Monday 17 February 2014

धारा 138 एन.आई. एक्ट

एन.आई. एक्ट के महत्वपूर्ण बिन्दु

भाग - 1

1.     परिवाद प्रस्तुत करने में सक्षमता के बारे में:-
1.     क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद मुख्तयार या पावर आॅफ आॅटर्नी होल्डर प्रस्तुत कर सकता है ?
हाॅं, लेकिन आगामी अभियोजन के लिए परिवादी की उपस्थिति आवश्यक है जैसे धारा 200 और 202 दं.प्र.सं. के कथन के लिए परिवादी की उपस्थिति आवश्यक हैं यदि परिवादी उपस्थित होकर कथन दे देता है तो परिवाद प्रस्तुत करने में कोई कमी नहीं रहती है और ऐसी कमी दूर हो चुकी है यह माना जाता हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत रमेश विरूद्ध गणेश चन्द्र, 2004 (5) एम.पी.एच.टी. 103 ।
2.     क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद अभिभाषक के हस्ताक्षर से और परिवादी द्वारा अभिभाषक की ओर से प्रस्तुत किया जा सकता है ?
हाॅं, यदि मुख्तयार या पावर आॅफ आॅटर्नी होल्डर परिवादी की ओर से परिवाद प्रस्तुत कर सकता है तब अभिभाषक भी पेश कर सकता है क्योंकि परिवाद धारा 142 एन.आई. एक्ट के तहत लिखित में होना चाहिए लेकिन उस पर परिवादी के हस्ताक्षर हो ऐसा आवश्यक नहीं है लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परिवाद बिना हस्ताक्षर के प्रस्तुत किया जा सकता हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत केवल कुमार जग्गी विरूद्ध विनोद कुमार साहू, 2008 (4)   एम.पी.एल.जे. 213 ।
3.     क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद प्रोप्राईटरी कंर्सन द्वारा लिखित में प्रोप्राईटर के पावर आॅफ आॅटर्नी होल्डर द्वारा पेश किया जा सकता है ?
हाॅं, ऐसा परिवाद चलने योग्य होता हैं धारा 142 एन.आई. एक्ट के तहत धारा 138 का परिवाद चेक के अधीन राशि प्राप्त करने वाले या सामान्य अनुक्रम में चेक के धारक के नाम से प्रस्तुत किया जा सकता हैं यदि उसकी ओर से पावर आॅफ आॅटर्नी होल्डर को अधिकृत किया गया है तो वह चेक के अधीन राशि प्राप्त करने वाले या सामान्य अनुक्रम में चेक के धारक के नाम से उसकी ओर से परिवाद प्रस्तुत कर सकता हैं इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत शंकर फायनेंस एण्ड इनवेस्टमेंट विरूद्ध स्टेट आॅफ आंध्रप्रदेश (2008) 8 एस.सी.सी. 536  है इस मामले में परिवाद किस नाम और स्टाइल से पेश किया जा सकता है इसको भी स्पष्ट किया गया है। लेकिन पावर आॅफ आॅटर्नी होल्डर स्वयं के नाम से परिवाद पेश नहीं कर सकते।
4.     जहाॅं परिवादी कंपनी या वैधानिक संस्था वहां प्रसंज्ञान लेने के पूर्व परिवादी के परीक्षण के बारे में वैधानिक स्थिति क्या है ?
जहां कंपनी या वैधानिक संस्था परिवादी होती है वहां अधिकृत व्यक्ति की ओर से उसका प्रतिनिधित्व होता है कंपनी या वैधानिक संस्था डी जूरी परिवादी होती है और उसकी ओर से अधिकृत हस्ताक्षरकर्ता डी फेक्टो परिवादी होता है।
शासकीय कंपनी या वैधानिक निगम लोक सेवक नहीं हो सकते है लेकिन उनकी ओर से अधिकृत व्यक्ति यदि लोक सेवक है तब धारा 200 (ए) दं.प्र.सं. आकर्षित होगी और न्यायालय ऐसे लोक सेवक को परीक्षण से मुक्ति दे सकता है यदि उसके द्वारा परिवाद कंपनी या वैधानिक निगम की ओर से किया गया हो। अवलोकनीय न्याय दृष्टांत नेशनल स्मोल इंडस्ट्रीज काॅरर्पोरेश लिमिटेड विरूद्ध स्टेट एन.सी.टी. देल्ही, (2009) 1 एस.सी.सी. 407 अवलोकनीय हैं।
2.     पुलिस द्वारा अनुसंधान करने की शक्ति
     5.     क्या पुलिस धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले में अनुसंधान कर सकती है ?
नहीं, धारा 142 एन.आई. एक्ट के तहत धारा 138 के अधीन किसी अपराध का संज्ञान न्यायालय चेक के अधीन राशि प्राप्त करने वाले व्यक्ति या सामान्य अनुक्रम में चेक के धारक के लिखित परिवाद के अलावा नहीं कर सकता है अतः पुलिस धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले में अनुसंधान नहीं कर सकती है यदि भारतीय दंड संहिता के अन्य अपराध का मामला बनता हो उनमें पुलिस अवश्य अनुसंधान कर सकती हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत सेन्ट्रल बैंक आॅफ इंडिया विरूद्ध सेक्शनस फर्मस, 2000 (1) एम.पी.एल.जे. 149 (एस.सी.) ।
3.     अपरिपक्व या प्रीमेच्योर परिवाद पेश होने पर
6.     धारा 138 (सी) के तहत 15 दिन की अवधि समाप्त होने के पूर्व यदि परिवाद पेश होता है तब क्या किया जाना चाहिए ?
यदि ऐसा परिवाद पेश हो जाए तो उसे निरस्त नहीं किया जाना चाहिए लेकिन प्रसंज्ञान वाद कारण उत्पन्न होने पर लिया जाना चाहिए जैसा की धारा 142 (बी) एन.आई. एक्ट से स्पष्ट है प्रसंज्ञान लिया जाना और परिवाद का पेश किया जाना दो अलग-अलग तथ्य है केवल परिवाद पेश कर दिये जाने से यह नहीं माना जा सकता की मजिस्टेªट ने प्रसंज्ञान ले लिया है अवलोकनीय न्याय दृष्टांत नरसिंह दास तापडि़या विरूद्ध गोवर्धन दास, ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 2964 ।
4.     परिवादी की मृत्यु और उसके वेध प्रतिनिधियों के अधिकार /दायित्व
7.     क्या चेक जिस व्यक्ति के नाम जारी किया गया हो वहां उसकी मृत्यु होने पर उसके वेध प्रतिनिधि परिवाद ला सकते है ?
सामान्य अनुक्रम के चेक के धारक के मृत्यु हो जाने पर उसके वेध प्रतिनिधि द्वारा लाया गया परिवाद चलने योग्य होता है अवलोकनीय न्याय दृष्टांत रामप्रसाद विरूद्ध श्रीमती सुधा बेन, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. एन.ओ.सी. 60 ।
8.     क्या परिवादी की मृत्यु हो जाने पर उसके वेध प्रतिनिधि परिवाद जारी रख सकते है और क्या वेध प्रतिनिधि मुख्तायार के द्वारा ऐसी अनुमति ले सकते है ?
परिवादी की मृत्यु होने पर उसके वेध प्रतिनिधि परिवाद जारी रख सकते है। वेध प्रतिनिधियों को न्यायालय में अनुमति के लिए स्वयं आवेदन करना होगा और आगे की कार्यवाही मुख्तायार संचालित करेगा ऐसी अनुमति भी लेनी होगी मुख्तायार स्वयं मृत परिवादी के वेध प्रतिनिधियों की ओर से सीधे आवेदन नहीं कर सकता हैं।
9.     सामान्य अनुक्रम में चेक के धारक की मृत्यु हो जाने पर उसके वेध प्रतिनिधि की ओर से प्रस्तुत परिवाद में आवश्यक अभिवचन कैसे होना चाहिए ?
परिवाद में यह अभिवचन होना चाहिए कि सामान्य अनुक्रम में चेक के धारक की मृत्यु हो चुकी है और परिवाद प्रस्तुत करने वाले उसके वेध प्रतिनिधि है न्याय दृष्टांत किशोर गोयल विरूद्ध हनीफ पटेल, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 1994 में इस स्थिति को स्पष्ट किया गया हैं उस मामले में परिवादी ने परिवाद में यह उल्लेखित नहीं किया कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है और वह किस प्रकार चेक की राशि पाने का अधिकारी है कौन-कौन वेध प्रतिनिधि है इसका भी उल्लेख परिवाद ने नहीं किया हैं।
10.     क्या माता द्वारा उसके जीवन काल में जारी किये गये चेक के लिए उसकी संतान के विरूद्ध धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद चलने योग्य है ?
नहीं, यदि अभियुक्त ने स्वयं चेक जारी नहीं किया है तब उस चेक के लिए जो उसकी माता द्वारा उसके जीवन काल में जारी किया गया उसके लिए अभियुक्त का आपराधिक दायित्व नहीं बनता हैं। न्याय दृष्टांत नीना चोपड़ा विरूद्ध महेन्द्र सिंह, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 2277 ।
5.     परिवादी की अनुपस्थिति और अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट के बारे में
11.     क्या जहां परिवादी कंपनी या अन्य विधिक व्यक्ति हो वहां धारा 256 दं.प्र.सं. के प्रावधान लागू होते है और धारा 256 दं.प्र.सं. के प्रावधान लागू करने के लिए कौन से प्रतिबंध हैं?
जहां परिवादी कंपनी या अन्य विधिक व्यक्ति हो वहां भी धारा 256 दं.प्र.सं. के प्रावधान लागू होते हे।
         धारा 256 दं.प्र.सं. को लागू करने के लिए दो प्रतिबंध न्यायालय पर लगाये गये है:-
1.     यदि न्यायालय कार्यवाही को स्थागित करना उचित समझता है ऐसी परिस्थितियाॅं है तब मजिस्टेªट अभियुक्त को दोषमुक्त नहीं करेगा।
2.     यदि न्यायालय की राय में परिवादी की व्यक्तिगत उपस्थिति उस दिन आवश्यक नहीं है।
तब न्यायालय अभियुक्त को दोषमुक्त नहीं करेगा और कार्यवाही आगे के लिए स्थागित कर देगा।
यदि न्यायालय की राय में परिवादी की उपस्थिति उस दिन विशेष पर प्रकरण की प्रगति के लिए आवश्यक हो तब न्यायालय अपनी विवेकाधिकार का प्रयोग कर सकता है न्यायालय को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिक तरीके से करना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत एशोसियेटेड सीमेन्ट कंपनी लिमिटेड विरूद्ध केशव चंद, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 596 अवलोकनीय है।
12.     क्या परिवादी की अनुपस्थिति में परिवाद खारीज करके अभियुक्त को दोषमुक्त कर देने के पश्चात मजिस्टेªट प्रकरण को पुनः स्थापित या रेस्टोर कर सकता है ?
नहीं, दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे कोई प्रावधान हीं है जिसके तहत मजिस्टेªट परिवाद को पुनः स्थापित कर सके और वह अपने द्वारा पारित आदेश का पुनरावलोकन भी नहीं कर सकता है न्याय दृष्टांत मेजर जनरल ए.एस. गौवरैया विरूद्ध एस.एन. ठाकुर, ए.आई.आर. 1986 एस.सी. 1440 अवलोकनीय हैं।
13.     उसी वाद कारण पर और उन्हीं तथ्यों पर क्या दूसरा परिवाद लाया जा सकता है ?
यदि प्रथम परिवाद गुण दोष पर निरस्त न हुआ हो बल्कि परिवादी की उपस्थिति में चूक के कारण निरस्त हुआ हो तब वह उन्हीं तथ्यों पर दूसरा परिवाद ला सकता है लेकिन जहां परिवाद धारा 203 दं.प्र.सं. के तहत जांच के बाद निरस्त किया गया हो तब उन्हीं तथ्यों पर दूसरा परिवाद अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में ही लाया जा सकता हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत जीतेन्द्र सिंह विरूद्ध रंजीत, (2001) 2 एस.सी.सी. 570 अवलोकनीय हैं।
न्याय दृष्टांत प्रमाथा नाथ तालूकदार विरूद्ध सरोज रंजन सरकार, ए.आई.आर. 1962 एस.सी. 876 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि धारा 203    दं.प्र.सं. में दूसरा परिवाद लाने पर कोई रोक नहीं लगाई गई है लेकिन यह अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में ही हो सकता है जैसे:-
     1.     जहां पूर्व का आदेश अपूर्ण अभिलेख के आधार पर किया गया हो।
     2.     परिवाद की प्रकृति को समझने में भूल हुई हो।
3.     जहां पूर्व की कार्यवाही में सम्यक तत्परता के बाद भी कुछ तथ्यों को परिवादी अभिलेख पर न ला पाया हो।
यह भी प्रतिपादित किया गया है कि एक बार परिवाद पर पूरा विचार करके निर्णय देने पर केवल न्याय के हित में परिवादी को उसके परिवाद पर पुनः जांच का अवसर नहीं मिल जाता है।
इस तरह एक बार यदि गुण दोष पर परिवाद निरस्त कर दिया जाता है तब उसी वाद कारण पर और उन्हीं तथ्यों पर सामान्यतः दूसरा परिवाद चलने योग्य नहीं होता हैं और अत्यंत अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में ही, जिनका की उपर उल्लेख किया गया है दूसरा परिवाद लाया जा सकता है।
     14.     परिवादी की अनुपस्थिति पर न्यायालय का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए ?
न्याय दृष्टांत राइट सर्विस रतलाम विरूद्ध छोटू भैया रोड लाईनस, 2004 सी.आर.एल.जे. 460 एम.पी. में न्याय दृष्टांत एशोसियेटेड सीमेन्ट विरूद्ध केशव चंद, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 596 में धारा 256 दं.प्र.सं. की कार्यवाही के समय के प्रतिबंधों तथा न्याय दृष्टांत मोहम्मद अजीम विरूद्ध ए. वेकेटेश (2002) 7 एस.सी.सी. 726 पर विचार करते हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी की अनुपस्थिति पर अत्यंत कठोर और अयुक्तियुक्त दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए।
15.     जहां परिवादी का प्रमाण पूर्ण हो चुका हो और बचाव प्रमाण के लिए प्रकरण नियत हो और परिवादी अनुपस्थित तब क्या होना चाहिए ?
परिवाद तत्काल खारीज नहीं करना चाहिए न्यायालय को या तो प्रकरण स्थागित कर देना चाहिए या अभियुक्त को सुनना चाहिए और यदि परिवादी का प्रतिनिधित्व अभिभाषक के माध्यम से हो रहा हो तब परिवादी को उस दिन उपस्थिति से छूट दे देना चाहिए अवलोकनीय न्याय दृष्टांत एस. आनंद विरूद्ध वासूमति चंद्रशेखर, (2008) 4 एस.सी.सी. 67 ।
16.     परिवादी की एक मात्र चूक पर परिवाद निरस्त जबकि पूर्व में दो बार परिवादी के प्रतिपरीक्षण के लिए अभियुक्त के निवेदन पर प्रकरण बढ़ाया गया था ?
आदेश यांत्रिक तरिके से पारित करते हुये परिवाद निरस्त किया गया जो उचित नहीं माना गया न्याय दृष्टांत यशवंत सिंह विरूद्ध श्री प्यारे लाल उइके, 2010 (1) एम.पी.एच.टी. 473 अवलोकनीय हैं।
17.     क्या आरोपी की प्रथम उपस्थिति के बाद भी धारा 205 दं.प्र.सं. के साथ व्यक्तिगत उपस्थिति में छूट की प्रार्थना की जा सकती है ?
नहीं, अवलोकनीय न्याय दष्टांत आर.पी. गुप्ता विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2007 (1) एम.पी.एच.टी. 412 ।
18.     अभियुक्त को व्यक्तिगत उपस्थिति में छूट देते समय मुख्य ध्यान रखने योग्य बिन्दु क्या होने चाहिए ?
अभियुक्त से ऐसा परिवचन या अंडर टेकिंग लेना चाहिए की वह उसकी पहचान के प्रश्न पर विवाद नहीं करेगा और उसकी ओर से उसके अभिभाषक न्यायालय में उपस्थिति देंगे और उसकी अनुपस्थिति में साक्ष्य लेने में आपत्ति नहीं करेंगे ये सावधानियाॅं मामले की प्रगति के लिए आवश्यक होती है जो किसी भी अभियुक्त उसकी उपस्थिति से छूट देते समय ध्यान में रखना चाहिए इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत मेसर्स भिवानी डेनिम एण्ड लिमिटेड विरूद्ध मेसर्स भास्कर इंडस्ट्रीज, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 3625 अवलोकनीय हैं।
19     न्याय दृष्टांत एस.व्ही. मजूमदार विरूद्ध गुजरात स्टेट फर्टीलाइजर, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 2436 में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि न्यायालय को यह भी ध्यान रखना चाहिए की अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से कौन सा उपयोगी उद्देश्य प्राप्त हो सकेगा या उसकी अनुपस्थिति से प्रकरण के विचारण की प्रगति बाधित होगी।
न्याय दृष्टांत लारसन एण्ड टूबरो लिमिटेड विरूद्ध आनंद बनगढ़, 2002 (4)   एम.पी.एल.जे. 581 भी अवलोकनीय हैं।
6.     परिसीमा काल की गणना और विलंब क्षमा के बारे में 
     20.     धारा 138 एन.आई. एक्ट में 30 दिन की अवधि की गणना कब से की जायेगी ?
चेक अनादरित होकर प्राप्त होने की जानकारी वाला दिन गणना में नहीं लिया जायेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत संजय विरूद्ध सुनील, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2731 अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी कार्य के करने के लिए कोई समय निर्धारित है तब जिस दिन से गणना की जाना है वह प्रथम दिन छोड़ देना चाहिए और अंतिम दिन गणना में लिया जाना चाहिए जैसा की न्याय दृष्टांत साकेत इंडिया लिमिटेड विरूद्ध इंडिया सिक्योरिटी लिमिटेड (1999) 3 एस.सी.सी. 1 अवलोकनीय हैं।
21.     न्याय दृष्टांत मेसर्स मूनोथ इनवेस्टमेंट लिमिटेड विरूद्ध मेसर्स पुट्टू कोला प्रोपर्टीज, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 2752 में यह प्रतिपादित किया गया है कि चेक अनादरित होकर सूचना जिस दिन प्राप्त होती है उस दिन से गणना होना है इस मामले में बैंक ने चेक 13 तारीख को अनादरित किया था लेकिन उसकी सूचना परिवादी को 17 तारीख को इसलिए मिली थी की दिनांक 14, 15 और 16 को बैंक में पोंगल का अवकाश था अतः परिवादी को जिस दिन सूचना मिली उस दिन से अवधि की गणना की जायेगी।
22.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामलों में विलंब क्षमा करने के लिए प्रस्तुत आवेदन पत्रों पर न्यायालय का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए ?
न्यायालय को विलंब क्षमा के आवेदन पत्रों पर विचार करते समय नम्र रूख अपनाना चाहिए कठोर और अति तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए न्यायालय को तात्विक न्याय हो सके इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए।
23.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के परिवाद प्रस्तुत करने में अवधि की गणना कहां से की जायेगी ?
धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामलों में मांग सूचना पत्र की तामील से 15 दिन की अवधि समाप्त होने के दिन से 1 माह के भीतर परिवाद प्रस्तुत होना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स साकेत इंडिया लिमिटेड विरूद्ध मेसर्स इंडिया सिक्योरिटी, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 1090 अवलोकनीय हैं।
     24.     वाद कारण कौन से सूचना पत्र से प्रारंभ होगा ?
बैंक से चेक अनादरन की मौखिक सूचना मिली उस पर सूचना पत्र जारी कर दिया गया फिर लिखित सूचना प्राप्त हुई उस पर दूसरा नोटिस जारी किया गया ऐसे मामलों में प्रथम सूचना पत्र से ही अवधि की गणना होगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स अरोरा डिस्टीलरी प्राईवेट मिलिमिटेड विरूद्ध विजय एशोसियेट, 2008 (3) एम.पी.एच.टी. 281 अवलोकनीय हैं।
     25.     क्या धारा 142 एन.आई. एक्ट का परंतुक भूत लक्षी है ?
धारा 142 बी एन.आई. एक्ट का परंतुक भूतलक्षी या रेटरो स्पेक्टिव नहीं है न्याय दृष्टांत अनिल कुमार विरूद्ध किशन चंद, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 899 अवलोकनीय हैं।

नोट - विलंब क्षमा करने के आवेदन पर विचार करते समय अभियुक्त को सुना जाना आज्ञापक है इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध शरद चंद विनायक डोगरे, ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 231, पी. राम चंद्र राव विरूद्ध स्टेट आॅफ कर्नाटक, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 1856 अवलोकनीय हैं।
7.     संयुक्त विचारण के बारे में
     26.     क्या दो अनादरित चेक के बारे में संयुक्त परिवाद चलने योग्य है ?
धारा 219 दं.प्र.सं. 1973 में एक वर्ष के भीतर किये गये समान प्रकृति के अपराध के बारे में एक साथ आरोप लगाकर विचारण किया जा सकता है अतः दो चेक जो दो माह के भीतर अनादरित हुये उनके बारे में संयुक्त विचारण किया जा सकता है और एक ही परिवाद लाया जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मुजफर हुसैन विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., 2009   सी.आर.एल.जे. 154 अवलोकनीय हैं।
27.     एक ही संव्यवहार के बारे में अनादरित चेक के बारे में कई परिवाद विभिन्न न्यायालयों में पेश होने पर प्रक्रिया ?
न्याय दृष्टांत दमोदर एस. प्रभु विरूद्ध सैयद बाबा लाल एच., ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1907 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि परिवादी के लिए यह आज्ञापक है कि वह परिवाद के साथ ऐसा सपथ पत्र पेश करे की उसी संव्यवहार के बारे में कोई अन्य परिवाद किसी अन्य न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया हैं।
8.     पश्चातवर्ती विचारण 
     28.     डबल जियोपारडी कब नहीं मानेंगे ?
वाहन के विक्रय प्रतिफल पेटे तीन चेक जारी किये गये प्रथम चेक अनादरित होने पर आरोपी का विचारण धारा 420 भा.दं.सं. में हुआ उसका विचारण अन्य दो चेक के अनादरण पर धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए हो सकता है क्योंकि दोनों भिन्न अपराध हैं ऐसे में धारा 300 (1) दं.प्र.सं. लागू नहीं होगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत मोहम्मद कुंजी विरूद्ध वि.पी. एण्डरू, 2009 सी.आर.एल.जे. 1938 (केरल उच्च न्यायालय) अवलोकनीय हैं।
29.     क्या तीन से अधिक अनादरित चेक के बारे में संयुक्त विचारण किया जा सकता है यदि एक ही सूचना पत्र द्वारा राशि की मांग की गई हो ?
हाॅं, अभियुक्त के कृत्यों की श्रंखला इस प्रकार जुड़ी हुई रहती है कि वह एक ही संव्यवहार हो जाती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मुकेश विरथरे विरूद्ध दीपक शर्मा, 2011 (2) एम.पी.एच.टी. 314 अवलोकनीय हैं।
9.     चेक गुमने की रिपोर्ट होने पर
30.     बैंक और पुलिस को चेक गुमने की सूचना दी गई चेक अनादरित हुआ क्या अपराध बनेगा ?
न्याय दृष्टांत राज कुमार खुराना विरूद्ध स्टेट एन.सी.टी. देल्ही, (2009) 6 एस.सी.सी. 72 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बैंक ने चेक इस प्रतिवेदन के साथ वापस लौटाये की ’’ड्रावर ने चेक गुमने की रिपोर्ट दी है’’ इसे धारा 138 एन.आई. एक्ट की परिधि में चेक अनादरित होना नहीं माना जा सकता।
धारा 138 एन.आई. एक्ट एक दांडिक प्रावधान है और उसका अर्थ उसी तरीके से लगाना चाहिए धारा 138 के लिए चेक खाते में अपर्याप्त राशि होने के कारण या उस बैंक के साथ किये गये कारार द्वारा खाते से संदाय करने के लिए प्रबंध की गई राशि अधिक होने के कारण चेक लौटाया जाना चाहिए तभी कार्यवाही के लिए आवश्यकता पूरी होती है।
जहां चेक गुमने की सूचना के कारण लौटाया गया है उसे धारा 138 एन.आई. एक्ट की परिधि में नहीं माना जा सकता।
10.     प्रादेशिक क्षेत्राधिकार
31.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए प्रादेशिक क्षेत्राधिकार देखने के लिए कौन-कौन से घटक देखे जाते है ?
धारा 138 एन.आई. एक्ट में प्रादेशिक क्षेत्राधिकार देखने के लिए घटक देखे जाते है:-
         1.     चेक का जारी किया जाना
         2.     चेक का बैंक में पेश किया जाना
3.     चेक का जिस बैंक के खाते से वह जारी किया गया था उसके द्वारा लौटाया जाना।
         4.     चेक की राशि के लिए लिखित मांग सूचना पत्र का दिया जाना।
5.     चेक जारी करने वाले द्वारा सूचना पत्र मिलने के 15 दिन के भीतर भुगतान करने में असफल रहना।
उक्त पांच कृत्य पूर्ण होना जरूरी है और ये पांचों कृत्य पांच विभिन्न स्थानों पर भी हो सकते हैं और उन सभी स्थानों पर क्षेत्राधिकार बनेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत के. भास्करण विरूद्ध शंकरण वी. बालन, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 3762 अवलोकनीय हैं।
32.     जिस न्यायालय के क्षेत्राधिकार से मांग सूचना पत्र जारी किया गया क्या उस न्यायालय को प्रादेशिक क्षेत्राधिकार होता है ?
नहीं, न्याय दृष्टांत हरमन इलेक्ट्रोनिक्स प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध नेशनल पेनासोनिक इंडिया लिमिटेड 2009 सी.आर.एल.जे. 1109 अवलोकनीय है जिसमें उक्त न्याय दृष्टां के. भास्करण को भी विचार में लिया गया हैं।
11.     अन्य कार्यवाहियों का लंबित रहना
     33.     क्या दांडिक प्रकरण लंबित रहने से व्यवहार वाद स्थागित किया जाना चाहिए ?
नहीं, अवलोकनीय न्यायदृष्टांत नेमी चंद गंगवाल विरूद्ध हरिश कुमार, 2000 (3) एम.पी.एच.टी. 194 चेक अनादरित होने का परिवाद लंबित रहने के कारण उसी राशि का व्यवहार वाद धारा 10 सी.पी.सी. के तहत स्थगित किया जाना आवश्यक नहीं हैं।
34.     परिवादी को चेक ग्वालियर में सौपे गये क्या ग्वालियर न्यायालय को क्षेत्राधिकार बनेगा ?
न्याय दृष्टांत मोहन मंडेलिया विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 562 में यह प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी ने उसके कथन में बतलाया की 39 लाख रूपये का चेक ग्वालियर में उसके घर पर अभियुक्त द्वारा दिया गया अतः ग्वालियर न्यायालय को क्षेत्राधिकार बनेगा।
35.     क्या व्यवहार वाद का लंबित रहना दांडिक प्रकरण की कार्यवाही के लिए बार या बाधा है?
नहीं, न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध मेसर्स कल्याण सुंदरम सीमेन्ट, 1996 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट 61 (एस.सी.) अवलोकनीय हैं।
36.     क्या एक ही वाद कारण पर धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद व धन वसूली का वाद चलने योग्य है ?
हाॅं, न्याय दृष्टांत डी. पुरूसोत्तम रेड्डी विरूद्ध के. सतीश, (2008) 8 एस.सी.सी. 505 अवलोकनीय हैं।
     37.     क्या व्यवहार वाद में पारित निर्णय दांडिक कार्यवाही को प्रभावित करता है ?
नहीं, ऐसा निर्णय दांडिक न्यायालय पर बंधनकारी नहीं हैं। न्याय दृष्टांत के.जी. प्रेम शंकर विरूद्ध इंस्पेक्टर आॅफ पोलिस, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 3372 अवलोकनीय हैं साथ ही न्याय दृष्टांत एम.एस. शेरीफ विरूद्ध स्टेट आॅफ मद्रास, ए.आई.आर. 1954   एस.सी. 397 और अनिल बिहारी घोष विरूद्ध श्रीमती लतिका बेला दासी, ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 566 भी अवलोकनीय हैं।
13.     संशोधन
38.     परिवादी के हस्ताक्षर के बिना परिवाद पेश किया गया क्या ऐसी त्रुटि सुधारने योग्य हैं ?
धारा 138 एन.आई. एक्ट का परिवाद परिवादी के हस्ताक्षर के बिना प्रस्तुत किया गया था वह उसकी गलती सुधारने का भी इच्छुक है विपक्षी के हितो ंपर प्रतिकूल असर डाले बिना यदि त्रुटि सुधारी जा सकती है तो उसकी अनुमति दी जाना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती शशी श्रीवास्तव विरूद्ध जगदीश सिंह, 2007 (4) एम.पी.एच.टी. 480 अवलोकनीय हैं।
39.     क्या चेक नंबर में हुई टंकन त्रुटि सुधारने के लिए संशोधन आवेदन स्वीकार किया जा सकता है ?
अंतिम तर्क की स्टेज पर परिवादी ने चेक नंबर में सुधार के लिए संशोधन आवेदन दिया ऐसी टंकन त्रुटि सुधारने के लिए संशोधन आवेदन न्याय हित में स्वीकार किया जाना चाहिए अवलोकनीय न्याय दृष्टांत पंडित गोरे लाल विरूद्ध राहुल पंजाबी, 2009 (5) एम.पी.एच.टी. 323 ।
14.     आदेशिका जारी करने के आदेश को वापस लेने की शक्ति
     40.     क्या मजिस्टेªट अपने द्वारा जारी आदेश को वापस ले सकता है ?
नहीं, न्याय दृष्टांत सुब्रमणयम सेतू रमण विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 2005 (1) एम.पी.एल.जे. 241 (एस.सी.) में यह प्रतिपािदत किया गया है कि मजिस्टेªट अपने ही द्वारा जारी आदेशिका के आदेश को वापस नहीं ले सकते इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि समंन मामले में उन्मोचन या डिस्चार्ज की कोई स्टेज नहीं होती है बल्कि एक बार अपराध विवरण सुना देने के बाद या तो दोषसिद्धि होती है या दोष मुक्ति होती हैं। इस मामले में न्याय दृष्टांत अदालत प्रसाद विरूद्ध रूपलाल जिंदल, 2004 (4) एम.पी.एल.जे. 1  एस.सी. को भी विचार में लिया गया।
15.     विचारण में परिवर्तन
41.     क्या धारा 143 एन.आई. एक्ट के तहत संक्षिप्त विचारण को धारा 259 दं.प्र.सं. के तहत वारंट विचारण में परिवर्तित किया जा सकता है ?
नहीं, न्याय दृष्टांत स्टील ट्यूबस आॅफ इंडिया विरूद्ध स्टील आॅथोरटी आॅफ इंडिया, 2006 (1) एम.पी.एल.जे. 194 अवलोकनीय हैं।
16.     परिवाद का वापस लिया जाना /समझौता /लोक अदालत का अवार्ड
     42.     परिवाद वापस लेने का आदेश देते समय क्या तथ्य ध्यान में रखना चाहिए ?
न्याय दृष्टांत प्रोविडेट फंड इंस्पेक्टर विरूद्ध मधु सुदन चैधरी, (2002) 9 एस.सी.सी. 509 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मजिस्टेªट को यह संतुष्टि कर लेना चाहिए की परिवाद वापस लेने की अनुमति देने की पर्याप्त आधार है।
43.     क्या अपील के स्टेज पर धारा 138 एन.आई. एक्ट में समझौता किया जा सकता है ?
न्याय दृष्टांत के.एम. इब्राहिम विरूद्ध के.पी. मोहम्मद, (2010) 1 एस.सी.सी. 798 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 147 एन.आई. एक्ट के प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता पर अधिभावी प्रभाव रखते है और अपील के स्टेज पर भी परिवादी समझौता कर सकता हैं।
44.     प्रकरण के अंतिम स्टेज पर समझौता करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत दमोदर एस. प्रभु विरूद्ध सैयद बाबा लाल एच. ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1907 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ में कुछ दिशा निर्देश जारी किये गये है जो इस प्रकार है:-
1.     यदि अभियुक्त प्रकरण का सूचना पत्र मिलने के बाद पहली या दूसरी सुनवाई पर समझौता आवेदन पत्र प्रस्तुत करता है तब कोई कास्ट नहीं लगाई जायेगी।
2.     इसके बाद समझौता होने पर चेक की राशि का दस प्रतिशत उसे विधिक सेवा प्राधिकरण में राजीनामा शुल्क के रूप में जमा कराना होगा।
3.     यदि समझौता अभियुक्त सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में अपील या रिविजन के दौरान करता है तब चेक राशि का 15 प्रतिशत कास्ट देना होता हैं।
4.     सर्वोच्च न्यायालय में समझौता होने पर चेक राशि का 20 प्रतिशत कास्ट देना होता हैं।
उक्त कास्ट विधिक सेवा प्राधिकारण में जिस स्तर के लिए न्यायालय पर समझौता हुआ वहां जमा करवाना होगा न्यायालय मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में कारण लिखते हुए उक्त कास्ट की रािश को कम कर सकता है।
45.     यदि अभिभाषक जिसे पक्षकार की ओर से प्राधिकार दिया गया हो वह उसके हस्ताक्षर से समझौता प्रस्तुत करता है तो ऐसा समझौता पक्षकार पर बंधकारी होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत आर. राजेशवरी विरूद्ध एच.एन. जगदीश (2008)4 एस.सी.सी. 82 अवलोकनीय हैं।
46.     क्या वर्ष 2002 के संशोधन धारा 147 एन.आई. एक्ट के पूर्व के प्रकरण में भी समझौता किया जा सकता है ?
हाॅं, क्योंकि यह प्रक्रियात्मक प्रावधान है अतः यह लंबित मामलों पर लागू होगा इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत कांता विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. 2005 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 69 अवलोकनीय हैं।
16.     वारंट जारी किया जाना
47.     क्या परिवाद पर संस्थित मामलों में प्रथम बार में ही जमानतीय या अजमानतीय वारंट जारी किया जाना उचित है ?
न्याय दृष्टांत इन्द्र मोहन गोस्वामी विरूद्ध स्टेट आॅफ उत्तरांचल, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 251 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि अजमानतीय वारंट जारी किया जाना व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करता है और यह किसी व्यक्ति के अत्यंत मूल्यवान अधिकारों का हनन भी करता है अतः न्यायालय को अजमानतीय वारंट जारी करने से पूर्व अत्यंत सावधान रहना चाहिए किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता मूल्यवान है वहीं समाज का हित और कानून और व्यवस्था भी मूल्यवान है किसी भी सभ्य समाज के जीवित रहने के लिए दोनों बहुत महत्व के है कभी-कभी लोक हित को देखते हुये यह आवश्यक हो जाता है कि किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कुछ समय के लिए बाधित किया जाये तभी अजमानतीय वारंट जारी किया जाना चाहिए।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में दिशा निर्देश जारी किये है और बतलाया है कि किसी व्यक्ति की न्यायालय में उपस्थिति के लिए समंन या जमानती वारंट के स्थान पर गिरफ्तारी वारंट तभी जारी किया जाना चाहिए जब:-
1.     यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार है कि वह व्यक्ति स्वेच्छा से न्यायालय में उपस्थित नहीं होगा।
2.     या पुलिस प्राधिकारी उस व्यक्ति पर उसे ढूंढकर संमन तामील करने में असमर्थ है।
3.     यदि उस व्यक्ति को तत्काल अभिरक्षा में नहीं लिया गया तो वह किसी अन्य को हानि पहुंचा सकता है।
जहां तक संभव हो किसी व्यक्ति की उपस्थिति के संमन जारी करना चाहिए और जमानतीय या अजमानतीय वारंट मस्तिष्क के पूर्ण प्रयोग के बिना और तथ्यों के छानबीन किये बिना जारी नहीं करना  चाहिए।
परिवाद मामालों मंे प्रथम बार में सामान्यतः संमन जारी करना चाहिए उसके बाद जमानतीय वारंट जारी करना चाहिए और जब न्यायालय संतुष्ट हो जाए तो संबंधित व्यक्ति न्यायालय के आदेशिकाओं को टाल रहा है तब गिरफ्तारी वारंट जारी करना चाहिए।
48.     क्या लोक अदालत द्वारा पारित किया गया अवार्ड धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले में, सिविल कोर्ट की डिक्री की तरह निष्पादन योग्य है ?
हाॅं, धारा 21 विधिक सेवा प्राधिकारण अधिनियम, 1987 में व्यवहार न्यायालय और दांडिक न्यायालय के बीच कोई भेद नहीं किया गया है अतः प्रत्येक अवार्ड, जिसमें की धारा 138    एन.आई. एक्ट के विवाद का समझौता भी शामिल है, जो लोक अदालत द्वारा पारित किया जाता है वह व्यवहार न्यायालय की डिक्री के समान प्रवर्तन योग्य होता हैं। न्याय दृष्टांत के.एन. गोविन्दन कुट्टी मेनन विरूद्ध सी.डी. शाजी सिविल अपील 10209 /2011 निर्णय दिनांक 28.11.11 ।
निर्णय के चरण 17 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि धारा 21 विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के प्रकाश में लोक अदालत द्वारा पारित अवार्ड व्यवहार न्यायालय की डिक्री की तरह निष्पादन योग्य होता है धारा 21 में व्यवहार न्यायालय या दंड न्यायालय के बीच कोई भेद नहीं किया गया है यहां तब की धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत निर्देशित किये गये मामले में भी लोक अदालत में जो समझौता होता है उसे डिक्री माना जाता है और व्यवहार न्यायालय में वह निष्पादन योग्य होता हैं।
17.     परिवाद में अभियुक्त के रूप में दिखाये गये व्यक्ति की स्थिति
49.     जांच के समय जब मजिस्टेªट परिवाद को ग्रहण करके जांच प्रारंभ करता है उस स्टेज पर परिवाद में अभियुक्त के रूप में दिखलाया व्यक्ति अभियुक्त की हैसियत प्राप्त नहीं कर लेता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मोहन मंडेलिया विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 562 अवलोकनीय हैं।


भाग - 2
ए.     वाद कारण /अन्य आवश्यकताएॅं
50.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के परिवाद के लिए वाद कारण कब उत्पन्न होता है धारा 138 एवं धारा 142 को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि इन मामलों में केवल एक वाद कारण उत्पन्न होता है जो धारा 138 (सी) एन.आई. एक्ट के तहत यदि चेक का लेखी वाल मांग सूचना पत्र की प्राप्ति के 15 दिन के अंदर उस व्यक्ति को जो चेक के अधीन राशि प्राप्त करने वाला हो या सामान्य अनुक्रम में चेक का धारक हो उसे चेक की राशि का संदाय करने में असफल रहता है तब धारा 142 (बी) के तहत उक्त वाद कारण उत्पन्न होने के 1 माह के भीतर परिवाद पेश होना चाहिए अर्थात धारा 138 (सी) के तहत 15 दिन की अवधि सूचना पत्र प्राप्ति के बीतने के 1 माह के भीतर परिवाद पेश होना चाहिए।
हलाकि धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए किसी ऋण या दायित्व की पूर्ति में चेक का जारी किया जाना उसका अनादरित होना मांग सूचना पत्र का दिया जाना उसके 15 दिन बाद भी भुगतान न किया जाना आदि कई बाते होती है लेकिन वाद कारण उक्त अनुसार धारा 138 (सी) के तहत उत्पन्न होता है जैसा की धारा 142 (बी) एन.आई. एक्ट में बतलाया गया है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सदानंदन विरूद्ध माधवन सुनील कुमार, 1998 (2) एम.पी.एल.जे. 422 एस.सी. अवलोकनीय हैं।
     51.     वेध रूप से वसूली योग्य ऋण या दायित्व क्या है ?
यदि समय बाधित ऋण के लिए चेक जारी किया गया तब भी उसे धारा 25 (3) भारतीय संविदा अधिनियम के तहत एक वेध व निष्पादन योग्य संविदा माना जाता है अतः वह भी वेध रूप से वसूली योग्य ऋण या दायित्व में आता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.वी. मूर्ति विरूद्ध बी.एस. नागाबासावम्म, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 985 अवलोकनीय हैं।
     52.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए कौन से तथ्य प्रमाणित होना आवश्यक होते है ?
         धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए निम्न तथ्य प्रमाणित होना आवश्यक होते है:-
1.     किसी ऋण या दायित्व के उन्मोचन के लिए चेक का जारी किया जाना और अनादरित होना।
     2.     चेक का नियत अवधि में भुगतान हेतु प्रस्तुत किया जाना।
3.     चेक के धारक द्वारा चेक जारी किये जाने वाले को लिखित में चेक की राशि की मांग के लिए सूचना पत्र निर्धारित अवधि के लिए दिया जाना।
4.     चेक जारी करने वाले सूचना पत्र प्राप्त होने पर भी 15 दिन के भीतर भुगतान करने में असफल रहना। इस संबंध में न्याय दृष्टांत मुसर्रफ हुसैन खान विरूद्ध भागी हीराथा इंजीनियारिंग लिमिटेड, (2006) 3 एस.सी.सी. 658 एवं प्रेम चंद विजय कुमार विरूद्ध यशपाल सिंह, (2005) 4 एस.सी.सी. 417 अवलोकनीय हैं।
53.     न्याय दृष्टांत रामला रूसिया विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2009 (4) एम.पी.एल.जे. 638 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 138 एन.आई. एक्ट के अपराध के लिए केवल चेक का जारी किया जाना पर्याप्त नहीं है बल्कि सभी आवश्यक तथ्य प्रमाणित होना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत डी.सी. एम. फायनेंसियल सर्विसेस लिमिटेड विरूद्ध जे.एन. सरिन, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2255 अवलोकनीय है।
     54.     दायित्व क्या है ?
न्याय दृष्टांत राजेन्द्र प्रसाद विरूद्ध सुखेस्वर, आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 1668 में यह प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी को एक प्लाट अभियुक्त द्वारा बेचा गया था उसने अर्थात अभियुक्त ने उसी प्लाट को परिवादी के ज्ञान के बिना पुनः विक्रय कर दिया और एक चेक 75 हजार रूपये का परिवादी को दे दिया ऐसे में यह नहीं माना गया कि वह चेक किसी दायित्व के उन्मोचन में दिया गया था इस न्याय दृष्टांत में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का शब्द दायित्व के क्रम में विचार किया गया।
बी.     ’’स्वयं’’ लिखते हुये चेक जारी करना
55.     परिवादी के पक्ष में अभियुक्त ने चेक जारी किया जो ’’सेल्फ’’ शब्द लिखते हुये जारी किया गया यह पाया गया कि चेक किसी ऋण या दायित्व के लिए जारी किया गया था चेक में ’’या वाहक को’’ अर्थात ’’आर बियरर’’ शब्द काटा नहीं गया था अतः धारा 138 एन.आई. एक्ट आकर्षित होगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत बाबू लाल जैन विरूद्ध केशव चंद जैन, 2007 (4) एम.पी.एच.टी. 371 अवलोकनीय हैं।
सी.     पे आॅडर के बारे में
     56.     क्या पे आॅडर धारा 138 एन.आई. एक्ट के क्रम में चेक होता है ?
हाॅं, न्याय दृष्टांत पंजाब एवं सिंद्ध बैंक विरूद्ध वीणाकार सहकारी बैंक लिमिटेड, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 3641।
डी.     चेक में तात्विक परिवर्तन के बारे में
57.     यदि चेक में उसे जारी करने वाले के सहमति से परिवर्तन किया गया है तब उसे जारी करने वाले अपने दायित्व से नहीं बच सकता क्योंकि चेक को जारी करने वाला उसे रिवेलीडेट कर सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत वीरा एक्सपोर्ट विरूद्ध टी. कालावत्थी (2002) 1 एस.सी.सी. 97 अवलोकनीय हैं।
ई.     जमानतदार द्वारा जारी किया गया चेक
58.     क्या जमानतदार द्वारा मूल ऋणी की ओर बकाया राशि के भुगतान हेतु जारी चेक अनादरित होने पर धारा 138 एन.आई. एक्ट लागू होगी ?
हाॅं, इस मामले में शब्द ’’वेयर एनी चेक’’ तथा लाईबेलिटी शब्द को स्पष्ट किया गया न्याय दृष्टांत आई.सी.डी.एस. लिमिटेड विरूद्ध बीना सबीर, (2002) 6 एस.सी.सी. 426 अवलोकनीय हैं।
59.     अभियुक्त व परिवादी के पिता के बीच के दूध के व्यवहार के सुरक्षा पेटे चेक जारी किये गये जो अनादरित हुये वे धारा 138 एन.आई. एक्ट की परिधि में नहीं आयेंगे इस संबध में न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध विजय, 2010 (3) एम.पी.एच.टी. 220 अवलोकनीय हैं।
एफ.     स्टाफ पेमेन्ट /खाता बंद /पोस्ट डेटेड चेक /अपूर्ण हस्ताक्षर /हस्ताक्षर न मिलना
60.     चेक को भुगतान हेतु प्रस्तुत किये जाने के पूर्व उसे जारी करने वाले ने बैंक को भुगतान रोकने के निर्देश दिये क्या चेक जारी करने वाला अपने दायित्व से बच सकता है ?
नहीं, इस संबंध में न्याय दृष्टांत मोदी सीमेन्ट विरूद्ध के.के. नंदी, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 1057 अवलोकनीय हैं।
61.     बैंक द्वारा चेक भुगतान किये बिना इस आधार पर लौटाये की खाता बंद है क्या यह चेक अनादरित होने के समान माना जायेगा ?
हाॅं, इसे अपर्याप्त निधि के कारण अनादरित होना माना जायेगा न्याय दृष्टांत एन.ई.पी.सी. मिकोन लिमिटेड विरूद्ध मागामा लेसिंग लिमिटेड, 2000 (1) एम.पी.एच.टी. 310 एस.सी. अवलोकनीय हैं।
62.     क्या खाता बंद कर देने के बाद उस खाते के जारी चेक धारा 138 एन.आई. एक्ट की परिधि में आयेंगे ?
हाॅं, इस संबंध में न्याय दृष्टांत पी.एन. शलीम विरूद्ध पी.जे. थोमस, 2004 सी.आर.एल.जे. 3096 अवलोकनीय हैं।
63.     चेक अपूर्ण हस्ताक्षर होने के आधार पर अनादरित हुये क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट का अपराध बनेगा ?
नहीं, क्योंकि इसे खाते में अपर्याप्त निधि के कारण चेक का अनादरन नहीं माना जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत विनोद ताना विरूद्ध जाहीर सिद्धकी, 2003 (1) एम.पी.एल.जे. 373 एस.सी. अवलोकनीय हैं।
64.     पोस्ट डेटेड चेक जारी किये गये चेक के तारीख के पहले उसे जारी करने वाले ने बैंक को भुगतान न करने के निर्देश दिये क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट लागू होगी ?
ऐसे अनादरित चेक में भी धारा 138 लागू होगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत गोवा प्लास्ट लिमिटेड विरूद्ध चिको यू. डिसूजा (2003) 3 एस.सी.सी. 232 अवलोकनीय हैं।
65.     पोस्ट डेटेड चेक में छः माह की अवधि किस तारीख से प्रारंभ होती है चेक की तारीख से चेक बैंक में भुगतान हेतु पेश करने की तारीख से ?
चेक पर अंकित तारीख से छः माह की अवधि की गणना होती है लिखी हुई तारीख तक पोस्ट डेटेड चेक बिल आॅफ एक्सचेंज रहते हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत अशोक यशवंत विरूद्ध सुरेन्द्र मधुराव, 2001 सी.आर.एल.जे. 1647 अवलोकनीय हैं।
66.     बैंक द्वारा चेक अपर्याप्त निधि को छोड़कर अन्य आधारों पर लौटाये गये जैसे हस्ताक्षर नहीं मिलते है ऐसे में धारा 138 एन.आई. एक्ट का अपराध नहीं बनेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजकुामर शुक्ला विरूद्ध सुबोध अग्निहोत्री, 2009 (5) एम.पी.एच.टी. 290 अवलोकनीय हैं।
जी.     समय बाधित ऋण हेतु चेक जारी करना
     67.     चेक समय बाधित ऋण के लिए जारी किया गया क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट का     अपराध बनेगा ?
धारा 25 (3) भारतीय संविदा अधिनियम के तहत समय बाधित ऋण को अदा करने का वचन देना भी वेध एवं निष्पादन योग्य संविदा होती है अतः धारा 138 एन.आई. एक्ट आकर्षित होगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत पी.एन. गोपी नाथन विरूद्ध सिवा दासन, 2007 सी.आर.एल.जे. 2776 (केरल) अवलोकनीय हैं।
68.     क्या समय बाधित ऋण के भुगतान हेतु दिये गये चेक के अनादरित होने पर धारा 138 एन.आई. एक्ट का अपराध बनेगा या पुनः प्रतिफल देना होगा ?
पुनः प्रतिफल देने की कोई आवश्यकता नहीं है जब समय बाधित ऋण के भुगतान का वचन दिया जाता है तो वह धारा 138 एन.आई. एक्ट की परिधि में ऐसे चेक के अनादरन होने पर आयेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत एच. नरसिम्हाराव विरूद्ध वेंकटरमन आर. 2007  सी.आर.एल.जे. 583 अवलोकनीय हैं।
एच.     चेक का प्रस्तुत किया जाना /बैंक का अर्थ
     69.     क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट में उल्लेखित बैंक में पेयी का बैंक भी शामिल है ?
नहीं, ड्रावर के बैंक में जहां उसका खाता है वहां 6 माह के भीतर चेक पेश होना चाहिए और उस बैंक से चेक अनादरित होना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्री इशार इलायस स्टील लिमिटेड विरूद्ध जयसवाल एन.ई.सी.ओ. लिमिटेड, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1161 अवलोकनीय हैं।
     70.     एक चेक कितनी बार संबंधित बैंक में भुगतान हेतु पेश किया जा सकता है ?
चेक की वैधता तिथि तक उसे कितनी भी बार भुगतान हेतु पेश कर सकते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सेन्ट्रल बैंक आॅफ इंडिया विरूद्ध सेक्शनस फर्म 2000 (1) एम.पी.एल.जे. 149 एस.सी. अवलोकनीय हैं।
     71.     वाद कारण किस सूचना पत्र से प्रारंभ होगा ?
चेक बैंक में प्रस्तुत किया गया वह अनादरित हुआ परिवादी ने अभियुक्त को सूचना पत्र दिया। चेक पुनः बैंक में पेश किया फिर अनादरित हुआ पुनः सूचना पत्र दिया दूसरे सूचना पत्र के बाद परिवाद पेश किया प्रथम सूचना पत्र के बाद परिवाद पेश नहीं किया विलंब क्षमा का आवेदन भी नहीं दिया प्रथम सूचना पत्र के बाद ही वाद कारण उत्पन्न हो जायेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत निशांत विरूद्ध प्रकाश चंद, आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 57 अवलोकनीय हैं।
     72.     चेक उसकी वैधता अवधि में कितनी ही बार भुगतान हेतु पेश कर सकते हैं।
चेक तीन बार बैंक में पेश किया तीनों बार अनादरित हुआ तीनों बार मांग सूचना पत्र भी दिये गये।
प्रथम सूचना पत्र गलत पते पर दिया गया। दूसरा सूचना पत्र ड्रावर की आपत्ति पर वापस लिया गया तीसरा सूचना पत्र तामील हुआ वाद कारण तीसरे सूचना पत्र से प्रारंभ होगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत एस.एल. कांस्ट्रक्शन विरूद्ध अलापाती श्रीनिवास राव (2009) 1 एस.सी.सी. 500 अवलोकनीय हैं।
73.     तीन मांग सूचना पत्र दिये गये प्रथम दो अनिर्वाहित लौटे तीसरा सूचना पत्र रजिस्र्टड पोस्ट से भेजा गया जो सम्यक रूप से तामील हुआ उसके 15 दिन के भीतर भुगतान नहीं किया गया वाद कारण तीसरे सूचना पत्र से उत्पन्न होगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत विश्वनाथ घोष विरूद्ध रमेश चंद्र सिंघी, 2010 वाल्यूम 2 एम.पी.जे.आर. 339 अवलोकनीय हैं।
74.     क्या आपराधिक परिवाद के लंबित रहने के दौरान चैक की राशि जमा करा देने से अभियुक्त दांडिक दायित्व से मुक्त हो जाता है ?
नहीं लेकिन इस तय को दंड देते समय ध्यान मंे रखा जा सकता है इस संबध में न्याय दृष्टांत रजनीश अग्रवाल विरूद्ध अमित जे. भल्ला, 2002 ए.एन.जे. एस.सी.



    
भाग - 3
नोटिस
75    क्या मांग सूचना पत्र धारा 138 (बी) एन.आई. एक्ट का चेक की राशि से कम राशि का दिया जा सकता है?
हाॅ, सूचना पत्र में यह स्पष्ट किया जाना चाहिए की चेक की राशि कितनी है और यदि उससे अधिक राशि की मांग की जा रही हेै तब पूरा ब्रेकअप दिया जाना चाहिए और यदि कम राशि की मांग की जा रही है तो उसका भी कारण दिया जाना चाहिए। इस संबंध में न्यायदृष्टांत बाकेत अग्रवाल वि0 स्टेट आॅफ एम0पी0, 2006 (2) एमपीएचटी 67 अवलोकनीय है जिसमें चेक की राशि 50,000/- रूपये थी मांग सूचना पत्र 45,000/- रूपये के लिए दिया गया था और 5000/- रूपये जो अभियुक्त ने अदा किये थे वे कम किये गये ऐसा सूचना पत्र में उल्लेख किया गया था।
        अतः इसे एक वैध सूचना पत्र माना गया।
76.    क्या धारा 138 एनआईएक्ट के मांग सूचना पत्र का कोई प्रारूप निर्धारित है?
नहीं, सूचना पत्र का कोई निर्धारित प्रारूप नहीं है धारा 138 (बी) एन आई एक्ट का सूचना पत्र देने का उददेश्य ड्रावर को उसके द्वारा भूगतान में की गई चूक को सुधारने का एक अवसर देना हे ताकि ईमानदारी से चेक जारी करने वाले को संरक्षण मिल सके सूचना पत्र दिया जाना परिवाद प्रस्तुत करने के लिए एक पूर्ववर्ति शर्त है सूचना पत्र में यह लिखा गया कि अप्रिय कार्यवाही से बचने के लिए कृपया भूगतान कर दे इसे स्पष्ट मांग सूचना पत्र माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया वि0 सेक्सनस फर्म, 2000 (1) एमपी एल जे 149 एससी अवलोकनीय है ।
77.    लिफाफे पर परिसर बंद पाया गया  या एड्ेसी नहीं मिला जिससे पृष्ठांकन को कुछ परिस्थितियों में लेने से इंकार के समान माना जा सकता है ।
यदि सूचना पत्र चेक जारी करने वाले पर तामिल हो जाता है या वह लेने से इंकार कर देता है तब स्थिति स्पष्ट रहती है लेकिन जहाॅं सूचना पत्र की तामील अभियुक्त पर कुछ कारणों से नहीं हो पाती है जैसे डिलेवरी के समय उसका उपलब्ध न होना या परिसर का ताला बंद पाया जाना जैसे मामलों में यदि यह मान लिया जाये कि सूचना पत्र की तामील नहीं हुई है तो यह अधिनियम के उद्देश्यों को विफल कर सकता है क्योंकि बंेईमानी पूर्वक चेक जारी करने वाले चेक जारी करने के पश्चात् कुछ समय के लिए गायब हो सकते है ऐसे में उन पर तामील नहीं हो पायेगी और उन्हें सूचना पत्र तामील होने के अभाव में अभियोजित भी नहीं किया जा सकेगा।
ऐसी परिस्थितियों के लिए यदि परिसर बंद पाया गया या एडेªसी ऐवीलेबल नही हुआ जैसे पृष्ठांकन के साथ डाक का लिफाफा मिलता है तो कुछ मामलों मे ंउसे नोटिस लेने से इंकार माना जा सकता हेै इस संबंध मे ंन्यायदृष्टांत डी0 बिनोद शिवप्पा वि0 नन्दा विरयप्पा, (2006) 6 एससीसी 456 अवलोकनीय है।
78.    क्या धारा 138 का मांग सूचना पत्र रजिस्र्टड डाक से देना आवश्यक होता है?
नहीं, धारा 138 का सूचना पत्र धारा 94  एन आई एक्ट के क्रम के लिखित में होना चाहिए उसका रजिस्टर्ड पोस्ट से दिया जाना आवश्यक नहीं है इस संबंध में न्यायदृष्टांत जनक  गांधी वि0 स्टेट आॅफ एम पी, 2005 (1) एमपीडब्ल्यू एन 1999 अवलोकनीय है।
79    सूचना पत्र ‘‘अन्यक्लेमड‘‘ के पृष्ठांकन से लौटा लेने से इंकार के पृष्ठांकन से नहीं लौटा तब क्या स्थिति बनेगी ?
सूचना पत्र सही पते पर भेजा गया धारा 27 साधारण खण्ड अधिनियम के तहत उपधारणा ली जा सकती है की सूचना पत्र की सम्यक तामील हुई है। ऐसे मामले में अभियुक्त उस उपधाराणा को खण्डित कर सकता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत के. भास्करन वि0 शंकरन वी बालन, एआईआर 1999 एससी 3762 अवलोकनीय है
80    क्या चैक की राशि की मांग का पत्र और न देने पर वैधानिक कार्यवाही की धमकी, धारा 138 (सी) एनआई एक्ट की परिधि में सूचना पत्र माना जायेगा ?
हाॅ, चेक की राशि की तुरंत अदायगी के लिये पत्र दिया गया जिसमें यह धमकी दी गई की यदि अदायगी नहीं की गई तो वैधानिक कार्यवाही की जायेगी यह धारा 138 (सी) के अंतर्गत मांग सूचना पत्र माना जायेगा।
इस संबंध में न्यायदृष्टांत कृष्णा एक्सपोर्ट वि0 राजू दास, 2006 (2) एमपी एच टी 437 एससी अवलोकनीय है।
81.    धारा 138 का सूचना पत्र दिया जाना प्रमाणित करना ?
परिवादी डाक रसीद एवं सूचना पत्र की कार्यालय प्रत प्रस्तुत कर के यह प्रमाणित कर सकता है कि उसने अभियुक्त को सूचना पत्र भेजा और ऐसी डाक रसीद के अभाव में रजिस्टर्ड पोस्ट से सूचना पत्र भेजे जाने की उपधारणा नहीं की जा सकती है । सूचना पत्र की तामीली भी प्रमाणित नहीं हुई है तब ऐसे मामलों में परिवादी द्वारा अभियुक्त को सूचना पत्र दिया जाना प्रमाणित नहीं माना जा सकता इस संबंध में न्यायदृष्टात एन0 के0 सबरवाल वि0 रउफ खान, 2006 (4)एमपीएलजे 545 अवलोकनीय है।
82    सूचना पत्र कम्पनी के बजाय उसके एमडी को दिया गया उसका क्या प्रभाव है?
चेक कम्पनी के एमडी ने हस्ताक्षर करके दिया था चेक अनादृत हुआ उसी एमडी को जिसने चेक पर हस्ताक्षर किये थे मांग सूचना पत्र दिया वह पर्याप्त है कम्पनी को सूचना पत्र आवश्यक नहीं है इस संबंध में न्यायदृष्टांत मेसर्स बिलाकचंद ज्ञानचंद वि0 ए0 चिन्ना स्वामी, एआईआर 1999 एस सी 2182 अवलोकनीय है।
83    कम्पनी के बजाय उसके संचालक को सूचना पत्र दिया जाना किन परिस्थितियों में पर्याप्त है?
चेक कम्पनी के बिहाफ पर उसके डायरेक्टर ने हस्ताक्षर करके जारी किया चेक अनादृत हुआ व कम्पनी के बजाय उसके डायरेक्टर को मांग सूचना पत्र दिया वह पर्याप्त है क्योकि सूचना पत्र जारी करने का उद्देश्य चेक अनादृण के तथ्य की जानकारी देना और चेक जारी करने वाले को उसके भुगतान का एक अवसर देना होता है इसे ध्यान रखना चाहिए और संकीर्ण तकनीकी मार्ग नहीं अपनाना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत रजनीश अग्रवाल वि0 अमित जे. भल्ला, (2002)एएनजे एससी 238 अवलोकनीय है।
84    क्या फेक्स से नोटिस देना वैध है?
फेक्स से सूचना पत्र दिया जाना वैधानिक है फेक्स से नोटिस देना परिवादी ने बतलाया अभियुक्त ने नोटिस मिलना स्वीकार किया अभियुक्त का यह मामला नहीं था कि उसे फेक्स नहीं पहुंचा इस संबंध में न्यायदृष्टांत सेल इम्पोर्ट यू0 एस0 वि0 मे0 एक्सीम ए0 एक्स0 एक्सपोर्ट, एआई आर 1999 एस सी 1609 अवलोकनीय है।
85    क्या चेक की राशि से अतिरिक्त राशि की मांग का सूचना पत्र वैध होता है?
हाॅ, चेक की राशि के साथ -साथ ब्याज, कास्ट आदि खर्च भी बतलाये गये है और उन्हें विशिष्ट रूप से बतलाकर जोडे गये है इससे सूचना पत्र अवैध नहीं हो जाता ।
यदि अभियुक्त चेक की रािश का 15 दिन के भीतर अदा कर देता है तब धारा 138 एनआई एक्ट का अपराध नहीं  बनेगा और अतिरिक्त राशि के लिए व्यवहार कार्यवाही की जा सकती है इस संबंध में न्यायदृष्टांत सुमन सेठी वि0 अजय के चुडीवाल, 2000 (2) एमपीएचटी 411 एससी अवलोकनीय है।
86    पंजीकृत डाक के सूचना पत्र के टालने पर क्या स्थिति बनेगी ?
पंजीकृत डाक से मांग सूचना पत्र अभियुक्त के सही पते पर भेजा गया परिवादी के लिये यह अभिवचन जरूरी नहीं है कि अभियुक्त सूचना पत्र टाल रहा है या सूचना पत्र अनिर्वाहित होने मे अभियुक्त की भूमिका है।
धारा 27 साधारण खण्ड अधिनियम की उपधाराणा बनेगाी आरोपी उसे खण्डित कर सकता है।
अभियुक्त परिवाद का सूचना पत्र मिलने पर 15 दिन के भीतर न्यायालय में राशि जमा कर सकता है और फिर सूचना पत्र न मिलने के तथ्य को चुनौती दे सकता हे और परिवाद खारिज करने की प्रार्थना कर सकता है। अभियुक्त समन मिलने के 15 दिन के भीतर राशि जमा नहीं कराता तो वह सूचना पत्र के उचित रीति से तामीली होने के बारे में परिवाद नहीं कर सकता । इस संबध में न्यायदृष्टांत सी0सी0 भल्लावी हाजी वि0 पालापेटटी मोहम्मद (2007) 6 एससी 555 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ अवलोकनीय है।
87    क्या परिवादी के लिए यह आवश्यक है कि वह सूचना पत्र में चेक की राशि का 15 दिन में भुगतान का तथ्य लिखे?
नहीं, यह सही वैधानिक स्थिति नहीं है कि यदि 15 दिन में भुगतान का तथ्य सूचना पत्र मे न लिखा हो तो परिवाद चलने योग्य नहीं होता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत धीरज सिंह वि0 सरदार सिंह, 2007 (4) एमपीएचटी 362 अवलोकनीय है।
88    क्या मांग सूचना पत्र में 10 दिन मे ंराशि अदा करने का लिख देने पर सूचना पत्र अवैध हो जाता है?
नहीं, सूचना पत्र में 15 दिन के बजाय 10 दिन मे ंराशि की मांग कर लेने से सूचना पत्र इस आधार पर अवैध नहीं हो जाता है सूचना पत्र की तामील आवश्यक है लेकिन सूचना पत्र में चेक की बकाया राशि का विशिष्ट रूप से उल्लेख नहीं हो तो उसे वैध सूचना पत्र नहीं कहा जा सकता साथ ही यदि परिवादी ने सूचना पत्र में चेक की रािश के बजाय बिलों की रािश की मांग की हो तो उसे वैध सूचना पत्र नहीं माना जा सकता। इस संबंध मे ंन्यायदृष्टांत मेसर्स राहुल बिल्डर्स वि0 मे0 अरिहन्त फर्टिलाइजर 2008, सी.आर.एल.जे. 452 एस.सी.अवलोकनीय है।
89    सूचना पत्र की तामील का प्रमाण ?
जहांॅ अभियुक्त ने सूचना पत्र का जवाब दिया है तो यह अभियुक्त पर मांग सूचना पत्र की तामील का पर्याप्त प्रमाण है इस संबंध में न्यायदृष्टात प्रकाश चंद वि0 सूरेश चंद 2008 (3) एमपी एच टी 66 अवलोकनीय है।
90    सूचना पत्र की वैधता के बारे में ?
अभियुक्त पर आठ लाख रूपया बकाया था उसने इस राशि के लिये दो लाख रूपये प्रत्येक के दो चेक परिवादी के पक्ष में जारी किये जिसमें से एक चेक अनादृत हुआ परिवादी ने उस चेक की राशि दो लाख रूपयें की मांग की बजाय मांग सूचना पत्र में पूरे आठ लाख रूपये की मांग की व न देने पर वैधानिक कार्यवाही करने का लिखा इसे वैध सूचना पत्र नहीं माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत महेन्द्रलाल शिवहरे वि0 स्टेट आॅफ एम पी, 2008 (3)   एम.पी.एल.जे. 102 अवलोकनीय है।
91    सही पते पर भेजे गये मांग सूचना पत्र के पृष्ठांकन के साथ लौटने के बारे में?
चेक अनादृत हुआ मांग सूचना पत्र सही पते पर भेजा गया जो पृष्ठांकन के साथ लौटा  ऐसे सूचना पत्र के तामील होने की उपधारणा की जाना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत मेसर्स इंडो आटोमोबाईल्स वि0 मेसर्स जयदुर्गा इन्टरप्राइजेस, एआइआर 2009 एस सी 396 अवलोकनीय है ।
92    सूचना पत्र तामील एक वैधानिक आवश्यकता?
मामले में प्राइवेट एजेन्ट से सूचना पत्र की तामील होना बतलाया गया प्राइवेट ऐजेन्ट से शपथ पत्र दिये की अभियुक्त कम्पनी का परिसर बंद था और संचालक ने सूचना पत्र की तामील टालने के लिए कम्पनी का कार्यालय स्थानांतरित किया ऐसे मामले में धारा 27 साधारण खण्ड अधिनियम की उपधारणा उपलब्ध नहीं होती है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत मेसर्स सर्व इन्वेस्टमेंट वि0 लायटस, 2008 सीआरएलजे 377 अवलोकनीय है।
93    सूचना पत्र की तामील के बारे में?
रजिस्टर्ड पोस्ट से सूचना पत्र भेजा गया पोस्ट मेन ने कई तारीखों पर तामील का प्रयास किया फिर नोटिस एडेªसी उपलब्ध नहीं के पृष्ठांकन से लौटाया। अभियुक्त ने उपधारणा को खण्डित भी नहीं किया नोटिस सम्यक रूप से तामील माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत मुजफर हुसैन वि0 देवेन्द्र त्रिवेदी, आई एल आर 2008 एमपी 2687 अवलोकनीय है।
94    क्या कम्पनी के अधिकारियों को पृथक सूचना पत्र दिये बिना और कम्पनी को अभियुक्त के रूप में परिवाद के शीर्षक के रूप में दिखलाये बिना परिवाद धारा 138 एनआई एक्ट में कम्पनी के अधिकारियों पर चलने योग्य है?
हाॅ, क्योकि कोई भी फर्म या कम्पनी मानव ऐजंेसी के बिना कार्य नहीं कर सकती और कम्पनी को अभियुक्त के रूप में दिखलाये बिना उसके प्रभारी अधिकारियों को जो कम्पनी के व्यापार के लिए उत्तरदायी हे अभियोजित किया जा सकता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत रामराज सिंह वि0 स्टेट आॅफ एम.पी., 2009 एआईआर एससी डब्ल्यू 3836 अवलोकनीय है।
95    दो मांग सूचना पत्र पर स्थिति ?
96    क्या धारा 434 कम्पनी अधिनियम के तहत दिया गया सूचना पत्र जो चेक की राशि के लिये है वह धारा 138 बी एन आई एक्ट की नोटिस की आवश्यकता को पूरा करता है?
हाॅ, धारा 434 कम्पनी अधिनियम के तहत दिया गया चेक राशि का मांग सूचना पत्र धारा 138 (बी) कम्पनी अधिनियम की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और उसे धारा 138 एन  आई एक्ट का सूचना पत्र माना जा सकता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत मेसर्स यूनी पाल्स इंडिया वि0 स्टेट, एआइआर 2008 एससी 2625 आवलोकनीय है।
97    दो अपलार्थीयों को अभियुक्त ने पृथक चेक जारी किये जो अनादृत हुये अभियुक्त को कामन/कन्सोलिडेस सूचना पत्र धारा 138 के तहत दिया गया क्या ऐसा सूचना पत्र अवैध होगा?
नहीं, ऐसा सूचना पत्र अवैध नहीं होगा इस संबंध में न्यायदृष्टांत के आर इंद्ररा वि0 डाॅ आदीनारायणा, (2003) 8 एससीसी 300 अवलोकनीय है।
98    सूचना पत्र की तामील के बारे में ?
प्रथम मांग सूचना पत्र दिया गया जो लिफाफा डिस्क्लेम किया गया चेक पुनः बैक में पेश किया पुनः मांग सूचना पत्र दिया उसके एक माह के भीतर परिवाद पेश किया गया जिसे अवधि बाधित नहीं माना गया इस संबंध में न्यायदृष्टांत मे0 डालमिया सीमेन्ट वि0 मे0 गलेक्सी टेªडर्स ए आइ आर 2001 एससी 676 अवलोकनीय है।
सूचना पत्र पंजीकृत डाक से भेजा गया धारा 27 साधारण खण्ड अधिनियम की उपधारणा लागू होगी 30 दिन में साधारणतः तामील मानी जा सकती है जहां स्पीड पोस्ट से सूचना पत्र भेजा गया हो वह कुछ दिन में तामील हो जाता है। आदेश 5 नियम 9 सी पी सी में  भी यदि 30 दिन में तामील नहीं होती है तब सूचनापत्र के तामील होने की उपधारणा की जाती है। अतः उक्त प्रकार की परिस्थितियों में 30 दिन में यह उपधारणा की जा सकती है कि तामील हो चुकी है इस संबंध में न्यायदृष्टांत सुबोध एस सालसकर वि0 जय प्रकाश एम शाॅह, एआइआर 2008 एससी 3086 अवलोकनीय है।
99    मांग सूचना पत्र की तामील ?
सूचना पत्र रजिस्र्टड एडी और यूपीसी दोनों से अभियुक्त के दो पतों पर भेजे गये जो पोस्टमैन के इस पृष्ठांकन के साथ लौटे कि एडेªसी पत्र के वितरण के समय उपलब्ध नहीं होता है। ऐसे मामलों में परिवादी के पक्ष में सूचना पत्र के तामील होने के उपधारणा करना चाहिए इस  संबंध में न्यायदृष्टांत बाबूलाल वि0 गफूर, 2010 (2) एमपीएलजे 121 अवलोकनीय है।

























भाग - 4
कंपनी द्वारा अपराध
100    क्या कम्पनी के विरूद्ध परिवाद में धारा 141 एन आई एक्ट की भाषा शब्दशः शब्द उतारना आवश्यक है?
नहीं, परिवाद को पूरा पढ़ना चाहिए यदि वह धारा 141 की आवश्यकताओं को पूरा करती है तब अतितकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाया जाना चाहिए और चेक अनादरण के मामलो को रोकना और व्यापारिक संव्यवहार की विश्वसनीयता को बनाये रखना धारा 138 और धारा 141 का मुख्य उद्देश्य है यह ध्यान रखना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत मोना बेन के शाह वि0 स्टेट आॅफ गुजराज, (2004) 7 एससीसी 15 अवलोकनीय है।
101    कम्पनी के विरूद्ध परिवाद में जहां संचालक और अन्य अधिकारियों के दायित्व का प्रश्न हो तब क्या देखना चाहिए?
न्यायदृष्टांत एम0 एस0 एम0 फारमा सूटिकल्स लिमिटेड वि0 नीता भल्ला एआइआर 2005 एस सी सी 3512 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि परिवाद में धारा 141 एन आइ एक्ट के तहत यह विशिष्ट रूप से वचन होना चाहिए कि जब अपराध किया गया तब अभियुक्त व्यक्ति कम्पनी के कार्य और व्यापार  के लिए प्रभार और उत्तरदायी था ऐसा अभिवचन परिवाद में होना धारा 141 एन आइ एक्ट के तहत अनिवार्य आवश्यकता है। और ऐसा अभिवचन किये बिना धारा 141 की आवश्यकता पूरी नहीं होती।
किसी व्यक्ति का कम्पनी का संचालक होना उसे धारा 141 एन आइ एक्ट के तहत उत्त्रदायी नहीं बना देता क्योकि कम्पनी के डायरेक्टर को कम्पनी के कार्य और व्यापार के लिए प्रभावी और उत्तरदायी होना स्वतः नहीं माना जा सकता क्योकि धारा 141 के तहत जो व्यक्ति कम्पनी के कार्य और व्यापार के लिये प्रभारी और उत्तरदायी अपराध के समय हो वही उत्तरदायी होता है। डायरेक्टर की डीम्ड लाइबलेटी नहीं होती है।
लेकिन कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर और ज्वाडायरेक्टर स्वीकृत रूप से कार्य और व्यापार के लिए प्रभारी और उत्तरदायी होते है।
इस न्यायदृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने तीन प्रश्न जिनके लिए मामला बड़ी बेंच को रेफर किया गया था उसके उत्तर दिये।
102    जो व्यक्ति चेक जारी होने क पूर्व कम्पनी के डायरेक्टर पद से त्याग पत्र दे देता है वह चेक अनादरण के लिए उत्तरदायी है?
        क्या कम्पनी की एन्यूवल रिर्टन की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक दस्तावेज है ?
    चेक जारी होने के पूर्व जो व्यक्ति डायरेक्टर के पद से त्याग पत्र दे देता है वह चेक अनादरण के लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता ऐसे मामलों में परिवादी का यह कत्र्तव्य है कि वह यह विशिष्ट रूप से उल्लेख करे की ऐसा डायरेक्टर कैसे और किस तरीके से उस कम्पनी के कार्य और व्यापार के उत्तरदायी माना जा सकता है।
कंपनी के एन्यूवल रिर्टन की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक दस्तावेज होती हैं इस संबंध में न्याय दृष्टांत अनिता मलहोत्रा विरूद्ध अप्पारेल एक्सपोर्ट, 2011 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 6535 अवलोकनीय हैं।
103.     कंपनी द्वारा चेक अनादरण के मामले में उसके अधिकारियों पर वायकेरियस दायित्व के लिए विधिक आवश्यकताएॅं क्या हैं ?
जो व्यक्ति कंपनी के कार्य और व्यापार के लिए उत्तरदायी होता है और कंपनी के कार्य और व्यापार का प्रभारी होता है वह कंपनी द्वारा किये गये अपराध के लिए वायकेरियस ली लायबल माना जाता है।
परिवाद में इस संबंध में आवश्यक अभिवचन किये जाने चाहिए यदि अभियुक्त मेनेजिंग डायरेक्टर या जोइंट डायरेक्टर हो तब ऐसे अभिवचन परिवाद में करना जरूरी नहीं होता है कि वह कंपनी के कार्य और व्यापार के लिए उत्तरदायी और प्रभारी हैं।
यदि अभियुक्त डायरेक्टर या कंपनी का अन्य अधिकारी हो जिसमें कंपनी के बीहाफ पर चेक पर हस्ताक्षर किये हो तब भी विशेष अभिवचन करने की आवश्यकता नहीं होती हैं। न्याय दृष्टांत के.के. आहूजा विरूद्ध वी.के. वोरा (2009) 10 एस.सी.सी. 48 में इस संबंध में आवश्यक विधि प्रतिपादित की गई हैं।
104.     न्याय दृष्टांत नेशनल स्माल इंडस्ट्रीज कारपोरेशन लिमिटेड विरूद्ध हरमीत सिंह, (2010) 3 एस.सी.सी. 310 में भी धारा 141 एन.आई. एक्ट के तहत वायकेरियस लायबिलिटी के बारे में व्याख्या की गई हैं और एन.आई. एक्ट और कंपनी अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों पर विचार करते हुये निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किये है:-
1.     परिवादी पर यह प्राथमिक दायित्व होता है की वह परिवाद में विधि में आवश्यक विशेष अभिवचन करे की अभियुक्त कैसे वायकेशरली लायबल है दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने में ऐसी कोई उपधारणा नहीं है कि प्रत्येक संचालन संव्यवहार के बारे में ज्ञान रखता हैं।
2.     धारा 141 एन.आई. एक्ट सभी संचालकों को अपराध के लिए दायी नहीं बनाता है आपराधिक दायित्व उन्हीं डायरेक्टर पर ड़ाला जा सकता है जो अपराध करते समय कंपनी के कार्य और व्यापार के प्रभारी और उसके लिए उत्तरदायी रहेंगा।
3.     कंपनी अधिनियम के तहत निगमित या पंजीकृत कंपनी के मामले में वायकेरियस लायबेलिटी तभी इंफर की जा सकती है जब आवश्यक अभिकथन जो परिवाद में होना आवश्यक हो किये गये हो की कैसे अभियुक्त कंपनी द्वारा किये गये अपराध के लिए वायकेशरली लायबल है अभिवचनों में यह भी होना चाहिए की अभियुक्त कंपनी के व्यापार का प्रभारी और उत्तरदायी रहा था और उसकी उसी स्थिति के कारण उसके विरूद्ध कार्यवाही करने के आधार हैं।
4.     वायकेरियस लायबेलिटि किसी व्यक्ति के विरूद्ध अभिवचन और प्रमाणित की जाना चाहिए इसे इंफर नहीं किया जा सकता।
5.     यदि अभियुक्त मेनेजिंग डायरेक्टर या जोइंट मेनेजिंग डायरेक्टर हो तब परिवाद में आवश्यक विशिष्ट अभिवचन करना जरूरी नहीं होता है क्योकि ये व्यक्ति उनकी स्थिति के कारण ही कार्यवाही के लिए उत्तदायी होते हैं।
6.     यदि अभियुक्त डायरेक्टर या अन्य अधिकारी हो और उसने चेक पर कंपनी के बीहाफ पर हस्ताक्षर किये हो तब उसके विरूद्ध विशेष अभिवचन करना आवश्यक नहीं होता हैं।
7.     व्यक्ति जो कंपनी के कार्य और व्यापार के लिए उत्तरदायी होना किसी विशेष समय पर बतलाया गया हो उसके बारे में तथ्यों के अभिवचन होना चाहिए ऐसे मामलों में डायरेक्टर की कोई डींम्ड लायबिलिटी नहीं मानी जा सकती।
इस तरह क्या कोई व्यक्ति किसी कंपनी द्वारा किये गये अपराध के लिए उत्तरदायी है इसे देखने के लिए उक्त सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए की कब कोई व्यक्ति कंपनी द्वारा किये गये अपराध के लिए उत्तरदायी रहता है और कब उसके बारे में परिवाद में आवश्यक अभिवचन जरूरी होते हैं।
105.     क्या किसी कंपनी द्वारा उसके डायरेक्टर आदि के बारे में कोई रजिस्टर रखा जाना आवश्यक होता है ?
न्याय दृष्टांत हरसेन्द्र कुमार डी. विरूद्ध रेबातीलता कोले (2011) 3 एस.सी.सी. 351 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्येक कंपनी को उसके पंजीकृत कार्यालय में एक रजिस्टर रखना है जिसमें उसके डायरेक्टर, मेनेजिंग डायरेक्टर, मेनेजर, सेकेट्री के बारे में विवरण हो जैसा की धारा 303 (1) के उप खण्ड ए से ई में बताया गया है धारा 303 (3) में दिये गये निर्देश के अनुसार प्रत्येक कंपनी के लिए यह आवश्यक है की वह उक्त विवरण का एक रिर्टन दो पर्त में रजिस्ट्रार को भेजे और उसके डायरेक्टर, मेनेजिंग डायरेक्टर, मेनेजर या सेकेट्री के बारे में कोई भी परिवर्तन होता है तब परिवर्तन की तारीख लिखते हुये कंपनी के रजिस्ट्रार को निर्धारित प्रारूप में 30 दिन के भीतर उस परिवर्तन की जानकारी भेजे।
इस तरह यह वैधानिक आवश्यकता है कि रजिस्ट्रार आॅफ कंपनी को कंपनी के डायरेक्टरर्स के बारे में हुये परिवर्तन की सूचना भेजी जावे।
न्यायालय की राय में इस मामले में डायरेक्टर जिसका त्याग पत्र कंपनी द्वारा स्वीकार किया जा चुका है और रजिस्ट्रार आॅफ कंपनीज को उसकी सम्यक रूप से सूचना भी दे दी गई है उसे उसके त्याग पत्र स्वीकार करने के बाद के कंपनी द्वारा किये गये किसी भी कृत्य के लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता क्योंकि धारा 141 (1) एन.आई. एक्ट के तहत ’’एवरी पर्सन हूम, एट दा टाईम आॅफेंस वाज कमीटेड’’ में यह स्पष्ट है कि किसी डायरेक्टर पर दाण्डिक दायित्व तभी बनेगा जब वह अपराध करने की तारीख पर कंपनी को डायरेक्टर हो।
106.     क्या किसी कंपनी की वायडिंग अप कार्यवाही प्रगति पर हो तब उसके डायरेक्टर को अभियोजित किया जा सकता है ?
हाॅं, अवलोकनीय न्याय दृष्टांत अनिल हाडा विरूद्ध इंडियन एकरेलिक लिमिटेड,  ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 145 अवलोकनीय हैं।
107.     दो कंपनीनियों के संयुक्त डायरेक्टर होने पर स्थिति ?
एक लिमिटेड कंपनी की अपनी पृथक लिगल एन्टेटी होती है और उसके डायरेक्टर एक पृथक वैधानिक व्यक्ति होता है लेकिन जहां दो कंपनीनियों का एक काॅमल डायरेक्टर हो और यह समझ परिवादी और काॅमल डायरेक्टर के बीच विकसित हो चुकी हो कि एक कंपनी को दिये गये माल के लिए भुगतान उसकी सिस्टर कंसर्न द्वारा किया जा सकता है इन तथ्यों और परिस्थितियों में एक कंपनी द्वारा जारी किये गये चेक को दूसरी कंपनी के ऋण या दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन में जारी किया गया चेक उपधारित किया जा सकता हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अनिल सकहार विरूद्ध मेसर्स श्रीनाथ स्पीनरर्स, ए.आई.आर. 2011   एस.सी. 2751 अवलोकनीय हैं।
108.     धारा 22 (1) सिक इंडस्ट्रीयल कंपनीस (स्पेशल प्रोविजनस) अधिनियम 1986 या सिका के बारे में ?
यदि धारा 138 एन.आई. एक्ट का अपराध कंपनी द्वारा धारा 22 (1) सिका के तहत कार्यवाही प्रारंभ होने के पहले पूर्ण हो चुका हो तब धारा 142 एन.आई. एक्ट के तहत कंपनी के विरूद्ध विधिवत संस्थित परिवाद के चलने के बारे में कोई रूकावट नहीं होती है क्योंकि जैसे ही धारा 138 का अपराध पूर्ण हो जाता है तब जो अभियोजन कार्यवाही चालू की जाती है वह चेक में कवर होने वाली राशि की वसूली के लिए नहीं होती है बल्कि अपराधी को दाण्डिक दायित्व के लिए लाने के लिए होती हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स बी.एस.आई. लिमिटेड विरूद्ध गिफ्ट हाॅलडिंग प्राईवेट लिमिटेड, ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 926 अवलोकनीय हैं।
109.     क्या किसी कंपनी को चेक की राशि के भुगतान की अवधि निकलने के पूर्व ही सिक घोषित कर चुकने के बाद उसके डायरेक्टर और कंपनी को अभियोजित किया जा सकता है ?
हाॅं, किन्तु ऐसा मामला जिसमें धारा 22 ए सिका के तहत डायरेक्शन बी.आई.एफ.आर. द्वारा जारी किये जा चुके हो वहां यह अपवाद होगा क्योकि ऐसी परिस्थिति में यह अयुक्तियुक्त होगा की ऐसे डायरेक्टर को दाण्डिक मामले में विचारण का सामना करने के लिए बाधित किया जाये इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स कुसुम इनगोट विरूद्ध मेसर्स पेन्नार पेटरशन,    ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 954 अवलोकनीय हैं।
110.     क्या किसी कंपनी के लिए वाइंडिग अप याचिका प्रस्तुत कर देने मात्र से वह चेक अनादरण के दाण्डिक दायित्व से बच सकती है ?
नहीं, न्याय दृष्टांत पंकज महरा विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र (2000) 2 एस.सी.सी. 756 अवलोकनीय हैं।
111.     क्या चेक जारी करने वाली कंपनी को अभियोजित किये बिना उसके डायरेक्टर को अभियोजित किया जा सकता है ?
हाॅं, इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स भिवानी डेनिम विरूद्ध मेसर्स भास्कर इंडस्ट्रीज, 2000 (4) एम.पी.एच.टी. 33 एन.ओ.सी. अवलोकनीय हैं।
112.     डायरेक्टर के कंपनी से त्याग पत्र दे देने पर उसके द्वारा जारी पोस्ट डेटेड चेक जो बाद में ड्यू हुए उन पर स्थिति ?
पोस्ट डेटेड चेक जारी करने वाले व्यक्ति द्वारा त्याग पत्र दे देने के बाद चेक भुगतान हेतु ड्यू हुये उस व्यक्ति ने परिवादी को उसके त्याग पत्र देने की सूचना दे दी ऐसे व्यक्ति के दायित्व के बारे में परिवाद में कोई विशेष अभिवचन नहीं किया परिवादी के लिए यह आवश्यक है की वह अभियुक्त के रूप में जोड़े गये प्रत्येक व्यक्ति के भूमिका के बारे में अभिवचन करे ऐसा अभिवचन नहीं था अतः उन्मोचन के आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया गया इस संबंध में  न्याय दृष्टांत डी.सी.एम. फायनेंसियल सर्विसेस विरूद्ध जे.एन. सरीम, (2008) 8 एस.सी.सी. 1 अवलोकनीय हैं।
113.     फर्म के भागीदार के विरूद्ध अभियोजन के बारे में ?
न्याय दृष्टांत काता सुजाता विरूद्ध फर्टीलाईजर एण्ड केमिकल त्रावण कोर, (2002) 7 एस.सी.सी. 655 में यह प्रतिपादित किया गया है कि फर्म के भागीदारी के विरूद्ध धारा 138 एन.आई. एक्ट के परिवाद में यदि वह फर्म के कार्य और व्यापार का प्रभारी और उसके लिए उत्तरदायी हो या अपराध उसके सहमति, सुविधा या उसके किसी उपेक्षा के कारण वह यह आवश्यक होता हैं तभी वह उत्तरदायी होता हैं।
114.    भागीदारी फर्म के जिस भागीदार ने चेक पर हस्ताक्षर किये थे उसकी मृत्यु हो गई अन्य भागीदारों को कोई सूचना पत्र जारी नहीं किया गया अन्य भागीदारों के विरूद्ध परिवाद पेश किया गया इस मामले में यह प्रतिपादित किया है कि अन्य भागीदार फर्म के कार्य और व्यापार के प्रभारी है या उसके लिए उत्तरदायी है यह विचारण के दौरान तय हो सकता है यदि धारा 138 एन.आई. एक्ट के अन्य तत्व स्पष्ट है या संतुष्ट होते है तब फर्म के उस भागीदार पर यह भार होता है कि वह यह दर्शावे की वह दोषी होने का उत्तरदायी नहीं हैं क्यांेकि उसकी शक्तियों पर कोई रोक थी या कोई विशेष परिस्थितियाॅं थी जो उसे उन्मुक्त करती हो ये ऐसे तथ्य है जो उस भागीदार के ज्ञान में है अतः विचारण में वह यह स्थापित कर सकता है की वह फर्म के कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं है या प्रभारी नहीं हैं। इस संबंध में न्याय दृष्टांत महावीर टेªडर्स विरूद्ध मेसर्स गंगाधर शर्मा, आई.एल.आर. (2009) एम.पी. 286 अवलोकनीय हैं।
115.     फर्म के सोल प्रोपराइटर के बारे में ?
परिवादी ने स्वयं को विजय आटोमोबाइल फर्म का सोल प्रोपराइटर बतलाते हुये परिवाद पेश किया लेकिन उसके सोल प्रोपराइटर होने के बारे में कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की केवल शपथ पत्र पर कथन किये वे पर्याप्त नहीं है परिवादी को यह स्थापित करना होता है की चेक उसके पक्ष में इसलिए जारी किया गया कि वह संबंधित कंसर्न का सोल प्रोपराइटर है और चेक का धारक है अन्य दशा में उसे परिवाद पेश करने का कोई लोकस स्टेण्डी नहीं होता हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत मिलिंद श्रीपाद चांदुरकर विरूद्ध कलीम एम. खान, (2011) 4 एस.सी.सी. 275 अवलोकनीय हैं।
116.     भागीदारी फर्म की ओर से जारी चेक के बारे में ?
फर्म के भागीदार ने यह अभिवचन किया कि फर्म का व्यापार और उसका नियंत्रण अन्य भागीदार जिसने की प्रश्नाधीन चेक पर हस्ताक्षर किये उसका था अतः इस भागीदार को फर्म के अन्य भागीदार के कृत्य के लिए दायी नहीं माना जा सकता। भागीदारी फर्म के सभी भागीदारों को सूचना पत्र जारी किये गये जिसका कोई उत्तर नहीं दिया गया की वह स्लिपिंग पाटनर है ऐसे में उस व्यक्ति के विरूद्ध कार्यवाही चलेगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत नरेश कुमार विरूद्ध श्रीमती प्रभा बाई, 2011 (4) एम.पी.एच.टी. 381 अवलोकनीय हैं।
117.     बिजनस कंसर्न और फर्म या कंपनी के बीच क्या अंतर है ?
न्याय दृष्टांत रघू लक्ष्मीनारायण विरूद्ध मेसर्स फाइन ट्यूबस, 2007 सी.आर.एल.जे. 2436 एस.सी. में इस अंतर को स्पष्ट किया गया हैं।
118.     क्या संयुक्त परिवार का व्यापार एक विधिक व्यक्ति, जैसा कि कंपनी या फर्म होती है, उसके समान है ?
एक संयुक्त परिवार का व्यापार भी कंपनी या फर्म के समान एक विधिक व्यक्ति होता है धारा 141 एन.आई. एक्ट के स्पष्टीकरण में, जो शब्द व्यक्तियों का कोई संगम या एशोसिएशन आॅफ इंडिज्यूअल्स काम में लिया गया है उसमें ट्रस्ट, क्लब, एच.यू.एफ. बिजनेश आदि शामिल हैं इस संबंध में  न्याय दृष्टांत दादा साहब रावल काॅपरेटिव बैंक विरूद्ध आर.जे. जैन, 2009 सी.आर.एल.जे. 67 बाॅम्बे उच्च न्यायालय अवलोकनीय हैं।
119.     क्या जहां परिवादी कंपनी या अन्य विधिक व्यक्ति हो वहां धारा 256 दं.प्र.सं. लागू होती है ?
हाॅं, न्याय दृष्टांत एशोसियेटेड सीमेन्ट कंपनी लिमिटेड विरूद्ध केशव चंद, ए.आई.आर. 1998 एस.सी. 596 अवलोकनीय हैं।
120.     क्या किसी कर्मचारी ने उसके व्यक्तिगत खाते से चेक जारी किया तब कंपनी के डायरेक्टर को दायी माना जा सकता हैं ?
न्याय दृष्टांत पी.जे. एग्रो लिमिटेड विरूद्ध वाटर बेस, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 2596 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि कंपनी के किसी कर्मचारी ने उसके व्यक्तिगत खाते से चेक जारी किया है चाहे वह चेक कंपनी के बकाया दायित्व के लिए हो तब भी कंपनी के डायरेक्टर को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता क्योंकि धारा 138 एन.आई. एक्ट के लिए चेक किसी व्यक्ति द्वारा उसके संचालित खाते से जारी होना चाहिए तभी दाण्डिक दायित्व बनेगा।
ऐसे चेक के लिए कंपनी पर उचित फाॅरम में राशि वसूली की कार्यवाही की जा सकती हैं लेकिन धारा 138 एन.आई. एक्ट आकर्षित नहीं होगी।

भाग - 5
साक्ष्य लेखन
ए.     साक्ष्य लेखन सामान्य, पावर आॅफ अटर्नी होल्डर की साक्ष्य
121    क्या पावर आॅफ अटर्नी होल्डर, प्रोपराइटरी कन्सर्न की ओर से कथन दे सकता है?   
हाॅ, जहाॅं प्रोपराइटरी कन्सर्न के प्रोपराइटर को व्यक्तिगत ज्ञान मामले के बारे में हो तब वह परिवाद पर हस्ताक्षर करता है और धारा 200 दं.प्र.सं. के तहत उसी परिक्षण किया जाना चाहिए।
लेकिन जहाॅं पावर आॅफ अटर्नी होल्डर परिवादी के व्यापार का प्रभारी हो और संव्यवहार की उसी को जानकारी हो और उसके द्वारा परिवाद पर हस्ताक्षर किया गया हो ऐसे में परिवादी के स्थान पर उसका परिक्षण किया जा सकता है। जहाॅं चेक प्रोपराइटरी कन्सर्न के प्रोपराइटर के नाम से जारी किया जाता है लेकिन उसके कर्मचारी को संव्यवहार की जानकारी होती है जो परिवादी का पावर आॅफ अटार्नी होल्डर नहीं होता है वहा परिवादी के और उस कर्मचारी के दोनों के कथन लेना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत शंकर फाइनेंस इन्वेस्टमेंट वि0 स्टेट आॅफ आंध्र प्रदेश, (2008) 8 एससीसी 536 अवलोकनीय है।
122     क्या पावर आॅफ अटार्नी होल्डर मुख्य व्यक्ति के स्थान पर कथन दे सकता है?
मुख्य व्यक्ति के ज्ञान में जो तथ्य है उनके बारे में पावर आॅफ अटर्नी होल्डर कथन नहीं कर सकता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत जानकी वासुदेव भोजवानी वि0 इंडु सिंड बैंक, एआइआर 2005 एससी 439 अवलोकनीय है।
123.    धारा 145 (1) एनआईएक्ट के तहत शपथ पत्र पर दी गई परिवादी की साक्ष्य के बारे में?
धारा 145 (1) एनआईएक्ट के तहत परिवादी का साक्ष्य जो शपथ पत्र पर लिया जा सकता है वह समस्त न्यायसंगत अपवादो के अधीन रहते हुये उक्त संहिता के अंतर्गत साक्ष्य किसी जाॅच विचारण या अन्य कार्यवाही में पढ़ा जा सकता है।
धारा 145 (2) के तहत अभियुक्त का अधिकार प्रतिपरीक्षण तक सीमित है उक्त शपथ पत्र मुख्य परीक्षण के तहत पढ़ा जायेगा और परिवादी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह मुख्य परीक्षण में कही गई बात पुनः दोहराये ।
धारा 145 (1) एनआई एक्ट के तहत शपथ पत्र पर साक्ष्य देने का अधिकार के वल परिवादी को है अभियुक्त को यह अधिकार उपलब्ध नहीं है इस संबंध में न्यायदृष्टांत मांडवी कोआपरेटीव बैक वि0 निमेश बी ठाकोर, (2010) 3 एससीसी 83 अवलोकनीय है।
124    क्या परिवादी के कथनों के पूर्व उसके गवाह के कथन लेखबद्ध कर लेने से कार्यवाही आरंभ से अंत तक दूषित हो जाती है?
नहीं, परिवादी के पूर्व उसके गवाह के कथन लेखबद्ध कर लेना मात्र एक अनियमितता है अवैधता नहीं है और इस आधार पर कार्यवाही समाप्त करना उचित नहीं माना गया। इस संबंध में अवलोकनीय न्यायदृष्टांत मोहन मंडेलिया वि0 स्टेट आफ एम0 पी0, आई एल आर 2011 एमपी 562 है।
125    धारा 145 एनआई एक्ट के उद्देश्य के बारे में?
धारा 145  एन आई एक्ट का संशोधन इसलिए किया गया है कि परिवादी अपनी साक्ष्य शपथ पत्र पर दे सके और उसे सभी न्यायसंगत अपवादों के अधीन रहते हुये पढ़ा जाता है। साक्षी को पुनः संमन करके मुख्य परीक्षण के  लिए बुलाया जाना आवश्यक नहीं होता है। इस संबंध में न्यायदृश्टांत  राधे श्याम गर्ग वि0 नरेश कुमार गुप्ता (2009) 13 एससीसी 201 अवलोकनीय है।
बी.    जाॅच के दौरान /समन जारी करने के स्टेज पर साक्ष्य लेखबद्ध करना
126.     क्या प्रसंज्ञान लेने की स्टेज पर परिवादी का शपथ पर परीक्षण धारा 138 एन आई एक्ट के मामले में आवश्यक होता है?
प्रसंज्ञान लेने के स्टेज पर परिवादी का शपथ पत्र पर साक्ष्य पर्याप्त होता है क्योकि धारा 145 एन आई एक्ट में भी किसी जाॅच विचारण या अन्य कार्यवाही में भी परिवादी का साक्ष्य शपथ पत्र पर दिया जा सकता है साथ ही धारा 145 (2) के तहत न्यायालय को यह विवेकाधिकार भी दिया है कि वह शपथ पत्र देने वाले व्यक्ति को समन कर सकता है और उसका परीक्षण कर सकता है।
लेकिन जहाॅ भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य विधि के तहत भी परिवाद किया गया  हो वहां परिवादी का शपथ पर परीक्षण आवश्यक होता है क्योकि उन मामलों में धारा 145 एन आई एक्ट के समान कोई विशेष प्रावधान शपथ पत्र पर समन लेने के लिए नहीं होते है। इस संबंध में अवलोकनीय न्यायदृष्टांत महेन्द्र कुमार वि0 आर्मस्ट्रांग, 2005 (2) एमपीएलजे 419 अवलोकनीय
127.    धारा 145 एनआई एक्ट के तहत क्या अभियुक्त भी उसके गवाह शपथ पत्र पर दे सकता है?
नही, अभियुक्त को शपथ पत्र पर अपनी ओर से साक्ष्य देने के  अधिकार नहीं होता है धारा 145 (1) एनआई एक्ट के तहत केवल परिवादी को शपथ पत्र पर अपनी साक्ष्य देने का अधिकार है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत सुरेश वि0 अशोक, 2008 वाल्यूम (2) एमपीएचटी 58 अवलोकनीय है।
128.    क्या परिवादी द्वारा शपथ पत्र पर दी गई साक्ष्य के आधार पर धारा 138 एनआई एक्ट के अपराध का संज्ञान दिीया जा सकता है?
हाॅ, ऐसी कोई विधिक आवश्यकता नहीं है कि परिवादी को धारा 200 दं.प्र.सं. के तहत कथन लेखबद्ध किया जाये इस संबंध में न्यायदृष्टांत जितेन्द्र सिंह वि0 भजन लाल, 2010 (2) एमपीजेआर 159 अवलोकनीय है।
129.    न्यायदृष्टांत अभिलाषा अग्निहोत्री वि0 दिलीप, आइएलआर 2009 एमपी 1836 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 145 एनआई एक्ट के तहत परिवादी का साक्ष्य शपथ पत्र पर लिया जा सकता है और धारा 200 एवं 202 दं.प्र.सं. के तहत परिवादी और उसके साक्षियों के कथन न्यायालय में होना आवश्यक नहीं है। शपथ पत्र पर कथन पर्याप्त है।
130.    न्यायदृष्टांत वंशीलाल वि0 अब्दुल मुन्नार, 2010 (1) एमपीएचटी 40 में परिवादी का धारा 200 दं.प्र.सं. के तहत शपथ पत्र पर न्यायालय में परिक्षण आवश्यक बतलाया गया है। लेकिन इस न्यायदृष्टांत में पूर्व के न्यायदृष्टांत उक्त महेन्द्र कुमार वि0 आर्मस्टांग, एवं जितेन्द्र सिंह वि0 भजनलाल को विचार में नहीं लिया गया है जो कि इस के पूर्व के न्यायदृष्टांत है ऐसी स्थिति में पूर्व के न्यायदृष्टांत बंधन कारी रहेगे और वैधानिक स्थिति यह बनती है कि परिवादी जाॅच में भी साक्ष्य शपथ पत्र पर दे सकता है और उसका न्यायालय में धारा 200 के तहत परीक्षण आवश्यक नहीं होता है।
131.    क्या मजिस्टेªट धारा 138 एनआई एक्ट के तहत  शपथ पत्र पर प्रसंज्ञान ले सकता है या धारा 200 दं.प्र.सं. के तहत परीक्षण आवश्यक है?
न्यायदृष्टांत याकूब खान वि0 प्रदीप श्रीमाल, 2011 (3) एमपीएलजे 178 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मजिस्ट्रेट शपथ पत्र के आधार पर प्रसंज्ञान ले सकता है।
132    न्यायदृष्टांत विनोद सिंह नेगी वि0 स्टेट आफ उत्तरांचल, 2005 सीआरएलजे 3827 में भी यही प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी धारा 200, 2002 दं0.प्र0सं0 के कथन शपथ पत्र पर दे सकता है ।
133    न्यायदृष्टांत राकेश शर्मा वि0 स्टेट आफ राजस्थान एआइआर 2010 एनओसी 785 में भी यही विधि प्रतिपादित की गई है कि धारा 138 एनआई एक्ट के अपराध का प्रसंज्ञान परिवादी के शपथ पत्र के आधार पर किया जा सकता है क्योकि धारा 145 एनआई एक्ट का  दं.प्र.सं. के प्रावधानों पर ओवर राइडिंग इफेक्ट होता है।



भाग-6
                         प्रमाण भार/उपधारणा/बचाव का अधिकार
134.   क्या परिवादी के सूचना पत्र के उत्तर में डिनाइल करना पर्याप्त है ?
चैक प्रतिफल के लिए जारी किया गया । इसके विपरीत प्रमाणित करने का भार अभियुक्त पर होता है । कोई साक्ष्य दिए बिना केवल डिनाइल करना प्रमाण भार को उन्मोचित नहीं करता है । धारा 118 एन.आई. एक्ट के तहत जब तक प्रतिकूल साबित नहीं किया जाता यह उपधारित किया जायेगा कि निगोशिएबिल इन्सटूमेंट प्रतिफल के लिए दिया गया है । धारा 139 एन.आई. एक्ट के तहत जब  तक अन्यथा साबित नहीं कर दिया जाये यह उपधारणा की जायेगी कि धारक ने वह चैक धारा 138 में उल्लेखित किसी ऋण या अन्य दायित्व के भागतः या पूर्णतः उन्मोचन के लिए प्राप्त किया है । ये उपधारणायें खण्डन योग्य होती हैं लेकिन अभियुक्त को कोजेन्ट एवीडेंस देकर यह प्रमाणित करना होता है कोई ऋण या दायित्व नहीं था । इस संबंध में न्याय दृष्टांत के.एन.बीना विरूद्ध मुनियाप्पन, 2002 (1) ए.एन.जे. एस.सी. 175 अवलोकनीय है ।
135.   प्रतिवादी पर यह प्रारंभिक भार रहता है कि वह यह दर्शाये कि प्रतिफल संदेहास्पद या अवैध या असंभाव्य है । केवल प्रतिफल से इंकार करना पर्याप्त नहीं है यदि प्रतिवादी अपना प्रमाण भार उन्मोचित कर देता है तब आनस वादी पर अंतरित हो जाता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत मालावारापू के. राव विरूद्ध टी.रामूलू फर्म, (2008) 7 एस.सी.सी. 655 अवलोकनीय है ।
136.   चैक अनादरण के मामले में प्रतिफल के प्रारंभिक प्रमाण भार के बारे में ?
ऋण या दायित्व का अस्तित्व प्रमाणित करने का प्रांरभिक भार परिवादी पर होता है । धारा 118 या धारा 139 एन.आई. एक्ट के कारण यह भार समाप्त नहीं हो जाता । इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत पी.वेणुगोपाल विरूद्ध मदन पी. सारथी, ए.आई.आर. 2009  एस.सी. 568 अवलोकनीय है । जिसमें न्याय दृष्टांत कृष्णा जर्नादन भट्ट विरूद्ध दाता रंगा जी. हेगड़े, (2008) 4 एस.सी.सी. 54 पर विश्वास करते हुए उक्त विधि प्रतिपादित की है ।
137.   धारा 139 एन.आई. एक्ट की उपधारणा के खण्डन के बारे में ?
चैक वूलन कारपेट खरीदने के क्रम में अभियुक्त द्वारा जारी किया जाना और अनादरित होना परिवादी ने बतलाया । अभियुक्त ने मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य पेश कर यह दर्शाया कि परिवादी ने विक्रय कर विभाग ने यह घोषित किया है कि सुसंगत समय अर्थात वर्ष 1995-95 में कोई वूलन कारपेट कोई बिक्री नहीं हुई । ऐसे में यह प्रतिपादित किया गया कि अभियुक्त ने यह प्रमाण भार उन्मोचित किया है कि चैक किसी ऋण या दायित्व के लिए प्राप्त नहीं किया गया था । अभियुक्त ने धारा 139 एन.आई. एक्ट की उपधारणा को खंडित किया है । अतः धारा 138 एन.आई. एक्ट का अपराध प्रमाणित नहीं माना है ।
एक बार यदि न्यायालय एक उपधारणा ले लेती है तब उपधारित कर सकेगा या उपधारित करेगा का अंतर समाप्त हो जाता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत कुमार एक्सपोर्ट विरूद्ध शर्मा कारपेट, (2009) 2 एस.सी.सी. 513 अवलोकनीय है ।
138      न्याय दृष्टांत एम.एस. नारायण मेनन विरूद्ध स्टेट आफ केरला, (2006) 6 एस.सी.सी. 39 में धारा 139 एन.आई. एक्ट की उपधारणा को खंडित करने के प्रमाण भार के स्तर के बारे में विवेचना की है । और ये स्तर एक प्रज्ञावान व्यक्ति के स्तर का प्रमाण भार होना चाहिए । निश्चायक स्तर का प्रमाण भार आवश्यक नहीं है ।
चैक जो सुरक्षा के लिए जारी किए गए उन्हें किसी ऋण या दायित्व के लिए जारी किया जाना नहीं माना जा सकता ।
139.   धारा 139 एवं 118 - ए एन.आई.एक्ट की उपधारणा के खंडन के बारे में ?
धारा 139 एवं धारा 118 - ए एन.आई.एक्ट की उपधारणायें खंडन योग्य हैं । लेकिन इनके खंडन के लिए युक्तियुक्त संदेह से परे स्तर के प्रमाण भार की आवश्यकता नहीं होती है । बल्कि अधिसंभावनाओं की प्रबलता के स्तर का प्रमाण भार होना चाहिए । उपधारणा खंडित हुई है या नहीं यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत कमला विरूद्ध विद्याधरन एम.जे., (2007) 5 एस.सी.सी. 264 अवलोकनीय है।
140.   वचन पत्र के बारे में ?
वचन पत्र एक निगोशिएबिल इन्स्टूमेंट होता है । उसका निष्पादन यदि स्वीकार कर लिया जाये या प्रमाणित हो जाये तब प्रतिफल के बारे में उपधारणा बनती है । जिसे खंडित किया जा सकता है । उपधारणा को मौखिक साक्ष्य से या अन्य साक्ष्य से खंडित किया जा सकता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत ताती पामूला नागाराजू विरूद्ध पत्तम पद्मावती,  ए.आई.आर. 2011 एस.सी.1499 अवलोकनीय है ।
141.   न्याय दृष्टांत मेसर्स मेप आटो लिमिटेड विरूद्ध अनिल कुमार 2008 (2) ए.पी.एच.टी. 201 में यह प्रतिपादित किया गया है कि परिवादी यह मामला लेकर आया कि अभियुक्त कंपनी ने खरीदे गये माल की कीमत पर चैक जारी किये गये थें जो अनादरित हुए परिवादी ने 138 एन.आई.एक्ट में परिवाद प्रस्तुत किया । अभियुक्त कम्पनी के अनुसार चैक सुरक्षा और गारण्टी के उद्देश्य से जारी किये गये थे । कोई माल न तो खरीदा गया न परिवादी द्वारा भेजा गया । परिवादी के साक्षियों ने यह स्वीकार किया कि चैक सुरक्षा बतौर जारी किये थे । अंतिम तर्क के स्टेज पर धारा 51 एवं धारा 311 द.प्र.सं. के आवेदन अभियुक्त की ओर से प्रस्तुत किये गये  कि परिवादी से व्यापारिक व्यवहार के बारे में दस्तावेज लेखा संबंधी कागजात आदि प्रस्तुत कराये जायें और परिवादी और उसके गवाह को अतिरिक्त प्रतिपरीक्षण के लिए बंुलाया जाये । इस प्रार्थना को स्वीकार उचित माना गया क्योंकि धारा 139 की उपधारणा में खंडित करने का भार अभियुक्त पर होता है ।
142 एंड 143. धारा 139 एन.आई. एक्ट की उपधारणा में विधिक रूप से वसूली योग्य ऋण या दाियत्व का अस्तित्व में होना शामिल होता है । न्यायदृष्टांत कृष्णा जर्नादन भट्ट विरूद्ध दाताराम जी. हेगड़, 2008 सी.आर.एल.जे. 1172 एस.सी. के निर्णय चरण 30 को एक अच्छी विधि या सही विधि नहीं होना बतलाया गया ।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत रंगप्पा विरूद्ध मोहन, ए.आई.आर. 2010 एस.सी.1898 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ अवलोकनीय है ।
144.    अभियुक्त द्वारा चैक के हस्ताक्षर के जेनुइन होने की हस्तलेख विशेषज्ञ से जांच कराने की प्रार्थना की । इस संबंध में स्थिति ?
न्यायालय की राय में अभियुक्त की प्रार्थना तंग करने योग्य या दाण्डिक कार्यवाही को लंबित करने के लिए हो । तभी ऐसी प्रार्थना अस्वीकार की जा सकती है । अन्य दशा में   अभियुक्त की प्रार्थना अस्वीकार करना स्वच्छ विचारण नहीं माना गया । इस संबंध में न्याय दृष्टांत कल्याणी भास्कर विरूद्ध एम.एस. सम्पूर्णम (2007) 2 एस.सी.सी. 258 अवलोकनीय है ।
145.   जहाॅं अभियुक्त ने विवादित चैक पर उसके हस्ताक्षर होना स्वीकार किया हो तब उपधारणा बनती है । ऐसे मामलों में हस्त विशेषज्ञ से चैक की जांच कराने के लिए भेजने का कोई औचित्य नहीं है । इस संबंध में न्यायदृष्टांत सतेन्द्र उपाध्याय विरूद्ध ओमप्रकाश राठौर, 2010 (5) एम.पी.एच.टी. 104 अवलोकनीय है ।
146.    जहाॅ अभियुक्त ने चैक के उस पर हस्ताक्षर से इंकार न किया हो । बैंक मैनेजर से इस संबंध में कोई प्रश्न नहीं किया तब चैक की हस्तलेख विशेषज्ञ से जांच से  कोई उपयोगी उद्देश्य  प्राप्त नहीं होगा । क्योंकि चैक के अन्य कालम अभियुक्त के निर्देश पर कोई भी भर सकता है न्याय दृष्टांत नरेन्द्र धाकड़ विरूद्ध आनंद कुमार, आइ.एल.आर. 2008 एम.पी. 1309 अवलोकनीय है ।
147.   न्याय दृष्टांत टी. नागप्पा विरूद्ध वाय.आर. मुरलीधर, (2008) 5 एस.सी.सी. 633 में यह प्रतिपादित किया गया है कि चैक पर हस्ताक्षर स्वीकार किये गये । लेकिन बचाव यह था कि चैक 1999 में 50,000/- रू के ऋण की सुरक्षा के बतौर जारी किया गया था । ऋण लौटा दिया गया । पर परिवादी ने चैक नहीं लौटाया और वर्ष 2004 में चैक में एक बड़ी राशि भरकर उसका दुृरूपयोग किया । चैक को एफ.एस.एल. एज आफ सिगनेचर के निर्धारण के लिए भेजने की प्रार्थना को अस्वीकार करना उचित नहीं माना गया ।
148.     न्याय दृष्टांत भारत बैरल एंड ड्रम मैनुफैक्चरिंग कम्पनी विरूद्ध अमीनचंद, (1999) 3 एस.सी.सी. 35 में प्रामेसरी नोट के प्रतिफल की उपधारणा को खंडित करने के बारे में विधि स्पष्ट की गयी है ।




भाग-7
दण्ड/ प्रतिकर

149.   धारा 427 द.प्र.स. के तहत समवर्ती दण्ड के लाभ के बारे में ?
अभियुक्त को सात विभिन्न परिवादियों द्वारा प्रस्तुत परिवाद प्रकरणों में दण्डित किया गया । इसे सात विभिन्न कृत्य माने गये । ऐसे में समवर्ती दण्ड या कन्करेंट सेन्टेन्स का लाभ अभियुक्त को नहीं दिया गया। न्याय दृष्टांत रेखा मिश्रा विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2011 (3) एम.पी.एल.जे.678 अवलोकनीय है ।
150.   क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट के दण्ड के निलंबन के समय अर्थदण्ड का एक भाग न्यायालय में जमा करने की शर्त अधिरोपित की जा सकती है ?
हाॅं, धारा 138 एन.आई. एक्ट के दण्ड को निलंबित करते समय न्यायालय को अर्थदण्ड का एक भाग निश्चित समय पर जमा कराने की शर्त लगाना चाहिए । जहाॅं अर्थदण्ड भारी मात्रा में हो वहाॅं उसका कुछ भाग जमा कराना चाहिए । न्याय दृष्टांत वाले मामले में बीस लाख रूपये अर्थदण्ड किया गया है । जिसमें से चार लाख रूपये जमा कराने के निर्देश दिये गये थे जो उचित माने गये । इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेनी फेलिक्स पिंटो विरूद्ध मेसर्स जनगीद बिल्डर्स, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 659 अवलोकनीय है ।
151.   दण्ड के बारे में कौशल्या देवी विरूद्ध रूपकिशोर, ए.आई.आर. 2011 एस.सी.सी.2566 अवलोकनीय है ।
152.   क्या जहाॅं अर्थदण्ड किया गया हो वहाॅं धारा 357 (3) दं.प्र.सं. के तहत प्रतिकर का आदेश किया जा सकता है ? दण्ड की मात्रा के बारे में ?
जहाॅं अर्थदण्ड किया गया हो वहां धारा 357 (3) दं.प्र.सं. 1973 के तहत प्रतिकर नहीं दिलवाया जा सकता ।
धारा 138 एन.आई.एक्ट के मामलों में उचित मात्रा में प्रतिकर दिलवाये जाने पर बल दिया गया । साथ ही यह भी प्रतिपादित किया गया कि जब तक धारा 138 एन.आई. एक्ट का मामला निपटता है तब तक व्यवहार वाद की परिसीमा निकल जाती है । अतः परिवादी के लिए कठिनाई होती है । मामले में दण्ड की मात्रा के  प्रश्नों पर प्रकाश डाला गया है । उल्लेखनीय न्याय दृष्टांत आर. विजियन विरूद्ध बेबी, 2011 (4) क्राइम्स 237 एस.सी. अवलोकनीय है।
153.   दण्ड की मात्रा के बारे में ?
चार लाख पचास हजार रूपये के चैक अनादरण के मामले में अभियुक्त को धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामलों में न्यायालय की सजा और पाॅच हजार तक का अर्थदण्ड किया गया। ऐसे अयुक्तियुक्त दण्ड का कोई न्यायसंगत कारण नहीं है । मजिस्टेªट को धारा 357(3) दं.प्र.सं. के तहत उचित प्रतिकर दिलवाना था और उसे चूक में दण्ड देने के आदेश के साथ लागू भी करवाना था । अवलोकनीय न्यायदृष्टांत सुगंधी सुरेश कुमार विरूद्ध जगदीशन, 2002 (1) ए.एन.जे. एस.सी. 363 अवलोकनीय है ।
154.   प्रतिकर के  सिविल वाद की डिग्री में समायोजन के बारे में ?
धारा 357 -5- से स्पष्ट है कि जो भी प्रतिकर दिलवाया जाता है । उसे व्यवहार वाद में पारित डिग्री में विचार में लिया जाता है । इस संबंध में न्यायदृष्टांत डी. पुरूषोत्तम रेड्डी के. सतीष (2008) 8 एस.सी. 505 अवलोकनीय है ।
155.   धारा 239 एवं 245 द.प्र.स. के लागू होने के बारे में ?
धारा 138 एन.आई. एक्ट का मामला समन मामला होता है । जिसमें धारा 239 एवं धारा 245 द.प्र.स. के प्रावधान लागू नहीं होते । ये प्रावधान वारण्ट मामलों में लागू होते हैं । यहाॅं तक कि धारा 258 की द.प्र.स. पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामले में लागू होती है । अतः मजिस्टेªट एक बार प्रसंज्ञान लेने के बाद अभियुक्त को उन्मोचित नहीं कर सकता । अवलोकनीय न्याय दृष्टांत गिरिराज पटवा विरूद्ध दयाराम, आई.एल.आर. 2008 एम.पी.3309 अवलोकनीय है । जिसमें न्यायदृष्टांत अदालत प्रसाद विरूद्ध रूपलाल जिंदल, (2004) 7 एस.सी.सी. 338 को विचार में लिया गया है ।  
156.   क्या न्यायालय धारा 357 (3) दं.प्र.सं. के तहत पारित प्रतिकर को निलंबित कर सकता है ?
हाॅं, न्याय दृष्टांत दिलीप एस. दाहोनकर विरूद्ध कोटक महेन्द्रा कम्पनी, (2007) 6 एस.सी.सी. 528 अवलोकनीय है ।
157.   क्या धारा 357 (3) दं.प्र.सं. के तहत प्रतिकर एक सहायक या गौड़ दण्ड है ?
नहीं, न्याय दृष्टांत के.ए. अब्बास विरूद्ध साबू जोसेफ, 2010 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू.  3398 अवलोकनीय है ।


भाग - 8
                     धारा 357 (3) दं.प्र.सं. के प्रतिकर को लागू करवाना
158.   क्या मजिस्टेªट युक्तियुक्त प्रतिकर अवार्ड कर सकता है । और उसे चूक होने पर दण्ड देकर प्रवर्तित करवा सकता है ?
न्याय दृष्टांत हरिकिशन विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, 1989 सी.आर.एल.जे.116 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मजिस्टेªट को युक्तियुक्त प्रतिकर निर्धारित करने की शक्तियां हैं  जिससे परिवादी के साथ न्याय हो सके और यह एक अपराध के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण भी है । सभी न्यायालयों में प्रतिकर की शक्तियों का उदारता से और न्याय के उद्देश्य को पाने के लिए प्रयोग करना चाहिए ।
न्यायालय प्रतिकर अदा करने में चूक होने पर दण्ड देकर भी आदेश को प्रवर्तित करा सकता है । अर्थात प्रतिकर के चूक होने पर दण्ड देने का आदेश कर सकता है ।
159.   न्याय दृष्टांत सुगंधी सुरेश कुमार विरूद्ध जगदीशन, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 681 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रतिकर के भुगतान के आदेश को चूक होने पर दण्ड देकर प्रवर्तित करवाया जा सकता है ।
160.   न्याय दृष्टांत विजयन विरूद्ध सदानंदन 2009 (2) एम.पी.जे.आर. 4113 एस.सी में भी यह विधि प्रतिपादित की गयी है कि न्यायालय जब प्रतिकर देने का आदेश करता है तो उसके साथ भी वह प्रतिकर अदा न करने पर दण्ड देने संबंधी भी आदेश कर सकता है ।



                                
भाग - 9
अपील
161.   क्या धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले में दोषमुक्ति होने पर परिवादी धारा 372      दं.प्र.सं. के तहत सत्र न्यायालय में अपील कर सकता है ?
नहीं, परिवादी को ऐसी दोषमुक्ति पर धारा 378 (4) दं.प्र.सं. के तहत उच्च न्यायालय में दोषमुक्ति के विरूद्ध अपील करने का उपचार उपलब्ध है ।
घारा 372 को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि इसमें विक्टिम में परिवाद मामलों का परिवादी शामिल नहीं है । धारा 372 दं.प्र.सं. में विक्टिम शब्द का प्रयोग किया है । जबकि धारा 378 (4) दं.प्र.सं. में शब्द परिवादी प्रयुक्त किया है ।
इस तरह जहाॅं न्यायिक मजिस्टेªट प्रथम श्रेणी द्वारा अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया जाता है और परिवादी उच्च न्यायालय में धारा 378 (4) दं.प्र.सं. के तहत अपील कर सकता है। और उसके बाद संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए विशेष अनुमति लेकर अपील कर सकता है । जबकि दोषसिद्धि के मामले में सत्र न्यायालय में अपील होती है । उसके बाद उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण या रिवीजन होती है । और उसके बाद संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत विशेष अनुमति याचिका लगाकर अपील की जा सकती है । 
अवलोकनीय न्याय दृष्टांत धरमवीर सिंह तोमर विरूद्ध रामराज्य सिंह, 2011 (1) एम.पी.एच.टी. 491 है ।



भाग - 10
विविध
1.     परम आदरणीय जिला एवं सत्र न्यायाधीश महोदय, मेडम जयश्री वर्मा जी,
    परम आदरणीय विशेष न्यायाधीश महोदय, मेडम करूणा एस. त्रिवेदी जी,
     परम आदरणीय अपर जिला जज देवास, श्री गजेन्द्र सिंह जी,
     उपस्थित सभी सम्माननीय न्यायाधीशगण।
2.     यह मेरे लिए अत्यंत सौभाग्य का विषय है कि आज तेरहवें वित्त आयोग के सौजन्य से अयोजित इस दसवें क्षेत्रीय कार्यक्रम में आप सबके साथ भाग लेने का अवसर उपलब्ध हुआ है जिसका विषय हैं:-
     द निगोशिएबल इंस्टूªमेंटस एक्ट
3.     मैं माननीय जिला जज महोदय एवं विशेष न्यायाधीश महोदय एवं श्री गजेन्द्र सिंह जी से निवेदन करता हॅूं कि वे दीप प्रज्वलित कर माॅं शारदा के चित्र पर माल्या अपर्ण कर कार्यक्रम प्रारंभ करने का कष्ट करें।
     धन्यवाद। मैं परम पिता परमेश्वर से कार्यक्रम के सफल और सुफल होने की कामना करता हॅूं।
4.     मैं पी.के व्यास ओ.एस.डी., ज्योत्रि आप सबका इस कार्यक्रम कें हार्दिक अभिनंदन और स्वागत करता हॅूं और आप सबसे यह अनुरोध करता हूॅं कि इस कार्यक्रम को एक इंट्रक्टिव व उपयोगी कार्यक्रम बनाने के लिए इसमें सक्रिय भागीदारी करे।
मैं आप सबसे अनुरोध करता हॅूं आप अपना नाम और पद नाम बतलाते हुये अपना परिचय देवे ताकि हम सब एक दूसरे से परिचित हो सके।
माननीय जिला जज महोदय, जयश्री वर्मा मेडम, 1981 बैच की वरिष्ठ न्यायाधीश हैं जिनके नेत्रत्व में आज का कार्यक्रम होना है मेडम करूणा त्रिवेदी, 1985 बैच की विशेष न्यायाधीश हैं जो राजगढ़ में पदस्थ है जिनका मार्गदर्शन कार्यक्रम में आगे हमें प्राप्त होगा, श्री गजेन्द्र सिंह जी, 1994 बैच के न्यायाधीश है और उन्होंने जम्प प्रमोशन परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है उनके ज्ञान का लाभ भी हमें प्राप्त होगा ।
5.     आज एन.आई. एक्ट का लिटिगेशन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है इंदौर जैसे महानगर में जिला न्यायालय स्तर पर लगभग 50 प्रतिशत लिटिगेशन एन.आई. एक्ट का है और यही स्थिति अन्य महानगरों की भी हैं व्यापार बढ़ रहा है ऋण के संव्यवहार बढ़ रहे है ऐसे में चेक से भुगतान और अन्य बैंकिंग गतिविधियाॅं भी तेज हो रही हैं।
एन.आई. एक्ट के मामलों में विचारण न्यायालय के स्तर पर /अपील न्यायालय के स्तर पर कई ऐसे प्रश्न उत्पन्न होते है जिनके उत्तर ढूंढने कठिनाई होती है जैसे:-
1.     न्यायिक मजिस्टेªट प्रथम श्रेणी को 10 हजार रूपये तक का अर्थदण्ड करने की शक्ति है जबकि एन.आई. एक्ट के मामले में चेक की राशि से दुगनी राशि तक का अर्थदण्ड करने के प्रावधान है ?
2.     धारा 143 एन.आई. एक्ट के तहत समरी ट्रायल मेनडेटरी कर दिया है और ऐसे में किसी मजिस्टेªट द्वारा लेखबद्ध साक्ष्य यदि प्रकरण का निराकरण उसी के सामने न हो और आने वाले मजिस्टेªट के सामने होता है तब क्या स्थिति बनेगी।
3.     कंपनी के मामले में सभी अधिकारियों को अभियुक्त बना दिया जाता है ऐसे में क्या होना चाहिए ?
4.     क्या धारा 200 के तहत परिवादी का परीक्षण करे या उस स्टेज पर भी धारा 145    एन.आई. एक्ट के तहत शपथ पत्र के रूप में कथन ले सकते हैं।
5.     परिवाद पेश करने में हुये विलंब को क्षमा करने का आवेदन आने पर क्या अभियुक्त को सुनना जरूरी है ?
6.     क्या दोषमुक्ति पर परिवादी धारा 372 दं.प्र.सं. के संशोधन हुये प्रकाश में सत्र न्यायालय में अपील कर सकता है ?
7.     क्या दण्ड न्यायालय कोई राशि वसूली का न्यायालय है जहां पर्याप्त अर्थदण्ड किया ही जावे ?
     8.     कंपनी के मामलों में परिवाद में कैसे अभिवचन होना चाहिए ?
और इस प्रकार के कई प्रश्न दिन प्रतिदिन के कार्य में उत्पन्न होते है और विभिन्न उच्च न्यायालयों के अलग-अलग न्याय दृष्टांत भी प्रस्तुत होते है यहां हम ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति क्या इसे लेकर उपस्थित हुये है और इस बावत् एक पठन सामग्री या रीडिंग मटेरीयल भी आपको उपलब्ध करवाया जा रहा है मैं और मंच ऐसे ही प्रश्नों पर आज आपके सामने चर्चा करेंगे यदि किसी न्यायाधीश द्वारा पूछा गया प्रश्न हमारी चर्चा में में शामिल हैं तो उसे चर्चा के दौरान लिया जायेगा अन्य दशा में उसका समाधान उसी समय करेंगे।
यहां इस परिचर्चा का उद्देश्य किसी को भी पढ़ाना नहीं है क्योंकि आप सबने एन.आई. एक्ट दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि पढ़ रखे हैं केवल विधिक प्रावधान इसलिए बतलाये जा रहे है की आगे भी चर्चा में सुविधा रहे।

एन.आई. एक्ट के महत्वपूर्ण प्रावधान
1.     धारा 138
2.     धारा 139
3.     धारा 140
4.     धारा 141
5.     धारा 142
6.     धारा 143
7.     धारा 144
8.     धारा 145
9.     धारा 146
10.     धारा 147
11.     धारा 118
12.     धारा 87
13.     धारा 117
14.     सेक्शन 18
दण्ड प्रक्रिया संहिता
1.     धारा 29
2.     धारा 357
भारतीय साक्ष्य अधिनियम
1.     धारा 114
साधारण खण्ड अधिनियम
1.     धारा 9
2.     धारा 10
3.     धारा 27
द बैंकर्स बुक एविडेन्स एक्ट
1.     धारा 2
2.     धारा 4 से 6
कोर्ट फीस एक्ट
1.     सिडयूल 2
म0प्र0 साहूकारी अधिनियम, 1934
1.     धारा 2 (7)
2.     धारा 10






भाग - 11
कंपनी के बारे में

1.     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एन.सी.टी. आॅफ देल्ही विरूद्ध राजीव कुमार, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 2986 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां प्रत्यार्थी जो की एक रीजनल टेक्निकल डायरेक्टर हो जो कंपनी के क्वालिटी कंट्रोल का काम देखता हो उसके बारे में परिवाद में ऐसे कोई विशेष अभिवचन न हो कि वह कंपनी के कार्य और व्यापार का प्रभारी और उत्तरदायी हैं तब कंपनी द्वारा किये गये अपराध के लिए उसे दांडिक विचारण भोगने का नहीं कहां जा सकता।
अतः कंपनी संबंधी मामलों में यदि ऐसे किसी टेक्निकल कार्य को देखने वाले व्यक्ति को ही अभियुक्त के रूप में जोड़ दिया जाये तब न्यायालय को परिवाद के अभिवचनों पर सावधानी पूर्वक विचार कर कार्यवाही करना चाहिए।
कंपनी को दण्डित करने के बारे में
1ए.     जहां कंपनी अभियुक्त हो वहां उसे कारावास का दण्ड नहीं दिया जा सकता लेकिन अर्थदण्ड किया जा सकता हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ऐसे मामलों में कंपनी के अन्य अधिकारियों को कारावास का दण्ड नहीं दिया जा सकता या कंपनी को अभियोजित नहीं किया जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत स्टेण्डर्ड चार्टटेड बैंक विरूद्ध डायरेक्टोरेट आॅफ इनफाॅर्समेंट, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 2622 में पांच न्याय मूर्तिगण की पीठ अवलोकनीय हैं।
1सी.     धारा 351 कंपनी अधिनियम के प्रकाश में एन.आई. एक्ट के मामले में स्वतः समझौता नहीं हो जाता है क्योंकि धारा 138 एन.आई. एक्ट के अपराध में समझौते के लिए परिवादी की सहमति अवश्यक होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत जे.आई.के. इंडस्ट्रीज विरूद्ध अमर लाल, क्रिमिनल अपील 263 /12 निर्णय दिनांक 1 फरवरी 2012 अवलोकनीय हैं।
संक्षिप्त विचारण के साक्ष्य के बारे में
2.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले को धारा 143 (1) एन.आई. एक्ट के तहत संक्षिप्त विचारण के रूप में चलाने मेनडेटरी होता है जबकि धारा 326 (3) दं.प्र.सं. 1973 के तहत संक्षिप्त विचारण प्रक्रिया पर यह प्रावधान लागू नहीं होता की भागतः एक न्यायाधीश या मजिस्टेªट द्वारा और भागतः दूसरे न्यायाधीश और मजिस्टेªट द्वारा लिखा गया साक्ष्य उत्तरवर्ती न्यायाधीश या मजिस्टेªट द्वारा पढ़ा जा सकता हैं।
अतः यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है की संक्षिप्त विचारण प्रक्रिया यदि अपनाते है और मामला उसी मजिस्टेªट के सामने नहीं निपटता तब उनके द्वारा लिखी गई साक्ष्य की उत्तरवर्ती मजिस्टेªट के लिए क्या स्थिति बनेगी।
सामान्यतः धारा 138 एन.आई. एक्ट में परिवादी का कथन धारा 145 एन.आई. एक्ट के तहत शपथ पत्र पर प्रस्तुत होता है और एक विस्तृत मुख्य परीक्षण प्रस्तुत होता है जिस पर विस्तृत प्रतिपरीक्षण भी होता है और साक्ष्य शब्द सह-शब्द लिखा जाता है न की साक्ष्य का सारांश लिखा जाता है ऐसे में विस्तृत रूप से लेखबद्ध साक्ष्य का उत्तरवर्ती मजिस्टेªट द्वारा उपयोग किया जा सकता है और ऐसे में धारा 326 (3) दं.प्र.सं. की भी बाधा नहीं आती हैं।
न्याय दृष्टांत जयकिशन कंजीवानी विरूद्ध मेसर्स कुमार मेचिंग सेन्टर, 2011   सी.आर.एल.जे. 134 बाॅम्बे उच्च न्यायालय से मार्गदर्शन लिया जा सकता हैं।
न्याय दृष्टांत नितिन भाई एस. साह विरूद्ध मन्नू भाई एम. पंचाल, (2011) 9   एस.सी.सी. 638 आपके सामने पेश किया जा सकता हैं लेकिन ध्यान रखिये जहां साक्ष्य वरबेटम या शब्द सह-शब्द लिखा गया है वहां उस साक्ष्य का उत्तरवर्ती मजिस्टेªट उपयोग कर सकता हैं।
सूचना पत्र के बारे में
3.     धारा 138 एन.आई. एक्ट के मामले में जब सूचना पत्र जारी करे तब इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना है कि सूचना पत्र में अभियुक्त को यह जानकारी दी जाना चाहिए की वह मामले में समझौता कर सकता है जैसा की न्याय दृष्टांत दमोदर एस. प्रभु विरूद्ध सैयद बाबालाल, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1907 में प्रतिपादित किया गया है और सूचना पत्र में उक्त तथ्य के उल्लेख के बाद यदि वह प्रथम या द्वितीय सुनवाई पर समझौता आवेदन प्रस्तुत करके समझौता नहीं करता है तो उस पर न्याय दृष्टांत में बतलाये अनुसार कास्ट लगाना होती हैं।
न्याय दृष्टांत आर. राजू विरूद्ध के. शिवा स्वामी, (2012) 1 एस.सी.सी. 223 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने समझौता किया था तब 50 हजार रूपये कास्ट अभियुक्त पर अधिरोपित की गई थी जो विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा करवाने के निर्देश भी दिये गये थे इस न्याय दृष्टांत से भी यही स्पष्ट है जहां अभियुक्त पहली या दूसरी पेशी के बाद समझौता करता है वहां समूचित मामले में कास्ट भी लगाई जा सकती है।
नोटिस संबंधी बचाव
4.     प्रश्न 86 के क्रम में यह स्पष्ट किया जाता है कि अभियुक्त ने यदि समंन मिलने के 15 दिन के भीतर न्यायालय में राशि जमा नही कराई है तब वह मांग सूचना पत्र के न मिलने या विधिवत तामील न होने के बारे में कोई बचाव पूरे विचारण या अपील में भी नहीं ले सकता।
वारंट के बारे में
5.     न्याय दृष्टांत रघूवंश दीवान चंद भासीन विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3393 में निर्णय के चरण 23 में गिरफ्तारी वारंट जारी करने के बारे में आवश्यक दिशा निर्देश दिये गये है जिनका प्रत्येक न्यायालय को पालन करना हैं।
प्रमाण भार के बारे में
6.     न्याय दृष्टांत विष्णु दत्त शर्मा विरूद्ध दया सपरा, (2009) 13 एस.सी.सी. 729 प्रमाण भार के संबंध में और 138 एन.आई. एक्ट में दोषमुक्ति हो जाने पर भी व्यवहार वाद के चलने योग्य होने के बारे में महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत हैं।
डबल जीयोपारडी के बारे में
7.     न्याय दृष्टांत कोला वीरा राघवराव विरूद्ध गोरांत ला वेंकेटेश्वर राव, 2011 सी.आर.एल.जे. 1094 एस.सी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां अपीलार्थी को धारा 138 एन.आई. एक्ट में दोषसिद्ध कर दिया गया हो वहां उसे उन्ही तथ्यों के आधार पर पुनः धारा 420 भा.दं.सं. के अपराध के लिए या भारतीय दण्ड संहिता के अन्य अपराध के लिए पुनः विचारित और दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता।






(पी.के. व्यास)
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी
न्यायिक अधि. प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान
उच्च न्यायालय जबलपुर म.प्र.







18 comments:

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  5. चेक पर हस्ताक्षर एवं चेक की अन्य प्रविष्टियों में प्रयुक्त स्याही में भिन्नता है इसके आधार पर क्या अभियुक्त को संदेह का लाभ मिल सकता है या नहीं इससे संबंधित कानूनी सलाह देने की कृपा की जाए

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  6. अभियुक्त के खिलाफ तीसरी बार वारंट निर्णय की स्टेज पर जारी हुआ वारंट तामील न होने पर जमानतदार के विरुद्ध व् अभियुक्त के विरुद्ध क्या कार्यवाही करे

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    1. अभियुक्त के विरुद्ध 82,83 crpc की कार्यवाही ओर जमानती के विरूद्ध नोटिस जारी होंगे जिससे अभियुक्त न्यायालय में आत्मसमर्पण कर सकता है ।

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  7. Dear sir चेक के केस मैं मजिस्ट्रेट द्वारा दो केस एक ही फैक्ट होने एक ही डेट के 2 चेक होने वादी प्रतिवादी एक होने नोटिस डेट एक होने एक ही डेट में वाद न्यायालय में दायर होने आदि के बाद भी विपक्षी की दोनों वाद को कंसोलिडेट करने के प्राथना पत्र को खारिज कर दिया जबकि 219,220 crpc में प्रावधान है
    मजिस्ट्रेट के इस आदेश का रिविजन सेशन न्यायालय में दायर किया गया है सेशन न्यायालय का कहना है कि ये आर्डर interlocutory आर्डर है रिवीजन पोषणीय नही है कृपया इस पर आप राय देने की कृपया करे हम क्या करे ।हम आपके जवाब की प्रतीक्षा में है
    धन्यवाद

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  8. कृपया मेरी उपरोक्त समस्या का हल बताने का कष्ट करें

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  9. रजिस्टर्ड सूचना पत्र इस पृष्ठांकन के साथ वापस आया कि प्राप्तकर्ता बाहर गया है क्या इसे तमिल मानी जाएगी

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    1. प्राप्त कर्ता बाहर गया है पोस्टमैन को कैसे पता पोस्ट मेन ये लिख सकता है बार बार जाने पर नही प्राप्तकर्ता नही मिला अगर इस कारण से वापस भेजा जाता है तो तामील मानी जायेगी।

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  10. अगर किसी व्यक्ति या दुकान ने कई बार मे सामान उधार खरीदा है और कुछ रुपया समय समय पर भुगतान किया है किन्तु कुछ समय के बाद जब उधारी की रकम ज्यादा हो गयी तो उसने भुगतान करना बंद कर दिया । इस अवस्था मे क्या उसके द्वारा दिया गया चेक जिस के पीछे (सिक्योरिटी के लिए) लिखा हो बाउंस होने पर नई एक्ट 138 में वाद लाया जा सकता है क्या कृपया मार्गदर्शन करें ।

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  11. दौरान वाद अभियुक्त की मृत्यु की दशा में क्या प्रक्रिया होगी

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  12. क्या काल बाधित ऋण के लिए एन आई एक्ट 138 मैं बैंक अपनी ऋण वसूली के लिए ऋणई द्वारा दिए गए चेक पर परिवाद दायर किया जा सकता है ??

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  13. धारा 138 एन.आई. एक्ट में मृतक परिवादी के बजाय उसके विधिक प्रतिनिधि ने परिवादी बनने का प्रार्थनापत्र पेश किया जो स्वीकार हो गया। लेकिन न्यायालय ने अपने निर्णय में मृतक परिवदी को पक्षकार के रूप में रखते हुए निर्णय पारित किया और विधिक प्रतिनिधि का कोई उल्लेख नहीं किया और न ही अपने निर्णय में उसकी मृत्यु होने का हवाला दिया। ऐसा निर्णय सही हैं क्या ?

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  14. Acquitted or convicted. Will have to appeal.

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