Thursday 28 March 2019

शून्यकरणीय विवाह कोन शुन्य करा सकता हे


 शून्यकरणीय विवाह कोन शुन्य करा सकता हे

हिंदू विवाह अधिनियम धारा 5(3) एवं 12 (1) सी - बाल विवाह - विवाह का  बातिलीकरण - पति ने विवाह की अकृत एवं शुन्य होने की घोषणा चाहते हुए इस आधार पर वाद प्रस्तुत किया कि विवाह के समय उसकी पत्नी 18 वर्ष की आयु से कम थी तथा विवाह धमकी एवं दबाव में संपन्न हुआ था - वाद डिक्तित किया गया था तथा उच्च न्यायालय द्वारा आगे पुष्टि की गई थी- को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई - अभिनिर्धारित- विवाह के समय अवयस्क पति या पत्नी के विकल्प पर बाल विवाह शुन्यकरणीय है - धारा 12 (1) सी यह स्पष्ट करती है कि केवल अवयस्क पति या पत्नी को विवाह का बातिलीकरण चाहने का अधिकार है - यह स्वीकार किया गया कि विवाह के समय पति वयस्क था कपट एवं प्रपीडन के आधार पर विवाह का वातलीकरण चाह रहा था जहां पत्नी की आयु, पति द्वारा उठाए गए आधारों में से एक थी - मामला नए सिरे से विचार किए जाने हेतु उच्च न्यायालय को प्रति प्रेषित किया गया। अपील निराकृत की गई।
*भगवती उर्फ रीना विरुद्ध अनिल चौबे आईएलआर 2017 मध्य प्रदेश 1289 सुप्रीम कोर्ट*

Tuesday 19 March 2019

न्यायालय कर्मचारियों के वेतन के संबंध में निर्णय- 28 अप्रैल 2017- लालाराम मीना

*न्यायालय कर्मचारियों के वेतन के संबंध में निर्णय- 28 अप्रैल 2017*

किशन पिल्ले विरुद्ध मध्य प्रदेश राज्य आईएलआर 2017 मध्य प्रदेश 1423 डी.वी. के मामले मे उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश अधिकारी एवं कर्मचारी भर्ती एवं सेवा शर्तें नियम 1996- समान कार्य के लिए समान वेतन- याची गण जो कि उच्च न्यायालय के तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी गण है, द्वारा इस आधार पर उच्चतर वेतनमान प्रदान किए जाने हेतु प्रार्थना की जाना कि राज्य सरकार ने सेठी वेतन आयोग के आधार पर जिला न्यायालय में सामान संवर्ग के अंतर्गत कार्यरत अधिकारी गण का वेतनमान पुनरीक्षित किया है -
 अभिनिर्धारित - सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार प्रत्यर्थीगण को उन याची गण को जोकि 3600 के ग्रेड पे के नीचे कार्यरत हैं उन्हें एक अतिरिक्त वेतन वृद्धि एवं वे याचि गण जो कि 3600 ग्रेड पे पर कार्य कर रहे हैं उन्हें दो अतिरिक्त वेतन वृद्धि प्रदान करने हेतु निर्देशित किया गया - याची गण वेतन का बकाया प्राप्त करने हेतु पात्र होंगे - आगे अभिनिर्धारित - उच्चतर वेतनमान एवं भत्ता के संदर्भ में, उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से उच्च न्यायालय के कर्मचारी गण पर सेठी वेतन आयोग के क्रियान्वयन हेतु पहले ही सिफारिश की है जो कि अभी तक लंबित है - प्रत्यर्थीगण को 4 माह की अवधि के भीतर उक्त का निश्चय करने हेतु निर्देशित किया गया - याचिका अंशत: मंजूर की गई। किशन पिल्ले विरुद्ध मध्य प्रदेश राज्य आईएलआर 2017 मध्य प्रदेश 1423 डी.वी.

Monday 11 March 2019

अनुशासनिक प्राधिकारी - साक्ष्य का मूल्यांकन


अनुशासनिक प्राधिकारी - साक्ष्य का मूल्यांकन - अभिनिर्धारित -  विभाग द्वारा एवं अपचारी द्वारा अभिलेख पर लाई गई सामग्री का मूल्यांकन एवं निर्धारण, अनन्य रूप से अनुशासनिक प्राधिकारी के कार्य क्षेत्र के भीतर है और उसमें त्रुटि नहीं निकाली जा सकती जब तक कि प्राधिकारी द्वारा निकाले गए निष्कर्ष निम्न दोसो से ग्रसित न हो (1) अधिकारिता, (2) दृष्टिकोण की विपर्यस्तता, जब निष्कर्ष अभिलिखित करते समय सुसंगत सामग्री को अनदेखा किया और असंगत सामग्री को विचार में लिया गया है, (3) प्राधिकारी द्वारा निकाले गए निष्कर्ष ऐसे हैं जिन पर कोई सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति नहीं पहुंचता, तथा (4) ,वेडन सबरी युक्तियुक्ता के सिद्धांत को लागू करते हुए निष्कर्षों में सद्भावना का अभाव है।
राजेंद्र सिंह कुशवाह विरुद्ध मध्य प्रदेश राज्य, 1086 ILR 2017 मध्यप्रदेश

Friday 8 March 2019

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अनुसार पुनरीक्षण


सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अनुसार पुनरीक्षण निम्न अवस्था में किया जा सकेगा -

( 1) जहां कोई मामला उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा विनिश्चित किया जाता है और जिसकी अपीलीय न्यायालय में अपील नहीं होती है और यदि यह प्रतीत होता है कि-

( क) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया है जो उसमें विधि द्वारा निहित नहीं है, या

( ख) एस्से अधीनस्थ न्यायालय ने ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने में असफल रहा है जो उसने विधि द्वारा निहित है, या

( ग) ऐसे अधीनस्थ न्यायालय ने अपने क्षेत्र अधिकार का प्रयोग करने में अवैध रूप से सारवान अनियमितता से कार्य किया है,

तो ऐसा उच्च न्यायालय ऐसे किसी मामले के अभिलेखों मंगवा सकेगा और उच्च न्यायालय उस मामले में ऐसा आदेश दे सकेगा जैसा कि वह ठीक समझता है।

लेकिन उच्च न्यायालय किसी मामले में विनिश्चित किसी वाद पद अथवा आदेश को तब तक ना तो उल्टेगा ना उसमें परिवर्तन करेगा जब तक उसका यह समाधान नहीं हो जाता है कि यदि ऐसा बाद पद या आदेश पुनरीक्षण करने वाले पक्षकार के पक्ष में पारित किया गया होता तो मामले का अंतिम रूप से निपटारा हो जाता।

संहिता का यह महत्वपूर्ण उपबंध है। इसका विस्तृत विवेचन न्यायिक निर्णय सहित करने से इस धारा 115 को समझने में आसानी होगी। विस्तृत विवेचन निम्न प्रकार है--

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय--

(1) न्यायालय को धारा 151 के अधीन अंतर्निहित शक्तियों के प्रयोग में पुनरीक्षण को अपिल में परिवर्तित करने की शक्ति प्रदान है।
2008 ए आई आर( एनओसी) 604( इलाहाबाद)

(2) एक मामले में यह अवधारित किया गया है कि विधि उन परिस्थितियां मैं किसी हस्तक्षेप को बाधित नहीं करती है जहां विधि का अनुचित अर्थानव्यन किया जाता है और निष्कर्ष जहां पूर्णतः विधि पर आधारित होते हैं।
2000 ए आई आर( कर्नाटक) 154

(3) एक मामले में आदेश 36 के प्रावधानों के अधीन प्रस्तुत वाद में प्रतिवादी के अभिवचन को सही एवं न्याय संगत तथा संभावय होने वाला माना गया। परंतु प्रतिवादी को प्रतिरक्षा की इजाजत नहीं दी गई। एवं न्यायालय द्वारा डिक्री प्रदान कर दी गई। वहां उसे अवैधानिक एवं प्रतिवादी के साथ घोर अन्याय एवं उसकी अपूरणीय करने वाला आदेश माना गया। रिवीजन स्वीकार कर आदेश अपास्त किया गया।
1997 ए आई आर (दिल्ली) 46

(4) एक मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय ने अभी निर्धारित किया है कि ऐसे किसी आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण के लिए आवेदन नहीं किया जा सकता जो अपील योग्य है लेकिन अपील नहीं की गई है।
1977 ए आई आर (कोलकाता) 187

(5) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि प्रश्न मालाए परिदत्त करने से इनकार करने वाला आदेश इस धारा के अर्थों में  विनिश्चित मामला नहीं है। जिस से अपील पोषणीय ही नहीं है।

(6) एक मामले में विचारण न्यायालय द्वारा मूलवाद का विनिश्चय करने के बाद कोई निर्माण करवाया तथा ऐसे निर्माण कार्य के बारे में अपीलीय न्यायालय ने आज्ञापक व्यादेश जारी कर दिया। यह भी निर्धारित किया गया कि अपीलीय न्यायालय का यह आदेश क्षेत्राधिकार के बाहर ही नहीं था अपितु अन्याय पुर्ण भी था।
1981 ए आई आर (कोलकाता) 320

(7) सुप्रीम कोर्ट द्वारा अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां किसी वाद में संबंधित न्यायालय द्वारा संगामी उपपतियो के आधार पर निर्णय किया था, तो वहां निगरानी संबंधी क्षेत्र अधिकार का प्रयोग करके उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
1991 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1594

(8) एक मामले में जहां एक वाद के आंशिक समझौता होने की स्थिति में विचारण न्यायालय द्वारा एक आदेश अभिलिखित किया जाता है तथा उस आदेश के विरुद्ध पीड़ित पक्षकार द्वारा एक निगरानी प्रस्तुत की जाती है, तो यह निगरानी पोषणीय होती है। माननीय न्यायालय ने अहमद भी उजागर किया कि यदि उपरोक्त मामला संहिता की धारा 115 के प्रथम भाग्य तीन खंडों में से किसी के अंतर्गत आता है तो उसमें निगरानी न्यायालय हस्तक्षेप कर सकती है।
1992 ए आई आर (पटना) 153

(9) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभीनिर्धारित किया है कि जिस समय उच्च न्यायालय किसी वाद में संबंधित न्यायालय के क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर विचार कर रही होती है तो न्यायालय के क्षेत्राधिकार के प्रयोग को, केवल उसे  अनियमित या विधि विरुद्ध ढंग से किए गए प्रश्न का क्षेत्राधिकार के प्रयोग की दृष्टिकोण से ही नहीं पर्यवेक्षण करना होता है अपितु उसे अपनी तो उसे प्रश्नगत आदेश की वैधता के भी दृष्टिकोण से भी पर्यवेक्षण करना होता है।
1991 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 744

( 10) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभिनिर्धारित किया है कि न्यायालय को भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत जो क्षेत्र अधिकार प्राप्त है। उसका प्रयोग करने से न्यायालय को विरत नहीं किया जा सकता है।
1993 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1616

(11) राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक मामले में निर्धारित किया है कि जिला न्यायाधीश जो की एक दावा न्यायाधिकरण की हैसियत से कार्य करता है वह ना केवल उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण होता है बल्कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अधीनस्थ कार्य भी करता है।
1993 ए आई आर (राजस्थान) 126


(12) सुप्रीम कोर्ट ने मामले में अभिनिर्धारित किया है की उच्च न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 115 के अंतर्गत साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं कर सकता है। अधीनस्थ न्यायालय द्वारा साक्ष्य संबंधी विवेचन को भी एक भिन्न दृष्टिकोण जाहिर करके उपपतियों को उच्च न्यायालय अपास्त भी नहीं कर सकता है। उच्च न्यायालय को किसी भी वाद के तथ्य की उपपत्तियो मैं हस्तक्षेप करने की शक्ति प्राप्त है जहां की तथाकथित वाद के अभिलेख में मौजूद तात्विक साक्ष्य का निचली न्यायालय द्वारा मूल्यांकन नहीं किया गया है अथवा उस पर विचार नहीं किया गया है अथवा वहां भी उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकती है जहां की निचली न्यायालय द्वारा प्रतिगामी उपपतिया दी गई हो।
1991 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 455

(13) निष्पादन न्यायालय ने यह अभी निर्धारित  किया कि आक्षेप का आवेदन पत्र इस आधार पर पोषणीय नहीं था की कोई भी दस्तावेज उसके दावे के समर्थन में नहीं पेश किया गया और ऐसा आदेश अपीलीय नहीं होगा क्योंकि कोई न्याय निर्णय नहीं हुआ था। अंततोगत्वा उसके विरुद्ध निगरानी याचिका पोषणीय होगी।
2008 ए आई आर (पटना) 44

(14) एक मामले में आयुक्त के रिपोर्ट को अपास्त किए जाने हेतु प्रार्थना किया गया था किंतु इसे निरस्त किए जाने का आदेश नहीं दिया गया वहां यह विचार व्यक्त किया गया कि किसके विरुद्ध निगरानी पोषणीय नहीं नहीं होगी।
2000 ए आई आर (केरल) 27

(15) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभिनिर्धारित किया है कि जहां माल के अंतरण किये जाने वाला निगम का मुख्य कार्यालय दिल्ली में स्थित था वहां पक्षकारों के मध्य हुए विवाद के संबंध में यह अनिर्धारित किया गया है कि उच्च न्यायालय अपने सिविल क्षेत्रअधिकार के अंतर्गत निगम से संबंधित विवाद को हल कर सकता है।
1999 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 2352

(16) राजस्थान उच्च न्यायालय एक मामले में साक्षी को बंद करने के प्रक्रम पर प्रतिवादी संख्या 7 मौके पर साक्षी को बंद करने में सफल नहीं हुआ बाकी प्रतिवादियों को खर्चे की अदायगी से क्षति पूर्ति की जा सकेगी। पुनरीक्षण व्यय सहित स्वीकार किया गया।
1999 डी .एन. जे .( राजस्थान) 5

(17) एक मामले में विचारण न्यायालय जो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के अंतर्गत अपने क्षेत्रधिकार का प्रयोग करने में ना केवल अवैधानिक  ढंग से कार्य किया बल्कि महत्वपूर्ण अनियमितता भी बरती, वहां वर्तमान न्यायालय द्वारा प्रस्तुत वाद के प्रश्नगत उपपत्ति में निगरानी के चरण में हस्तक्षेप करने को न्याय संगत माना गया।
1989 ए आई आर (कोलकाता) 80


(18) राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभिनिर्धारित क्या है कि जहां तक किसी एक विशेष स्थान पर वाद हेतु के उद्भूत होने का प्रश्न उठता है तो इसके तथ्य का एक प्रश्न होने का अवधारण या न्याय निर्णयन पक्षकारों के साक्ष्य को अभिलिखित करने के पश्चात ही किया जा सकता है।
1997 ए आई आर (राजस्थान) 129

(19) एक मामले में पुनरीक्षण दाखिल किया गया कि पक्षकारों के हक में स्वत तो नहीं था केवल जमीन पर कब्जा है। पक्षकारों को भूमि का निर्माण कार्य करने की अनुमति देना अधिकारिता के बाहर है। आदेश इस सीमा तक का अपास्त किया गया कि पक्षकार वाद के विचाराधीन रहने के दौरान यथास्थिति बरकरार रखेंगे।
1999 डी .एन .जे .( राजस्थान) 216

(20) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि जहां डिक्री के निष्पादन में निर्णित ऋणी की संपत्ति का विक्रय किया गया और इस विक्रय के संदर्भ में एक उपपत्ती दी गई हो, वहां ऐसी उपपति के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका दायर नहीं की जा सकती है करण की यह निष्कर्ष तथ्य संबंधी मुद्दे पर निकाला गया था।
1995 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1357

Friday 1 March 2019

अधिवक्ता पंजीयन, उसका निलंबन, पुनः प्राप्ति के प्रयास पर SC का निर्णय 1 March 2019

*      भारत का सर्वोच्च न्यायालय
    *निर्णय दिनांक 1 मार्च 2019*

आनंद कुमार शर्मा बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया।के माध्यम से ... 1 मार्च, 2019 को

लेखक: एलएन राव

बेंच: [एम शाह], [एल]

नॉन-रीपोर्टेबल भारत की सर्वोच्च सीमा में CIVIL APPURATE JURISDICTION 2007 का CIVIL APPEAL No.294 आनंद कुमार शर्मा ...। अपील करनेवाला बनाम भारत का BAR COUNCIL थ्रू सचिव और एंकर ... .Respondents साथ में 2019 का CIVIL APPEAL No._2426-2427 [SLP (सिविल) से उत्पन्न ... 6383-6384 / 2019 सीसी न। 10531 - 2013 का 10532] आनंद कुमार शर्मा ...। अपील करनेवाला बनाम RAJASTHAN की BAR COUNCIL और उत्तर ... .Respondents प्रलय
एल। नागसेवा राव, जे।
एसएलपी (सी) में दी गई छुट्टी .. सीसी न। 10531 - 10532 2013।

1. अपीलार्थी को जुलाई, 1988 में बार काउंसिल ऑफ हिमाचल प्रदेश में एक वकील के रूप में नामांकित किया गया था। उन्होंने अपने नामांकन को राजस्थान राज्य को हस्तांतरित करने के लिए आवेदन किया था जिसकी अनुमति बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने 27 मई, 1989 को दी थी। बार काउंसिल ऑफ राजस्थान को शिकायत मिली थी कि हिमाचल प्रदेश राज्य में अपीलकर्ता का नामांकन तथ्यों और प्रासंगिक सामग्री के दमन द्वारा प्राप्त किया गया था। बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा 6 नवंबर, 1995 को अपीलार्थी का नामांकन रद्द कर दिया गया था। इस न्यायालय द्वारा इस आदेश की पुष्टि की गई क्योंकि अपीलकर्ता द्वारा दायर विशेष अवकाश याचिका को 5 अगस्त, 1996 को खारिज कर दिया गया था।
2. इसके बाद, अपीलकर्ता ने एक वकील के रूप में नामांकन के लिए आवेदन किया, जो एक वकील के रूप में अपने अनुभव को देखते हुए एक वर्ष के प्रशिक्षण से छूट की मांग करता है। उन्होंने राजस्थान उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और राजस्थान बार काउंसिल को निर्देश दिया कि वह प्रशिक्षण से छूट के लिए अपना आवेदन तय करे। उक्त रिट याचिका को एक विद्वान एकल न्यायाधीश ने यह कहकर खारिज कर दिया कि अपीलकर्ता नामांकन के लिए हकदार नहीं था। सीखे हुए एकल न्यायाधीश के उक्त फैसले के खिलाफ दायर अपील में, एक डिवीजन बेंच ने राजस्थान के बार काउंसिल को निर्देश दिया कि वह सीखा एकल न्यायाधीश द्वारा किए गए टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना अपीलकर्ता द्वारा दायर आवेदन पर विचार करे।
3. बार काउंसिल ऑफ राजस्थान ने 16 जनवरी, 2000 को नामांकन के लिए अपीलकर्ता के आवेदन को खारिज कर दिया और बार काउंसिल ऑफ इंडिया की पुष्टि के लिए मामले को संदर्भित किया। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने 16 जनवरी, 2000 को बार काउंसिल ऑफ राजस्थान द्वारा पारित आदेश की पुष्टि की।
4. अपीलार्थी ने बार काउंसिल ऑफ राजस्थान के समक्ष अधिवक्ता के रूप में नामांकन के लिए एक और आवेदन दायर किया, जिसे 29 जून, 2003 को खारिज कर दिया गया। बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने 29 जनवरी, 2003 के अपने संकल्प दिनांक 3 जनवरी, इत्यादि के आदेश की पुष्टि की। 2004।
5. अपीलकर्ता ने बार काउंसिल ऑफ राजस्थान के समक्ष आवेदन दाखिल करके नामांकन के लिए एक और प्रयास किया। प्रारंभ में, उक्त आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अपीलकर्ता को एक अधिवक्ता के रूप में भर्ती नहीं किया जा सकता है क्योंकि उसने नामांकन नियमों के नियम 1-ए के मद्देनजर 45 वर्ष की आयु पार कर ली है, बार काउंसिल ऑफ राजस्थान ने धारा 28 (1) के तहत फंसाया है ) (घ) अधिवक्ता अधिनियम , 1961 की धारा 24 (1) (ई) के साथ पढ़ा गया। उक्त नियम किसके द्वारा मारा गया था उच्च न्यायालय राजस्थान ने 19 अगस्त, 2008 को निर्णय दिया। 16 जनवरी, 2000 के पूर्व के आदेश को ध्यान में रखते हुए, जिसके द्वारा अपीलार्थी द्वारा दाखिल नामांकन के लिए आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया था, बार काउंसिल ऑफ राजस्थान ने एक वकील के रूप में अपीलकर्ता को नामांकित करने से इनकार कर दिया। 14 जुलाई, 2012 के आदेश से। बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा 15 सितंबर, 2012 को आदेश दिया गया था।
6. 2007 के CA 294 को राजस्थान की बार काउंसिल के दिनांक 29.06.2003 के आदेश को चुनौती देने वाले अपीलकर्ता द्वारा दायर किया गया है और परिणामी आदेश बार काउंसिल ऑफ इंडिया के 02.01.2004 और बार काउंसिल के 18.03.2004 के आदेश के अनुसार है राजस्थान। 15 सितंबर, 2012 को बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा पुष्टि की गई बार काउंसिल ऑफ राजस्थान की 14 जुलाई, 2012 की तारीखों की वैधता स्पेशल लीव पिटीशन (सिविल) ... सीसी नोस। 2013 के 10531-10532 का विषय है।
7. अपीलकर्ता एक योग्य चिकित्सा चिकित्सक है जिसे हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा अनुबंध के आधार पर चिकित्सा अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था। विशेष अवकाश याचिकाओं (सिविल) में दायर एफिडेविट में .. 2013 के सीसी नं। 10531-10532, अपीलार्थी ने कहा कि उसके खिलाफ 15 अप्रैल, 1988 को पुलिस स्टेशन धंबोला में एक प्राथमिकी दर्ज की गई । उसे गिरफ्तार किया गया और न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। । उन्होंने आगे कहा कि वह छुट्टी प्राप्त किए बिना सेवा से अनुपस्थित थे जिस कारण निदेशक द्वारा उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। अपीलकर्ता नेधारा 419 के तहत अपनी सजा का भी हवाला दिया है7 जनवरी, 1988 को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860। उन्होंने सत्र न्यायाधीश, डूंगरपुर, राजस्थान का निर्णय भी दायर किया है, जिसके द्वारा धारा 419आईपीसी के तहत सजा के खिलाफ उनकी अपील की अनुमति दी गई थी। हिमाचल प्रदेश के बार काउंसिल में नामांकन की मांग के समय अपीलकर्ता के खिलाफ जो दमन किया गया था, वह हिमाचल प्रदेश राज्य में सरकारी सेवा में होने और एक आपराधिक मामले में शामिल होने से संबंधित है। बाद में प्राप्तकर्ता अपीलार्थी के बचाव में नहीं आ सकता है। धारा 26अधिवक्ता अधिनियम, 1961 बार काउंसिल ऑफ इंडिया पर एक व्यक्ति का नाम हटाने के लिए शक्ति प्रदान करता है, जो गलत बयानी द्वारा अधिवक्ताओं के रोल पर दर्ज किया गया था। यह इस शक्ति के प्रयोग में है कि अपीलकर्ता का नामांकन रद्द कर दिया गया था। बार काउंसिल द्वारा एक वकील के रूप में अपना नामांकन रद्द करने का पहला आदेश इस न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई थी। अपीलकर्ता द्वारा बाद में किए गए बार-बार किए गए प्रयास प्रक्रिया के दुरुपयोग कीमात्रा है। अपीलकर्ता को सलाह दी जाएगी कि वह अधिवक्ता के रूप में अपने नामांकन से संबंधित मामले को आगे न बढ़ाए। अपील में लगाए गए आदेश किसी भी दुर्बलता से ग्रस्त नहीं हैं और बरकरार हैं।
8. अपील तदनुसार खारिज कर दी जाती हैं।
.................................. जम्मू। [L. NAGESWARA RAO] .................................. J
[MR SHAH] नई दिल्ली, 01 मार्च, 2019।

छल के मामले में मात्र समझौते के आधार पर मामला अभिखंडित नहीं किया जा सकता है


*छल के मामले में मात्र समझौते के आधार पर मामला अभिखंडित नहीं किया जा सकता है*
*दंड प्रक्रिया संहिता धारा 482 एवं दंड संहिता धारा 420, 467, 468 व 471- आरोपों का अभिखंडित किया जाना - समझौता - अभिनिर्धारित -* विचारण की वर्तमान स्थिति के अनुसार 20 साक्षीयो में से 16 साक्षी गण का पहले ही परीक्षण किया जा चुका है, अतः विचारण एक उन्नयन प्रक्रम पर पहुंच चुका है - इस उन्नयन प्रक्रम पर समझौते के आधार पर कार्यवाहियां अभिखण्डित नहीं की जा सकती - विचारण के उन्नयन प्रक्रम के अलावा, अभीकथनों के अनुसार अभियुक्त ने परिवादी से न केवल छल किया है बल्कि अन्य की भूमि विक्रय करने का प्रयास करके अभियुक्त ने अन्य व्यक्तियों के साथ भी छल करने का प्रयास किया है जो कि साक्षी गण के रूप में वर्णित है तथा उक्त साक्षी गण एवं अभियुक्त गण के मध्य किसी समझौते के बिना, संपूर्ण कर्यवाहियां मात्र इस आधार पर अभिखंडित नहीं की जा सकती की प्रथम सूचना देने वाले व्यक्ति ने अभियुक्त गण के साथ अपने विवादों का निपटारा कर लिया है - याचिका खारिज की गई।
हाजी नन्हे खान विरुद्ध मध्य प्रदेश राज्य, ILR 69 मध्य प्रदेश 2017