Monday 17 February 2014

रिमांड, जमानत, समर्पण के बारे में वैधानिक स्थिति

रिमांड, जमानत, समर्पण के बारे में वैधानिक स्थिति

मजिस्टेªट के दांडिक न्यायालय में पुलिस अभिरक्षा, न्यायिक अभिरक्षा, अभियुक्त द्वारा समर्पण या सरंडर किया जाना उसकी जमानत ये दैनिक कार्य के ऐसे विषय है जिनमें कई बार नवीनतम वैधानिक स्थिति पता न होने से या अन्य कारणों से कठिनाईयाॅं आती है किसी भी न्यायिक मजिस्टेªट के लिये इनके संबंध में वैधानिक प्रावधानों और नवीनतम कानून स्थिति को समझना अत्यंत आवश्यक है कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर क्रमवार विचार करेंगे:-

1.     धारा 57 दंड प्रक्रिया सहिता, 1973 के अनुसार कोई पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को वारंट के बिना गिरफ्तार करता है तो उसे यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़कर गिरफ्तारी से 24 घंटे के भीतर उस व्यक्ति को मजिस्टेªट के समक्ष पेश करना एक आज्ञापक प्रावधान है अतः जब भी किसी व्यक्ति को या अभियुक्त को न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष पेश किया जाये तब उसे केश डायरी, गिरफ्तारी पंचनामा में अंकित समय से यह समाधान कर लेना चाहिये की संबंधित व्यक्ति/ अभियुक्त को यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़कर 24 घंटे के भीतर प्रस्तुत किया गया है या नहीं और यदि ऐसा नहीं किया गया है तो यह मजिस्टेªट का कत्र्तव्य है कि वह संबंधित पुलिस अधिकारी से इस संबंध में आवश्यक पूछताछ करे की उसे 24 घंटे के भीतर क्यों पेश नहीं किया जा सका और यदि समाधानप्रद कारण नहीं बताये जाते है तो आवश्यक कार्यवाही भी कर सकते है तभी इस प्रावधान को लागू किया जा सकेगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के उप पैरा 2 के अनुसार भी प्रत्येक गिरफ्तारी व्यक्ति को यात्रा के लिये आवश्यक समय को छोड़कर 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्टेªट के समक्ष पेश करने के प्रावधान है साथ ही अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है यह संवैधानिक अधिकार प्रत्येक भारतीय नागरिक को दिये गये है और न्यायालय पर यह दायित्व है कि वह यह देखे की प्रत्येक व्यक्ति को उसके संवैधानिक अधिकारों से वैधानिक प्रक्रिया के अलावा तो वंचित नहीं किया जा रहा है।
2.     धारा 167 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को जब निकटतम न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष मय केश डायरी या आवश्यक प्रपत्रों के प्रस्तुत किया जाता है तब पुलिस या तो पुलिस अभिरक्षा या न्यायिक अभिरक्षा में संबंधित अभियुक्त को भेजने की प्रार्थना करती है।
         पुलिस अभिरक्षा के बारे में
     धारा 167 (2) के अनुसार पुलिस अभिरक्षा अधिकतम 15 दिन की दी जा सकती है इससे अधिक नहीं। पुलिस अभिरक्षा स्वीकार करते समय संबंधित न्यायिक मजिस्टेªट को केस डायरी का अवलोकन कर और संबंधित पुलिस अधिकारी को सुनकर यह समाधान करना चाहिये कि पुलिस अभिरक्षा में अभियुक्त को देने से अनुसंधान में प्रगति की संभावना या अभियुक्त ने धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का मेमोरेण्डम दिया है जिसके आधार पर उससे कोई वस्तु बरामद होना है इन सब चीजों पर विचार करना चाहिये। पुलिस अभिरक्षा में यदि अभियुक्त को सौपना है तब केस डायरी के साथ अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति भी आवश्यक है अभियुक्त को सुनना भी चाहिये।
यदि पुलिस अभिरक्षा में देने का प्रथम आवेदन निरस्त हो गया है तब भी प्रथम 15 दिवस के भीतर पुलिस अभिरक्षा के लिये दूसरा आवेदन प्रचलन योग्य होता है लेकिन एक बार प्रथम 15 दिवस की अवधि निकल जाये उसके बाद उस मामले में पुलिस अभिरक्षा का आवेदन चलने योग्य नहीं होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत देवेन्द्र कुमार और एक अन्य विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाणा, (2010) 6 एस.सी.सी. 753 एवं सी.बी.आई. विरूद्ध अनुपम जे. कुलकर्णी (1992) 3 एस.सी.सी. 141 अवलोकनीय है जिनमें उक्त व्यवस्था माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दी है।
3.     अभियुक्त को पुलिस अभिरक्षा में देते समय संबंधित न्यायिक मजिस्टेªट को ऐसा स्पष्ट आदेश करना चाहिये कि अभियुक्त को कितने दिन की पुलिस अभिरक्षा में दिया गया है और उसे पुनः किस दिनांक को और किस समय पर न्यायालय में पेश किया जाना है ताकि कार्य दिवस में ही अभियुक्त को पेश किया जा सके और आगे की सुनवाई हो सके।
न्यायिक मजिस्टेªट को यह निर्देश भी देना चाहिये की अभियुक्त का मेडिकल कराया जावे और जब उसे पुनः पुस्तुत किया जावे तब का मेडिकल भी कराया जावे।
धारा 10 किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम, 2000 को ध्यान में  रखते हुये 18 वर्ष से कम के अभियुक्त को पुलिस अभिरक्षा में नहीं दिया जाना चाहिये।
पुलिस अभिरक्षा की मांग एक से अधिक बार भी की जा सकती है लेकिन गिरफ्तारी के प्रथम 15 दिवस के भीतर किसी भी अभियुक्त को अधिकतम 15 दिवस की ही पुलिस अभिरक्षा में दिया जा सकता है।
4.     धारा 167 (3) के तहत् पुलिस अभिरक्षा में देने के कारण अभिलिखित करने होते है अतः संक्षिप्त कारण भी आदेश में देना चाहिये जैसे अभियुक्त से बरामदगी होना है या अभियुक्त को पुलिस अभिरक्षा में देने से अनुसंधान में महत्वपूर्ण प्रगति संभावित है आदि।
5.     यदि पुलिस अभिरक्षा में मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट के अलावा किसी अन्य न्यायिक मजिस्टेªट ने अभियुक्त को दिया है तब आदेश की एक प्रतिलिपि आदेश देने के कारणों सहित मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट को भेजना होती है इस संबंध में धारा 167 (4) द.प्र.सं. में स्पष्ट प्रावधान है।
5 ए.     धारा 167 (2)(सी) दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत कोई द्वितीय वर्ग मजिस्टेªट तब तक पुलिस अभिरक्षा का निरोध प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक उसे उच्च न्यायालय द्वारा इस बारे में विशेष रूप से सशक्त न किया गया हो।
न्यायिक अभिरक्षा के बारे में 
6.     यदि अपराध, मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष से अन्यून या कम नहीं के कारावास के दंडनीय है तब न्यायिक अभिरक्षा कुल मिलाकर 90 दिन से अधिक की नहीं दी जा सकती है।
7.     यदि अपराध उक्त दंड के अलावा अन्य मामलों से संबंधित है तब कुल मिलाकर 60 दिन से अधिक की न्यायिक अभिरक्षा नहीं दी जा सकती है।
यदि उक्त 90 दिन या 60 दिन की अवधि पूर्ण होने के बाद अभियुक्त जमानत देने के लिये तैयार हो और जमानत दे देता है तो उसे जमानात पर छोड़ दिया जायेगा इस जमानत में भी अध्याय 33 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के ही प्रावधान लागू होते है।
8.     अवधि की गणना रिमांड देने के आदेश से की जाना होती है गिरफ्तारी के दिनांक से नहीं इस संबंध में छगंती सत्यनारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आंध्रप्रदेश, ए.आई.आर. 1986 एस.सी. 2130 अवलोकनीय है।
90/60 दिन की गणना में रिमांड दिया जाने वाला दिन छोड़ देना चाहिये चार्ज शीट पेश होने वाला दिन गणना में लिया जाना चाहिये। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अजय सिंह विरूद्ध सुरेन्द्र सिंह, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 306 अवलोकनीय हैं जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध रूस्तम, 1995 एस.सी.सी. सप्लीमेंट (3) 221 पर भरोसा करते हुये उक्त मत दिया गया है।
कुछ मामलों में पुलिस अभियुक्त को जो किसी अन्य मामलें में पूर्व से निरोध में है औपचारिक रूप से अपने मामले में गिरफ्तार करती है जिसे फारमल अरेस्ट कहते है इन मामलों में अवधि की गणना अभियुक्त को जब पुलिस अभिरक्षा के लिये मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है उस दिन से होती है फारमल अरेस्ट के दिनांक से गणना नहीं होती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत कोक सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. (2004) 2 एम.पी.एच.टी. 215 अवलोकनीय है इस मामले में अभियुक्त को 26.06.2003 को औपचारिक रूप से गिरफ्तार किया गया था और मजिस्टेªट के समक्ष 01.07.2003 को पुलिस रिमांड के लिये प्रस्तुत किया गया था अवधि की गणना 01.07.2003 से होगी यह प्रतिपादित किया गया।
यदि अभियुक्त अंतरिम या अस्थायी जमानत पर बीच में रहा हो तो उस अवधि को 60/90 दिन की गणना में से कम किया जायेगा जैसा की न्याय दृष्टांत देवेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., (1991) 2 एम.पी.जे.आर. 338 में प्रतिपादित किया गया है।
9.     कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि अभियुक्त स्वयं न्यायालय के समक्ष समपर्ण करता है या उसे पुलिस अधिकारी के अलावा धटना स्थल पर उपस्थित किसी अन्य व्यक्ति या अधिकारी ने गिरफ्तार किया होता है तब भी धारा 167 दं.प्र.सं. के प्रावधान उसी तरह लागू होंगे जैसे पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी पर लागू होते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत डायरेक्टर इनफोर्समेंट विरूद्ध दीपक महाजन, ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1775 अवलोकनीय है।
यदि 60/90 दिन की अवधि जिस दिन समाप्त हो रही हो उस दिन न्यायालय का अवकाश हो तब भी चार्ज शीट पेश की जाना चाहिये क्योंकि चार्ज शीट मजिस्टेªट के समक्ष पेश करनी होती है अतः अवधि समाप्ति का दिन सामान्य अवकाश था इसका कोई लाभ अभियोजन को नहीं मिलेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत अशोक शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., जे.एल.जे. 99 अवलोकनीय है।
9ए.     अभियोग पत्र की प्रतिलिपि अभियुक्त को 60/90 दिन के भीतर नहीं दी गई इसका कोई लाभ अभियुक्त को नहीं मिलेगा क्योंकि धारा 167 (2) (ए) के तहत् 60/90 दिन के भीतर अभियोग पत्र पेश करना होता है इसमें अभियोग पत्र की प्रतिलिपि देना आज्ञापक नहीं है जैसा की न्याय दृष्टांत नीतू विरूद्ध स्टेट 1994 (2 ) एम.पी.जे.आर. 3242 में प्रतिपादित किया गया है इसी तरह अभियोग पत्र के साथ विधि विज्ञान प्रयोग शाला की जांच रिपोर्ट नहीं लगी है तो इसका भी कोई लाभ अभियुक्त को नहीं मिलेगा इस संबंध में न्याय दृष्टांत कनीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1991 (1) एम.पी.जे.आर. नोट 30 अवलोकनीय है।
आवेदन की आवश्यकता
10.     न्याय दृष्टांत हितेन्द्र विष्णु ठाकुर विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 2623 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियुक्त को 60/90 दिन की अवधि पूर्ण होने पर जमानत पर छोड़े जाने के लिये आवेदन देना होगा इस तरह यह अभियुक्त का दायित्व है कि 60/90 दिन में अभियोग पत्र प्रस्तुत न होने पर उसे उत्पन्न हुये जमानत के अधिकार का प्रयोग करें।
अभियुक्त की उपस्थिति के बारे में
11.     धारा 167 दण्ड प्रक्रिया संहिता में यह स्पष्ट प्रावधान है कि अभियुक्त को किसी भी प्रकार की अभिरक्षा में देने से पूर्व उसकी न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष भौतिक उपस्थिति आवश्यक है। कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है कि पुलिस सभी सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित करने में असमर्थ रहती है जैसे अभियुक्त गंभीर बिमारी के कारण, चोटों के कारण, चलने फिरने में असमर्थ है या किसी अन्य अपरिहार्य परिस्थिति के कारण सारे संभावित प्रयासों के बावजूद अभियुक्त को पेश नहीं किया जा सकता है वहां अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति के बिना भी उसे अभिरक्षा में दिया जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजू विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 1990 सी.आर.एल.जे., एन.ओ.सी. 159 (डी.बी.) अवलोकनीय है।
यदि प्रयोगिक रूप से ऐसा संभव हो तो संबंधित न्यायिक मजिस्टेªट को संबंधित स्थान पर जहां अभियुक्त है वहां जाकर उसे सुनकर अभिरक्षा उस दशा में देना चाहिये जब संबंधित न्यायिक मजिस्टेªट का यह मत हो की अभियुक्त को सुने बिना अभिरक्षा में दिया जाना उचित नहीं है।
अभियुक्त की अनुपस्थिति में उसे अभिरक्षा में दिया जाना अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में किया जाना चाहिये।
         एन.डी.पी.एस. एक्ट के बारे में
12.     न्याय दृष्टांत यूनियन आॅफ इंडिया विरूद्ध थानेश्वरी, 1995 ए.आई.आर.,एस.सी.डब्ल्यू. 2543 एवं डाॅं. विपिन एस. पांचाल विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात,  ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2897 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 167 दं.प्र.सं. के प्रावधान इन मामलों पर भी लागू होगी और धारा 37 एन.डी.पी.एस. एक्ट, धारा 167 दं.प्र.सं. को एक्सक्लूड नहीं किया है।
न्याय दृष्टांत अन्नू उर्फ अनिल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. (2008) 1 एम.पी.एच.टी. 286 में मीडियम क्वांटिटी के गांजे के मामले में 60 दिन के भीतर अभियोग पत्र पेश नहीं होने के आधार पर अभियुक्त को जमानत का अधिकारी पाया गया हैं।
12ए.     मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, 1915 की धारा 59 ए के प्रावधान धारा 49 ए मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम के मामलों में ध्यान रखना चाहिये क्योंकि वहां निरोध की अवधि 120 दिन नियत की गई है।
60/90 दिन के बाद अभियोग पत्र प्रस्तुत होने पर वैधानिक स्थिति
     इस स्थिति को हमें विभिन्न दृष्टिकोण से देखना होगा:-
13.     प्रथम स्थिति जिसमें 60/90 दिन की अवधि पूर्ण होते ही अभियुक्त द्वारा धारा 167 के अनुसार जमानत का लाभ ले लिया तब ऐसी जमानत 60/90 दिन की अवधि के पश्चात् अभियोग पत्र पेश होने के बाद भी बल में रहेगी अभियोजन चाहे तो ऐसे जमानत को निरस्त करवाने के लिये आवश्यक कदम उठा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सिमरन जीत सिंह मान विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 149 अवलोकनीय है।
14.     द्वितीय स्थिति 60/90 दिन की अवधि पूर्ण होने के बाद अभियोग पत्र प्रस्तुत होता है और उसके बाद अभियुक्त जमानत पर छोड़े जाने की प्रार्थना करता है तब उसे धारा 167 दं.प्र.सं. के प्रावधानों का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि जैसे ही उसे जमानत का अधिकार उत्पन्न हुआ था उसने उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया इस संबंध में न्याय दृष्टांत संजय दत्त विरूद्ध स्टेट, (1994) 5 एस.सी.सी. 410 की माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ का न्याय दृष्टांत अवलोकनीय है।
15.     तृतीय स्थिति में 60/90 दिन की अवधि पूर्ण होते ही अभियुक्त ने जमानत पर रिहा करने का आवेदन लगा दिया तब तक अभियोग पत्र पेश नहीं हुआ आवेदन विचार के लिये रखा गया उस बीच अभियोग पत्र पेश हो गया ऐसी स्थिति में अभियुक्त को धारा 167 दं.प्र.सं. के प्रावधानों का लाभ मिलेगा और वह जमानत का हकदार है क्योंकि उसने जमानत पर छोड़े जाने का अधिकार उत्पन्न होते ही आवेदन कर दिया था इस संबंध में न्याय दृष्टांत उदय मोहन अचार्य विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र ए.आई.आर.2001 एस.सी. 760 अवलोकनीय है।

कारावास की अवधि के बारे में
17.     यदि अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास या 10 वर्ष से न्यून के कारावास से दंडनीय है उस दशा में 90 दिन की अवधि की गणना और इसे विचार में लेना आसान होता है अन्य मामलों में कुछ कठिनाई होती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजीव चैधरी विरूद्ध स्टेट, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 2369 अवलोकनीय है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि कारावास 10 वर्ष या उससे अधिक का हो उसमें अभियुक्त को 90 दिन तक निरोध में रखा जा सकता है यह मामला धारा 386 भा.दं.सं. का था।
न्याय दृष्टांत भूपेन्द्र सिंह विरूद्ध जनरेल सिंह (2006) 6 एस.सी.सी. 277 में धारा 304 बी भा.दं.सं. में 90 दिन की अवधि तक की अभिरक्षा मानी जाने की विधि प्रतिपादित की गई है क्योंकि धारा 304 बी भा.दं.सं. में आजीवन कारावास का दण्ड भी है।
धारा 436 दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के बारे में
1.     धारा 436 दं.प्र.सं. जमानतीय अपराधों में अभियुक्त के जमानत पर छोड़े जाने के बारे में है जमानतीय अपराधों में जमानत अभियुक्त का अधिकार होता है अतः प्रथम बार जमानत के मामले में जमानतीय अपराधों में न्यायिक मजिस्टेªट को अभियुक्त को जमानत पर रिहा करना ही है।
धारा 436 की उप धारा 2 के अनुसार यदि अभियुक्त को प्रथम बार दी गई जमानत की शर्तो का वह उल्लंघन करता है तब उसका मामला वैसा ही माना जावेगा जैसा वह अजमानती अपराध हो।
धारा 436 दं.प्र.सं. में गिरफ्तारी की तारीख से एक सप्ताह के भीतर जमानत पेश करने मंे असमर्थ रहे व्यक्ति को इस धारा के प्रयोजन के लिये निर्धन व्यक्ति समझा जावेगा। ऐसे व्यक्ति को न्यायालय अपने विवेकाधिकार पर बंध पत्र पर रिहा कर सकती है।
धारा 436 ए के बारे में
2.     यह नवीन प्रावधान है जिसके अनुसार यदि कोई अभियुक्त उस अपराध के लिये निर्धारित कारावास की अधिकतम अवधि से आधे से अधिक अवधि तक अन्वेषण, जांच या विचारण में निरोध में रहा है तो न्यायालय उसे जमानत पर रिहा कर देगी। अपराध मृत्यु दंड से दंडनीय नहीं होना चाहिये साथ ही अभियोजन को सुनकर और कारण लेखबद्ध करते हुये उसे आगे भी निरोध में रखने का आदेश कर सकता है।
परंतु कोई भी अभियुक्त किसी अपराध के लिये जितना अधिकतम दंड निर्धारित है उससे अधिक अवधि के लिये निरूद्ध नहीं रखा जायेगा साथ ही अभियुक्त की ओर से कोई विलंब कारित हुआ है तो उस अवधि को अपवर्जित कर दिया जायेगा।
इस प्रावधान का उद्देश्य यह है कि किसी भी व्यक्ति को उस अधिकतम अवधि से अधिक अभिरक्षा में नहीं रखा जाये जो उस अपराध के लिये उसे दंड के रूप में दी जा सकती है इसीलिये इस प्रावधान में आधे से अधिक अवधि होते ही जमानत पर छोड़े जाने के निर्देश हैं अतः सभी न्यायिक मजिस्ट्रेट को इस संबंध में सतर्क रहना चाहिये और जिन मामलों में अभियुक्त अभिरक्षा में है उनका शीध्र निराकरण करना चाहिये।
धारा 437 दं.प्र.सं. 1973 के बारे
3.     यदि किसी व्यक्ति पर अजामनतीय अपराध का अभियोग है या जिस पर ऐसा अपराध करने का संदेह है, उसे वारंट के बिना गिरफ्तार कर पेश किया जाता है तो उसे संबंधित मजिस्टेªट अपने विवेकाधिकार पर उसके आवेदन करने पर जमानत पर रिहा कर सकते है किन्तु:-
1.     यदि यह विश्वास करने के उचित आधार प्रतीत होते है कि उस व्यक्ति ने मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध किया है तो उसे जमानत पर नहीं छोड़ा जायेगा।
2.     यह संबंधित अपराध संज्ञेय अपराध है और ऐसा व्यक्ति मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय किसी अपराध के लिये पहले दोषसिद्ध किया गया है या तीन वर्ष या उससे अधिक के किन्तु 7 वर्ष से अनधिक कारावास से दंडनीय संज्ञेय अपराध के लिये दो या अधिक अवसरों पर पहले दोषसिद्ध किया गया है उसे जमानत पर इस प्रकार नहीं छोड़ा जायेगा।
यदि संबंधित अभियुक्त कोई स्त्री या रोगी या शिथिलांग व्यक्ति है या 16 वर्ष से कम आयु का है तो उसे उक्त दशा में भी जमानत पर छोड़ा जा सकता है।
धारा 437 दं.प्र.सं. न्यायिक मजिस्टेªट को एक विवेकाधिकार देती है जिसके तहत् वह किसी अभियुक्त को जमानत पर रिहा कर सकती है इस विवेकाधिकार का प्रयोग अत्यंत सावधानी से करना चाहिये किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज के हितों के बीच उचित तालमेल बिठाना चाहिये और एक सकारण आदेश देना चाहिये आदेश संक्षिप्त में होना चाहिये।
न्याय दृष्टांत लोकेश सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 94 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जमानत आदेश सकारण होना चाहिये पक्षकारों द्वारा उठाये बिन्दुओं पर निश्चित निष्कर्ष अपेक्षित नहीं होता है साक्ष्य विश्वसनीय नहीं है ऐसा मत नहीं देना चाहिये। न्याय दृष्टांत मंसब अली विरूद्ध इरमान, (2003) 1 एस.सी.सी. 632 के अनुसार जमानत के संक्षिप्त करण देना चाहिये। न्याय दृष्टांत अफजल विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 2111 के अनुसार गुणदोष को छूने वाले विस्तृत कारण नहीं देना चाहिये।
न्याय दृष्टांत चीमन लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी. (2004) 7 एस.सी.सी. 525 के अनुसार साक्ष्य और दस्तावेजों का विस्तृत परीक्षण आवश्यक नहीं है लेकिन निष्कर्ष पर पहुंचने के कारण लिखना चाहिये। न्याय दृष्टांत अजय कुमार शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ यू.पी. (2005) 7 एस.सी.सी. 507 भी अवलोकनीय है जो तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ का न्याय दृष्टांत है। न्याय दृष्टांत रंजीत सिंह बी. शर्मा विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट (2005) 5 एस.सी.सी. 294, जयेन्द्र विरूद्ध स्टेट आॅफ तमिलनाडू (2005) 2 एस.सी.सी. 13 भी अवलोकनीय है जिनमें जमानत के समय विचार योग्य तथ्यों को स्पष्ट किया गया है।
4.     सामान्यतः जमानत के समय निम्न लिखित तथ्य ध्यान में रखना चाहिये:-
     1.     अपराध की प्रकृति एवं गंभीरता।
     2.     अभियुक्त द्वारा गवाहों को प्रभावित करने की संभावना
     3.     अभियुक्त के फरार होने की संभावना।
     4.     अपराध से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव।
     5.     विचारण में लगने वाला संभावित समय।
     6.     अभियुक्त का पूर्व का आपराधिक इतिहास यदि कोई हो।
     7.     अपराध की पुर्नावृत्ति की संभावना।
    8.    दोषसिद्धि की दशा में दिये जा सकने वाले दंड की मात्रा।
5.    न्यायदृष्टांत स्टेट आॅफ यू0पी0 विरूद्ध अमरमणि त्रिपाठी, (2005) 8 एस.सी.सी. 21, इस संबंध में अवलोकनीय है कि जमानत देते समय और निरस्त करते समय किन तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए।
6.    न्यायदृष्टांत सुरेन्द्र सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब (2005) 7 एस.सी.सी. 87, के अनुसार केवल विचारण में विलंब के आधार पर जमानत नहीं दी जासकती  शीघ्र विचारण अभियुक्त का अधिकार है लेकिन जमानत के मामले में केवल निरोध की अवधि ही एक मात्र तथ्य नहीं होती । इस संबंध में न्यायदृष्टांत गोबर भाई नारायण भाई विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात (2008) 3 एस.सी.सी. 775,  भी अवलोकनीय है
7.    सामान्यतः न्यायिक मजिस्ट्रेेेट के जमानत आदेश में ये तथ्य लिखे जा सकते हैं कि:-
अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास से दंण्डनीय नहीं है आरोपी के फरार होने की संभावना प्रतीत नहीं होती है विचारण में कुछ समय लग सकता है आरोपी के विरूद्ध कोई पूर्व आपराधिक अभिलेख नहीं है। मामला घर मे घुस कर मारपीट करने का है या कुछ रूपयांे की चोरी से संबंधित है अतः अभियुक्त को जमानत का लाभ दिया जाये उचित है।
8.    जमानत निरस्ती के मामले में ये तथ्य लिख सकते हैं कि:-
यद्यपि अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है आरोपी के फरार होने की संभावना प्रतीत नहीं होती है विचारण मे कुछ समय लग सकता है लेकिन आरोपी के विरूद्ध पूर्व से आठ अन्य अपराध पंजीबद्ध होना डायरी से स्पष्ट होता है या आरोपी ने जिस निर्ममता से आहत को चोटंे पहुंचाई है या आरोपी ने जिस तरह दिन दहाड़े मोटर साईकिल चोरी की है उसके प्रथम दृष्टयां तथ्यों को देखते हुये जमानत का लाभ दिया जाना उचित नहीं है।
9.    उक्त उदाहरण सामान्य तौर पर बतलाये गये है मामले की प्रकृति को देखते हुये और जमानत के लिए ध्यान रखे जाने वाले तथ्यो को देखते हुये आदेश लिखा जा सकता है ।
पश्चात्वर्ती जमानत आवेदन
10.    यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि प्रथम जमानत आवेदन पत्र जिस मजिस्ट्रेट/न्यायाधीश द्वारा सुना या निराकृत किया गया हो पश्चात्वर्ती सभी जमानत पत्र उस आरोपी के उसी मजिस्टेªट /न्यायाधीश के समक्ष रखे जाने चाहिए अतः जमानत आवेदन के निराकरण के समय यह भी ध्यान रखे कि जमानत आवेदन पत्र प्रथम आवेदन है या पश्चात्वर्ती आवेदन है ।
पश्चात्वर्ती जमानत आवेदन पत्र के दशा में यह तथ्य भी ध्यान रखना चाहिए कि पूर्व का जमानत पत्र किन कारणों से निरस्त किया था और क्या परिस्थितियों में कोई सारवान परिवर्तन हुआ है या नहीं। यदि परिस्थितियों को कोई सारवान परिवर्तन नहीं हुआ हो तो सामान्यतः पश्चात्वर्ती जमानत पत्र निरस्त किया जाना चाहिए और यदि स्वीकार किया जा रहा है तो एक स्पष्ट और सकारण आदेश लिखना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत अखिलेश कुमार सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ उत्तर प्रदेश, (2008) 4 एस.सी.सी. 449 अवलोकनीय है।
न्यायादृष्टांत शहजाद हसन खान विरूद्ध इस्तयाक हसन खान, ए.आई.आर 1987 एस.सी. 1613 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पश्चात्वर्ती सभी जमानत पत्र उन्हीं मजिस्टेªट/न्यायाधीश के समक्ष रखे जाने चाहिए जिन्होंने प्रथम जमानत पत्र सुना और निराकृत किया था।
परिस्थितियों में परिवर्तन
11.    यदि किसी मामले में एक सह-आरोपी की जमानत माननीय उच्च न्यायालय ने ले ली है या वरिष्ट न्यायालय ने ले ली है तब समान मामले वाला सह-आरोपी समानता के सिद्धान्त के आधार पर जमानत का अधिकारी हो जाता है यह अर्थात वरिष्ठ न्यायालय द्वारा सह-आरोपी की जमानत लेना परिस्थितियों मे ंपरिवर्तन माना जा सकता है इस संबंध में न्यायदृष्टांत मनोहर विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0 पी0, आई0 एल0 आर0,2007 एम0पी0 837 एवं  बद्री निहाले विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0 2006(1) एम0पी0एल0जे0 अवलोनीय है।
12.    कुछ गवाहों ने अभियोजन का समर्थन नहीं किया है इसे जमानत के लिए परिस्थितियों में परिर्वतन नहीं माना गया है न्यायादृष्टांत नारायण घोष विरूद्ध स्टेट आॅफ उड़ीसा, ए.आई.आर 2008 एस.सी. 1159 अवलोकनीय है।
13.    पश्चात्वर्ती जमानत आवेदन पत्र में न्यायालय को उन आधारो पर भी विचार करना होता है जिन पर उसने पूर्व आवेदन निरस्त किया था। इस संबंध मे न्यायदृष्टांत कल्याण चंद्र सरकार विरूद्ध राजेश (2004) 7 एस.सी.सी. 528 एवं रामगोविंद उपाध्याय विरूद्ध सुदर्शन सिंह, (2002) 3 एस0सी0सी0 598 अवलोकनीय है।
14.    परिस्थितियों मे ंपरिर्वतन के बिना यदि पश्चात्वर्ती जमानत पत्र स्वीकार किया जाता है तो यह पूर्व के आदेश का रिव्यू माना जायेगा जो विधि मे ंअनुमत नहीं है इस संबंध में न्यायदृष्टांत हरि सिंह विरूद्ध हरभजन सिंह, (2001) 1 एस0सी0सी0 169 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत मुन्ना सिंह तोमर विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0. 1990 सी आर एल जे 49 के अनुसार यदि जमान आवेदन पत्र बल नहीं देने के कारण या वापस ले लिये जाने के कारण निरस्त हुआ है तब भी पश्चात्वर्ती जमानत आवेदन भी उसी न्यायाधीश/मजिस्टेªट के सामने रखा जायेगा जिन्होंने प्रथम आवेदन पत्र सुना और निराकृत किया ।
14ए.     पश्चातवर्ती जमानत आवेदन पत्र में पूर्व के जमानत आवेदन पत्र के विवरण और वे विवरण किस व्यक्ति ने दिये हंै उसका नाम अंकित होना चाहिये और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तब आवेदक का ध्यान न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ एम.पी. विरूद्ध आर.पी. गुप्ता, 2000 (1) एम.पी.जे.आर. 185 की ओर दिलवाना चाहिये ।
वरिष्ठ न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत लेने का प्रभाव
15.    यदि वरिष्ठ न्यायालय ने किसी अभियुक्त को अग्रिम जमानत पर रिहा किया है और वहीं अभिुयक्त नियमित जमानत का आवेदन पत्र प्रस्तुत करता है तो उसे नियमित जमानत का लाभ उस दशा में देना चाहिए जब जिस उपलब्ध साक्ष्य पर वरिष्ठ न्यायालय ने अग्रिम जमानत ली थी और उसके बाद ऐसी कोई साक्ष्य संग्रहित नहीं हुई है जो अभियुक्त को जमानत का अपात्र बना दे अर्थात अयोग्य बना दे । और यदि जमानत निरस्त करना है तो एक कारण सहित और स्पष्ट आदेश लिखना चाहिए इस संबंध में न्यायदृष्टांत कथूआ पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0 2008(3) एम0पी0एच0टी0 एवं छोटे लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, 2007 (1) एम.जी.जे.आर. 117 अवलोकनीय है।
जमानत आदेश मे धारा दर्ज न होने का प्रभाव
16.    न्यायदृष्टांत धर्मेन्द्र प्रताप विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0 2008 (2 ) एम.पी.एच.टी. 477 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने अभियुक्त की जमानत एक अपराध में ली थी जेल अधिकारी ने यह आपत्ति ली की जमानत आदेश में एक विशिष्टि धारा नहीं लिखी है इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जमानत एक अपराध मे क्रमांक में दी जाती है किसी अपराध विशेष में नहीं जेल अधिकारियों को ऐसी आपत्ति लेने का  अधिकार नहीं है।
अभियुक्त का अभिरक्षा में होना
17.    धारा 437 द0प्र0सं0 1973 के लिए अभियुक्त का अभिरक्षा में होना आवश्यक है इस संबंध में न्यायदृष्टांत स्टेट आॅफ हरियाणा विरूद्ध दिनेश (2008) 3 एस.सी.सी. 222 अवलोकनीय है ।
अभियुक्त का समर्पण या सरेन्डर  करना
18.    कभी कभी अभियुक्त पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बजाय स्वयं न्यायालय में समर्पण करता है ऐसी दशा में उसकी पहचान अवश्य सुनिश्चित कराना चाहिए जो व्यक्ति न्यायालय के समक्ष समर्पण कर रहा है उसकी पहचान किसने की है उसका पूरा नाम, पता और अन्य विवरण लिखना चाहिये आरोपी का फोटोग्राफ्स भी लगवाना चाहिए साथ ही उसके आवेदन की एक प्रतिलिपि संबंधित आरक्षी केन्द्र में भेज कर वहाँ से रिपोर्ट बुलवाना चाहिए और यह भी पूछा जाना चाहिए कि संबंधित अभियुक्त की कोई आवश्यकता है और यदि है तो आवेदन करे।
19.    न्यायालय में संबंधित थाने से प्राप्त प्रथम सूचना प्रतिवेदन की प्रतिलिपि से भी अपराध पंजीबद्ध होने के तथ्य की जानकारी लग सकती है ।
20    यदि संभव हो तो उसी दिन पुलिस प्रतिवेदन मय डायरी बुलवा लेना चाहिए अन्यथा अगले कार्यदिवस की तिथि रखना चाहिए और तब तक अभियुक्त को अभिरक्षा में लेकर जेल भेजने के बजाय अगले दिन उपस्थित होने के निर्देश देना चाहिए इस संबंध में जोती  जनरल वर्ष 2005 के पृष्ठ क्रमांक 164 पर प्रकाशित लेख से भी मार्गदर्शन लिया जा सकता है ।
21.    केस डायरी और प्रतिवेदन प्राप्त होने पर अभियुक्त को अभिरक्षा में लेकर पुलिस ने क्या मांग की है अर्थात न्यायिक अभिरक्षा चाही है या पुलिस अभिरक्षा चाही है इस पर विचार किया जाता है।
22.    कभी-कभी लंबित मामलों में भी अभियुक्त बीच में समर्पण करते है उन मामलों में अभिलेख बुलवाकर अभियुक्त को पुनः जमानत पर छोड़ना या जमानत निरस्त करने के बारे में विधि अनुसार विचार किया जा सकता है ।
23.    लंबित मामलों में आरोपी के समर्पण के सामने देखना चाहिए कि जिस दिनांक को आरोपी अनुपस्थित रहा उस दिन उसकी अनुपस्थिति के कारण मामले की कार्यवाही पर क्या प्रभाव पड़ा जैसे अभियोजन साक्षीगण उपस्थित थे और उनके कथन नहीं हो पाये या अभियुक्त परिक्षण नहीं हो पाया या आरोपी नहीं लग पाया या कार्यवाही पर कोई प्रभाव नही पड़ा । अभियुक्त की स्थिति जैसे कृषक, मजदूर, चालक, शासकीय सेवक, व्यापारी है । कथित दिनांक को उसकी अनुपस्थिति का जो कारण बतलाया गया है उसकी युक्तियुक्तता पर भी विचार करना चाहिए और यदि उचित मामला हो तो अभियुक्त को जमानत का लाभ दे देना चाहिए। उसके मुचलके से कुछ राशि जब्त कर सकते हैं ।
ऐसा कोई नियम नहीं बनाना चाहिए कि जो अभियुक्त एक बार अनुपस्थित हो गया है उसका आवेदन उसी दिन नहीं सुनना है या उसे कुछ समय न्यायिक अभिरक्षा मे ंरखना है ऐसा करने से कई अनुपस्थिति आरोपी अपनी अनुपस्थिति को टालते रहेंगें एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय मामले
24.    यह मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार है कि वे सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय मामले मंे भी जमानत ले सकते हंै लेकिन सामान्यतः ऐसे मामले में अभियुक्त सेशन न्यायालय में जाने के लिए निर्देशित करना चाहिए न्यायदृष्टांत प्रहलाद सिंह भाटी विरूद्ध एन0सी0टी0 दिल्ली, जे0टी0 2001 (4) एस.सी.सी. 116 इस संबंध में अवलोकनीय है ।
वरिष्ठ न्यायालय द्वारा ली गई जमानत का भंग
25.    कभी कभी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा जिस आरोपी की जमानत ली जाती है वह उस जमानत को भंग कर देता है और गिरफ्तारी वारंट के मामले मे ंगिरफ्तार कर के पेश किया जाता है तब अभियुक्त का पक्ष यह रहता है कि उसे वरिष्ठ न्यायालय के आदेश के प्रकाश में जमानत पर रिहा कर दिया जावे ऐसे मामले में न्यायदृष्टांत वीरसिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, मिस्लेनियस क्रिमिनल केस 6160 /96 निराकृत दिनांक 17-11-97 जबलपुर बैंच से मार्गदशन लिया जा सकता है जिसमें माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि यदि अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है और गिरफ्तारी वारंेट से गिरफ्तार करके पेश किया जाता है या समर्पण किया जाता है तब मजिस्ट्रेट उसका जमानत देने से इंकार कर सकता है यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वरिष्ठ न्यायालय का जमानत आदेश निरस्त नहीं हुआ है क्यांेकि जमानत का भंग करते ही मजिस्टेªट विधि अनुसार आवेदन पर विचार करने के लिए सक्षम होते हैं साथ ही यदि अभियुक्त की अनुपस्थित के संतोषजनक कारण बतलाये जाते है तब मजिस्टेªट जमानत पर रिहा कर सकते हैं।
इस प्रकार यदि किसी अभियुक्त की वरिष्ठ न्यायालय के आदेश से जमानत हुई है और वह उस जमानत का भंग कर देता है तो संबंधित मजिस्ट्रेट उसे जमानत दे भी सकता है और जमानत निरस्त भी कर सकते हैं।
अनुसंधान के दौरान अभियुक्त की न्यायालय में जमानत के बाद उपस्थिति
26.    जब अभियुक्त जमानत पर रिहा कर दिया जाता है और जब तब अभियोग पत्र पेश नही होता तब तक वह अनुसंधान लंबित रहने के दौरान न्यायालय में उपस्थित करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है बल्कि ऐसे मामले में अभियोग पत्र पेश हो जाने पर अभियुक्त को सूचना पत्र देकर बुलवाना चाहिए इस संबंध में न्यायादृष्टांत फ्री लिगल एण्ड कमेटी जमशेदपुर विरूद्ध स्टेट आफ बिहार, ए.आई.आर. 1942 एस.सी. 83 अवलोकनीय है।
धारा 437 (6 ) दं0प्र0सं0 के तहत जमानत
27.    धारा 437 (6 ) द्र0प्र0 स0 के तहत यदि मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में साक्ष्य नियत प्रथम दिनांक से 60 दिन की अवधि के अंदर विचारण पूरा नहीं किया जाता है और अभियुक्त उस 60 दिन की पूरी अवधि में अभिरक्षा में रहा हो तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जायेगा जब तक की मजिस्टेªट लेखबद्ध किये जाने वाले कारण से ऐसा करना उचित न समक्षते हो ।
28.    न्यायदृष्टांत दामोदर सिंह वि0 स्टेट आॅफ एम0पी0 2005 (2) एम0पी0डब्ल्यू.एन. 138 के अनुसार यह प्रावधान आज्ञापक या मेंडेटरी है ।
यदि अभियुक्त खुद ही विलंब का दोषी रहा हो प्रकरण में अत्यधिक गंभीर प्रकृति को हो प्रकरण में बहुत लंबा और पेचिदा हो तब सकारण आदेश लिखते हुये आवेदन निरस्त किया जा सकता है ।
न्यायदृष्टांत सुनील सक्सेना वि0 स्टेट आॅफ एम0पी0 आई.एल.आर. (2011) एम.पी. 816 में अभियुक्त पर 25,05,793 रूपये की बड़ी राशि के गबन का आरोप था उस मामले में उसे इन प्रावधानों के तहत जमानत का पात्र नहीं माना गया।
सामान्यतः यह प्रयास करना चाहिए कि जिन मामलों में अभियुक्त न्यायिक अभिरक्षा मे है उन पर त्वरित निराकारण हो और गंभीर मामलों में इस प्रावधान के तहत अभियुक्त को जामानत का लाभ देने से बचना चाहिए।
28ए.     धारा 437  (6) द.ंप्र.सं. 1973 के प्रावधान मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, 1915 के मामलों पर भी लागू होते है इस संबंध में न्याय दृष्टांत राजेन्द्र विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2002 (4) एम.पी.एच.टी. 186 अवलोकनीय है।
जमानत निरस्ती के बारे में
29.    कभी-कभी कुछ मामलो में जमानत निरस्ती के लिए धारा 437 (5) द0प्र0सं0 1973 के तहत आवेदन प्रस्तुत होते हैं सामान्यतः जमानत निरस्ती का आदेश अपवाद स्वरूप पस्थितियों मे और जहां बहुत अच्छे कारण उपलब्ध हो वहीं किये जाने चाहिए।
यदि अभियुक्त ने जमानत की स्वतंत्रता का दुरपयोग किया हो, समान अपराध दोहराया हो, गवाहों को प्रभावित करने का प्रयास किया हो, विदेश भाग जाने का प्रयास कर रहा हो, अनुसंधान में हस्तक्षेप करने का प्रयास कर रहा हो, अनुसंधान अधिकारी या जमानतदार के पहुंच के बाहर जाने का प्रयास कर रहा हो तभी जमानत निरस्त किया जाना चाहिए। इस संबंध में न्यायदृष्टांत असलम बी देसाई वि0 स्टेट आफ महाराष्ट्र (1992) 4 एस.सी.सी. 272, महबूब दाउद शेख वि0 स्टेट आफ महाराष्ट्र (2004)  2 एस.सी.सी. 362 सेन्ट्रल ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन वि0 सुब्रमणि गोपाल कृष्ण (2011 ) 5 एस.सी.सी. 296 अवलोकनीय है।
विविध तथ्य
30.     जमानत देने या न देने के बारे में कोई एक समान नियम नहीं बनाये जा सकते और यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि जमानत दी जाये या नहीं दी जाये इस संबंध में स्टेट आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध आनंद चिन्तामण दीघे जे.टी. 1990 (1) एस.सी 28 अवलोकनीय है।
31.     न्याय दृष्टांत स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध बालचंद, ए.आई.आर. 1977 एस.सी. 2447 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत का मूलभूत सिद्धांत ’’बेल नाट जेल’’ बतलाया है लेकिन इसके साथ ही साथ न्यायालय को समाज की सुरक्षा भी ध्यान में रखना चाहिये जैसा की न्याय दृष्टांत मनसब अली विरूद्ध इसरान (2003) 1 एस.सी.सी. 632 में प्रतिपादित किया गया है। न्यायाधीश/मजिस्टेªट का पद इसीलिये महत्वपूर्ण होता है कि उसे कई मामलों में विवेकाधिकार दिया है जिसका प्रयोग उसे उक्त दोनों सिद्धांतों के बीच उचित तालमेल बिठाते हुये करना है।
32.     न्याय दृष्टांत रामगोविंद उपाध्याय विरूद्ध सुदर्शन सिंह, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 1475 में दिये गये मार्गदर्शक सिद्धांत भी ध्यान में रखना चाहिये।
33.     धारा 34 के उप पैरा 2 मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, में 50 बल्क लीटर से अधिक मात्रा में शराब रखने के मामले आते हैं और ऐसे मामलों में अधिनियम की ही धारा 59 ए में कुछ शर्ते अधिरोपित की गई है जिसके अनुसार अभियोजन को सुनवाई का अवसर देना चाहिये और यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार होना चाहिये कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और जमानत पर रहने पर वह अपराध करेगा ऐसी संभावना नहीं है तभी अभियुक्त को 50 बल्क लीटर से अधिक मात्रा के मदिरा रखने के मामले में जमानत पर रिहा किया जा सकता है और यही शर्तें 49 ए के तहत् मानवीय उपयोग के लिये अनुपयुक्त मदिरा के मामले पर भी लागू होती है अतः मध्यप्रदेश आबकारी अधिनियम, 1915 की धारा 34 (2) व धारा 49 ए के मामलों में जमानत आवेदन पर विचार करते समय अधिनियम की धारा 59 ए में अधिरोपित शर्तों को ध्यान में रखना चाहिये।
34.     धारा 12 किशोर न्याय  (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2000 के तहत् 18 वर्ष से कम के किशोर या जुवेनाइल को जमानतीय और अजमानतीय दोनों प्रकार की अपराधों की दशा में जमानत पर छोड़ देने के प्रावधान है जब तक की जमानत पर रिहा करने से ऐसा विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार प्रतीत हो की किशोर को जमानत पर छोड़े जाने से उसको किसी ज्ञात अपराधी के साहचर्य या एसोसिएशन में ला देगा या किशोर को नैतिक, शारीरिक अथवा मनोवैज्ञानिक खतरे में डाल देगा या जमानत पर रिहा करने से न्याय के उद्देश्य विफल हो जावेगे। यदि ये दशाएॅं होने के विश्वास के आधार हो तभी किशोर या जुवेनाइल को जमानत पर रिहा करने से इंकार करना चाहिये और उसे आश्रय गृह में भेजना चाहिये।
35.     धारा 24 (1) से 26 किशोर न्याय  (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2000 के अपराध अजमानतीय है और इनमें जमानत देते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि किशोर किसी भी देश का भविष्य होता है और यह अधिनियम किशोरों की सुरक्षा और उन्हें जीवन की मुख्य धारा में लाने के उद्देश्य से बना है इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुये जमानत पर विचार करना चाहिये।
36.     धारा 31  (1) घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 का अपराध धारा 32  (1) उक्त अधिनियम के तहत् संज्ञेय और अजमानतीय है और ऐसे आरोपी को जमानत पर रिहा करते समय नियम 15 (9) घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण नियम 2006 को भी ध्यान में रखना चाहिये जिसमें जमानत के समय कुछ अतिरिक्त शर्ते अधिरोपित करने के प्रावधान है जो निम्न प्रकार से है:-
ए.     अभियुक्त को घरेलू हिंसा के किसी कृत्य कारित करने की धमकी देने या घरेलू हिंसा करने से रोकने का कोई आदेश।
बी.     अभियुक्त को व्यथित व्यक्ति को परेशान करने, टेलीफोन करने या कोई संपर्क करने से रोकने का कोई आदेश।
सी.     अभियुक्त को व्यथित व्यक्ति के निवास स्थान या किसी अन्य स्थान पर जहां व्यथित व्यक्ति की जाने की संभावना हो उसे खाली करने या उससे दूर रहने का आदेश।
डी.     कोई आग्नेय अस्त्र या कोई अन्य खतरनाक हथियार को आधिपत्य में रखने या उसका उपयोग करने से रोकने का कोई आदेश।
     इ.     एलकोहल या कोई अन्य मादक औषधि के उपयोग से रोकने का कोई आदेश।
ई.     कोई अन्य आदेश जो व्यथित व्यक्ति के संरक्षण, सुरक्षा और पर्याप्त अनुतोष के लिये अपेक्षित हो।
37.     एक बार अनुसंधान पूर्ण होकर आरोप पत्र पेश हो जाने के बाद जो रिमांड दिया जाता है वह धारा 309  (2) दं.प्र.सं. 1973 के तहत् दिया जाता है धारा 167 दं.प्र.सं. 1973 के तहत् नहीं दिया जाता है इस संबंध में मीठा भाई पी. पटेल विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात  (2009) 6 एस.सी.सी. 332 अवलोकनीय है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के 7 न्याय दृष्टांतों को विचार में लिया गया है।
38.     पूर्व में अग्रिम जमानत अभियोग पत्र पेश होने तक या एक निर्धारित अवधि तक देने की वैधानिक व्यवस्था थी लेकिन अब इस बारे में स्थिति परिवर्तित हो चुकी है और अग्रिम जमानत पूरे मामले के लिये दी जाती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत सिद्धाराम एस. मेत्रे विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 312 अवलोकनीय है। ऐसे अग्रिम जमानत आदेश की पालना में यदि अभियुक्त दंड प्रक्रिया संहिता कि द्वितीय अनुसूची के प्रारूप 45 के अनुसार प्रतिभूति और बंधपत्र अनुसंधान अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत कर देता है तो उसे विचारण न्यायालय में फिर से जमानत प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं रहती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती गजरा देवी विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., एम.सी.आर.सी. नंबर 3036/2011 आदेश दिनांक 18.04.2011 अवलोकनीय है।
जहां अनुसंधान अधिकारी ने केवल अनुसंधान तक के लिये जमानत ली है तब अभियुक्त को न्यायालय में पुनः जमानत प्रस्तुत करनी पड़ती है इससे बचने के लिये न्यायिक मजिस्टेªट अपने क्षेत्र के थाना प्रभारी को या मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट पूरे जिले में एक पत्र भेजकर यह निर्देश जारी कर सकते हैं कि अग्रिम जमानत आदेश की पालना में अभियुक्त की जमानत दंड प्रक्रिया संहिता की द्वितीय अनुसूची की प्रारूप 45 के अनुसार पूरे मामले में उपस्थिति के लिये अभियुक्त की जमानत लेवे।
39.     धारा 37 एन.डी.पी.एस. एक्त 1985 के प्रावधान केवल वाणिज्यकीय मात्रा या कमर्शियल क्वांटिटी पर और उस अधिनियम की धारा 19, 24 और 27 ए से संबंधित अपराधों पर ही लागू होती है अतः मजिस्टेªट न्यायालय में जहां कम मात्रा या स्माल क्वांटिटी के मामले पेश होते है और विचारण किये जाते है वहां संबंधित मजिस्टेªट अल्प मात्रा या स्माल क्वांटिटी वाले मामले में अपने विवेकाधिकार पर अभियुक्त को जमानत पर रिहा कर सकते है।
40.     जमानतदार की पहचान करने के लिये अधिवक्तागण को बाध्य नहीं करना चाहिये इस संबंध में न्याय दृष्टांत शिवनाराण विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 17 एन.ओ.सी. अवलोकनीय है।
41.     दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की प्रथम अनुसूची में काॅलम नंबर 5 में किसी भी अपराध के जमानतीय/अजमानतीय होने के बारे में मार्गदर्शन लेना चाहिये और अपराध यदि भारतीय दण्ड संहिता के अलावा अन्य विधि से संबंधित हो तब प्रथम अनुसूची में ही अंत में यह व्यवस्था है कि तीन वर्ष से कम के कारावास या जुर्माना से दण्डनीय अपराध जमानतीय होते है और तीन वर्ष से अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध अजमानतीय होते है।
यदि संबंधित विधि में कोई विशेष प्रावधान जमानत के बारे में दिये गये है तो वे प्रभाव रखेंगे।
42.     अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के मामलों में जहां अपराध, मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय हो वहां न्यायिक मजिस्टेªट को जमानत देने के अपने विवेकाधिकार का प्रयोग अभियुक्त के पक्ष में नहीं करना चाहिये।
इस अधिनियम के अन्य मामलों में मजिस्टेªट जमानत के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर जमानत देने या न देने के लिये स्वतंत्र होता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत मिर्ची उर्फ राकेश विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी. 2003 (1) एम.पी.जे.आर. 140, संजय नरहर मालसे विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्र, 2005 सी.आर.एल.जे. 2984 (डी.बी.) बाम्बे उच्च न्यायालय, गांगूला अशोक विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., (2000) एस.सी.सी. 504 भी अवलोकनीय है। जिनमें इस अधिनियम के मामले में मजिस्टेªट की जमानत के शक्तियों के बारे में उक्त व्यवस्था दी है।     
437 ए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के बारे में
43.     इस संशोधित प्रावधान के अनुसार विचारण की समाप्ति के पूर्व तथा अपील के निस्तारण के पूर्व विचारण न्यायालय या अपील न्यायालय अभियुक्त से अपेक्षा करेगा की वह जमानत और बंधपत्र पेश करे कि वरिष्ठ न्यायालय में यदि संबंधित न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील की गई या याचिका लगाई गई तो उसमें नोटिस जारी होने पर आरोपी उपस्थित रहेगा ऐसी जमानत 6 माह तक प्रवर्त रहने के प्रावधान है।
प्रायः दोषमुक्ति के मामले में कठिनाई आती है और ऐसे मामले में आदेश करने पर भी जमानत प्रस्तुत न होने पर कठिनाई आती है प्रायोगिक रूप से अभियुक्त परीक्षण के दिन धारा 437 ए दं.प्र.सं. 1973 के तहत् जमानत प्रस्तुत करने के निर्देश दिये जा सकते है और इन प्रावधानों का पालन कराने का प्रयास किया जा सकता है।
 जमानत आदेश में लगाई जाने वाली शर्ते
44.     जमानत आदेश में सामान्यतः निम्न शर्ते अधिरोपित की जाती हैः-
     1.     अभियुक्त प्रकरण में नियमित उपस्थिति देगा।
     2.     गवाहों को प्रभावित नहीं करेगा।
     3.     अपराध की पुनरावृत्ति नहीं करेगा।
     4.     अन्य कोई शर्त जो न्यायाधीश /मजिस्टेªट मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के             अनुसार लगाना उचित समझे वह भी लगाई जा सकती है।
जमानत आदेश में ऐसी शर्त नहीं लगाई जा सकती की अभियुक्त परिवादी को भरण पोषण अदा करेगा न्याय दृष्टांत मुनीष भसीन विरूद्ध स्टेट (2009) 4 एस.सी.सी. 45 अवलोकनीय है इस न्याय दृष्टांत में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया है कि ऐसी शर्ते जो अग्रिम जमानत के उद्देश्य को ही विफल कर देती है नहीं लगाना चाहिये साथ ही कठोर, दूभर और अतिरंजीत या एक्ससेसिव शर्ते नहीं लगाना चाहिये।
45.     कोई भी न्यायिक मजिस्टेªट एक बार में 15 दिन की न्यायिक अभिरक्षा ही स्वीकार कर सकते है, 60 /90 दिन अधिकतम अवधि या व्नजमत स्पउपज हैं।




किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) अधिनियम, 2005 के संबंध में मजिस्टेªट की भूमिका 

     इस अधिनियम में मुख्य रूप में धारा 7 ए, 10, 12 एवं नियम 12 उन मजिस्टेªट के लिए उपयोगी है जो किशोर न्याय बोर्ड के प्रधान मजिस्टेªट नहीं है लेकिन उनके समक्ष किसी अभियुक्त के किशोर अवस्था के संबंध में दावा किया जाता है।
     ऐसा दावा कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रक्रम पर कर सकता है और संबंधित मजिस्टेªट को धारा 7 ए के तहत जांच करके यह निर्धारित करना होता है कि क्या कोई व्यक्ति किशोर है या नहीं। इस संबंध में नियम 12 किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) नियम 2007 जिसे आगे केवल नियम कहां जायेगा, सबसे महत्वपूर्ण है जिसके तहत उक्त प्रश्न उत्पन्न होने पर एक जांच गठित की जाती है जिसमें निम्नलिखित साक्ष्य लिया जाता है:-
1.     मेट्रिक परीक्षा या उसके समकक्ष परीक्षा का प्रमाण पत्र यदि उपलब्ध हो और उसके अनुपस्थिति में,
2.     प्रथम बार के स्कूल जो कि प्ले स्कूल न हो का जन्म तिथि संबंधी प्रमाण पत्र, उसकी अनुपथिति में,
3.     जन्म प्रमाण पत्र जो निगम या नगर पालिका प्राधिकारी या पंचायत द्वारा दिया गया हो।
4.     और उक्त तीनों साक्ष्य के न होने पर एक सम्यक रूप से गठित मेडिकल बोर्ड की राय।
     नियम 12 का सार यहां दिया गया है और इसमें केवल चार प्रकार के साक्ष्य उम्र के बारे में निर्धारक मानी गई है और उनका क्रम भी निर्धारित है जिसे ध्यान में रखते हुए किसी भी मजिस्टेªट  को जिसके समक्ष किशोर अवस्था का दावा किया जाता है एक जांच करना होती है और यह निष्कर्ष देना होता है की संबंधित व्यक्ति किशोर है या नहीं यदि वह किशोर पाया जाता है तो मामला किशोर बोर्ड को भेजा जायेगा अन्य दशा में कार्यवाही निरंतर जारी रखी जायेगी।
     धारा 10 अधिनियम, 2000 के तहत जब भी ऐसे व्यक्ति को पकड़ा जाता है और उसे मजिस्टेªट के समक्ष पेश किया जाता है तब न तो उसे पुलिस अभिरक्षा में देना है और न ही न्यायिक अभिरक्षा में देना है बल्कि संप्रेक्षण गृह या आॅबजरवेशन हाॅम में भेजना होता है और शेष प्रपत्र किशोर बोर्ड को रिफर करना होता हैं।
     इस संबंध में नवीनतम वैधानिक स्थिति इस प्रकार है:-
1.     न्याय दृष्टांत लखन लाल विरूद्ध स्टेट आॅफ बिहार, (2011) 2 एस.सी.सी. 151 में यह प्रतिपादित किया गया है कि कोई अभियुक्त चाहे वह 18 वर्ष की उम्र पूर्ण कर चुका हो इस अधिनियम के उद्देश्य से ज्वेनाइल माना जायेगा यदि अपराध करने की तारीख पर वह 18 वर्ष से कम का रहा हो। यदि वह सजा भी भुगत रहा हो तो धारा 15 अधिनियम, 2000 के प्रकाश में उसे 3 वर्ष तक ही संप्रेक्षण गृह में रखा जावेगा। इस मामले में निम्नलिखित न्याय दृष्टांतों पर भी विचार किया गया है:-
1.     न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ झारखण्ड (2005) 3 एस.सी.सी. 551 में पांच न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि यह देखने के लिए की कोई व्यक्ति किशोर या ज्वेनाइल है या नहीं अपराध करने की तारीख या डेट आॅफ आॅफेन्स तात्विक या सुसंगत तारीख होती है उसे प्राधिकारी या न्यायालय के समक्ष पेश करने की तारीख सुसंगत नहीं होती हैं।
2.     न्याय दृष्टांत धर्मवीर विरूद्ध स्टेट एन.सी.टी. देल्ही (2010) 5 एस.सी.सी. 344 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सभी लंबित मामले चाहे विचारण, अपील या पुनरीक्षण किसी भी स्टेज पर हो उनमें उपराध की तारीख पर उम्र देखी जावेगी धारा 20 का स्पष्टीकरण बिलकुल साफ हैं।
3.     न्याय दृष्टांत हरिराम विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान, (2009) 13 एस.सी.सी. 211 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 2 (के), धारा 2 (आई), 7 ए, 20, 49 व नियम 12 व 98 को एक साथ पढ़ने से यह स्पष्ट है कि यदि अपराध की तारीख पर कोई व्यक्ति 18 वर्ष से कम का रहा है तब 1 अप्रैल 2001 को इस अधिनियम के लागू होते ही वह ज्वेनाइल ट्रिट किया जायेगा चाहे उम्र का अभिवाक उसके 18 वर्ष का हो जाने के बाद उठाया गया हो।
2.      न्याय दृष्टांत विकास चैधरी विरूद्ध स्टेट, एन.सी.टी. देल्ही (2010) 8 एस.सी.सी. 508 में यह प्रतिपादित किया गया है कि सतत् जारी रहने वाले अपराधों के मामले में जब प्रथम बार अपराध का पता लगा उस तारीख को अपराध की तारीख मानकर उम्र देखी जावेगी यह फिरोती का मामला था अंतिम बार जब फिरोती मांगी गई वह अपराध की तारीख मान्य की गई।
3.      न्याय दृष्टांत मोहन माली विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1790 में धारा 302, 304, 324/34 भा.दं.सं. में सजा भुगत रहे आरोपी ने ज्वेनाइल होने का दावा किया जो बाद जांच सही पाया गया आरोपी धारा 15 अधिनियम, 2000 के तहत अधिकतम 3 वर्ष की अवधि के लिए संप्रेक्षण गृह में रखा जा सकता था आरोपी 3 वर्ष से अधिक से जेल में था उसे रिहा किया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत बिजेन्द्र सिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ हरियाण, (2005) 3 एस.सी.सी. 685 अवलोकनीय हैं।
4.      न्याय दृष्टांत बबलू पासी विरूद्ध स्टेट आॅफ झारखण्ड, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 314 में मेडिकल बोर्ड की राय पर कैसे विचार किया जाये इस संबंध में प्रकाश डाला है यह निश्चायक नहीं होती है वातावरण, खानपान आदि का प्रभाव रहता है मेडिकल बोर्ड केवल आॅपीनियन देता हैं।
5.      न्याय दृष्टांत जब्बर सिंह विरूद्ध दिनेश (2010) 3 एस.सी.सी. 757 में यह प्रतिपादित किया गया है कि उम्र के निर्धारण नियम 12 के पालना की जायेगी और स्कूल रिकोर्ड का इंद्राज कैसे प्रमाणित किया जाये यह बतलाया गया है।
6.     न्याय दृष्टांत राम सुरेश सिंह विरूद्ध प्रभात सिंह, (2009) 6 एस.सी.सी. 681 में यह प्रतिपादित किया गया है कि नियम 12 में उम्र निर्धारण की जो प्रक्रिया दी है उसे पालन किया जाना है जब स्कूल का प्रमाण पत्र न हो या संदेहास्पद हो तब मेडिकल बोर्ड की राय लेते है स्कूल रजिस्टर की प्रविष्टि लोक दस्तावेज नहीं है उसे भी सामान्य दस्तावेज की तरह प्रमाणित करना होगा इस संबंध में बीरद मल सिंह विरूद्ध आनंद (1988) सप्लीमेंट  एस.सी.सी. 604 अवलोकनीय हैं।
7.     न्याय दृष्टांत ऐराती लक्ष्मण विरूद्ध स्टेट आॅफ ए.पी., (2009) 3 एस.सी.सी. 337 में किसी व्यक्ति की उम्र की गणना करने की विधि, माह, वर्ष और दिन पर प्रकाश डाला गया है।
8.      न्याय दृष्टांत कपिल दुर्गवानी विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 2003 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 12 अधिनियम, 2000 और धारा 18 एस.सी., एस.टी. एक्ट दोनों के स्कोप अलग-अलग है धारा 12 अधिनियम, 2000 धारा 18 एस.सी., एस.टी. एक्ट पर ओवर राइडिंग इफेक्ट नहीं रखती है।
9.      न्याय दृष्टांत गुड्डू उर्फ विनोद विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2006 (1) एम.पी.जे.आर. एस.एन. 35 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ज्वेनाइल के जमानत में गुणदोष नहीं देखना है केवल धारा 12 अधिनियम 2000 की परिधि में विचार करना होता है।
10.     न्याय दृष्टांत हंसराज विरूद्ध स्टेट आॅफ एम.पी., 2005 (2) ए.एन.जे. (एम.पी) 407 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ज्वेनाइल की जमानत मेनडेटरी है जब तब की धारा 12 अधिनियम, 2000 में बतलाई परिस्थितियाॅं न हो जमानत दी जायेगी।

उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये यदि अपराध की तारीख पर कोई व्यक्ति नियम 12 के तहत की गई जांच और उसमें वर्णित साक्ष्य को लेने के बाद ज्वेनाइल पाया जाता है तो उसका मामला किशोर न्याय बोर्ड को भेजा जायेगा अन्य दशा में कार्यवाही निरंतर रहेगी।


10 comments:

  1. बहुत ही रौचक जानकारी

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  2. क्रपया 498A ,504,323, 3/4 की जमानत कराने के बारे में बताने क्रपया करे

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  3. क्रपया 498A ,504,323, 3/4 की जमानत कराने के बारे में बताने क्रपया करे

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  4. Please 376 and SC/St ki jamanat ke baray me stay

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  5. Please 308 and504me baharse jamanat kyse mileage batayin

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  6. बहुत ही उपयोगी लेख

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  7. बहुत मत्वपूर्ण लॉ

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  8. यदि आरोपी अंडर ट्रायल में है चालान पेश हो चुका है चार्ज लग चुका है और साक्षी तिथि निर्धारण के 30 दिन बाद पैरोल पर छोड़ा जाता है गवाह का नोटिस उस दिनों में अंडर ट्रायल में जारी किया जा चुका था और पैरोल की अवधि के बाद अभियुक्त वापस सरेंडर करता है और उसकी अभिरक्षा 30 दिन और रहती है हाईकोर्ट से लॉक डाउन होने के कारण पुनः साक्ष्य के लिए नोटिस जारी नहीं किया जाता है इस प्रकार से आरोपी गवाह को नोटिस जारी करने के बाद 60 दिन तक अंडर ट्रायल में रहा है उसका अपराध 2 वर्ष से अधिक नहीं है धारा 34 2आबकारी अधिनियम का है तो आरोपी 437 6 का लाभ मिलेगा कि नहीं

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