Tuesday 29 September 2020

शादी करने के वादे से पैदा होने वाली गलतफहमी घटना के समय के करीब होनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

 

*रेप : शादी करने के वादे से पैदा होने वाली गलतफहमी घटना के समय के करीब होनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट* 29 Sep 2020

      सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में शादी के बहाने एक महिला से बलात्कार के आरोपी शख्स को बरी करते हुए कहा कि शादी करने के वादे से पैदा होने वाली गलतफहमी घटना के समय के करीब होती है और इसे समय की एक सचेत सकारात्मक कार्रवाई के साथ विरोध ना करने के लिए लंबे समय तक नहीं फैलाया जा सकता। इस मामले में अभियोजक द्वारा आरोप लगाया गया था कि आरोपी महेश्वर तिग्गा उससे शादी करने का वादा करता रहा और इस बहाने पति और पत्नी के रूप में उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करता रहा। यह भी आरोप लगाया गया कि वह पंद्रह दिनों के लिए उसके घर पर भी रुकी थी, जिस दौरान उसने उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाए। ट्रायल कोर्ट ने उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 323 और 341 के तहत दोषी ठहराया। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उसकी अपील खारिज कर दी।  उसकी अपील पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने कहा कि इस मामले में अभियुक्त अनुसूचित जनजाति से है जबकि अभियोजन ईसाई समुदाय से है। न्यायालय ने यह भी कहा कि उनके बीच के पत्र, जो सबूतों के तौर पर रखे गए थे , यह स्पष्ट करते हैं कि एक-दूसरे के लिए उनका प्यार समय के साथ बढ़ा और परिपक्व हुआ। इस संदर्भ में, पीठ ने कहा: "वे दोनों एक-दूसरे पर मर- मिटे थे और युवाओं के जुनून ने उनके दिमाग और भावनाओं पर शासन किया था। इसके बाद जो शारीरिक संबंध थे, वे प्रकृति में अलग-थलग या कभी-कभार नहीं थे, बल्कि वर्षों से नियमित थे। अभियोजन पक्ष भी अपीलकर्ता के साथ चला गया था और उसके घर में रहता था। हमारी राय में, अपीलकर्ता द्वारा दूसरी लड़की के साथ शादी से सात दिन पहले और प्राथमिकी की पैरवी में चार साल की देरी अभियोजन पक्ष द्वारा शादी के वादे की सच्चाई और अभियोजन पक्ष द्वारा लगाए गए आरोपों की सत्यता गंभीर संदेह पैदा करती है। जिरह में अभियोजन पक्ष के स्वीकार के मद्देनज़र मामले की पूरी उत्पत्ति गंभीर संदेह में है कि 09.04.1999 को कोई घटना नहीं हुई थी।" 
       सीजेआई ने उठाए सवाल अदालत ने यह भी कहा कि, इन पत्रों से पता चलता है कि आरोपी रिश्ते के बारे में गंभीर था और शादी करने को इच्छुक था। लेकिन दुर्भाग्य से, सामाजिक कारणों से, विवाह नहीं हो सका क्योंकि वे विभिन्न समुदायों से संबंधित थे, यह कहा गया। अदालत ने कहा कि धारा 375 केवल तभी लागू होगी, जब अभियुक्त जानबूझकर गलत तरीके से बयानबाजी करता है और अभियोजन पक्ष ने तथ्य की गलत धारणा पर उसकी सहमति दी। यह जोड़ा गया: "आईपीसी की धारा 90 के तहत, तथ्य की गलत धारणा के तहत दी गई सहमति कानून की नजर में कोई सहमति नहीं है। लेकिन तथ्य की गलत धारणा घटना के समय के निकट होने की है और चार साल की अवधि तक नहीं फैल सकती है।" 
      "शायद ही किसी विस्तार की जरूरत है कि अपीलार्थी द्वारा सहमति जानबूझकर और उसके द्वारा पसंद के अनुसार थी, जो कि उचित विचार-विमर्श के बाद उसके द्वारा बनाई गई थी, यह लंबे समय से एक सकारात्मक प्रतिक्रिया के साथ चलती रही, जो विरोध न करने की एक सचेत सकारात्मक कार्रवाई थी। उसके लिखे पत्र यह भी उल्लेख करते हैं कि रिश्ते के संबंध में उसके परिवार के सदस्यों के साथ अक्सर उसके घर पर झगड़े होते थे, और उसे पीटा भी जाता था।" 
      इस संदर्भ में, पीठ ने दो हालिया निर्णयों का उल्लेख किया: ध्रुवराम मुरलीधर सोनार बनाम महाराष्ट्र राज्य AIR 2019 SC 327 और प्रमोद सूर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) 9 SCC 608। आरोपी को बरी करते समय, बेंच ने आगे कहा : "अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं के कारण अभियोजक स्वयं अपने संबंधों की बाधाओं से अवगत थी। इस विश्वास के साथ एक सगाई समारोह भी आयोजित किया गया था कि सामाजिक बाधाओं को दूर किया जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से यह मतभेद भी पैदा हुआ कि क्या शादी चर्च में हो या मंदिर में आयोजित की जाए और अंततः विफल रही। उपलब्ध साक्ष्य पर ये राय बनाना संभव नहीं है कि शुरुआत से अपीलार्थी ने अभियोजन पक्ष से कभी शादी करने का इरादा नहीं किया था और केवल उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित करने के लिए धोखाधड़ी की थी।" अभियोजन पक्ष ने अपने पत्रों में स्वीकार किया कि अपीलकर्ता का परिवार हमेशा उसके साथ बहुत अच्छा था।" अभियोजन पक्ष की सहमति एक सचेत और जानबूझकर पसंद वाली थी, एक अनैच्छिक कार्रवाई या इनकार से अलग और जो अवसर उसके लिए उपलब्ध था,अपीलकर्ता के लिए उसके गहरे प्यार के कारण उसे स्वेच्छा से उसके शरीर के साथ आजादी की अनुमति दी थी, जो सामान्य मानव व्यवहार में केवल उस व्यक्ति को दी जाती है, जिसके साथ गहरा प्रेम है।
Case no.: CRIMINAL APPEAL NO. 635 OF 2020 Case name: MAHESHWAR TIGGA vs. THE STATE OF JHARKHAND Coram: Justices Rohinton Fali Nariman, Navin Sinha and Indira Banerjee Counsel: Sr. Adv V. Mohana, Adv Pragya Baghel

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/rape-misunderstanding-arising-out-of-promise-to-marry-should-be-close-to-the-time-of-incident-supreme-court-163674

Sunday 27 September 2020

वेश्यावृत्ति अपराध नहीं; वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार- बॉम्बे हाईकोर्ट

 "वेश्यावृत्ति अपराध नहीं; वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार", बॉम्बे हाईकोर्ट ने 3 यौनकर्मियों को सुधारक संस्था से रिहा करने का आदेश दिया 26 Sep 2020 

   बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि वेश्यावृत्ति को इम्मोरल ट्रैफिक (प्र‌िवेंशन) एक्ट, 1956 के तहत अपराध नहीं माना गया है और एक वयस्क महिला को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार है और उसे उसकी सहमति के बिना हिरासत में नहीं लिया जा सकता है, गुरुवार (24 सितंबर) को सुधारात्मक संस्था से 3 यौनकर्मियों को मुक्त कर दिया। ज‌स्टिस पृथ्वीराज के चव्हाण की एकल खंडपीठ 3 यौनकर्मियों की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने 19.10.2019 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसे उक्त अधिनियम की धारा 17 (2) के तहत महानगर मजिस्ट्रेट, मझगांव ने पारित किया था, साथ ही 22.11.2019 को अपर सत्र न्यायाधीश, डिंडोशी द्वारा 2019 की आपराधिक अपील संख्या 284 को चुनौती दी गई थी, जिसने 19.10.2019 के आदेश को बरकरार रखा। 

संक्षेप में तथ्य शिकायतकर्ता- पुलिस कॉन्स्टेबल रूपेश रामचंद्र मोरे की गुप्त सूचना पर एक जाल (महिला तस्करों को पकड़ने के लिए) बिछाया गया था। मोरे को निजामुद्दीन खान नाम के एक व्यक्ति ने सूचना दी थी कि एक दलाल मलाड के एक गेस्ट हाउस में वेश्यावृत्ति के लिए महिलाओं को भेजता है। पीड़ित को एक "यात्री गेस्ट हाउस" के कमरा नंबर 7 से हिरासत में लिया गया। आरोपी और अन्य दो पीड़ितों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें हिरासत में लिया गया था। 13.09.2019 को मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने पीड़ित (ए), (बी), और (सी) को पेश किया गया। 

 विद्वान मजिस्ट्रेट ने, अन्य बातों के साथ, परिव‌िक्षा अधिकारी से इतिहास, चरित्र, और पीड़ित (ए), (बी), और (सी) के रिश्तेदारों की उपयुक्तता के संबंध में रिपोर्ट मांगी थी। पीड़ित (ए), (बी), और (सी) को नवजीवन महिला वस्‍तिगृह, देवनार, मुंबई को मध्यवर्ती हिरासत के लिए दिया गया थी। मजिस्ट्रेट ने यह भी सोचा कि एनजीओ, जस्टिस एंड केयर को "नवजीवन महिला वस्‍तिगृह" में रहने के दौरान पीड़ितों (ए), (बी), और (सी) को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए। 

इसके अलावा, मजिस्ट्रेट ने पीड़ितों की कस्टडी उनकी माताओं को देने से इनकार कर दिया क्योंकि पीड़ितों को 20 से 22 वर्ष की आयु में यौन कार्य में शामिल पाया गया था। जांच अधिकारी, संबंधित पुलिस कर्मियों की रिपोर्ट के साथ-साथ मजिस्ट्रेट की पूछताछ में यह पता चला कि पीड़ित (ए), (बी), और (सी) "बेड़िया" समुदाय की हैं। उस समुदाय में यह प्रथा प्रचलित है कि लड़की को, यौवन प्राप्त‌ि के बाद वेश्यावृत्ति के लिए भेज दिया जाता है। पीड़ितों के माता-पिता इस बात से अवगत थे कि पीड़ित वेश्यावृत्ति में लिप्त हैं, जिसका अर्थ है कि, माता-पिता स्वयं अपनी बेटियों को पेशे के रूप में वेश्यावृत्ति में लिप्त होने की अनुमति दे रहे ‌थे और इसलिए, मजिस्ट्रेट ने पाया कि यह सुरक्षित नहीं होगा पीड़ितों की कस्टडी से उनकी माताओं को दी जाए। 

 सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और अधिनियम की धारा 17 (1), (2), (3), (4), और (6) के अध्ययन के बाद, पीड़ितों (ए), (बी), और (सी) को 19 अक्टूबर 2019 से एक वर्ष के लिए हिरासत में भेज दिया गया था। पीड़ितों को उन्हीं पसंद के अनुसार में देखभाल, संरक्षण, आश्रय, और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए एक वर्ष के लिए "नारी निकेतन प्रयाग वस्‍तिगृह, फुल्‍ताबाद, इलाहाबाद, यूपी, या उत्तर प्रदेश के किसी भी राज्य संचालित संस्था में भेजने का निर्देश दिया किया गया था। उक्त आदेश को ‌डिंडोरी में सत्र न्यायाधीश की अदालत में 2019 की अपील संख्या 284 के माध्यम से चुनौती दी गई। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 19.10.2019 को मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश की पुष्टि की और अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय अदालत ने कहा कि चूंकि पीड़ितों पर, विद्वान वकील के अनुसार, मुकदमा नहीं चलाया जा रहा है, इसलिए उन्हें नवजीवन महिला वास्तिगृह, देवनार, मुंबई या किसी अन्य संस्था की हिरासत में रखने का कोई सवाल ही नहीं है। न्यायालय ने कहा कि उक्त अधिनियम [इम्मोरल ट्रैफिक (प्र‌िवेंशन) एक्ट, 1956] मजिस्ट्रेट को, कानूनी की उचित प्र‌क्रिया का पालन करने के बाद इस प्रभाव में किसी अंतिम आदेश के ब‌िना, पीड़ितों को 3 सप्ताह से अधिक की अवधि के ‌लिए अभिरक्षा में रखने का अधिकार नहीं देता है। न्यायालय ने तब कहा कि अधिनियम की धारा 17 (4) में प्रावधान है कि जांच पूरी होने के बाद, यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है, तो वह उप-धारा (5) के प्रावधानों के अधीन एक आदेश दे सकता है कि पीड़ितों को ऐसी अवधि के लिए एक संरक्षात्मक आवास में हिरासत में लिया जाए, वह एक वर्ष से कम नहीं ‌हो और तीन वर्ष से अधिक नहीं हो, जैसा कि आदेश में निर्दिष्ट किया जा सकता है, जिसके लिए मजिस्ट्रेट लिखित कारण देगा। यह नोट करना उचित है कि न्यायालय ने देखा कि अधिनियम की धारा 17 (4) के प्रावधान उपधारा (5) के प्रावधान के अधीन हैं, जो प्रदान करता है कि जांच कम से कम 5 व्यक्तियों के पैनल द्वारा आयोजित की जाएगी, जिन्हें उक्त उपधारा (5) के अनुरूप नियुक्त किया जाए। इस मामले में कानून के तहत तय की गई कोई जांच नहीं की गई। न्यायालय ने यह भी कहा कि धारा 17 (4) का तात्पर्य है कि उक्त धारा के तहत केवल वही आदेश पारित किया जा सकता है, जो कि अधिनियम की धारा -17 की उपधारा (5) के प्रावधान के अधीन हो। उल्लेखनीय है कि उप-धारा (5) का विचार है कि उप-धारा (2) के तहत कार्य का निर्वहन करते समय, मजिस्ट्रेट को, इस संबंध में उनकी सहायता करने के लिए, 5 सम्माननीय व्यक्तियों के पैनल को बुलाना होगा, जिनमें से 3 जहां भी कार्यरत हों, महिलाएं हो। इसलिए, यह सुरक्षित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि "हो सकता है" शब्द का उपयोग करते समय विधायिका, इसे एक अनिवार्य अर्थ में उपयोग करना चाहती थी अन्यथा उन्होंने धारा 17 (2) से 17 (5) के तहत शक्तियों के प्रयोग को अधीन नहीं किया होता। कोर्ट ने कुमारी संगीता बनाम दिल्ली राज्य व अन्य 1996, क्रिमिनल रिपोर्टर, P-129, (दिल्ली) के निर्णय पर भरोसा किया। न्यायालय ने विशेष रूप से देखा, "कानून के तहत कोई प्रावधान नहीं है, जो वेश्यावृत्ति को एक आपराधिक अपराध बनाता है या किसी व्यक्ति को दंडित करता है क्योंकि वह वेश्यावृत्ति में लिप्त है। अधिनियम के तहत दंडनीय यह है कि व्यावसायिक उद्देश्य के लिए या रोटी कमाने के लिए किसी व्यक्ति का यौन शोषण या दुरुपयोग किया जाए, सिवाय इसके कि किसी व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान जैसा कि धारा 7 में प्रदान किया गया है, पर वेश्यावृत्ति करते, या किसी व्यक्ति उक्त अधिनियम की धारा 8 के मद्देनजर, किसी अन्य व्यक्ति को ललचाते या छेड़खानी करते पाया जाए .. तो रिकॉर्ड से प्रकट नहीं होता है और न ही कोई आरोप है कि पीड़ित - याचिकाकर्ता वेश्यावृत्ति में लिप्त थीं।" न्यायालय ने कहा कि रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि याचिकाकर्ता वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को ललचा रही थीं और न ही यह दिखाने के लिए कोई सामग्री थी कि वे वेश्यालय चला रही थीं। इसके अलावा, कोर्ट ने कहा, "ऐसा लगता है कि विद्वान मजिस्ट्रेट को आदेश को पारित करते हुए इस तथ्य के प्रभाव में आ गए कि याचिकाकर्ता एक विशेष जाति की हैं। यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि याचिकाकर्ता पीड़ित वयस्‍क हैं और इसलिए, उन्हें अपनी पंसद के स्‍थान पर निवास करने का अधिकार है, पूरे भारत के स्वतंत्र रूप से घूमने और अपने स्वयं के व्यवसाय का चयन करने के का अधिकार है, जैसा कि संविधान के मौलिक अधिकारों के भाग III में निहित है।" विद्वान मजिस्ट्रेट, न्यायालय ने नोट किया, को उक्त आदेश को पारित करने से पहले, पीड़ितों की इच्छा और सहमति पर विचार करना चाहिए था। इसके बाद, कोर्ट ने आदेश दिया, महानगर मजिस्ट्रेट, मझगांव द्वारा दिनांक 19.10.2019 को पारित आदेश और अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, डिंडोशी द्वारा 22.11.2019 को पारित आदेश को रद्द किया जाता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पीड़ितों को उनकी इच्छा के विपरीत अनावश्यक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है और उन्हें सुधारात्मक संस्थान में रहने के लिए कहा जाना चाहिए। रिकॉर्ड पर कोई सामग्री नहीं है जो यह बताती है कि पीड़ित किसी भी विकलांगता या किसी भी बीमारी से पीड़ित हैं ताकि उचित प्रतिबंध लगाए जा सके। इसके अलावा, यह भी स्पष्ट किया गया कि पुलिस का यह मामला भी नहीं था कि पीड़ितों को मुक्त करने से समाज को कुछ खतरा होगा। कोर्ट ने कहा, "लगभग एक वर्ष से पीड़ितों को उनकी इच्छा के खिलाफ सुधारात्मक गृह में हिरासत में रखा गया है और इसलिए, यहां बताए गए कारणों के लिए, उन्हें रिहा करने की आवश्यकता है।" उल्लेखनीय है कि कि एक वेश्यालय के मालिक द्वारा दायर एक अग्रिम जमानत को खारिज करते हुए, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा था कि वाणिज्यिक यौनकर्म की लिए शोष‌ित यौनकर्मी पीड़ित हैं और उन्हें इम्मोरल ट्रैफिक(प्र‌िवेंशन) एक्ट के तहत गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए, जब तक रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से यह पता नहीं चलता कि वे अपराध में सह-साजिशकर्ता के रूप में शामिल थीं। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (21 सितंबर) को केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे महामारी के कारण संकट से जूझ रहे यौनकर्मियों को भोजन और वित्तीय सहायता प्रदान करें। जस्टिस एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने केंद्र और राज्य सरकार से आग्रह किया कि वे पहचान के प्रमाण पर जोर दिए बिना राशन, मौद्रिक सहायता के साथ-साथ मास्क, साबुन और सैनिटाइजर के रूप में उन्हें राहत प्रदान करने पर तत्काल विचार करें।


https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/prostitution-not-an-offence-adult-woman-has-right-to-choose-her-vocation-bombay-hc-orders-release-of-3-sex-workers-from-corrective-institution-163532

Friday 18 September 2020

स्टाम्प ड्यूटी के अभाव में "दस गुना जुर्माने" की प्रावधान यांत्रिक तरीके से नहीं लगेगाः सुप्रीम कोर्ट 18 Sep 2020

 स्टाम्प ड्यूटी के अभाव में "दस गुना जुर्माने" की प्रावधान यांत्रिक तरीके से नहीं लगेगाः सुप्रीम कोर्ट 18 Sep 2020 


 सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारतीय स्टाम्प अधिनियम की धारा 40 (1) (बी) के तहत निर्धारित दस गुना जुर्माना यांत्रिक रूप से नहीं लगाया जा सकता है। जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी की बेंच ने कहा कि वंचित करने के लिए धोखाधड़ी या छल या अनुचित समृद्धि जैसे कारण किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए प्रासंगिक कारक हैं कि धारा 40 (1) (बी) के तहत दंड की सीमा क्या होनी चाहिए। धारा 40 (1) (बी) के अनुसार, यदि कलेक्टर की राय है कि ऐसा उपकरण ड्यूटी से संबंधित है और इसकी विधिवत स्टाम्प नहीं लगी है, तो उसके लिए उचित शुल्क के भुगतान की आवश्यकता होगी या उसे बनाने के लिए आवश्यक राशि, साथ में पांच रुपये का जुर्माना; या, यदि वह उचित समझता है, तो एक राशि जो उचित ड्यूटी की मात्रा से दस गुना अधिक या कमी वाले भाग से अधिक नहीं हो। इस मामले में दस्तावेज को दर्ज करते समय, कलेक्टर ने एम/एचसी ढांडा एक निजी ट्रस्ट और जोगेश ढांडा के बीच निष्पादित डीड ऑफ असेंट के रूप में देखते हुए इस आधार पर दस गुना जुर्माना (12,80,97,000 रुपये ) लगाया कि "पक्षकारों ने ड्यूटी से बचने के इरादे से दस्तावेज़ की वास्तविक प्रकृति का उल्लेख नहीं किया है।" धारा 40 और अन्य प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि जब भी क़ानून एक प्राधिकरण को विवेक हस्तांतरित करता है, तो विवेक को अधिनियम के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। विवेक का प्रयोग ना तो सनक और जल्दबाजी के तौर पर किया जाता है, बल्कि विवेक का प्रयोग तर्कसंगत आधार पर उचित तरीके से किया जाना है। दस गुना से अधिक जुर्माना की राशि बल के मामले के रूप में लगाए जाने वाली राशि नहीं है। धारा 40 (1) (बी) के तहत न तो दस गुना जुर्माना लगाया जाता है और न ही यंत्रवत् रूप से लगाया जा सकता है। आमतौर पर दंड का उद्देश्य एक निरोध है और प्रतिशोध नहीं है। जब किसी सार्वजनिक प्राधिकरण को एक विवेक दिया जाता है, तो ऐसे सार्वजनिक प्राधिकरण को इस तरह के विवेक का उचित प्रयोग करना चाहिए न कि दमनकारी तरीके से। विवेकपूर्ण तरीके से विवेक का इस्तेमाल करने की ज़िम्मेदारी उन मामलों में अधिक होती है, जहां क़ानून द्वारा निहित विवेक विमुख होता है। चरम दंड का आरोप अर्थात ड्यूटी या कमी वाले हिस्से का दस गुना शुल्क ड्यूटी चोरी के मात्र तथ्य पर आधारित नहीं हो सकता है। राजस्व या अनुचित संवर्धन से वंचित करने के लिए धोखाधड़ी या छल जैसे कारण एक निर्णय पर पहुंचने के लिए प्रासंगिक कारक हैं कि धारा 40 (1) (बी) के तहत जुर्माने की सीमा क्या होनी चाहिए। न्यायालय ने गंगटप्पा और अन्य बनाम फकीरप्पा, 2019 (3) SCC 788 के फैसले पर भी गौर किया, जिसमें समान मुद्दे से निपटा गया था। पीठ ने यह भी कहा कि केवल बहुत चरम स्थिति में ही कि दस गुना तक जुर्माना लगाया जाना चाहिए। इस मामले में, पीठ ने नोट किया कि पार्टी का आचरण बेईमान या विरोधाभासी नहीं पाया गया। मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, बेंच ने स्टांप ड्यूटी में कमी की आधी यानी पांच गुना की सीमा तक जुर्माना (6,40,48,500 रुपये ) घटाकर अपील की अनुमति दी।


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/supreme-court-says-in-the-absence-of-stamp-duty-provision-of-ten-times-penalty-will-not-be-imposed-by-mechanical-means-163137?infinitescroll=1

Wednesday 16 September 2020

वयस्क अविवाहित बेटी, यदि किसी शारीरिक या मानसिक असमानता से पीड़ित नहीं है, तो धारा 125 सीआरपीसी के तहत पिता से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट


*वयस्क अविवाहित बेटी, यदि किसी शारीरिक या मानसिक असमानता से पीड़ित नहीं है, तो धारा 125 सीआरपीसी के तहत पिता से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती : सुप्रीम कोर्ट* 16 Sep 2020

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि वयस्क हो चुकी अव‌िवाहित बेटी, यदि वह किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता/चोट से पीड़ित नहीं है तो धारा 125 सीआरपीसी की कार्यवाही के तहत, अपने पिता से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार नहीं है। तीन जजों की बेंच, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस अशोक भूषण ने की, ने कहा कि हिंदू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) पर भरोसा करें तो एक अविवाहित हिंदू बेटी अपने पिता से भरण-पोषण का दावा कर सकती है, बशर्ते कि वह यह साबित करे कि वह अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, जिस अधिकार के लिए उसका आवेदन/ वाद अधिनियम की धारा 20 के तहत होना चाहिए। बेंच में शामिल अन्य जज जस्टिस आर सुभाष रेड्डी और एमआर शाह थे। बेंच ने कहा, विधायिका ने कभी भी धारा 125 सीआरपीसी के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने स्थिति में मजिस्ट्रेट पर जिम्‍मेदारी डालने का विचार नहीं किया कि वह हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत विचार किए गए दावों का निर्धारण किया। इस मामले में अपीलकर्ता की दलील यह थी कि हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 के अनुसार, एक व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपनी अव‌िवाहित बेटी का, जब तक कि वह विवाहित नहीं हो जाती, भरण-पोषण करे। अपीलकर्ता, जब नाबालिग थी, उसने धारा 125 सीआरपीसी के तहत न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, रेवाड़ी के समक्ष एक आवेदन दायर किया था। मजिस्ट्रेट ने अपीलकर्ता का दावा यह कहकर निस्तारित कर दिया कि जब तक वह वयस्क नहीं हो जाती भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती। हाईकोर्ट ने भी आदेश को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या एक हिंदू अविवाहित बेटी पिता से धारा 125 सीआरपीसी के तहत, केवल तब भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है, जब तक वह वयस्‍क नहीं हो जाती या वह अविवाहित रहने तक भरण-पोषण का दावा कर सकती है? अपीलार्थी का तर्क यह था कि, भले ही वह अधिनियम, 1956 की धारा 20 की बिनाह पर किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट से पीड़ित नहीं है, जब तक वह व‌िवाहित नहीं हो जाती है, भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है। अपीलकर्ता ने जगदीश जुगतावत बनाम मंजू लता (2002) 5 एससीसी 422 के फैसले पर भरोसा किया। अदालत ने माना कि जगदीश जुगतावत (सुप्रा) के फैसले को धारा 125 सीआरपीसी के तहत पिता के खिलाफ बेटी द्वारा दायर कार्यवाही में अनुपात निर्धारित करने के लिए नहीं पढ़ा जा सकता है कि अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) के तहत पिता पर अव‌िवाहित बेटी के भरण-पोषण का दायित्व है और उसी के अनुसार बेटी भरण-पोषण की हकदार है। अधिनियम की धारा 20 (3) का संदर्भ देते हुए, बेंच ने कहा, "हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) बच्चों और वृद्ध माता-पिता के भरण-पोषण के संदर्भ में हिंदू कानून के सिद्धांतों की मान्यता है। धारा 20 (3) एक हिंदू के वैधानिक दायित्व का निर्धारण करती है कि वह अपनी अव‌िवाहित बेटी का, जो अपनी कमाई से या अन्य संपत्त‌ि से अपना भरण-पोषण करने में अक्षम है, का भरण-पोषण करे। हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 यह निर्धारित करती है कि एक हिंदू का यह वैधानिक दाय‌ित्व है कि वह अपनी अव‌िवाहित बेटी का, जो अपनी कमाई से यह अन्य संपत्त‌ि से अपना भरण-पोषण करने में अक्षम है, का भरण-पोषण करे। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, अधिनियम 1956 को लागू करने से पहले हिंदू कानून में अविवाहित बेटी, जो अपना भरण-पोषण करने में अक्षम है, के भरण-पोषण का दायित्व एक हिंदू पर रहा है। अविवाहित बेटी के भरण-पोषण का पिता पर डाला गया दायित्व, बेटी द्वारा पिता पर लागू कराया जा सकता है, यदि वह धारा 20 के तहत खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है। अधिनियम, 1956 की धारा 20 के प्रावधान के तहत एक हिंदू पर अपनी अविवाहित बेटी के भरण-पोषण, जो कि खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं है, का स्पष्ट वैधानिक दायित्व डाला है। धारा 20 के तहत पिता से भरण-पोषण का दावा करने का अविवाहित बेटी का अधिकार, यदि वह अपने भरण-पोषण में सक्षम नहीं है, निरपेक्ष है, और धारा 20 के तहत अविवाहित बेटी को दिया गया अधिकार व्यक्तिगत कानून के तहत दिया गया है, जिसे वह अपने अपने पिता के खिलाफ बखूबी लागू कर सकती है। जगदीश जुगतावत (सुप्रा) में इस अदालत के फैसले ने अधिनियम की धारा 20 (3), 1956 के तहत एक नाबालिग लड़की के अधिकार को मान्यता दी कि वह अपने पिता से, वयस्क होने के बाद ‌विवाहित होने तक तक, भरण-पोषण का दावा कर सकती है। अविवाहित बेटी स्पष्ट रूप से अपने पिता से भरण-पोषण की हकदार है, जब तक कि वह विवाहित न हो जाए, भले ही वह वयस्क हो गई हो, जो कि धारा 20 (3) द्वारा मान्यता प्राप्त वैधानिक अधिकार है और कानून के अनुसार अविवाहित बेटी द्वारा लागू कराया जा सकता है।" पीठ ने नूर सबा खातून बनाम मोहम्मद क़ासिम, (1996) 6 एससीसी 233 को भी संदर्भित किया और देखा कि लाभकारी कानून का प्रभाव जैसे धारा 125 सीआरपीसी को किसी कानून के स्पष्ट प्रावधानों के अलावा, पराजित होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने यह देखा कि जहां फेमिली कोर्ट को धारा 125 सीआरपीसी के तहत मामला तय करने का अधिकार क्षेत्र है, साथ ही अधिनियम, 1956 की धारा 20 के तहत मुकदमा तय करने का अधिकार क्षेत्र है, दोनों अधिनियमों के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकता है और एक उपयुक्त मामले में अविवाहित बेटी को भरण-पोषण प्रदान कर सकता है, भले ही वह वयस्क हो चुकी हो, अधिनियम की धारा 20 के तहत अपनी अधिकार लागू कर रही हो, ताकि कार्यवाही की बहुलता से बचें। लेकिन इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि धारा 125 सीआरपीसी को लागू करने मजिस्ट्रेट के समक्ष तत्काल आवेदन दायर किया गया था, अदालत ने कहा, धारा 125 सीआरपीसी का उद्देश्य और आशय, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, एक सारांश कार्यवाही में आवेदक को तत्काल राहत प्रदान करना है, जबकि धारा 20 के तहत, अधिनियम, 1956, धारा 3 (बी) के साथ पढ़ें, बड़ा अधिकार शामिल है, जिसे सिविल कोर्ट द्वारा निर्धारित करने की आवश्यकता है, इसलिए बड़े दावों के लिए, जैसा कि धारा 20 के तहत सुनिश्‍चित किया गया है, अधिनियम की धारा 20 के तहत कार्यवाही शुरू करने की आवश्यकता है और विधायिका ने धारा 125 सीआरपीसी के तहत क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट पर जिम्‍मेदारी डालने के लिए कभी विचार नहीं किया। अपील को खारिज करते हुए, पीठ ने अपीलकर्ता को पिता के खिलाफ किसी भी भरण-पोषण का दावा करने के लिए अधिनियम की धारा 20 (3) का सहारा लेने की स्वतंत्रता दी। 

केस का नाम: अभिलाषा बनाम प्रकाश केस नं: CRIMINAL APPEAL NO 615 of । 2020। कोरम: जस्टिस अशोक भूषण, आर। सुभाष रेड्डी और एमआर शाह प्रतिनिधित्व: सीनियर एडवोकेट विभा दत्ता मखीजा

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/major-unmarried-daughter-not-suffering-from-any-physical-or-mental-abnormality-not-entitled-to-claim-maintenance-from-father-us-125-of-crpc-sc-163001?infinitescroll=1

Saturday 12 September 2020

डिफॉल्ट बेल : बलात्कार के आरोपी की याचिका पर विचार करते समय पीड़िता का पक्ष सुनना अनिवार्य नहीं

 डिफॉल्ट बेल : बलात्कार के आरोपी की याचिका पर विचार करते समय पीड़िता का पक्ष सुनना अनिवार्य नहीं : केरल हाईकोर्ट 13 Sep 2020 
 केरल हाईकोर्ट ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 (1ए) में निहित प्रावधान सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर लागू नहीं होते हैं। सीआरपीसी की धारा 439 (1ए) के अनुसार, सूचना देने वाले या उसके द्वारा अधिकृत किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति उस समय अनिवार्य होगी, जब आईपीसी की धारा 376 की उप-धारा (3) या धारा 376एबी या धारा 376डीए या धारा 376डीबी के तहत जमानत के लिए आवेदन दायर किया जाता है। हाईकोर्ट के समक्ष आए इस मामले में अभियुक्त (जिस स्कूल में पीड़िता पढ़ाई कर रही थी,आरोपी उसी स्कूल में शिक्षक था) के खिलाफ मामला आईपीसी की धारा 376 (2) (एफ), 376एबी और 354बी और पाॅक्सो एक्ट (the Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012 ) की धारा 5 (एफ), 5 (एल) और 5 (एम) रिड विद सेक्शन 6 के तहत दर्ज किया गया था। इस मामले में आरोपी 90 दिनों से हिरासत में था और उसके बावजूद भी इस मामले में अंतिम रिपोर्ट दायर नहीं की गई थी। इसलिए अभियुक्त ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत के लिए विशेष अदालत का रुख किया था। विशेष अदालत ने उसे जमानत देते हुए कहा था कि आरोपी 90 दिनों से हिरासत में है,उसके बावजूद भी मामले की जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है। इसलिए आरोपी स्वत: ज़मानत (डिफॉल्ट बेल) का हकदार है। हाईकोर्ट के समक्ष पीड़िता ने दलील दी कि अभियुक्त के खिलाफ आईपीसी की 376एबी के तहत दंडनीय अपराध में मामला बनाया गया है,इसलिए अदालत को आरोपी को जमानत देते समय संहिता की धारा 439 (1ए) के अनुसार पीड़िता का पक्ष भी सुनना चाहिए था। इसलिए, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या अदालत के लिए यह आवश्यक है कि संहिता की धारा 167 (2) के तहत किसी अभियुक्त को जमानत देते समय वह संहिता की धारा 439 (1 ए) के तहत दिए गए प्रावधान का भी पालन करे ? अदालत ने कहा कि संहिता की धारा 167 (2) के तहत मांगी गई जमानत संहिता की धारा 437, 438 और 439 के तहत मांगी गई जमानत से मौलिक रूप से अलग है। जस्टिस पीबी सुरेश कुमार ने यह भी कहा कि, विशेष रूप से दोनों एकदम भिन्न है। जहां सीआरपीसी की धारा 167 (2) एक अभियुक्त को अपरिहार्य अधिकार प्रदान करती है, वहीं धारा 437, 438 और 439 अभियुक्त को इस तरह का कोई अधिकार नहीं देती हैं और इन प्रावधानों के तहत जमानत देना केवल न्यायिक विवेक का मामला है। एक अभियुक्त को धारा 167 (2) के तहत जमानत मांगने का अधिकार उस समय मिलता है,जब जांच अधिकारी प्रावधान में निर्दिष्ट समय अवधि के भीतर मामले की जांच पूरी नहीं कर पाता है। वहीं धारा 167 (2) के तहत जमानत के लिए दायर आवेदन पर विचार करते समय, अदालत मामले की योग्यता या मैरिट पर विचार नहीं करती है। ऐसे में अदालत सिर्फ इस सवाल पर विचार करती है कि क्या निर्धारित अवधि के तहत मामले की जांच पूरी करने में जांच एजेंसी की ओर से चूक हुई है या नहीं? यदि जांच एजेंसी निर्धारित समय के भीतर मामले में अंतिम रिपोर्ट दर्ज करने में विफल रहती है, तो हिरासत में रखे गए आरोपी को जमानत का पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है। धारा 167 (2) के विपरीत, धारा 437 और 439 के तहत काम करने वाली अदालत को अपने न्यायिक विवेक का उपयोग करने के लिए विभिन्न विचारों या तर्कों द्वारा निर्देशित किया जाता है,जो इस प्रकार हैं-(1) आरोप की प्रकृति और दोषी पाए जाने के मामले में सजा की गंभीरता और अभियोजन पक्ष द्वारा पेश की जाने वाली सामग्री की प्रकृति, (2) गवाहों के साथ छेड़छाड़ की उचित आशंका या शिकायतकर्ता व गवाहों को खतरे की आशंका,(3) मुकदमे के समय अभियुक्त की उपस्थिति को सुरक्षित रखने की उचित संभावना , (4) आरोपी का चरित्र व व्यवहार और परिस्थितियां,जो आरोपी के लिए अजीब हो,(5) जनता या राज्य का बड़ा हित और इसी तरह के अन्य विचार। अदालत ने कहा कि संहिता की धारा 439 (1ए) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जमानत याचिका पर निर्णय देने से पहले पीड़ित व्यक्ति या पीड़ित के हित में काम करने वाले व्यक्ति का पक्ष भी सुना जाए। वहीं संहिता की धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर निर्णय करते समय कोर्ट सिर्फ अभियुक्त द्वारा हिरासत में बिताई गई अवधि पर विचार करती है। ऐसे में संहिता की धारा 439 (1 ए) में निहित प्रावधान का अनुपालन करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ''भले ही संहिता की धारा 439 (1 ए) में प्रयुक्त शब्दावली पर विश्वास करते हुए यह मान लिया जाए कि इस धारा के प्रावधानों का ,संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत देते समय पालन किया जाना चाहिए, तो भी यह एक महज औपचारिकता होगी। धारा 167 (2) का उद्देश्य किसी ऐसे व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है जिसे हिरासत में लिया गया है और मामले में लंबित जांच के दौरान उसे हिरासत में ही रखा जाएगा। यह भी सही है कि किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामलों में, अदालत को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में झुकना चाहिए। उपर्युक्त परिस्थितियों में, मेरा यह मानना​है कि संहिता की धारा 439 (1 ए) में निहित प्रावधान, धारा 167 (2) के तहत दायर जमानत के आवेदन पर लागू नहीं होते हैं।'' इस प्रकार पीठ ने माना कि आरोपी संहिता की धारा 167 (2) के तहत जमानत का हकदार है। मामले का विवरण- केस का नाम- एक्स बनाम केरल राज्य केस नंबर-सीआरएल.एमसी. नंबर 3463/2020 कोरम-न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार प्रतिनिधित्व-एडवोकेट सूरज टी इलेनजिकल,स्पेशल जीपी सुमन चक्रवर्ती,एडवोकेट एस राजीव

Tuesday 8 September 2020

मोटर दुर्घटना मुआवजा दावा -  बच्चों और अभिभावकों को भी कंसोर्टियम प्रदान किया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट 8 Sep 2020


*मोटर दुर्घटना मुआवजा दावा -  बच्चों और अभिभावकों को भी कंसोर्टियम प्रदान किया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट* 8 Sep 2020
       सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि मोटर दुर्घटना मुआवजा दावों में, बच्चों और अभिभावकों को भी कंसोर्टियम ( सहायता संघ) प्रदान किया जा सकता है। *जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस आर सुभाष रेड्डी की बेंच* तीन बीमा कंपनियों, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, चोलामंडलम एमएस जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और द ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड द्वारा दायर अपील पर विचार कर रही थी जिसमें मोटर दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल (एमएसीटी) द्वारा अवार्ड के संबंध में दिए गए मुआवजे को लेकर दो प्रमुख दावेदारी, अर्थात, "कंसोर्टियम की हानि" और "प्यार और स्नेह की हानि।" के संबंध में उच्च न्यायालयों के निर्णय पर सवाल उठाए गए थे। 
         इन अपीलों में, बीमा कंपनियों ने दोनों प्रमुख दावेदारी को मुआवजे के अवार्ड, यानी (क) कंसोर्टियम के नुकसान और (बी) प्यार और स्नेह के नुकसान पर सवाल उठाया था। 'कंसोर्टियम' के संबंध में, यह मुद्दा उठाया गया था कि- *क्या केवल पत्नी ही कंसोर्टियम की हकदार है या कंसोर्टियम बच्चों और माता-पिता को भी प्रदान किया जा सकता है?* विवाद यह था कि 'प्यार और स्नेह की हानि' के तहत दी गई राशि पूरी तरह से अधिकार क्षेत्र के बिना है और आगे की राशि 'कंसोर्टियम' के तहत दी गई राशि .40,000 / - रुपये से अधिक नहीं हो सकती है और 'कंसोर्टियम ' की राशि केवल पत्नी को देय है जो .40,000 / - रुपये  की हकदार है और ट्रिब्यूनल और उच्च न्यायालयों ने इस दावे के तहत पत्नी, बच्चों और माता-पिता में से प्रत्येक को कंसोर्टियम की राशि देने में त्रुटि की है। अपीलकर्ताओं ने नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी में संविधान पीठ के फैसले का उल्लेख किया और कहा कि इसने केवल पति या पत्नी कंसोर्टियम को संदर्भित किया है और किसी अन्य *कंसोर्टियम को प्रणय सेठी के फैसले में संदर्भित नहीं किया गया था,* इसलिए, अभिभावक या संतान को अनुमति देने का कोई औचित्य नहीं है।  इस संबंध में, पीठ ने कहा: " प्रणय सेठी में संविधान पीठ ने .40,000 / - रुपये की राशि को 'कंसोर्टियम के नुकसान' के रूप में संदर्भित किया है, लेकिन संविधान पीठ ने इस मुद्दे को संबोधित नहीं किया है कि क्या 40,000 / - का कंसोर्टियम केवल पति या पत्नी कंसोर्टियम के लिए देय है। *प्रणय सेठी के फैसले का मतलब यह नहीं पढ़ा जा सकता है कि यह प्रस्ताव है कि कंसोर्टियम केवल पत्नी को देय है।"*
      अदालत ने देखा कि *यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सतिंदर कौर उर्फ ​​सतविंदर कौर में तीन जजों की बेंच ने स्पष्ट रूप से निर्धारित किया है कि इसके अलावा, पति या पत्नी कंसोर्टियम, अभिभावक और संतान कंसोर्टियम देय है।*  इस प्रकार, पीठ ने कहा: "हम खुद को तीन न्यायाधीश पीठ के उपरोक्त निर्णय से बंधे हुए महसूस करते हैं। हम इस प्रकार अपीलार्थी के लिए दिए गए परामर्श को प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं कि दावेदारों में से प्रत्येक को दी गई राशि की राशि टिकाऊ नहीं है।" न्यायालय ने अपीलकर्ताओं के इस तर्क से सहमति व्यक्त की कि अलग-अलग हेड के नीचे 'प्यार और स्नेह की हानि' मुआवजे के अवार्ड का कोई औचित्य नहीं है। यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सतिंदर कौर उर्फ ​​सतविंदर कौर और अन्य के फैसले का हवाला देते हुए, बेंच ने कहा: "उपरोक्त मामले में तीन जजों की बेंच ने पति या पत्नी कंसोर्टियम, अभिभावक कंसोर्टियम और संतान कंसोर्टियम को शामिल करने के लिए अभिव्यक्ति 'कंसोर्टियम' को दी गई व्यापक व्याख्या को मंजूरी दे दी। तीन जज बेंच ने हालांकि 'प्रेम और स्नेह की हानि ' को और कम कर दिया और इसे 'कंसोर्टियम के नुकसान' के रूप में जाना जाता है, इसलिए, एक अलग हेड के रूप में 'प्यार और स्नेह की हानि' के लिए मुआवजे का अवार्ड देने का कोई औचित्य नहीं है। ''

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/motor-accident-claims-compensation-for-loss-of-consortium-can-be-awarded-to-children-and-parents-also-sc-162549

Tuesday 1 September 2020

'मजिस्ट्रेट के संज्ञान लेने के बाद CrPC की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता',* 1 Sep 2020


*'मजिस्ट्रेट के संज्ञान लेने के बाद CrPC की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता',* 1 Sep 2020
      जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने सोमवार (31 अगस्त) को एक फैसला सुनाया है जिसमे यह साफ़ किया कि एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान ले लिया जाए, उसके बाद दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता है। न्यायमूर्ति अली मुहम्मद माग्रे की पीठ ने कहा कि एक बार जब कोई मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेता है, तो उसके बाद उसे धारा 156 (3) के तहत अन्वेषणका आदेश देने से रोक दिया जाता है। 
      यही नहीं, पीठ ने निदेशक, न्यायिक अकादमी को साथ ही यह निर्देश भी दिया कि वे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सभी मजिस्ट्रेटों के लिए प्रशिक्षण सत्र की व्यवस्था करें। दरअसल, अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत याचिका दाखिल करते हुए दिनांक 25.06.2020 एवं 11.05.2020 के उन आदेशों को रद्द करने की मांग की गयी थी जो आदेश, न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (3rd अतिरिक्त मुंसिफ/जेएमआईसी, श्रीनगर) द्वारा पारित किये गए थे। 
       मामले की पृष्ठभूमि दरअसल 11 मई 2020 को, न्यायिक मजिस्ट्रेट ने एसएसपी श्रीनगर को एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट और अन्य के खिलाफ एक शिकायत की जांच करने का निर्देश दिया था। कार्यकारी मजिस्ट्रेट और अन्य के खिलाफ धारा 166, 166-ए, और 167, 354, 201, 209 और 120-बी आईपीसी के तहत अपराधों के सम्बन्ध में शिकायत दर्ज की गई थी। एसएसपी ने जांच रिपोर्ट दायर की और यह पाया कि कि मौजूदा याचिकाकर्ता (कार्यकारी मजिस्ट्रेट) और अन्य आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ लगाए गए मामले और आरोपों की पुष्टि नहीं हो पाई। 
          इसके बाद 25 जून को न्यायिक मजिस्ट्रेट ने यह देखते हुए कि एसएसपी श्रीनगर ने मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है, एसएसपी, श्रीनगर, को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के प्रावधानों के तहत कार्रवाई करने के लिए और मामले का अन्वेषण एसपी के माध्यम से कराने संबंधित आदेश निर्देश दे दिया। पक्षकारों की दलीलें मजिस्ट्रेट के आदेश का समर्थन करते हुए और मौजूदा याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए शिकायतकर्ता की ओर से पेश वकील ने यह पेश किया कि अदालत के पास निष्पक्ष और ईमानदार जांच/अन्वेषण सुनिश्चित करने की शक्ति है, क्योंकि पुलिस की भूमिका शिकायत की जांच में उचित नहीं है। 
         वहीँ मौजूदा याचिकाकर्ता के लिए पेश वकील ने अपनी दलीलें देते हुए कहा कि मजिस्ट्रेट का धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का निर्देश देने का आदेश, पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) के तहत अनुमन्य है, जबकि धारा 202 के तहत जांच का आदेश पोस्ट- संज्ञान स्टेज (POST-COGNIZANCE STAGE) पर होता है, इसलिए, इस प्रक्रिया के खिलाफ होने वाले आदेशों को रद्द कर दिया जाना चाहिए। अदालत के समक्ष विचार हेतु सवाल? अदालत के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 156 (3) के संदर्भ में, मामले का अन्वेषण करने का निर्देश जारी करने में सही/उचित/न्यायोचित था, जबकि सीआरपीसी की धारा 202 के संदर्भ में जांच पूरी होने तक प्रक्रिया स्थगित कर दी गई थी? दूसरे शब्दों में, मजिस्ट्रेट के आदेश को देखने से यह पता चलता है कि मजिस्ट्रेट ने शिकायत पर विचार करने पर, प्रक्रिया जारी करने को स्थगित कर दिया था और आरोपों की शुद्धता के बारे में संतुष्ट होने के लिए जांच का निर्देश दिया था। रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट ने कानून के आदेश के अनुरूप आगे बढ़ने के बजाय, सीआरपीसी की धारा 156 (3) के संदर्भ में अन्वेषण का आदेश दिया, अब सवाल यह था कि क्या मजिस्ट्रेट ने न्यायालय की शक्तियों का दुरुपयोग किया है या नहीं? अदालत का अवलोकन अदालत ने सबसे पहले इस सवाल का जवाब दिया कि क्या मजिस्ट्रेट के लिए शिकायत का संज्ञान लेने के बाद और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करने (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) के बाद, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, श्रीनगर से जांच रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद, धारा 156 (3) के तहत जो कार्यवाही की वह उचित थी या उन्हें धारा 202 के तहत आगे बढ़ने की आवश्यकता थी। इसपर अदालत ने कहा कि, "निश्चित रूप से मजिस्ट्रेट ने शिकायत का संज्ञान लिया और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करना (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) आवश्यक समझा, इसलिए, पुलिस द्वारा मामले को जांच के लिए निर्देशित किया और एसएसपी, श्रीनगर से रिपोर्ट प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XV में निहित प्रावधानों के संदर्भ में आगे बढ़ना आवश्यक था।" गौरतलब है कि जब मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान नहीं लिया जाता है और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी नहीं किया जाता (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) और एक मामले के साथ आगे बढ़ने के लिए आवश्यक पाया जाता है तो उक्त प्रावधान [156(3)] के तहत निर्देश जारी किया जाता है. वहीँ दूसरी ओर, जब मजिस्ट्रेट द्वारा मामले का संज्ञान लिया जाता है और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी किया जाता है (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS) तो उस स्तर पर मजिस्ट्रेट द्वारा अभी तक "आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार के अस्तित्व" को निर्धारित नहीं गया होता है और ऐसे मामले धारा 202 के तहत आते हैं। अदालत ने रमेशभाई पांडुरो हेडो बनाम गुजरात राज्य (2010) 4 SCC 185 में यह साफ़ किया था कि धारा 156 (3) के तहत पुलिस अन्वेषण का निर्देश देने की शक्ति पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) में प्रयोग करने योग्य है, वहीँ धारा 202 (1) के तहत जांच या जांच का निर्देश देने की शक्ति का प्रयोग पोस्ट-संज्ञान चरण (POST-COGNIZANCE STAGE) में किया जाता है जब केस मजिस्ट्रेट के अंतर्गत आ जाता है। मौजूदा मामले में उच्च न्यायालय ने सुरेश चंद जैन (2001) 2 SCC 628 मामले के साथ सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गए अन्य मामलों को संदर्भित करते हुए कहा कि धारा 156 (3) के तहत शक्तियों को एक पूर्व-संज्ञान चरण (PRE-COGNIZANCE STAGE) में मजिस्ट्रेट द्वारा आमंत्रित किया जा सकता है, जबकि एक शिकायत पर संज्ञान लेने के बाद (POST-COGNIZANCE STAGE), संहिता की धारा 202 के तहत शक्तियों को लागू किया जाना चाहिए, हालाँकि प्रक्रिया को जारी करने से पहले। अदालत ने मुख्य रूप से कहा, "जहां उपलब्ध जानकारी की विश्वसनीयता के आधार पर, या न्याय के हित को तौलते हुए, मामले को प्रत्यक्ष अन्वेषण के लिए उपयुक्त माना जाता है, तो धारा 156 (3) के तहत दिशा निर्देश जारी किये जाते हैं। वर्तमान मामले में, मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया और आदेशिका के जारी किये जाने को मुल्तवी करदिया (POSTPONEMENT OF ISSUE OF PROCESS), क्योंकि मजिस्ट्रेट को अभी "आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार के अस्तित्व" का निर्धारण करना था। इसलिए, मजिस्ट्रेट ने प्रक्रिया का पालन न करके कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग किया है।" अदालत ने आगे कहा, "दूसरे शब्दों में, एक बार एक मजिस्ट्रेट अपराध का संज्ञान लेता है, उसके बाद, वह संहिता की धारा 156 (3) के तहत अन्वेषण का आदेश नहीं दे सकता।" उपरोक्त चर्चा के मद्देनजर, मौजूदा याचिका को न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (3rd अतिरिक्त मुंसिफ़/जेएमआईसी, श्रीनगर) द्वारा पारित दिनांक 25.06.2020 के आदेश को रद्द करते हुए अनुमति दी गयी, हालांकि, मजिस्ट्रेट को संहिता के अध्याय XV के संदर्भ में रिपोर्ट, अर्थात धारा 202 (1) के बाद के स्टेज से आगे बढ़ने की अनुमति दी जाती है। अंत में, अदालत ने मुख्य रूप से कहा कि, "चूंकि अदालत ने यह विचार किया है कि मामले को संचालित करने के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण, कानून के अनुरूप नहीं है, बल्कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है, इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि इस फैसले की प्रतिलिपि को इस न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भेजा जाए कि वे निदेशक, न्यायिक अकादमी से यह अनुरोध करें कि चरणबद्ध तरीके से जम्मू और कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के सभी मजिस्ट्रेटों के लिए प्रशिक्षण सत्र की व्यवस्था करें। वे निदेशक, न्यायिक अकादमी को प्रशिक्षण सत्र से पहले सभी मजिस्ट्रेटों के बीच इस जजमेंट को प्रसारित करने को कहेंगे।"

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/investigation-cannot-be-ordered-under-section-156-3-of-crpc-after-taking-cognizance-of-magistrate-jk-high-court-orders-training-of-magistrates-162252

बलात्कार का प्रयास 511 सह 376, साठ दिन की अवधि के भीतर अंतिम रिपोर्ट दायर न करने पर crpc 167(2) डिफाल्ट जमानत का हकदार : 31 Aug 2020

*बलात्कार का प्रयास 511 सह 376, साठ दिन की अवधि के भीतर अंतिम रिपोर्ट दायर न करने पर crpc 167(2) डिफाल्ट जमानत का हकदार :  31 Aug 2020*

 केरल हाईकोर्ट ने माना है कि साठ दिनों की अवधि के भीतर अंतिम रिपोर्ट दायर न करने पर बलात्कार के प्रयास (धारा 511 रीड विद 376) का आरोपी वैधानिक जमानत का हकदार बन जाता है। अदालत इस मामले में बलात्कार के प्रयास के आरोपी एक व्यक्ति की तरफ से दायर जमानत याचिका पर विचार कर रही थी। आरोपी ने तर्क दिया था कि वह सीआरपीसी की की धारा 167 (2) (ए) (ii) के तहत वैधानिक जमानत का हकदार है क्योंकि उसे 19 जून 2020 को गिरफ्तार किया गया था और साठ दिन की हिरासत की अवधि खत्म हो गई है।
        दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) (ए) के अनुसार, मजिस्ट्रेट उस मामले की जांच के संबंध में 60 दिनों की अवधि से परे अभियुक्त को हिरासत में रखने को अधिकृत नहीं कर सकता है, जिसमें अधिकतम कारावास की सजा दस वर्ष है। इस प्रकार न्यायालय के समक्ष कानूनी मुद्दा यह था कि आईपीसी की धारा 376 की 511 और धारा 306 की 511 के तहत दी जाने वाली अधिकतम सजा दस साल हो सकती है या नहीं (under Section 511 of 376 and Section 511 of 306 IPC is ten years or not)।
      अदालत ने आईपीसी की धारा 57 पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया है कि सजा की शर्तों के अंशों की गणना में, आजीवन कारावास को बीस साल के कारावास के बराबर माना जाएगा। अदालत ने आगे कहा कि आईपीसी की धारा 511 में कहा गया है कि जो कोई भी इस संहिता के तहत आजीवन कारावास या कारावास के साथ दंडनीय अपराध करने का प्रयास करेगा, या ऐसा अपराध करेगा, और इस तरह के प्रयास में अपराध के प्रति कोई भी कार्य करेगा, ऐसे में जहां इस तरह के प्रयास की सजा के लिए इस संहिता में कोई भी प्रावधान नहीं किया गया है, तो अपराध के लिए प्रदान किए गए किसी भी तरह के कारावास के साथ उसे दंडित किया जाएगा। ऐसी अवधि आजीवन कारावास की आधी अवधि तक बढ़ाई जा सकती हैै, या जैसा भी मामला हो सकता है, उस अपराध के लिए प्रदान किए गए कारावास की सबसे लंबी अवधि की आधी अवधि भी हो सकती है, या अपराध के प्रदान किया गया जुर्माना भी हो सकता है, या सजा व जुर्माना,दोनों हो सकते हैं।
          पीठ ने कहा कि लोक अभियोजक ने जमानत याचिका का विरोध करते हुए कहा था कि आईपीसी की धारा 376 (2) में आजीवन कारावास के बारे में एक स्पष्टीकरण है कि 'उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन के शेष के रूप में'। ऐसे में सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत 60 दिनों की गणना करने के लिए आईपीसी की धारा 57 को नहीं अपनाया जा सकता है। ऐसे में अगर लोक अभियोजक के इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है तो आईपीसी की धारा 376 (2) की 511 के तहत और धारा 376 (2) के तहत दी जाने वाली सजा एक समान हो जाएगी।
          अदालत ने राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017 (4) केएचसी 470) का हवाला देते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 167 का अन्वयन करते हुए उदार दृष्टिकोण जरूरी है। जस्टिस पीवी कुन्हीकृष्णन ने कहा कि- ''यह सच है कि आईपीसी की धारा 376 (2) में यह उल्लेख किया गया है कि आजीवन कारावास का अर्थ उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन के शेष के लिए कारावास है। यह एक निर्धारित स्थिति है कि आजीवन कारावास का अर्थ उस व्यक्ति के शेष जीवन के लिए कारावास है। उस पर कोई विवाद नहीं है। लेकिन जब भारतीय दंड संहिता में एक विशेष प्रावधान है, जो कहता है कि सजा की शर्तों के अंशों की गणना में, आजीवन कारावास को बीस साल के कारावास के बराबर माना जाएगा तो हम उस प्रावधान को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। हालांकि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत हिरासत अवधि की गणना करते समय भी आजीवन कारावास की व्याख्या यही है कि उस व्यक्ति के प्राकृतिक शेष जीवन के लिए कारावास। परंतु जैसा कि शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के प्रावधानों की व्याख्या उदार होनी चाहिए। ऐसे में सीआरपीसी की 167 (2)(ए) (ii) के साथ आईपीसी की धारा 376 की 511 (Section 511 of 376 IPC) व साथ में आईपीसी की धारा 57 को पढ़ने पर, यह स्पष्ट है कि एक अभियुक्त जिस पर आईपीसी की 376 की 511 (Section 511 of 376 IPC) के तहत किए गए अपराध का मामला बनाया गया है उसे केवल दस साल की अवधि के लिए कारावास हो सकता है। यदि ऐसा है, तो याचिकाकर्ता इस मामले में वैधानिक जमानत का हकदार है। याचिकाकर्ता के पहले रिमांड के बाद, 60 दिन समाप्त हो गए हैं। याचिकाकर्ता को 19 जून 2020 को गिरफ्तार किया गया था। आज के दिन तक इस मामले में अभी अंतिम रिपोर्ट दाखिल नहीं की गई है। इसलिए, याचिकाकर्ता सीआरपीसी की धारा 167 (2) (ए) (ii) के तहत वैधानिक जमानत का हकदार है। इसलिए, इस जमानत आवेदन को निम्नलिखित कठोर शर्तों के साथ अनुमति दी जाती है। " केस का विवरण- केस का नाम- विनेश बनाम केरल राज्य केस नंबर-बेल अपील नंबर 4876/ 2020 कोरम- जस्टिस पीवी कुन्हीकृष्णन प्रतिनिधित्व- एडवोकेट लथेश सेबेस्टियन, पीपी रेनजिथ टीआर