Monday 17 February 2014

निषेधाज्ञा

निषेधाज्ञा के बारे में


1.     परिभाषा:-     निषेधाज्ञा न्यायालय का एक विशेष आदेश है जो अवैध कृत्य की आशंका को रोकने या अवैध कृत्य जो प्रांरभ हो चुका है उसे बंद करने के लिए होता है।
2.     प्रकार:- धारा 36 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के तहत निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार, अस्थायी या शाश्वत व्यादेश द्वारा अनुदत्त किये जाते हैं। इस प्रकार निषेधाज्ञा या व्यादेश दो प्रकार के होते हैं, प्रथम अस्थायी एवं द्वितीय शाश्वत या स्थायी।
3.     अवधि:- धारा 37 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अनुसार अस्थायी व्यादेश वे होते हैं जो किसी विशेष समय तक के लिए या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश के लिए होते हैं और ये वाद की किसी भी स्टेज पर दिए जा सकते हैं इनके बारे में आदेश 39 नियम 1 एवं दो तथा घारा 94 सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में प्रावधान है।
शाश्वत या स्थायी व्यादेश मामले के गुणदोष पर सुनवायी के बाद दिये जा सकते हैं और उसके द्वारा प्रतिवादी को किसी कार्य को करने से जो वादी के अधिकारों के प्रतिकूल हो शाश्वत काल के लिए रोका जाता है।
इस प्रकार धारा 37 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में निषेधाज्ञा की अवधि बतलायी गयी है।
4.     विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष:- निषेधाज्ञा एक विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है और इस विवेकाधिकार का उपयोग न्यायिक रीति से करना चाहिए और इसके कुछ सिद्धांत बने हुए हैं निषेधाज्ञा चाहे अस्थायी हो या स्थायी उसमें मुख्य रूप से निम्न तीन  तथ्य देखे जाते हैं:-
ए.     प्रथम दृष्टया मामलाः- वादी का प्रथम दृष्टया ऐसा स्थापित मामला अस्थायी निषेधाज्ञा के लिए होना चाहिए जिसमें जांच के लिए एक विचारणीय प्रश्न निहित हो जो साक्ष्य लेकर ही तय हो सकता है और उसमें वादी के विजयी होने के प्रबल संभावना हो ।
स्थायी व्यादेश के समय यह देखा जाता है कि साक्ष्य से वादी ने अपना मामला प्रमाणित किया है या नहीं ।
बी.     अपूर्णीय क्षतिः- प्रत्येक क्षति अपूर्णीय क्षति नहीं होती है अपूर्णीय क्षति उसे कहते हैं जो किसी अवैध कृत्य का परिणाम हो और जिसे धन से नहीं तोला जा सकता हो ।
धारा 38 के उप पैरा 3 में स्थायी व्यादेश देने के जो सिद्धांत बतलाये गये हैं उसमें भी यह प्रावधान है जहां वास्तविक नुकसान या संभावित कारित नुकसान को निश्चित करने के लिए कोई पैमाना न हो या धन के रूप में प्रतिकर जहां उचित अनुतोष न हो वहां स्थायी व्यादेश दिया जाता है ।
सी.     सुविधा का संतुलनः- निषेधाज्ञा देने या न  देने से किस पक्ष को तुलनात्मक रूप से अधिक असुविधा होगी यह देखना होता है और इसी को सुविधा का संतुलन कहते हैं।
इस तरह प्रथम दृष्टया मामला सुविधा का संतुलन और अपूर्र्णीय क्षति के सिद्धांतों को स्थायी या अस्थायी व्यादेश देते समय ध्यान में रखा जाता है इस संबंध मंे न्याय दृष्टांत हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन विरूद्ध श्री नारायण (2002) 5 एस.सी.सी. 760 अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है अस्थायी निषेधाज्ञा देते समय जो सिद्धांत ध्यान में रखना चाहिये वे स्थायी निषेधाज्ञा के समय भी देखे जाने चाहिये।
5.     वाद प्रश्न:- स्थायी निषेधाज्ञा के मामलों में निम्न वाद प्रश्न अवश्य बनाना चाहिए:-
    1.     क्या वादी का वादग्रस्त संपत्ति पर आधिपत्य है ?
2.     क्या प्रतिवादी/ प्रतिवादीगण वादी के उक्त आधिपत्य में अवैध रूप से हस्तक्षेप करने के लिए प्रयासरत है ?
मामले के अभिवचनो के प्रकाश मे ंअन्य वाद प्रश्न बनाये जा सकते हैं लेकिन यदि तथ्य स्वीकृत न हो तो उक्त दो वाद प्रश्न अवश्य बनाये जाने चाहिए कयोंकि निषेधाज्ञा के मामले में वादग्रस्त संपत्ति पर वादी का आधिपत्य और उस आधिपत्य में हस्तक्षेप की आशंका महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं जिनके बारे में निष्कर्ष आना आवश्यक होता है।
6.      आधिपत्य के बारे में वैधानिक स्थिति:- न्यायदृष्टांत रामगोणा विरूद्ध एम. वरदप्पारत्न नायडू, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 4609 मे माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है किसी भी पक्ष में अपना स्वत्व प्रमाणित नहीं किया था वादी स्थापित आधिपत्य में पाया गया उसका आधिपत्य संरक्षित किया जाना चाहिए । निषेधाज्ञा ऐसे मामले में उचित है यह तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ का न्याय दृष्टांत है ।
न्याय दृष्टांत प्रताप राई एन.कोठारी विरूद्ध जानब्रेंगेंजा, ए.आई.आर. 1999  एस.सी. 166 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने इस निर्णय के चरण 11 में यह प्रतिपादित किया है ऐसा वाद जो लम्बे आधिपत्य के आधार पर है स्वत्व पर आधारित नहीं है ऐसे आधिपत्य को मूल स्वामी भी वैधानिक प्रक्रिया अपनाकर ही ले सकता है और ऐसे आधिपत्य के मामले में व्यादेश जारी किया गया ।
सह-स्वामी के बारे में:- यह स्थापित सिद्धांत है कि एक सहस्वामी के पक्ष में और दूसरे सह-स्वामी के विरूद्ध संपत्ति के आधिपत्य उपयोग और उपभोग को रोकने की निषेधाज्ञा नहीं दी जा सकती है।
जहां संयुक्त हिन्दु परिवार की संपत्ति में सह-स्वामी परस्पर सहमति से पृथक-पृथक आधिपत्य में है ऐसे पृथक एक मेव आधिपत्य की रक्षा के लिए निषेधाज्ञा दी जा सकती है । यह उक्त सामान्य नियमों का अपवाद है 
यदि सह-स्वामी वाद लंबित रहने के दौरान आधिपत्य विहीन कर दिया गया हो तो न्यायालय धारा 151 सी.पी.सी. के तहत आधिपत्य को प्रत्यावर्तित या रेस्टोर कर सकता है । इस संबंध में न्याय दृष्टांत तनुश्री वसु विरूद्ध ईशानिप्रसाद, (2008) 4 एस.सी.सी. 791 अवलोकनीय है ।
        खुली भूमि के बारे में:- खुली भूमि पर आधिपत्य वास्तविक स्वामी या टू आॅनर का माना जाता है और जो कोई इसके विपरीत कथन करता है उसे यह प्रमाणित करना होता है कि खुली भूमि पर उसका आधिपत्य है क्योंकि आधिपत्य स्वत्व का अनुशरण करता है या ‘पजेशन फालोस टाइटिल‘ का सिद्धांत लागू होता है ।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत अमृतलाल विरूद्ध केशरी प्रसाद, ए.आई.आर. 1978 एम.पी. 76 डी.बी. एवं नगरपालिका बीना विरूद्ध नंदलाल, ए.आई.आर. 1961 एम.पी. 212 निर्णय चरण चार उप पैरा 2 अवलोकनीय है ।
अतिक्रामक के बारे में:- निषेधाज्ञा का अनुतोष एक विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है जिसे सामान्यतः अतिक्रामक के पक्ष में प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए । यह एक साम्य पूर्ण अनुतोष भी है । अत इसे पाने वाले व्यक्ति को स्वच्छ हाथों से न्यायालय में आना चाहिए ।
चूंकि निषेधाज्ञा एक साम्यपूर्ण अनुतोष होती है । अतः जिस व्यक्ति का स्वयं का आचरण साम्यपूर्ण नहीं हो वह यह अनुतोष नहीं पा सकता है । एक मामले में वादी ने मकान खाली कराने का वाद लगाया । वाद आज्ञप्त हुआ निष्पादन में वादी को आधिपत्य भी मिल गया । प्रतिवादी किरायेदार ने अपील की । अपील मंजूर हुई । मकान का कब्जा वापस लौटाने का आदेश हुआ । वादी मकान मालिक ने निषेधाज्ञा का वाद लगाया कि उसके मकान के कब्जे में किरायेदार हस्तक्षेप नहीं करे । ऐसा व्यादेश नहीं दिया जा सकता । क्योंकि यह अपील न्याायलय के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप होगा । इस मामले में वादी का आचरण साम्यपूर्ण नहीं माना गया । न्याय दृष्टांत के सत्यनारायण विरूद्ध नम्मूदरी ए. रमैया, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 2010 इस संबंध में अवलोकनीय है ।
न्यायालय को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय ये तथ्य ध्यान में रखने चाहिए कि कौन स्थापित आधिपत्य में है और कौन अतिक्रामक है । स्थापित आधिपत्य के बारे में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दो न्याय दृष्टांत का उल्लेख पर किया गया है जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए साथ ही न्याय दृष्टांत शिवराम विरूद्ध देउ बाई 2006 (2) एम.पी.एल.जे. 450 भी अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां कोई व्यक्ति किसी भूमि के स्थापित आधिपत्य में हो वहां वह आधिपत्य विहीन किये जाने के विरूद्ध व्यादेश पा सकता है इस मामले में स्थापित आधिपत्य किसे माना जाये इसके बारे में भी कुछ दिशा निर्देश दिये गये है।
नगर निगम को अतिक्रमण हटाने का वैधानिक अधिकार है लोक स्थान पर बनाई गयी गुमटी को हटाने के विरूद्ध स्थायी व्यादेश दिया उसे उचित नहीं माना गया न्याय दृष्टांत इंदौर मुंशीपल काॅर्पोरेशन विरूद्ध कुदन लाल, 2005 (2) विधि भास्वर 217 अवलोकनीय है इस न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत फ्रेंडस् सी.पी.एस. सतपथ विरूद्ध आंध्रा बैंक पर विचार किया गया है जिसमें यह कहां गया है की स्थानीय प्राधिकारी का स्टाफ निरीक्षक और इंजीनियर होते है जिनका यह कत्र्तव्य होता है कि वे अवैध निर्माणों पर नजर रखे लेकिन वे या तो कार्य नहीं करते है या ऐसी अवैध गतिविधियों को समय पर निगम के ध्यान में नहीं लाते है।
7.     धारा 38 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम:- में जहां प्रतिवादी वादी के लिए संपत्ति का न्यासी हो, न्यायिक कार्यवाही का बाहुल्य रोकने के लिए व्यादेश आवश्यक हो और जहां धन के रूप में प्रतिकर उचित अनुतोष न हो या क्षति को निर्धारित करने का कोई पैमाना न हो वहां न्यायालय स्थायी व्यादेश दे सकता है अतः धारा 38 के सिद्धांतों को स्थायी व्यादेश देते समय ध्यान में रखना चाहिए और यदि संविदा पर आधारित मामला हो तब विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अध्याय 2 के प्रावधान भी ध्यान में रखना चाहिए ।
8.     आज्ञापक व्यादेश:- धारा 39 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में किसी बाध्यता के भंग को रोकने के लिए और कुछ कार्यों के पालन के लिए प्रतिवादी को विवश करना आवश्यक हो वहां न्यायालय अपने विवेक से भंग को रोकने के लिए और अपेक्षित कार्य के पालन को विवश करने के लिए व्यादेश दे सकता है ।
आज्ञापक व्यादेश बहुत सावघानी पूर्वक देना चाहिए इन मामलों में यह ध्यान रखना चाहिए कि वादी विलंब का दोषी तो नहीं है । न्यायदृष्टांत क्रोथापल्ली सत्यनारायण विरूद्ध कोगान्टी रमेश, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 452 में वादी ने आज्ञापक व्यादेश चाहा था अतिक्रमण का मामला था वादी ने नो वर्ष तक न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की । कार्यवाही के चार वर्ष बाद अतिक्रमण हटाने की प्रार्थना की वादी के ज्ञान में अतिक्रमण का तथ्य आ जाने के बाद भी उसने समय पर कार्यवाही नहीं की न्यायालय ने अतिक्रमण हटाने की प्रार्थना  अस्वीकार की।
जहां निर्माण तोड़ने के आज्ञापक व्यादेश का मामला हो वहां  स्वत्व की जांच के बिना आज्ञापक व्यादेश नहीं दिया जाना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृष्टांत गुरूनाथ मनोहर विरूद्ध नागेश सिद्धप्पा, ए.आईआर. 2008 एस. सी. 901 अवलोकनीय है ।
            अंतरिम रूप से अस्थायी आज्ञापक व्यादेश अपराध स्वरूप परिस्थितियों में देना चाहिए।
9.     न्यायदृष्टांत ज्ञानचंद विरूद्ध मोहनलाल, 2008 (3) एम.पी.एल.जे. 231 में माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय यह प्रतिपादित किया है कि कब आज्ञापक व्यादेश के स्थान पर प्रतिकर दिलवाना चाहिए और इस मामले में निम्न परिस्थितियां बतलायी हैं आज्ञापक व्यादेश के स्थान पर प्रतिकर को उचित माना है ।
1.     वादी के अधिकारों की क्षति अल्प या छोटी हो
2.     क्षति को धन में आंका जा सकता हो
3.     क्षति ऐसी हो जिसकी पूर्ति थोड़ा धन दिलवाकर करवायी जा सकती हो ।
4.     मामला ऐसा हो जिसमें निषेधाज्ञा जारी करना प्रतिवादी के लिए दमनात्मक या कठोर हो ।
उक्त परिस्थिति में आज्ञापक व्यादेश के स्थान पर प्रतिकर दिलवाना उचित माना गया है । इस मामले में विभिन्न न्याय दृष्टांतों पर विचार करके उक्त विधि प्रतिपादित की गयी है।
एक मामले में अस्थायी व्यादेश के आवेदन के निराकरण के साथ ही पूरा वाद निरस्त कर दिया गया इसे उचित नहीं माना गया क्योंकि न तो वाद प्रश्न बने थे और न ही प्रमाण हुआ था । इस संबंध में न्याय दृष्टांत मेसर्स आनंद एसोसिएशन विरूद्ध नागपुर विकास न्यास, ए.आई.आर. 2000 एस.सी. 550 अवलोकनीय है ।
10.     धारा 40 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम:- में व्यादेश के स्थान पर प्रतिकर दिलाने संबंधी प्रावधान है। जिसके अनुसार धारा 38 के तहत शाश्वत व्यादेश या धारा 39 के तहत आज्ञापक व्यादेश के किसी वाद में वादी या तो ऐसे व्यादेश के अतिरिक्त या उसके स्थान पर नुकसानी का दावा भी कर सकता है और न्यायालय यदि उचित समझे तो ऐसे नुकसान अधिनिर्णीत कर सकता है ।
वादी में यदि वाद पत्र में नुकसानी का अनुतोष नहीं मांगा हो तो उसे ऐसा अनुतोष नहीं दिलाया जायेगा लेकिन न्यायालय उचित मामले में वादी को वाद पत्र में संशोधन करने की अनुमति देगा ।
वादी के पक्ष में विद्यमान किसी बाध्यता के भंग को रोकने के बाद में यदि वाद खारिज हो जाता है तो वादी धारा 40 के उप पैरा 3 के अनुसार नुकसानी के लिए वाद नहीं ला सकेगा ।    
11.     धारा 41 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963:- ऐसे 10 कारण दिये हैं जब न्यायालय व्यादेश या निषेधाज्ञा नहीं देगा जो निम्न प्रकार से हैः-
1.     किसी व्यक्ति को किसी न्यायिक कार्यवाही के अभियोजन से अवरूद्ध करने या रोकने     के लिए कोई व्यादेश नहीं दिया जायेगा । जब तक कि ऐसा करना कार्यवाही की बहुलता को रोकने के लिए आवश्यक न हो ।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत काटन कोआपरेटिव विरूद्ध यूनाइटेड इंडस्ट्रीयल बैंक, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 1272 अवलोकनीय है । जिसमें यह प्रतिपादित किया है किसी व्यक्ति को किसी समान या वरिष्ठ न्यायालय में कार्यवाही संस्थित करने से रोकने का व्यादेश नहीं दिया जाना चाहिए  । 
वादी इंजीनियर था उसने उद्योग स्थापित करने के लिए स्टेट बैंक आॅफ इंडिया से एक बड़ी धनराशि उधार ली बैंक ने मांग सूचना पत्र ऋण के लिए जारी किया वादी ने निषेधाज्ञा का वाद लगाया विचारण न्यायालय ने बैंक, ऋण वसूली का वाद पेश न करें ऐसा व्यादेश दिया जो अपील में वेकेट किया गया । क्योंकि किसी भी व्यक्ति को कोई न्यायिक कार्यवाही लगाने से नहीं रोका जा सकता । इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.आई.आर. 1982 मद्रास 197 अवलोकनीय है  ।
2.     किसी व्यक्ति को किसी न्यायालय में जो उससे अधीनस्थ नहीं है जिसमें व्यादेश चाहा गया है, किसी कार्यवाही को संस्थित या अभियोजित करने से रोकने के लिए कोई व्यादेश नहीं दिया जा सकेगा ।
डिक्री के निष्पादन को रोकने के लिए व्यादेश नहीं देंगे । क्योंकि डिक्री को अपास्त करवाना उचित अनुतोष है इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.आई.आर. 1976  जे.के. 72 अवलोकनीय है ।
3.     किसी व्यक्ति को किसी विधायी निकाय में आवेदन करने से रोकने के लिए कोई व्यादेश नहीं दिया जायेगा ।
4.     किसी दाण्डिक मामले में किसी कार्यवाही को लगाने या अभियोजन करने से किसी व्यक्ति को रोकने से कोई व्यादेश नहीं दिया जायेगा ।
5.     किसी संविदा के भंग को रोकने के लिए जिसका पालन विशिष्ट रूप से नहीं कराया जा सकता है कोई व्यादेश नहीं दिया जायेगा ।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत मनेजिग डायरेक्टर सेंजूरी टक्सटाइल विरूद्ध श्रीमती मंजू गुप्ता, 2009 (2) एम.पी.एच.टी. 84 डी.बी. अवलोकनीय है ऐसे मामले में प्रतिकर ही उचित अनुतोष है।
6.     न्यूसेन्स के आधार पर उसे रोकने के लिए यदि वाद  लाया गया हो और युक्तियुक्त तौर पर यह स्पष्ट न हो कि न्यूसेन्स हो जायेगा, कोई व्यादेश नहीं दिया जायेगा ।
किसी फिल्म के प्रसारण को रोकने के व्यादेश इसी श्रेणी में आते हैं । क्योंकि प्रसारण रोकने की मांग इस आधार पर की जाती है कि प्रसारण से लोगों की भावना आहत होगी या न्यूसेन्स होगा । ऐसे मामले में यह ध्यान रखना चाहिए किसी फिल्म के प्रसारण का प्रमाण पत्र देने के लिए एक बोर्ड गठित होता है जो सभी तथ्यों पर विचार करके प्रसारण की अनुमति देता है ।
न्याय दृष्टांत ए.आई.आर. 1978 गुजरात 13 में फिल्म जय संतोषी मां के प्रसारण को रोकने का व्यादेश चाहा गया था जो नही ंदिया गया है ।
अपवाद स्वरूप मामले जहां फिल्म के प्रसारण से सांप्रदायिक तनाव की संभावना हो वहां विवेकाधिकार का प्रयोग उचित रीति से किया जा सकता है ।
न्याय दृष्टांत सुरेश जिन्दल विरूद्ध ऋजशोली कोरियर डेला, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2092 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि एक भारतीय फिल्म प्रोडयूसर ने विदेशी फिल्म प्रोडयूसर को भारत में फिल्म की शूटिंग की अनुमति दिलवाने आदि के बारे में कुछ सेवायें दी - फिल्म प्रोडक्शन के अनुबंध पालन का वाद था । वाद लंबन के दौरान फिल्म का निर्माण पूर्ण हो गया । वादी भारतीय फिल्म को प्रोडयूसर को ऐसा अंतरिम अनुतोष दिया जा सकता है कि फिल्म का प्रदर्शन भारतीय फिल्म प्रोडयूसर की सेवाओं के एक्नालेजमेण्ट को टाइटिल में दिखलाने के बाद ही किया जाये ।
7.     किसी चालू रहने वाले भंग को रोकने के लिए जिससे वादी उपमत हो गया हो वहां व्यादेश नहीं दिया जायेगा । इस संबंध में न्याय दृष्टांत उक्त क्रोथापल्ली सत्यनारायण विरूद्ध कोगांटी रमेश, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 452 से मार्गदर्शन दिया जा सकता है । जिसमें एक अतिक्रमण के मामले में वादी ने 9 वर्ष तक न्यायालय में कार्यवाही नहीं की । न्यायालय में 4 वर्ष बाद अतिक्रमण हटाने के बारे में प्रार्थना की । वादी के ध्यान में अतिक्रमण का तथ्य आ जाने पर भी उसने समय पर कार्यवाही नहीं की । यह माना गया है कि वादी भंग से उपमत हो गया है ।
8.     जब समान्यतः प्रभावकारी अनुतोष कार्यवाही के किसी अन्य क्रम से निश्चित तौर पर प्राप्त किया जा सकता हो केवल न्यास भंग की दशा को छोड़कर वहां भी न्यायालय व्यादेश नहीं देगा ।
कई बार ऐसे मामले आते हैं जिसमें वादी के पास निषेधाज्ञा से अच्छा और प्रभावी और वैकल्पिक अनुतोष उपलब्ध होता है जिसका वह प्रयोग नहंीं करता है । वे मामले इसी श्रेणी में आते हैं ।
9.     जब वादी या उसके अभिकर्ताओं का आचरण ऐसा हो कि उन्हें न्यायालय की सहायता से अयोग्य बना दे तब भी व्यादेश नहीं दिया जा सकता है ।
10.     जब वादी का मामले में कोई व्यक्तिगत हित न हो तब भी उसे व्यादेश नहीं दिया जायेगा ।
12.     नकारात्मक करार के पालन के व्यादेश:- धारा 41 के भाग-ई में अंतर्विष्ट किसी वाद के होते हुए भी जहां किसी संविदा में कुछ कार्य को करने के लिए सकारात्मक करार के साथ कुछ कार्य को न करने के बारे में कोई नकारात्मक करार भी समाविष्ट हो, परिस्थितियां ऐसी हो कि न्यायालय सकारात्मक करार के विशिष्ट पालन में विवश करने में असमर्थ हो । वहां नकारात्मक करार के पालन के लिए व्यादेश देने में न्यायालय को कोई रोक नहीं होगी। लेकिन वादी संविदा में उसके भाग के पालन में विफल नहंीं रहा हो । वहीं ऐसा अनुतोष दिया जा सकेगा ।
ए, बी से संविदा करता है कि बी एक निश्चित तिथि को ए को एक लाख रूपये देगा तो ए एक निश्चित स्थान जैसे जबलपुर पर अपना व्यापार स्थापित नहीं करेगा । बी उक्त धन राशि देने में असफल रहता है । ए को व्यापार करने से बी नहीं रोक सकेगा क्योंकि बी ने अपने भाग की संविदा का पालन अर्थात निश्चित तिथि पर ए को एक लाख रूपये का पालन नहीं किया ।
ए, बी से संविदा करता है कि वह बारह माह तक क्लर्क के रूप में उसके कार्यालय में सेवायें देगा । बी ऐसी संविदा के पालन की डिक्री पाने का अधिकारी नहीं है । क्योंकि यह व्यक्तिगत सेवा की संविदा है लेकिन ए को उसके प्रतिद्वंदी के यहां क्लर्क के रूप में सेवा करने से रोकने का व्यादेश बी पा सकता है ।
ए, बी से संविदा करता है कि वह बारह माह तक उसके थियेटर में गायेगा । पब्लिक में कहीं नहीं गायेगा । बी के थियेटर में गाने के लिए संविदा के पालन की डिक्री बी नहीं पा सकता लेंकिन एक पब्लिक में कहीं नहीं गायेगा ऐसी डिक्री बी पा सकता है ।
उक्त उदाहरण से धारा 42 के प्रावधान को समझा जा सकता है व्यक्तिगत सेवा की संविदा का प्रवर्तन विधि में वर्जित है । इस संबंध में न्यायदृष्टांत बिड़ला जूट इण्डस्ट्रीज लिमिटेड विरूद्ध रमेशचंद, 2010 (1) एम.पी.एल.जे. 448 अवलोकनीय है ।
संविदा में यदि नकारात्मक शर्त हो तो न्यायालय उसके प्रवर्तन से इंकार भी कर सकता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत गुजरात बाटलिंग कम्पनी विरूद्ध मेसर्स कोकाकोला कंपनी, ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 2372 अवलोकनीय है।
13.     विविध तथ्य - संयुक्त परिवार का कर्ता परिवार की आवश्यकता के आधार पर यदि मकान बेच राह है तब काॅपार्सनर का विक्रय रोकने का वाद प्रचलन योग्य नही है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुनील विरूद्ध राम प्रकाश, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 576 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत मसर्स तारापुरे एंड कंपनी मद्रास विरूद्ध मेसर्स वी.ओ. ट्रेक्टर एक्सपोर्ट मास्को, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 891 में यह प्रतिपादित किया है कि अपरिवर्तनीय या अप्रतिसंहार्य लेटर आॅफ क्रेडिट के मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप से बचना चाहिये और ऐसे मामले में अंतरित अनुतोष देने से भी बचना चाहिये क्योंकि ऐसे लेटर आॅफ क्रेडिट के मेकेनिजम का बहुत महत्व होता है बैंकिग रेगुरेशन एक्ट 1949 के सेक्शन 6 के प्रकाश उक्त विधि प्रतिपादित की गई।
लाईसेंसी ने स्थायी निषेधज्ञा का वाद पेश किया कि लाईसेंसा को वाद ग्रस्त दुकान का किराया बढ़ाने से रोका जावे लीज पीरेड समाप्त हो चुका था ऐसा वाद चलने योग्य नहीं पाया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत मुंशीपल काउंसिल विरूद्ध महेन्द्र कुमार, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2507 अवलोकनीय है।
जहां धन से प्रतिकर दिलवाकर वादी की क्षति की पूर्ति हो सकती हो वहां समान प्रभावकारी अनुतोष धन है और ऐसे मामले में निषेधाज्ञा नहीं ली जावेगी इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए.आई.आर. 1990 कलकत्ता 6 अवलोकनीय है।
स्थायी निषेधाज्ञा के लिये वाद पाजेसरी टाइटल के आधार पर पेश किया जा सकता है घोषणा की प्रार्थना ऐसे मामले में पूर्ववर्ती शर्त नहीं होती है स्वत्व की जांच जरूरी नहीं होती है यदि वादी आधिपत्य में नहीं पाया जाता है तो वाद खरीज कर दिया जावेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत रामजी राय विरूद्ध जगदीश मल्ललाह, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 900 अवलोकनीय है।
पट्टे पर आधारित केवल निषेधाज्ञा का वाद जिसमें पट्टे में उसके नवीनीकरण की शर्त भी थी विपक्षी ने नवीनीकरण से इंकार किया था ऐसे वाद में पट्टा विधिवत् रिन्यू होना चाहिये या घोषणा की सहायता संबंधित न्यायालय से पट्टे के बारे में ली जाना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत हरदेश ओ. प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध हेडे एण्ड कंपनी, (2007) 5 एस.सी.सी. 614 अवलोकनीय है।
माफी भूमि जो देव स्थान से संबंधित है पुजारी उसे अंतरित नहीं कर सकता है ऐसे अंतरण से अंतरीति को कोई लाभ नहीं मिलता है विरोधी आधिपत्य के आधार पर भी संपत्ति पर स्वत्व या अधिकार नहीं मिलते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत रोशन लाल विरूद्ध मूर्ति लक्ष्मी नारायण, 2010 (1) एम.पी.जे.आर. एस.एन 10 अवलोकनीय है इस न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत कनछनिया विरूद्ध शिवराम, 1992 राजस्व निर्णय 194 पर विचार किया है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पुजारी प्रबंधक की तरह कार्य करता है वह जमीन पट्टे पर देने का अधिकार नहीं रखता है पुजारी द्वारा दिये गये पट्टे से कोई अधिकार नहीं मिलते पट्टा ग्रहिता का आधिपत्य अतिक्रामक का आधिपत्य होता है धारा 168 मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता भी लागू नहीं होती है और धारा 248 भू-राजस्व संहिता के तहत् ऐसा कब्जा हटाया जाना चाहिये।
निषेधाज्ञा का अनुतोष एक साम्या पूर्ण अनुतोष है न्यायालय को ऐसी डिक्री देते समय वाद बाहुल्य न बढ़े ऐसे प्रयास करना चाहिये साथ ही मामले से संबंधित प्रावधानों को ध्यान में रखकर अनुतोष देना चाहिये न्याय दृष्टांत वाला मामला काॅपी राइट एक्ट से संबंधित था न्याय दृष्टांत एकेडेमी आॅफ जनरल एजूकेशन विरूद्ध बी. मालीनी (2009) 4 एस.सी.सी. 256 अवलोकनीय है।
जहां प्रतिवादी को निषेधित करने संबंधित ऐसा वाद हो कि वह उसके दरवाजे खिड़की आदि वादी के प्लाट की ओर न खोले और पक्षकारों के बीच सीमा या डिमारकेशन संबंधी विवाद हो वहां न्यायालय को मामले के निराकरण के पूर्व सक्षम कमिश्नर स्थल निरीक्षण के लिये नियुक्त करना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत प्रेम बाई विरूद्ध घनश्याम, 2010 (3) एम.पी.एल.जे. 345 अवलोकनीय है।
पत्नी को यह अधिकार है कि वह पति के विरूद्ध उसे प्रथम विवाह के कायम रहते हुये दूसरा विवाह करने से रोके ऐसा व्यादेश अर्थात दूसरा विवाह रोकने का आदेश पत्नी पाने के अधिकारी है इस संबंध में न्याय दृष्टांत शांति लाल विरूद्ध गीता बाई 2003 (2) ए.एन.जे.एम.पी. 209 अवलोकनीय है।

कब केवल व्यादेश का वाद कब धोषणा एवं व्यादेश का वाद

14.     जहां वादी के स्वत्वों पर शंका के कोई बादल न हो या स्वत्व विवादित न हो वादी संपत्ति के आधिपत्य में न हो वहां आधिपत्य का वाद परिणामिक रूप से निषेधाज्ञा के साथ उपचार होता है।
जहां वादी के स्वत्वों पर शंका के बादल हो और वह संपत्ति के आधिपत्य में भी न हो वहां स्वत्व धोषणा व आधिपत्य का वाद जिसमें पारिणामिक रूप से निषेधाज्ञा चाही गई हो या बिना पारिणामिक निषेधाज्ञा के वाद पेश किया जा सकता है।
जहां वादी के वैधानिक आधिपत्य में हस्तक्षेप या आधिपत्य छीनने की धमकी दी गई हो वहां केवल निषेधाज्ञा का वाद लाया जा सकता है।
केवल निषेधाज्ञा का वाद हो वहां आधिपत्य का प्रश्न होता है सामान्यतः स्वत्व का प्रश्न प्रत्यक्ष रूप से व तात्विक रूप से इस्यू नहीं होता है लेकिन जहां आधिपत्य का प्रश्न संपत्ति पर स्वत्व के आधार पर विनिश्चित होना होता है जैसे खुले स्थानों के बारे में तब स्वत्व का प्रश्न प्रत्यक्ष रूप से व तात्विक रूप से इस्यू होता है व स्वत्व पर निष्कर्ष के बिना आधिपत्य तय करना संभव नहीं होता है।
निषेधाज्ञा के वाद में स्वत्व संबंधी निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता यदि आवश्यक अभिवचन न हो व उचित वाद प्रश्न न बनाया गया हो ऐसे मामलों में जहां स्वत्व के बारे में न तो आवश्यक अभिवचन हो और न ही वाद प्रश्न बनाया गया हो न्यायालय को केवल निषेधाज्ञा के वाद में स्वत्व की जांच नहीं करना चाहिये।
लेकिन स्वत्व के बारे में आवश्यक अभिवचन भी किये गये हो वाद प्रश्न भी बनाया गया हो लेकिन स्वत्व के बारे में जटिल प्रश्न विधि और तथ्य के मामलें में निहित हो तब न्यायालय को केवल निषेधाज्ञा के वाद में स्वत्व के प्रश्न की जांच नहीं करना चाहिये और पक्षकारों को धोषणा का विस्तृत वाद लाने के लिये कहां जाना चाहिये।
जहां स्वत्व के बारे में आवश्यक अभिवचन हो उचित वाद प्रश्न भी बनाया गया हो पक्षकारों में प्रमाण भी दिया गया हो मामला सीधा हो वहां न्यायालय को केवल निषेधाज्ञा के वाद में स्वत्व का निराकरण कर देना चाहिये और वादी को धोषणा का विस्तृत वाद लाने को नहीं कहना चाहिये क्योंकि ऐसा व्यक्ति जिसमें स्पष्ट स्वत्व हो संपत्ति पर उसका आधिपत्य भी हो और मात्र कुछ लोगों ने असत्य आधारों पर क्लेम किया या वादी को तंग करने वाला क्लेम किया और उसके संपत्ति पर आधिपत्य का प्रत्यन किया वहां वादी केवल निषेधाज्ञा का वाद ला सकता है।
न्यायालयों को सावधानी पूर्वक अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिये व मामले की प्रकृति देखना चाहिये कि कहां स्वत्व की जांच करना है कहां नहीं करना है कहां केवल निषेधाज्ञा का वाद चल सकता है और कहां धोषणा भी जरूरी होती है।
उक्त मार्गदर्शक सिद्धांत माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत अंथूला सुधाकर विरूद्ध पी. बुच्ची रेड्डी, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 2033 में बतलाये है न्याय दृष्टांत वाले मामले में वादी उसका आधिपत्य एक अन्य व्यक्ति के स्वत्व से बतला रहा था उस व्यक्ति को स्वत्व मौखिक दान के आधार पर 1961 में मिलना बतलाया जा रहा था उस व्यक्ति का नामांतरण भी नहीं हुआ था जबकि प्रतिवादी उसका स्वत्व मूल स्वामी के माध्यम से बतला रहा था राजस्व अभिलेख में उसे भूमि स्वामी भी दर्शाया गया था तब यह प्रतिपादित किया गया कि केवल निषेधाज्ञा का वाद चलने योग्य नहीं है क्योंकि स्वत्व का जटिल प्रश्न निहित है जिसका निराकरण आवश्यक है।
15.     आदेश का स्वरूप:- न्यायालय को निर्णय के अंतिम पैरा में ऐसा स्पष्ट आदेश देना चाहिये कि वादी के पक्ष में एवं प्रतिवादी /प्रतिवादीगण के विरूद्ध यह स्थायी निषेधाज्ञा दी जाती है कि प्रतिवादी /प्रतिवादीगण वादी के वाद ग्रस्त संपत्ति स्थित ग्राम पाटन, तहसील पाटन, जिला जबलपुर सर्वे नंबर .......................... क्षेत्रफल .......................... के आधिपत्य और उपयोग में न तो स्वयं कोई हस्ताक्षेप करे  और न अपने किसी प्रतिनिधि से ऐसा करावे।
16.     तीनों प्रश्न प्रमाणित होने पर भी व्यादेश से इंकार:- कभी-कभी ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न हो सकती है जहां वादी ने प्रथम दृष्टया मामला सुविधा का संतुलन है अपूर्णनीय क्षति का सिद्धांत है तीनों प्रश्नों प्रमाणित किये हो अर्थात वादी ने अपना मामला अधिसंभाव्य रूप से प्रमाणित किया हो तब भी न्यायालय उसे निषेधाज्ञा देने से इंकार कर सकते है ऐसा समान्यतः उन मामलों में होता है जहां लोक हित का कोई मामला हो जिसमें काफी लोगों का हित जुड़ा हो ऐसे में लोक हित को प्रधानता दी जाती है।
17.     म.प्र. के स्थानीय संशोधन आदेश 39 नियम 1 सी.पी.सी. में म.प्र. के कुछ स्थानीय संशोधन हुये है जिनके अनुसार:-
         ’’ कोई ऐसा व्यादेश मंजूर नहीं किया जायेगा:-
बी.     किसी व्यक्ति जो लोक सेवा या राज्य के मामलों से संबंधित पद पर नियुक्त किया गया हो, जिसमें राज्य सरकार के स्वामित्व में या राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित किसी कंपनी या निगम का कर्मचारी भी शामिल है, के स्थानांतरण, निलंबन, पदावनति, अनिवार्य सेवा निवृत्ति, पदच्युति, पद से हटाने या सेवा के अन्यथा पर्यवसान या प्रभार ग्रहण करने के आदेश को स्थिगित करने के लिये।
सी.     किसी व्यक्ति जो लोक सेवा या राज्य के मामलों से संबंधित पद पर नियुक्ति किया गया हो जिसमें राज्य सरकार के स्वामित्व में या राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित कंपनी का कर्मचारी भी शामिल है के विरूद्ध किसी अनुशासनात्मक कार्यवाही जो लंबित हो को स्थिगित करना।
        डी.     किसी निर्वाचन को रोकना।
ई.     किसी निलाम को रोकना जो सरकार द्वारा किया जा रहा हो जब तक की पर्याप्त प्रतिभूति न दे दी जाये।’’
उक्त प्रावधानों के उल्लंघन में यदि कोई व्यादेश मंजूर किया जाता है तो वह शून्य होगा।
उक्त संशोधन आदेश 39 नियम 1 एवं 2 सी.पी.सी. के क्रम में किये गये है लेकिन विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1934 में इस प्रकार के कोई संशोधन नहीं है इसका तात्पर्य यह है कि इन मामलों में यदि गुणदोष पर वादी अपना मामला प्रमाणित करता है तो स्थायी व्यादेश देने में कोई रोक नहीं है।

11 comments:

  1. Very good information sir. Therefore is need of good hindi blog on legal issues. Thanks .

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  2. Thank you very much for help

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  3. If on the wrong base recovery notice give to plaintiff can plaintiff get relief of injunction from civil court.

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  4. कृपया यह बातें की न्यायालय द्वारा दूसरी मंजिल पर दिये गए प्रतिकूल आधिपत्य को वह मंजिल क्षतिग्रस्त होने पर पुनः निर्मित करने का अधिकार प्रतिकूल आधिपत्य धारी को है तथा क्या भूतल के मूल स्वत्वधारी को उस दूसरी मंजिल को पुनः निर्मित करने की अनुमति देने की बाध्यता है ।

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  5. मेरे व्यवहार प्रकरण मे विवादित मकान प्र.क्र.10अ/11 मे न्यायालय प्रथम अपर जिला न्यायाधीश शुजालपुर जि. शाजापुर ने मुझ प्रतिवादी के विरुद्ध वादीगण द्वारा लगाए गए वाद स्वत्व घोषणा एंव वसीयत को निष्प्रभावी घोषित करने के निर्णय मे आज्ञप्ति एवं डिक्री देते हुए वादीगण के सभी वादप्रश्न अप्रमाणित माने है। उक्त न्यायालय ने वाद के निर्णय के दरमियान वादीगण द्वारा मांगी गई अस्थायी
    निषेधाज्ञा के आवेदन के चलते स्वीकार नहीं किया।किंतु वादीगण द्वारा फर्स्ट अपील मे उच्च न्यायालय द्वारा निषेधाज्ञा के तीनों सिद्धांत पर विचार किए बिना अस्थायी निषेधाज्ञा का आदेश पारित कर दिया जबकि मूल दस्तावेज अभी तक नहीं आए। उक्त आदेश को कैसे अपास्त किया जावे ?

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  6. किसी ब्यक्ति के ३बेते हो , किन्तु वह ब्यक्ति बैनामे के द्वारा अपने एक बेटे और उसकी पत्नी को पैतृक
    पैतृक संपत्ति देने लगे तो बेटो बाकि दोनों बेटो को अपने हिस्से की संपत्ति प्राप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ?कृपया सुझाव दे

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  7. Vadi AVN prativadi Patrick Bhumi ke Bhumi Swami the Batwara hone ke bad Khasra Mein donon ka alag alag Khasra Batwara Hua Iske bad Bhumi per alag alag Kabi the prativadi Apne kabje ki Bhumi Mein Apne Rahane Hetu Makan Nirman karaya Vadi Ne yah Kaha han aur nyayalay Pratham Shreni nyayadhish ke yahan Mamla Laya ki prativadi ke dwara Meri Bhumi per Makan Nirman Kiya ja raha hai aata hai mananiy nyayalay se anutosh Swarup prativadi ke viruddh Adhyapak nishedhagya ki Mang ki kya prativadi ke viruddh Vadi Adhyapak nishedhagya Jari kara Pani Mein Saksham hai ya nahin

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  8. सर जी, मेरे पिता जी ने सन, 1983ई0में एक जमींदार को जमीन खरीदने के लिए पैसा दिया था तत्पश्चात जमींदार ने जमीन का कब्जा मेरे पिता को दे दिया किन्तु उक्त जमीन बैनामा करने से इंकार कर दिया तभी से मेरे पिता जी उक्त जमीन का उपयोग, उपभोग बतौर आबादी इश्तेमाल करते चले आ रहें हैं, किन्तु जमींदार ने उक्त जमीन को पुनः बेंच देने, इमारत को गिराकर कब्जा कर लेने की खुल्लम खुल्ला धमकी दिया तदुप्रांत पिता जी ने उक्त जमींदार के खिलाफ सिविल कोर्ट में स्थाई निषेधाज्ञा का वाद प्रस्तुत किया जिससे घबरा कर उक्त जमींदार ने मेरे पिता के पक्ष में सुलहनामा दाखिल कर दिया, तत्पश्चात कोर्ट ने जमींदार के खिलाफ स्थाई निषेधाग्या की डिक्री पारित करते हुए उक्त जमीन पर जमींदार को हस्तक्षेप करने से सदा सर्वदा के लिए मना कर दिया गया। उक्त सुलहनामा के आधार पर मेरे पिता ने एसडीएम की कोर्ट में 33/39Lr एक्ट के तहत दाखिल खारिज का वाद प्रस्तुत किया जिसमें स्थानीय लेखपाल व अपर तहसील दार ने मेरे पिता जी का कब्जा बतौर आबादी काबिज होने की संस्तुति किया किंतु एसडीएम महोदय ने उक्त 33/39Lr एक्ट को यह कह कर खारिज कर दिया की उपरोक्त सिविल कोर्ट का फैसला एक सुनियोजित आदेश है जिसमें किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि खतौनी में आज भी उसी जमींदार का नाम दर्ज है, अतः सर जी आपसे मेरा करबद्ध निवेदन है की उक्त मामले में हमारी खारिज दाखिल कैसे हो, मार्गदर्शन करें, अति कृपा होगी।

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  9. निषेधाज्ञा का क्या मतलब होता है।

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