Tuesday 29 April 2014

धारा 167 (2) द.प्र.सं.

             धारा 167 (2) द.प्र.सं. के बारे में

1 -    न्याय दृष्टांत विपुल शीतल प्रसाद अग्रवाल विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात (2013) 1 एस.सी.सी. 197 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के अनुसार राज्य पुलिस ने नब्बे दिन के भीतर अनुसंधान करके चार्जशील पेश कर दी बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसंधान संतोषप्रद नहीं पाया । सी.बी.आई ने सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशों पर अनुसंधान हाथ में लिया सी.बी.आई ने पुनः प्रथम सूचना प्रतिवेदन पंजीबद्ध किया और अनुसंधान करके 90 दिन के भीतर चार्जशीट पेश की । अभियुक्त धारा 167 (2) के तहत जमानत का पात्र नहीं होगा । इस मामले में अग्रिम अनुसंधान और ताजा अनुसंधान शब्दों को स्पष्ट किया गया है ।

2 -    न्याय दृष्टांत प्रज्ञा सिंह ठाकुर विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र (2011) 10 एस.सी. 445 के अनुसार अब चार्जशीट पेश हो जाने के बाद धारा 167 (2) की जमानत नहीं दी जा सकती है ।

3 -    न्याय दृष्टांत सुंदर विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 1017 के अनुसार जहांँ 10 वर्ष तक का कारावास हो वहाँ 60 दिन की अवधि विचार में ली जायेगी । अपराध आजीवन कारावास और 10 वर्ष से कम न होने वाली कारावास से संबंधित हो अर्थात् अपराध में स्पष्ट अवधि 10 वर्ष या इससे अधिक की हो तभी 90 दिन मानी जायेगी इस मामले में लूट का अपराध था जो राजमार्ग पर सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्योदय के पूर्व नहीं किया गया था अवधि 60 दिन मानी गयी ।

4 -    जमानतीय मामलों में जमानत अभियुक्त का निरपेक्ष अधिकार है और इसमें न्यायालय को कोई विवेकाधिकार नहीं है अभियुक्त यदि जमानत देने के लिए तैयार है तो उसे पुलिस द्वारा/न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया जायेगा । इस मामले में न्याय दृष्टांत रसिक लाल विरूद्ध किशोर (2009) 4 एस.सी. सी. 446 अवलोकनीय है ।

जमानत के निरस्त करने के बारे में

               जमानत के निरस्त करने के बारे में

 
1 -    धारा 439 (2) दण्ड प्रक्रिया संहिता यदि जमानत आदेश विधि की दृष्टि से दुर्बल हो और जिससे न्याय की हानि होती है तो ऐसे आदेश को निरस्त किया जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत कनवर सिंह मीणा विरूद्ध स्टेट आफ राजस्थान ए.आई.आर. 2013 एस.सी. 296 अवलोकनीय है ।
 
2 -    एक बार जमानत दे देने के बाद उसे यांत्रिक तरीके से खारिज नहीं करना चाहिए जब तक की ऐसी Supervening परिस्थितियाँ न हो जिसमें अभियुक्त को जमानत पर रखना उचित न हो ।
 
3 -    न्याय दृष्टांत सी.बी.आई विरूद्ध सुब्रहमणी गोपाल कृष्णन् (2011) 5 एस.सी. 296 के अनुसार जमानत निरस्ती के आधार बहुत बवहमदज होना चाहिए और अत्यंत महत्वपूर्ण परिस्थितियां होना चाहिए जिसमें जमानत निरस्त करना आवश्यक हो गया हो तभी जमानत निरस्त करना चाहिए ।
 
4 -    प्रकाश कदम विरूद्ध रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता 2011 (6) एस.सी.सी 189 में अपील/रिवीजन न्यायालय द्वारा जमानत निरस्त करने के बारे में प्रकाश डाला गया है और यह कहा गया है कि ऐसा कोई निरपेक्ष नियम नहीं है कि जमानत निरस्ती के प्रावधान जमानत देने के प्रावधान से अलग है यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है जमानत निरस्त करते समय न्यायालय अपराध की प्रकृति, गंभीरता अभियुक्त की स्थिति आदि पर विचार करती है यदि अभियुक्त के विरूद्ध अत्यंत गंभीर अभियोग हो तो उसकी जमानत निरस्त की जा सकती है चाहे उसने उसका दुरूपयोग न किया हो केवल अभियुक्त ने जमानत का दुरूपयोग नहीं किया है यह जमानत निरस्त करते समय एकमात्र विचारणीय तथ्य नहीं हो सकता । जहाँ सुसंगत सामग्री को विचार में नहीं लिया गया और असंगत सामग्री को विचार में लेकर जमानत दे दी गयी हो और जमानत का लिया जाना अनुचित हो वहाँ उसे निरस्त की जा सकती है इस संबंध में दिनेश विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात (2008) 5 एस.सी.सी. 66 अवलोकनीय है ।
 
5 -    न्याय दृष्टांत डी.के. गणेश बाबू विरूद्ध पी.टी. मनोकरण ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 1450 के अनुसार अग्रिम जमानत की शक्तियाँ एक्सटरा आॅडिनरी पाॅवर है इनका उपयोग बहुत कम करना चाहिए प्रस्तावित गिरफ्तारी की वैधानिकता नहीं देखी जा सकती गिरफ्तारी को रोकने के लिए अंतरिम आदेश नहीं किया जाना चाहिए ।

अग्रिम जमानत S. 438

                 अग्रिम जमानत के बारे में


1 -    अभियुक्त को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी के विरूद्ध अंतरिम संरक्षा दी । उसके बाद वह पूछताछ के लिए और अनुसंधान के लिए उपलब्ध नहीं हुआ तब उसे फरार घोषित किया गया ऐसे अभियुक्त को अपराध की गंभीरता और प्रकृति को देखते हुये और अभियुक्त के आचरण को देखते हुए अग्रिम जमानत देने से इंकार किया ।
 
2 -    लवेश विरूद्ध स्टेट (2012) 8 एस.सी.सी. 730 धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता का आवेदन पत्र सर्वप्रथम सत्र न्यायालय में लगाना चाहिए फिर यदि आवश्यक हो तो माननीय उच्च न्यायालय में लगाना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रिया अग्रवाल विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2012 एम.पी. 813 अवलोकनीय   है ।
 
3 -    धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत पारित आदेश की  Life Curtailed नहीं की जा सकती । इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरनाम सिंह विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी.आई.एल.आर. 2012 एम.पी. एस.एन. 96 अवलोकनीय है ।
 
4 -    माननीय उच्च न्यायालय में जमानत आवेदन सीधे प्रस्तुत किया गया पहले सत्र न्यायालय या विचारण न्यायालय में आवेदन नहीं किया गया क्या ऐसा आवेदन चलने योग्य है ? यदि विशेष असामान्य परिस्थितियां और कारण बतलाये जायेंगे तब ऐसा आवेदन सीधे उच्च न्यायालय में चल सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत छोटे खान विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2012 एम.पी. 1095 अवलाकनीय है ।
 
5 -    न्याय दृष्टांत सिद्धाराम एस मैत्रे विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 312 के अनुसार अग्रिम जमानत सीमित अवधि के लिए नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसी जमानत देना धारा 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत विधायिका के आशय के विपरीत है साथ ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के भी विपरीत है सामान्यतः अग्रिम जमानत का लाभ प्रकरण के विचारण की समाप्ति तक के लिए होता है जब तक की ऐसी जमानत को अभियुक्त द्वारा जमानत का दुरूपयोग करने के आधार पर निरस्त न कर दिया गया हो ।
 
6 -    अग्रिम जमानत देने या न देने के बारे में कोई स्टेªट जैकेट फार्मूला नहीं बनाया जा सकता लेकिन इसी मामले में अर्थात् उक्त सिद्धाराम एस. मैत्रे विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र में कुछ सिद्धांत बतलाये गये है जो ध्यान में रखना चाहिए ।
 
7 -    न्याय दृष्टांत रवीन्द्र एक्सेना विरूद्ध स्टेट आफ राजस्थान (2010) 1 एस.सी.सी. 684 के अनुसार जब तक अभियुक्त गिरफ्तार नहीं होता तब तक अग्रिम जमानत किसी भी समय दी जा सकती है अभियोग पत्र प्रस्तुत हो चुका है ऐसे तकनीकी आधारों पर किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से उसे वंचित नहीं किया जा सकता ।
 
8 -    सोनू उर्फ शहजाद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. 2010 (1) एम.पी.एच.टी. 421 अग्रिम जमानत के बारे में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत है जिसके अनुसार:-
    धारा 439 के आवेदन के प्रचलनशील होने के लिए अभियुक्त का अभिरक्षा में होना आवश्यक है । नियमित जमानत आवेदन को त्वरित गति से निराकरण करना चाहिए इस मामले में यह भी कहा गया कि अभियुक्त अग्रिम में अपने समर्पण की तिथि बतला सकता है और उस तिथि पर केस डायरी प्रस्तुत करने के लिए कोई स्थगन नहीं किया जाना चाहिए । न्यायालय अंतिरम जमानत की शक्तियां भी रखते है केस डायरी न आने पर अंतिरम जमानत भी दी सकती है । अंतरिम जमानत की शक्तियों के बारे में न्याय सुखवंत सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब (2009) 7 एस.सी.सी. 559 भी अवलोकनीय है ।
 
9 -    यूनियन आफ इंडिया विरूद्ध पदम् नारायण अग्रवाल ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 254 के अनुसार ऐसा आदेश नहीं किया जा सकता की अभियुक्त को 10 दिन का अग्रिम सूचना पत्र दिये बिना गिरफ्तार नहीं किया जायेगा । न्यायालय को ऐसा ठसंदामज व्तकमत करने का क्षेत्राधिकार नहीं है ।
 
10 -    न्याय दृष्टांत फाजीलत मोहम्मद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 7 के अनुसार यदि किसी अभियुक्त को अग्रिम जमानत दी गयी हो और उसकी नियमित जमानत का आवेदन पत्र निरस्त कर दिया गया हो तब वरिष्ठ न्यायालय में अग्रिम जमानत आवेदन पत्र फिर चलने योग्य नहीं होगा लेकिन मामलों के तथ्यों और परिस्थितियों में अग्रिम जमानत की अवधि 45 दिन के लिए बढ़ाई गयी । इस संबंध में न्याय दृष्टांत गोपीचंद्र खत्री विरूद्ध सुशील कुमार आई.एल.आर. 2008 एम.पी.एन.ओ.सी. 85 अवलोकनीय है ।
 
11 -    न्याय दृष्टांत स्टेट आफ पंजाब विरूद्ध रानिंदर सिंह (2008) 1 एस.सी.सी 564 के अनुसार अग्रिम जमानत के न्यायालय ने एक शर्त यह लगायी थी कि अभियुक्त पुलिस के समक्ष पूछताछ के लिए उपस्थित रहेगा उसने इस शर्त को भंग किया राज्य अभियुक्त की जमानत निरस्ती की कार्यवाही कर सकता है ।
 
12 -    न्याय दृष्टांत खुशेन्द्र बोरकर विरूद्ध स्टेट आफ उत्तर प्रदेश 2007 (4) एम.पी.एच.टी. 416 के अनुसार सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय को ट्रांजिटरी अग्रिम जमानत देने की समवर्ती शक्तियाँ  है ।
 
13 -    न्याय दृष्टांत विलास पांडुरंग पवार विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 3316 के अनुसार धारा 18 एस.सी.एस.टी. एक्ट के बार के संबंध में अवलोकनीय है । जिसमें यह कहा गया है कि प्रथम दृष्टांत धारा 3 (1) एस.सी.एस.टी. एक्ट का अपराध बनता है या नहीं यह देखना न्यायालय का कर्तव्य है और यदि अपराध नहीं बनता है तब धारा 18 का बार लागू नहीं होता है । इस मामलें में यह भी बतलाया गया है कि इस तथ्य को देखने के लिए साक्ष्य को सीमित उद्देश्य के लिए देखना जाना होता है ।
 
14 -    स्टेट आफ महाराष्ट्र विरूद्ध मोहम्मद शाजिद हुसैन (2008) 1 एस.सी.सी. 213 के मामले में यह कहा गया कि अग्रिम जमानत देते समय अपराध की प्रकृति गंभीरता, अभियुक्त का पूर्वदोष सिद्ध होना, अभियुक्त के फरार होने की संभावना, आदि तथ्य विचार में लेना चाहिए धारा 376 भा.द.स. जैसे गंभीर मामलों में पूरा अनुसंधान हो जाने के बाद ही जमानत दी जाना चाहिए अभियोक्त्रि सहज उपलब्ध महिला थी यह अग्रिम जमानत स्वीकार करने का अधार नहीं हो सकता ।
 
15 -    न्याय दृष्टांत योगेश विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. 2008 (1) एम.पी.एच.टी. 352 के अनुसार जहाँ अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय हो वहाँ नियमित जमानत के लिए सत्र न्यायालय सक्षम न्यायालय होता है ।
 
16 -    न्याय दृष्टांत दुर्गाशंकर गुप्ता विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. 2007 (2) एम.पी.एल.जे. 233 के अनुसार अपराध का दर्ज होना अग्रिम जमानत आवेदन की प्रचलनशीलता के लिए एक पूर्ववर्ती शर्त नहीं हो सकती ।
 
17 -    अभियुक्त के विरूद्ध चार्जशीट/परिवाद प्रस्तुत होने के बाद जमानती वारंट जारी किया गया तब भी अग्रिम जमानत का आवेदन प्रचलन योग्य होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरिओम लोखंडे विरूद्ध एम.पी.एस.ई.बी. 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 145 अवलोकनीय  है । न्याय दृष्टांत अरविंदा शूद विरूद्ध रूपाली 2003 (3) एम.पी.एल.जे. 48 के अनुसार मजिस्ट्रेट ने यदि गिरफ्तारी वारंट जारी किया हो तब अग्रिम जमानत आवेदन चलने योग्य होता है ।
 
18 -    न्याय दृष्टांत ब्रजेश गर्ग विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. एम.सी.आर.सी. नम्बर 4984/2005 निर्णय दिनांक 18.08.2005 मुख्य पीठ डी.बी. के अनुसार धारा 439 का आवेदन निरस्त हो जाने के बाद प्रोटेक्टिव अम्ब्रेला समाप्त हो जाता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुनील गुप्ता विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. 2005 (3) एम.पी.एच.टी. 272 भी अवलोकनीय है ।
 
19 -    न्याय दृष्टांत श्रीमती मनीषा नीमा विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. 2003 (2) एम.पी.एल.जे. 587 के अनुसार धारा 438 और 439 की शक्तियां समवर्ती शक्तियां है लेकिन पहले आवेदन सत्र न्यायालय में लगाना चाहिए ।
                
               

जमानत विधि S. 439

                   जमानत के बारे में विधि

1 -    उच्च न्यायालय से जमानत निरस्त हो जाने के बाद अधीनरस्थ न्यायालय को जमानत स्वीकार नहीं करना चाहिए यह न्यायिक अनुशासन को प्रभावित करता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत सतीश लोधी विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई.एल.आर. 2012 एम.पी. 632 अवलोकनीय है ।

2 -    संजय चंद्रा विरूद्ध सी.बी.आई. (2012) 1 एस.सी.सी. 40 के मामले में जमानत देते समय ध्यान रखे जाने योग्य तथा बतलाये हैं जिसमें अभियुक्त के फरार होने की संभावना, अपराध की गंभीरता, गवाहों को प्रभावित करने की संभावना मुख्य तथ्य है ।

3 -    न्याय दृष्टांत दीपक सुभाषचंद्र मेहता विरूद्ध सी.बी.आई ए.आई.आर. 2012 एस.सी. 949 में यहा कहा गया है कि केवल विचारण में विलंब होना एक नियम के रूप में जमानत देने का आधार नहीं हो सकता इस नियम को सभी मामलों में यांत्रिक तरीके से लागू नहीं करना चाहिए ।
 
4 -    धारा 439 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन के लिए अभियुक्त का अभिरक्षा में होना आवश्यक है इस मामले में अभिरक्षा शब्द को स्पष्ट  किया गया है अवलोकन न्याय दृष्टांत बामन नारायण विरूद्ध स्टेट आफ राजस्थान (2009) 2 एस.सी.सी. 281

5 -    यूनियन आफ इंडिया विरूद्ध रतन मलिक 2009 (2) एस.सी.सी. 624 के अनुसार एन.डी.पी.एस. एक्ट के मामले में धारा 439 एवं धारा 37 (1) (बी) एन.डी.पी.एस. एक्ट दोनों में उल्लेखित शर्ते लागू होती    है ।  

6 -    न्याय दृष्टांत गोबर भाई नारायण भाई विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात 20858 (3) एस.सी.सी. 775 के अनुसार गंभीर हत्या के अपराध में यह     जमानत के लिए मानने योग्य आधार नहीं हो सकता कि अभियुक्त अभिरक्षा में है और विचारण शुरू होने में अभी समय लगेगा ।
 
7 -    जहाँ मामला मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय हो वहाँ सत्र न्यायालय जमानत के संदर्भ में सक्षम न्यायालय होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत रामकिशोर साकेत विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. अवलोकनीय है ।
 
8 -    न्याय दृष्टांत एन.आर. मोन मोहम्मद नसीमुद्दीन (2008) 6 एस.सी.सी. 721 के अनुसार धारा 37 (1) (बी) एन.डी.पी.एस. एक्ट के अनुसार लोक अभियोजक को सुनवाई का अवसर देना और न्यायालय को इस बारे में संतोष होना कि ऐसा विश्वास करना कि युक्तियुक्त आधार है कि अभियुक्त दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहने के बाद अपराध नहीं दोहराएगा इन शर्तो के पूरी होने के बाद ही एन.डी.पी.एस. एक्ट के मामलों में जमानत की जानी चाहिए ।
 
9 -    न्याय दृष्टांत अखिलेश कुमार सिंह विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी. (2006) 4 एस.सी.सी. 449 के मामले में प्रथम जमानत आवेदन पत्र निरस्त होने के 19 दिन बाद द्वितीय जमानत आवेदन पत्र परिस्थितियों में किसी परिवर्तन के बिना स्वीकार किया गया जो कारण द्वितीय जमानत आवेदन पत्र में बतलाये गये थे वे ऐसे थे जो प्रथम जमानत आवेदन पत्र में भी बतलाये जा सकते थे । इस प्रकार जमानत स्वीकार करना स्थापित सिद्धांतों के विपरीत पाया गया ।
 
10 -    न्याय दृष्टांत राजेश रंजन यादव विरूद्ध सीबी.आई (2007) 1 एस.सी.सी. 70 के अनुसार अभियुक्त का लंबे समय से अभिरक्षा में होना और इस कारण अपना बचाव न कर पाना जमानत स्वीकार करने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है ।
 
11 -    न्याय दृष्टांत श्रीमती बिमला बाई विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. एम.सी.आर.सी. नम्बर 7393/2005 निर्णय दिनांक 10.11.2005 मेन सीट के अनुसार यदि वरिष्ठ न्यायालय द्वारा यदि सह अभियुक्त को जमानत दे दी जाती है तो समानता के सिद्धांत के आधार पर न्यायिक परिपाठी के अनुसार सह अभियुक्त को जमानत का लाभ दिया जाना चाहिए ।
 
                

Friday 25 April 2014

आर सी चंदेल बनाम. राज्य


आर सी चंदेल बनाम. राज्य एवं ANR उच्च न्यायालय.
[2007 की एसएलपी (सी) संख्या 1884 से उत्पन्न 2012 की सिविल अपील नंबर 5790]
आरएम लोढ़ा, जे
1. छोड़ दिया.
2. 2004/09/13 पर, जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर काम कर रहा था जो अपीलार्थी, Punna अनिवार्यतः पर (कम करने के लिए, 'सरकार') मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जनता के हित में सेवा से सेवानिवृत्त हो गया था (लघु, 'हाई कोर्ट' के लिए) मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुरोध. अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश मध्य प्रदेश राज्य में लागू किए गए के रूप में (2) () के बुनियादी नियमों का,, (मध्यप्रदेश उच्च न्यायिक सेवा के 14 नियम में संशोधन नियम 56 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए सरकार द्वारा जारी किया गया था भर्ती और सेवा शर्तें) नियम, 1994 (छोटे के लिए, '1994 नियम '), (1) () कम, '1976 नियम के लिए मध्यप्रदेश सिविल सेवा (पेंशन) नियम, 1976 (के नियम 42') और नियम 1 एक मध्य प्रदेश जिला एवं सत्र न्यायाधीश (मृत्यु एवं सेवानिवृत्ति लाभ) नियम, 1964 (छोटे के लिए, '1964 नियम ') का. तीन महीने के नोटिस के एवज में, यह अपीलार्थी तीन महीने का वेतन और वह पूर्व उनके संन्यास को प्राप्त था जो भत्ते के हकदार होंगे कि आदेश में निर्देशित किया गया था.
3. अपीलार्थी हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर द्वारा अनिवार्य सेवानिवृत्ति के ऊपर आदेश को चुनौती दी है. अपने आदेश 2006/04/20 दिनांकित द्वारा कि न्यायालय की एकल पीठ, रिट याचिका अनुमति दी; 2004/09/13 दिनांकित अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को खारिज कर दिया और कहा कि वह सभी परिणामी लाभ के साथ बहाल करने का निर्देश.
4. उच्च न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर रिट अपील में एकल पीठ के आदेश को चुनौती दी है. पूरे मामले पर विचार करने पर कि न्यायालय की खंडपीठ अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को चुनौती स्थापना से बीमार और, तदनुसार, एकल न्यायाधीश के आदेश 2006/11/23 दिनांकित अपने फैसले ख़बरदार अलग सेट आयोजित किया गया था. यह अपीलार्थी विशेष अनुमति से यह अपील की गई है कि इस आदेश से है.
5. अपीलार्थी सीधी भर्ती द्वारा मध्य प्रदेश के उच्च न्यायिक सेवा में चयनित किया गया था. उन्होंने 1979/10/17 पर एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के रूप में न्यायिक सेवा में शामिल हो गए. 1985/06/26 पर, वह एक जिला न्यायाधीश के रूप में पुष्टि की गई. अपीलार्थी 1989/03/24 से प्रभावी 1990/09/07 पर कम सेलेक्शन ग्रेड से सम्मानित किया गया. उन्होंने कहा कि 2002 में मई, 1999 में और सुपर टाइम स्केल ऊपर सुपर टाइम स्केल से सम्मानित किया गया. ऊपर उल्लेख किया, 2004/09/13 दिनांकित आदेश द्वारा, अपीलार्थी अनिवार्य जनता के हित में सेवानिवृत्त हो गया था.
6. हम श्री रोहित आर्य सुना है, अपीलार्थी के लिए वरिष्ठ वकील सीखा और श्री रवींद्र श्रीवास्तव, प्रशासनिक पक्ष पर उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील सीखा.
7. श्री रोहित आर्य, जोरदार खंडपीठ में सभी एकल पीठ के फैसले और आदेश निवारक में उचित नहीं था कि तर्क अपीलार्थी के लिए वरिष्ठ वकील सीखा. impugned क्रम में डिवीजन बेंच और उसमें दर्ज निष्कर्ष द्वारा की गई टिप्पणियों गलत और भ्रामक तथ्यों पर आधारित हैं. अपीलार्थी का सर्विस रिकार्ड otherwise.The अपीलार्थी काफी हद तक उसकी Acrs 'अच्छा' या 'बहुत अच्छा' में मूल्यांकन किया गया है बोलती है. उन्होंने कहा कि अपीलार्थी 1985 में जिला न्यायाधीश के रूप में पुष्टि की गई है कि प्रकाश डाला, वह 1990 में कम सेलेक्शन ग्रेड से सम्मानित किया गया, वह योग्यता के आधार पर 2002 में 1999 में और सुपर टाइम स्केल ऊपर सुपर टाइम स्केल दिया और वह था उसका न्यायिक कार्य के आधार पर किया गया था मार्च, 2004 में उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नति के लिए सिफारिश की.
अपीलार्थी के लिए 8. सीखा वरिष्ठ अधिवक्ता 1993 और 1994 के लिए 1989 और दो ​​बाद प्रतिकूल प्रविष्टियों में दर्ज एक प्रतिकूल प्रविष्टि के आधार पर अपीलार्थी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति पूरी तरह से अनुचित था कि प्रस्तुत की. 1989 प्रतिकूल प्रविष्टि का संबंध है, वरिष्ठ वकील अपीलार्थी 1990 में कम सेलेक्शन ग्रेड से सम्मानित किया गया है और इसलिए, कहा प्रविष्टि इसकी क्षमता खो दिया था कि प्रस्तुत सीखा. 1993 और 1994 में दर्ज की गई प्रविष्टियों के संबंध में वरिष्ठ वकील अपीलार्थी 2002 में 1999 में और सुपर टाइम स्केल ऊपर सुपर टाइम स्केल से सम्मानित किया गया था के बाद कहा प्रविष्टियों को भी अपने महत्व को खो दिया है कि प्रस्तुत सीखा. 2001 में दोनों के बीच में, वह जारी रखने के लिए अनुमति दी गई थी सेवा में. इसके अलावा, वरिष्ठ अधिवक्ता 1993 और 1994 में दर्ज की गई प्रतिकूल टिप्पणियों उच्च न्यायालय के न्यायिक पक्ष पर अपीलार्थी द्वारा चुनौती दी थी कि प्रस्तुत करेंगे सीखा. कि न्यायालय की एकल पीठ अपीलार्थी की चुनौती स्वीकार की और इन टिप्पणियों expunged. उच्च न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर रिट अपील में एकल पीठ के आदेश को चुनौती दी है. हालांकि उच्च न्यायालय की खंडपीठ एकल न्यायाधीश के आदेश अलग सेट पर 1993 और 1994 प्रविष्टियों आने के लिए हर समय के लिए अपीलार्थी को प्रतिकूल पढ़ा नहीं होगा कि मनाया.
9. सीखा वरिष्ठ वकील सरकार द्वारा जारी 2000/08/22 दिनांकित दिशा निर्देशों का उल्लेख करते हुए अधिकारी ने पिछले पांच साल के भीतर और उस अवधि के दौरान पदोन्नत किया गया था अगर देखने में तत्संबंधी अनिवार्य सेवानिवृत्ति का कोई आदेश अक्षमता के आधार पर पारित किया जा सकता है कि प्रस्तुत उसका प्रदर्शन संतोषजनक रहे. वह अपने काम के दौरान, अपीलार्थी न्यायिक प्रदर्शन अच्छा हो पाया था उच्च न्यायालय और उसकी प्रतिष्ठा और अखंडता के साथ ही द्वारा तय मामलों के निपटान के लिए मानदंडों हासिल की है और यह वह कम सेलेक्शन ग्रेड मिला है और कि उस की वजह से है कि प्रस्तुत समय - समय पर सुपर टाइम स्केल. सीखा वरिष्ठ वकील हैं, इस प्रकार, उच्च न्यायालय की एकल पीठ प्रत्येक और अपीलार्थी और इन शिकायतों में से कोई भी खिलाफ हर शिकायत से निपटने के बाद अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश के साथ हस्तक्षेप में पूरी तरह से उचित था कि प्रस्तुत की अनिवार्य सेवानिवृत्ति को न्यायोचित ठहरा मेधावी पाया गया था अपीलार्थी. भारी नंद कुमार झारखंड राज्य वी. वर्मा और अन्य लोगों में इस न्यायालय के हाल के निर्णय पर भरोसा अपने तर्क के समर्थन में, अपीलार्थी के लिए वरिष्ठ वकील सीखा [1].
10. दूसरी ओर, श्री रवींद्र श्रीवास्तव, प्रशासनिक पक्ष पर उच्च न्यायालय (प्रतिवादी नंबर 1) के लिए वरिष्ठ वकील सीखा जमकर impugned फैसले का बचाव किया. उन्होंने कहा कि वह जनता के हित में न्यायिक सेवा में निरंतरता के लिए फिट नहीं पाया गया के रूप में उच्च न्यायालय ने सरकार को अपीलार्थी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सिफारिश की है कि प्रस्तुत की. ऐसी सिफारिश करते समय पूर्ण अदालत अपीलार्थी की पूरी सेवा रिकॉर्ड माना जाता है. श्री रवींद्र श्रीवास्तव, वरिष्ठ अधिवक्ता साल 1982, 1989, 1993, 1994, 1997 और 1998 के लिए दर्ज अपीलार्थी की Acrs करने के लिए भेजा और अपीलार्थी रिटायर अनिवार्य करने के लिए पूर्ण न्यायालय के निर्णय अनुचित होने के लिए नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत सीखा.
11. कोई प्रतिवादी के लिए वरिष्ठ वकील सीखा. 1 LRS माध्यम से राजेंद्र सिंह वर्मा में इस न्यायालय (मृत) के एक निर्णय पर रिलायंस रखा. और लेफ्टिनेंट गवर्नर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) और दूसरों वी. दूसरों [2].
12. नियम 56 (2) बुनियादी नियमों का वह 20 वर्ष का अर्हक सेवा पूर्ण होने के बाद एक सरकारी कर्मचारी (न्यायिक अधिकारी पढ़ें), जनता के हित में, किसी भी समय पर सेवानिवृत्त किया जा सकता है प्रदान करता है, या उसकी की आयु प्राप्त करने पर 50 साल, उसे लिखित रूप में एक नोटिस देकर बिना कोई कारण बताए पहले जो भी है. नोटिस की अवधि तीन महीने की है. हालांकि, उन्होंने झट से सेवानिवृत्त किया जा सकता है और इस तरह की सेवानिवृत्ति पर वह मामले के रूप में, वह सेवानिवृत्ति से ठीक पहले उन्हें ड्राइंग था, जिस पर एक ही दर पर नोटिस की अवधि के लिए अपने वेतन से अधिक भत्ते की राशि या एक राशि बराबर का दावा करने के हकदार है इस तरह की सूचना तीन महीने से कम पड़ता है जिसके द्वारा इस अवधि के लिए, हो सकता है. उपनियम 1-A अनिवार्य सेवा निवृत्ति की आयु के संबंध में, स्थायी जिला एवं सत्र न्यायाधीश मूलभूत नियम 56 के प्रावधानों से नियंत्रित होंगे प्रावधान है कि 1964 के नियम में जोड़ा. प्रदान करता है 1976 के नियम (1) (बी) के 42 नियम नियुक्ति प्राधिकारी जनता के हित में है कि वह 20 वर्ष का अर्हक सेवा पूरी कर ली है या उसकी तीन महीनों देकर जो भी पहले हो 50 वर्ष की आयु प्राप्त पर जाने के बाद किसी भी समय सेवा से रिटायर करने के लिए एक सरकारी कर्मचारी (न्यायिक अधिकारी पढ़ें) की आवश्यकता हो सकती है कि 'फार्म 29 में नोटिस वह झट से सेवानिवृत्त किया जा सकता है और इस तरह की सेवानिवृत्ति पर वह इससे पहले कि वह तुरंत ड्राइंग था, जिस पर एक ही दर पर नोटिस की अवधि के लिए अपने वेतन से अधिक भत्ते की राशि के लिए एक राशि बराबर का दावा करने का हकदार होगा, बशर्ते कि जैसा भी मामला हो ऐसे नोटिस, तीन महीने से कम पड़ता है जिसके द्वारा इस अवधि के लिए उनकी सेवानिवृत्ति या,. (1) 1994 नियमों के नियम 14 मध्यप्रदेश उच्च न्यायिक सेवा के एक सदस्य की सेवानिवृत्ति की उम्र आमतौर पर, 60 साल हो वह उच्च न्यायालय के सेवा में 58 साल के बाद जारी रखने के लिए फिट हैं और उपयुक्त पाया जाता है प्रदान की जाएगी कि प्रदान करता है. उपनियम (2) के एक प्रावधान है कि बनाता है (3) बुनियादी नियमों के नियम 56 में निहित है और शासन प्रावधानों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना 42 (1) () 1976 के नियम का, सेवा के एक सदस्य नहीं मिला फिट और उपयुक्त अनिवार्यतः उसके 58 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर सेवानिवृत्त किया जाएगा.
13. उच्च न्यायालय में संविधान निहित राज्य के भीतर अधीनस्थ न्यायपालिका पर नियंत्रण के अनुच्छेद 235. यह रूप में पढ़ता है. "अधीनस्थ अदालतों पर नियंत्रण - जिला अदालतों और की पोस्टिंग और पदोन्नति सहित अदालतों अधीनस्थ बहां पर नियंत्रण, और करने के लिए छुट्टी के अनुदान, एक राज्य की न्यायिक सेवा से संबंधित और करने के लिए किसी भी पद अवर पकड़े व्यक्तियों जिला जज के पद के उच्च न्यायालय में निहित होगी, लेकिन इस लेख में कुछ भी नहीं दूर ऐसे किसी भी व्यक्ति से वह अपनी सेवा की शर्तों का विनियमन कानून के तहत या उच्च अधिकृत रूप में हो सकता है, जो अपील का कोई अधिकार लेने के रूप में लगाया जाएगा कोर्ट अन्यथा इस तरह के कानून के तहत निर्धारित उसकी सेवा की शर्तों के अनुसार से उसके साथ सौदा करने के लिए. "
14. समाधानकारी या अकाट्य तर्क या भरपूर हाथ या भयंकर पतन पंजाब राज्य वी. सिंह और एक अन्य [3], इस न्यायालय के सात न्यायाधीशों की पीठ दायरे और शब्द "नियंत्रण" के दायरे में माना और पर नियंत्रण के संबंध में उच्च न्यायालयों में शामिल शक्तियों विस्तार देर में अपने संबंधित राज्य, अन्य बातों के साथ भीतर अधीनस्थ न्यायपालिका, ऐसी शक्ति जिला अदालतों की और अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों की पूर्व परिपक्व या अनिवार्य सेवानिवृत्ति शामिल है कि स्थिति exposited.
15. चन्द्र सिंह और राजस्थान के राज्य और वी. अन्य लोगों में एक अन्य [4], समाधानकारी या अकाट्य तर्क या भरपूर हाथ या भयंकर पतन सिंह 3 में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित ऊपर स्थिति को दोहराया गया है.
16. समाधानकारी या अकाट्य तर्क या भरपूर हाथ या भयंकर पतन Singh3 और चंद्र Singh4 के मामलों में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित ऊपर स्थिति राजेंद्र सिंह Verma2 में इस न्यायालय के हाल के एक फैसले में इस बात को दोहराया गया है. के रूप में निम्नानुसार रिपोर्ट के (pg. 43) पैरा 82 में, राजेंद्र सिंह Verma2 में इस कोर्ट ने कहा:. "82 के रूप में राजस्थान के राज्य वी. चंद्र सिंह में इस न्यायालय द्वारा समझाया [(2003) 6 एससीसी 545], की शक्ति अनिवार्य सेवानिवृत्ति किसी भी समय है और इस संबंध में अनुच्छेद 235 के तहत बिजली किसी भी नियम या आदेश से घिरा किसी भी रूप में नहीं है कि प्रयोग किया जा सकता है. इस न्यायालय द्वारा कहा निर्णय में बताया गया है कि क्या भारत के लिए सक्षम बनाता के संविधान के अनुच्छेद 235 है हाईकोर्ट मृत लकड़ी बाहर काली भेड़ या घास अनुशासन के लिए एक दृश्य के साथ किसी भी समय किसी भी न्यायिक अधिकारी के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए, और उच्च न्यायालय के इस संवैधानिक शक्ति किसी भी नियम या आदेश से घिरा नहीं किया जा सकता. "
17. Shirishkumar रंगराव पाटिल और वी. इसका रजिस्ट्रार के माध्यम से बंबई महकमा के उच्च न्यायालय में इस न्यायालय के एक निर्णय के बाद एक अन्य [5], राजेंद्र सिंह Verma2 में इस न्यायालय उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायपालिका पर लगातार चौकसी रखने के लिए किया था कि इस बात को दोहराया.
18. अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ में इस न्यायालय के तीन जजों की बेंच (2) और भारतीय संघ और अन्य लोगों वी. दूसरों [6] 60 साल के लिए सेवानिवृत्ति की आयु की वृद्धि के लाभ के लिए स्वचालित रूप से उपलब्ध नहीं होगा पर जोर दिया है भले की सेवा और न्यायिक प्रणाली के लिए उनके निरंतर उपयोगिता के प्रमाण के अपने पिछले रिकार्ड के सभी न्यायिक अधिकारी उपस्थित थे. लाभ केवल उन संबंधित उच्च न्यायालय की राय में, जारी रखा उपयोगी सेवा के लिए एक संभावित है, जो करने के लिए उपलब्ध है. खंडपीठ "यह अकर्मण्य कमजोर और संदिग्ध अखंडता, प्रतिष्ठा और उपयोगिता के उन लोगों के लिए एक अप्रत्याशित लाभ के रूप में इरादा नहीं है", कहा.
19. उच्च न्यायालय के उस शक्ति किसी भी संदेह से परे ऐसी सिफारिश पर सरकार द्वारा सेवा या अपेक्षित उम्र और फलस्वरूप कार्रवाई की लंबाई प्राप्त करने पर एक न्यायिक अधिकारी कर रहे हैं रिटायर अनिवार्य करने के लिए सरकार को सिफारिश करने के लिए.
20. अपीलार्थी, ऊपर वर्णित है, सीधी भर्ती के माध्यम से 1979 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायिक सेवा में चयनित किया गया था. वह न्यायिक सेवा में 25 साल या तो पूरा किया था 2004/09/13 पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश जारी करने का समय है. उपलब्ध सामग्री 1981/04/01 से 1982/03/31 तक की अवधि के लिए, अपीलार्थी ग्रेड 'डी' (औसत) दिया था.
21. 1988-89 में, अपीलार्थी "डी" मूल्यांकन किया गया था. उस वर्ष के लिए सी भी ऐसी कोई शिकायत लिखित रूप में प्राप्त किया गया था, हालांकि उन्होंने साफ प्रतिष्ठा मिली है कि कभी रिकॉर्ड. यह भी निर्णय और आदेश के बारे में उनकी गुणवत्ता संतोषजनक नहीं था कि रिकॉर्ड.
22. 1991/03/31 समाप्त अवधि के लिए, अपीलार्थी 'सी' (अच्छा) का दर्जा दिया गया है लेकिन यह रिकॉर्ड किया गया था, "तब मुख्य न्यायाधीश दिनांकित 1991/06/28 के वर्णनात्मक रिपोर्ट बैतूल जिला न्यायाधीश का कोई निरीक्षण किया गया था, हालांकि, अपीलार्थी एक औसत न्यायिक अधिकारी "होने की सूचना मिली थी.
23. 1992/03/31 समाप्त अवधि के लिए, अपीलार्थी ग्रेड 'डी' (औसत) दिया गया है.
24. 1993/03/31 समाप्त अवधि के लिए, अपीलार्थी '' (गरीब) वर्गीकृत किया गया है. अन्य बातों के साथ पढ़ा टिप्पणी, "निरीक्षण टिप्पणी में अपने प्रदर्शन की गुणवत्ता खराब है कि पता चलता है. उनका निपटान औसत से नीचे थे, उसकी प्रतिष्ठा अच्छा नहीं था".
25. 1994/03/31 समाप्त अवधि के लिए, अपीलार्थी '' (गरीब) वर्गीकृत किया गया है. प्रविष्टि "उनका प्रदर्शन गुणात्मक और मात्रात्मक गरीब किया गया है. अधिकारी अच्छी प्रतिष्ठा का आनंद नहीं है," पढ़ता है.
. 26 विचार के लिए आते है कि सवाल कर रहे हैं: अनिवार्य अपीलार्थी की सेवानिवृत्ति और सरकार द्वारा जारी किए गए अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश के लिए सरकार को सर्वसम्मत राय के आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा की गई सिफारिश के किसी भी कानूनी दोष से पीड़ित हैं? अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश न्यायिक समीक्षा में हस्तक्षेप को सही ठहराते इतना है कि मनमाने ढंग से या तर्कहीन है? भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत अपीलार्थी अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश एक अपील में इस न्यायालय द्वारा ऐसा गलत warranting हस्तक्षेप को कायम रखने खंडपीठ को देखते है?
. 27 राजेंद्र सिंह Verma2 में, इस न्यायालय सेवा से अनिवार्य सेवानिवृत्ति बर्खास्तगी और ही हटाने है कि तो पहले फैसले में कहा गया है क्या restated; यह निर्धारित नियमों के अनुसार सजा के एक फार्म नहीं है और सेवानिवृत्त व्यक्ति पेंशन और अपने क्रेडिट करने के लिए खड़े सेवा की अवधि के अनुपात में अन्य retiral लाभ के हकदार है यद्यपि के रूप में कोई दंडात्मक परिणाम शामिल है कि में यह, उन दोनों से अलग है. अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश पर एक प्रतिकूल परिणाम के एक आदेश नहीं किया जा रहा है, प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का कोई आवेदन दिया है. इस न्यायालय को ध्यान में उत्तर प्रदेश के राज्य और दूसरे वी. बिहारी लाल सहित मामलों की एक लंबी लाइन ले लिया [7], उपाध्यक्ष सेठ और मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी, बारीपदा वी. अन्य [8], Baikuntha नाथ दास और एक और वी. भारत संघ और एक अन्य [9], बैद्यनाथ उड़ीसा राज्य वी. महापात्र और एक अन्य [10], कर्नल जे एन सिन्हा और एक अन्य [11], ऑल इंडिया न्यायाधीशों 'भारत संघ वी. एसोसिएशन (1) और दूसरों [वी. भारत संघ . रूप में इस प्रकार 12] और अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ (2) 6 और रिपोर्ट के पैरा 183 में कानूनी स्थिति (. pg. कोई 75) बाहर मारी गईं: "183 यह अच्छी तरह से इस न्यायालय के निर्णय की एक शृंखला से बसा हुआ है कि वह सेवा में जारी रखा या अनिवार्य सेवानिवृत्त होना चाहिए के रूप में एक अधिकारी के मामले पर विचार करते समय विचार किया जाता है जिस पर कि तारीख करने के लिए अपने पूरे सेवा रिकार्ड को ध्यान में रखा जाना है. वजन की तुलना में पहले प्रविष्टियों को संलग्न किया जाना चाहिए क्या हाल ही में प्रविष्टियों को मूल्यांकन की बात है, लेकिन विचार पूरे सेवा रिकार्ड का हो गया है कि शक की कोई ढंग है. एक अधिकारी, एक पहले प्रतिकूल प्रविष्टि के बाद, पदोन्नत किया गया था तथ्य यह है कि सब पर पहले प्रतिकूल प्रविष्टि मिटा नहीं है. यह पहले के एक प्रतिकूल प्रविष्टि के बाद एक अधिकारी से ही पहले प्रतिकूल प्रविष्टि पर से अधिकार छीन होगा कि पदोन्नत किया गया था कि कारण के लिए केवल तर्क है कि गलत होगा. कानून पूरे सेवा रिकार्ड को ध्यान में रखा जाना है कि कहते हैं, सर्विस रिकार्ड का एक हिस्सा है जो पहले प्रतिकूल प्रविष्टि, भी संबंधित अधिकारी उच्च पद पर या वह चाहे पदोन्नत किया गया था कि क्या इस तथ्य की प्रासंगिक भले के लिए किया जाएगा आदि की वेतन वृद्धि, जैसे कुछ लाभ "प्रदान की गई थी
28. अपीलार्थी का सर्विस रिकार्ड के आधार पर कुछ अन्य सुविधाओं में कोई प्रतिवादी की ओर से दायर काउंटर में प्रकाश डाला. रिट याचिका के साथ ही इस न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका के जवाब में करने के विरोध में 1 देखा जा सकता है. अपीलार्थी 1982/09/15 दिनांकित संचार द्वारा 1982/03/31 तक 1981/04/01 अवधि के लिए उसकी कक्षा में आकलन किया गया हो रही है 'डी' के बारे में बताया गया था. कहा प्रतिकूल ग्रेडिंग अपीलार्थी द्वारा सराहना की और यह है के रूप में इसे रिकॉर्ड पर नहीं रह गया था. अपीलार्थी भी वह साफ प्रतिष्ठा का आनंद लिया और निर्णय और आदेश के बारे में उनकी गुणवत्ता संतोषजनक नहीं था कि कभी नहीं उस अवधि 1988-89 के लिए अपने सी आर में दर्ज की गई प्रतिकूल टिप्पणियों के बारे में 1989/11/06 पर सूचित किया गया था. अपीलार्थी ऊपर टिप्पणी के खिलाफ प्रतिनिधित्व कर दिया, लेकिन एक ही खारिज कर दिया है और यह है के रूप में वे क्षेत्र पकड़ गया था. 1992/03/31 समाप्त अवधि के लिए, अपीलार्थी 'डी' का दर्जा दिया गया है और यह है कि के रूप में ग्रेडिंग रहता था.
29. 1993/03/31 और 1994/03/31 पर समाप्त अवधि के लिए सी आर में दर्ज की गई प्रतिकूल टिप्पणियों, अपीलार्थी को संसूचित किया गया. उन्होंने कहा कि इन वर्षों के लिए दर्ज की गई प्रतिकूल टिप्पणियों expunging के लिए दो अलग अभ्यावेदन दिया. उनके अभ्यावेदन 1994/08/27 पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश द्वारा खारिज कर दिया गया और अपीलार्थी 1994/08/30 पर कहा अस्वीकृति के बारे में बताया गया था. अपीलार्थी द्वारा किए गए दो अभ्यावेदन की अस्वीकृति के बावजूद, वह फिर से इन प्रतिकूल टिप्पणियों के निकाल देना के लिए मुख्य न्यायाधीश को दो अभ्यावेदन दिया. इन प्रतिवेदनों को भी खारिज कर दिया गया और अपीलार्थी 1995/01/05 पर उसी की भेजी गई थी. अपीलार्थी द्वारा किए गए अभ्यावेदन मुख्य न्यायाधीश द्वारा दो बार खारिज कर दिया गया है, अपीलार्थी अभी तक फिर से इन टिप्पणियों के निकाल देना के लिए 1995/02/08 पर प्रतिनिधित्व कर दिया. इस प्रतिनिधित्व भी उक्त अवधि के लिए सी आर में टिप्पणी किसी भी संशोधन के लिए फोन नहीं है कि देख द्वारा 1995/08/21 पर मुख्य न्यायाधीश ने खारिज कर दिया जाने लगा. अपीलार्थी मुख्य न्यायाधीश द्वारा लिया और प्रशासनिक समीक्षा भी 1996/01/06 पर मुख्य न्यायाधीश ने खारिज कर दिया था निर्णय की प्रशासनिक समीक्षा की मांग की. अपीलार्थी तो उच्च न्यायालय के न्यायिक ओर एक रिट याचिका (1996 की संख्या 413) दायर की. कि न्यायालय की एकल पीठ ने अपने फैसले और आदेश 1996/10/18 दिनांकित और 1993/03/31 और 1994/03/31 पर समाप्त होने वाले साल के लिए अपीलार्थी सी आर में प्रतिकूल टिप्पणियों को खारिज कर दिया ख़बरदार अपीलार्थी रिट याचिका की अनुमति दी. उच्च न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर फैसले और आदेश 1996/10/18 दिनांकित खिलाफ दीर्घावधि औसत दायर की. कि न्यायालय की खंडपीठ दीर्घावधि औसत और एकल पीठ के फैसले और आदेश अलग सेट 1996/10/18 दिनांकित की अनुमति दी. "69 सब निष्पक्षता में इस मामले के साथ विदाई से पहले, हम यह आवश्यक प्रतिवादी की प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल टिप्पणियों से अवगत करा दिया है कि निरीक्षण करने पर विचार:. ऐसा करते समय इस योजना के प्रमुख निर्णय और आदेश 1997/02/25 दिनांकित में खंडपीठ पैरा 69 में मनाया उसे प्रासंगिक साल में अपने न्यायिक कैरियर के माध्यम से उसे सभी अड्डा और हर समय के लिए अपनी संभावनाओं को बाधा नहीं चाहिए. वह अपने काम और प्रदर्शन में सुधार से पता चलता है और अपेक्षित लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम है अगर ऊपर टिप्पणी भविष्य में अपने पूर्वाग्रह को पढ़ा नहीं जा सकता उच्च सेलेक्शन ग्रेड में भर्ती कराया जा रहा है के लिए ग्रेड. प्रतिकूल टिप्पणियों से संवाद स्थापित करने की बहुत उद्देश्य एक अधिकारी की निंदा करने के लिए, लेकिन सुधार का मौका देने के लिए इतनी के रूप में सही समय पर उसे चेतावनी देते नहीं है. "
30. खंडपीठ ने पारित कर दिया 1997/02/25 दिनांकित निर्णय और आदेश के खिलाफ, अपीलार्थी इस न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की, लेकिन कहा कि 1997/04/28 पर बर्खास्त कर दिया गया. यह है के रूप में इस प्रकार, 1993/03/31 और 1994/03/31 समाप्त अवधि के लिए अग्रिम टिप्पणी रहते हैं.
31. प्रतिवादी की ओर से दायर काउंटर शपथ पत्र से कोई. 1 यह भी सुपर टाइम स्केल का लाभ जैसे ही यह कारण बन गया के रूप में अपीलार्थी को नहीं दिया गया था कि transpires. बल्कि, इसकी बैठक में प्रशासनिक समिति टिप्पणी के साथ अपने मामले को टाल दिया सुपर टाइम स्केल का लाभ प्रदान करने के लिए अपीलार्थी के मामले पर विचार करने पर, 1995/03/25 पर आयोजित किया है, "अपने काम के प्रदर्शन और आचरण निगरानी में रखा जाएगा". प्रशासनिक समिति की निगाह 1995/04/29 पर आयोजित बैठक में पूर्ण अदालत द्वारा स्वीकार कर लिया गया. सुपर टाइम स्केल के अनुदान के लिए अपीलार्थी के मामले फिर बाद में वर्ष 1996 में पूर्ण अदालत द्वारा माना जाता है और 20/21.04.1996 को आयोजित बैठक में पूर्ण अदालत अपीलार्थी सुपर टाइम स्केल के अनुदान के लिए उपयुक्त नहीं था कि पाया गया था. यह अपीलार्थी वह सुपर टाइम स्केल ऊपर दी गई थी कि सुपर टाइम स्केल और 2002 में दिया गया था कि केवल 1999 में किया गया था.
32. 2002 में, अपीलार्थी झूठी इकाइयों का दावा करने के लिए चेतावनी दी थी. टाइपिंग गलती नहीं थी कि उनका स्पष्टीकरण विश्वसनीय होने के लिए नहीं मिला था.
33. ऊपर से, यह अपीलार्थी सभी के साथ मुकम्मल सर्विस रिकार्ड नहीं था कि स्पष्ट है. उन्होंने कहा कि काफी कुछ अवसरों पर "औसत" वर्गीकृत किया गया है. वह 1993 और 1994 में "गरीब" मूल्यांकन किया गया था. निर्णय और आदेश की उसकी गुणवत्ता से अधिक अवसर पर संतोषजनक नहीं पाया गया. उनकी प्रतिष्ठा कुछ अवसरों पर दागी होने के लिए मनाया गया है और उनकी निष्ठा हमेशा बोर्ड से ऊपर होने के लिए नहीं मिला था. 1988-89 में, टिप्पणी "स्वच्छ प्रतिष्ठा का आनंद लिया कभी नहीं", पढ़ता है. 1993 में, टिप्पणी "उसकी प्रतिष्ठा अच्छा नहीं था" और 1994 में टिप्पणी "अधिकारी अच्छी प्रतिष्ठा का आनंद नहीं है", दर्ज किए गए. इन टिप्पणियों के निकाल देना के लिए उनके अभ्यावेदन में विफल रहा है. न्यायिक पक्ष पर इन टिप्पणियों के लिए चुनौती सही इस न्यायालय तक असफल रहा था. 1993 में, यह भी अपीलार्थी के प्रदर्शन की गुणवत्ता खराब था और उसके निपटान के औसत से नीचे थे कि दर्ज की गई थी. 1994 में, सेवा रिकॉर्ड में टिप्पणी अपीलार्थी का प्रदर्शन गुणात्मक और मात्रात्मक गरीब किया गया है कि राज्यों. इस सेवा के रिकॉर्ड के साथ, यह सेवा से अपीलार्थी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के एक आदेश के लिए कोई सामग्री है कि अस्तित्व में कहा जा सकता है? हमें नहीं लगता है. ऊपर सामग्री कथन अपीलार्थी न्यायिक सेवा में जारी रखा या सेवानिवृत्त होने के हकदार थे जा सकता है कि क्या पूर्ण अदालत द्वारा फैसला लेने के लिए सामग्री सार्थक अनिवार्यतः मौजूद था कि पता चलता है. यह पर्याप्तता या ऐसी सामग्री की प्रचुरता में जाने की न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं है.
. 34 यह अपीलार्थी 1985 में जिला न्यायाधीश के रूप में पुष्टि की गई है कि यह सच है; वह 1989/03/24 से प्रभावी कम ​​सेलेक्शन ग्रेड मिला; वह 1999, मई में सुपर टाइम स्केल से सम्मानित किया गया और वह भी सुपर टाइम स्केल ऊपर दिया गया था 2002 में, लेकिन जिला न्यायाधीश के रूप में पुष्टि और सेलेक्शन ग्रेड और सुपर टाइम स्केल का अनुदान रिकॉर्ड पर बनी है जो पहले के प्रतिकूल प्रविष्टियों को मिटा नहीं है क्षेत्र पकड़ जारी रखा. वेतन वृद्धि या उच्च स्तर की पदोन्नति या अनुदान के लिए कसौटी न्यायिक प्रणाली के लिए एक न्यायिक अधिकारी की निरंतर उपयोगिता का आकलन करने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है, जो एक अभ्यास से अलग है. प्रणाली में एक न्यायिक अधिकारी की निरंतर उपयोगी सेवा के लिए संभावित आकलन करने में, हाई कोर्ट के खाते में पूरे सेवा रिकार्ड लेने के लिए आवश्यक है. एक न्यायिक अधिकारी की समग्र प्रोफ़ाइल मार्गदर्शक कारक है. संदेहास्पद निष्ठा संदिग्ध प्रतिष्ठा और उपयोगिता में चाहने के उन सेवा या उम्र का अपेक्षित लंबाई प्राप्त करने के बाद सेवा का लाभ के हकदार नहीं हैं.
35. 1993 और 1994 प्रविष्टियों को अपीलार्थी चुनौती थी कि इस न्यायालय तक असफल सही विवाद में नहीं है. हालांकि, अपीलार्थी अपने निर्णय और आदेश 1997/02/25 दिनांकित में खंडपीठ द्वारा की गई टिप्पणियों पर भारी निर्भरता रखा गया है के लिए वरिष्ठ वकील सीखा, विशेष रूप से, अनुच्छेद 69 तत्संबंधी जिसमें खंडपीठ आयोजित कि प्रासंगिक साल में प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल टिप्पणियों उसकी न्यायिक कैरियर के माध्यम से उसे सभी अड्डा और हर समय के लिए अपनी संभावनाओं को बाधा नहीं चाहिए. हम खंडपीठ ने उपरोक्त टिप्पणियों कोई ढंग से टिप्पणी को कायम रखने, जबकि वह है के बाद अपीलार्थी सेवा में बनाए रखा जाना चाहिए या नहीं, यह पता लगाने के लिए अपने व्यायाम में ध्यान में इन प्रतिकूल टिप्पणियों लेने में पूर्ण अदालत की शक्ति सीमित डरते हैं सेवा की लंबाई प्राप्त कर ली. सेलेक्शन ग्रेड और सुपर टाइम स्केल के अनुदान के लिए अपीलार्थी के मामले पर विचार के विभिन्न स्तर पर खड़ा था. एक न्यायिक अधिकारी की पूरी सर्विस रिकार्ड और समग्र प्रोफाइल न्यायिक अधिकारी सेवा या उम्र के लिए आवश्यक लंबाई प्राप्त कर ली है के बाद बने रहने के बारे में अपनी संतुष्टि तक पहुँचने में या अन्यथा उच्च न्यायालय गाइड. एक न्यायिक अधिकारी की पूरी सर्विस रिकार्ड विचाराधीन है जब, स्पष्ट रूप से उच्च न्यायालय सेवा के दौरान आदि ऐसे न्यायिक अधिकारी के होने मिला पदोन्नति / एस, वेतन वृद्धि, के लिए जीवित है.
36. यह प्रशासनिक समिति -1 सेवा में अपीलार्थी को जारी रखने की सिफारिश की थी कि अपीलार्थी के लिए सीखा वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया और एक विपरीत देख लेने के लिए पूर्ण अदालत के लिए कोई औचित्य नहीं था. प्रशासनिक समिति की निगाह अंतिम नहीं है. यह प्रकृति में सिफारिशी है. यह समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करने या एक अलग दृष्टिकोण लेने के लिए पूर्ण अदालत के लिए खुला है. वर्तमान मामले में, पूर्ण अदालत अपीलार्थी के पूरे सेवा रिकार्ड के आधार पर अपीलार्थी अनिवार्य तदनुसार, सेवानिवृत्त और सरकार को सिफारिश की जानी चाहिए कि एक सर्वसम्मत राय का गठन. हम ऊपर उल्लेख किया है अस्तित्व में है और जो जो सामग्री के आधार पर, यह शायद ही अपीलार्थी की अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए सरकार को पूर्ण अदालत द्वारा सिफारिश मनमाना या ऐसी सिफारिश के लिए मुनासिब नहीं सामग्री पर आधारित था कि कहा जा सकता है.
37. न्यायिक सेवा एक साधारण सरकारी सेवा नहीं है और न्यायाधीशों जैसे कर्मचारी नहीं हैं. न्यायाधीशों सार्वजनिक पद धारण; उनके कार्य राज्य के आवश्यक कार्यों में से एक है. उनके कार्यों और कर्तव्यों के निर्वहन में न्यायाधीशों राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं. एक न्यायाधीश रखती है कि कार्यालय जनता के विश्वास का एक कार्यालय है. एक न्यायाधीश त्रुटिहीन अखंडता और ज़ाहिर आजादी के एक व्यक्ति होना चाहिए. उन्होंने कहा कि उच्च नैतिक मूल्यों के साथ कोर करने के लिए ईमानदार होना चाहिए. एक वादी अदालत में प्रवेश करती है, वह उसकी बात में गया है जज जिसे पहले, निष्पक्ष न्याय उद्धार होगा कि सुरक्षित और किसी भी विचार से uninfluenced महसूस करना चाहिए. एक न्यायाधीश की उम्मीद आचरण के मानक एक आम आदमी की तुलना में काफी ज्यादा है. इस समाज में मानकों गिर गया है के बाद से, समाज से तैयार कर रहे न्यायाधीशों जो उच्च मानकों और एक न्यायाधीश की नैतिक दृढ़ता है की उम्मीद नहीं की जा सकती कि कोई बहाना नहीं है. एक न्यायाधीश, सीज़र की पत्नी की तरह संदेह से ऊपर होना चाहिए. न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता यह आदमी कौन न्यायाधीशों पर निर्भर है. एक लोकतंत्र को कामयाब करने के लिए और जीवित रहने के लिए कानून, न्याय प्रणाली और न्यायिक प्रक्रिया का शासन मजबूत होना होगा और हर जज ईमानदारी, निष्पक्षता और बौद्धिक ईमानदारी के साथ अपनी न्यायिक कार्यों का निर्वहन करना चाहिए.
38. अपीलार्थी का सबसे चौंकाने वाला और अशोभनीय आचरण नहीं प्रतिवादी से प्रकाश डाला. 1 उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका को और वर्तमान अपील के जवाब में विपक्ष में पर समाप्त अवधि के लिए प्रतिकूल टिप्पणियों के निकाल देना के लिए अपने अभ्यावेदन के बाद मुख्य न्यायाधीश से पहले उसके द्वारा दायर समीक्षा याचिका पर प्रशासनिक निर्णय धोखा करने के लिए अपने कार्य है 1993/03/31 और 1994/03/31 तीन बार पहले भी खारिज कर दिया गया था. अपीलार्थी 1993 और 1994 के लिए टिप्पणी की निकाल देना के लिए अपने अभ्यावेदन की अस्वीकृति के विषय में अपनी शिकायत के लिए श्री आर.के. मालवीय, संसद सदस्य और अध्यक्ष, सदन समिति (राज्य सभा) का दरवाजा खटखटाया. अपीलार्थी वह कभी श्री आर.के. मालवीय संपर्क किया इनकार किया है कि लेकिन करने के लिए गया है कोई अपने दावे, प्रतिवादी के लिए सीखा वरिष्ठ वकील मिथ्या सिद्ध. हमारे सामने रखा 1 विधि, न्याय और कंपनी कार्य मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली और 1996/08/03 दिनांकित पत्र की प्रति के लिए श्री हंसराज भारद्वाज, राज्य मंत्री श्री आर.के. मालवीय द्वारा लिखित 1996/02/14 दिनांकित पत्र की जेरोक्स कॉपी कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय (न्याय विभाग) द्वारा भेजे गए, भारत सरकार मध्य प्रदेश सरकार, भोपाल और रजिस्ट्रार, उच्च न्यायालय के मुख्य सचिव को संबोधित किया. के रूप में निम्नानुसार 1996/02/14 दिनांकित पत्र विधि, न्याय और कंपनी मामलों के लिए श्री हंसराज भारद्वाज, तत्कालीन राज्य मंत्री श्री आर.के. मालवीय ने संबोधित पढ़ता है: "आर.के. मालवीय बंद: 66, संसद नई दिल्ली के संसद भवन सदस्य - 110001.. अध्यक्ष दूरभाष:. 3017048, 3034699 सदन समिति (राज्य सभा) आरईएस:. 30, केनिंग लेन कस्तूरबा गांधी मार्ग, नई दिल्ली -110001 दूरभाष:. 3,782,895 आरईएस:. 19, तिलक नगर, मेन रोड इंदौर (. प्र.) दूरभाष:. 492412, 492,588, 495,054 14 फ़रवरी 1996 प्रिय श्री भारद्वाज जी संलग्न सुगम है जो श्री आर सी चंदेल, जिला एवं सत्र न्यायाधीश, रीवा [सांसद], का प्रतिनिधित्व है. आप कृपया यह जांच पाने के लिए और आवश्यक कार्रवाई अगर मैं आभारी रहूंगा. सादर, [आरके मालवीय] श्री हंसराज भारद्वाज, कानून, न्याय और कंपनी कार्य मंत्रालय में राज्य मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली. "
. रूप में इस प्रकार 39 1996/08/03 दिनांकित भारत सरकार, कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय (न्याय विभाग) द्वारा भेजे गए अग्रेषण पत्र में लिखा है: "के भारत मंत्रालय की संख्या L-19015/3/96-Jus सरकार कानून, न्याय और सीए (न्याय विभाग) जैसलमेर हाउस, मानसिंह रोड, नई दिल्ली, मध्य प्रदेश, भोपाल. 2) सरकार को 8/3/96. 1) मुख्य सचिव रजिस्ट्रार, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय, जबलपुर . विषय:.. श्री आर.के. मालवीय, संसद सदस्य और अध्यक्ष, सदन समिति, श्री आर सी चंदेल जिला एवं सत्र न्यायाधीश, रीवा (मध्य प्रदेश) सर के प्रतिनिधित्व को राज्य सभा से संदर्भ, मैं दिनांकित पत्र की प्रतिलिपि इसके साथ अग्रेषित करने के लिए निर्देशित कर रहा हूँ अपने बाड़े के साथ 1996/02/14, उचित माना जा सकता है के रूप में ऐसी कार्रवाई करने के लिए श्री आर.के. मालवीय, संसद सदस्य और अध्यक्ष सदन समिति, उपरोक्त विषय पर राज्य सबा से प्राप्त किया. भवदीय, (पीएन सिंह) अवर सचिव की सरकार को भारत "
40. 1993 और 1994 के Acrs में प्रतिकूल टिप्पणियों expunging के लिए उसके द्वारा दायर एक प्रशासनिक समीक्षा याचिका के विषय में उच्च न्यायालय के एक मामले में, एक सांसद और कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय से जुड़े में अपीलार्थी का आचरण सबसे निन्दा है और एक न्यायिक अधिकारी की अत्यधिक अनुपयुक्त. अपने आचरण न्यायपालिका की छवि धूमिल हो गई है और वह अकेला है कि गिनती पर न्यायिक सेवा में निरंतरता से खुद disentitled. एक न्यायाधीश किसी भी बाहरी दबाव से प्रभावित होने की उम्मीद नहीं है और वह भी किसी भी प्रशासनिक या न्यायिक मामले में दूसरों पर कोई प्रभाव डालती नहीं माना जाता है. दूसरे और अभी भी सबसे खराब, अपीलार्थी वह किसी भी प्रयोजन के लिए श्री आर.के. मालवीय, सांसद को किसी भी प्रतिनिधित्व कर दिया है कि कभी जवाब में एक याचिका स्थापित करने के लिए एक दुस्साहस था. लेकिन अपीलार्थी श्री आर.के. मालवीय और मदद के लिए उनके अनुरोध के लिए, श्री आर.के. मालवीय तो कानून राज्य मंत्री, न्याय और कंपनी मामलों के लिए ऊपर उद्धृत पत्र कभी नहीं लिखा होता. इस जमीन पर भी उसकी रिट याचिका को खारिज कर दिया किया जा सकता था.
41. सीखा एकल न्यायाधीश वह प्रचुरता और सामग्री की पर्याप्तता में जाने से ऐसी सिफारिश की सत्यता पर विचार करने के लिए एक अपीलीय प्राधिकारी के रूप में बैठा हुआ था के रूप में यदि अपीलार्थी रिटायर अनिवार्य करने के लिए सरकार को सिफारिश करने के लिए पूर्ण न्यायालय के प्रशासनिक निर्णय जो जांच अपनी संतुष्टि तक पहुँचने में पूर्ण अदालत का नेतृत्व किया. इस मामले के विचार में एकल न्यायाधीश के पूरे दृष्टिकोण से दोषपूर्ण है और कानूनी तौर पर उचित नहीं था. सीखा एकल न्यायाधीश को देख कर सामग्री की जांच करने के लिए रवाना, "याचिकाकर्ता के खिलाफ शिकायतों से संबंधित पूरे रिकॉर्ड भी प्रतिवादी नहीं सीखा के लिए वरिष्ठ वकील ने बहस के दौरान मेरे सामने पेश किया गया है. 1. इस प्रकार, मैं हर काम कर रहा हूँ हर शिकायत एक के बाद एक ". हम अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश की वैधता की जांच करते हुए सीखा एकल न्यायाधीश देखने में न्यायिक समीक्षा के दायरे से नहीं रखा था, डरते हैं. अंतर अदालत अपील में उच्च न्यायालय की खंडपीठ, इस प्रकार, एक तरफ impugned क्रम स्थापित करने में पूरी तरह से उचित था.
अपीलार्थी के लिए 42. सीखा वरिष्ठ वकील नंद कुमार Verma1 में इस न्यायालय के एक फैसले पर भारी निर्भरता रखा. ध्यान से नंद कुमार Verma1 माना जाता है, हम नंद कुमार Verma1 में इस न्यायालय के निर्णय वर्तमान मामले के तथ्यों पर कोई आवेदन है कि लगता है. इस प्रकार के रूप में पढ़ता है, जो रिपोर्ट के (pg. 591) पैरा 36 से स्पष्ट है. "36 अनिवार्य सेवानिवृत्ति के निर्णय के आधार पर किया गया था, जिस पर सामग्री, उच्च impugned फैसले में कोर्ट, और द्वारा दी गई सामग्री से निकाले के रूप में अपीलार्थी प्रासंगिक सामग्री की कि समग्रता से विचार या पूरी तरह से उच्च न्यायालय द्वारा नजरअंदाज नहीं थे प्रतिबिंबित करेगा. यह उच्च न्यायालय के व्यक्तिपरक संतोष पर्याप्त या प्रासंगिक सामग्री पर आधारित नहीं था कि केवल एक ही निष्कर्ष की ओर जाता है. इस मामले के इस दृश्य में , हम अपीलार्थी का सर्विस रिकार्ड सेवा से समय से पहले सेवानिवृत्ति वारंट होगा जो असंतोषजनक था कि यह नहीं कह सकते. इसलिए, सेवा से अनिवार्य अपीलार्थी के रिटायर होने का कोई औचित्य नहीं था. " नंद कुमार वर्मा, इस प्रकार, अपने स्वयं के तथ्यों पर दिया.
43. ऊपर ध्यान में रखते हुए, हम अनिवार्य अपीलार्थी की सेवानिवृत्ति और सरकार द्वारा जारी किए गए अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश के लिए सरकार को उच्च न्यायालय द्वारा की गई सिफारिश के किसी भी कानूनी दोष से ग्रस्त नहीं है कि संतुष्ट हैं. अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश न्यायिक समीक्षा में किसी भी हस्तक्षेप को न्यायोचित ठहरा मनमाना और ही तर्कहीन तो है. खंडपीठ के impugned निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत एक अपील में इस न्यायालय द्वारा कोई हस्तक्षेप warranting कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं नहीं है.
44. सिविल अपील, तदनुसार, लागत के रूप में कोई आदेश से खारिज कर दिया है.
................... जे (आरएम लोढ़ा)
................... जे (अनिल आर दवे)
नई दिल्ली.
8 अगस्त 2012