Monday 29 June 2020

कोर्ट में कपटपूर्ण याचिका दाखिल करने वालो पर कार्यवाही

कोर्ट में कपटपूर्ण याचिका दाखिल करने वाला वापस घर जाता है या जेल, यहां पढ़िए / ABOUT IPC

Thursday 25 June 2020

राज नारायण बनाम इंदिरा गांधीः इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला 25 Jun 2020

राज नारायण बनाम इंदिरा गांधीः इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला 25 Jun 2020 


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून, 1975 को दिए एक ऐतिहास‌िक फैसले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया था। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा राज नारायण की याचिका पर दिए गए फैसले के बाद राजनीतिक घटनक्रमों में कई बदलाव आया और परिणति के रूप में 21 महीने के भीतर देश में आपातकाल लगा दिया गया था। फैसला ऐतिहासिक था, ‌फिर भी फैसले की प्रति अदालत की रिपोर्टों में शामिल नहीं थी। कॉपी ऑनलाइन भी उपलब्‍ध नहीं थी। वह फैसला हाल ही में मीडिया में चर्चा का विषय बना।हालांकि, अथर्व लीगल के प्रयासों की बदौलत हाईकोर्ट रजिस्ट्री से 262 पेज के फैसले की एक पूरी प्रति प्राप्त कर ली गई है। अथर्व लीगल के एडवोकेट और मैनेजिंग पार्टनर सिद्धार्थ नायक ने लाइवलॉ के साथ फैसले की प्रति साझा की है, ताकि हमारे पाठकों को भी इसे पढ़ने का मौका मिल सके। फैसले में रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द घोषित किया गया था, और गांधी को छह साल के लिए निर्वाचित पद पर रहने से रोक दिया गया था। हाईकोर्ट ने रिश्वतखोरी के आरोपों को खारिज करते हुए उन्हें चुनाव प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया था।  इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने फैसले के खिलाफ अपील की। 24 जून, 1975 को न्यायमूर्ति वी आर कृष्णा अय्यर की अवकाशकालीन पीठ ने फैसले पर सशर्त स्टे देते हुए गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दी हालांकि उन्हें संसद में मतदान करने से रोक दिया। 7 नवंबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया।

Monday 22 June 2020

आरोप तय करने के लिए अभ‌ियुक्त की उपस्थिति और सेक्‍शन 313 सीआरपीसी के तहत परीक्षण, व‌ीडियो कॉन्फ्रें‌सिंग के माध्यम से प्राप्त की जा सकती हैः कर्नाटक हाईकोर्ट 22 Jun 2020


आरोप तय करने के लिए अभ‌ियुक्त की उपस्थिति और सेक्‍शन 313 सीआरपीसी के तहत परीक्षण, व‌ीडियो कॉन्फ्रें‌सिंग के माध्यम से प्राप्त की जा सकती हैः कर्नाटक हाईकोर्ट 22 Jun 2020 

 कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना है कि महामारी की स्थिति में, ट्रायल कोर्ट धारा 223, 240 या 252 के तहत आरोप तय करने के संबंध में अभियुक्तों की दलील को रिकॉर्ड करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का उपयोग कर सकती है और आपराधिक संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 के तहत एक अभियुक्त की जांच वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जर‌िए कर सकती है। इस सुविधा का उपयोग उन सभी आरोपियों के मामले में किया जा सकता है, जो न्यायिक हिरासत में हैं और जो जमानत पर बाहर हैं।  चीफ जस्टिस अभय ओका और जस्टिस एस विश्वजीत शेट्टी की खंडपीठ ने ट्रायल कोर्टों को आंशिक कामकाज के दौरान पेश आए विभिन्न कानूनी और तकनीकी मुश्क‌िलों का निस्तारण करने के लिए एक सूओ-मोटो याचिका की सुनवाई पर यह निर्देश दिया। खंडपीठ ने कहा : "चार्ज फ्रेम करते समय और दलील की रिकॉर्डिंग करते समय, न्यायालय के समक्ष अभियुक्त की उपस्थिति वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जर‌िए प्राप्त की जा सकती है। सेशन ट्रायल योग्य मामलों और वारंट ट्रायल योग्य मामलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जर‌िए अभियुक्तों की उपस्थिति प्राप्त करने के बाद आरोप को पढ़ा जा सकता है, आरोपी को समझाया जा सकता है और उसकी दलील को दर्ज किया जा सकता है।" "अदालतों द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जर‌िए सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अभियुक्तों की दलीलों और बयान को रिकॉर्ड करते हुए अपनाया गया रास्ता, असाधारण स्थिति में अदालत परिसर में हितधारकों भीड़ को कम करने के लिए उठाया गया कदम होगा, और सर्वोत्तम हेल्‍थ प्रैक्टिस का पालन करते हुए अदालतों के कामकाज को सुरक्षित करने के लिए उठाया गया कदम होगा। इसलिए, न्यायालयों द्वारा अपनाए गए इस तरह के तरीकों को वैध माना जाएगा।" अदालत ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुओ-मोटो रिट याचिका में 6 अप्रैल को दिए आदेश के आधार पर अपना आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि "इस न्यायालय और उच्च न्यायालयों की ओर से, अदालत परिसर में हितधारकों की उपस्थिति कम करने और अदालतों के कामकाज को सुरक्षित करने के लिए किए गए और किए जाने वाले सभी उपाय को वैध माना जाएगा; (ii)सुप्रीम कोर्ट और सभी उच्च न्यायालयों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के उपयोग के माध्यम से न्यायिक प्रणाली के कामकाज को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक उपायों को अपनाने के लिए अधिकृत किया जाता है।" वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग हियरिंग रूल्स के नियम 11.2 पर भरोसा करते हुए उच्च न्यायालय ने विशेष रूप से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए धारा 313 के तहत अभियुक्तों के बयान दर्ज करने की अनुमति दी। न्यायिक हिरासत में अभियुक्त के लिए प्रक्रिया: यदि अभियुक्त न्यायिक हिरासत में है, तो जेल में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा प्रदान की जा सकती है और ऐसे मामले में नियम 5.3 के आशय भीतर रिमोट प्वांइट कॉआर्डिनेटर जेल अधीक्षक या जेल के प्रभारी अधिकारी होंगे। यदि प्रचुर सावधानी के साथ, विद्वान न्यायाधीश यह चाहते हैं कि न्यायिक अभिरक्षा में रखे गए अभियुक्त के मामले में, अभियुक्त के हस्ताक्षर आवश्यक हैं, तो आरोप और याचिका की एक प्रति समन्वयक, जो संबंधित जेल का अधिकारी होगा को ई-मेल से भेजी जा सकती है। उसे उसी को डाउनलोड करने, प्रिंट लेने और उसकी उपस्थिति में अभियुक्त के हस्ताक्षर प्राप्त करने और इसे अदालत में भेजने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। जमानत पर बाहर आरोपी के लिए प्रक्रियाः जमानत पर अभियुक्त के मामले में, समन्वयक को उसी प्रक्रिया का पालन करने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। दलील दर्ज करते समय, न्यायिक अधिकारी को अभियुक्त के बयान को रिकॉर्ड करने के लिए अच्छी तरह से सलाह दी जाएगी कि न्यायाधीश स्पष्ट रूप से उसके लिए श्रव्य और दृश्यमान था, जबकि आरोप पढ़ा गया था और उसे समझाया गया था और जबकि उसकी याचिका दर्ज की गई थी। अदालत द्वारा नियुक्त एक फिट और उचित व्यक्ति दूरस्थ बिंदु पर समन्वयक होगा, जहां अभियुक्त बैठा है। पिछले हफ्ते, अदालत ने स्पष्ट किया था कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का इस्तेमाल महामारी से पहले भी आरोपियों को पेश करने के लिए किया जा सकता है, यहां तक ​​कि महामारी के मामले में असाधारण मामलों में पहले रिमांड के लिए भी किया जा सकता है।

भौतिक तथ्यों को छ‌िपाना वकालत नहीं हैः इलाहाबाद हाईकोर्ट 21 Jun 2020


भौतिक तथ्यों को छ‌िपाना वकालत नहीं हैः इलाहाबाद हाईकोर्ट 21 Jun 2020

 भौतिक तथ्यों को छ‌िपाना वकालत नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह एक अवमानना ​​अर्जी को खारिज करते हुए कहा कि यह धोखाधड़ी, हेरफेर, पैंतरेबाजी या गलत बयानी है। एक पत्रकार प्रदीप कुमार श्रीवास्तव, और अन्य लोगों ने एक अवमानना ​​आवेदन दायर किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि वाराणसी विकास प्राधिकरण ने हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच की ओर से पारित आदेश का उल्लंघन किया है, जिसने यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि गंगा के घाटों पर बाढ़ के उच्चतम स्तर से 200 मीटर के भीतर कोई और निर्माण नहीं होगा।  आवेदन पर विचार करते हुए, जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी ने कहा कि विचाराधीन कार्य श्री काशी विश्वनाथ विशेष क्षेत्र विकास बोर्ड अधिनियम, 2018 के तहत उचित अनुमति / एनओसी और विशेषज्ञ समिति की सहमति के बाद किया जा रहा है। यह पाया गया है कि इस संबंध में आवेदकों की ओर से तथ्यों को आसानी से छुपा दिया गया है, यह स्वयं अवमानना ​​है। तथ्य के छुपाव को गंभीरता से लेते हुए कोर्ट ने कहा- "जो व्यक्ति अदालत का दरवाजा खटखटाता है, उसे साफ हाथों से आना चाहिए और सभी भौतिक तथ्यों को सामने रखना चाहिए अन्यथा वह अदालत को गुमराह करने का दोषी होगा और उसकी अर्जी या याचिका को खारिज किया जा सकता है। यदि कोई आवेदक गलत बयान देता है, अदालत को गुमराह करने का प्रयास करता है, और भौतिक तथ्यों छुपाता है तो अदालत इसी आधार पर कार्रवाई को खारिज कर सकती है। आवेदक छुपम-छुपाई करने या तथ्यों को मनमाने तरीक से चुनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।" भौतिक तथ्यों को छ‌िपाना वकालत नहीं है। यह धोखाधड़ी, हेरफेर, पैंतरेबाजी या गलत बयानी है। जनहित में यह नियम निर्लज्ज मुकदमेबाजों को अदालत की प्र‌क्रिया का दुरुपयोग करने से रोकने के लिए बनाया गया है। गंभीर खतरा है फर्जी मुकदमें न्याय‌िक प्रशासन के लिए गंभीर खतरा अदालत ने अवमानना ​​अर्जी को खारिज करते हुए कहा कि इसमें तथ्यों को छुपाय गया है, जो खुद अवमानना की प्रकृति का ​​है। कोर्ट ने कहा कि फर्जी और आधारहीन मुकदमे न्यायिक प्रशासन के लिए एक गंभीर खतरा है। कोर्ट ने कहा, "न्याय‌िक प्रणाली में मुकदमेबाजी से ग्रस्त हैं। हमारे उच्च न्यायालय में नौ लाख पचास हजार से अधिक मामले लंबित हैं। ऐसी स्थिति में, फर्जी और आधारहीन मुकदमें न्यायिक प्रशासन के लिए गंभीर खतरा बन जाता है। वे समय की बर्बादी करते हैं और बुनियादी ढांचे का दुरुपयोग करते हैं। इस प्रकार, जिन संसाधनों को वास्तविक मामलों के निस्तारण के लिए उपयोग किया जाना चाहिए, वे इस मामले की तरह फर्जी और निराधार मामलों को सुनने में बर्बाद हो जाते हैं।"

पत्नी द्वारा पति पर माता-पिता से दूर रहने का दबाव बनाना क्रूरता : गुवाहाटी हाईकोर्ट 22 Jun 2020


पत्नी द्वारा पति पर माता-पिता से दूर रहने का दबाव बनाना क्रूरता : गुवाहाटी हाईकोर्ट 22 Jun 2020 

गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक व्यक्ति की तलाक की अपील इस आधार पर स्वीकार कर ली कि उसकी पत्नी उसे उसकी सौतेली मां से दूर रहने के लिए मजबूर कर रही थी। मुख्य न्यायाधीश अजय लांबा और न्यायमूर्ति सौमित्रा सैकिया की पीठ ने कहा कि मैंटेनेंस एंड वेल्फेयर ऑफ पेरेंट्स एंड सीनियर सिटिजन एक्ट 2007 के तहत, बच्चों (जिसमें बेटा भी शामिल है) को अनिवार्य रूप से अपने माता-पिता (जिसमें सौतेली मां भी शामिल है) और वरिष्ठ नागरिकों का भरण पोषण करना होगा।  इस मामले में न्यायालय एक वैवाहिक अपील (पति की तरफ से दायर) पर विचार कर रहा था। जिला न्यायालय ने पति की तरफ से दायर तलाक का आवेदन खारिज कर दिया था। हाईकोर्ट ने इस अपील पर विचार करने के बाद कहा कि यह सबूत सामने आए हैं कि सौतेली मां के पास आय का कोई व्यक्तिगत स्रोत नहीं है और वह एक वरिष्ठ नागरिक है। अदालत ने उस समझौते पर भी विचार किया जो पति और उसके परिवार के सदस्यों ने अग्रिम जमानत मांगने से पहले पत्नी के कहने पर मजबूरी में निष्पादित किया था। इस समझौते में यह शर्त रखी गई थी कि पति को परिवार के सदस्यों से अलग रहना होगा। पति की सौतेली माँ सहित परिवार के किसी भी सदस्य को उनसे मिलने की अनुमति नहीं होगी। इन पर ध्यान देते हुए अदालत ने कहा कि- "यह देखने में आया है कि फैमिली कोर्ट ने सबूतों पर विचार करने के दौरान इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था। जबकि अपीलकर्ता को एक्ट 2007 के प्रावधानों के तहत उसका वैधानिक कर्तव्य पूरा करने से रोका गया है,जो उसका अपनी वृद्ध मां के प्रति बनता है। इस तरह के सबूत क्रूरता का कृत्य साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। क्योंकि 2007 अधिनियम के प्रावधानों का पालन न करने के आपराधिक परिणाम होते हैं,जिनमें दंड या कारावास के साथ-साथ जुर्माना किए जाने का भी प्रावधान है।" न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि पत्नी ने आईपीसी की धारा 498ए के तहत केस दायर किया था,जिसमें बरी कर दिया गया था। ''जब कोई पत्नी अपने पति पर आईपीसी की धारा 498ए के तहत आरोप लगाती है और आरोपी पति उस मुकदमे से गुजरता है व अंत में बरी हो जाता है। तो इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि पति के प्रति कोई क्रूरता नहीं हुई है।'' 2016 में, सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक पति को तलाक देते समय यही टिप्पणी की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि पति को उसके माता-पिता से अलग रहने के लिए मजबूर किया गया था। आम तौर पर, कोई भी पति इसे बर्दाश्त नहीं करेगा। वहीं कोई भी बेटा अपने बूढ़े माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्यों से अलग नहीं होना चाहेगा, खासतौर पर जब वह भी उसकी आय पर निर्भर हों।

Friday 19 June 2020

दुर्घटना की तारीख में जिसके नाम वाहन पंजीकृत है, वो ही ' मालिक' माना जाएगा : सुप्रीम कोर्ट - 19 Jun 2020


[मोटर वाहन अधिनियम] दुर्घटना की तारीख में जिसके नाम वाहन पंजीकृत है, वो ही ' मालिक' माना जाएगा : सुप्रीम कोर्ट - 19 Jun 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि, वह व्यक्ति जिसके नाम पर मोटर वाहन पंजीकृत है, उसे ही मोटर वाहन अधिनियम के प्रयोजनों के लिए वाहन के मालिक के रूप में माना जाएगा। यह मामला सुरेंद्र कुमार भिलावे द्वारा किए गए बीमा दावे से उत्पन्न हुआ है। बीमा कंपनी ने इस दावे को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि भिलावे ने उक्त ट्रक को पहले ही उक्त मोहम्मद इलियास अंसारी (लगभग तीन साल पहले) को बेच दिया था। भिलावे ने उपभोक्ता शिकायत दायर की जिसे जिला फोरम द्वारा अनुमति दी गई थी। बीमा कंपनी द्वारा दायर अपील राज्य आयोग द्वारा खारिज कर दी गई थी। इन दोनों आदेशों को दरकिनार करते हुए, राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने इस आधार पर कहा कि जब कोई वाहन का मालिक अपने वाहन को बेचता है और सेल डीड निष्पादित करता है, लेकिन बिना किसी तरीके से वाहन संपत्ति के लिए टाइटल ट्रांसफर नहीं करता है तो सेल डीड के निष्पादन के आधार पर वाहन का स्वामित्व क्रेता के पास होता है। जस्टिस आर बानुमति और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने अपील में कहा कि राष्ट्रीय आयोग ने मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 2 (30) में 'मालिक' की परिभाषा को नजरअंदाज कर दिया है। धारा 2 (30) में 'मालिक' परिभाषित करने के लिए "एक व्यक्ति जिसके नाम पर एक मोटर वाहन पंजीकृत है और जहां ऐसा व्यक्ति नाबालिग है, जो ऐसे नाबालिग का अभिभावक है, और एक मोटर वाहन के संबंध में जो एक किराया खरीद समझौते, या एक समझौते का विषय है जो पट्टे या हाइपोथीकेशन का समझौता है, उस समझौते के तहत वाहन के कब्जे में जो व्यक्ति है।"  पीठ ने यह कहा: " मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 2 (30) में स्वामी की परिभाषा और मोटर वाहन अधिनियम, 1939 की धारा 2 (19) में स्वामी की परिभाषा के बीच अंतर को नोट करना भी उचित होगा, जिसे निरस्त कर दिया गया है और मोटर वाहन अधिनियम, 1988 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है। पुराने अधिनियम के तहत 'मालिक' का अर्थ मोटर वाहन रखने वाले व्यक्ति से है। परिभाषा में बदलाव आया है। विधानमंडल ने जानबूझकर 'स्वामी' की परिभाषा बदल दी है, जिसका अर्थ उस व्यक्ति से है जिसके नाम पर मोटर वाहन है।" अन्य तथ्यात्मक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, बेंच ने आगे कहा: " यह स्वीकार करना मुश्किल है कि जिस व्यक्ति ने माल की प्राप्ति के लिए मालवाहक वाहन के स्वामित्व को हस्तांतरित कर दिया है, वह हस्तांतरण की रिपोर्ट नहीं करेगा या पंजीकरण के हस्तांतरण के लिए आवेदन नहीं करेगा, और इसके तहत उसे वाहन के स्वामित्व के जोखिमों और देनदारियों को उठाना होगा। विशेष रूप से, मोटर वाहन अधिनियम, 1988 और अन्य आपराधिक / दंड कानूनों के तहत कानून के प्रावधान के तहत। यह इस कारण भी नहीं है कि एक व्यक्ति जिसने वाहन के स्वामित्व को स्थानांतरित कर दिया है, वो तीन साल से अधिक समय तक, वाहन की खरीद के लिए ऋण चुकाए, वाहन को कवर करने के लिए बीमा पॉलिसी लें या अन्यथा स्वामित्व दायित्वों का निर्वहन करे। यह भी उतना ही अविश्वसनीय है कि एक वाहन का मालिक जिसने वाहन प्राप्त करने के लिए विचार किया है, वह परमिट के हस्तांतरण पर जोर नहीं देगा और इस तरह एक वैध परमिट के बिना माल वाहन के संचालन के दंडात्मक परिणाम को उजागर करेगा।" पुष्पा @ लीला और अन्य बनाम शकुंतला और नवीन कुमार बनाम विजय कुमार जैसे फैसलों का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा: "इस न्यायालय का आदेश है कि पंजीकृत मालिक ही मालिक बना रहेगा और जब वाहन के पंजीकृत स्वामी के नाम पर बीमा किया जाता है, तो बीमाकर्ता किसी भी हस्तांतरण के बावजूद बीमाकर्ता द्वारा किए गए दावों के मामले में उत्तरदायी रहेगा,समान रूप से ये दुर्घटना की स्थिति में भी लागू होगा। यदि बीमाधारक मोटर वाहन अधिनियम, 1988 और विशेष रूप से धारा 2 (30) के वैधानिक प्रावधानों के मद्देनजर कानून का मालिक बना हुआ है, तो दुर्घटना के मामले में बीमाकर्ता अपने दायित्व से बच नहीं सकता है ।" अपील की अनुमति देते हुए, अदालत ने कहा कि दुर्घटना की तारीख में भिलावे ट्रक का मालिक बना रहा और बीमा कंपनी मोहम्मद इलियास अंसारी के स्वामित्व के हस्तांतरण पर मालिक द्वारा हुए नुकसान के लिए अपनी देयता से बच नहीं सकती है।


Tuesday 16 June 2020

BS-IV वाहनोंं के पंंजीकरण और बिक्री की अनुमति नहींं : सुप्रीम कोर्ट-16 Jun 2020

BS-IV वाहनोंं के पंंजीकरण और बिक्री की अनुमति नहींं : सुप्रीम कोर्ट-16 Jun 2020 


 सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि बीएस- IV वाहनों के पंजीकरण और बिक्री की अनुमति नहीं है। अदालत ने 27 मार्च को कहा था कि लॉकडाउन के कारण छह दिनों के हुए नुकसान को देखते हुए 10 प्रतिशत अनसोल्ड बीएस-IV वाहनों को बेचने की अनुमति है। लॉकडाउन 25 मार्च को लागू किया गया था। जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एस अब्दुल नजीर की पीठ ने इस मामले पर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सोमवार को सुनवाई की। पीठ ने कहा कि 03.05.2020 को लॉकडाउन उठने के बाद भी 27 मार्च के अदालत के आदेश के अनुसार पूरे भारत में जितने वाहन बेचे गए, उनका पंजीकरण अदालत को बताए बिना बनाया जा सकता।  पीठ ने कहा, " ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरदाताओं को ज्ञात कारणों के लिए इस आदेश का दुरुपयोग किया जा रहा है और उन्होंने इस न्यायालय द्वारा पारित आदेश के अनुपालन में हलफनामा दायर नहीं किया है। जिन 10% वाहनों को बेचा जाना था उनका पंजीकरण इस न्यायालय की अनुमति के बिना और इस न्यायालय द्वारा पूर्वोक्त आदेश में दिए गए विवरण के बिना नहीं किया जा सकता। इंजन और चेसिस नंबरों को भी सुसज्जित करने और बिक्री की तारीख का भी होना आवश्यक था। यह इस न्यायालय द्वारा पारित आदेश के कम से कम दूसरे भाग का स्पष्ट रूप से उल्लंघन है। अदालत ने कहा कि जब 31.03.2020 की समयसीमा को देखते हुए BSVI वाहनों का निर्माण एडवांस में किया जाएगा तो यह BS IV वाहनों से होने वाले प्रदूषण के कारण मानव स्वास्थ्य पर अधिक हानिकारक प्रभाव डालेगा। न्यायालय ने एएसजी को पूरे भारत में सभी आरटीओ से विवरण इकट्ठा करने और यह जानकारी प्रस्तुत करने का निर्देश दिया कि लॉकडाउन उठने के बाद BS IV श्रेणी के कितने वाहन बेचे और पंजीकृत किए गए हैं। मामला अब 19 जून 2020 को पोस्ट किया गया है। 27 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने फेडरेशन ऑफ़ ओटोमोबाइल डीलर एसोसिएशन ( FADA) की याचिका पर कहा था कि लॉकडाउन खत्म होने पर दस दिनों के भीतर BS-IV वाहनों के बचे हुए स्टॉक में से 10 फीसदी बेचे जा सकते हैं और ये वाहन दस दिनों के भीतर ही पंजीकृत किए जाएंगे। पीठ ने साफ कहा था कि ये वाहन दिल्ली- NCR में नहीं बेचे जाएंगे।

Friday 12 June 2020

जमानत पर निर्णय लेते समय पीड़ित को अंतरिम मुआवजे के रूप में उचित राशि देने पर भी विचार करना चाहिए, विशेष रूप से वंचित वर्ग से जुड़े लोगों के मामले में : उड़ीसा हाईकोर्ट 12 Jun 2020


ट्रायल कोर्ट को जमानत पर निर्णय लेते समय पीड़ित को अंतरिम मुआवजे के रूप में उचित राशि देने पर भी विचार करना चाहिए, विशेष रूप से वंचित वर्ग से जुड़े लोगों के मामले में : उड़ीसा हाईकोर्ट 12 Jun 2020 

 ''भयानक अपराध समाज की बुनियादी अच्छाई में विश्वास को चुनौती देता है और अगर इस तरह के अपराध के मामले में किसी प्रकार के उकसावे के लिए एक समझने योग्य प्रतिक्रिया है, तो भी हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि यह नैतिक स्वीकार्यता के बंधन से परे है।'' यह टिप्पणी करते हुए उड़ीसा हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा है कि जमानत के चरण में भी पीड़ित को मुआवजा दिया जाना चाहिए। एकल पीठ याचिकाकर्ता की तरफ से सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर आवेदन पर विचार कर रही थी। जो आईपीसी की धारा 285, 307 के तहत दर्ज एक मामले के संबंध में जेल में बंद है। आवेदक पर आरोप है कि उसने पीड़ित के शरीर(अदालत के अनुसार उसने ''सद्भाव और मुसीबत में मदद करनी चाही थी'') पर पेट्रोल डाला था , जिससे पीड़ित के शरीर का ऊपरी संवेदनशील हिस्सा गंभीर रूप से जल गया था। कोर्ट ने कहा कि- ''यह भी जरूरी है कि ट्रायल कोर्ट को इस तरह के मामलों में जमानत पर निर्णय करते समय अंतरिम मुआवजे के तौर पर एक उचित राशि पीड़ित को देने पर भी विचार करना चाहिए। ताकि पीड़ित, विशेष रूप से गरीब और वंचित वर्ग के लोग उक्त राशि का उपयोग अपने चिकित्सा पर आए खर्च को पूरा करने में कर सकें।'' न्यायालय ने कहा कि अपराधों के पीड़ितों के मुआवजे के लिए बढ़ती चिंता के चलते ही वर्ष 2009 में धारा 357ए को आपराधिक प्रक्रिया संहिता में जोड़ा गया था या शामिल किया गया था। यह प्रावधान पीड़ित को यह आश्वस्त करने के उद्देश्य से किया गया था ताकि उसको यह न लगे कि आपराधिक न्याय प्रणाली उसे भूल गई है।  हालांकि 2009 में किए गए इस संशोधन में धारा 357 की विशेषता को स्थिर ही छोड़ दिया गया था। चूंकि इस धारा की भूमिका में ही न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि वह ऐसे मामलों में राज्य को पीड़ित को उचित मुआवजा देने का निर्देश दे सकती है,जिन मामलों में इस धारा के तहत दिया गया मुआवजा कोर्ट को पर्याप्त नहीं लगता है या पीड़ित के पुर्नवास के लिए कम लगता है। या फिर कोई ऐसा मामला है जिसमें आरोपी बरी या आरोपमुक्त हो जाता है,परंतु पीड़ित के पुर्नवास के लिए मुआवजे की जरूरत है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि- ''इस प्रावधान के तहत, भले ही अभियुक्त के खिलाफ केस न चलाया जाए ,अगर पीड़ित को पुनर्वास की आवश्यकता है तो पीड़ित राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से अनुरोध कर सकता है कि उसे मुआवजा दिया जाए। यह योजना मुआवजे के संस्थागत भुगतान के लिए रास्ता बनाती है ताकि अपराधी द्वारा पहुंचाई गई किसी भी नुकसान या चोट के लिए उसे राज्य से मुआवजा मिल सकें। इस उद्देश्य के लिए एक कोष बनाने की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई है। इस तथ्य के बावजूद कि कोड की धारा 357 व 357ए के तहत न्यायालयों को शक्तियां दी गई हैं। उसके बाद भी इस प्रावधान को संस्थागत स्तर पर भूला दिया जाता है।'' इसके अलावा, एकल न्यायाधीश ने इस बात की भी सराहना की है कि पीड़ित को मुआवजा देने के लिए अन्य कानूनों में भी प्रावधान है। जिनके तहत या तो ट्रायल कोर्ट द्वारा या विशेष रूप से स्थापित न्यायाधिकरण द्वारा मुआवजा दिया जा सकता है। मुआवजे के अधिकार की व्याख्या बाद में शीर्ष अदालत ने भी की और इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का अभिन्न अंग माना था। कोर्ट ने कहा कि 'इसी तरह से ओडिशा सरकार ने धारा 357ए के प्रावधानों के तहत मिली शक्तियों का प्रयोग करते हुए ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 तैयार की है। उक्त योजना के अनुसार जलने के कारण जख्मी हुए पीड़ित को उसकी चोट और संबंधित कारक जैसे चेहरे बिगड़ना आदि के आधार पर मुआवजा दिया जाता है।'' वहीं आपराधिक प्रक्रिया संहिता1973 की धारा 357ए को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि जब भी मुआवजे के लिए न्यायालय सिफारिश करेगा तो जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण,जैसा भी मामला हो सकता है, योजना के तहत प्रदान की जाने वाली मुआवजे की राशि तय करने की जिम्मेदारी निभाएगा। ''यह भी तर्क दिया गया है कि यदि न्यायालय के समक्ष कोई ऐसा मामला आता है जो उसकी अंतरात्मा को हिला देता है और न्यायालय को यह लगता है कि देश के एक नागरिक की राज्य ने अनदेखी की है तो ऐसे मामले में न्यायालय पीड़ित के पुर्नवास के लिए उसे उचित मुआवजा प्रदान करने का निर्देश दे सकता है।'' जज ने फटकारते हुए कहा कि- ''पीड़ितों के लाभ के लिए धारा 357 के तहत मिली शक्ति का उपयोग करने के मामले में आमतौर पर अदालतों द्वारा अनिच्छा दिखाई जाती है। अदालतें अपने आप को सजा देने तक सीमित कर लेती हैं और पीड़ितों के मुआवजे के बारे में कोई उल्लेख नहीं करती हैं। इस तरह वह पीड़ितों के मूल अधिकार को अस्वीकार कर देती हैं।'' तथ्यों और परिस्थितियों को देखने के बाद पीठ ने कहा कि वर्तमान मामला एक फिट केस है,जिसमें ओडिशा राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण के माध्यम से पीड़ित को मुआवजा दिया जाना चाहिए। राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण को चार सप्ताह के भीतर पीड़ित को उचित मुआवजा देने का निर्देश देते हुए अदालत ने कहा कि- ''उक्त प्राधिकरण को पीड़ित की सहायता के लिए आना चाहिए ताकि ओडिशा पीड़ित मुआवजा योजना 2017 के तहत पीड़ित को उसके कष्टों और चिकित्सा व्यय के लिए उचित धन उपलब्ध कराया जा सकें।'' पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले में यदि याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया जाता है तो ट्रायल कोर्ट को आगे के मुआवजे पर विचार करना चाहिए। जो कि पूर्वोक्त राशि के अलावा अपराधी से वसूल किया जा सकता है। इसके अलावा यह भी कहा है कि ट्रायल कोर्ट को इस मामले में सुनवाई जल्दी से जल्दी पूरी करनी होगी। जमानत याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि- ''उपर्युक्त चर्चा और मामले के तथ्यों व परिस्थितियों को पूरी तरह से ध्यान में रखते हुए, यह न्यायालय याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा करने की इच्छुक नहीं है।''

डिफॉल्ट ज़मानत सीमा अवधि बढ़ाने वाला शीर्ष अदालत का पूर्व का आदेश सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोपी के डिफॉल्ट ज़मानत के अधिकार को प्रभावित नहींं करता : सुप्रीम कोर्ट -19 Jun 2020

सीमा अवधि बढ़ाने वाला शीर्ष अदालत का पूर्व का आदेश सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोपी के डिफॉल्ट ज़मानत के अधिकार को प्रभावित नहींं करता : सुप्रीम कोर्ट -19 Jun 2020 

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 15 मार्च से सभी अपील दाखिल करने के लिए सीमा अवधि बढ़ाने वाला शीर्ष अदालत का पूर्व का आदेश, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत डिफ़ॉल्ट जमानत पाने के लिए किसी अभियुक्त के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा। जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यन की बेंच ने इस प्रकार एस कासी बनाम पुलिस इंस्पेक्टर के माध्यम से राज्य मामले में मद्रास उच्च न्यायालय की एकल पीठ के फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि सीमा विस्तार और लॉकडाउन प्रतिबंध के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व आदेश के कारण सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत आरोप पत्र दायर करने की समय अवधि का भी विस्तार हो जाएगा।  यह देखते हुए कि यह एक "स्पष्ट रूप से गलत दृष्टिकोण" था, पीठ ने कहा: "एकल न्यायाधीश का विचार कि भारत सरकार द्वारा लॉकडाउन की अवधि के दौरान लगाए गए प्रतिबंध में, किसी अभियुक्त को डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए प्रार्थना करने का अधिकार नहीं देना चाहिए, भले ही दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत चार्जशीट निर्धारित समय के भीतर दायर नहीं की गई हो, स्पष्ट रूप से गलत है और कानून के अनुसार नहीं है। "हम इस विचार के हैं कि इस न्यायालय का दिनांक 23.03.2020 का आदेश सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय को प्रभावित नहीं करता और न ही सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन की घोषणा के दौरान जो प्रतिबंध लगाए गए हैं, उससे निर्धारित समय के भीतर चार्जशीट न जमा करने पर सीआरपीसी की धारा 167 (2) द्वारा संरक्षित डिफ़ॉल्ट जमानत प्राप्त करने के किसी अभियुक्त के अधिकारों पर कोई भी प्रतिबंध लगेगा। एकल न्यायाधीश ने इस न्यायालय के 23.03.2020 के आदेश में इस तरह के प्रतिबंध को पढ़ने में गंभीर त्रुटि की है।" सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का तर्क यह था कि संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा के लिए लॉकडाउन ठीक नहीं था। अदालत ने उल्लेख किया कि अन्यथा, अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किया जा सकता है, इसलिए, आरोपियों के अधिकारों को नहीं छीना जा सकता। अदालत ने कहा कि सू मोटो ऑर्डर की धारा 167 (2) के तहत विस्तारित अवधि के रूप में व्याख्या नहीं की जा सकती। न्यायालय ने माना कि सीमा विस्तार के लिए स्वत: संज्ञान मामले में आदेश की धारा 167 (2) सीआरपीसी के तहत सीमा अवधि बढ़ाने के रूप में व्याख्या नहीं की जा सकती। अदालत ने कहा, "दिनांक 23.03.2020 के आदेश का अर्थ यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल करने की अवधि को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत चिंतन के अनुसार विस्तारित करने का इरादा है। जांच अधिकारी मजिस्ट्रेट (प्रभारी) के समक्ष आरोप पत्र प्रस्तुत या दर्ज कर सकता है, इसलिए लॉकडाउन के दौरान और जैसा कि इतने मामलों में किया गया है, तब भी मजिस्ट्रेट (प्रभारी) के समक्ष चार्जशीट दाखिल / प्रस्तुत की जा सकती है और जांच अधिकारी को मजिस्ट्रेट (प्रभारी) के समक्ष निर्धारित अवधि के भीतर भी आरोप-पत्र प्रस्तुत करने से पहले भी रोका नहीं था।" पुलिस अतिरिक्त स्वतंत्रता ले सकती है न्यायालय ने माना कि अगर हाईकोर्ट की एकल पीठ के विचार को स्वीकार कर लिया गया तो गिरफ्तारी के बाद आरोपियों के पेश के संबंध में भी पुलिस को अतिरिक्त स्वतंत्रता लेनी पड़ सकती है। बेंच ने कहा, "यदि प्रभावित निर्णय में एकल न्यायाधीश द्वारा की गई व्याख्या को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए तो कठिनाइयों और वर्तमान महामारी के कारण, पुलिस भी मजिस्ट्रेट की अदालत में 24 घंटे के भीतर एक आरोपी को पेश नहीं करा पाएगी, जैसा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 57 के अनुसार आवश्यक माना जाता है। " न्यायालय ने यह भी कहा कि लागू किए गए फैसले का दृष्टिकोण "राज्य और अभियोजन को गलत संकेत भेजता है उन्हें किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के लिए उकसाता है।" दरअसल 23 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर 15 मार्च से सभी अपील दाखिल करने के लिए सीमा अवधि बढ़ा दी थी। बाद में, 6 मई को इसे मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और परक्राम्य लिखत अधिनियम ( NI एक्ट) अधिनियम की धारा 138 के तहत कार्यवाही के लिए भी लागू किया गया था। CrPc की धारा 167 के तहत अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने की अवधि के लिए इस विस्तार की प्रयोज्यता के बारे में सबसे पहले मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन की पीठ ने विचार किया था। यह माना गया था कि CrPC की धारा 167 के तहत निर्दिष्ट समय के भीतर चार्जशीट दायर करने में पुलिस की विफलता पर डिफ़ॉल्ट जमानत पाने के आरोपी के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट के स्वतः संज्ञान के आदेश का हवाला देते हुए नहीं हराया जा सकता है। ( सेत्तू बनाम राज्य) हालांकि, मद्रास हाईकोर्ट (न्यायमूर्ति जी जयचंद्रन) की एक अन्य पीठ ने एक विपरीत विचार रखा, और यह माना कि पुलिस सीमा का विस्तार करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के लाभ का दावा अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने में कर सकती है। (एस कासी बनाम पुलिस निरीक्षक के माध्यम से राज्य) इस विरोधाभास को देखते हुए, इस मामले को डिवीजन बेंच को भेज दिया गया था। वहीं केरल, उत्तराखंड और राजस्थान के उच्च न्यायालयों ने विचार किया कि सीमा के विस्तार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से डिफ़ॉल्ट जमानत पाने के लिए अभियुक्तों के हक पर कोई असर नहीं पड़ेगा।



मोटर वाहन मुआवज़ा छलावा नहीं होना चाहिए : जिस व्यक्ति के शरीर के निचले हिस्से को काटना पड़ा, उसकी कार्यशील विकलांगता को सुप्रीम कोर्ट ने 75% माना 11 Jun 2020

मोटर वाहन मुआवज़ा छलावा नहीं होना चाहिए : जिस व्यक्ति के शरीर के निचले हिस्से को काटना पड़ा, उसकी कार्यशील विकलांगता को सुप्रीम कोर्ट ने 75% माना 11 Jun 2020 


 दुर्घटना के कारण एक व्यक्ति जिसके शरीर के निचले हिस्से को काटकर हटाना पड़ा, उसकी कार्यशील विकलांगता को घटाने के हाईकोर्ट के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सहमति नहीं दी और कहा कि दुर्घटना के कारण भविष्य की आमदनी में कमी के लिए मुआवज़ा छलावा नहीं होना चाहिए। न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति बीर गवई की पीठ ने श्री एंटॉनी ऊर्फ एंथॉनी ऊर्फ़ ऐन्थॉनी स्वामी बनाम प्रबंध निदेशक, केएसआरटीसी के मामले की सुनवाई में कहा,  "भविष्य में आमदनी में कमी की क्षतिपूर्ति उचित और न्यायपूर्ण होनी चाहिए, ताकि वह व्यक्ति गरिमापूर्ण ज़िंदगी जी सके और एक ऐसे मुआवज़े की बात नहीं की जानी चाहिए जो छलावा है।" वर्ष 2010 में केएसआरटीसी बस जिसमें अपीलकर्ता सवार था, दुर्घटना का शिकार हो गई जिसकी वजह से उसे बांयी ओर के निचले धड़ को काटकर अलग करना पड़ा। उसकी विकलांगता को 75% माना गया। हालांकि मोटर वाहन दुर्घटना दावा अधिकरण ने इस स्तर की विकलांगता को ध्यान में रखकर उसे मुआवज़े दिए जाने का फ़ैसला सुनाया, पर केरल हाईकोर्ट ने उसकी विकलांगता के प्रतिशत को पूरे शरीर की तुलना में मात्र 25% माना।  सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विकलांगता के प्रतिशत में यह कमी बिना किसी कारण के की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि अपीलकर्ता जो पेंटर था, उसकी आजीविका कमाने की क्षमता को न केवल कम की गई है बल्कि पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस व्यक्ति को दुर्घटना ने एक पेंटर के रूप में पूरी तरह अक्षम बना दिया और वह कोई शारीरिक कार्य नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा, "…(दुर्घटना ने) इस व्यक्ति को एक पेंटर के रूप में और कोई भी शारीरिक काम कर पाने के लिए पूरी तरह अक्षम बना दिया है, इसलिए भविष्य में आय की हानि के लिए मुआवज़ा उचित और न्यायपूर्ण होना चाहिए ताकि वह एक गरिमापूर्ण जीवन जी सके न कि उसे एक ऐसा मुआवज़ा दिया जाए जो कि छलावा है। अगर 75% विकलांगता ने अपीलकर्ता को पूरी तरह विकलांग बना दिया है और वह अपने सामान्य पेशे को नहीं अपना सकता या इसी तरह का कोई और काम नहीं कर सकता तो उस स्थिति में उसके शरीर की विकलांगता के अनुपात में उसको मुआवज़ा दिए जाने की बात उसके समझ में नहीं आती।" हाईकोर्ट ने उसे इलाज के लिए ₹50,000 का मुआवज़ा देने का आदेश दिया था, जिसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट ने उसे ₹250,000 का मुआवज़ा दिए जाने का आदेश दिया। सुख-सुविधा की हानि के लिए मुआवज़े की राशि बढ़ाकर ₹50,000 कर दी क्योंकि उसे विकलांगता के कारण वह सामाजिक समूह में उठने-बैठने लायक़ नहीं रहा। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मुआवज़े की राशि ₹11,97,350 निर्धारित की जबकि हाईकोर्ट ने सिर्फ़ ₹5,10,350 ही देने का आदेश दिया था। पीठ ने इस बारे में राजकुमार बनाम अजय कुमार एवं अन्य 2011 (1)SCC 343 एवं नागराजप्प्पा बनाम डिविज़नल मैनेजर, ऑरीएंटल इंश्योरेंश कंपनी लिमिटेड, 2011 (13) SCC 323 मामले का भी संदर्भ दिया।


Wednesday 10 June 2020

केंद्र ने NI एक्ट की धारा 138 के तहत चेक अनादर सहित अन्य आर्थिक अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का प्रस्ताव दिया, टिप्प्णियां आमंत्रित कीं 10 Jun 2020

*केंद्र ने NI एक्ट की धारा 138 के तहत चेक अनादर सहित अन्य आर्थिक अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का प्रस्ताव दिया, टिप्प्णियां आमंत्रित कीं  10 Jun 2020*

 वित्त मंत्रालय ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत चेक अनादर होने के अपराध सहित कई आर्थिक अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर (डिक्रिमिनलाइज़ेशन) का प्रस्ताव किया है और इस पर सभी हितधारकों से टिप्पणियां आमंत्रित की हैं। मंत्रालय ने कहा है कि यह कदम लॉकडाउन के कारण पैदा हुए आर्थिक संकट के मद्देनजर "व्यापारिक भावना में सुधार और अदालती प्रक्रियाओं से बचने के उद्देश्य से उठए जा रहे हैं।  निम्नलिखित धाराओं के अंतर्गत आने वाले अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का प्रस्ताव है। 

धारा 12, बीमा अधिनियम, 1938। धारा 29, SARFAESI अधिनियम, 2002। धारा 16 (7), 3
2 (1), पीएफआरडीए अधिनियम, 2013। 
धारा 58 बी, आरबीआई अधिनियम, 1934। 
धारा 26 (1), 26 (4), भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007। 
धारा 56 (1), नाबार्ड अधिनियम, 1981। 
धारा 49, एनएचबी अधिनियम, 1987। 
धारा 42, राज्य वित्तीय निगम अधिनियम .951।  
धारा 23, क्रेडिट सूचना कंपनी (विनियमन) अधिनियम, 2005 
धारा 23, फैक्टरिंग विनियमन अधिनियम, 2011 
धारा 37, एक्ट्यूरीज एक्ट, 2006। 
धारा 36 क (2), 46, बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 
धारा 30, सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1972। 
धारा 40, एलआईसी अधिनियम, 1956। 
धारा 21, अनियमित जमा योजना अधिनियम, 2019 पर प्रतिबंध। 
धारा 76, चिट फंड अधिनियम, 1982। 
धारा 47, डीआईसीजीसी अधिनियम, 1961। 
धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881। 
सेक्शन 4 और 5, प्राइज चिट्स एंड मनी सर्कुलेशन स्कीम्स (बैनिंग) एक्ट, 1978। 

पिछले महीने, केंद्रीय वित्त मंत्री, निर्मला सीतारमण ने "आत्मा निर्भर आर्थिक पैकेज 'के एक भाग के रूप में मामूली आर्थिक अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की घोषणा की थी। इस संबंध में मंत्रालय के एक बयान में कहा गया है: प्रक्रियात्मक खामियों और मामूली गैर-अनुपालन के कारण व्यवसायों पर बोझ बढ़ जाता है और यह आवश्यक है कि किसी को उन प्रावधानों पर फिर से विचार करना चाहिए जो केवल प्रकृति में प्रक्रियात्मक हैं और बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय सुरक्षा या सार्वजनिक हित को प्रभावित नहीं करते हैं। समझौता योग्य अपराधों के लिए आपराधिक अपराधों के पुनर्वर्गीकरण पर निर्णय लेते समय निम्नलिखित सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 
(i) व्यवसायों पर बोझ कम करना और निवेशकों में विश्वास जगाना; 
(ii) आर्थिक विकास, जनहित और राष्ट्रीय सुरक्षा पर ध्यान सर्वोपरि रहना चाहिए; 
(iii) मेन्स रीड (मैलाफाइड / आपराधिक इरादे) आपराधिक दायित्व को लागू करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए, गैर-अनुपालन की प्रकृति का मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है, अर्थात् धोखाधड़ी की तुलना में लापरवाही या अनजाने में चूक; तथा 
(iv) गैर-अनुपालन की अभ्यस्त प्रकृति। हितधारक किसी अधिनियम के किसी विशेष अधिनियम या विशेष धारा के डिक्रिमिनलाइजेशन के संबंध में अपनी टिप्पणी / प्रस्ताव प्रस्तावित और प्रस्तुत कर सकते हैं, साथ ही इसके लिए तर्क भी। टिप्पणी / सुझाव विभाग को ईमेल पते bo2@nic.in पर 15 दिनों के भीतर, अर्थात् 23 जून, 2020 तक प्रस्तुत किए जा सकते हैं। 

रजिस्टर्ड मोबाइल फोन नंंबर का मालिक यह कहकर निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकता कि फोन किसी और ने इस्तेमाल किया था : पंंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट 8 Jun 2020

रजिस्टर्ड मोबाइल फोन नंंबर का मालिक यह कहकर निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकता कि फोन किसी और ने इस्तेमाल किया था : पंंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट 8 jun 2020

    पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने बुधवार को कहा कि अगर किसी अपराध के लिए मोबाइल फोन नंबर का इस्तेमाल किया जाता है, तो उसका पंजीकृत मालिक केवल यह दावा करके अपनी जवाबदारी से बच नहीं सकता कि फोन का इस्तेमाल किसी और ने किया था।न्यायमूर्ति हरसिमरन सिंह सेठी की एकल पीठ ने स्पष्ट किया कि रजिस्टर्ड मोबाइल फोन के मालिक पर यह बताने का दायित्व है कि उसके फोन का इस्तेमाल किसी और के द्वारा / अपराध के लिए कैसे किया गया।

पीठ ने कहा कि

"एक बार मोबाइल फोन, जो अपराध के कमीशन में इस्तेमाल किया गया है, याचिकाकर्ता के नाम पर पंजीकृत है और याचिकाकर्ता के केवाईसी के बायो-मेट्रिक सत्यापन के बाद उक्त नंबर जारी किया गया है, अपराध के कमीशन के लिए उक्त नंबर का उपयोग कैसे किया गया? याचिकाकर्ता को यह स्पष्ट करना चाहिए।"

अदालत ने यह भी देखा कि आरोपी ने विशेष रूप से इनकार नहीं किया था कि वह उक्त मोबाइल नंबर का उपयोग नहीं कर रहा था।

अदालत अग्रिम जमानत अर्जी पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि आईपीसी की धारा 420 और आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत दर्ज एफआईआर में आरोपी का नाम अनावश्यक रूप से जोड़ा गया है।

सरकार ने तर्क दिया था कि मोबाइल नंबर, जो जिसे अपराध के लिए इस्तेमाल किया गया, उससे फर्जी कॉल किए गए और उक्त नंबर आरोपी के नाम पर पंजीकृत था। यह प्रस्तुत किया गया कि उक्त मोबाइल नंबर बायो-मैट्रिक सत्यापन और केवाईसी के बाद अभियुक्त के नाम पर जारी किया गया।

अदालत ने पाया कि मोबाइल फोन बरामद होना बाकी है और इस तरह, हिरासत में पूछताछ के लिए आरोपी की आवश्यकता है। इस तरह अदालत ने अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी।

अदालत ने अपने आदेश में कहा,

"एक बार फोन को बरामद करना आवश्यक है, याचिकाकर्ता की हिरासत में पूछताछ आवश्यक है ताकि यह पता लगाया जा सके कि याचिकाकर्ता समान प्रकृति के किसी अन्य मामले में भी शामिल है या नहीं। गिरफ्तारी से पूर्व ज़मानत देने के लिए कोई भी आधार नहीं बताया गया है, इसलिए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया जाता है और याचिका खारिज की जाती है। "

Tuesday 9 June 2020

आदेश की सॉफ्ट कॉपी प्रमाणित न होने के आधार पर बेल बॉन्ड स्वीकार नहीं करने के लिए जिला न्यायाधीश की आलोचना की 9 Jun 2020


आदेश की सॉफ्ट कॉपी प्रमाणित न होने के आधार पर बेल बॉन्ड स्वीकार नहीं करने के लिए जिला न्यायाधीश की आलोचना की  9 Jun 2020 

 दिल्ली हाईकोर्ट ने किसी आरोपी के बेल बॉन्ड को इस आधार पर स्वीकार करने से इनकार करने के लिए जिला न्यायाधीश की आलोचना की कि आरोपी के द्वारा पेश हाईकोर्ट के जमानत आदेश की सॉफ्ट कॉपी प्रमाणित नहीं की गई थी। यह आदेश जिला न्यायाधीश के आदेश को चुनौती देने वाली आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका पर सुनवाई में आया। जिला न्यायाधीश ने अपीलकर्ता की जमानत को इस आधार पर स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि उसके द्वारा पेश हाईकोर्ट के आदेश की कॉपी, प्रामाणिक प्रतिलिपि (authenticated copy) नहीं है। अपीलकर्ता ने उस आदेश की प्रति जिला न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत की थी, जिसे उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट से डाउनलोड किया था। जिला जज के आदेश को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की एकल पीठ ने कहा कि "लॉकडाउन अवधि के दौरान और यहां तक ​​कि अन्यथा, यह सामान्य ज्ञान का विषय है कि आदेश दिल्ली उच्च न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड किए जाते हैं। वही इस मामले में जिला न्यायाधीश सहित किसी भी व्यक्ति द्वारा आसानी से सत्यापित किया जा सकता है।" अदालत ने आगे कहा कि रजिस्ट्री हमेशा उच्च न्यायालय द्वारा संबंधित जेल अधीक्षक को दिए गए जमानत आदेशों को संप्रेषित करती है। इसलिए, यदि जिला न्यायाधीश को आदेश की प्रामाणिकता पर कोई संदेह था, तो दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायिक शाखा से भी आसानी से पुष्टि की जा सकती थी। अदालत ने कहा, "एक पार्टी को बंद करने के लिए जिसे जमानत दी गई है और उसे इस विश्वसनीय याचिका पर रिहा करने से मना कर दिया गया है, पूरी तरह से अस्वीकार्य है।" इसलिए, अदालत ने अपीलकर्ता को 1 लाख रुपये के निजी मुचलके पर रिहा करने की तारीख से 30 दिनों की अंतरिम जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया।

Monday 8 June 2020

रजिस्टर्ड मोबाइल फोन नंंबर का मालिक यह कहकर निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकता कि फोन किसी और ने इस्तेमाल किया था : पंंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट 8 Jun 2020


रजिस्टर्ड मोबाइल फोन नंंबर का मालिक यह कहकर निर्दोष होने का दावा नहीं कर सकता कि फोन किसी और ने इस्तेमाल किया था : पंंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट 8 Jun 2020

 पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने बुधवार को कहा कि अगर किसी अपराध के लिए मोबाइल फोन नंबर का इस्तेमाल किया जाता है, तो उसका पंजीकृत मालिक केवल यह दावा करके अपनी जवाबदारी से बच नहीं सकता कि फोन का इस्तेमाल किसी और ने किया था। न्यायमूर्ति हरसिमरन सिंह सेठी की एकल पीठ ने स्पष्ट किया कि रजिस्टर्ड मोबाइल फोन के मालिक पर यह बताने का दायित्व है कि उसके फोन का इस्तेमाल किसी और के द्वारा / अपराध के लिए कैसे किया गया। पीठ ने कहा कि "एक बार मोबाइल फोन, जो अपराध के कमीशन में इस्तेमाल किया गया है, याचिकाकर्ता के नाम पर पंजीकृत है और याचिकाकर्ता के केवाईसी के बायो-मेट्रिक सत्यापन के बाद उक्त नंबर जारी किया गया है, अपराध के कमीशन के लिए उक्त नंबर का उपयोग कैसे किया गया? याचिकाकर्ता को यह स्पष्ट करना चाहिए।" अदालत ने यह भी देखा कि आरोपी ने विशेष रूप से इनकार नहीं किया था कि वह उक्त मोबाइल नंबर का उपयोग नहीं कर रहा था।  अदालत अग्रिम जमानत अर्जी पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि आईपीसी की धारा 420 और आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत दर्ज एफआईआर में आरोपी का नाम अनावश्यक रूप से जोड़ा गया है। सरकार ने तर्क दिया था कि मोबाइल नंबर, जो जिसे अपराध के लिए इस्तेमाल किया गया, उससे फर्जी कॉल किए गए और उक्त नंबर आरोपी के नाम पर पंजीकृत था। यह प्रस्तुत किया गया कि उक्त मोबाइल नंबर बायो-मैट्रिक सत्यापन और केवाईसी के बाद अभियुक्त के नाम पर जारी किया गया। अदालत ने पाया कि मोबाइल फोन बरामद होना बाकी है और इस तरह, हिरासत में पूछताछ के लिए आरोपी की आवश्यकता है। इस तरह अदालत ने अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी। अदालत ने अपने आदेश में कहा, "एक बार फोन को बरामद करना आवश्यक है, याचिकाकर्ता की हिरासत में पूछताछ आवश्यक है ताकि यह पता लगाया जा सके कि याचिकाकर्ता समान प्रकृति के किसी अन्य मामले में भी शामिल है या नहीं। गिरफ्तारी से पूर्व ज़मानत देने के लिए कोई भी आधार नहीं बताया गया है, इसलिए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया जाता है और याचिका खारिज की जाती है। "

सुप्रीम कोर्ट ने एनआई एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत ईमेल और व्हाट्सएप के जर‌िए डिमांड नोटिस की सेवा की व्यवहार्यता 9 जून 2020


सुप्रीम कोर्ट ने एनआई एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत ईमेल और व्हाट्सएप के जर‌िए डिमांड नोटिस की सेवा की व्यवहार्यता पर अटॉर्नी जनरल का जवाब मांगा 9 Jun 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत ईमेल और व्हाट्सएप के जर‌िए "चेक के अनादर" मामलों में डिमांड नोटिस की सेवा की मांग वाले एक आवेदन में सोमवार को अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल की प्रतिक्रिया मांगी। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अगुवाई वाली एक पीठ ने सेवा के वैकल्पिक साधनों की व्यवहार्यता पर अटॉर्नी जनरल की प्रतिक्रिया मांगी और यह सुनिश्चित करने के तरीके कि इन वैकल्पिक साधनों के माध्यम से उक्त सेवा का दुरुपयोग नहीं किया जाता है। COVID -19 के मद्देनजर मामलों को दायर करने की सीमा अवधि बढ़ाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से उठाए गए सूओ मोटो मामले में इंटरलोक्युटरी आवेदन दायर किया गया था। आवेदक की ओर से एडवोकेट मयंक खिरसागर और साहिल मोंगा पेश हुए थे। सीजेआई बोबडे ने कहा, "हमें कुछ विशेषज्ञों ने बताया है कि लोग ईमेल और व्हाट्सएप के माध्यम से सेवा का दुरुपयोग करने की कोशिश करते हैं। इसलिए एजी इसका जवाब दे सकते हैं कि इस तरह की स्वतंत्रता का दुरुपयोग किए बिना यह कैसे किया जा सकता है। हमें बताएं कि उनकी सलाह क्या है, इसलिए इस पर विचार किया जा सकता है। हम इस पर विशेषज्ञ नहीं हैं।" एडवोकेट बिंटू थॉमस ने कहा कि सीमा का विस्तार ‌री-फाइलिंग के लिए भी लागू किया जाना चाहिए। इस पर सीजेआई बोबडे ने स्पष्ट किया, "चाहे फाइलिंग हो या फिर री-फाइलिंग, एक ही सिद्धांत लागू होंगे। यदि लॉकडाउन की अवधि के दौरान समय समाप्त हो जाता है, तो एक ही सिद्धांत लागू होगा। जब भी हम उस आदेश को पारित करेंगे, हम ऐसा कहेंगे।" इससे पहले, 23 मार्च को, सीजेआई के नेतृत्व वाली पीठ ने 15 मार्चा से सीमा अवधि बढ़ाने का एक सामान्य आदेश पारित किया था, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विशेष शक्तियों को शामिल किया गया था। 23 मार्च के आदेश को COVID-19 महामारी के दौरान देश भर की अदालतों और न्यायाधिकरणों में फिजिकल फाइलिंग को कम करने के मकसद से पारित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में कहा था, "इस तरह की कठिनाइयों को कम करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस न्यायालय सहित देश भर के संबंधित न्यायालयों / न्यायाधिकरणों में ऐसी कार्यवाही दायर करने के लिए वकीलों / वादियों को शारीरिक रूप से नहीं आना है, इसके लिए यह आदेश दिया गया है कि ऐसी सभी कार्यवाहियों में सीमा की अवधि, सामान्य कानून या विशेष कानूनों के तहत निर्धारित सीमा के बावजूद, चाहे वह क्षम्य हो या नहीं, विस्तारित रहेगी। आदेश 15 मार्च 2020 से/वर्तमान कार्यवाही में इस न्यायालय द्वारा पारित अगले आदेश तक प्रभावी रहेगा।" पीठ ने आगे कहा था कि अनुच्छेद 141 के अनुसार यह सभी अदालतों/ न्यायाधिकरणों के लिए बाध्यकारी होगा, "हम भारत के संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 142, अनुच्छेद 141 के साथ पढ़ें, के तहत इस शक्ति का उपयोग कर रहे हैं और घोषणा करते हैं कि यह आदेश सभी न्यायालयों / न्यायाधिकरणों और अधिकारियों पर अनुच्छेद 141 के आशयों के भीतर बाध्यकारी आदेश है।"

Sunday 7 June 2020

पत्नी भले ही अपना व्यवसाय करके कमाती हो, फिर भी है वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार : बॉम्बे हाईकोर्ट 26 मई 2020


पत्नी भले ही अपना व्यवसाय करके कमाती हो, फिर भी है वह गुजारा भत्ता पाने की हकदार : बॉम्बे हाईकोर्ट 26 मई 2020 

बॉम्बे हाईकोर्ट ने *क्रिमिनल रिवीजन एप्लीकेशन क्रमांक 164/2019 में संजय दामोदर काले विरुद्ध कल्याणी संजय काले व महाराष्ट्र राज्य के प्रकरण में आदेश दिनांक 26 मई 2020* को हाल ही में पुणे के एक 51 वर्षीय व्यक्ति की तरफ से दायर आपराधिक पुनरीक्षण आवेदन पर सुनवाई करते हुए कहा कि भले ही पत्नी अपना व्यवसाय करती हो और उससे पैसे कमा रही हो, फिर भी वह गुजारा भत्ता या रखरखाव पाने की हकदार है। इस व्यक्ति ने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें उसे निर्देश दिया गया था कि वह अपनी पूर्व-पत्नी को मासिक रखरखाव का भुगतान करे। हालांकि न्यायमूर्ति एनजे जामदार ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने इस तथ्य पर पर्याप्त रूप से विचार नहीं किया कि आवेदक की पत्नी के पास आय का एक स्रोत है, इसलिए उस सीमा तक रिवीजन एप्लीकेशन को अनुमति प्रदान की जा रही है और रखरखाव की राशि को 15,000 रुपये प्रति माह से घटाकर 12,000 रुपये प्रति माह किया जा रहा है। मामला इस जोड़े का विवाह 12 नवंबर, 1997 को हिंदू धार्मिक संस्कार के अनुसार हुआ था। पत्नी के अनुसार वैवाहिक जीवन की शुरुआत के बाद से ही उसके पति ने उसके साथ बहुत क्रूरता से व्यवहार किया। उसका पति उसे जनवरी 1999 में उसके पैतृक घर सतारा छोड़कर चला गया था। बार-बार आश्वासन देने के बावजूद भी वह उसे उसके वैवाहिक घर वापस नहीं लेकर गया। अंततः पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उसको महात्मा सोसाइटी, पुणे में स्थित उसके वैवाहिक घर में प्रवेश करने की अनुमति दी गई। उसके बाद पति-पत्नी ने वैवाहिक घर छोड़ दिया और ससुराल के लोगों से अलग रहने लग गए। इसके बाद अप्रैल, 2007 में उसके पति ने उससे तलाक लेने की इच्छा जाहिर की। हालांकि शुरुआत में पत्नी ने विरोध किया, परंतु बाद में उसने आपसी सहमति से तलाक लेने की याचिका के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए। चूंकि उसके पति ने उसको आश्वासन दिया था कि वह तलाक की इस डिक्री के बावजूद भी उसके साथ वैवाहिक संबंध बनाए रखेगा। इसलिए आपसी सहमति से तलाक की एक डिक्री 25 अक्टूबर, 2007 को प्राप्त कर ली गई थी। विवाह खत्म हो जाने के बावजूद भी पति अपनी पूर्व पत्नी के अपार्टमेंट में आता-जाता था और उसके साथ वैवाहिक संबंध भी बनाए, लेकिन, सितंबर 2012 से उसने अपनी पूर्व पत्नी के घर आना-जाना बंद कर दिया, जिसके बाद उसकी पूर्व पत्नी ने दावा किया कि उसके पास अपने रखरखाव और आजीविका के लिए कोई साधन नहीं है। उसने यह भी कहा कि वह केवल अपने पिता से मिल रही वित्तीय सहायता पर गुजारा कर रही है। जबकि इसके विपरीत उसके पूर्व पति के पास पर्याप्त साधन हैं। इसलिए उसने आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत अपने पूर्व पति से 50,000 रुपये प्रतिमाह की दर से रखरखाव मांगा था, परंतु पति अदालत के समक्ष पेश हुआ और अपनी उसने अपनी पूर्व पत्नी की इस मांग का विरोध किया। उसने इस बात भी विरोध किया कि उसने कभी अपनी पूर्व पत्नी के साथ बुरा व्यवहार किया था। इसके विपरीत उसने अदालत को यह बताया कि उसकी पूर्व पत्नी मनोवैज्ञानिक बीमारी से पीड़ित थी, इसलिए इस विवाह को निभाना मुश्किल हो गया था। ऐसे में उन्होंने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 12 (1) (ए) और धारा 13 (1) ( ia) के तहत याचिका दायर की थी। इतना ही नहीं उसने यह भी दलील दी थी कि अब उसकी पूर्व पत्नी 'कल्याणी ब्यूटी पार्लर' नाम से एक ब्यूटी पार्लर चलाती है और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई है। इसलिए उसे तलाक की डिक्री पारित होने से पहले आपसी समझौते के हिस्से के तौर पर धारा 125 के तहत रखरखाव मांगना चाहिए था। 2011 में पति ने पुनर्विवाह कर किया और व्यवसाय आदि में नुकसान का हवाला देते हुए फिर से रखरखाव की मांग का विरोध किया। अंत में फैमिली कोर्ट के जज ने माना कि महिला अपना रखरखाव करने में सक्षम नहीं है और उसके पूर्व पति ने उसकी उपेक्षा की है, जबकि उसके पूर्व पति के पास पर्याप्त साधन है कि वह अपनी पूर्व पत्नी का रखरखाव कर सकता है। फैमिली कोर्ट ने इस मामले में कहा था कि- ''यह सच है कि महिला ने अपने रखरखाव का दावा उस समय छोड़ दिया था, जब आपसी सहमति से तलाक के लिए डिक्री पारित की गई थी, परंतु यह तथ्य महिला को उसके रखरखाव मांगने के दावे से अलग नहीं करता है, क्योंकि रखरखाव का दावा न करना या रखरखाव के अधिकार को माफ करने के लिए किया गया इस तरह का समझौता पब्लिक पॉलिसी का विरोधी है। धारा 125 (1) के स्पष्टीकरण (बी) के तहत बताए गए अर्थ के तहत एक पत्नी है और तलाकशुदा भी है। ऐसे में पति से अलग रहने के लिए किया गया समझौता उसे उसके रखरखाव के दावे से विमुख नहीं कर सकता है।'' कोर्ट का फैसला आवेदक पति की तरफ से वकील सीमा सरनाईक उपस्थित हुई और प्रतिवादी पत्नी की तरफ से अधिवक्ता हितेश व्यास उपस्थित हुए। कोर्ट ने रामचंद्र लक्ष्मण कांबले बनाम शोभा रामचंद्र कांबले, 2019 में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए एक फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कई घोषणाओं के बाद न्यायालय ने इस आशय पर कानूनी स्थिति साफ की थी और कहा था कि कई फैसलों में यह कहा गया है कि एक समझौता ,जिसके तहत कोई पत्नी भविष्य में अपने रखरखाव का दावा करने के अधिकार छोड़ देती है या त्याग देती है, ऐसे समझौते सार्वजनिक नीति के विरोधी हैं। इसलिए, इस तरह के समझौते, भले ही स्वेच्छा से किए गए हो फिर भी लागू करने योग्य नहीं है। इसके बाद न्यायमूर्ति जामदार ने कहा कि जिस तरह से आवेदक की पत्नी ने अपनी जिरह में निष्प्क्षता दिखाई है,वह बातें महत्व रखती हैं। उसने साफ शब्दों में स्वीकार किया कि जब उसने आपसी सहमति से तलाक के लिए याचिका दायर की थी, तो वह उस फ्लैट से ब्यूटी पार्लर का कारोबार चला रही थी, जहाँ वह रह रही थी। कोर्ट ने कहा कि उसने यह भी स्वीकार किया कि उसने ब्यूटीशियन का कोर्स किया है और वह ब्यूटी पार्लर चलाती है। दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार करने के बाद जस्टिस जामदार ने कहा कि- ''रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री पर विचार करने के बाद मेरा मानना है कि प्रतिवादी पत्नी के उस दावे को फैमिली कोर्ट ने एक चुटकी नमक के साथ स्वीकार कर लिया था कि उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है। जबकि पेश साक्ष्यों व रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री से यह पता चलता है कि वह अपनी आजीविका बनाए रखने के लिए कल्याणी ब्यूटी पार्लर एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट नामक उक्त व्यवसाय को चला रही है।'' हालांकि इसी समय न्यायालय ने यह भी कहा कि पत्नी कुछ व्यवसाय करती है और कुछ पैसे कमाती है,यह बातें इस मामले का अंत नहीं है- ''न तो कमाने की संभावित क्षमता और न ही वास्तविक कमाई,चाहे जो भी हो,किसी भी मामले में रखरखाव के दावे से इनकार करने के लिए पर्याप्त नहीं है। फैमिली कोर्ट के जज ने इस मामले में 'सुनीता कचवा बनाम अनिल कचवा' के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला देकर ठीक किया है।'' पूर्वोक्त निर्णय में शीर्ष अदालत ने कहा था कि केवल इस आधार पर पत्नी के रखरखाव या गुजारे भत्ते के दावे को खारिज नहीं किया गया जाएगा कि वह स्वयं भी कुछ कमा रही है। अंत में न्यायालय ने कहा कि इस मुद्रास्फीतीय अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। इसलिए ब्यूटी पार्लर के व्यवसाय से होने वाली आय प्रतिवादी पत्नी की आजीविका के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है क्योंकि इस व्यवसाय की आय सीजन पर निर्भर है। न ही इस आय से उसे जीवन का वह स्टैंडर्ड मिल सकता है,जिस तरह का जीवन वह तलाक से पहले जी रही थी। इस प्रकार न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि फैमिली कोर्ट ने आवेदक की पत्नी की आय के स्रोत पर ठीक से विचार नहीं किया था इसलिए उसकी पत्नी को उसके जीवन का स्टैंडर्ड बनाए रखने में सहायता करने के लिए 15000 रुपये की बजाय 12,000 रुपये प्रति माह देना पर्याप्त होगा। 


परिसीमा अवधि तब शुरू होती है जब राहत पाने का अधिकार शुरू होता है, न कि उस वक्त जहां से विवाद 'पहली' बार शुरू होता है, लिमिटेशन एक्ट 113 : सुप्रीम कोर्ट


[परिसीमा अधिनियम अनुच्छेद 113] परिसीमा अवधि तब शुरू होती है जब राहत पाने का अधिकार शुरू होता है, न कि उस वक्त जहां से विवाद 'पहली' बार शुरू होता है : सुप्रीम कोर्ट 5 जून 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 113 के तहत संचालित होने वाले मामलों में परिसीमा अवधि तब शुरू होती है जब राहत पाने का अधिकार शुरू होता है, न कि उस वक्त जहां से विवाद 'पहली'बार शुरू होता है। वादी ने अपने बैंक के खिलाफ एक मुकदमा दायर करके एक अप्रैल 1997 और 31 दिसम्बर 2000 के बीच की अवधि के लिए उसके चालू खाते पर ब्याज की राशि/कमीशन तथा काटी गयी राशि की उचित गणना करने को लेकर एक मुकदमा दायर किया था। अपीलकर्ता ने बैंक द्वारा काटी गयी अत्यधिक राशि वापस दिलाने और उसके खाते में पैसे वापस आने तक की अवधि पर 18 प्रतिशत ब्याज दिलाने का भी अनुरोध किया था। अपीलकर्ता ने 2000 से लेकर उस वक्त बैंक के साथ पत्राचार किया था जब तक बैंक के वरिष्ठ प्रबंधक ने उसे यह नहीं लिखकर भेजा कि बैंक द्वारा सभी कदम नियमों के तहत उठाये गये हैं, इसलिए अपीलकर्ता को आगे इस संबंध में पत्राचार करने की जरूरत नहीं है। बैंक प्रबंधक का यह पत्र अपीलकर्ता को मई और सितम्बर 2002 में भेजा गया था। उसके बाद अपीलकर्ता ने बैंक को कानूनी नोटिस भेजा था, और फिर 2005 में उसने निचली अदालत में मुकदमा दायर किया था। ट्रायल कोर्ट ने नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के नियम 11(डी) के आदेश VII के तहत समय सीमा समाप्त होने संबंधी प्रावधानों के आधार पर मुकदमा खारिज कर दिया था, क्योंकि यह मुकदमा परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 113 में वर्णित तीन साल की समय सीमा के बाद दायर किया गया था। निचली अदालत ने कहा था कि अपीलकर्ता ने अक्टूबर 2000 में पहली बार मुकदमे का अधिकार प्राप्त होने के बाद की तीन साल की समय सीमा के बाद मुकदमा दायर किया था। निचली अदालत के इसी फैसले को प्रथम अपीलीय अदालत और बाद में हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचारनीय मुद्दा यह था कि क्या नागरिक प्रक्रिया संहिता के नियम 11(डी) के आदेश VII का इस्तेमाल करके यह मुकदमा खारिज किया जा सकता है? मुकदमे में किये गये ठोस दावों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की खंडपीठ ने वादी द्वारा अलग-अलग तारीखों पर बैंक के साथ किये गये पत्राचारों का हवाला दिया। इसके परिप्रेक्ष्य में कोर्ट ने परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 113 के दायरे पर विचार करना मुनासिब समझा। कोर्ट ने कहा : "ऐसा माना जाता है कि अनुच्छेद 113 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ऐसे मुकदमों से निपटने को लेकर प्रथम खंड के अन्य अनुच्छेदों से अलग है, जैसे- अनुच्छेद 58 (सबसे पहले मुकदमे का अधिकार जब प्राप्त होता है), अनुच्छेद- 59 (जब लेखपत्र या आदेश रद्द करने या निरस्त करने या करार को पहले ही समाप्त करने के बारे में वादी को तथ्यों की जानकारी होती है) और अनुच्छेद 104 (जब वादी को उसके अधिकार से पहली बार वंचित कर दिया जाता है)। ट्रायल कोर्ट द्वारा लिये गये उस दृष्टिकोण में, जिसे पहली अपीलीय अदालत ने और बाद में दूसरी अपील में हाईकोर्ट ने उचित ठहराया है, अनुच्छेद 113 की अभिव्यक्ति को अपरिहार्य बनाया गया होगा कि 'मुकदमा का पहला अधिकार कब प्राप्त होता है?' यह इस प्रावधान को फिर से लिखने तथा विधायी मंशा को अतिक्रमित करने जैसा होगा। हमें यह अवश्य मानना चाहिए कि ऊपर वर्णित प्रावधानों के बीच अंतर को लेकर संसद जागरूक थी और इसीलिए मशविरा के बाद 1963 के अधिनियम के अनुच्छेद 113 में 'मुकदमे का अधिकार कब' की सामान्य अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा यह 1963 के अधिनियम की धारा 22 के तहत आने वाले मुकदमों पर भी लागू होगा।" बेंच ने 'भारत सरकार एवं अन्य बनाम वेस्ट कोस्ट पेपर मिल्स लिमिटेड एवं अन्य (20004)2 एससीसी 747' और 'खत्री होटल्स प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत सरकार (2011)9 एससीसी 126' में दिये गये अपने पूर्व के दो फैसलों का भी उल्लेख किया। वाद की समीक्षा करते हुए बेंच ने कहा कि वादी ने अंतत: 28 नवम्बर 2003 को और दोबारा सात जनवरी 2005 को कानूनी नोटिस भेजे थे। उसके बाद उसने 23 फरवरी 2005 को मुकदमा दायर किया था। इस तथ्य को भी कार्रवाई के कारण के रूप में लिया जाता है। इसलिए उच्च न्यायालय, प्रथम अपीलीय अदालत और ट्रायल कोर्ट के फैसलों को दरकिनार करते हुए अपील मंजूर की जाती है। केस नं. : सिविल अपील नं. 2514/2020 केस का नाम : शक्ति भोग फुड इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया कोरम: न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी वकील : निश्चल कुमार नीरज और अनुज जैन

Saturday 6 June 2020

167(2) डिफॉल्ट जमानत


अभियुक्त के इन अधिकारों का उल्लेख करती है सीआरपीसी की धारा 167 25 Jan 2020 

सीआरपीसी की धारा 167 अभियुक्त के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस धारा के अंतर्गत अभियुक्त को जमानत तक मिल जाती है तथा अभियुक्त को कितने समय अवधि के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करना है। इसकी जानकारी इस धारा के अंतर्गत दी गई है। यह धारा अभियुक्त के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, इस धारा को पुलिस अन्वेषण वाले अध्याय में रखा गया है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 किया धारा 167 अभियुक्त के लिए तीन प्रकार की राहत प्रदान करती है तथा इन तीनों बातों का उल्लेख इस धारा के अंतर्गत किया गया है। 
 जानिए सीआरपीसी की धारा 173 का अर्थ 
1. गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने की अवधि 
2. मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाने वाला पुलिस रिमांड 
3. पुलिस द्वारा चार्जशीट पेश करने में देरी के कारण अभियुक्त की ज़मानत गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने की अवधि इस धारा के अंतर्गत पुलिस को निर्देश दिया गया है, कितने समय के भीतर अपने द्वारा गिरफ्तार किए गए, व्यक्ति को क्षेत्र अधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करेगी। इस धारा को अधिनियम की धारा 57 के संयुक्त अध्ययन में पढ़ा जाता है। अन्वेषण प्रथम बार धारा 57 के उपबंध के अधीन 24 घंटे के भीतर पूरा किया जाए यदि ऐसा नहीं हो सकता है तो धारा 167 के अधीन उस तिथि से 15 दिन के भीतर किया जाए जिस तिथि को प्रथम बार सक्षम क्षेत्राधिकार की धारा 57 में 24 घंटों की अवधि के भीतर पूरा अभियुक्त को पेश किया गया है।  जब पुलिस अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की जाती है तो उस व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अंतर्गत 24 घंटों के भीतर क्षेत्राधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है। इन 24 घंटों की अवधि में न्यायालय तक लाने के समय को काटा जाता है अर्थात पुलिस को अपने द्वारा गिरफ्तार किए गए, व्यक्ति को 24 घंटों के भीतर प्रस्तुत करना ही होगा। मनोज बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की धारा 167 के अधीन औपचारिक रूप से गिरफ्तार अभियुक्त यदि धारा 167 (2) तथा धारा 57 की अपेक्षा के अनुसार मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो ऐसी गिरफ्तारी 24 घंटे पश्चात व्यर्थ हो जाती है। मजिस्ट्रेट द्वारा दिया जाने वाला पुलिस रिमांड अधिनियम की धारा 167 (1) के अंतर्गत पुलिस को 24 घंटे के भीतर अन्वेषण पूरा करने के निर्देश दिए गए हैं तथा व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर सक्षम न्यायालय के समक्ष उपस्थित करना होगा। यदि पुलिस का समय पूरा नहीं होता है तो उसके लिए रिमाइंड जैसी व्यवस्था रखी थी। धारा 167 (1) के अनुसार जब अभिरक्षा में निरुद्ध व्यक्ति का अन्वेषण 24 घंटे के भीतर पूरा नहीं हो पाता है और इस बात के विश्वास का पर्याप्त आधार है कि अभियोग के समुचित आधार है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी, अन्वेषणकर्ता अधिकारी जो पद में उप निरीक्षक से निम्तर नहीं है। मामले से संबंधित डायरी की प्रविष्टि की एक प्रति के साथ अभियुक्त व्यक्ति को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष भेजेगा। देवेंद्र कुमार बनाम हरियाणा राज्य के मामले में यह निर्धारित किया गया है कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस रिमांड 15 दिनों से अधिक नहीं हो सकेगी। यदि आवश्यक हुआ तो इसके बाद अभियुक्त को न्यायिक अभिरक्षा (हिरासत) में रखा जाएगा। यदि पुलिस द्वारा अन्वेषण अधिकारी द्वारा हेतु मजिस्ट्रेट से गिरफ्तार किए गए व्यक्ति का रिमांड मांगा जाता है तो मजिस्ट्रेट ऐसा रिमांड आवश्यकता के अनुसार समय अवधि के लिए दिए देगा परंतु ऐसे किसी भी रिमांड की समय अवधि 15 दिवस से अधिक नहीं होगी। पुलिस द्वारा चार्जशीट पेश करने में देरी के कारण अभियुक्त की ज़मानत दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के ज़मानत के उपबंधों के अलावा धारा 167 (2) के अंतर्गत भी जमानत के कुछ प्रावधान रखे गए हैं। इस धारा के अंतर्गत यदि पुलिस द्वारा चालान पेश करने में देरी की जाती है। पुलिस धारा 173 के अंतर्गत अपना अंतिम प्रतिवेदन उपस्थित नहीं करती है, तो इस आधार पर अभियुक्त को ज़मानत दी जा सकती है, परंतु यदि पुलिस द्वारा चालान पेश कर दिया गया है तो अभियुक्त को ज़मानत इस आधार पर नहीं दी जाएगी। इस धारा में पुलिस रिमांड एव पुलिस द्वारा पेश किया जाने वाला अंतिम प्रतिवेदन इन दोनों को संयुक्त रूप से रखा गया है। पुलिस को अपना अंतिम प्रतिवेदन एक समय अवधि के भीतर पेश किए जाने के लिए बाध्य करने के प्रयास इस धारा के अंतर्गत किए गए। कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहां अन्वेषण ऐसे अपराध के संबंध में है जो मृत्यु आजीवन कारावास यह 10 वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय है। अर्थात यदि अभियुक्त के ऊपर उन धाराओं के अंतर्गत मुकदमा चलाया जा रहा है, जिन धाराओं में 10 वर्ष से ऊपर का कारावास रखा गया है तो पुलिस द्वारा 90 दिनों के भीतर अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 के अंतर्गत प्रस्तुत किया जाएगा। यदि अभियुक्त पर कोई ऐसी धाराओं में अभियोजन चलाया जा रहा है, जिनमें कारावास की अवधि या फिर दंड ,मृत्यु या आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अधिक के कारावास के अलावा कोई भी अन्य दंड रखा गया है तो ऐसी परिस्थिति में इस अपराध में अभियुक्त को जमानत मिल सकती है यदि पुलिस द्वारा 60 दिन की अवधि तक अपना अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया है। न्यायालय द्वारा इस अवधि की गणना उस दिवस से की जाती है जिस दिवस से अभियुक्तों को न्यायालय में पेश किया जाता है। न्यायालय द्वारा अभियुक्तों इस धारा के अंतर्गत जमानत दे दी गई है तो वह दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की जमानत के प्रावधानों के अनुरूप निरंतर जमानत ही कह लाएगी, अभियोजन पक्ष यह दलील नहीं दे सकता की ज़मानत को केवल इसलिए रद्द किया जाए की अभियोजन पक्ष द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन पेश कर दिया गया है। इस मामले पर बशीर बनाम हरियाणा राज्य का एक वाद उल्लेखनीय है। इस वाद के अंतर्गत अभियुक्तों पर धारा 302 सहपाठित धारा 149, धारा 347 सहपाठित धारा 149, धारा 143 सहपाठित धारा 147 के आरोप थे। इस वाद में पुलिस द्वारा अपना अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत पेश किए जाने में देरी की गई थी। इस आधार पर अभियुक्तों को सेशन न्यायालय द्वारा जमानत धारा 167 (2) के अंतर्गत प्रदान कर दी गई थी। अभियोजन पक्ष द्वारा यह दलील दी गई कि अब चालन पेश कर दिया गया है तथा अभियुक्तों की जमानत रद्द कर दी जाए। सेशन न्यायालय द्वारा अभियुक्तों की जमानत रद्द कर दी गई। अंत में यह वाद उच्चतम न्यायालय तक गया तथा उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह कहा कि यदि अभियुक्तों को धारा 167 (2) के अंतर्गत ज़मानत प्रदान कर दी जाती है तो यह जमानत जमानत को निरस्त किए जाने का आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 (5) के आधार पर ही निरस्त किया जा सकता है। अर्थात धारा 437 439 के अधीन निरंतर जमानत पर माना जाएगा। कमलजीत सिंह बनाम राज्य के वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्णय लिया है कि जहां अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष समर्पण कर दिया तथा वह इस प्रकार समर्पण के बाद न्यायिक अभिरक्षा में भेज दिया गया तथा उस मामले में आरोप पत्र 90 दिन के पश्चात पेश किया गया तो उक्त दशा में अभियुक्त जमानत पर छोड़े जाने का हकदार होगा।


Thursday 4 June 2020

अभियुक्त को सहअभियुक्त की गवाही के आधार पर दोषी ठहराना सुरक्ष‌ित नहींः सुप्रीम कोर्ट 4 Jun 2020


अभियुक्त को सहअभियुक्त की गवाही के आधार पर दोषी ठहराना सुरक्ष‌ित नहींः सुप्रीम कोर्ट 4 Jun 2020 

 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी अभियुक्त को सहअभियुक्त की अपुष्ट गवाही के आधार पर दोषी ठहराना सुरक्षित नहीं है। जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, केएम जोसेफ और वी रामासुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि एक सहअ‌‌भ‌ियुक्त को अपनी गवाही के भौतिक विवरणों की पुष्टि करनी चाहिए। अदालत ने तमिलनाडु के पूर्व विधायक एमके बालन के अपहरण और हत्या के दोषियों का दोष बरकरार रखा। 2001 के इस मामले में एक डिवीजन बेंच के विभाजित फैसले के बाद 3 जजों की बेंच के पास भेजा गया था। इस मामले में, न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम के दो प्रावधानों के बीच विरोधाभास पर चर्चा की।  साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 में कहा गया है कि एक सह-अपराधी एक सक्षम गवाह होता है और सहअपराधी की अपुष्ट गवाही पर आधारित दोष मात्र इस आधार पर अवैध नहीं है कि गवाही अपुष्ट है। जबकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 का इलस्ट्रेशन 'बी', यह कहता है कि कोर्ट यह मान सकती है कि सहअपराधी भरोस योग्य नहीं है, जब तक कि वो जब तक कि वह भौतिक पुष्टि न कर दे। न्यायालय ने कहा कि इन दो प्रावधानों के आपसी ‌विरोधाभासों पर ध्यान दिया जा चुका है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरवन सिंह रतन सिंह बनाम पंजाब राज्य, हारूम हाजी अब्दुल्ला बनाम महाराष्ट्र राज्य, शेषन्ना भूमन्ना यादव बनाम राज्य मामले में समझाया जा चुका है। बेंच ने के हाशिम बनाम तमिलनाडु राज्य (2005) 1 SCC 237 के मामले में की ‌निम्न टिप्पणियों को विशेष रूप से रेखांकित किया:  -यह आवश्यक नहीं है कि इस मामले में हर भौतिक परिस्थिति की स्वतंत्र पुष्टि होनी चाहिए कि मामले में स्वतंत्र सबूत, शिकायतकर्ता या सहअपराधी की गवाही के अलावा, अपने आप में दृढ़ विश्वास बनाए रखने के लिए पर्याप्त होना चाहिए - यह आवश्यक है कि यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ अतिरिक्त सबूत होने चाहिए कि यह सहअपराधी (या शिकायतकर्ता) की कहानी सही है और कार्रवाई करने के लिए उचित रूप से सुरक्षित है। -इसका मतलब यह नहीं है कि पहचान के रूप में पुष्टि को अभियुक्त की पहचान करने के लिए आवश्यक सभी परिस्थितियों तक विस्तारित होना चाहिए। - पुष्टि स्वतंत्र स्रोतों से होनी चाहिए और एक सहअपराधी की गवाही दूसरे सहअपराधी की गवाही की पुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं होगी। हालांकि परिस्थितियां ऐसी हो सकती हैं, जिसमें पु‌‌‌ष्ट‌ि की आवश्यकता को सुरक्षित किया जा सके, उन विशेष परिस्थितियों में दोष सिद्ध‌ि अवैध नहीं होगी। -पुष्टि इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होना चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है। यदि यह अपराध के साथ उसके संबंध का परिस्थितिजन्य साक्ष्य है तो पर्याप्त होगा। बेंच ने कहा, साक्ष्य अधिनियम धारा 133, धारा 114 के इलस्ट्रेशन (b)के साथ पढ़ें, का संयुक्त परिणाम यह है कि अदालतों, विवेक के एक नियम के रूप में, आवश्यकता का विकास किया है कि किसी अभियुक्त को केवल सहअपराधी की अपुष्ट गवाही के आधार पर दोषी ठहराना असुरक्षित होगा। सहअपराधी की गवाही की सामग्री विशेष के संबंध में पु‌ष्टि होनी चाहिए। यह स्पष्ट है कि एक सहअपराधी को अपराध की सामान्य रूपरेखा से परिचित होना चाहिए क्योंकि उसने अपराध में भाग लिया है और इसलिए, वास्तव में, सामान्य शब्दों में मामले से परिचित होना चाहिए। एक विशेष अभियुक्त और अपराध के बीच संबंध जोड़ने के लिए एक साथी की गवाही की पुष्टि महत्वपूर्ण महत्व होगी। केस नं : CRIMINAL APPEAL N0. 403 of 2010 केस टाइटल: सोमसुदंरम @ सोमू बनाम द स्टेट कोरम: जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, केएम जोसेफ और वी रामासुब्रमण्यन

जब अपहरण के बाद हत्या होती है तो कोर्ट अपहरणकर्ता को हत्यारा मान सकता है: सुप्रीम कोर्ट 4 Jun 2020


जब अपहरण के बाद हत्या होती है तो कोर्ट अपहरणकर्ता को हत्यारा मान सकता है: सुप्रीम कोर्ट 4 Jun 2020

 सुप्रीम कोर्ट की तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने तमिलनाडु के नेता एम के बालन को 2001 में हुए अपहरण और हत्या का दोषी करार दिया है। दो-सदस्यीय खंडपीठ के खंडित फैसले के कारण इस मामले को तीन-सदस्यीय पीठ को सौंपा गया था। न्यायमूर्ति (अब सेवानिवृत्त) वी. गोपाल गौड़ा और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने 2016 में इस मामले में खंडित निर्णय दिया था। न्यायमूर्ति गौड़ा ने आरोपी को बरी कर दिया था, जबकि न्यायमूर्ति मिश्रा ने अभियुक्त को दोषी ठहराया था। (सोमासुन्दरम उर्फ सोमू बनाम पुलिस आयुक्त के माध्यम से राज्य सरकार, (2016) 16 एससीसी 355)  उसके बाद इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति के. एक. जोसेफ और न्यायमूर्ति वी. रमासुब्रमण्यम की खंडपीठ ने की। बेंच ने इस मामले के साक्ष्य का आकलन करते हुए व्यवस्था दी कि अपहरण के बाद हुई हत्या के मामले में अपहरणकर्ता को हत्यारा माना जा सकता है। खंडपीठ की ओर से न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ द्वारा लिखे गये फैसले में कहा गया है, "यथोचित मामले में अपहरण के बाद हत्या की घटना कोर्ट को यह मानने में सक्षम बनाती है कि अपहरणकर्ता ही हत्यारा है। सिद्धांत यह है कि अपहरण के बाद अपहरणकर्ता ही यह बता पाने की स्थिति में होगा कि पीड़ित का अंतत: क्या हुआ और यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो यह स्वाभाविक है और तार्किक भी कि कोर्ट के लिए आवश्यक रूप से यह निष्कर्ष निकालना सहज हो सकता है कि उसने (अपहरणकर्ता ने) बदनसीब पीड़ित को खत्म कर दिया है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 भी अभियोजन के पक्ष में ही होगी।" बेंच ने आगे लिखा, "जहां अपहरण के बाद अपहृत व्यक्ति को गैर-कानूनी तरीके से कैद करके रखा जाता हो और बाद में उसकी मौत हो जाती है, तो यह अपरिहार्य रूप से निष्कर्ष निकलता है कि पीड़ित की मौत उनके हाथों ही हुई है, जिन्होंने उसका अपहरण करके कैद में रखा था।" न्यायालय ने 'पश्चिम बंगाल सरकार बनाम मीर मोहम्मद उमर (2000) 8 एससीसी 382' एवं 'सुचा सिंह बनाम पंजाब सरकार (एआईआर 2001 एससी 1436)' मामले में दिये गये पूर्व के निर्णयों का भी हवाला दिया। सुचा सिंह मामले में न्यायमूर्ति के टी थॉमस ने कहा था : "जब एक से अधिक व्यक्तियों ने पीड़ित को अगवा किया हो, जिसकी बाद में हत्या हो जाती है, तो तथ्यात्मक स्थिति को ध्यान में रखकर यह मानना कोर्ट के लिए न्यायोचित है कि सभी अपहरणकर्ता हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 34 का इसमें सहयोग लिया जा सकता है, जब तक कि कोई विशेष अपहरणकर्ता अपने स्पष्टीकरण के साथ कोर्ट को यह संतुष्ट नहीं करता कि उसने बाद में पीड़ित के साथ क्या किया, अर्थात् क्या उसने अपने सहयोगियों को रास्ते में छोड़ दिया था या क्या उसने दूसरों इस जघन्य कृत्य को करने से रोका था आदि, आदि।" इन मामलों में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत अनुमान का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया गया था कि ऐसे मामलों में किसी अन्य प्रकार की परिस्थिति साबित करने का जिम्मा अभियुक्त का होता है। मामलों के तथ्यों को लेकर कोर्ट ने व्यवस्था दी कि अभियुक्तों द्वारा हत्या को अंजाम दिये जाने का अनुमान सही लगाया गया था।

Monday 1 June 2020

जेल दोषियों को सजा देने के लिए है, न कि अंडरट्रायल को हिरासत में लेकर समाज को संदेश भेजने के लिए


"जेल दोषियों को सजा देने के लिए है, न कि अंडरट्रायल को हिरासत में लेकर समाज को संदेश भेजने के लिए" : दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी करते हुए दिल्ली दंगों के आरोपी को जमानत दी 1 Jun 2020 

 दिल्ली दंगों के दौरान एक दुकान जलाने के आरोपी व्यक्ति को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर अदालत को यह लगता है कि अभियुक्त को जेल में रखने से जांच और अभियोजन में कोई सहायता नहीं होने वाली है तो सिर्फ इस आधार पर जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरोपी को हिरासत में रखकर 'समाज को एक संदेश भेजना'है। न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की एकल पीठ ने कहा कि जेल मुख्य रूप से दोषियों को सजा देने के लिए है, न कि अंडरट्रायल को हिरासत में लेकर 'समाज को संदेश भेजने'के लिए। अदालत ने कहा कि- 'कोर्ट का काम कानून के अनुसार न्याय करना है, न कि समाज को संदेश देने का। यह एक ऐसी भावना है, जिसके तहत राज्य मांग करता है कि बिना किसी उद्देश्य के भी कैदियों को जेल में रखा जाए, जिससे जेलों में भीड़ बढ़ जाएगी। वहीं अगर इस अपरिहार्य धारणा के साथ अंडरट्रायल को रखा जाएगा तो उनको ऐसा लगेगा कि उनके मुकदमों की सुनवाई पूरी होने से पहले ही उनको सजा दे दी गई है और सिस्टम उनके साथ गलत व्यवहार कर रहा है। वहीं यदि एक लंबी सुनवाई के बाद अंत में अभियोजन पक्ष अपना आरोप साबित करने में नाकाम रहता है तो राज्य अभियुक्त द्वारा जेल में बिताए गए उसके जीवन के बहुमूल्य वर्षों को वापस नहीं कर सकता। दूसरी तरफ यदि मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद किसी अभियुक्त को सजा दी जाती है तो निश्चित रूप से उसे वह सजा काटनी होगी।' याचिकाकर्ता की तरफ से दी गई दलीलें आवेदक के लिए उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका एम जॉन ने दलील दी कि शिकायतकर्ता मोहम्मद शानावाज के जिस पूरक बयान पर राज्य भरोसा कर रहा है, उस बयान में कहीं भी आवेदक को कथित अपराध के साथ नहीं जोड़ गया है। जॉन ने यह भी दलील दी कि शिकायतकर्ता से आवेदक ही पहचानने करवाने के लिए आवेदक की कोई भी पहचान परेड नहीं करवाई गई थी, जो कि गैरकानूनी रूप से एकत्रित होकर आगजनी करने जैसे मामलों में की जानी चाहिए। यह भी प्रस्तुत किया गया था कि शिकायतकर्ता की दुकान, जहां कथित तौर पर आवेदक को स्पॉट किया गया है। वहीं राजधानी पब्लिक स्कूल के पास का सीसीटीवी फुटेज जिसमें आवेदक की उपस्थिति दिख रही है। यह दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के आसपास नहीं हैं। इसके बाद सुश्री जॉन ने यह भी तर्क दिया कि जिन धाराओं के तहत आरोप लगाया गया है, उनमें से सिर्फ आईपीसी की धारा 436 के तहत ही एक गैर-संज्ञेय अपराध बनता है। राज्य द्वारा दिए गए तर्क राज्य की तरफ से पेश होते हुए अतिरिक्त लोक अभियोजक ने दलील दी कि आरोपी की पहचान शिकायतकर्ता कांस्टेबल विकास ने की थी। साथ ही उसकी पहचान राजधानी स्कूल के बाहर के सीसीटीवी फुटेज से हुई है। इसके अलावा यह प्रस्तुत भी किया गया कि इस घटना का कोई फुटेज उपलब्ध नहीं है, लेकिन पीडब्ल्यूडी द्वारा विभिन्न इलाकों में लगाए गए कुछ कैमरों की फुटेज अभी मिलनी बाकी हैं, जिनके आधार पर आगे की जांच की जाएगी। कोर्ट ने क्या कहा सबूतों को देखने के बाद अदालत ने कहा कि कहीं भी शिकायतकर्ता ने आवेदक का नाम नहीं लिया है अन्यथा आवेदक की पहचान हुई है। अदालत ने उस कांस्टेबल विकास के बयान पर भरोसा करने से इनकार कर दिया, जिसे मामले का चश्मदीद गवाह बताया गया है। अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता ने अपने बयान में यह बताया है कि जब आरोपी कथित तौर पर उसकी दुकान जला रहा था तो उसने पुलिस को फोन करने की कोशिश की थी परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। अदालत ने कहा कि 'पहली बार में यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब कांस्टेबल विकास मौके पर मौजूद था तो शिकायतकर्ता यह क्यों कहेगा कि उसने पुलिस को टेलीफोन किया था, परंतु वह विफल रहा।' अदालत ने इस दावे पर भी संदेह जताया कि 400 मीटर दूर स्थित स्कूल के सीसीटीवी कैमरा में शिकायतकर्ता की दुकान के बाहर हो रही घटना रिकॉर्ड हुई होगी। आरोपी को जमानत देते समय अदालत ने कहा कि- 'जबकि आमतौर पर यह अदालत जमानत पर विचार करते समय सबूतों पर किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं करती है। हालांकि यहां एक ऐसा मामला है, जहां लगभग 250-300 व्यक्तियों ने गैरकानूनी तौर पर एकत्रित होकर एक अपराध किया है और उनमें से पुलिस ने सिर्फ दो को पकड़ा है, जिनमें से एक आवेदक भी है। इस अजीबोगरीब परिस्थिति में यह अदालत प्रथम दृष्टया सबूतों की जांच करने पर मजबूर हुई है, जो सिर्फ यह आकलन करने तक सीमित है कि कैसे पुलिस ने इतनी भीड़ में से आवेदक की पहचान की है।' इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका एम जॉन और अधिवक्ता बिलाल अनवर खान ने किया था।