Monday 17 February 2014

पक्षपाती गवाह, हितबद्ध गवाह या पार्टीशन विटनेस, इंटेªस्टेड विटनेस

पक्षपाती गवाह, हितबद्ध गवाह या पार्टीशन विटनेस, इंटेªस्टेड विटनेस
         ऐसा गवाह जो किसी पक्ष विशेष का हो या किसी पक्ष विशेष से हितबद्ध हो वह इस श्रेणी में आते है लेकिन किसी गवाह का पक्षपाती होना या किसी पक्ष विशेष से हितबद्ध होना उसकी पूरी सशपथ साक्ष्य को निरर्थक नहीं कर देता है बल्कि इन मामलों में भी साक्षी के कथनों की अतिसूक्ष्मता से सावधानी पूर्वक छानबीन की जाना चाहिए और यदि साक्षी की साक्ष्य तात्विक बिन्दुओं पर परस्पर पुष्टि कारक, स्वाभाविक व विश्वास योग्य पाई जाती है तो उस पर विश्वास किया जा सकता हैं।
         न्याय दृष्टांत रामू उर्फ रमेश विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2003 (5) एम.पी.एल.जे. 31 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य की स्वतंत्र साक्षी से पुष्टि आवश्यक नहीं है यदि न्यायालय इस बात से संतुष्ट होती है की साक्षी की साक्ष्य सत्य हैं।
         न्याय दृष्टांत जुगरू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (1) एम.पी.एल.जे. 530 मंे यह प्रतिपादित किया है कि कोई गवाह हितबद्ध गवाह है मात्र इस आधार पर उसकी साक्ष्य अविश्वसनीय नहीं मानी जा सकती जब तक की यह प्रमाणित न हो की उसका असली अपराधी को बचाने में और र्निदोष को लिप्त करने में हेतु हैं।
         न्याय दृष्टांत दुर्गश विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (1) एम.पी.एल.जे. 27 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य केवल उसके हितबद्ध होने के आधार पर अस्वीकार नहीं की जा सकती उसे स्वीकार या अस्वीकार गुण दोष पर करना चाहिए।
         न्याय दृष्टांत दयाराम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2004 (1) एम.पी.एल.जे. 524 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य की अतिसावधानी से और बारीकी से छानबीन करना चाहिए उस पर विश्वास किया जा सकता हैं केवल उसके हितबद्ध होने के आधार पर उसे अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
         न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध श्रीमती कालकी, ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1390 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी साक्षी को हितबद्ध साक्षी तभी कहां जा सकता है जब उसे विवाद के नतीजे से कुछ लाभ होता हो एक पत्नी जो पति के हत्या के मामले में साक्षी है उसे हितबद्ध साक्षी नहीं कहां जा सकता क्योंकि प्रकरण के परिणाम से उसे कुछ लाभ नहीं होना हैं।
         इस संबंध में न्याय दृष्टांत कुट्टी उर्फ मनकाम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (1) एम.पी.एल.जे. 281, श्रवण सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ पंजाब, ए.आई.आर. 1976 एस.सी. 2304 भी अवलोकनीय हैं।

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