किये जाने से जुड़े मामलों में कोर्ट के पास धारा 24(2) और 25(3) के तहत विशेषाधिकार मौजूद है कि उस मामले की सुनवाई नये सिरे से शुरू होगी या उस बिंदु से जहां तक सुनवाई पहुंच चुकी थी या याचिका वापस ले लिया गया था, लेकिन ऑर्डर VII नियम 10 और 10ए के तहत ऐसा विशेषाधिकार नहीं दिया गया है और मुकदमा नये सिरे से ही आगे बढ़ेगा।" 

            'मॉडर्न कंस्ट्रक्शन' [(2014)1 एससीसी 648] निर्णय इस फैसले में यह व्यवस्था दी गयी थी कि ऐसी स्थिति में, सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट के समक्ष वाद प्रस्तुत किये जाने के बाद उसे नये वाद के रूप में मानकर उसका ट्रायल नये सिरे से किया जाएगा, भले ही बगैर अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट में उसकी सुनवाई पूरी ही क्यों न हो गयी हो। कोर्ट ने इस प्रकार कहा था, "जिस अदालत में केस लगाया गया था और उसका मानना है कि उसे सुनने का अधिकार नहीं है, तो उस वाद को सीपीसी के ऑर्डर 7 नियम 10 के प्रावधानों के मद्देनजर लौटाया जाता है और वादी इसे सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रकार के तथ्यात्मक सांचे में, वादी परिसीमन अधिनियम की धारा 14 के प्रावधानों के मद्देनजर बगैर अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट के समक्ष गंवाये समय को लिमिटेशन पीरियड से अलग रखे जाने का हकदार है, साथ ही वादी कोर्ट फीस के तौर पर चुकायी गयी रकम को भी समायोजित करने की मांग कर सकता है। हालांकि, सक्षम अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत वाद को नया वाद समझा जाता है और उसकी सुनवाई नये सिरे से होती है, भले ही संबंधित वाद बगैर अधिकार क्षेत्र वाले कोर्ट ने सुनवाई पूरी ही क्यों न कर ली हो।" केस का नाम : मेसर्स ईएक्सएल कैरियर्स बनाम फ्रैंकफिन एविएशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटैड केस नं. : सिविल अपील नं. 2904/2020 कोरम : न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी वकील: सीनियर एडवोकेट मनोज स्वरूप और पी. एस. पटवाली


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/order-vii-rule-10-10a-cpc-suit-in-new-court-has-to-proceed-de-novo-on-return-of-plaint-sc-161086

Tuesday 4 August 2020

NDPS मे छोटी या व्यावसायिक मात्रा

*NDPS मे छोटी या व्यावसायिक मात्रा - पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पेशल जज को ड्रग्स के वजन में ' तटस्थ पदार्थ' को शामिल करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आगाह किया 4 Aug 2020*

      पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक विशेष न्यायाधीश को कानून में नवीनतम घटनाओं की जानकारी नहीं रखने के लिए आगाह किया। न्यायमूर्ति रेखा मित्तल की एकल पीठ ने NDPS अधिनियम के तहत अपराधों का ट्रायल करने वाले विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित जमानत के आदेश को ध्यान में रखते हुए टिप्पणी की: "विशेष न्यायाधीश ने या तो खुद को कानून की नवीनतम स्थिति से अपडेट नहीं रखा या माननीय सर्वोच्च न्यायालय हीरा सिंह और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य, 2020 (2) RCR ( क्रिमिनल ) 523, के नवीनतम फैसले के आलोक में मामले की जांच करने की जहमत नहीं उठाई।… "       
         अदालत NDPS एक्ट के तहत दर्ज एक मनदीप सिंह की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस मामले में शामिल मुद्दों में से एक था कि क्या प्रतिबंधित दवा की जब्ती को एक वाणिज्यिक या गैर-वाणिज्यिक मात्रा के रूप में लिया जाए।
         याचिकाकर्ता-अभियुक्त, और उसके सह-अभियुक्त गुरप्रीत सिंह के पास से 420 लोमोटिल की गोलियां और 420 अल्प्रैक्स 05 टैबलेट (मिश्रित सॉल्ट युक्त दोनों पदार्थ) कब्जे में लिया गया था। विशेष न्यायाधीश ने उत्तरार्द्ध की जमानत याचिका को अनुमति दी थी कि अलग-अलग सॉल्ट के कारण, सामग्री गैर वाणिज्यिक सीमा के भीतर आती है। 
       उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि विशेष न्यायाधीश ने तय कानून को मिटा दिया है क्योंकि यह स्थिति है कि एक या एक से अधिक तटस्थ पदार्थ के साथ मादक पदार्थों या नशीले पदार्थों के मिश्रण को जब्त करने के मामले में तटस्थ पदार्थ की मात्रा नशीली दवाओं या मादक पदार्थों की छोटी या व्यावसायिक मात्रा का निर्धारण करते हुए, इस दवा के वजन को वास्तविक सामग्री के साथ-साथ बाहर रखा जाना चाहिए। इस मामले को हीरा सिंह के मामले में इस साल अप्रैल में शीर्ष अदालत की 3-न्यायाधीशों की बेंच ने निपटाया था। 
          NDPS अधिनियम के उद्देश्यों और कारणों के बयान को ध्यान में रखते हुए, शीर्ष न्यायालय ने कहा था, "तटस्थ पदार्थ की मात्रा को बाहर करना और आपत्तिजनक दवा के वजन से केवल वास्तविक सामग्री पर विचार करना विधायिका का उद्देश्य कभी नहीं था, इसके लिए यह निर्धारित करने का उद्देश्य प्रासंगिक है कि क्या यह छोटी मात्रा या वाणिज्यिक मात्रा का गठन करेगा।" पीठ ने यह भी कहा कि दवाओं को ज्यादातर मिश्रण के रूप में बेचा जाता है, और कभी भी शुद्ध रूप में नहीं बेचा जाता। इस मामले के माध्यम से, जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने 2008 के फैसले ई मिचेल राज बनाम इंटेलिजेंस ऑफिसर, नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो को रद्द कर दिया, जिसने माना था कि NDPS अधिनियम के तहत मिश्रण में दवा का केवल वास्तविक वजन ही मायने रखेगा और तटस्थ पदार्थों के वजन को बाहर रखा जा सकता है।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/ph-hc-reminds-special-judge-of-sc-order-for-inclusion-of-neutral-substances-in-drug-weight-160939


Monday 3 August 2020

NI एक्ट की धारा 138 : चेक पर लिखी राशि अनिश्चित है, तो ऐसा चेक वैध नहीं है

NI एक्ट की धारा 138 : चेक पर लिखी राशि अनिश्चित है, तो ऐसा चेक वैध नहीं है : दिल्ली की अदालत  4 Aug 2020 

          दिल्ली की एक अदालत ने माना है कि एक उपकरण को एक चेक के रूप में नहीं कहा जा सकता है, अगर यह किसी निश्चित व्यक्ति को भुगतान की जाने वाली धन की "निश्चित राशि" निर्दिष्ट नहीं करता है। इस प्रकार, यदि उपकरण पर लिखी गई राशि "बेतुकी" है, तो इसे 'चेक' नहीं कहा जा सकता है और यह निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के तहत कोई कानूनी परिणाम नहीं देगा। ये अवलोकन पटियाला हाउस कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रवीण सिंह ने NI अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही में एक अभियुक्त की पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए किया। 

         वर्तमान मामले में, "चवालिस लाख अठारह लाख आठ सौ नब्बे केवल" की राशि के लिए विचाराधीन चेक तैयार किया गया था। इस प्रकार यह बैंक द्वारा इस कारण से बाउंस किया गया था कि जांच में " शब्दों और आंकड़ों में तैयार / राशि अनियमित रूप से भिन्न है।" पुनरीक्षण याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि पूर्वोक्त राशि का पता नहीं लगाया जा सकता है और इस प्रकार जो दस्तावेज बैंक के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, वह न तो बिल और न ही NI अधिनियम की धारा 5 और 6 के तहत एक चेक था, और NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध को आकर्षित नहीं किया जा सकता है। 
          दूसरी ओर प्रतिवादी-शिकायतकर्ता ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता अपने स्वयं के गलत का फायदा नहीं उठा सकता है। जब उसने चेक में एक गलत और असंगत राशि भरी थी, राशि को शब्दों में वर्णित करते हुए, "गलत इरादे" से किया था। यह भी बताया गया कि याचिकाकर्ता को एक वैध कानूनी नोटिस दिया गया था और उसके बावजूद, उसने न तो राशि का भुगतान किया, न ही एक नया चेक जारी करने की पेशकश की और इसलिए *मेसर्स लक्ष्मी डाइचेम बनाम गुजरात राज् , (2012) 13 SCC 375, में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय* इस मामले को पूरी तरह से कवर करता है। परीक्षण - परिणाम न्यायालय ने पाया कि एक उपकरण को जांच के लिए, उसे NI अधिनियम के तहत मान्य होने की निम्नलिखित पांच शर्तों को पूरा करना होगा: 
1. लेखन में एक साधन; 
2. निर्माता द्वारा हस्ताक्षरित बिना शर्त आदेश को बनाए रखना; 
3. भुगतान करने के लिए एक निश्चित व्यक्ति को निर्दिष्ट करना; 
4. एक निश्चित राशि और; 
5. एक निश्चित व्यक्ति या साधन के वाहक के लिए, या, के आदेश पर। जब बात आती है शर्त नंबर 4, अदालत ने कहा, "पैसे की एक निश्चित राशि" का भुगतान करना चाहिए। हालांकि वर्तमान मामले में, ये साधन "अस्पष्ट" है। 
           अदालत ने टिप्पणी की, "NI अधिनियम की धारा 6 की परिभाषा के तहत इस उपकरण के एक चेक होने के बारे में कोई विवाद नहीं हो सकता था, लेकिन भुगतान की जाने वाली राशि की शर्त को पूरा करने में इसकी विफलता है।" जज ने जोड़ा, "शब्दों में बताई गई राशि बेतुकी है और इस प्रकार NI अधिनियम की धारा 5 और 6 के लिए, आवश्यक राशि का भुगतान किया जाना है, इस उपकरण में गायब है। यह मामला होने के नाते, यह उपकरण एक वैध चेक नहीं था जब बैंक के सामने पेश किया गया। " NI अधिनियम की धारा 18 उपकरण में अनुपस्थिति के मामले में लागू नहीं होती है। NI अधिनियम की धारा 18 में यह प्रावधान है कि यदि राशि को शब्दों और आंकड़ों में अलग-अलग रूप में कहा गया है, तो आंकड़ों में बताई गई राशि सारहीन होगी और यह केवल उन शब्दों में बताई गई राशि है, जिस पर विचार किया जाना है। चूंकि वर्तमान मामले में, अस्पष्टता शब्दों में है, न्यायालय ने माना कि NI अधिनियम की धारा 18 को लागू नहीं किया जाएगा। "यह सही है कि यदि पढ़ने के दौरान आंकड़ों में लिखी गई राशि का कोई मतलब होता है, तो यह एक निश्चित राशि बन जाती है और निश्चित रूप से NI अधिनियम की धारा 5 द्वारा आवश्यक राशि के रूप में वर्तमान की स्थिति में संतुष्ट हो सकती है।" यहां तक ​​कि NI अधिनियम की धारा 18 को भी विचाराधीन उपकरण पर लागू नहीं किया जा सकता है। इसकी वजह उपकरण में शब्दों में वर्णित राशि की अनुपस्थिति के कारण है, "अदालत ने देखा। NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध नहीं प्रतिवादी ने तर्क दिया था कि पुनरीक्षण याचिकाकर्ता को कानूनी नोटिस का पालन न करने के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि यह तर्क उस धारा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक नोटिस NI अधिनियम की धार 138 "के रूप में ज्यादा मायने नहीं रखता है, प्राथमिक शर्त यह है कि संतुष्ट होना चाहिए कि अस्वीकृत उपकरण एक वैध परक्राम्य उपकरण था , जिसे NI अधिनियम की धारा 6 के तहत परिभाषा के भीतर एक जांच माना जा सकता है। " न्यायालय ने कहा, "वर्तमान मामले में, जैसा कि प्रस्तुत किया गया उपकरण NI अधिनियम की धारा 6 की परिभाषा के साथ एक चेक नहीं था, इस तरह के उपकरण के बाद के अस्वीकृति के लिए नोटिस न तो अनुपालन या गैर-अनुपालन के लिए या एक ताजा जारी करने के लिए किसी भी देयता की जांच को लागू नहीं करेगा।" लक्ष्मी डाइचेम मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू नहीं जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, उत्तरदाता ने लक्ष्मी डाइचेम (सुप्रा) में फैसले पर भरोसा किया था, जहां सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की धारा 138 में हस्ताक्षर के बेमेल होने के कारण को अभिव्यक्ति "पैसे की राशि ... अपर्याप्त है" में अधिनियम की धारा 138 में विस्तारित किया था। प्रतिक्रिया देने वाले ने मांग की कि भुगतान की जाने वाली अनिश्चितता को भी इस अभिव्यक्ति के दायरे में देखा जाना चाहिए। हालांकि, मौजूदा मामले को मिसाल से अलग करते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट किया, "निर्णय, जिसका हवाला दिया गया है, इसमें उन स्थितियों से निपटा गया है, जहां निधियों की अपर्याप्तता, बैंक के साथ व्यवस्था की अधिकता, ड्रॉअर द्वारा चेक का भुगतान रोकना, चेक देने के बाद खाते को बंद करना, हस्ताक्षरों का मिलान नहीं होना आदि कारणों से निपटा गया था। अमान्य इंस्ट्रूमेंट / चेक की अस्वीकृति के आधार पर NI अधिनियम की धारा 138 की प्रयोज्यता पर न तो विचार किया गया और न ही उस पर निर्णय लिया गया।" कोर्ट ने जोड़ा, "अनिश्चितता के कारण चेक उसके चेहरे पर अमान्य था, शब्दों में लिखी गई राशि के अनुसार। यह मामला नहीं है कि प्राप्तकर्ता को चेक के दोष पता नहीं चल सकता है जब वह इसे प्राप्त करता है या, जहां कुछ भविष्य के कार्य के कारण निकालने वाले के उस हिस्से पर जब चेक को अस्वीकृत किया गया था। इस प्रकार, लक्ष्मी डाइचेम (सुप्रा) का निर्णय इस मामले में प्रतिवादी की सहायता के लिए नहीं आ सकता है। "

Saturday 1 August 2020

मोटर दुर्घटना मुआवजा, सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा, 15-25 वर्ष आयु समूह के लिए 18 ही होगा मुआवजा गुणक 1 Aug 2020

*मोटर दुर्घटना मुआवजा, सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा, 15-25 वर्ष आयु समूह के लिए 18 ही होगा मुआवजा गुणक* 1 Aug 2020

     सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि 15 से 25 वर्ष आयु वर्ग के लिए मोटर दुर्घटना मुआवजे की गणना करते हुए गुणक 18 ही होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के हालिया दो फैसलों में इस आधार पर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण के आदेश में संशोधन किया गया है। मोहित गोयल की जब दुर्घटना हुई थी और तत्पश्चात उसकी मौत हो गयी थी, तब वह 23 साल का बैचलर था। उसके माता-पिता ने मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (एमएसीटी) के समक्ष दावा याचिका दायर की थी। न्यायाधिकरण ने कुल मुआवजा 25 लाख 48 हजार पच्चास रुपये तय किया था, लेकिन 50 फीसदी अंशदायी लापरवाही के कारण उसने दावाकर्ता को मुआवजे की आधी रकम ही भुगतान करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने भी एमएसीटी के आदेश को बरकरार रखा था। 

       न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने अंशदायी लापरवाही से संबंधित तथ्य को जायज ठहराया, लेकिन यह कहा: ''हमने विवादित फैसले और उसके अन्य पहलुओं की भी समीक्षा की है और दो पहलुओं को छोड़कर कोई गड़बड़ी नजर नहीं आई है:

(ए) मुआवजा निर्धारण से संबंधित मल्टीप्लायर (गुणक) के तौर पर 13 का इस्तेमाल किया गया है, जबकि 'सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य (2009) 6 एससीसी 121' मामले में दिये गये फैसले के अनुसार यह मल्टीप्लायर 18 होना चाहिए।

(दूसरा) फैसले में छह प्रतिशत की ब्याज दर मंजूर की गयी है, जो आमतौर पर नौ प्रतिशत होती है।" 

         उपरोक्त टिप्पणियों के संदर्भ में खंडपीठ ने हाईकोर्ट के फैसले में संशोधन किया। कोर्ट ने इस सप्ताह 'एरुधाया प्रिया बनाम स्टेट एक्सप्रेस ट्रांसपोर्ट्स कॉरपोरेशन लिमिटेड' मामले में जारी एक अन्य फैसले में भी इसी तरह की टिप्पणी की थी। उस मामले में दावाकर्ता खुद पीड़ित था, जो 23 वर्ष की उम्र में हुई एक दुर्घटना के कारण दिव्यांग हो गया था। हाईकोर्ट ने उस फैसले में मुआवजे का गुणक 17 इस्तेमाल किया था। उस आदेश को संशोधित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था :  "नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी एवं अन्य' के मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा करते हुए अपीलकर्ता की उम्र के आधार पर मल्टीप्लायर में बढ़ोतरी को 23 वर्ष किये जाने की मांग की गयी है। संबंधित फैसले के पैरा 42 में, संविधान पीठ ने गुणक विधिक के संबंध में 'सरला वर्मा (श्रीमती) एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य 2' के मामले में दी गयी गयी सारिणी की प्रभावी तरीके से पुष्टि की है। पंद्रह से 25 वर्ष आयुवर्ग में दिव्यांगता की सीमा के गुणक के साथ यह आंकड़ा 18 होना चाहिए।" 'सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम (2009) 6 एससीसी 121' मामले में मल्टीप्लायर के मानकीकरण से पहले अदालतों द्वारा मल्टीप्लायर के अलग-अलग पैमाने का इस्तेमाल किया जाता था, जिसके कारण निरंतरता समानता नहीं रहती थी। सरला वर्मा मामले में यह कहा गया था: इसलिए हम मानते हैं कि इस्तेमाल किये जाने वाले गुणक सुसम्मा थॉमस, त्रिलोकचंद्र और चार्ली मामलों के फैसलों के अनुरूप तैयार की गयी सारिणी के कॉलम (4) के अनुरूप होना चाहिए।

इस सारिणी में ऑपरेटिव मल्टीप्लायर की शुरुआत

(15 से 20 वर्ष और 21 से 25 वर्ष आयु वर्ग के लिए) 18 गुणक से होती है, जो प्रत्येक पांच साल बाद एक यूनिट कम हो जाता है।

उदाहरण के तौर पर :-

26 से 30 वर्ष के लिए गुणक-17,

31 से 35 वर्ष के लिए गुणक 16,

36 से 40 वर्ष के लिए गुणक 15,

41 से 45 वर्ष के लिए गुणक 14 और

46 से 50 वर्ष के लिए गुणक-13.

इसके बाद प्रत्येक पांच वर्ष की अवधि के लिए गुणक में दो यूनिट की कमी आती है, जैसे-

51 से 55 वर्ष के लिए गुणक 11,

56 से 60 वर्ष के लिए गुणक 09,

61 से 65 के लिए गुणक 07 और

66 से 70 वर्ष के लिए गुणक-05.

इस सारिणी को बाद में 'नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी एवं अन्य [(2017) 16 एससीसी 680]' मामले में वैध ठहराया गया था।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/for-age-group-15-25-multiplier-to-be-applied-is-18-reiterates-sc-160866