Tuesday 26 January 2021

क्या होते हैं सिविल प्रकृति के वाद SPARSH

 क्या होते हैं सिविल प्रकृति के वाद 

 हम यह जानते हैं कि जहाँ भी और जब भी हमारे अधिकारों का हनन होता है, तो कानून के अंतर्गत उसके सम्बन्ध में हमे उपचार/उपाय भी उपलब्ध कराये गए हैं। हालाँकि हमे उन उपचारों को प्राप्त करने के लिए किस फोरम में जाना है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे किस प्रकार के अधिकार का हनन हुआ है। मौजूदा लेख में हम 'सिविल प्रकृति' के उन मामलों के बारे में बात करेंगे जिनका विचारण सिविल अदालतों द्वारा किया जा सकता है। 

 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 में यह प्रावधान है कि दीवानी अदालतों के पास सभी सिविल स्वभाव/प्रकृति के मामलों के विचारण का अधिकार होगा, हालाँकि इनमे वह मामले शामिल नहीं होंगे जिन मामलों का सिविल अदालत द्वारा संज्ञान लिया जाना स्पष्ट या निहित रूप से वर्जित किया गया है। सिविल प्रकृति के सूट क्या हैं, यह संहिता की धारा 9 के स्पष्टीकरण I और II के द्वारा समझाया गया है। स्पष्टीकरण I के अनुसार, वह वाद जिसमें संपत्ति-सम्बन्धी या पद-सम्बन्धी अधिकार प्रतिवादित है, इस बात के होते हुए भी कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के विनिश्चय या पूर्ण रूप से अवलंबित है, सिविल प्रकृति का वाद है। वहीँ स्पष्टीकरण II यह कहता है कि इस धारा के प्रयोजनों के लिए, यह बात तात्विक नहीं है कि स्पष्टीकरण I में निर्दिष्ट पद के लिए कोई फीस है या नहीं अथवा ऐसा पद किसी विशिष्ट स्थान से जुड़ा है या नहीं।

 इसलिए, धारा 9 के स्पष्टीकरण I से यह स्पष्ट है कि संपत्ति या कार्यालय सम्बंधित अधिकार पर यह तथ्य कोई फर्क नहीं डालेगा कि यह पूरी तरह से धार्मिक संस्कार या समारोह के रूप में प्रश्नों के निर्णय पर निर्भर करता है। स्पष्टीकरण II इसे और भी विस्तृत करता है और कहता है कि यहां तक कि उन कार्यालयों को भी इसमें संलग्न किया जायेगा, जिनके लिए कोई शुल्क सम्मिलित नहीं है। इसलिए, यह शुरू से ही कल्पना की गई थी कि एक सूट, जिसमें संपत्ति या कार्यालय का अधिकार शामिल है, दीवानी प्रकृति का एक सूट होगा। 

 उगमसिंह और मिश्रीमल बनाम केसरीमल एवं अन्य, 1971 (2) एससीआर 836 के मामले में यह आयोजित किया गया था कि पूजा करने का अधिकार, एक सिविल अधिकार है जो एक सिविल सूट का विषय हो सकता है। न्यायालय ने देखा था, "यह स्पष्ट है कि पूजा करने का अधिकार, एक नागरिक अधिकार है, जिसके साथ हस्तक्षेप एक नागरिक प्रकृति का विवाद होगा।" श्री सिन्हा रामानुज जीर एवं अन्य बनाम श्री रंगा रामानुज जीर एवं अन्य (1962) 2 एससीआर 509 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखा था कि प्रथम दृष्टया धार्मिक संस्कारों और समारोहों के सम्बन्ध में सवाल उठाते हुए सूट, दीवानी न्यायालय में बनाए रखने योग्य नहीं होते हैं अर्थता दीवानी अदालतें ऐसे मामलों का विचारण इसलिए नहीं कर सकतीं हैं क्योंकि ऐसे मामले पार्टियों के कानूनी अधिकारों से नहीं निपटते हैं। संहिता की धारा 9 के दोनों स्पष्टीकरण इस बात को स्वीकार भी करते हैं, लेकिन साथ में यह भी कहते हैं कि यदि संपत्ति या किसी कार्यालय पर अधिकार के सम्बन्ध में एक सूट लाया जाता है तो वह दीवानी प्रकृति का एक सूट होगा, इस बात के होते हुए भी कि ऐसा अधिकार, पूरी तरह से धार्मिक संस्कार या समारोह के रूप में एक प्रश्न के निर्णय पर निर्भर हो सकता है। 

 हम इससे दो चीज़ें समझ सकते हैं; (i) एक कार्यालय पर अधिकार के लिए लाया गया एक सूट, एक दीवानी प्रकृति का सूट होगा; और (ii) यह तब भी दीवानी प्रकृति का रहेगा, भले ही उक्त अधिकार पूरी तरह से धार्मिक संस्कार या समारोह के रूप में एक प्रश्न के निर्णय पर निर्भर करता हो।" दीवानी न्यायालय का अधिकार क्षेत्र अदालत के अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) से यह तात्पर्य है कि अदालत द्वारा, मामलों का विचारण करने और सुनवाई करने और उचित निर्णय देने के लिए कानून द्वारा किस हद तक शक्तियां प्रदान की गयी हैं। निहित अधिकार क्षेत्र को उस शक्ति के रूप में वर्णित किया जा सकता है, जिसके बिना न्यायालय, न्याय और अच्छे कारण के साथ कार्य करने में असमर्थ होगा। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9, 1908 भारत में सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के पहलू से संबंधित है। 

*गंगा बाई बनाम विजई कुमार AIR 1974 SC 1126* के मामले के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को दीवानी प्रकृति का एक सूट लाने का एक अंतर्निहित अधिकार है, और जब तक कि एक सूट को कानून द्वारा वर्जित/प्रतिबंधित नहीं किया जाता है, एक व्यक्ति अपनी इच्छा के मुताबिक एक सिविल सूट, दीवानी न्यायालय में विचारण हेतु ला सकता है। यह तर्क कभी नहीं दिया जा सकता है कि एक सूट इसलिए अदालत में नहीं लाया जा सकता है क्यूंकि कानून, मुकदमा/सूट लाने का कोई अधिकार नहीं देता है। एक सूट के दीवानी अद्लात द्वारा विचारण हेतु किसी कानून की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती है और यह पर्याप्त है कि कोई भी क़ानून, उस विशेष सूट के अदालत द्वारा विचारण को रोकता/वर्जित नहीं करता है। धारा 9 के अंतर्गत प्रत्येक शब्द और अभिव्यक्ति, नागरिकों के सिविल/दीवानी अधिकार के प्रवर्तन के लिए अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने के लिए अदालत पर एक दायित्व डालती है। इस धारा के अंतर्गत यह स्पष्ट है कि कोई भी अदालत, एक दीवानी मामले के विचारण से मना नहीं कर सकती यदि वह मामला इस धारा के अंतर्गत दीवानी न्यायालय द्वारा सुना जा सकता है। इस प्रकार, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि दीवानी अदालत के समक्ष 2 तत्त्व मौजूद होने पर उस एक दीवानी मामले के विचारण का अधिकार (और जिम्मेदारी) है: - (1) सूट, सिविल प्रकृति का होना चाहिए। (2) इस तरह के एक सूट का संज्ञान स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित नहीं किया जाना चाहिए। क्या होता है सिविल प्रकृति का सूट? एक सिविल कोर्ट के पास एक सिविल मामले के विचारण का अधिकार-क्षेत्र है यह नहीं, यह तय करने के लिए यह समझना जरुरी है कि वह मामला सिविल प्रकृति का है अथवा नहीं। संहिता में 'सिविल' शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। लेकिन मानक शब्दकोश के अनुसार, यह किसी नागरिक के निजी अधिकारों और उपायों/उपचारों से संबंधित है, जो कि आपराधिक, राजनीतिक आदि से अलग है। शब्द 'प्रकृति' को किसी व्यक्ति या चीज के मूलभूत गुणों, पहचान या चरित्र के रूप में परिभाषित किया गया है। 'सिविल प्रकृति' की अभिव्यक्ति 'सिविल कार्यवाही' की तुलना में व्यापक है। इस प्रकार, एक सूट एक सिविल प्रकृति का होता है, यदि उसमें मुख्य प्रश्न, नागरिक/सिविल/दीवानी अधिकार और प्रवर्तन के निर्धारण से संबंधित होता है। दूसरे शब्दों में, सिविल मामला क्या है, यह प्रश्न सूट की पार्टियों की स्थिति से सम्बंधित नहीं है बल्कि सूट के विषय-वस्तु से सम्बंधित है, और यही बात यह निर्धारित करती है कि एक सूट, सिविल प्रकृति का है या नहीं – मोस्ट. रेव. P.M.A. मेट्रोपोलिटन एवं अन्य बनाम मोरन मार मार्थोमा एवं अन्य 1995 AIR 2001। यह भी स्पष्ट रूप से तय किया गया कानून है कि यदि बताया गया 'कॉज ऑफ़ एक्शन', सिविल प्रकृति के एक मामले का गठन करता है, तो प्लेंट/वादपत्र को अदालत द्वारा तब तक अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वादपत्र के बयानों के मुताबिक किसी भी कानून के अनुसार मामले का सिविल न्यायालय द्वारा विचारण वर्जित न किया गया हो या वादपत्र को आर्डर 7 नियम 11, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में उल्लिखित आधार पर लौटा न दिया गया हो। इस प्रकार संहिता की धारा 9 और आदेश 7 नियम 11 के प्रावधानों को एक साथ पढने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दीवानी न्यायालय में मुकदमा बनाए रखने के लिए, वादपत्र में उस कॉज ऑफ़ एक्शन का खुलासा किया जाना चाहिए जो सिविल प्रकृति की कार्रवाई का कारण बनाता हो, जोकि न तो किसी कानून द्वारा वर्जित होना चाहिए और न ही उसका अदालत द्वारा संज्ञान लिया जाना, या तो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित होना चाहिए। अभिव्यक्ति 'एक सिविल प्रकृति का सूट', एक नागरिक के निजी अधिकारों और दायित्वों को कवर करता है। एक सूट जिसमें मूल प्रश्न, जाति या धर्म से संबंधित है, एक सिविल प्रकृति का सूट नहीं है। लेकिन अगर किसी मुकदमे में मुख्य प्रश्न, एक सिविल प्रकृति (संपत्ति का अधिकार या किसी कार्यालय का) का हो, भले ही उसमे एक जातिगत प्रश्न या धार्मिक अधिकारों और समारोहों से संबंधित अधिकार जुड़ा हुआ है, तो यह एक सिविल प्रकृति का सूट माना जायेगा और ऐसे मामले में एक सिविल अदालत के अधिकार क्षेत्र को वर्जित/प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। अदालत के पास यह अधिकार है कि वह उन सम्बंधित सवालों पर भी फैसला करे, जो प्रमुख प्रश्न (जोकि सिविल प्रकृति का है) के निर्णय के लिए आवश्यक हैं। 

सिविल प्रकृति के सूट: उदाहरण निम्नलिखित सिविल प्रकृति के सूट हैं। 

1. संपत्ति के अधिकारों से संबंधित सूट; 2. पूजा के अधिकारों से संबंधित सूट; 3. धार्मिक जुलूस निकालने से संबंधित सूट; 4. 'सिविल रॉंग' के लिए डैमेज की मांग के लिए सूट; 5. अनुबंध के विशिष्ट प्रदर्शन के लिए या अनुबंध के उल्लंघन के लिए क्षति के लिए सूट; 6. विशिष्ट राहत के लिए सूट; 7. वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए सूट; 8. विवाहों के विघटन के लिए अभियोग; 9. किराए के लिए सूट; 10. मताधिकार के अधिकारों के लिए सूट; 11. वंशानुगत कार्यालयों के अधिकारों के लिए सूट; 12. सेवा से और वेतन आदि के लिए गलत बर्खास्तगी के खिलाफ मुकदमा। 

निम्नलिखित सिविल प्रकृति के सूट नहीं हैं: 

1. मुख्यतः जातिगत प्रश्नों से संबंधित सूट; 

2. पूरी तरह से धार्मिक संस्कार या समारोहों में शामिल होने वाले सूट; 

3. केवल सम्मान या सम्मान को बनाए रखने के लिए सूट; 

4. जाति आदि से निष्कासन के विरुद्ध लाया गया मुकदमा।


Tuesday 12 January 2021

अपार्टमेंट क्रेता समझौते में एकतरफा और अनुचित धाराओं को शामिल करने से अनुचित व्यापार प्रथा का गठन होता है : सुप्रीम कोर्ट 12 Jan 2021

 

*अपार्टमेंट क्रेता समझौते में एकतरफा और अनुचित धाराओं को शामिल करने से अनुचित व्यापार प्रथा का गठन होता है : सुप्रीम कोर्ट 12 Jan 2021*

      सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अपार्टमेंट क्रेता समझौते में एकतरफा और अनुचित धाराओं को शामिल करने से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (आर) के तहत एक अनुचित व्यापार प्रथा का गठन होता है। *जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा कि डेवलपर अपार्टमेंट खरीदारों को अपार्टमेंट क्रेता समझौते में निहित एकतरफा अनुबंध शर्तों से बाध्य होने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।*
          अदालत ने इस तरह से राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ एक डवलपर द्वारा दायर की गई अपील का निपटारा करते हुए यह *निर्देश दिया कि निर्माण पूरा करने और कब्जे का प्रमाण पत्र प्राप्त करने में देरी के कारण अपार्टमेंट खरीदारों द्वारा जमा की गई धनराशि वापस कर दी जाए।*
शीर्ष न्यायालय के समक्ष अपील में निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए थे:--
(i) उस तिथि का निर्धारण, जिसमें से कब्जे को सौंपने के लिए 42 महीने की अवधि की गणना खंड 13.3 के तहत की जानी है, चाहे वह डवलपर द्वारा उल्लिखित अग्नि एनओसी जारी करने की तारीख के अनुसार हो ; या, अपार्टमेंट खरीदारों द्वारा उल्लिखित बिल्डिंग प्लान की मंजूरी की तारीख से; 
(ii) क्या अपार्टमेंट क्रेता के समझौते की शर्तें एकतरफा हैं, और अपार्टमेंट खरीदार उससे बाध्य नहीं होंगे; 
(iii) क्या उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम,1986 के प्रावधानों पर रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम,2016 के प्रावधानों को प्रमुखता दी जानी चाहिए; 
(iv) क्या कब्जे को सौंपने में देरी के कारण, अपार्टमेंट खरीदार समझौते को समाप्त करने के हकदार थे, और ब्याज के साथ जमा की गई राशि की वापसी का दावा कर सकते थे। दूसरे मुद्दे पर चर्चा करते हुए, बेंच ने समझौते की धाराओं का उल्लेख किया और कहा कि वही अपार्टमेंट क्रेता समझौते के पूर्णतया एकतरफा शब्दों को दर्शाता है, जो पूरी तरह से डवलपर के पक्ष में झुकते हैं, और हर कदम पर आवंटियों के खिलाफ होते हैं। 
     अदालत ने कहा कि अपार्टमेंट क्रेता समझौते की शर्तें दमनकारी और पूरी तरह से एकतरफा हैं, और ये उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत एक अनुचित व्यापार व्यवहार का गठन करेंगी। "हमारा विचार है कि अपार्टमेंट क्रेता समझौते में ऐसे एकतरफा और अनुचित खंडों को शामिल करना उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (आर) के तहत एक अनुचित व्यापार प्रथा है। यहां तक ​​कि 1986 के अधिनियम के तहत उपभोक्ता मंचों पर किसी भी तरह से अनुचित या प्रतिबंधात्मक व्यापार प्रथाओं को रोकने की शक्ति की घटना के रूप में एक संविदात्मक शब्द को अनुचित या एकतरफा घोषित करने के लिए रोक नहीं लगाई गई है। 
         *2019 अधिनियम के तहत एक "अनुचित अनुबंध" को परिभाषित किया गया है, और राज्य उपभोक्ता मंचों और राष्ट्रीय आयोग को शक्तियां हैं कि वो अनुबंध की शर्तों को, जो अनुचित हैं उन्हें शून्य और निर्रथक घोषित करें ।* यह एक शक्ति की वैधानिक मान्यता है जो 1986 अधिनियम के तहत निहित थी। 
          उपरोक्त के मद्देनज़र, हम मानते हैं कि डवलपर अपार्टमेंट खरीदारों को अपार्टमेंट क्रेता समझौते में निहित एकतरफा संविदात्मक शर्तों से बाध्य होने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।" तीसरे मुद्दे का जवाब देने के लिए पीठ ने मेसर्स इम्पीरिया स्ट्रक्चर्स लिमिटेड बनाम अनिल पाटनी और अन्य में हाल के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें यह देखा गया था कि *रेरा अधिनियम की धारा 79 एक आवंटी की ओर से दाखिल शिकायत पर सुनवाई से उपभोक्ता मंच को रोकती नही है।* अन्य मुद्दों का भी आवंटियों के पक्ष में जवाब दिया गया था।

मामला: IREO ग्रेस रियलटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम :अभिषेक खन्ना [ सिविल अपील संख्या 5785/ 2019 ]

पीठ : जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​और जस्टिस इंदिरा बनर्जी उद्धरण: LL 2021 SC 14

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/incorporation-of-one-sided-and-unreasonable-clauses-in-apartment-buyers-agreement-constitutes-an-unfair-trade-practice-supreme-court-168285?infinitescroll=1

Monday 11 January 2021

जमानत की शर्त कठोर ना हो, अन्यथा यह जमानत से इनकार जैसा और अभियुक्त की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगाः छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 11 Jan 2021

 

*जमानत की शर्त कठोर ना हो, अन्यथा यह जमानत से इनकार जैसा और अभियुक्त की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगाः छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय 11 Jan 2021*

       छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने पिछले महीने कहा कि *जमानत देते समय, लगाई गई शर्त कड़ी नहीं होनी चाहिए, बल्‍कि उचित होनी चाहिए, अन्यथा, यह जमानत नहीं देने के बराबर होगा और आरोपी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता देने से इनकार  करने और वंचित करने जैसा होगा, जो कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसे दिए गए संवैधानिक अधिकार का उल्‍लंघन होगा।*
          जस्टिस संजय के अग्रवाल की खंडपीठ ने मामले में *जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर को उद्धृत किया,* जिन्होंने बाबू सिंह और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1978) 1 SCC 579 में कहा था, *"गरीबों पर भारी जमानत लगाना स्पष्ट रूप से गलत है। गरीबी समाज की पीड़ा है और कठोरता नहीं, बल्‍कि सहानुभूति, न्यायिक प्रतिक्रिया है।"*  
        मामले के तथ्य - याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 420/34 के तहत मुकदमा चल रहा है। उसने सीआरपीसी की धारा 437 के तहत जमानत के लिए आवेदन दायर किया था। *मजिस्ट्रेट ने उसे दो लाख रुपए की नकद बैंक गारंटी या कैस की शर्त पर जमानत दी।* याचिकाकर्ता की समीक्षा याचिका पर प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, बालोद ने आंशिक संशोधन की अनुमति दी और *बैंक गारंटी की राशि घटाकर एक लाख रुपए कर दिया,* और दस हजार रुपए की बांड प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के आदेश की वैधता और शुद्धता पर सवाल उठाते हुए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत मौजूदा याचिका दायर की गई। 
           न्यायालय के अवलोकन न्यायालय ने कहा कि *यह बखूबी तय किया गया कानून है कि सीआरपीसी की धारा 437/439 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय, न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह यह देखे कि जमानत देने की शर्त मनमानी या मनमौजी नहीं होनी चाहिए, यह न्यायपूर्ण और तार्किक होनी चाहिए* और यह आरोपियों से नकद सुरक्षा या स्थानीय जमानत देने का आग्रह नहीं कर सकती। 
        कोर्ट ने आगे कहा, *"किसी भी शर्त को लगाने की  आवश्यकता यह है कि अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मामले की जांच के पुलिस के अधिकारों में न्यूनतम हस्तक्षेप करे।* अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पुलिस के जांच के अधिकार के बीच एक संतुलन रखा जाना चाहिए। 
     *" कोर्ट ने मोती राम और अन्य मध्य प्रदेश राज्य (1978) 4 एससीसी 47 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें अदालत ने जमानत के जरिए से भारी रकम मांगने की प्रथा को रोक दिया था।* मामले के तथ्यों पर कोर्ट ने कहा, *"यह काफी ज्वलंत है कि मौजूदा मामले में, हालांकि आरोपी को सीआरपीसी की धारा 437 के तहत जमानत दी गई और जबकि वह एक मामूली किसान है, उस पर दो लाख रुपए की बैंक गारंटी प्रस्तुत करने की कठोर शर्त लगा दी गई, हालांकि बाद में इसे आंशिक रूप से संशोधित न्यायालय बैंक गारंटी एक लाख रुपए की गई, लेकिन अभी भी बैंक गारंटी की यह शर्त कठोर और अत्यधिक प्रतिकूल है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त जनादेश के आलोक में जमानत देने की उचित शर्त नहीं कहा जा सकता।"* कोर्ट ने एक लाख रुपए की बैंक गारंटी की शर्त को रद्द कर दिया और अभियुक्त को बीस हजार रुपए के बेल बांड पर जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया।

      संबंध‌ित खबर एमडी धनपाल बनाम पुलिस निरीक्षक द्वारा राज्य  के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2019 में माना था कि आवेदक की वित्तीय क्षमता से भारी रकम जमा करने को जमानत की शर्त नहीं लगाई जा सकती है। दिसंबर 2019 में, जमानत देते समय अदालतों द्वारा पालन किए जाने वाले सिद्धांतों को याद करते हुए, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि *गरीबी या किसी अभियुक्त की स्थिति को जमानत देते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।* सितंबर 2020 में, एक "गरीब" की जमानत राशि को कम करते हुए, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने कहा था कि *याचिकाकर्ता को अपनी आजादी केवल इसलिए वापस नहीं मिल सकती, क्योंकि वह जमानत की व्यवस्था नहीं कर सकता था।* जस्टिस रवींद्र मैठाणी की एकल पीठ ने टिप्पणी की थी, *"मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता जेल में है क्योंकि वह गरीब है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता; ऐसा नहीं होना चाहिए और यह अदालत ऐसा नहीं होने देगी।"* जून 2020 में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने माना था कि किसी अदालत द्वारा लगाई गई जमानत की *शर्तें ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वे "जमानत के लिए घातक" साबित हों।* जस्टिस अरुण मोंगा ने कहा था, *"जमानत की शर्त या उस पर लगाए गया बोझ, ऐसा नहीं होना चाहिए कि जमानत के अर्थ की व‌िफल हो जाए।"*

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/bail-condition-shouldnt-be-stringent-otherwise-it-would-amount-to-denial-of-bail-and-violates-accuseds-right-of-personal-liberty-168237?infinitescroll=1

Sunday 10 January 2021

कमियों पर टिप्पणी; अपील की सुनवाई के दौरान सत्र न्यायाधीश के पास ऐसा कोई न्यायिक अधिकार नहीं है जिसके अनुसार वह न्यायिक अधिकारी द्वारा दिए गए निर्णय की कमियां निकाले : इलाहाबाद हाईकोर्ट 10 Jan 2021

 कमियों पर टिप्पणी; अपील की सुनवाई के दौरान सत्र न्यायाधीश के पास ऐसा कोई न्यायिक अधिकार नहीं है जिसके अनुसार वह न्यायिक अधिकारी द्वारा दिए गए निर्णय की कमियां निकाले : इलाहाबाद हाईकोर्ट 10 Jan 2021 

         इलाहाबाद हाईकोट ने कहा कि संयम, संतुलन और रिर्जव एक न्यायिक अधिकारी के सबसे बड़े गुण हैं और उसे कभी भी इन गुणों को छोड़ना नहीं चाहिए। न्यायमूर्ति आलोक माथुर की खंडपीठ एक न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दायर एक अर्जी पर सुनवाई कर रहे थे। इस मामले में सत्र न्यायाधीश, हरदोई द्वारा उसके खिलाफ की गई टिप्पणी को रद्द करने के लिए न्यायालय के समक्ष प्रार्थना की थी, जबकि राज्य बनाम यमोहन सिंह (क्रिमिनल केस नंबर-909/2019) आपराधिक मामले में हरदोई ने अपना एक अलग फैसला सुनाया। सेशन जज हरदोई ने ट्रायल कोर्ट के फैसले (आवेदक लेखक) को अलग करते हुए कुछ टिप्पणियां की हैं, जिससे नाराज होकर आवेदक ने इस तरह की टिप्पणियों को खारिज करने के लिए उच्च न्यायालय से प्रार्थना की है। कोर्ट ने कहा है कि, यह विचार करना प्रासंगिक है कि :--

 (क) क्या जिस पक्ष का प्रश्न है, वह न्यायालय के समक्ष है या स्वयं को समझाने या बचाव करने का अवसर है, 

(ख) क्या रिकॉर्ड किए गए सबूत असर होने के प्रमाण उचित हैं 

(ग) क्या इस मामले के निर्णय के लिए जुटाए गए सबूत पर्याप्त हैं। 

      यह भी माना गया है कि न्यायिक घोषणाओं को प्रकृति में न्यायिक होना चाहिए, और सामान्य रूप से कुछ अपने संयम, संतुलन और रिर्जव से नहीं हटना चाहिए। मामले की जांच करते हुए हाईकोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई कुछ टिप्पणियों पर भरोसा किया है जहां *उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को चेतावनी दी है कि वे अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी की आलोचना करने से बचें. उन पर टिप्पणियां न की जाएं।*  कोर्ट का कहना है कि, "अपील की सुनवाई करते हुए सत्र न्यायाधीश के पास पूर्ण अधिकार और अधिकार क्षेत्र है, ताकि वह असहमति के सबूतों की पुनः सराहना कर सके और ट्रायल कोर्ट के जरिए निष्कर्ष निकाल सके। लेकिन उनका क्षेत्राधिकार उक्त मामले से निपटने के लिए ट्रायल कोर्ट के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए आवेदक की कमियों पर टिप्पणी करने से कम हो गया है। *उनसे यह उम्मीद नहीं की गई थी कि वह देखे कि आवेदक ने मुकदमे के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए न्यायिक अधिकारी से अपेक्षा के अनुरूप निर्णय नहीं लिखा था।* उक्त टिप्पणी न्यायिक अधिकारी के व्यक्तित्व पर स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित करती हैं। 

          अब, उक्त अपील का फैसला करते हुए सत्र न्यायाधीश से अपेक्षा की गई थी कि वह उस मामले का न्याय करें जो उनके समक्ष था, और *न्यायिक अधिकारी के निर्णय पर उनको टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है। न्यायिक अधिकारी का अपना काम करने दिया जाए और आप अपना काम करें।" अदालत ने आगे कहा कि, "जिला और सत्र न्यायाधीश को अपने अधीनस्थ न्यायिक अधिकारियों पर प्रशासनिक नियंत्रण करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन प्रशासनिक नियंत्रण को अधीक्षण की शक्ति के बराबर नहीं किया जा सकता है जो केवल उच्च न्यायालयों के साथ निहित है।"* 

          सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित निर्णय में आवेदक के खिलाफ की गई टिप्पणियों को हटाने के लिए आवेदन की अनुमति देते हुए बेंच ने कहा कि, "वर्तमान मामले में सत्र न्यायाधीश ने पूरे सबूतों की फिर से जांच की है। जांच के बाद इसमें कई तरह के विवाद देखने को मिले हैं, और इसलिए आपराधिक अपील की अनुमति दी गई है। आवेदक पर टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। फिर भी यदि वह आवेदक की कमियों के बारे में दृढ़ता से महसूस करता है, तो इसके लिए वह अपने प्रशासनिक न्यायाधीश या मुख्य न्यायाधीश को सूचित करे।"

 आवेदक का प्रतिनिधित्व एडवोकेट प्रदीप कुमार साई ने किया और सहयोगी के रूप में एडवोकेट प्रकाश पांडे, एडवोकेट देवांश मिश्रा, एडवोकेट प्रवीण कुमार शुक्ला और एडवोकेट प्रियांशु सिंह थे। 

*केस का शीर्षक -* अलका पांडे बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य 

[केस: U / S 482/378/40 2020 no. 2389 of 2020] 

Thursday 7 January 2021

मध्यस्थता प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए हाईकोर्ट को अनुच्छेद 226/227 की शक्ति का प्रयोग असाधारण दुर्लभ स्थिति में ही करना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 7 Jan 2021

 मध्यस्थता प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए हाईकोर्ट को अनुच्छेद 226/227 की शक्ति का प्रयोग असाधारण दुर्लभ स्थिति में ही करना चाहिए : सुप्रीम कोर्ट 7 Jan 2021

       सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्ति को असाधारण दुर्लभ स्थिति में प्रयोग करने की आवश्यकता है, जिसमें एक पक्ष को क़ानून के तहत बिना उपाय के छोड़ दिया जाता है या किसी पक्ष द्वारा स्पष्ट 'बुरा विश्वास ' दिखाया गया है। न्यायमूर्ति एनवी रमना , न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के एक निर्णय को रद्द करते हुए एकमात्र मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र को चुनौती देने वाली रिट याचिका की अनुमति देते हुए कहा, यदि न्यायालयों को अधिनियम के दायरे से परे मध्यस्थ प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जाती है, तो प्रक्रिया की कार्य कुशलता कम हो जाएगी। 

    पीठ ने इस मुद्दे पर विचार किया कि संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत क्या मध्यस्थ प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया जा सकता है और किस परिस्थिति में? इसका उत्तर देने के लिए, पीठ ने उल्लेख किया कि पंचाट अधिनियम अपने आप में एक संहिता है और अधिनियम की धारा 5 में गैर-विरोधात्मक खंड विधायिका की मंशा को बनाए रखने के लिए प्रदान किया गया है, जैसा कि प्रस्तावना मॉडल कानून और नियमों को अपनाने के लिए प्रस्तावना में प्रदान किया गया है, अत्यधिक न्यायिक हस्तक्षेप को कम करने के लिए जिस पर मध्यस्थता अधिनियम के तहत विचार नहीं किया गया है। 

        अदालत ने देखा: मध्यस्थता अधिनियम स्वयं मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने के लिए विभिन्न प्रक्रियाएं और फोरम देता है। फ्रेमवर्क स्पष्ट रूप से अधिनियम के दायरे में ही अधिकांश मुद्दों को संबोधित करने के इरादे को स्पष्ट करता है, सिर्फ और उचित समाधान प्रदान करने की गुंजाइश के लिए, बिना किसी अतिरिक्त वैधानिक तंत्र के। मध्यस्थता करने में सक्षम किसी भी विवाद को हल करने के लिए कोई भी पक्ष मध्यस्थता समझौते में प्रवेश कर सकता है। इस तरह के समझौतों में प्रवेश करते समय दलों को मध्यस्थता अधिनियम की धारा 7 के तहत प्रदान की जाने वाली बुनियादी सामग्रियों को पूरा करने की आवश्यकता होती है। मध्यस्थता अनुबंध के समझौते में होने के नाते, मध्यस्थता अधिनियम के तहत पक्षकारों को अपनी प्रक्रिया के लिए न्यूनतम प्रक्रिया के साथ सहमत होने के लिए एक लचीली रूपरेखा प्रदान की जाती है। यदि पक्षकार मध्यस्थता के लिए किसी मामले को संदर्भित करने या उनके द्वारा सहमत प्रक्रिया के अनुसार मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रहती हैं, तो एक पक्ष मध्यस्थता अधिनियम की धारा 8 या 11 के तहत अदालत की सहायता के लिए सहारा ले सकती है। 

     इस मामले में, पीठ ने देखा कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 16 (2) के तहत मध्यस्थ द्वारा पारित आदेश को भारत के संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत एक याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई थी। पीठ ने यह कहा: सामान्य पाठ्यक्रम में, मध्यस्थता अधिनियम धारा 34 के तहत चुनौती के एक तंत्र के लिए प्रदान करता है। धारा 34 के शुरुआती चरण में एक मध्यस्थ अवार्ड के खिलाफ एक अदालत के लिए 'सहारा के रूप में पढ़ा जाता है,' केवल उपधारा (2) और उपधारा (3) के अनुसार इस तरह के अवार्ड को रद्द करने के लिए एक आवेदन द्वारा किया जा सकता है। प्रावधान के तहत 'केवल' शब्द का उपयोग अधिनियमन को पूर्ण कोड बनाने के दो उद्देश्यों को पूरा करता है और प्रक्रिया को तय करता है। निवेदिता शर्मा बनाम सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया, (2011) 14 SCC 33 और मैसर्स में दीप इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम ऑयल एंड और नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड मामलों में निर्णय का उल्लेख करते हुए बेंच ने आगे देखा: इसलिए, एक न्यायाधीश के लिए प्रक्रिया के तहत स्थापित प्रक्रिया से परे न्यायिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देने के लिए विवेक का प्रयोग करना आवश्यक है। इस शक्ति को असाधारण दुर्लभता में प्रयोग करने की आवश्यकता होती है, जिसमें एक पक्ष को क़ानून के तहत बिना उपाय के छोड़ दिया जाता है या किसी एक पक्ष द्वारा स्पष्ट 'बुरा विश्वास ' दिखाया गया है। इस न्यायालय द्वारा निर्धारित उच्च मानक मध्यस्थता को उचित और कुशल बनाने की विधायी मंशा के संदर्भ में है। अदालत ने देखा कि संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत उपाय को लागू करने के लिए अपीलकर्ता की ओर से कोई असाधारण परिस्थिति या 'बुरा विश्वास' नहीं था। यह जोड़ा गया: "इसमें कोई संदेह नहीं है कि अनुच्छेद 227 के दायरे विशाल और व्यापक हैं, हालांकि, उच्च न्यायालय को इस स्तर पर मध्यस्थ प्रक्रिया को बाधित करने के लिए अपनी अंतर्निहित शक्ति का उपयोग नहीं करना चाहिए। यह हमारे ध्यान में लाया गया है कि एकमात्र मध्यस्थ के आदेश के बाद , उनके द्वारा योग्यता के आधार पर एक अंतिम अवार्ड प्रदान किया गया, जिसे धारा 34 के तहत एक अलग आवेदन में प्रतिवादी नंबर 1 द्वारा चुनौती दी गई है, जो लंबित है। " उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए, पीठ ने कहा: "मध्यस्थता अधिनियम की धारा 16, अनिवार्य रूप से यह कहती है कि न्यायालय से पहले न्यायाधिकरण द्वारा क्षेत्राधिकार के मुद्दे को निपटाया जाना चाहिए, इससे पहले कि अदालत धारा 34 के तहत उसकी जांच करती है। इसलिए उत्तरदाता संख्या 1 उपाय विहीन नहीं है, और उसे वैधानिक रूप से अपील का एक मौका प्रदान किया गया है। .. उपर्युक्त तर्क के मद्देनज़र, हम इस विचार से हैं कि हाईकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उपलब्ध अपनी विवेकाधीन शक्ति का उपयोग करने में त्रुटि की है। इस प्रकार, अपील की अनुमति दी जाती है और हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया जाता है। " 

मामला : भावेन कंस्ट्रक्शन बनाम एग्जीक्यूटिव इंजीनियर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड। 

[ सिविल अपील संख्या 14665/ 2015 ] 

पीठ : जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हृषिकेश रॉय 

उद्धरण : LL 2021 SC 7


Tuesday 5 January 2021

"यह धारणा कि गृहण‌ियां "काम" नहीं करतीं या वे घर में आर्थिक योगदान नहीं देती, समस्यापूर्ण विचार", मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा 6 Jan 2021

 

*"यह धारणा कि गृहण‌ियां "काम" नहीं करतीं या वे घर में आर्थिक योगदान नहीं देती, समस्यापूर्ण विचार", मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा 6 Jan 2021*

        "यह धारणा कि गृहण‌ियां "काम" नहीं करती हैं या वे घर में आर्थिक योगदान नहीं देती हैं, समस्यापूर्ण विचार है। कई वर्षों से ऐसी समझ कायम है और इसे दूर किया जाना चाहिए।" जस्टिस एनवी रमना ने मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति के दावे के एक मामले में फैसला देते हुए यह टिप्पणी की। अदालत सड़क दुर्घटना में मारे गए मृतक दंपति के वारिसों की ओर से दायर मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति दावे की एक अपील का निस्तारण कर रही थी। मामले में एक मृतक गृहणी थी। इस मामले में, मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण ने दावेदारों को दोनों मृतकों के एवज में कुल 40.71 लाख रुपए की राशि प्रदान की थी। बीमा कंपनी की ओर से दायर अपील को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए, हाईकोर्ट ने भविष्य की संभावनाओं के जोड़ के फैसले को पलट दिया था। 
       पीठ ने दावेदारों की अपील को अनुमति देते हुए मुआवजा 11.30 लाख रुपए बढ़ाकर 33.20 लाख रुपए कर दिया। हाईकोर्ट ने 22 लाख रुपए मुआवजा दिया था। जस्टिस सूर्यकांत के फैसले के साथ सहमति व्यक्त करते हुए जज ने अपनी अलग राय दी। अपनी राय में, जज ने कहा कि ऐसी दो अलग-अलग श्रेणियां होती हैं, जिनमें न्यायालय पीड़ित की आय का निर्धारण करती है। मामलों की पहली श्रेणी उन लोगों से संबंधित होती है, जिनमें पीड़ित नौकरी कर रहा होता है, लेकिन दावेदार अदालत के समक्ष उसकी वास्तविक आय साबित करने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में, अदालत रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के आधार पर पीड़ित की आय का अनुमान लगाती है, जैसे कि *पीड़ित और उसके परिवार का जीवन स्तर, जिस क्षेत्र में पीड़ित कार्यरत था, उसमें किसी अन्य व्यक्ति की सामान्य कमाई, पीड़ित की योग्यता, और अन्य* विचार,। 
      जज ने कहा, दूसरी श्रेणी के मामले उन स्थितियों से संबंधित है, जिनमें अदालत को ऐसे पीड़ित व्यक्ति की आय का निर्धारण करने के लिए बुलाया जाता है, जो कमाता नहीं होता है, जैसे कि बच्चा, छात्र या गृहिणी। इस संदर्भ में, जज ने कहा कि भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार, लगभग 159.85 मिलियन महिलाओं ने "घरेलू काम" को अपना मुख्य काम बताया है, जबकि पुरुषों की श्रेणी में यह संख्या 5.79 मिलियन थी। जज ने कहा, "घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास की मात्रा, जिन्हें पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक करती हैं, चौंकाती नहीं है, जब आप घर के कामों पर विचार करते हैं। *गृहणी अक्सर भोजन तैयार करती है, किराने का सामान और घर की अन्य जरूरतों की खरीदारी करती है, घर और आसपास की सफाई और प्रबंधन करती है, सजावट, मरम्मत और रखरखाव का काम करती है, बच्चों की जरूरतों और घर के वृद्ध सदस्य की देखभाल करती है, बजट का प्रबंधन करती है और बहुत से काम करती है। ग्रामीण परिवारों में, वे अक्सर खेत में बुवाई, कटाई और रोपाई जैसे कामों में सहायता करती हैं, इसके अलावा मवेशियों की देखभाल करती हैं।"*
        "इसलिए, एक गृहिणी की काल्पनिक आय को निर्धारित करने का मुद्दा अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह उन तमाम महिलाओं के कार्यों को मान्यता देता है, जो इस गतिविधि में लगी हुई हैं, चाहे विकल्प के रूप में या सामाजिक/सांस्कृतिक मानदंडों के परिणामस्वरूप। यह बड़े पैमाने पर समाज को संकेत देता कि कानून और न्यायालय गृहणियों के श्रम, सेवाओं और बलिदानों के मूल्य में विश्वास करता है। यह इस विचार की स्वीकृति है कि ये गतिविधियां परिवार की आर्थिक स्थिति में वास्तविक रूप से योगदान करती हैं और राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में योगदान करती हैं, इस तथ्य के बावजूद इन्हें पारंपरिक रूप से आर्थिक विश्लेषण से बाहर रखा गया है। यह बदलते दृष्टिकोण, मानसिकता और हमारे अंतरराष्ट्रीय कानून दायित्वों का प्रतीक है। और, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सामाजिक समानता की संवैधानिक दृष्टि की ओर एक कदम है और सभी व्यक्तियों को जीवन की गरिमा सुनिश्चित करता है।" 
        इन अवलोकनों के साथ जज ने गृहणियों के लिए काल्प‌निक आय की गणना और इस संबंध में भविष्य की संभावनाओं के अनुदान पर अपनी राय दी, जो इस प्रकार है- *-मुआवजे का अनुदान, एक गृहिणी के संबंध में, धन संबंधी आधार पर, कानून का एक तय प्रस्ताव है। -घरेलू कार्यों की लैंगिक प्रकृति को ध्यान में रखते हुए...गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण महत्वपूर्ण है।* -मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर, एक गृहिणी की काल्पनिक आय को तय करने के लिए न्यायालय द्वारा विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जा सकता है। 
केस:- कीर्ति बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड CIVIL APPEAL NOS.1920 0f 2021] 
कोरम: जस्टिस एनवी रमना, एस। अब्दुल नज़ीर और सूर्यकांत 
Citation: LL 2021 SC 2

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