Friday 28 February 2014

प्रतिवादी द्वारा सह प्रतिवादी साक्षियों की प्रतिपरीक्षा



प्रतिवादी द्वारा सह प्रतिवादी साक्षियों की प्रतिपरीक्षा
क्या एक सह प्रतिवादी, अन्य सह
प्रतिवादी एवं उसके साक्षियों की प्रतिपरीक्षा
करने हेतु अनुज्ञात किया जा सकता है ?
इस समस्या के समाधान हेतु भारतीय साक्ष्य
अधिनियम, 1872 की धारा 137 एवं 138सुसंगत है जिनमें क्रमशः साक्षियों की परीक्षा एवं
उनके क्रम को परिभाषित किया गया है
उक्त धाराएं निम्नवत् हैं:-
‘‘
धारा-137 -मुख्य परीक्षा- किसी साक्षी की
उस पक्षकार द्वारा जो उसे बुलाता है, परीक्षा
उसकी मुख्य परीक्षा कहलायेगी
प्रतिपरीक्षा-किसी साक्षी की प्रतिपक्षी (Adverse party)
 द्वारा की गयी परीक्षा उसकी प्रतिपरीक्षा कहलायेगी
पुनः परीक्षा-किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा के
पश्चात् उसकी उस पक्षकार द्वारा, जिसने उसे
बुलाया था, परीक्षा उसकी पुनः परीक्षा कहलायेगी

धारा-138-परीक्षाओं का क्रम-साक्षियों से प्रथमत
मुख्य परीक्षा होगी, तत्पश्चात्  (यदि प्रतिपक्षी
ऐसा चाहे तो ) प्रतिपरीक्षा होगी, तत्पश्चात् 
(यदि उसे बुलाने वाला पक्षकार ऐसा चाहे तो )
पुनः परीक्षा होगी
परीक्षा और प्रतिपरीक्षा को सुसंगत तथ्यों से
सम्बन्धित होना होगा, किन्तु प्रतिपरीक्षा का उन
तथ्यों तक सीमित रहना आवश्यक नहीं है
जिनका साक्षी ने अपनी मुख्य परीक्षा मंे परिसाक्ष्य
दिया है
पुनः परीक्षा की दिशा- पुनः परीक्षा उन बातों से
स्पष्टीकरण के प्रति उद्दिष्ट होगी जो प्रतिपरीक्षा
में निर्दिष्ट हुए हों, तथा यदि पुनः परीक्षा में
न्यायालय की अनुज्ञा से कोई नई बात प्रविष्ट
की गयी हो, तो प्रतिपक्षी उस बात के बारे में
अतिरिक्त प्रतिपरीक्षा कर सकेगा।‘‘
इन दोनों धाराओं के अधीन ‘‘प्रतिपक्षी (Adverse party)‘‘
 को ही किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा हेतु
अनुज्ञात किया गया है। यहाँ ‘‘प्रतिपक्षी
(Adverse party)
से ऐसा पक्ष अभिप्रेत नहीं है
जिसे किसी मामले में प्रतिपक्ष के रूप में
अभिवचित  (pleaded) किया गया है। किसी पक्ष
को वाद-पत्र में प्रतिवादी के रूप में वर्णित करने
मात्र से वह पक्ष प्रतिपक्षी (Adverse party) नहीं
हो जाता, जब तक कि वह पक्ष वादी द्वारा
वादपत्र में दर्शित मामले में विरोधी नहीं है। यदि
कोई पक्ष वादी का मामला स्वीकार कर लेता है
तो उस पक्ष एवं वादी के मध्य कोई विवाद
दर्शित नहीं होगा और ऐसे प्रतिवादी को प्रतिपक्षी
की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। ऐसा
प्रतिवादी वादी की प्रतिपरीक्षा हेतु अधिकृत नहीं
होगा।  (Hussens Hasanali Pulavwala v.
Sobbirbhai Hasanali Pulavwala, AIR 1981
Gujarat 190 Para 3 at page 191)
धारा-137 एवं 138 में प्रयुक्त ‘‘प्रतिपक्षी
(Adverse party) ‘‘
से ऐसा पक्ष अभिप्रेत है
जिसने किसी सुसंगत एवं तात्विक विवाद्यक
(Relevant and Material issue) पर अन्य पक्ष
से विरोधाभाषी अथवा उस अन्य पक्ष के हित के
प्रतिकूल अवलम्ब लिया है। ऐसे दोनों पक्ष
सम्बन्धित मामले में एक दूसरे के प्रतिपक्षी
(Adverse party)  होते हैं और ऐसा पक्ष सह
प्रतिवादी (co-defendant)भी हो सकता है
स्पष्ट है कि सह प्रतिवादी अन्य सह
प्रतिवादी एवं उसके साक्षियों की प्रतिपरीक्षा करने
हेतु तभी अनुज्ञात किया जा सकता है जबकि
उस अन्य सहप्रतिवादी द्वारा अपने अभिवचन
अथवा अभिसाक्ष्य में मामले के सुसंगत एवं
तात्विक विवाद्यक पर उस सहप्रतिवादी के
प्रतिकूल अवलम्ब लिया गया है अथवा ऐसा कोई
कथन किया गया है जो कि उस सहप्रतिवादी के
हित के प्रतिकूल या हानिकारक है। यहाँ यह
उल्लेख किया जाना समीचीन है कि ऐसा
प्रतिपरीक्षण सह प्रतिवादियों के हित के आपसी
विवाद की परिधि में ही अनुज्ञात किया जाना
चाहिए इस बिंदु पर  (Sadhu Singh v. Sant
Narain Singh Sewadar, AIR 1978 Punjab
and Haryana 319, Sohan Lal v. Gulab
Chand, AIR 1966 Raj 229, Sri Mohmed
Ziaulla v. Mrs. Sargra Begum, ILR 1997
Kar 1318 )
तथा  (Smt. Saroj Bala v. Smt.
Dhanpati Devi, AIR 2007, Del 105 )
 
के न्याय दृष्टांत अवलोकनीय है।


Crpc की धारा 167(2) के प्रावधान के अंतर्गत निरूद्ध अवधि

उन अपराधों के संबंध में जिनके लिए
कारावास की दण्डाज्ञा 10 वर्ष तक
विस्तारित है, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा
167(2) के प्रावधान के अंतर्गत अभियुक्त
को अधिकतम कितने दिनों के लिये निरूद्ध
किया जा सकता है ?

द.प्र.सं. की धारा 167 (2) के परन्तुक (क) के
खण्ड (प) के अनुसार कोई न्यायिक मजिस्टंेट
मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या दस वर्ष से
अन्यून की अवधि के लिए कारावास से दण्डनीय
अपराध हेतु किसी अभियुक्त को अधिकतम 90
दिवस की अवधि के लिए एवं शेष अपराधों हेतु
अधिकतम 60 दिवस की अवधि के लिए निरोध
में रखे जाने का आदेश दे सकता है।
उक्त विधिक प्रावधान से ऐसे अपराधों के मामले
मंें कारावास की अधिकतम अवधि के संबंध में
भ्रम उत्पन्न होता है जिन के लिए कारावास की
दण्डाज्ञा 10 वर्ष तक विस्तारित हो सकती है।
ऐसे अपराधों से संबंधित अभियुक्त को अधिकतम
90 दिवस के लिए निरोध में रखा जा सकता
है या 60 दिवस के लिए? यह प्रश्न कई बार
न्यायिक मजिस्टंेट के समक्ष उत्पन्न होता है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत राजीव
चैधरी विरूद्ध देहली (एन.सी.टी.) राज्य,
ए.आई.आर. 2001 सुको 2369 में उक्त प्रश्न
पर विचार करते हुए धारा 167(2) में प्रयुक्त पद
‘दस वर्ष से अन्यून‘ (not less ten years) का
अर्थ न्यूनतम 10 वर्ष या अधिक होना बताया
गया है एवं धारा 167(2) के परन्तुक  (क) के
खण्ड (प) में वही अपराध सम्मिलित होना माने
गये हैं जिनके लिये स्पष्टतः न्यूनतम 10 वर्ष या
उससे अधिक का कारावास प्रावधानित है ।
उक्त प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा भा.द.
वि. की धारा 386 के अंतर्गत अपराध के मामले
में, जो दस वर्ष तक के कारावास की दण्डाज्ञा
से दण्डनीय है, द.प्र.सं. की धारा 167(2) के
परन्तुक  (क) के खण्ड (प) में वही अपराध
सम्मिलित होना माने गये हैं जिनके लिए स्पष्टतः
न्यूनतम 10 वर्ष या उससे अधिक का कारावास
प्रावधानित है ।
उक्त प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा भा.द.
वि. की धारा 386 के अंतर्गत अपराध के मामले
में, जो दस वर्ष तक के कारावास की दण्डाज्ञा
से दण्डनीय है, द.प्र.सं. की धारा 167 (2) के
परन्तुक के खण्ड (पप) न कि खण्ड (प) लागू
होना मानते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे
अपराध से संबंधित अभियुक्त को अधिकतम 60
दिवस की अवधि के ही लिए निरोध में रखा जा
सकता है । इस संबंध में म.प्र. उच्च
न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत सुन्दर विरूद्ध म.
प्र. राज्य, 2010  (1) एम.पी.एच.टी. 426 भी
अवलोकनीय है ।
इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि उन अपराधों के
संबंध मंे, जिनके लिए कारावास की दण्डाज्ञा 10
वर्ष तक विस्तारित होती है, द.प्र.सं. की धारा
167 (2) के परन्तुक  (क) का खण्ड (पप) लागू
होगा और ऐसे अपराध से संबंधित अभियुक्त को
किसी न्यायिक मजिस्टंेट द्वारा अधिकतम 60
दिवस तक निरूद्ध रखा जा सकता है ।

Wednesday 26 February 2014

मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण द्वारा अधिनिर्णीत ब्याज राशि पर देय आयकर

क्या मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण द्वारा

अधिनिर्णीत ब्याज राशि पर देय आयकर की

कटौती बीमा कंपनी द्वारा स्त्रोत पर

(भुगतान के समय) की जा सकती है ?
 


ऐसे मामले में आयकर के प्रयोजन से ब्याज

राशि की गणना एवं दावाकर्ता के हित की

सुरक्षा हेतु क्या प्रक्रिया अपनायी जाना

चाहिए ?

जहाँ कोई मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण,

मोटर यान अधिनियम, 1988 के अधीन किये गये

प्रतिकर के दावे को स्वीकार कर दावाकर्ता के

पक्ष में अधिनिर्णय पारित करता है वहां

अधिकरण यह निर्देश भी दे सकता है कि

प्रतिकर की राशि के अतिरिक्त विनिर्दिष्ट दर एवं

विनिर्दिष्ट तारीख (जो दावा संस्थित करने की

तारीख से पहले की नहीं होगी) से साधारण

ब्याज राशि भी अदा की जाए। वस्तुतः दावाकर्ता

का प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार मोटर दुघ्
र्
ाटना घटित होने के तुरंत बाद ही उत्पन्न हो

जाता है। दावा प्रस्तुती उपरांत प्रतिकर निर्धारण

और तत्पश्चात् उसकी अदायगी में लगने वाले

समय के लिए ब्याज राशि दिलाई जाती है।

(संदर्भ - धारा 166 एवं 171 मोटर यान

अधिनियम, 1988)आयकर अधिनियम, 1961 में ’’ब्याज’’ को आय

माना गया है। उक्त अधिनियम की धारा 2 (28.

।) के अधीन ’’ब्याज’’ को परिभाषित किया गया

है। आयकर अधिनियम की धारा 194.। यह

उपबंध करती है कि व्यक्ति या हिन्दू अविभाजित

परिवार से भिन्न कोई व्यक्ति जब ब्याज के रूप

में आय का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है

तब ऐसे भुगतान के समय वह ऐसे ब्याज की

आय पर प्रभावी दर से आयकर कटौत्रा

करेगा। धारा 194.। की उपधारा (3) उन

अपवादों को निरूपित करती है जिनमें

उक्तानुसार ब्याज पर आयकर कटौत्रा (एक

सीमा तक) नहीं किया जाएगा। उपधारा (3) के

खण्ड (पग) के अनुसार जहाँ मोटर दावा दुर्घटना

अधिकरण द्वारा अधिनिर्णीत ब्याज राशि के रूप

में ऐसी किसी आय का भुगतान किया जाता है

वहां जब तक की भुगतान किये जाने वाले वित्त

वर्ष के दौरान ऐसी ब्याज की आय ृ50,000 से

अधिक नहीं हो, भुगतानकर्ता (बीमा कंपनी) द्वारा

ब्याज राशि पर आयकर नहीं काटा जाएगा।

संदर्भ - धारा 2 (28.।) एवं धारा 194.। (1) (3)
(पग) आयकर अधिनियम 1961
जहां तक अधिनिर्णीत ब्याज राशि पर देय

आयकर के प्रयोजन से ब्याज की गणना का

प्रश्न है, अधिनिर्णीत ब्याज को प्रतिकर का दावा

प्रस्तुत किये जाने के दिनांक से संदाय के

दिनांक तक वर्षो (वित्त वर्षो) में विभाजित कर

ब्याज की गणना की जानी चाहिए एवं सुसंगत

वित्त वर्ष के लिए यदि ऐसी संगणित ब्याज

राशि ृ 50,000 से अधिक है तक ही स्त्रोत पर

आयकर कटौती की जाएगी। प्रतिकर के दावा

दिनांक से संदाय दिनांक तक के अवधि के लिए

देय कुल ब्याज राशि को एक मुश्त राशि

मानकर आयकर कटौती नहीं की जा सकती है।

यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि

जहाँ मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण ने

अधिनिर्णय के अधीन देय राशि एक से अधिक

दावाकर्ताओं के पक्ष में अधिनिर्णीत की है वहां

प्रत्येक व्यक्तिगत दावाकर्ता को अनुपातिक रूप

से संदाय की जाने वाली प्रतिकर राशि पर देय

ब्याज की गणना की जावेगी और ऐसे प्रत्येक

दावाकर्ता को संदेय प्रतिकर पर देय ब्याज की

राशि ृ 50,000 रूपये से अधिक होने की दशा में

ही स्त्रोत पर आयकर कटौती की जा सकेगी

क्योंकि आयकर अदायगी का दायित्व प्रत्येक

दावाकर्ता का पृथक होगा। इस संबंध में

न्यायदृष्टांत यूनाईटेड इंडिया इंश्यारेंस

कंपनी लिमिटेड विरूद्ध रामलाल, 2011 (2)

जे.एल.जे. 178 अवलोकनीय है।

ब्याज राशि पर स्त्रोत पर आयकर कटौत्रा के

साथ-साथ दावाकर्ता के हित को ध्यान में रखा

जाना चाहिए। जहाँ कि दावाकर्ता, अधिनिर्णय के

अधीन उसे प्राप्त होने वाली ब्याज राशि ृ

50,000 की सीमा से अधिक होने की दशा में भी

यदि सुसंगत विŸा वर्ष के लिए अपनी अन्य

स्त्रोत से प्राप्त समस्त आय और छूटों को

संगणित करते हुए, स्वयं को आयकर अदा करने

के उŸारदायित्व की परिधि में न आने वाला

साबित करता है तो ऐसी स्थिति में बीमा कंपनी

आयकर कटौती की बाध्यता से मुक्त होगी

लेकिन इसके लिए दावाकर्ता को धारा 197-9

(1) (।) आयकर अधिनियम, 1961 सहपठित

नियम 29 आयकर नियम के अनुसार संबंधित

बीमा कंपनी में प्रारूप क्रमांक 15-ळ के अधीन

लिखित घोषणा करनी होगी।

उक्त विधिक स्थिति को देखते हुये मोटर दुघ्
र्
ाटना दावा अधिकरण के लिए यह विधिपूर्ण और

उपर्युक्त होगा की प्रतिकर राशि पर ब्याज

अधिनिर्णीत किये जाने की दशा में

दावाकर्ता/दावाकर्ताओं द्वारा बीमा कंपनी में

उक्तानुसार प्रारूप क्रमांक 15-ळ की घोषणा

करने और ऐसा किये जाने की पुष्टि में

दावाकर्ता/दावाकर्ताओं द्वारा अधिकरण के समक्ष

शपथ पत्र प्रस्तुत किये जाने पर ही ब्याज राशि

का भुगतान जारी किया जाये। अधिकरण के

लिए यह उपयुक्त होगा की अधिनिर्णय (अवार्ड)

में स्वीकृत ब्याज राशि पर देय आयकर कटौत्रा

के संबंध में दावाकर्ता और बीमा कंपनी के

अधिकार और दायित्वों को दृष्टिगत रखते हुए

समुचित निर्देश दिये जाये।

लोक अदालत में न्यायालय फीस की वापसी

लोक अदालत में निराकृत सिविल मामलों

में न्यायालय फीस की वापसी के संबंध में

विधिक स्थिति क्या है?


इस प्रश्न के संबंध में न्यायालय फीस अधिनियम,

1870 की धारा - 16

सुसंगत है जो निम्नवत् है-

‘‘फीस का प्रतिदाय.- जहां न्यायालय वाद के

पक्षकारों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
1908 का 5 की धारा 89 में निर्दिष्ट विवाद के

निपटारे के ढंगों में से कोई ढंग निर्देशित करता

है, वहां वादी न्यायालय से ऐसा प्रमाणपत्र प्राप्त

करने का हकदार होगा जिसमें कलेक्टर से ऐसे

वाद के संबंध में संदाय फीस की पूरी रकम

वापस प्राप्त करने के लिए प्राधिकृत किया गया

हो।‘‘

वर्ष 2002 में अंतःस्थापित इस प्रावधान के अधीन

जहाँ न्यायालय द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता,

1908 की धारा-89 में निर्दिष्ट विवाद के निपटारे

की प्रविधियों में से, जिसके अधीन लोक अदालत

के माध्यम से समझौता भी सम्मिलित है, किसी

के भी अधीन निराकरण के लिए निर्दिष्ट किया

जाता है तो ऐसे सिविल विवाद के निराकरण पर

वादी न्यायालय से ऐसे प्रमाणपत्र को प्राप्त करने

का अधिकारी होगा जिसमें उसे कलेक्टर से उस

मामले में संदाय की गई सम्पूर्ण न्यायालय फीस

के लिए प्राधिकृत किया गया हो।

इस प्रावधान के अतिरिक्ति विधिक सेवा

प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 21 भी

सुसंगत है। यह धारा निम्नलिखित है-

’’लोक अदालत का अधिनिर्णय - 1 लोक

अदालत का प्रत्येक

अधिनिर्णय, किसी सिविल न्यायालय की एक

डिक्री या, यथास्थिति, किसी अन्य न्यायालय का

कोई आदेश माना जाएगा और जहाँ धारा 20 की

उपधारा 1 के अधीन उसे निर्देशित किसी

मामले में किसी लोक अदालत द्वारा कोई

समझौता या परिनिर्धारण किया जाता है, तो ऐसे

मामले में संदाय न्यायालय फीस, न्यायालय फीस

अधिनियम, 1870  के अधीन

उपबंधित रीति में वापस की जाएगी।
2- किसी लोक अदालत द्वारा दिया गया प्रत्येक

अधिनिर्णय, अन्तिम एवं विवाद के समस्त पक्षकरों

पर आबद्धकर होगा, और अधिनिर्णय के विरूद्ध

किसी न्यायालय में कोई अपील नहीं की

जाएगी।’’

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि लोक अदालत में

निराकृत सिविल मामले में पक्षकार मामले में

संदाय की गई न्यायालय फीस की सम्पूर्ण

धनराशि वापस प्राप्त करने का अधिकारी होता है

तथा इस राशि में से किसी भी प्रकार की

कटौती किया जाना अनुज्ञात नहीं है।

अतएव यह ध्यातव्य है कि प्रथमतः ऐसे मामलों

में न्यायालय, न्यायालय फीस के स्टाम्प वापस

नहीं करेगा वरन् न्यायालय फीस को कलेक्टर

से वापस प्राप्त करने बाबत् एक प्रमाणपत्र

पक्षकार को प्रदान करेगा। द्वितीयतः यह

प्रमाणपत्र पक्षकार को उस मामले में संदाय
सम्पूर्ण न्यायालय फीस की वापसी हेतु अधिकृत

करेगा। दूसरे शब्दों में ऐसे प्रमाणपत्र के अधीन

पक्षकार कलेक्टर से मामले में संदाय सम्पूर्ण

न्यायालय फीस वापस पाने का अधिकारी होगा।

इस संबंध में रमेशचंद्र वि. म.प्र. राज्य एवं अन्य

W.P.No. 7282/10 निर्णय दिनांक

01.11.2011 खण्डपीठ के न्यायदृष्टांत में

प्रतिपादित किया गया है कि सिविल प्रक्रिया

संहिता, 1908 की धारा 89 के अधीन लोक

अदालत को निर्दिष्ट विवाद के समायोजन

उपरांत याची/अपीलार्थी न्यायालय से ऐसा

प्रमाणपत्र प्राप्त करने का अधिकारी होता है

जिसमें उसे मामले में संदाय की गई न्यायालय

फीस की सम्पूर्ण राशि कलेक्टर से वापस प्राप्त

करने के लिए अधिकृत किया गया हो। इस

राशि में प्राधिकारियों द्वारा कोई कटौती नहीं की

जा सकती है।

इसी विषय पर बल्लभ दास गुप्ता वि. श्रीमती गीताबाई,  
 2004 (3) MPHT 89 (खण्डपीठ) केशरीमल वि. धनराज,  
 2010 (III) MPWN 54 (at Page 152) तथा 
विपिन त्रिवेदी वि.मोहनलाल शर्मा,  2011 (5) MPHT 102 
 के न्यायदृष्टांतों में प्रतिपादित विधि भी अवलोकनीय है।

साक्षियों के पक्षद्रोही होने के आधार पर जमानत ?

क्या एक विचारणधीन अभियुक्त, जिसका

जमानत आवेदन पत्र पूर्वतन प्रकक्रम पर

निरस्त हुआ है द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम

पर अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही होने

अथवा अभियोजन का समर्थन नही करने

के आधार पर जमानत हेतु प्रस्तुत

आवेदन पत्र स्वीकार योग्य है ?


सामान्य रूप से किसी अपराध के अभियुक्त

व्यक्ति को जमानत देने से इन्कार करना धारा

437 या धारा 439 दण्ड प्रक्रिया संहिता के

अंतर्गत न्यायालय के विवेकाधीन होता है।

तथापि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों

के संबंध में न्यायालय द्वारा जमानत संबंधी

विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग माननीय सर्वोच्च

न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित

मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुसरण में किया जाना

बाध्यकारी है। यह सुस्थापित मत है कि जमानत

पर देखना चाहिए। जमानत के प्रकरण पर साक्ष्य

का विवेचन कर मामले के गुण-दोष को विचार

में नही लेना चाहिए जैसा कि निरंजन सिंह

विरूद्ध प्रभाकर राजाराम, ए.आई.आर. 1980

सु.को. 785
में प्रतिपादित किया गया है।

एक अभियुक्त, जिसका जमानत आवेदन पत्र

पूर्वतन प्रक्रम वा गुण-दोषों पर निरस्त हुआ

है, द्वारा पश्चातवर्ती प्रक्रम पर अभियोजन

साक्षियों के पक्षद्रोही होने अथवा अभियोजन का

समर्थन नही करने के आधार पर जमानत के

लिए प्रस्तुत आवेदन पत्र स्वीकार योग्य नही

होगा। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सतीश

जग्गी विरूद्ध स्टेट आफ छत्तीसगढ़, 2007

क्रि.ला.ज. 2766
में साक्षियों के पक्षद्रोही हो

जाने के आधार पर उच्च न्यायालय द्वारा दी गई

जमानत के आदेश को अपास्त करते हुए

अवधारित किया है कि जमानत देने के प्रक्रम पर

न्यायालय द्वारा अभियोजन की ओर से प्रस्तुत

साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनीयता का बिन्दु

विचार में नही लिया जा सकता है। अभियोजन

साक्षियों की सत्यता एवं विश्वसनियता का

परीक्षण केवल गुण-दोष पर निर्णय के समय

किया जा सकता है क्योकि इस से पूर्व का

साक्ष्य का विवेचन परोक्ष रूप से मामले के

गुण-दोष पर न्यायालय का अभिमत प्रगट करने

जैसा होगा। इसी तरह नारायण घोष विरूद्ध

स्टेट आफ उड़ीसा, ए.आई.आर. 2008 सु.

को. 1159
के मामले में माननीय सर्वोच्च

न्यायालय ने अभियोजन साक्षियों के पक्षद्रोही

होने को जमानत देने के आधार के रूप में

स्वीकार नही किया।

स्कूली बस संचालन के दिशा निर्देश



स्कूली बस के संचालन के संबध में मान्नीय उच्च न्यायालय के दिशा निर्देश-

       
                              मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा-2-47 के अनुसार एक शैक्षिक संस्थान बस एक परिवहन वाहन है और इसलिए सडक पर इसके परिवहन के लिए एक परमिट की आवश्यकता है ।       
                           यह परमिट बिना फिटनेस टेस्ट के हर साल इसका नवीनी करण नहीं होना चाहिए।


                           इसके लिए स्कूल बसों के चालको को यातायात अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वह विधि अनुसार कार्यवाही करें । इसलिए मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बच्चो को ले जाने  संबंधी स्कूल बसो की सुरक्षा के संबंध में कुछ दिशा निर्देश निर्धारित किये गये है जो निम्नलिखित है-

    1-    स्कूल बसों में पीले रंग चित्रित किया जाना चाहिए।
    2-    स्कूल बस वापस और बस के मोर्चे पर लिखा होना चाहिए। यह बस काम पर रखा जाता है तो स्कूल ड्यूटी पर स्पष्ट रूप से संकेत दिया जाना चाहिए।
    3-    बस एक प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स होना चाहिए।
   4-    बस निर्धारित मानक की गति राज्यपाल केसाथ सुसज्जित किया जाना चाहिए।
    5-    बस की खिडकियां क्षैतिज ग्रिल्स के साथ सुजज्ति किया जाना चाहिए।
    6-    बस में एक आग बुझाने की कल होना चाहिए।
   7-    स्कूल का नाम और टेलीफोन नंबर बस पर लिखा होना चाहिए।
    8-    बस के दरवाजे विश्वसनीय ताले के साथ सुसज्जित किया जाना चाहिए।
    9-    सुरक्षित रूप से स्कूल बेग रखने के लिए सीटों के नीचे फिट स्थान नहीं होना चाहिए
    10-    बच्चो को भाग लेने के लिए बस में एक योग्य परिचर होना चाहिए।
    11-    बस या एक शिक्षक में बैंठे किसी भी माता पिता या अभिभावक भी इन सुरक्षा नियमों को सुनिश्चित करने के लिए यात्रा कर सकते हैं ।
    12-    चालक भारी वाहनों ड्रायविंग के अनुभव के कम से कम 5 साल होनी चाहिए।
    13-    लाल बत्ती कूद लेन अनुशासन का उल्लंघन या अनधिकृत व्यक्ति को ड्रायवर के लिए    अनुमति देता है । जैसे अपराधो के लिए एक वर्ष में दो बार से अधिक चालान किया  गया है जो एक ड्रायवर नियोजित नहीं किया जा सकता ।
    14-    अधिक तेजी, शराबी ड्राइविंग और खतरनाक ड्राइविंग आदि के अपराध के लिए एक   बार भी चालान किया गया है जो एक ड्राइवर नियोजित नहीं किया जा सकता।

धारा-307 हत्या का प्रयास क्या है ?

  धारा-307  हत्या का प्रयास


1.       ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।
 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
2.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

 3.         धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।

4.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, 
संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.

Monday 17 February 2014

धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

धारा 311 दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973

     कभी-कभी किसी जांच विचारण या अन्य कार्यवाही में किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक होता है तब न्यायालय या तो स्वतः ही या किसी पक्ष के आवेदन पर उस व्यक्ति को साक्षी के रूप में बुलाती है ऐसी परिस्थिति में इस संबंध में वैधानिक स्थिति स्पष्ट हो तब ऐसे आवेदन का निराकरण सुविधाजनक रूप से किया जा सकता है।
     धारा 311 दं.प्र.सं. में प्रावधान है कि कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाजिर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न  किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा और उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।
     न्याय दृष्टांत मोहन लाल श्याम जी सोनी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया,         ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 1346 में यह विधि प्रतिपादित की गई है कि धारा 311 दं.प्र.सं. का प्रथम भाग वैवेकीय है और दूसरा भाग आज्ञापक है। न्याय दृष्टांत राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 2779 में भी धारा 311 दं.प्र.सं. के प्रथम भाग को वैवेकीय और द्वितीय भाग को आज्ञापक बतलाया गया हैं।

किसी भी प्रक्रम पर
    
     धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग निर्णय सुनाने के पूर्व किसी भी प्रक्रम पर किया जा सकता है न्याय दृष्टांत विजय कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 2011 एस.सी.डब्ल्यू. 6236 के अनुसार इन शक्तियों का प्रयोग प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये यदि गवाह का परीक्षण आवश्यक हो तो किसी भी प्रक्रम पर किया जा सकता है।
     प्रतिरक्षा साक्षी के कथन के बाद भी न्यायालय धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग कर सकती है और इसे अभियोजन की कमी को पूरा करने वाला नहीं कहां जा सकता जब तक की अभियुक्त के हितों पर प्रतिकूल असर गिरना न दर्शाया गया हो जैसा कि न्याय दृष्टांत यू.टी. आॅफ दादरा एवं हवेली विरूद्ध फतेसिंह मोहन सिंह चैहान, 2006 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4880 में प्रतिपादित किया गया है।
     न्याय दृष्टांत सी.पी. साहू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 401 के अनुसार ये शक्तियाॅं विस्तृत है और न्यायालय किसी भी प्रक्रम पर किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में बुला सकती है।

न्यायाल का कत्र्तव्य

     न्याय दृष्टांत जाहीरा हबीबुल्ला शेख विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3114 के अनुसार पीठासीन न्यायाधीश को एक दर्शक नहीं होना चाहिये और न ही बयान लेखन की मशीन होना चाहिये बल्कि उसे साक्ष्य संग्रह की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाना चाहिये व सही निर्णय तक पहुंचने के लिये सभी तात्विक साक्ष्य अभिलेख पर आ जाये ऐसा प्रयास करना चाहिये। न्याय दृष्टांत हिमांशू सिंह शबरवाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1943 में भी यही विधि प्रतिपादित की गई है।
     न्याय दृष्टांत रामचन्द्र विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1036 के अनुसार न्यायाधीश को न दर्शक बने रहना चाहिये और न ही साक्ष्य अभिलिखित करने की मशीन, बल्कि बुद्धिमानी पूर्वक विचारण में सक्रिय भाग लेना चाहिये लेकिन उसे अभियोजक की या प्रतिरक्षा की भूमिका में पहुंचने तक नहीं जाना चाहिये केवल सत्य को प्रकाश में लाने का कार्य सावधानी पूर्वक करना चाहिये। दुर्भाग्य से विचारण में बैठने वाले पीठासीन न्यायाधीश की मानसिकता ऐसी रहती है कि वे स्वयं को रेफरी या एम्पायर समझते है और विचारण अभियोजन और बचाव के बीच एक कंटेस्ट बनकर रह जाता है।
     न्याय दृष्टांत शैलेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 2002      एस.सी. 270 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में एक हत्या के मामले में दो-तीन औपचारिक गवाह लेने के बाद विचारण न्यायालय ने इस आधार पर प्रमाण समाप्त कर दिया था कि अभियोजक ने गवाहों के परीक्षण के लिये स्थगन की कोई प्रार्थना नहीं की माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे उचित नहीं माना और यह बतलाया की न्यायालय को अन्वेषण अधिकारी को समन करना था गवाहों को समन/वारंट से बुलाना था।
     उक्त वैधानिक स्थिति से यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि यह न्यायालय का कत्र्तव्य है कि वह यह देखे कि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये सभी आवश्यक साक्ष्य अभिलेख पर आ जाना चाहिये और इसके लिये न्यायाधीश को विचारण में सक्रिय भूमिका निभाना चाहिये।

किसी पक्ष की कमी को पूरा करना

     विचारण न्यायालय के सामने एक प्रश्न यह रहता है कि यदि वे किसी गवाह को इन शक्तियों का प्रयोग करके न्यायालय साक्षी के रूप में बुलाते है तो उन पर किसी पक्ष की कमी को पूरा करने का आक्षेप आ सकता है ऐसे अवसर पर न्याय दृष्टांत इंदर विरूद्ध आबिदा, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 3029 से मार्गदर्शन लेना चाहिये जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायालय को तात्विक गवाह लेने की शक्तियाॅं है न केवल अभियुक्त का समर्थन करने वाली बल्कि अभियोजन का समर्थन करने वाली साक्ष्य भी लेने की शक्तियाॅं है। यह विचार योग्य नहीं है कि वह साक्ष्य अभियोजन के मामले की कमी को पूरा करेगी यह तो पूरक या गौण तथ्य है जिसे विचार में नहीं लेना चाहिये।
     न्याय दृष्टांत राजेन्द्र प्रसाद विरूद्ध नारकोटिक्स सेल, ए.आई.आर. 1991     एस.सी. 2291 में यह प्रतिपादित किया गया है कि लोक अभियोजक द्वारा प्रकरण के संचालन में की गई कमी या त्रुटि को अभियोजन की प्रकरण की कमी नहीं समझा जा सकता है यदि अभियोजक मामले में दो बार अभियोजन प्रमाण यह सत्यापित किये बिना समाप्त कर देता है की सभी गवाहों का प्रतिपरीक्षण हो चुका है या नहीं ऐसे में न्यायालय न्यायहित में उन गवाहों को समन करती है तो यह उचित है इस मामले में किसी पक्ष की कमी या लेकूना किसे कहते है इस पर भी प्रकाश डाला गया है।
     उक्त न्याय दृष्टांत यू.टी. आॅफ दादरा एण्ड हवेली विरूद्ध फतेसिंह, 2006     ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4880 भी इस बारे में अवलोकनीय है जिसमें बचाव साक्षी हो जाने के बाद धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग किया गया था।
     इस प्रकार न्यायालय को इन शक्तियों का प्रयोग कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर यदि साक्ष्य मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के लिए आवश्यक है तब अवश्य करना चाहिये क्योंकि न्यायालय का कार्य न्यायदान है और यही मुख्य विषय है।

साक्ष्य के बाद शपथ पत्र

     किसी साक्षी का परीक्षण हो जाने के बाद उसका शपथ पत्र पेश करके उसे फिर से साक्ष्य में बुलाने की प्रार्थना कई बार की जाती है और धारा 311 दं.प्र.सं. का आवेदन ऐसे साक्षी के लिये पेश किया जाता है ऐसे अवसर पर आवेदन निराकृत करने में बहुत सावधान रहना चाहिये।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध बद्री यादव, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 1769 के मामले में अभियोजन साक्षी के रूप में गवाहों का कथन हुआ वे ही साक्षी प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में कथन देने उपस्थित हुये गवाहों ने शपथ दिया था की उन्हें पुलिस ने प्रताडि़त व उत्प्रेरित किया था साक्षी प्रतिरक्षा साक्षी के रूप में कथन देने नहीं आ सकते है लंबे समय बाद शपथ पत्र लिया गया था ऐसे गवाह झूठी साक्ष्य देने की कार्यवाही के उत्तरदायी है ऐसा भी कहां गया।
     न्याय दृष्टांत मांगी उर्फ नर्मदा विरूद्ध आॅफ एम.पी., 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 136 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी साक्षी को उसके कथित शपथ पत्र के आधार पर अतिरिक्त परीक्षा या प्रतिपरीक्षण के लिये नहीं बुलाना चाहिये मामले में न्याय दृष्टांत याकूब इस्माईल भाई पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4209 पर विचार किया गया है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि एक बार किसी गवाह का शपथ पर परीक्षण हो जाता है उसके बाद उसे शपथ पत्र के आधार पर पुनः बुलाना उचित नहीं हैं।
     न्याय दृष्टांत उमर मोहम्मद विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. (सप्लीमेंट) 231 के मामले में गवाह के कथन हो जाने के बाद घटना के 4 वर्ष बाद गवाह द्वारा यह आवेदन दिया गया कि चार आरोपी के नाम कम किये जाये जो यह दर्शाता है कि गवाह को विपक्ष ने मिला लिया है ऐसा आवेदन निरस्त किया गया।
     न्याय दृष्टांत राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2799 के मामले में प्रतिरक्षा प्रमाण हो जाने के बाद धारा 311 दं.प्र.सं. का आवेदन प्रस्तुत हुआ कि परिवादी को पुनः तलब किया जाये क्योंकि मामला उभय पक्ष के बीच सेटल हो चुका है ऐसा आवेदन निरस्त किया गया।
     न्याय दृष्टांत राजपाल सिंह विरूद्ध सी.बी.आई. भोपाल, 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 482 के मामले में आवेदन प्रस्तुत हुआ कि साक्षी ने पूर्व का कथन धमकी के अधीन दिया था अतः उसे पुनः बुलाया जाये न्यायालय ने बिना जांच के साक्षी को पुनः तलब करने का आदेश दिया जिसे उचित नहीं माना गया हैं।
     न्याय दृष्टांत राम हेत शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 2273 के मामले में अभियुक्त ने कुछ ऐसे दस्तावेज जो साक्षी के कथन के बाद पता लगे उनके आधार पर साक्षी को अपनी प्रतिरक्षा स्थापित करने के लिये पुनः तलब करने का आवेदन दिया जिसे उसी सीमा तक प्रतिपरीक्षण के लिये स्वीकार किया गया।
     न्याय दृष्टांत लाल किशोर झा विरूद्ध स्टेट आॅफ झारखण्ड, (2011) 6       एस.सी.सी. 453 के मामले में धारा 494 एवं 498 ए भा.दं.सं. में परिवादी पत्नी के और अभियुक्त पति के बीच कुछ समझौता हुआ और पति पत्नी को घर ले गया पत्नी परिवादी ने कथन में आरोपों पर बल देना नहीं चाहा मामले के निराकरण के पूर्व  पत्नी ने एक आवेदन दिया की पति ने उसे घर से निकाल दिया है और समझौते का भंग किया है विचारण न्यायालय ने धारा 311 दं.प्र.सं. की शक्तियों का प्रयोग करते हुये पत्नी का फिर से कथन लिया गया मामले में दोषसिद्धि हुई इसे उचित माना गया।

साक्ष्य सूची में नाम न होना

     न्याय दृष्टांत सी.पी. साहू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 401 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि साक्षी की साक्ष्य मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के आवश्यक है तब न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि ऐसे साक्षी को समन करके उसका कथन लेवे साक्षी का नाम अभियोजन की साक्ष्य सूची में नहीं है इस आधार पर न्यायालय पर कोई रोक नहीं होती है और ऐसे गवाह को भी न्यायालय साक्ष्य में बुला सकता है।
     न्याय दृष्टांत जमुना दास बालादीन जाटव विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1994 एम.पी.एल.जे. 569 के अनुसार यदि अभियोजन की साक्ष्य सूची में गवाहों के नाम शामिल नहीं है और यदि वे मामले के न्यायपूर्ण निराकरण के लिए समन करना चाहिये। 
     अतः साक्षी का नाम साक्ष्य सूची में न होने मात्र से कोई अंतर नहीं होता है।

अन्य अवसर पर भिन्न कथन

     यदि किसी मामले में किसी साक्षी का परीक्षण हो जाता है और उसे इस आधार पर पुनः बुलाने की प्रार्थना की जाती है कि उसने बाल न्यायालय में असंगत साक्ष्य दी है तब ऐसी प्रार्थना को स्वीकार योग्य नहीं माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत हनुमान राय विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 69 अवलोकनीय है जिसमें साक्षी ने बाल न्यायालय में कुछ असंगत साक्ष्य दी थी।
     न्याय दृष्टांत मिश्री लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2770 भी इस मामले में अवलोकनीय हैं जिसमें यह भी कहां गया है कि बाल न्यायालय में असंगत साक्ष्य देना दोषमुक्ति का आधार नहीं हो सकता है।

न्यायालय साक्षी के बारे में

     यदि न्यायालय किसी साक्षी को स्वतः ही साक्ष्य में बुलाती है तब उससे प्रतिपरीक्षण का अधिकार दोनों पक्ष को होता है इस संबंध न्याय दृष्टांत एस.आर.एस. यादव विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1997 (2) जे.एल.जे. 110, राम पासवान विरूद्ध स्टेट, 2007     ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 2779 अवलोकनीय हैं।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ असम विरूद्ध मुहिम बर्काताकी, ए.आई.आर. 1987    एस.सी. 98 में एक हत्या के मामले में एक पुलिस अधिकारी को न्यायालय ने न्यायालय साक्षी के रूप में बुला कर परीक्षा की मात्र इस आधार पर विचारण न्यायालय के निष्कर्षो में कोई कमी नहीं कही जा सकती एक साक्षी पुलिस अधिकारी है मात्र इस आधार पर उसकी साक्ष्य को कम नहीं आका जा सकता।

गवाह खर्च

     सामान्यतः जो पक्ष गवाह को बुलाता है वह उसका खर्च उठाता है लेकिन जहां अभियोजन की किसी त्रुटि के कारण गवाह बचाव पक्ष द्वारा पुनः बुलाना पड़ा हो वहां अभियुक्त से उसका खर्च दिलवाना उचित नहीं होता है न्याय दृष्टांत नंद लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 98 इस संबंध में अवलोकनीय हैं।
     उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धारा 311 दं.प्र.सं. का प्रथम भाग वैवेकीय और द्वितीय भाग आज्ञापक है अतः किसी साक्षी का कथन यदि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये आवश्यक हो तो न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ऐसे व्यक्ति को समन करके उसका परीक्षण कर सकती है, उसे पुनः बुला सकती है और पुनः परीक्षण कर सकती है। यह प्रश्न तात्विक नहीं है कि ऐसे साक्षी को बुलाना किसी पक्ष की कमी को पूरा करना है तात्विक यह है कि प्रकरण के न्यायपूर्ण निराकरण के लिये ऐसे साक्षी का साक्ष्य आवश्यक हैं। यदि साक्षी का नाम साक्ष्य सूची में न हो तब भी उसे तलब किया जा सकता हैं। न्यायालय साक्षी से दोनों पक्षों को प्रतिपरीक्षण का अधिकार होता है लेकिन किसी गवाह का कथन एक बार हो जाने के बाद उसे बाद में दिये गये शपथ पत्र के आधार पर पुनः बुलाना उचित नहीं माना गया है इन वैधानिक स्थितियों को ध्यान मंे रखते हुये धारा 311 दं.प्र.सं. के आवेदन का न्यायपूर्ण निराकरण करना चाहिये और इन शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये और न्यायाधीश या मजिस्टेªट को अपने कत्र्तव्य का विचारण के समय विशेष कर साक्ष्य लेखन के समय ध्यान रखना चाहिये।
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द0प्र0सं0 311
                           न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।

बलात्कार के बारे में प्रावधान

                               बलात्कार  के बारे में

         बलात्कार महिलाओं के प्रति अत्यन्त घृणित अपराध है । इसके बारे में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 375, 376, 376ए से 376 डी एवं 228 ए में प्रावधान है। धारा 354 भा.दं.सं. में शील भंग के बारे में और धारा 377 भा.दं.सं. में अप्राकृतिक कृत्यों के बारे में प्रावधान है। धारा 309, 327 एवं 357 दं.प्र.सं.तथा 114 ए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी कुछ प्रावधान है यहा हम इन्हीं अपराधों से जुड़े दिन-प्रतिदिन के कार्य के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति के बारे में चर्चा करेंगे ।

1. बंद कमरे में विचारण या केमरा ट्रायल

         इन मामलों के जांच या विचारण में बंद कमरे में कार्यवाही आज्ञापक हैं अतः प्रत्येक न्यायाधीश को इन मामलों में विचारण के समय या जांच के समय सतर्क रहना चाहिए व कार्यवाही बंद कमरे में या केमरा ट्रायल करना चाहिए और आदेश पत्र में इस बावत उल्लेख भी करना चाहिए। आवश्यक प्रावधान धारा 327 दं.प्र.सं. ध्यान रखे जाने योग्य है जो निम्न प्रकार से हैः-
         धारा 327 (2) दं.प्र.सं. 1973 के तहत धारा 376, 376 ए से 376 डी भा.दं.सं. के अधीन बालत्संग के मामलों में अपराध की जांच या विचारण बंद कमरे में किया जायेगा लेकिन यदि न्यायालय उचित समझता है या दोनों में से किसी पक्षकार द्वारा आवेदन करने पर किसी व्यक्ति को उस कमरे में प्रवेश की अनुमति न्यायालय दे सकता हैं।
         बंद कमरे में विचारण जहां तक संभव हो किसी महिला न्यायाधीश या मजिस्टेªट द्वारा संचालित किया जायेगा।
         धारा 327 (3) दं.प्र.सं. के तहत उक्त कार्यवाही न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना मुद्रित या प्रकाशित करना किसी व्यक्ति के लिए विधि पूर्ण नहीं होगा।
         परंतु मुद्रण या प्रकाशन का प्रतिबंध पक्षकारों के नाम तथा पतों की गोपनीयता को बनाये रखने के शर्त पर समाप्त किया जा सकता हैं।
         न्याय दृष्टांत साक्षी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3566 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 354 एवं 377 भा.दं.सं. में भी बंद कमरे में विचारण किया जाना चाहिए।
         कई बार ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है की न्यायाधीश के पास चेम्बर नहीं होता है ऐसे समय पर न्याय दृष्टांत वरदू राजू विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, 2005 सी.आर.एल.जे. 4180 से मार्गदर्शन लेना चाहिए और न्यायालय के मुख्य हाॅल से संबंधित मामले के पक्षकारों के अलावा अन्य सभी व्यक्तियों को कक्ष से बाहर कर देना चाहिए और आदेश पत्र में इस बारे में उल्लेख कर लेना चाहिए की बंद कमरे में कार्यवाही की गई है।

1ए. विचारण की अवधि

         धारा 309 दं.प्र.सं. के परंतुक के अनुसार इन अपराधों का विचारण साक्षियों के परीक्षण के दिनांक से दो माह के अंदर पूरा किया जाना चाहिए। अतः न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए की इन मामलों में साक्ष्य की तिथियाॅं इस प्रकार लगावे की विचारण दो माह में पूर्ण हो सके। वैसे भी इन मामलों में त्वरित निराकरण अपेक्षित है ताकि समाज में उचित संदेश जावे।

2. न्यायालय को संवेदनशील रहना

         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ पंजाब विरूद्ध रामदेव सिंह (2004) 1 एस.सी.सी. 421 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार अभियोक्त्रि के भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गये मूलभूत अधिकार को भंग करता है । न्यायालय को ऐसे प्रकरण का विचारण करते समय बहुत संवेदनशील रहना चाहिए।

3. अभियोक्त्रि की पहचान का प्रकाशन न हो धारा 228 ए

         इन मामलों में अभियोक्त्रि की पहचान का प्रकाशन न हो इसका ध्यान रखना चाहिए क्योंकि यह दण्डनीय अपराध भी हैं धारा 228 ए में इस बावत प्रावधान है:-
         228ए भा.दं.सं. के अनुसार बलात्संग के पीडि़त व्यक्ति की पहचान के बारे में मुद्रित या प्रकाशित करेगा वह दो वर्ष के कारावास से दण्डित किया जा सकता है ।
         न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ हिमाचल प्रदेश (2003) 8 एस.सी.सी. 551 में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है की उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों में भी परिवादी के नाम का उल्लेख नहीं किया जावे और उसे केवल विक्टिम लिखा जावे ।
         अतः निर्णय में भी अभियोक्त्रि शब्द का उल्लेख करना चाहिए उसके नाम का उल्लेख नहीं करना चाहिए।

4. पर्दा या अन्य व्यवस्था

         न्याय दृष्टांत साक्षी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3566 में यह दिशा निर्देश दिये गये है कि पर्दा या अन्य ऐसी व्यवस्था करना चाहिए ताकि अभियोक्त्रि अभियुक्त के चेहरे या शरीर को न देख सके।
5. परीक्षण के बारे में
         उक्त न्याय दृष्टांत साक्षी में यह भी प्रतिपादित किया है कि धटना से सीधे संबंधित प्रश्न जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जाना है वे लिखित में पीठासीन अधिकारी को दिये जाना चाहिए और उनके द्वारा स्पष्ट और असंदिग्ध भाषा में प्रश्न पूछे जाना चाहिए अभियोक्त्रि को जो बाल साक्षी हो उसे परीक्षण के दौरान जब भी आवश्यक हो पर्याप्त विश्राम देने के भी निर्देश हैं इस तरह अभियोक्त्रि के परीक्षण के समय इस न्याय दृष्टांत में दिये गये दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए मूल रूप से तात्पर्य यही है की अभियोक्त्रि को परीक्षण के दौरान अनावश्यक पीड़ा से बचाना है और उसे एक ऐसा माहौल उपलब्ध कराना है जिसमें वह अपनी बात स्पष्ट रूप से और असंदिग्ध रूप से न्यायालय के सामने ला सके।

6. प्रवेशन या पेनीटेªशन के बारे में

         न्याय दृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा (2009) 6 एस.सी.सी 635 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के घटक की तुष्टि के लिए पूर्ण प्रवेशन आवश्यक नहीं है।  इस संबंध में न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ हिमाचल प्रदेश (2003) 9 एस.सी.सी. 551 अवलोकनीय है।
       इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत अमन कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा (2004) 4 एस.सी.सी. 379 भी अवलोकनीय है जिसके अनुसार प्रवेशन बलात्संग के आरोप के लिए अनिवार्य तत्व है ।

7. हाईमन का फटना

         बलात्कार के अभियोग को प्रमाणित करने के लिए हाईमन का फटना आवश्यक नहीं है केवल प्रवेशन या आंशिक प्रवेशन ही प्रर्याप्त होता हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत मदन गोपाल विरूद्ध नवल दुबे, (1992) 3 एस.सी.सी. 204 अवलोकनीय हैं।   

8. प्रथम सूचना प्रतिवेदन में विलम्ब

         प्रायः इन मामलों में एक तर्क यह किया जाता है कि प्रथम सूचना विलम्ब से दर्ज करवायी गयी है अतः अभियोजन कहानी विश्वसनीय नहीं है । ऐसे मामलों में यह ध्यान रखना चाहिए कि एक लड़की या महिला जिसके साथ बलात्कार का अपराध होता है वह किसी को भी घटना बतलाने में अनिच्छुक रहती है । यहाॅं तक कि अपने परिवार के सदस्यों को भी घटना बतलाने में अनिच्छुक रहती है । साथ ही परिवार की प्रतिष्ठा का भी प्रश्न जुड़ा रहता है । अतः इन मामलों में प्रथम सूचना में विलम्ब अस्वाभाविक नहीं है । न्यायालय को विलम्ब के स्पष्टीकरण पर विचार करना चाहिए और विलंब को उक्त परिस्थितियों को मस्तिष्क में रखते हुये विचार में लेना चाहिए।
         न्याय दृष्टांत ओम प्रकाश विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2682 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम सूचना दर्ज करवाने में कुछ विलम्ब हुआ है और उसका स्पष्टीकरण भी दिया गया है । एक जवान लड़की जिसके साथ बलात्कार होता है वह घटना का विवरण किसी को भी यहाॅं तक की परिवार के सदस्यों को बतलाने में अनिच्छुक रहती है । और जैसे ही उसके द्वारा घटना का विवरण बतलाया जाता है उसके बाद प्रथम सूचना दर्ज करवायी जाती है । एक बार विलम्ब का संतोषजनक स्पष्टीकरण दे दिया जाता है । तब मात्र प्रथम सूचना दर्ज कराने में विलम्ब अभियोजन के मामले घातक नहीं होता है ।
         न्याय दृष्टांत सोहन सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, (2010) 1 एस.सी.सी. 68 में यह प्रतिपादित किया गया है किसी हिन्दू महिला द्वारा बलात्कार के अपराध की प्रथम सूचना दर्ज करवाना हो तब कई प्रश्न विचार के लिए उत्पन्न होते हैं । उसके बाद प्रथम सूचना दर्ज करवाने का निश्चय किया जाता है । अभियोक्त्रि जिस पर ऐसा अपराध किया गया हो उसकी दशा का मूल्यांकन करना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत संतोष मूल्या विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2010) 5 एस.सी.सी. 445 अवलोकनीय है । जिसमें 42 दिन के प्रथम सूचना दर्ज करवाने के विलम्ब के स्पष्टीकरण पर विचार करते हुए उसे संतोषजनक माना गया ।
         न्याय दृष्टांत सतपाल सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के मामले में प्रथम सूचना में विलम्ब होना एक सामान्य बात है क्योंकि सामान्यतः अभियोक्त्रि का परिवार यह नहीं चाहता कि अभियोक्त्रि पर कोई लांछन लगे । अतः इन मामलों में प्रथम सूचना के विलम्ब को भिन्न मानदंड में लेना चाहिए ।
         प्रथम सूचना लिखने में विलम्ब पुलिस के असहयोग के कारण हुआ । मामले में अभियोक्त्रि और उसकी माता की स्पष्ट और अकाटय साक्ष्य अभिलेख पर थी । विलम्ब अभियोजन के मामले पर संदेह कारित नहीं करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत जसवंत सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, ए.आई.आर. (2010) एस.सी. 894 अवलोकनीय है ।
         न्याय दृष्टांत नंदा विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2311 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम सूचना पिता के घर लौटने पर की गयी क्योंकि परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न और अभियोक्त्रि का भविष्य दांव पर था । ऐसे में विलम्ब का स्पष्टीकरण पर्याप्त है। और विलम्ब तात्विक नहीं है ।
         न्याय दृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, (2009) 6 एस.सी.सी 635 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह न्यायालय इस बात का ज्यूडीशियल नोटिस ले सकता है कि  अभियोक्त्रि़ का परिवार यह नहीं चाहेगा कि अभियोक्त्रि पर कोई स्टिगमा या दाग लग जाये और ऐसे में प्रथम सूचना में विलम्ब एक सामान्य तथ्य होता है ।
9. धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. के बारे मे
         गैंग रेप के मामले में अभियोजन के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि वह प्रत्येक अभियुक्त के सम्पूर्ण बलात्संग के बारे में साक्ष्य देवें । यह प्रावधान संयुक्त दायित्व के सिद्धांत पर आधारित हैं केवल सामान्य आशय होना चाहिए । अभियुक्त के आचरण से जो घटना के समय रहा है  सामान्य आशय देखा जा सकता है । इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत उक्त ओम प्रकाश विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2682 अवलोकनीय है। इस मामले में न्याय दृष्टांत प्रदीप कुमार विरूद्ध यूनियन एडमिनिस्टेªशन छत्तीसगढ़, ए.आई.आर. 2006   एस.सी. 2992 एवं अशोक कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 777 एवं भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ हिमाचल प्रदेश, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 4684, प्रिया पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 2639 को विचार में लेते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि गैंग रेप के मामले में अभियोजन को कौन से तत्व प्रमाणित करना होते हैं जो इस प्रकार हैं:-
ष्10ण् ज्व इतपदह जीम वििमदबम व ितंचम ूपजीपद जीम चनतअपमू व िैमबजपवद 376;2द्ध;हद्ध प्च्ब्ए तमंक ूपजी म्गचसंदंजपवद 1 जव जीपे ेमबजपवदए पज पे दमबमेेंतल वित जीम चतवेमबनजपवद जव चतवअमरू

;पद्ध     जींज उवतम जींद वदम चमतेवद ींक ंबजमक पद बवदबमतज ूपजी जीम बवउउवद पदजमदजपवद जव बवउउपज तंचम वद जीम अपबजपउय

;पपद्ध     जींज उवतम जींद वदम ंबबनेमक ींक ंबजमक पद बवदबमतज पद बवउउपेेपवद व िबतपउम व ितंचम ूपजी चतम.ंततंदहमक चसंदए चतपवत उममजपदह व िउपदक ंदक ूपजी मसमउमदज व िचंतजपबपचंजपवद पद ंबजपवदण् ब्वउउवद पदजमदजपवद ूवनसक इम ंबजपवद पद बवदबमतज पद चतम.ंततंदहमक चसंद वत ं चसंद वितउमक ेनककमदसल ंज जीम जपउम व िबवउउपेेपवद व िवििमदबम ूीपबी पे तमसिमबजमक इल जीम मसमउमदज व िचंतजपबपचंजपवद पद ंबजपवद वत इल जीम चतवव िव िजीम ंिबज व िपदंबजपवद ूीमद जीम ंबजपवद ूवनसक इम दमबमेेंतलण् ज्ीम चतवेमबनजपवद ूवनसक इम तमुनपतमक जव चतवअम चतम.उममजपदह व िउपदके व िजीम ंबबनेमक चमतेवदे चतपवत जव बवउउपेेपवद व िवििमदबम व ितंचम इल ेनइेजंदजपंस मअपकमदबम वत इल बपतबनउेजंदजपंस मअपकमदबमय ंदक

;पपपद्ध     जींज पद नितजीमतंदबम व िेनबी बवउउवद पदजमदजपवद वदम वत उवतम चमतेवदे व िजीम हतवनच ंबजनंससल बवउउपजजमक वििमदबम व ितंचम वद अपबजपउ वत अपबजपउेण् च्तवेमबनजपवद पे दवज तमुनपतमक जव चतवअम ंबजनंस बवउउपेेपवद व ितंचम इल मंबी ंदक मअमतल ंबबनेमक वितउपदह हतवनचण्

11ण् व्द चतवव िव िबवउउवद पदजमदजपवद व िजीम हतवनच व िचमतेवदे ूीपबी ूवनसक इम व िउवतम जींद वदमए जव बवउउपज जीम वििमदबम व ितंचमए ंबजनंस ंबज व ितंचम इल मअमद वदम पदकपअपकनंस वितउपदह हतवनचए ूवनसक ंिेजमद जीम हनपसज वद वजीमत उमउइमते व िजीम हतवनचए ंसजीवनही ीम वत जीमल ींअम दवज बवउउपजजमक तंचम वद जीम अपबजपउ वत अपबजपउेण्

12ण् प्ज पे ेमजजसमक संू जींज जीम बवउउवद पदजमदजपवद वत जीम पदजमदजपवद व िजीम पदकपअपकनंस बवदबमतदमक पद नितजीमतंदबम व िजीम बवउउवद पदजमदजपवद बवनसक इम चतवअमक मपजीमत तिवउ कपतमबज मअपकमदबम वत इल पदमितमदबम तिवउ जीम ंबजे वत ंजजमदकपदह बपतबनउेजंदबमे व िजीम बंेम ंदक बवदकनबज व िजीम चंतजपमेण् क्पतमबज चतवव िव िबवउउवद पदजमदजपवद पे ेमसकवउ ंअंपसंइसम ंदकए जीमतमवितमए ेनबी पदजमदजपवद बंद वदसल इम पदमिततमक तिवउ जीम बपतबनउेजंदबमे ंचचमंतपदह तिवउ जीम चतवअमक ंिबजे व िजीम बंेम ंदक जीम चतवअमक बपतबनउेजंदबमेण्ष्

         न्याय दृष्टांत हनुमान प्रसाद विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (2009) 1 एस.सी.सी. 507 गैंगरेप के मामले में सामान्य आशय के बारे में अवलोकनीय है ।
         यदि आरोपी पर धारा 376 भा.दं.सं. का आरोप विरचित किया गया हो और उसका अन्य अभियुक्त के साथ सामान्य आशय प्रमाणित होता है तो उसे धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. में दोषसिद्ध किया जा सकता है। यदि इससे कोई प्रीजूडिस न होता हो । इस संबंध में न्याय दृष्टांत विश्वनाथन विरूद्ध स्टेट, (2008) 5 एस.सी.सी. 354 अवलोकनीय है ।
धारा 114 ए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के बारे में
         धारा 376 की उपधारा 2 के खण्ड ए से जी के मामले में बलात्संग के लिए किसी अभियोजन में जहां अभियुक्त द्वारा मैथून करना साबित हो जाता है और प्रश्न यह है की क्या वह उस स्त्री की सहमति के बिना किया गया है जिससे बलात्संग किया जाना अभिकथित है, और वह स्त्री न्यायालय के समक्ष साक्ष्य में यह कथन करती है की उसने सहमति नहीं दी थी वहां न्यायालय यह उपधारित करेगा की उसने सहमति नहीं दी थी।
         इस तरह धारा 114 ए एक संशोधित प्रावधान है जिसमें न्यायालय को अभियोक्त्रि के सहमति के अभाव में की उपधारणा करना अज्ञापक है यदि उसने सहमति नहीं देने का कथन किया है।

10. गैंग रेप में महिला आरोपी

         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध हेमराज, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 2644 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. का स्पष्टीकरण किसी महिला को बलात्कार करने के आरोप में दोषी होने के लिए लागू नहीं किया जा सकता । क्योंकि बलात्कार में किसी महिला का आशय हो यह नहीं माना जा सकता ।
         न्याय दृष्टांत प्रिया पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2006) 6 एस.सी.सी. 263 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गैंग रेप के लिए किसी महिला को अभियोजित या प्रोसीक्यूट नहीं किया जा सकता ।
         लेकिन यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए की ऐसे मामलों में यदि महिला आरोपी हो तो उन पर अपराध के दुष्प्रेरण का आरोप धारा 109 भा.दं.सं. की मदद से लगाया जाना चाहिए साथ ही धारा 120 बी भा.दं.सं. की सहायता से भी वैकल्पिक आरोप लगाये जा सकते है अतः आरोप विरचित करते समय इस बारे में सावधान रहना चाहिए और प्रारंभ से ही यदि उचित आरोप विरचित कर दिये जाते है तब निर्णय के समय या साक्ष्य के समय कठिनाई नहीं होती है और आवश्यक साक्ष्य भी अभिलेख पर आ सकती है और निर्णय के समय भी कठिनाई नहीं आती हैं।

11. अभियोक्त्रि की उम्र के बारे में

         इन मामलों में अभियोक्त्रि की उम्र का प्रश्न महत्वपूर्ण होता है क्योंकि 18 वर्ष के कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति से या सहमति के बिना यदि मैथुन किया जाता है तो बलात्संग की कोटि मंें आता है ।
         उम्र के मामले में माता-पिता की साक्ष्य जन्म प्रमाण पत्र स्कूल का अभिलेख और मेडिकल परीक्षण अभिलेख पर आते हैं ।
         मेडिकल परीक्षण के बारे में यह धारणा है कि डाॅक्टर द्वारा निर्धारित उम्र में दो वर्ष जोड़कर अभियोक्त्रि की उम्र मानी जा सकती है । जो उचित नहीं है क्योंकि न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध छोटे लाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा कोई निरपेक्ष नियम नहीं है कि डाॅक्टर द्वारा निर्धारित उम्र में दो वर्ष जोड़े जावें । मामले में न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ कर्नाटक विरूद्ध बंतरा सुधाकरा उर्फ सुधा, (2008) 11 एस.सी.सी. 38 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ पर विश्वास करते हुए उक्त विधि प्रतिपादित की गयी है ।
         न्याय दृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र के निर्धारण में स्कूल के रजिस्टर में जन्म दिनांक की प्रविष्टि साक्ष्य ग्राहय होती है । क्योंकि यह प्रविष्टि पदीय कत्र्तव्यों के निर्वहन के दौरान की जाती है । जो धारा 35 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत ग्राह्य होती है । लेकिन यह प्रविष्टि किसकी सूचना पर की गयी और सूचना का सोर्स क्या था । ये तथ्य सूचना के अधिकृत होने के बारे में महत्वपूर्ण होते हैं । 
         न्याय दृष्टांत उक्त नंदा विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 3211 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र में डाॅक्टर की राय में मार्जिन आॅफ इरर छः माह माना जा सकता है
         न्याय दृष्टांत विष्णु विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, (2006) 1 एस.सी.सी. 283 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र के निर्धारण में मौखिक साक्ष्य पर वैज्ञानिक परीक्षण जैसे आसीफिकेशन टेस्ट की साक्ष्य बंधनकारक नहीं होती है। अभियोक्ति माता-पिता की साक्ष्य उसकी जन्म तिथि के निर्धारण में श्रेष्ठ साक्ष्य होती है ।
         न्याय दृष्टांत उमेश चन्द्र विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 1982 एस.सी. 1057 में यह प्रतिपादित किया गया है कि माता और पिता की साक्ष्य और जन्म प्रमाण पत्र उम्र के निर्धारण में श्रेष्ठ साक्ष्य होती है और जब यह साक्ष्य उपलब्ध न हो तब स्कूल की रजिस्टर की प्रविष्टि देखना चाहिए और वह प्रविष्टि किस सामग्री और किसकी सूचना के आधार पर की गई यह भी देखना चाहिए।
         न्याय दृष्टांत सिद्देश्वर गंगूली विरूद्ध स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 143 के अनुसार जन्म प्रमाण पत्र निश्चिायक साक्ष्य होता है लेकिन उसके उपलब्ध न होने पर न्यायालय को भौतिक लक्षण मौखिक साक्ष्य के आधार पर निष्कर्ष निकालने होते हैं केवल रेडियो लाॅजिकल टेस्ट के आधार पर कोई अंतिम मत नहीं बनाना चाहिए।
         न्याय दृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र दांतों के परीक्षण लंबाई, वजन, सामान्य अपीलेंस, आसीफिकेशन, टेस्ट, जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल रजिस्टर आदि से निर्धारित की जा सकती है।

12. अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें न होना

         इन मामलों में एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर या उसके निजी अंगों या प्राइवेट पार्टस पर चोटें नहीं हैं लेकिन वैधानिक स्थिति यह है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर या उसके निजी अंगों पर चोटें न होना उसके कथनों पर अविश्वास करने का पर्याप्त आधार नहीं है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत उक्त स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011  एस.सी. 697 अवलोकनीय है ।
         न्याय दृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट आॅफ एच.पी., ए.आई.आर. 2009  एस.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें न होने से यह अनुमान नहंीं निकाला जा सकता कि वह सहमत पक्षकार थी ।
         न्याय दृष्टांत उक्त विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें या हिंसा के चिन्ह न होना कोई प्रभाव नहीं रखता है जहाॅं अभियोक्त्रि अवयस्क हों ।  
         न्याय दृष्टांत दस्त गिर साब विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2004) 3 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के निजी अंगों पर चोटें होना बलात्कार के आरोपों को प्रमाणित करने के लिए अनिवार्य तथ्य नहीं है ।
         न्याय दृष्टांत सोहन सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, (2010) 1 एस.सी.सी. 688 उक्त में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं अभियोक्त्रि विवाहित महिला हो वहाॅं यह आवश्यक नहीं है कि उसके शरीर पर कुछ बाहरी या भीतरी चोटंे पायी जावें । अभियोक्त्रि के कथन विश्वास किये जाने योग्य हैं।

13. अभियोक्त्रि के कथनों की पुष्टि आवश्यक नहीं होती है

         इन मामलों में न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए की जब तक बाध्यताकारी परिस्थितियाॅं न हो एक मात्र अभियोक्त्रि के कथनों पर यदि वे विश्वसनीय पाये जाते हैं तो दोषसिद्धि स्थिर की जा सकती हैं अभियुक्त पूर्व सावधानी और परिस्थितियों को देखकर ऐसे अपराध करता है इसे भी ध्यान में रखना चाहिए और पुष्टि पर ज्यादा बल नहीं देना चाहिए।
         यदि अभियोक्त्रि के कथन अपने आप में विश्वास योग्य पाये जाते हैं तो वह पर्याप्त होते हैं तो उसकी साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक नहीं होती है । इस संबंध में उक्त न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 अवलोकनीय है ।
         उक्त न्याय दृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट आॅफ एच.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्येक मामले में अभियोक्त्रि के कथनों की पुष्टि आवश्यक नहीं होती हैं जहाॅं उच्च स्तर की असंभावना का प्रकरण हो केवल वहीं पुष्टि आवश्यक होती है ।
         यदि अभियोक्त्रि के एक मात्र कथन विश्वास योग्य हो तो पुष्टि की कोई आवश्यकता नहीं है। न्यायालय उसके एक मात्र कथन पर दोषसिद्धी कर सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत उक्त विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत श्रीनारायण शाह विरूद्ध स्टेट आॅफ त्रिपुरा (2004) 7 एस.सी.सी. 775 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की साक्ष्य आहत साक्षी के साक्ष्य के समान होती है और विधि में ऐसा कोई भी नियम नहीं है उसकी पुष्टि केे अभाव में विश्वसनीय नहीं होती है ।
         न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ हिमाचल प्रदेश, (2003) 8 एस.सी. सी. 551 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के कथनों की पुष्टि पर बल नहीं देना चाहिए ।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ पंजाब विरूद्ध गुरमीत सिंह, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1393 में यह प्रतिपादित किया है कि अभियोक्त्रि की साक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण होती है और जब तक बाध्यताकारी कारण न हो तब तक उसके कथनों की पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती हैं।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ केरला विरूद्ध कुरीसुम मोटिल एन्थोनी (2007) 1    एस.सी.सी. 627 में यह प्रतिपादित किया गया है कि लैंगिक हमले के अपराधों में जिनमें धारा 377    भा.दं.सं. भी शामिल है उनमें पुष्टि की आवश्यकता न होने का नियम लागू होता है।
         इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहां की अभियुक्त पुष्टि के पुराने सूत्र का लाभ नहीं ले सकता यदि पूरा मामला देखने पर एक न्यायिक मस्तिष्क को अभियोजन का मामला संभाव्य लगता है तब मानवाधिकार के प्रति न्यायिक जवाबदेही को विधिक बाजीगरी से कुंठित नहीं होने देना चाहिए।
         ऐसा ही मत न्याय दृष्टांत रफीक विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (1980) 4 एस.सी.सी. 262 में भी लिया गया।
         न्याय दृष्टांत भरवाड़ा भोगीन भाई हिरजी भाई विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात,    ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में यह अभिमत दिया गया कि भारतीय परिवेश में यदि लैंगिक हमले की अभियोक्त्रि के कथनों पर पुष्टि के अभाव में विश्वास न करना एक नियम की तरह लिया गया तो यह आहत का अपमान होगा एक लड़की या महिला भारतीय परंपराओं से बंधे हुए समाज में अपने साथ ऐसी घटना होना स्वीकार करने में या किसी को बताने में बहुत अनिच्छुक रहती है क्योंकि ऐसी घटनाएॅं उसके सम्मान को प्रभावित करती है इन सब बातों को सामने आने का प्रभाव जानते हुये भी कोई लड़की या महिला अपराध को सामने लाती है तो यह उसके मामले के जेन्यूइन होने की इनबिल्ड गारंटी होती है।
         इस संबंध में न्याय दृष्टांत रामेश्वर विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 54, स्टेट आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध चंद्रप्रकाश केवल चंद जैन, (1990) 1    एस.सी.सी. 550 भी अवलोकनीय हैं।

14.  इच्छा  और सहमति के विरूद्ध

         न्याय दृष्टांत उक्त स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 में यह प्रतिपादित किया गया है कि उसकी इच्छा के विरूद्ध से तात्पर्य है कि महिला द्वारा प्रतिरोध करने पर या विरोध करने पर भी पुरूष ने उसके सहवास किया है जबकि उसकी सहमति के विरूद्ध में कृत्य जानबूझकर किया जाना शामिल है। इस न्याय दृष्टांत में इन दोनों शब्दों को स्पष्ट किया गया है ।

15. साक्ष्य के मूल्यांकन के बारे में

         न्याय दृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट आॅफ एच.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के प्रतिपरीक्षण में यह तथ्य आया कि अभियुक्त ने उसके द्वारा बतलाये स्थान पर जाने से इंकार करने पर उसे धमकी दी । यह तथ्य प्रथम सूचना और पुलिस कथन अंकित नहीं था । मात्र इस आधार पर अभियोक्त्रि के कथन पर अविश्वास करना उचित नहीं माना गया ।
         अभियोक्त्रि की स्थिति आहत साक्षी से भी उच्च स्तर की होती है न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ पंजाब विरूद्ध रामदेव सिंह, (2004) 1 एस.सी.सी. 421 अवलोकनीय हैं।  
         न्याय दृष्टांत प्रेम प्रकाश विरूद्ध स्टेट आॅंफ हरियाणा, ए.आई. आर. 2011 एस.सी. 2677 में यह प्रतिपादित किया गया है कि साक्षी का कथन पूरा पढ़ा जाना चाहिए । केवल कथनों की कुछ पंक्तियों पर पूरे संदर्भ को देखे बिना विश्वास करना और उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना एक साक्ष्य का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन है। साथ ही ऐसे ही विरोधाभास जो अभियोक्त्रि के कथनों को अविश्वसनीय न बनाते हों वे तात्विक नहीं होते हैं ।
         इसी मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं डाॅक्टर ऐसी राय दें कि अभियोक्त्रि संभोग की अभ्यस्थ है तब उस राय को मामले की पूूरे परिस्थितियों में देखना चाहिए । इस मामले में अभियोक्त्रि का परीक्षण घटना के दो दिन बाद हुआ था और डाॅक्टर ने उसके साथ संभोग की संभावना से इंकार नहीं किया था इन परिस्थितियों में मेडिकल राय देखी जाना चाहिए ।
         न्याय दृष्टांत संतोष मूल्या विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2010) 5 एस.सी.सी. 445 उक्त में भी यह प्रतिपादित किया गया है अभियोक्त्रि को एक माह चैदह दिन बाद मेडिकल परीक्षण के लिए ले जाया गया । इतने दिन बाद अपराध के कोई चिन्ह मिलना स्वाभाविक नहीं है ।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ यू.पी. विरूद्ध पप्पू, (2005) 3 एस.सी.सी. 594 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि संभोग की अभ्यस्थ है यह निर्धारक प्रश्न नहीं हो सकता। अभियोक्त्रि की साक्ष्य का स्तर घटना के आहत साक्षी से भी ऊंचा होता है ।
         न्याय दृष्टांत रामविलास विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2004 (2) एम.पी.एल.जे 177 में यह प्रतिपादित किया गया कि रास्ते से गुजरने वाले अनजान व्यक्तियों को घटना नहीं बतायी मात्र इस आधार पर उसके कथन अविश्वसनीय नहीं माने जा सकते ।
         न्याय दृष्टांत राधू विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2007 सी.आर.एल.जे. 4704 में  माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि अभियोक्त्रि के कथन छोटी कमियों और विरोधाभास के कारण खारिज नहीं करना चाहिए । परिवादी के शरीर पर चोटें न होना सहमति या केस के असत्य होने का साक्ष्य नहीं है । केवल डाॅक्टर की राय की संभोग के कोई चिन्ह नहीं पाये गये । अभियोजन को अविश्वसनीय मानने के लिए पर्याप्त नहीं है । लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बलात्संग के असत्य आरोप अनकामन नहीं है । 

16. परिस्थिति जन्य  साक्ष्य के मामले में

         न्याय दृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं गवाह ग्रामीण अशिक्षित हो और समय के बारे में ज्यादा ज्ञान न रखते हों वहाॅं उनसे घटना के हर विवरण और पूरी श्रृंखला की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। छोटे विरोधाभास जो अन्य बातों के बारे में हों उन पर अधिक बल नहीं देना चाहिए ।
         जहाॅं अभियुक्त ने परिस्थिति जन्य साक्ष्य के मामले में असत्य बचाव लिया हो तो इसे परिस्थिति की एक ओर श्रृंखला उसके विरूद्ध मानी जा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत संतोष कुमार विरूद्ध स्टेट, (2010) 9 एस.सी.सी. 747 उक्त अवलोकनीय है ।

17. पहचान परेड के बारे में

         कई बार यह बचाव लिया जाता है कि अभियोजन ने पहचान परेड आयोजित नहीं की । ऐसे अवसर पर यह ध्यान रखना चाहिए । कि अभियोक्त्रि अभियुक्त के साथ लम्बे समय तक रहती है और उसे अभियुक्त को देखने और पहचानने का पर्याप्त अवसर रहता है । अतः ऐसे मामले में इन तथ्यों पर विचार करते हुए पहचान परेड न करवाना के प्रभाव पर विचार करना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुभाष विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2366 अवलोकनीय है।  
         उक्त न्याय दृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पहचान परेड की साक्ष्य तात्विक साक्ष्य नहीं है । यह केवल प्रज्ञा का नियम है और वहाॅं आवश्यक होती है। जहाॅं गवाह या परिवादी अभियुक्त को नहीं जानते हों ।
         न्याय दृष्टांत दस्त गिर साब विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, (2004) 3 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पहचान परेड एक पुष्टिकारक साक्ष्य है और ऐसा कोई नियम नहीं है कि पहचान परेड न करवाना अभियोजन के मामले को अप्रमाणित कर देता है। मामले में पहचान परेड कब आवश्यक नहीं है इस पर भी प्रकाश डाला गया है ।

18. मेडिकल रिपोर्ट प्रमाणीकरण

         उक्त न्याय दृष्टांत सुभाष विरूद्ध स्टेट आॅंफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 3226 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जिस डाॅक्टर ने मेडिकल रिपोर्ट दी हो वह उपलब्ध न हो तब अस्पताल के किसी अन्य कर्मचारी जैसे वार्ड ब्वाय, नर्स जो डाॅक्टर के हस्ताक्षर पहचानता हो उनका साक्ष्य लेकर भी मेडिकल रिपोर्ट प्रमाणित करवायी जा सकती है। क्योंकि डाक्टर ने ऐसी रिपोर्ट अपने पदीय कत्र्तव्यों के निर्वहन के दौरान दी होती है जिसे धारा 32 (2) एवं 67 साक्ष्य अधिनियम के तहत उक्त अनुसार प्रमाणित करवाकर विचार में लिया जा सकता है। यहाॅं तक कि न्यायालय स्वयं धारा 311 दं.प्र.सं. के तहत ऐसी मेडिकल रिपोर्ट के लिए अन्य डाॅक्टर को साक्ष्य में बुला सकते हैं । 
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध दयाल साहू, 2005 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4839 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि का परीक्षण जिस डाॅक्टर ने किया उसका कथन नहीं करवाया गया डाॅक्टर की रिपोर्ट पेश नहीं की गई यदि अभियोक्त्रि की साक्ष्य और अन्य साक्ष्य विश्वसनीय है तो मात्र डाॅक्टर का परीक्षण न करवाना अभियोजन के घातक नहीं हैं।
         इस प्रकार जहां डाॅक्टर का कथन किन्हीं कारणों से नहीं करवाया जा सका है और अन्य साक्ष्य विश्वसनीय है तब डाॅक्टर का कथन न करवाने के कारण अभियुक्त को कोई लाभ नहीं मिलेगा।   

19. अभियोक्त्रि की सहमति के बारे में

         उक्त न्याय दृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं परिवादी असहाय हों वहाॅं यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी सहमति थी । धमकी भी बल प्रयोग के समान है । अतः परिवादी की सहमति के तथ्य पर विचार करते समय इस बिंदू पर ध्यान रखना चाहिए ।
         न्याय दृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं अभियोक्त्रि ने यह कथन किया कि उसे बलपूर्वक पकड़ा और चाकू की नोक पर धमकी देकर उसके साथ गैंग रेप किया गया । ऐसे में धारा 114-ए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यह उपधारणा की जा सकती है कि उसकी सहमति नहीं थी ।
         न्याय दृष्टांत कैप्टन सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2715 में कन्सेन्ट और सबमीशन में अंतर को स्पष्ट किया गया है और यह बतलाया गया है कि प्रत्येक कन्सेन्ट में सबमिशन होता है लेकिन प्रत्येक सबमिशन कन्सेन्ट नहीं होती है । कन्सेन्ट का तात्पर्य जब एक महिला स्वतंत्रता पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने में सहमत होती है और शारीरिक और नैतिक रूप से स्वतंत्र रूप से समर्पित होती है । तब सहमति मानी जाती है ।
         न्याय दृष्टांत तुलसीदास विरूद्ध स्टेट आफ गोवा, (2003) 8 एस.सी.सी. 590 में भी कन्सेन्ट और सबमीशन के अंतर को ही स्पष्ट किया गया है ।
         जहाॅं अभियोक्त्रि अशिक्षित अनुसूचित जनजाति की कमजोर मस्तिष्क की लड़की हो और सहमति देने में भी सक्षम न हो । ऐसे में उसका सहवास में विरोध न करना स्वतंत्र सहमति नहीं माना गया । न्याय दृष्टांत दरबारी सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (1) एम.पी.एल.जे. 508 अवलोकनीय है ।

20. अभियोक्त्रि का परीक्षण न होना

         अभियोक्त्रि की मृत्यु के कारण उसका परीक्षण न हो सका लेकिन यह अभियुक्त के दोषमुक्ति का आधार नहीं हो सकता । यदि अभिलेख पर अपराध प्रमाणित करने के लिए अन्य साक्ष्य उपलब्ध हो तब अभियोक्त्रि के कथनों के अभाव में भी दोषसिद्ध की जा सकती है । इस संबंध में न्याय दृष्टातं भोलाप्रसाद रैदास विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2433 अवलोकनीय है । जिसमें न्यायदृष्टांत स्टेट आफ कर्नाटक विरूद्ध महाबलेश्वर जी नायक,      ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 2043 पर विश्वास करते हुए उक्त विधि प्रतिपादित की है ।

21. शपथ पत्र के बारे में

         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध बबलू नट, (2009) 2 एस.सी.सी. 272 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा शपथ पत्र जिसके तथ्यों की अभियोक़्ित्र को जानकारी न हो और अभियुक्त ने उसमें अभियोक्त्रि की उम्र 18 वर्ष लिखवायी हो और उसका पत्नी के रूप में साथ रहना लिखवाया हो । वह अपने आप में अभियोक्त्रि की मानसिक पीड़ा देखने के लिए पर्याप्त है । और ऐसे शपथ पत्र का दण्ड के प्रश्न पर कोई महत्व नहीं है ।

22. अभियोक्त्रि के शब्दों के बारे में

         जहाॅं अभियोक्त्रि एक विवाहित महिला थी और उसके कथनों में अभियुक्त के कृत्य को ‘‘फोन्डलिंग‘‘ बतलाया इसे शील भंग करना माना गया । बलात्कार नहीं माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रेमिया उर्फ प्रेम प्रकाश विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (2008) 10 एस.सी.सी. 81 अवलोकनीय है ।
         न्याय दृष्टांत अनु उर्फ अनूप कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2435 में यह प्रतिपादित किया गया है कि शब्द ‘मेरे साथ उसने गलत काम किया‘ इन शब्दों को अन्य परिस्थितियों के साथ देखें तो यह स्पष्ट है कि अभियोक्त्रि यह कहना चाहती थी कि अभियुक्त ने उसके साथ बलात्कार किया । अतः परिवादी द्वारा कहे गये शब्द समग्र परिस्थिति में देखना चाहिए ।

23. न्याय दृष्टांतों का मूल्य

         न्याय दृष्टांत लालीराम विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., (2008) 10 एस.सी.सी. 69 में यह प्रतिपादित किया गया है कि दाण्डिक विचारण में साक्ष्य मूल्यांकन में न्याय दृष्टांत लागू नहीं होते  हैं बल्कि तथ्यों के आधार पर निराकरण होता है ।

24. बाल साक्षी के बारे में

         जहाॅं अभियोक्त्रि बाल साक्षी हो वहाॅं उसकी साक्ष्य मात्र इस कारण अस्वीकार नहीं करना चाहिए बल्कि सावधानी पूर्वक उसके कथनों पर विचार करना चाहिए बाल साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती है । अतः न्यायालय को उसकी साक्ष्य के मूल्यांकन के समय यह देखना चाहिए की साक्षी ने जो साक्ष्य दी है वो स्वेच्छा से या बिना किसी प्रभाव के दी है या नहीं । इस सबंध में न्याय दृष्टांत मोहम्मद कलाम विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, (2008) 7 एस.सी.सी. 257 अवलोकनीय है ।

25. शादी का वादा

         न्याय दृष्टांत प्रदीप कुमार वर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, 2007 सी.आर.एल.जे. 433 एस.सी.सी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियुक्त द्वारा परिवादी की सहमति प्राप्त करने के लिए उसे यह दुव्र्यपदेशन जानते हुए किया कि वह परिवादी से विवाह नहीं करेगा और विवाह का प्रस्ताव किया । ऐसी सहमति दूषित होती है और वह कृत्य धारा 375 भा.दं.सं. की परिधि में आता है।
         न्याय दृष्टांत उदय विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1639 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं अभियुक्त अभियोक्त्रि की सहमति संभोग करने में उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखकर प्राप्त करता है और अगले दिन उससे विवाह नहीं करता है तो यह भारतीय दण्ड संहिता के तहत बलात्संग की कोटि में नहीं आता है। न्याय दृष्टांत अब्दुल सलाम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2006 (3) एम.पी.एच.टी. 121 भी इसी संबध्ंा में अवलोकनीय है ।
         न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र सिंह विरूद्ध यूनियल टेरीटोरी आॅफ चंडीगढ़, (2008) 8 एस.सी.सी. 531 के मामले में अभियुक्त ने स्वयं को अविवाहित बतलाकर अभियोक्त्रि से विवाह किया था बाद में अभियोक्त्रि को पता लगा की आरोपी विवाहित है आरोपी को धारा 375 के चैथे भाग के क्रम में धारा 376 भा.दं.सं. का दोषी पाया गया साथ ही धारा 417 भा.दं.सं. का भी दोषी पाया गया।
         इस प्रकार जहां परिवादी की सहमति विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखकर ली गई हो और बाद में विवाह नहीं किया तो मामला बलात्संग की परिधि में नहीं आयेगा लेकिन ऐसी साक्ष्य हो की प्रस्ताव रखते समय ही आरोपी विवाह नहीं करेगा यह जानते हुये उसने दुव्र्यपदेशन करके परिवादी की सहमति पर्याप्त की हो वहां उक्त न्याय दृष्टांत प्रदीप कुमार से मार्गदर्शन लेना चाहिए साथ ही तीसरी स्थिति उक्त भूपेन्द्र सिंह वाले मामले में बतलायी है जिसे ध्यान में रखना चाहिए ।

26. गर्भवती स्त्री से बलात्कार

         न्याय दृष्टांत महेन्द्र गुरू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (2) एम.पी. डब्ल्यू.एन. 29 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन को यह प्रमाणित करना चाहिए कि अभियुक्त को यह ज्ञान था कि अभियोक्त्रि गर्भवती है फिर भी उसने बलात्कार किया तब मामला धारा 376 (2) (ई) भा.दं.सं. में आयेगा ।

27. प्रवेशन के बिना स्खलन

         न्याय दृष्टांत गोपालू वेंकटराव विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., (2004) 3 एस.सी.सी. 602 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रवेशन के बिना स्खलन बलात्संग का अपराध गठित नहीं करता है । क्योंकि बलात्संग के अपराध के लिए प्रवेशन आवश्यक है स्खलन आवश्यक नहीं है । इसे बलात्संग का प्रयास कहा जा सकता है ।

28. षड़यंत्रकारी के बारे में

         न्याय दृष्टांत मोईजुल्लाह उर्फ पुट्टन विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (2004) 2 एस.सी.सी. 90 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के अपराध के आपराधिक षड़यंत्र के मामले में यह आवश्यक नहीं है एक षड़यंत्रकारी जिस तरीके से कार्य करता है दूसरा षड़यंत्रकारी भी उसी तरीके से कार्य करे । लेकिन दोनों का किसी अवैध कृत्यों को करने के लिए सहमत होना आवश्यक होता है ।

29. झूठा फंसाने का बचाव

         इन मामलों में प्रायः एक बचाव यह लिया जाता है कि अभियुक्त को मामले में असत्य रूप  से फंसाया गया है ।
         इन मामलों में यह उपधारणा लेना चाहिए की आरोप वास्तविक या जैनयून है न कि असत्य जब तक की ऐसे तथ्य न हो की महिला की सहमति या उसका कंप्रोमाईजिंग पोजिशन में होना न दिखता हो इस संबध्ंा में न्याय दृष्टांत भरवाड़ा भोगीन भाई हिरजी भाई विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 753 अवलोकनीय हैं।
         न्याय दृष्टांत उक्त जसवंत सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, ए.आई.आर. 2010  एस.सी. 894 में यह प्रतिपादित किया गया है कि संयुक्त दीवार के विवाद के कारण अभियुक्त को झूठा फंसाने का बचाव लिया गया जो स्वीकार योग्य नहीं पाया गया क्योंकि यह विवाद इतना गंभीर नहीं था की अभियोक्त्रि इसके लिए अपने परिवार की प्रतिष्ठा को दांव पर लगायेगी और अभियुक्त को झूठा  फंसायेगी ।  

30. दण्ड के बारे में

         इन मामलों में दण्ड के प्रश्न पर न्यायालय को सतर्क रहना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए की ये अपराध सामान्य श्रेणी के अपराध नहीं है बल्कि ये अपराध किसी लड़की या महिला को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले अपराध है जिसके चिन्ह वर्षो तक उस लड़की या महिला के मस्तिष्क पर बने रहते है अतः न्यायालय को इन मामलों में अपेक्षाकृत कठोर दण्ड देना चाहिए और कोई दया नहीं दिखाना चाहिए।    
         जहाॅं हत्या और बलात्कार के मामले में मृत्युदण्ड और आजीवन कारावास में चुनाव करना हो और न्यायालय कौन सा दण्ड दे यह तय करने में कठिनाई महसूस कर रहे हों वहाॅं छोटा दण्ड देना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत संतोष कुमार विरूद्ध स्टेट, (2010) 9 एस.सी.सी. 747 अवलोकनीय है ।
         न्याय दृष्टांत महबूब बच्चा विरूद्ध स्टेट, (2011) 7 एस.सी.सी. 45 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभिरक्षा में मृत्यु और महिलाओं के विरूद्ध अपराध में अपेक्षाकृत कठोर दण्ड देना चाहिए । और कोई दया नहीं दिखाना चाहिए । मामले में न्याय दृष्टांत सत्यनारायण तिवारी विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., (2010) एस.सी. 689 एवं सुखदेव सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, (2010) 13 एस.सी.सी. 656 पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि महिलाओं के विरूद्ध अपराध सामान्य अपराध की तरह नहीं होते हैं बल्कि सामाजिक अपराध होते हैं और ये पूरे सामाजिक ताने-बाने को विचलित करते हैं । इसलिए इन मामलों में कठोर दण्ड अपेक्षित है ।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध बबलू नट, (2009) 2 एस.सी.सी. 272 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायपालिका को इस सिद्धांत को मस्तिष्क में रखना चाहिए कि बलात्कार किसी महिला के निजता का उल्लंघन और उस पर हमला है जो महिला के मस्तिष्क पर क्षत चिन्ह या धब्बे छोड़ देता है महिला को न केवल शारीरिक चोट पहुॅंचाता है बल्कि मृत्यु तुल्य  कष्ट भी पहुॅंचाता है। ऐसा अपराध जो समाज की नैतिकता को प्रभावित करता हो उसमें कठोरता से दण्ड के पृष्ठ पर विचार करना चाहिए ।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ कर्नाटक विरूद्ध राजू, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 3225 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यूनतम निर्धारित दण्ड से कम दण्ड इस आधार पर देना कि अभियुक्त अशिक्षित और ग्रामीण है यह विशेष कारण नहीं है । दस वर्ष की लड़की के साथ बलात्कार के मामले में साढ़े तीन साल की सजा अपर्याप्त है । इस मामले में दण्ड के प्रश्नों पर विचार योग्य तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम.पी. विरूद्ध बालू (2005) 1 एस.सी.सी. 108 भी अवलोकनीय है । जिसमें अभियुक्त के ग्रामीणों और अशिक्षित होने के आधार पर सजा कम की गयी थी जिसे उचित नहीं माना गया ।  
         न्याय दृष्टांत सीरिया उर्फ श्रीलाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (2008) 8 एस.सी.सी. 72 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं रक्षक ही भक्षक बन जाये वहाॅं न्यायालय का यह कत्र्तव्य है कि समाज को सुरक्षित देने के लिए ऐसे गंभीर और शाॅकिंग अपराध में उचित दण्ड देवें इस मामले में एक पिता ने अपने पुत्री के साथ बलात्कार किया था।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध मुन्ना चैबे, (2005) 2 एस.सी.सी. 710 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अपराध और दण्ड के बीच उचित अनुपात होना चाहिए और यही लक्ष्य भी होना चाहिए विशेष कारण होने पर न्यूनतम से कम दण्ड दिया जाना चाहिए ।

31. शीलभंग के बारे में

        धारा 354 भा.दं.सं. का अपराध अब अशमनीय है यह अपील के निराकरण के समय ध्यान रखना चाहिए।
         धारा 354 ए भा.दं.सं. सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय अपराध है जिसमें न्यूनतम 1 वर्ष के कारावास और अर्थदण्ड का प्रावधान है जो 10 वर्ष तक हो सकता हैं इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए।
         धारा 377 भा.दं.सं. का अपराध अब सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हैं।

32. प्रतिकर के बारे में

         न्यायालय को धारा 357 एवं 357 ए दं.प्र.सं. के प्रावधान प्रतिकर के निर्धारण के समय ध्यान रखना चाहिए और ऐसा युक्तियुक्त अर्थदण्ड करना चाहिए जिसमें से अभियोक्त्रि को प्रतिकर दिलवाई जा सकती है।

33. प्रयत्न के बारे में

         यदि बलात्कार का अपराध प्रमाणित न होकर बलात्कार के प्रयत्न या अप्राकृतिक कृत्य या शीलभंग के प्रयत्न का अपराध प्रमाणित हो तब अभियुक्त को धारा 511 भा.दं.सं. की सहायता से निर्धारित दण्ड से आधा दण्ड देना चाहिए।
         इस तरह इन मामलों में बंद कमरे में जांच या विचारण करना आज्ञापक है। अभियोक्त्रि का नाम और पहचान का उल्लेख निर्णय में न हो यह सावधानी रखना चाहिए यहां तक की आरोप पत्र और अभियुक्त परीक्षण में भी और साक्ष्य में भी अभियोक्त्रि शब्द नाम के बजाय उल्लेख कर लिया जाये तो उचित रहता हैं। विचारण के समय उक्त आवश्यक सावधानियाॅं और संवेदनशीलता रखना चाहिए। दण्ड के समय यथासंभव कठोर रूख अपनाना चाहिए और विचारण शीध्र पूर्ण हो सके इसके सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए तभी न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति हो सकेगी।