Monday 17 February 2014

ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008

ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008

व्यापार संव्यवहार संबंधी वाद के बारे में
   
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 दिनांक 2.10.2009 से प्रभावशील हुआ है और इस अधिनियम की धारा 3 (1) के प्रकाश में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की गई है और अधिनियम की धारा 5 के प्रकाश में न्यायाधिकारी नियुक्त किये गये है।
    धारा 11 के तहत ग्राम न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, सिविल और दाण्डिक दोनों अधिकारिता का प्रयोग इस अधिनियम के अधीन उपबंधित रीति और विस्तार तक करने का अधिकार होता है।
    धारा 13 में ग्राम न्यायालय की सिविल अधिकारिता के बारे में प्रावधान है जो इस प्रकार हैः-
(1)    सिविल प्रक्रिय ा संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी और उपधारा 2 के अधीन रहते हुए ग्राम न्यायालय की निम्नलिखित अधिकारिता होगी-
ए.    दूसरी अनुसूची के भाग 1 में विनिर्दिष्ट वर्गो के विवादों के अधीन आने वाले सिविल प्रकृति के सभी वादों या कार्यवाहींयों का विचारण करना,
बी.    उन सभी वर्गो के दावों और विवादों का विचारण करना, जो धारा 14 की उपधारा 1 के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा और उक्त धारा की उपधारा 3 के अधीन राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किये जाये।
(2)    ग्राम न्यायालय की धनीय सीमायें या आर्थिक क्षेत्राधिकार वह होगा, जो उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार की परामर्श से समय-समय पर अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट की जाये।
    मध्यप्रदेश ग्राम न्यायालय, न्यायाधिकारी धनीय अधिकारिता की सीमा नियम, 2009 के नियम 4 के अनुसार:-
    तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अध्यधीन, अधिनियम के अधीन ग्राम न्यायालय को 25,000/- रूपयें के अनधिक मूल्य के किसी वाद, दावे, विवाद या मूल कार्यवाहियों को सुनने एवं अवधारित करने की अधिकारिता होगी।
    इस प्रकार ग्राम न्यायालय इस समय तक 25,000/- रूपये की आर्थिक क्षेत्राधिकार के दूसरी अनुसूची के व्यवहार प्रकृति के विवाद सुनने की अधिकारिता रखते है।
    अधिनियम की दूसरी अनुसूची के खण्ड ;पपपद्ध (सी) के तहत ग्राम न्यायालय को व्यापार संव्यवहार या साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी विवाद सुनने की अधिकारिता होती है जिस पर हमे विचार करना है।
    भारत एक कृषि प्रधान देश है साथ ही भारत के ग्रामीण परिवेश में अधिकतम व्यापार संव्यवहार उधारी पर चलता है और कृषक प्रायः रबी या खरीफ की फसल आने पर क्रय  किये गये माल की कीमत चुकाते है। ग्रामीण परिवेश में इन्हीं उधार क्रय  किये गये सामानों की कीमत के बारे में, उस पर ब्याज के बारे में विवाद होते है  ग्रामीण परिवेश में कृषक के पास प्रायः बैंक के खाते या चैक बुक उनके अशिक्षित होने के कारण नहीं होती है अतः इन क्षेत्रों में एन0 आई0 एक्ट के मामले कम देखे जाते हैं।
    इन विवादो पर विचार करते समय माल विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 55 से 61, धारा 64ए एवं धारा 19 से 24 के प्रावधान ध्यान में रखना होते है।
    धारा 55 (1) के अनुसार जहां विक्रय की संविदा के अधीन माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रांत हो गई है और क्रेता संविदा के शर्तों के अनुसार उस माल की कीमत का संदाय करने में सदोष उपेक्षा या इंकार करता है वहां विक्रेतर माल की कीमत के लिये उसके विरूद्ध वाद ला सकता है।
    धारा 55 (2) के अनुसार जहां विक्रय की संविदां के अधीन कीमत, इस बात को दृष्टि में लाये बिना कि माल का परिदान हुआ है या नहीं, किसी निश्चित दिन को देय हो, और क्रेता ऐसी कीमत का संदाय करने में सदोष उपेक्षा या इंकार करता है वहां विक्रेता माल की कीमत के लिये उसके विरूद्ध वाद ला सकता है यद्यपि माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रांत न हुई हो और वह माल संविदा के लिए विनियोजित न किया गया हो।
    अधिकतर मामले धारा 55 (1) के होते है जिनमें क्रेता वस्तु क्रय कर लेता है लेकिन उसका मूल्य अदा करने में उपेक्षा या इंकार करता है इन मामलों में माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रांत होना आवश्यक है और इसे देखने के लिये अधिनियम की धारा 19 से 24 के प्रावधान ध्यान रखना होता है।
    धारा 19 (1) के अनुसार जहां कि संविदा विशिष्टि या अभिनिश्चित माल के विक्रय के लिये हो वहां उस माल में की संपत्ति क्रेता को उस समय अंतरित होती है जिस समय अंतरित किया जाना उस संविदा के पक्षकारो द्वारा आशयित हो।
    धारा 19 (2) के अनुसार संविदा की शर्ते, पक्षकारो ंका आचरण और मामले की परिस्थितियों पक्षकारो ंके आशय को निश्चित करने के लिए ध्यान में रखना होती है।
    धारा 19 (3)  के अनुसार  पक्षकारो कें आशय अभिनिश्चित करने के लिये नियम, धारा  20 से 24 ध्यान में रखना होती है।
    धारा 20 के अनुसार जहां संविदा परिदेय स्थिति के विनिर्दिष्ट माल के विक्रय के लिये है वहां उस माल में की संपत्ति क्रेता को उस समय संक्रांत होती  है जब संविदा की जाती है, यह तत्वहीन है कि कीमत के संदाय के समय या माल के परिदान का समय या दोनों स्थगित कर दिये गये है।
    धारा 21 के अनुसार जहां संविदा विनिर्दिष्ट माल के विक्रय के लिये है और विक्रेता माल को परिदेय स्थिति में लाने के प्रयोजन से माल के प्रति कुछ करने के लिये आबद्ध है, वहां संपत्ति तब तक संक्रात नहीं होती है जब तक वह कार्य कर नहीं दिया जाता और क्रेता को उसकी सूचना नहीं हो जाती।
    धारा 22 के अनुसार जहां की संविदा परिदये स्थिति के विनिर्दिष्ट माल के विक्रय के लिये है किन्तु विक्रेता कीमत निश्चित करने के प्रयोजन से माल को तोलने, मापने, परखने या उसके बारे में कोई अन्य कार्य या बात करने के लिए आबद्ध है वहां संपत्ति तब तक संक्रात नहीं होती जब तक की वह कार्य या बात नहीं कर दी जाती और क्रेता को उसकी सूचना नहीं हो जाती।
    धारा 23 (1) के अनुसार जहां अभिनिश्चित या भावी माल के वर्णन अनुसार विक्रय की संविदा है और ऐसा माल जो उस वर्णन को और परिदेय स्थिति में है। या तो क्रेता की अनुमति से विक्रेता द्वारा या विक्रेता की अनुमति से क्रेता द्वारा संविदा मध्य अशर्त विनियोजित कर दिया जाता है वहां उसके बाद माल में की संपित्त क्रेता को संक्रात हो जाती है। ऐसी अनुमति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकेगी और विनियोग किये जाने के पूर्व या पश्चात दी जा सकेगी।
    धारा 23 (2) वाहक को परिदान- जहां की संविदा के अनुसरण में  विक्रेता क्रेता को अथवा क्रेता को माल पारेषित किये जाने के प्रयोजन से वाहक को या अन्य उपनिहिती या बेली को (चाहे वह क्रेता द्वारा नामित हो या न हो )माल का परिदान कर देता है और व्ययन का अधिकार आरक्षित नहीं रखता वहां यह समझाा जायेगा की उसने संविदा पेटे उस माल का अशर्त विनियोग कर दिया है।
    धारा 24 के अनुसार जब कि क्रेता को माल एपू्रवल अथवा ‘‘ विक्रय या वापसी के लिये‘‘ या ऐसी ही अन्य शर्त पर परिदत्त किया जाता है तब माल में संपत्ति का क्रेता को संक्रमण -
ए.     उस समय होता है जब वह अनुमोदन या प्रतिग्रहण विक्रेता को संज्ञापित करता है या उस व्यवहार को अंगीकार करने का कोई अन्य कार्य करता है;
बी.    उस दशा में जबकि वह अपना अनुमोदन या प्रतिग्रहण विक्रेता को संज्ञापित नहीं करता किंतु प्रतिक्षेप की सूचना दिये बिना माल को प्रतिधारित रखता है, यदि माल की वापसी के लिये कोई समय नियत किया गया हो तो उस समय के अवसान पर होता है, और यदि कोई समय नियम नहीं किया गया है तो युक्तियुक्त समय के अवसान पर होता है।
    इस तरह धारा 55(1) के अधीन माल की कीमत के वादों में माल में की संपत्ति क्रेता को संक्रांत हुई या नहीं इस प्रश्न पर विचार करते समय न्यायालय को उक्त धारा19 से 24 तक के प्रावधान ध्यान में रखना चाहिए और उसी के अनुसार विवाद का निराकरण करना चाहिए।
    न्यायदृष्टांत वसन्था विश्वनाथन विरूद्ध वी. के. एलियावर, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 3357 मे (धारा 19 माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में) यह प्रतिपादित किया गया है कि मोटर वाहन के अंतरण के मामलों में वाहन तब संक्रात नहीं होता जब क्षेत्रिय परिवहन प्राधिकारी वाहन को अंतरिती के नाम अंतरण करने का आदेश देता हैं बल्कि धारा 19 माल विक्रय अधिनियम के तहत किसी विशिष्टि या अभिनिश्चित माल के विक्रय के मामले में माल के्रेता को उस समय अंतरित होता है जिस समय अंतरित किया जाना उस संविदा के पक्षकारों के द्वारा आशयित हो।
    न्यायदृष्टांत यूनाईटेड बे्रवरीज लि0 विरूद्ध स्टेट आॅफ आध्रप्रदेश ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 1316 में (धारा 19 माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में) यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां बीयर बोतल और केरेट सहित विक्रय की जाती है और खाली बोतल और केरेट वापस जमा कर देने पर उनका डिपाजिट मूल्य ग्राहक को वापस करने की योजना होती है वहां यह नहीं कहा जा सकता की बोतल और केरेट भी बेचे गये है बल्कि पक्षकारों का आशय केवल बीयर बेचना है न बोतल और केरेट बेचना।
    न्यायदृष्टांत कान्टशीप कंटेनर लाइन्स लि0 विरूद्ध डी.के. लाल्ल, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1704 में (धारा 23 (2) माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में) यह प्रतिपादित किया गया कि विक्रेता ने माल को सुरक्षित तरीके से उसके खर्च पर रख दिया विक्रेता का दायित्व समाप्त हो जाता है उसकी माल के प्रति कोई रूचि शेष नहीं रहती है क्योंकि उसने माल को दस्तावेजों सहित लोड कर दिया और अब माल उस अवस्था से के्रेता की रिस्क पर रहता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत एग्रीकल्चरल मार्केट कमेटी विरूद्ध शालीमाल केमिकल वर्कस, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 2502 भी अवलोकनीय है जिसमें विक्रेता ने माल क्रेता को भेजने के लिए लोड कर दिया था उसके बाद विक्रेता का दायित्व नहीं रहता है यह माना गया धारा 19 एवं धारा 20 माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में उक्त विधि प्रतिपादित की गई।
    न्यायदृष्टांत एम0पी0 स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट विरूद्ध सुपर स्टोन रबर इडस्ट्रीज 2011 (3) एम.पी.एल.जे. 355 में मामले में विक्रेता ने क्रेता को अतिरिक्त माल सप्लाई किया क्रेता ने माल स्वीकार कर लिया काफी लम्बे समय तक उसके कब्जे में पडा रहा और अनुपयोगी हो गया क्रेता ने अतिरिक्त माल विक्रेता को वापस नहीं भेजा न कोई पत्र तत्काल भेजा और धारा 37 के तहत तत्काल कार्यवाही नहीं की क्रेता को माल की कीमत चुकाने के लिए उत्तरदायी माना गया।
    न्यायदृष्टांत मध्यप्रदेश इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड, रामपुर विरूद्ध चैधरी एण्ड सन्स, 2008 (2) एम.पी.जे.आर. 253 में यह प्रतिपादित किया गया कि माल जिस उद्देश्य के लिए क्रय  किया गया था वह उस उद्देश्य के लिए उचित नहीं पाया गया यह एक विवक्षित शर्त है कि माल जिस उद्देश्य के लिए खरीदा गया वह उस उद्देश्य के उचित होना चाहिए यदि ऐसा नहीं होता है तो माल का अस्वीकार किया जाना उचित होता है धारा 16 के प्रकाश में यह विधि प्रतिपादित की गई।
    धारा 56 के अनुसार जहां की के्रेता माल का प्रतिग्रहण और उसके लिए संदाय करने की सदोष उपेक्षा या इंकार करता है वहां विक्रेता अप्रतिग्रहण के लिए नुकसानी का वाद उसके विरूद्ध ला सकता है।
    ये विवाद प्रायः तब होते है जब संविदा के समय माल की कीमत और माल के प्रतिग्रहण के समय माल की कीमत में अंतर आ जाता है उस दशा में क्रेता अधिक कीमत का माल लेने से इंकार कर देता है।
    न्यायदृष्टांत कालू राम भगवती प्रसाद फर्म विरूद्ध बलराम दास लक्षमीनारायण फर्म, 1991 एम.पी.एल.जे. 575 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां क्रेता ‘‘दोषपूर्ण तरीके से‘‘ माल स्वीकार करने से इंकार कर देता है तब धारा 56 के तहत वाद चलने योग्य होता है लेकिन जहां उसने धारा 17 (2)(ए) के अधिकार का प्रयोग किया हो तब धारा 56 लागू नहीं होती है।
    धारा 17 में क्रेता नमूने के अनुसार माल है या नहीं यह देखने का अधिकार रखता है।
    धारा 57  के अनुसार जहां विक्रेता माल का परिदान क्रेता को करने में सदोष उपेक्षा या इंकार करता है वहां के्रेता अपरिदान के लिये नुकसानी का वाद विक्रेता के विरूद्ध ला सकेगा।
    ये विवाद प्रायः तब होते है जब संविदा के समय माल की कीमत और माल के परिदान के समय माल की कीमत में अंतर आ जाता है उस दशा में विक्रेता कम कीमत में माल का परिदान करने का इच्छुक नहीं रहता है।
    धारा 56 और धारा 57 के मामलों के निराकरण के समय भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के धारा 73 एवं 74 के प्रावधान ध्यान में रखना चाहिए।
    न्यायदृष्टांत के.आर. शाॅह विरूद्ध म्यूनिसिपल कमेटी धमतरी, 1969 जे.एल.जे. 58 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि माल विक्रय संविदा के भंग के मामले मे ंनुकसानी, भंग की तिथि पर माल के बाजार मूल्य एवं संविदा मूल्य का अंतर होता है । यदि संविदा भंग की तिथि पर माल के बाजर मूल्य एवं संविदा मूल्य में कोई अंतर न हो तो पीडि़त पक्षकार को केवल सांकेतिक नुकसानी प्राप्त हो सकती है नुकसानी का आदेश पारित करते समय न्यायालय का लक्ष्य दोषी पक्षकार को दण्ड देना न होकर पीडि़त पक्षकार को उस स्थिति में लाना होता है जिसमें वह तब रहता जब संविदा का उसकी शर्तो के अनुसार पालन होता।
    धारा 58 के अनुसार विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अध्याय 2 के उपबंधों के अधीन यह है कि विनिर्दिष्ट या अभिनिश्चित माल मे परिदान की संविदा के भंग के किसी वाद में न्यायालय यदि ठीक समझे, वादी के आवेदन पर डिक्री द्वारा प्रतिवादी को यह विकल्प दिये बिना कि वह नुकसानी देकर माल को प्रतिधारित रखे, यह निदेश दे सकेगा की संविदा का पालन विनिर्दिष्टतः किया जाये। डिक्री अशर्त होगी अथवा नुकसानी या कीमत के संदाय विषयक अन्यथा ऐसे निबंधनों और शर्तो सहित हो सकेगी जिन्हें न्यायालय न्यायसंगत समझे, वादी द्वारा आवेदन डिक्री से पूर्व किसी भी समय किया जा सकेगा।
    न्यायदृष्टांत उक्त वसन्था मे धारा 58 में के प्रकाश में यह भी प्रतिपादित किया गया जहां बसों के अंतरण का अनुबंध हो जो परमिट में कवर होती हो लेकिन अंतरिती ने बसों का बल पूर्वक आधिपत्य ले लिया हो उन्हें चलाया और अन्य को अंतरित भी कर दिया वादी अंतरण कर्ता वाद लाया और बसों की कीमत तय करने के लिए कमीश्नर नियुक्त करने और प्रतिवादी और पश्चात्वर्ती क्रेता के विरूद्ध डिक्री के लिए वाद लाया बसों को चलाने से हुये लाभ भी मांगे गये धारा 19 (बी) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के तहत विनिर्दिष्ट पालन की आज्ञप्ति उचित मानी गई।
    धारा 59(1) के अनुसार जहां कि वारण्टी का भंग विक्रेता द्वारा किया जात है या जहां कि क्रेता यह निर्वाचन करता है या ऐसा मानने के लिए विवश हो जाता है कि विक्रेता पक्ष से जिस शर्त का भंग हुआ है वह वारण्टी का भंग है वह क्रेता वारण्टी के ऐसे भंग के कारण ही उस माल को प्रतिक्षेपित करने का हकदार नहीं हो जाता किन्तु वह -
ए.    वारण्टी के भंग की कीमत कम या निर्वापित कराने मे ंविक्रेता के विरूद्ध रख सकेगा; या
    बी.     वारण्टी के भंग के लिए विक्रेता के लिए नुकसानी का वाद ला सकेगा।
   
धारा 59 (2) के अनुसार यह तथ्य की क्रेता ने वारण्टी के भंग की कीमत कम या निर्वापित कराने में रखा है वारण्टी के उसी भंग के लिए वाद लाने से उसे निवारित नहीं करता यदि उसे अतिरिक्त नुकसान उठाना पड़ा हो।
    धारा 12 (1) के अनुसार विक्रय की संविदा में कोई अनुबंध जो उस माल के बारे में हो जो उस संविदा का विषय है शर्त या वारण्टी हो सकेगा।
    धारा 12 (2) शर्त संविदा के मुख्य प्रयोजन के लिए मर्मभूत वह अनुबंध है जिसका भंग उस संविदा को निराकृत मानने का अधिकार पैदा करता है।
    12 (3) के अनुसार वारण्टी संविदा के मुख्य प्रयोजन का समपार्शविक वह अनुबंध है जिसका भंग नुकसानी के लिए दावा पैदा करता है, किन्तु माल को प्रतिक्षेपित करने और संविदा को निराकृत मानने का अधिकार पैदा नहीं करता।
    12 (4) के अनुसार विक्रय की संविदा में कोई अनुबंध शर्त है या वारण्टी यह बात हर एक मामले में उस संविदा के अर्थान्वयन पर आश्रित होती है। अनुबंध शर्त हो सकता है यद्यपि संविदा में उसे वारण्टी कहा गया है।
    शर्त कब वारण्टी मानी जा सकेगी इस बारे मे ंधारा 14 माल विक्रय अधिनियम के प्रावधान ध्यान रखना चाहिए।
    न्यायदृष्टांत मारूती उद्योग लिमिटेड विरूद्ध सुशील कुमार, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 158 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 59 एवं धारा 12 माल विक्रय की अधिनियम के प्रकाश में यह प्रतिपादित किया की जहां दोषपूर्ण कार के विक्रय का मामला हो जिसमें क्रेता ने खरीदी गई कार में निर्माण संबंधी त्रुटि बतलाते हुये उसे रिप्लेस करने के बारे में निवेदन किया हो लेकिन वारण्टी में दोषपूर्ण पूर्जे को रिप्लेस करने की स्पष्ट निर्देश हो कार को रिप्लेस करने के न हो वहां कार को रिप्लेस करने का आदेश उचित नहीं है। के्रेता दोषपूर्ण पूर्जे विक्रेता के खर्च पर रिप्लेस करवाने का अधिकारी है इसके अतिरिक्त उसे हुई असुविधा के लिए 50,000/- रूपये भी दिलवाये गये।
    धारा 60 के अनुसार जहां विक्रय की संविदा के पक्षकार में से कोई परिदान के तारीख से पूर्व उस संविदा का निराकरण कर देता है वहां दूसरा पक्षकार या यह मान सकेगा कि संविदा अस्तित्व में बनी हुई है और परिदान की तारीख तक प्रतिक्षा कर सकेगा या संविदा को विखण्डित मान सकेगा और उस भंग के लिए वाद ला सकेगा।
    धारा 61(1) के अनुसार उस दशा में जिसमें ब्याज या विशेष नुकसानी विधि द्वारा वसूली योग्य हो, ब्याज या विशेष नुकसानी को अथवा जहां कि धन के संदाय का जो प्रतिफल था वह निष्फल हो गया है, दिये हुए धन को वसूल करने के विक्रेता या के्रेता के अधिकार पर इस अधिनियम की काई भी बात प्रभाव नही डालेगी।
    धारा 61 (2) के अनुसार किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में न्यायालय कीमत की रकम पर ऐसी दर से जिसे वह ठीक समझे ब्याज -
ए.    विक्रेता को उस वाद में, जो उसने कीमत के लिए किया है माल की निविदा की तारीख से उस तारीख से जिस तारीख को कीमत संदेय थी अधिनिर्णित कर सकेगा,
बी.     क्रेता को उस वाद में, जो उसने विक्रेता की तरफ से संविदा भंग की दशा में कीमत के परिदान के लिए किया है उस तारीख से अधिनिर्णित कर सकेगा जिस तारीख को कीमत का संदाय किया गया था।
    धारा 61 के प्रावधान प्रायः माल की कीमत के मामलो में  उपयोगी है क्योंकि जब विक्रेता के्रेता को माल बेचता है उस समय उभय पक्ष में यह समझ रहती है एक निश्चित अवधि पर माल की कीमत का भुगतान कर दिया जायेगा और जब के्रेता इसमें असफल रहता है तब विवाद न्यायालय में आता है और उस समय न्यायालय के सामने ब्याज का कोई करार नहीं होता है लेकिन धारा 61 न्यायालय को नुकसानी के तौर पर ब्याज माल विक्रय के मामले में दिलाने के लिये अधिकार देती है। जिसका प्रयोग कर के समूचित मामले में वादी को युक्तियुक्त दर से ब्याज दिलवाना चाहिए क्योंकि विक्रेता व्यापारी भी कही से माल क्रय  कर के लाता है और वहां उसे एक निश्चित समय में भुगतान करना होता है और न कर पाने पर ब्याज भी देना पड़ता है।
    न्यायदृष्टांत साउथ इस्र्टन कोल फिल्ड लि0 विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 4482 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 61(2) माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में क्षतिपूर्ति के रूप में ब्याज दिलवाने को उचित माना है।
    न्यायदृष्टांत श्री दुर्गा राइस मिल्स विरूद्ध फूड कार्पोरेशन आॅफ इण्डिया, 1987 (1) डब्ल्यू.एन. 176 में यह प्रतिपादित किया है कि जहां  माल की कीमत का वाद हो वहां अनुबंध के बिना भी ब्याज दिलवाया जा सकता है।
    न्यायदृष्टांत भवानी लाल विरूद्ध भूर सिंह, 1986 (2) डब्ल्यू.एन. 50 में यह प्रतिपादित किया गया है कि माल की कीमत की वाद में विक्रेता युक्तियुकत दर से ब्याज पाने का अधिकारी होता है।
    न्यायदृष्टांत एम0पी0 टैक्स बुक कार्पोरेशन विरूद्ध मेसर्स ओरियेण्ट पेपर मिल्स, 2006 (2) एम.पी.एल.जे. 262  के मामले में वादी ने प्रतिवादी पेपर मिल्स के विरूद्ध अग्रिम दी गई राशि पर ब्याज का वाद लगाया उभय पक्ष के मध्य कन्सेसनल रेट पर पेपर सप्लाई करने की संविदा थी ब्याज का कोई करार नहीं था ऐसे में पेपर मिल का कोई ऐसा दायित्व नहीं था जो उसने भंग किया ब्याज उचित नहीं माना गया।
    न्यायदृष्टांत मेसर्स मारवाड टेंट फैक्टरी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंण्डिया, ए.आई.आर. 1990 एस.सी. 1753 में यह प्रतिपादित किया गया है कि माल विक्रय की संविदा में जहां माल रिस्क पास सहित कन्साइनर ने कन्साइनी के लिये जैसे ही प्रेषित स्थान पर जाने के लिए लोड़ किया   कन्साइनर रेलवे द्वारा किये गये कम परिदान के लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता यह विधि धारा 23, 26, 39 एवं 61 (2) माल विक्रय अधिनियम के प्रकाश में प्रतिपादित की गई।
    धारा 64 ए (1) के अनुसार जहां संविदा की शर्तो से भिन्न आशय प्रतित न हो वहां किसी माल के बाबत् उपधारा दो में वर्णित प्रकृति का कोई कर ऐसे माल में विक्रय या क्रय  के लिये, वहां पर जहां संविदा के किये जाने के समय कर प्रभार्य नहीं था, कर के संदाय के बारे में किसी अनुबंध के बिना या वहां पर जहां कि उस समय कर प्रभार्य था, ऐसे माल के देय कर विक्रय या क्रय  के लिये, कोई संविदा की जाने के पश्चात् अधिरोपित, वर्धित, कम या रिमिट किये जाने की दशा में -
ए.    यदि ऐसा अधिरोपण या वर्धन इस प्रकार प्रभाव में आता है कि, यथा स्थिति, कर या वर्धित कर या ऐसे कर का कोई भाग संदत्त किया जाता है या संदेय है तो विक्रेता संविदा कीमत में उतनी रकम जोड सकेगा जितनी ऐसे कर या कर की वृद्धि के कारण संदत्त या संदेय रकम के बराबर हो, और ऐसी जोड़ी गई रकम अपने को संदत्त किये जाने का तथा उस रकम के लिये वाद लाने और उसे वसूल करने का हकदार होगा तथा
बी.    यदि ऐसी कमी या परिहार इस प्रकार प्रभाव में आता है कि केवल कम किया गया कर संदत्त किया जाता है या संदेय है या कोई भी कर न संदत्त किया गया है न संदेय है तो क्रेता संविदा कीमत में से उतनी रकम काट सकेगा जितनी कर की कमी या रिमिट कर के बराबर हो और ऐसी कटौती के लिए या बाबत् संदाय करने का दायी न होगा न उस पर वाद लाया जायेगा।
    धारा 64 ए (2) के अनुसार उक्त प्रावधान माल पर किसी भी सीमा शुल्क या उत्पाद शुल्क एवं माल के विक्रय या क्रय  पर किसी भी कर पर लागू होते है।

    न्यायदृष्टांत हिन्दुस्तान कापर लि0 विरूद्ध यूनाईटेड फोरजिन्स भिलाई, 2006 (2) एम.पी.एल.जे. 477 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां एक प्रतिशत विक्रय कर और एक्साईजड डयूटी मे संविदा के बाद वृद्धि हो गई हो वहां धारा 64 ए के तहत विक्रेता  एक्साईजड डयूटी और विक्रय कर की बढ़ी हुई राशि क्रेता से पाने का अधिकारी है।
    न्यायदृष्टांत रविन्द्र राज विरूद्ध मेसर्स काम्पीटेन्ट मोटर्स कम्पनी, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 1061 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां माल के परिदान में विलंब हुआ हो और एक्साईज डयूटी में वृद्धि हुई हो वहां क्रेता को बढ़ी हुई एक्साईज ड्यूटी वहन करना होगी माल के निर्माण कर्ता को नहीं जहां ऐसा साक्ष्य न हो कि माल के परिदान में हुआ विलंब निर्माणकर्ता या डीलर के विमर्शित आशय से हुआ है क्योंकि धारा 64 ए (1) (बी) के तहत जहां एक्साईज डयूटी में वृद्धि हुई हो उसे जमा कराने का दायित्व के्रेता का है।

ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008

साहूकारी से उत्पन्न धन संबंधी वाद के बारे में
   
    भारत एक कृषि प्रधान देश है कहा जाता है कि भारत मूलतः ग्रामीण क्षेत्र में बसता है। कृषक की आमदनी मुख्य रूप से फसलों पर आधारित होती है और उसके पास रबी और खरीफ की फसल आने पर ही पैसा हाथ में आता है ऐसे में उसे अपने कुछ अतिआश्यक कार्य के लिए धन की आवश्यकता होती है और यह धन वह गाव के साहूकारों से प्राप्त करता है जो प्रायः गरीब कृषकों का शोषण भी करते है।
    ग्राम न्यायालय के पास ऐसे ही लेनदेन के विवाद या प्रोमेसरी नोट बंधपत्र आदि पर आधारित धन वसूली के वाद आ सकते है इन वादों में भी साहूकारी का प्रश्न उठाया जाता है ऐसे में म0प्र0 साहूकारी अधिनियम, 1934 के प्रावधान और ब्याज संबंधी विधि और उस पर नवीनतम कानूनी स्थिति का ज्ञान होना आवश्यक होता है।
    ग्राम न्यायालय की अधिकारिता उसकी सिविल अधिकारिता और धनीय  अधिकारिता के बारे में हम पूर्व में विचार कर चुके है वे ही विधि अर्थात् धारा 11, धारा 13 ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008  एवं ग्राम न्यायालय न्यायधिकारी धनीय अधिकारिता की सीमा नियम 4 इन मामलों में भी ध्यान में रखना होती है।
    सर्वप्रथम ये जान लेना आवश्यक है कि साहूकार कौन है इस संबंध में म0प्र0 साहूकारी अधिनियम, 1934 की धारा 2 (5) के अनुसार:-
    ‘‘साहूकार‘‘ से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो कारबार के नियमित अनुक्रम में इस अधिनियम में परिभाषित कोई ऋण अधिदाय करता है और धारा 3 के प्रावधान के अधीन रहते हुए इस में ऋण दाता के विधिक प्रतिनिधिगण और हित उत्तराधिकारीगण चाहे उत्तराधिकार समुनदेशन या अन्यथा के द्वारा सम्मलित है और साहूकार का उस अनुसार अर्थान्वयन किया जायेगा।
    सामान्य भाषा में कहे तो वह व्यक्ति जो कारबार के नियमित अनुक्रम में लोगों को रूपया उधार देता है और ऐसा वह ब्याज कमाने के उद्देश्य से करता है उसे साहूकार माना जाता है अर्थात जिसने लोगों को रूपया उधार देकर ब्याज कमाना एक व्यवसाय बना लिया हो उसे साहूकार माना  जाता है।  मानवीय संबंधों को ध्यान में रखते हुए किसी व्यक्ति कि आवश्यकताओं को देखते हुए उसे एक या दो बार रूपया उधार दे देना किसी व्यक्ति को साहूकार नहीं बनाता है यह तथ्य भी ध्यान रखना चाहिए और इन दोनो ंश्रेणी के व्यक्तियों में अंतर करना चाहिए।
    यदि सामान्य व्यक्ति कोई ऋण वसूली का वाद लाता है और उसमे प्रतिवादी या ऋणी वादी के साहूकार होने का अभिवाक् लेता है तो इस अभिवाक् को प्रमाणित करने का भार प्रतिवादी पर होता है। यदि वादी स्वयं को साहूकार बतलाकर ही वाद लाया है तब केवल यह देखना होता है कि उसके पास साहूकारी अनुज्ञप्ति है या नहीं। सामान्य व्यक्ति वाले मामले में जहां साहूकारी का बचाव लिया जाता है वहां निम्न वाद प्रश्न की रचना करना चाहिएः-
    1.    क्या वादी साहूकार है ?
2.    क्या वादी ने म0प्र0 साहूकारी अधिनियम,1934 के आवश्यक प्रावधानों का पालन करते हुए प्रतिवादी को हिसाब नहीं भेजा है ? यदि हाॅ तो प्रभाव ।
    इस प्रकार स्पष्ट वाद प्रश्न की रचना करने से उस पर आई साक्ष्य के मूल्यांकन में भी असानी होगी और एक निश्चित निष्कर्ष आ सकेगा।
    न्यायदृष्टांत बंसीलाल खरकवार विरूद्ध नर्मदा प्रसाद चैरसिया, 2004 (4) एम.पी.एल.जे. 77 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऋणी वसूली का वाद- एक या दो व्यक्तियों का ऋण दे देना किसी व्यक्ति को साहूकार नहीं बनाता है।
    इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि वादी साहूकार है इस तथ्य को साबित करने का भार प्रतिवादी पर है।
    न्यायदृष्टांत महेन्द्र सिंह विरूद्ध जगबीर सिंह, 1993 (2) डब्ल्यू.एन. 64 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि यह प्रमाणित होना चाहिए कि संबंधित व्यक्ति रूपया उधार देने का व्यापार चलाता है तभी उसे साहूकार माना जा सकता है।
    न्यायदृष्टांत भीमसेन विरूद्ध श्रीमती राधाबाई, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 475 के अनुसार रूपया उधार देना एक व्याापर की तरह नहीं चलाया जा रहा था ऐसे में उस व्यक्ति को साहूकार नहीं माना जा सकता।
    न्यायदृष्टांत ग्यारसी बाई विरूद्ध लक्षमण, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 270 में यह प्रतिपादित किया गया है कि साहूकार कौन है यह एक जांच के बाद ही सुनिश्चित किया जा सकता है।
    न्यायदृष्टांत मिलापचंद विरूद्ध सुन्दर बाई, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 11 में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक व्यक्ति जिसने पाॅच ऋण एक ऋणी को दिये जो न तो उसका मित्र है न रिश्तेदार है ऐसे में ऋण देने वाले व्यक्ति को साहूकार माना गया।
    न्यायदृष्टांत परिमल विरूद्ध हरीशकुमार, 1997 (1) विधि भास्वर 27 में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक व्यक्ति जिसने कई व्यक्तियों का उधार पैसा दिया वह साहूकार है यह माना जायेगा ।
    न्यायदृष्टांत सीताराम श्रवण विरूद्ध विजया, ए.आई.आर. 1941 नागपुर 177 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि धन उधार देने का एक संव्यवहार व्यापारिक है लेकिन यह कारबार के नियमित अनुक्रम में किया गया कार्य नहीं है अधिनियम केवल साहूकारों पर लागू होता है और यह प्रमाणित होना चाहिए की वादी साहूकार है।
    न्यायदृष्टांत दुआलाल विरूद्ध रामसिहं, 1961 एम.पी.एल.जे. एसएन 301 के मामले में एक ही कृषक को व्यापार के नियमित अनुक्रम में समय-समय पर ऋण प्रदान किया जाता रहा था इसे एकल संव्यवहार नहीं माना गया और वादी को साहूकार माना गया।
    इस तरह कोई व्यक्ति साहूकार है या नहीं इस प्रश्न पर विचार करते समय उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या संबंधित व्यक्ति कारबार के नियमित अनुक्रम में लोगों को रूपया उधार देता है और ऐसा वह एक व्यापार की तरह करता है तभी उसे साहूकार प्रमाणित मानना चाहिए।
    इन मामलों में ऋण की परिभाषा भी ध्यान में रखना चाहिए जो कि धारा 2 (7) म0प्र0 साहूकारी अधिनियम के अनुसार:-
    ‘‘ऋण‘‘ से अंतिम व्यवहार के दिनांक से बारह वर्षो के भीतर किया गया कोई वास्तविक अधिदाय या एडवांस है चाहे ब्याज पर किसी धन का या किसी वस्तु का और इसमें ऐसा कोई संव्यवहार सम्मलित होगा जो न्यायालय सार रूप में कोई ऋण होना आती है परंतु इसमें निम्नलिखित सम्मलित नहीं होंगे:-
ए.    सरकारी डाकघर, बैंक या किसी अन्य बंैक या किसी कम्पनी या किसी सहकारी समिति में धन या अन्य संपत्ति का जमा,
बी.    सोसाईटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1860 के तहत या किसी अन्य अधिनियम के तहत रजिस्ट्रीकृत किसी सोसाइटी या संघ को या के द्वारा कोई ऋण या उनके पास किया गया कोई जमा,
सी.    किसी सरकार या सरकार द्वारा प्राधिकृत किसी स्थानीय प्राधिकरण के द्वारा अग्रिम कोई ऋण,
डी.     किसी बैंक सहकारी सोसाईटी या कम्पनी जिनके खाते कम्पनी अधिनियम के तहत प्रमाणित संपरिक्षक द्वारा संपरिक्षा के अध्याधीन है के द्वारा अग्रिम कोई ऋण;
ई.    प्रोमेसरी नोअ को छोडकर निगोशियेबल इन्स्ट्ªूमेंट एक्ट, 1881 में परिभाषित निगोशियेबल इन्स्ट्रूमेंट के आधार पर किया गया कोई अग्रिम;
एफ.     कोई संव्यवहार जो अचल संपत्ति पर विधि के प्रर्वतन द्वारा सृजित किया गया है या सार रूप से अचल संपत्ति का कोई विक्रय है;
    जी.    कृषिक श्रमिक को उसके नियोजक द्वारा एडवांस कोई ऋण।

    इस तरह ऋण की परिभाषा पर विचार करते समय उक्त तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
    धारा 2 (5) म0प्र0 साहूकारी अधिनियम में दी गई ब्याज की परिभाषा भी ध्यान में रखना चाहिए जो इस प्रकार है:-
‘‘ब्याज‘‘ में जो वास्तव में उधार दिया गया था, के अतिरिक्त की जाने वाली वापसी सम्मलित है, चाहे वह ब्याज या अन्यथा के रूप में प्रभारित है या विनिर्दिष्ट रूप में वसूल किया जाना है, चाहे ऐसा ब्याज अंतिम संव्यवहार के दिनांक से बारह वर्ष के भीतर पूंजीकृत किया जाता है या नहीं।
    इन मामलों में यदि वादी स्वयं को साहूकार बतलाते हुए वाद लाया है या वह साहूकार होना प्रमाणित होता है तब इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या उसने म0प्र0 साहूकारी अधिनियम के आवश्यक प्रावधानों का पालन किया है या नहीं।
    अधिनियम के तहत साहूकार को निम्नलिखित प्रावधानों का पालन करना होता हैः-
    धारा 3(1)(ए) के अनुसार प्रत्येक साहूकार को प्रत्येक देनदार के लिए उस देनदार को अग्रिम किसी ऋण के बारे में सभी संव्यवहारों का पृथक-पृथक नियमित रूप से लेखा या एकाउन्ट रखना होता है।
    धारा 3(1)(बी) के अनुसार प्रत्येक साहूकार को ऐसे देनदार को प्रत्येक वर्ष साहूकार द्वारा या उसके अभिकत्र्ता द्वारा हस्ताक्षरित पठन योग्य लेखा विवरणी या कोई शेष राशि जो ऐसे देनदार के विरूद्ध ऐसे दिनांक को बकाया है। विहित रिति से प्रेषित करना होती है साथ ही ऐसा लेखा विवरणी को संबंधित वर्ष के दौरान लिये गये ऋण के बारे में सभी संव्यवहार सम्मलित होते है और विहित रीति से और उचित प्रारूप में विहित दिनांक को ऐसे विवरण भेजना होते है।
    धारा 3(1)(सी) के अनुसार साहूकार ने देनदार को जो भी लेखा विवरणी प्रेषित कि है उसकी एक प्रति संबंधित उपखण्ड अधिकारी को प्रेषित करना होती हैं।
    धारा 3(2) के अनुसार प्रत्येक देनदार के ऋण संबंधी लेखे इस प्रकार रखे जाना चाहिए की मूलधन और ब्याज उनमें पृथक-पृथक दर्शाया जाये। मूलधन और ब्याज का पृथक-पृथक यो्रग दर्शाया जाये अनुबंध के अभाव में ब्याज या उसके किसी भाग को मूलधन में नहीं जोडा जायेगा साथ ही प्रत्येक नवीन वार्षिक लेखे में प्रारंभिक शेष में मूलधन और ब्याज अलग-अलग दर्शाया जायेगा।
    इस तरह साहूकार को अधिनियम की धारा 3 के तहत प्रत्येक ऋणी के अलग-अलग लेख या एकाउन्ट रखना होते है और प्रत्येक वर्ष के अंत में इन लेखों की एक प्रतिलिपि ऋणी को और एक संबंधित उपखण्ड अधिकारी को भेजना होती है।
    धारा 6 म0प्र0 साहूकारी अधिनियम के तहत जब कोई साहूकार किसी ऋणी से पुनः भुगतान प्राप्त करता है तो यह उसका कत्र्तव्य है कि वह उसे रसीद तत्काल देगा।
    न्यायालय को यह भी देखना चाहिए की जो व्यक्ति स्वयं को साहूकार बतलाते हुए वाद लाया है उसके पास धारा 11-बी म0प्र0 साहूकारी अधिनियम में उल्लेखित साहूकारी रजिस्ट्रीकरण प्रमाण पत्र है या नहीं।
    यदि उक्त प्रावधानों का पालन नहीं किया गया है तब न्यायालय को धारा 7 के प्रावधान ध्यान में रखना होता है जिसके अनुसारः-
तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी किसी ऋण से संबंधित किसी वाद या कार्यवाही में -
ए.    न्यायालय गुणदोष पर दावे का विनिश्चिय करने के पूर्व इस वाद प्रश्न को विरचित और विनिश्चित करेगी कि क्या साहूकार धारा 3 (1) (ए) और(बी) के प्रावधानों का अनुपालन कर चुका है,
बी.     यदि न्यायालय यह पाती है कि धारा 3 की उपधारा (1) के खण्ड ए के या धारा 6 के उपबंधों को साहूकार द्वारा पालन नहीं किया गया है तो वह यदि वादी का दावा पूर्णतः या भागतः प्रमाणित हो जाता है तो देय पाये गये ब्याज को पूर्णतः या भागतः नामंजूर करेगी और प्रकरण की परिस्थितियों में युक्तियुक्त प्रतित होने पर वाद खर्च नामंजूर कर सकेगी और ;
सी.    यदि न्यायालय यह पाती है कि धारा 3 की उपधारा (1) के खण्ड बी के उपबंध का साहूकार द्वारा पालन नहीं किया गया हे तो वह ऋण पर देय ब्याज राशि की गणना करने में प्रत्येक ऐसी अवधि को अपवर्जित करेगी. जिसके लिए साहूकार ने उस खण्ड द्वारा अपेक्षित लेख प्रेषित करने के उसके कत्र्तव्य में चूक की थी।
    परंतु यह तब जबकि यदि साहूकार उस खण्ड में विहित समय के पश्चात् लेखा प्रेषित कर चुका है और वादी न्यायालय का समाधान करता है कि उसके पास पूर्व में लेख प्रेषित न करने का पर्याप्त हेतुक था तो न्यायालय ऐसी चूक के होते हुए भी ऐसी अवधि या अवधियों को ब्याज संगणित करने के प्रयोजन के लिए शामिल कर सकेगी।
    स्पष्टीकरण-किसी साहूकार जो विहित प्ररूप और रीति में उसके लेखे रख चुका है और उसकी वार्षिक लेखा विवरणियाॅं प्रेषित कर चुका है, को किसी भूल और चूक के बावजूद धारा 3 की उपधारा (1) के खण्ड ए और बी के उपबंधों का अनुपालन करना ठहराया जायेगा, यदि न्यायालय यह पाती है कि ऐसी भूल और लोप दुर्घटनात्मक या एक्सीडेंटल है और तात्विक नहीं है और लेखे उन खण्डों के उपखण्डों के अनुपालन करने कें सद्भाव में रखे गये है।
    इस तरह धारा 7 के पा्रवधान अपने आप में स्पष्ट है जिसके अनुसार यदि वादी ने या साहूकार ने धारा 3 (1) (ए) के तहत प्रत्येक ऋणी का ऋण के बारे में पृथक-पृथक नियमित लेखा नहीं रखा है या उसके द्वारा पुनः संदाय करने पर उसे रसीद नहीं दी है तब प्रमाणित ब्याज नामंजूर करना आज्ञापक है जबकि वादखर्च देना या न देना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में न्यायालय के विवेक पर है।
    इसी तरह यदि साहूकार ने धारा 3 (1) (बी) के तहत ऋणी को लेखा विवरणीय नहीं भेजी हो तब जिस अवधि की विवरणीय नहीं भेजी हो उसका ब्याज न्यायालय नहीं दिलायेगी जबतक की परंतुक में बतलाई परिस्थिति साहूकार प्रमाणित नही कर देता। न्यायालय को धारा 7 के स्पष्टीकरण को भी ध्यान में रखना चाहिए।                                                                        
    न्यायदृष्टांत मिलापचंद विरूद्ध सुन्दरबाई, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 11 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां धारा 3 (1) के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया वहां ब्याज अस्वीकृत किया जाना चाहिए। न्यायदृष्टांत लक्ष्मीनारायण विरूद्ध शेख हसन, 1987 (2) एम.पी.डब्न्ल्यू.एन. 123, सुखलाल विरूद्ध रामप्रकाश, 1994 (2) डब्ल्यू.एन. 217 भी इसी बारे में है।
    न्यायदृष्टांत फूंदीलाल विरूद्ध श्रीमती ताराबाई, 1995 (1) डब्ल्यू.एन 80 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 3 (1)(ए) या धारा ़6 की पालना साहूकार ने नहीं की ऐसे में वाद खर्च दिलवाना या नहीं दिलवाना यह न्यायालय के विवेक पर है।
    न्यायदृष्टांत मोतीलाल विरूद्ध घासीखान, 1996 (2) डब्ल्यू.एन 187 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 3 के प्रावधान की पालना नहीं की गई वादी वाद खर्च पाने का अधिकारी नहीं है।
    इसी न्यायदृष्टांत में यह भी प्रति पादित किया गया है कि वाद प्रस्तुति दिनांक तक का ब्याज अस्वीकृत किया जाना चाहिए और वाद प्रस्तुति दिनांक से वसूली तक का ब्याज दिलवाया जा सकता है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत वीरेन्द्र कुमार विरूद्ध नेमीचंद, 1996 (1) डब्ल्यू.एन. 59 अवलोकनीय है जिसमें वाद प्रस्तुति के बाद का ब्याज दिलवाया जा सकता है ऐसा कहा गया है।
    न्यायदृष्टांत नारायण विरूद्ध सौभागमल, आई.एल.आर. 2009 एम0पी0 एन.ओ.सी. 6 में यह प्रतिपादित किया गया है कि साहूकार द्वारा प्रत्येक ऋणी का पृथक खाता रखना और उसकी प्रतिलिपि प्रत्येक वर्ष ऋणीयों का विहित रीति से देना आज्ञापक है और यदि इसमें चूक की गई तो न्यायालय ब्याज अस्वीकार करेगी। न्यायालय धारा 34 सी.पी.सी. के तहत भी ब्याज नहीं दिलवा सकती । विचारण न्यायालय का ब्याज दिलवाना न्यायसंगत नहीं माना गया।
    न्यायदृष्टांत सुन्दरलाल विरूद्ध सुभाषचंद जैन, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 73 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जब वाद साहूकार द्वारा पेश किया गया हो तभी धारा 3 की पालना पर विचार किया जाता है।
    न्यायदृष्टांत प्रताप सिंह विरूद्ध फर्म देवेन्द्र किशन लाल, ए.आई.आर. 1984 एम.पी. 141 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां सेटल्ड एकाउन्ट हो और उसके बाद कोई फे्रश इंद्राज किया गया हो तब भी न्यायालय उस खाते को रि-ओपन करने का आदेश ऋणी को धारा 7 के प्रावधानों का लाभ दिलवाने के लिए कर सकती है। इस न्यायदृष्टांत मे ंयह भी प्रतिपादित किया गया कि केवल एकाउन्ट सेटल्ड हो जाने से वह ऋणी की परिभाषा से बाहर नहीं होता है।
    न्यायदृष्टांत श्रीकृष्ण गोपाल विरूद्ध महादेव कृष्णराव, 1959 एम.पी.एल.जे. 50 में भी यह प्रतिपादित किया  गया कि न्यायालय उचित मामले में खाते को पुनः खोलने का आदेश कर सकती है।
    धारा 11 (बी) अधिनियम के तहत साहूकारी प्रमाण पत्र लेना प्रत्येक साहूकार के लिए आज्ञापक है और धारा 11 एच के तहत किसी साहूकार द्वारा दिये गये किसी ऋणी की वसूली के लिए वाद किसी सिविल न्यायालय में नही चलाना जब तक की न्यायालय का यह समाधान नहीं हो जाता कि उस व्यक्ति के पास विधिमान्य रजिस्ट्रीकृत प्रमाण पत्र है।
    यदि कोई वाद बिना साहूकारी प्रमाण पत्र के प्रस्तुत कर दिया गया है तब न्यायालय को वादी को साहूकार प्रमाण पत्र लाने के लिए अवसर देना चाहिए तत्काल वाद खारिज नहीं करना चाहिए क्योंकि अधिनियम में वाद प्रस्तुत करने पर रोक लगाई गई है बल्कि वाद के चलाने या विचारण पर रोक लगाई गई है अतः वाद लंबन के दौरान भी यदि प्रमाण पत्र वादी प्राप्त कर लेता है तो न्यायालय आगे कार्यवाही चलायेगा।
    इस संबंध में न्यायदृष्टांत गोकुलदास विरूद्ध नाथू, 1992 (2) एम.पी.जे.आर. एसएन 3, श्रीमती जानकी बाई विरूद्ध रतन, 1962 एम.पी.एल.जे. 78 एवं लालूराम विरूद्ध रामेशवर प्रसाद, 1958 एम.पी.एल.जे. एस.एन. 25 अवलोकनीय है।
    न्यायदृष्टांत रघुनाथ विरूद्ध गोवर्धन, 1987 (1) डब्ल्यू.एन. 204 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 11 एच की पालना करने का अवसर देना चाहिए यदि साहूकारी का पंजीकृत प्रमाणपत्र प्रस्तुत नहीं किया गया है तो वह प्राप्त करके प्रस्तुत किया जा सकता है।
ब्याज के बारे में
    धारा 10 के अनुसार कोई न्यायालय इस अधिनियम के प्राभावी होने के पश्चात् दिये गये किसी ऋण के बारे में ऋण के मूलधन से अधिक धन राशि के ब्याज के बकाया की डिक्री नहीं करेगा।
    कोई भी न्यायालय मूलधन से अधिक ब्याज नहीं दिलवायेगा। इस प्रावधान को भी वाद के निराकरण के समय ध्यान में रखना चाहिए।
    न्यायदृष्टांत लक्ष्मण प्रसाद विरूद्ध गन्र्धव सिंह, 1961 जे.एल.जे. एस.एन. 129 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायालय वाद प्रस्तुति के बाद का ब्याज दिलवा सकती है चाहे वादी साहूकार होना प्रमाणित हो क्योंकि वादकालीन ब्याज दिलवाना या नहीं दिलवाना इस संबंध में वादी के आचरण को देखते हुए न्यायालय को तय करना होता है और यह ब्याज धारा 34 सी.पी.सी. से संचालित होता है।
    न्यायदृष्टांत मेघराज विरूद्ध श्रीमती बयाबाई, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 161 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऋणी द्वारा समय-समय पर ऋणदाता को कोई राशि भुगतान की गई है तो वह विचार में नहीं ली जायेगी न्यायालय को मूलधन से अधिक की ब्याज की डिक्री पारित करने पर रोक है।
    वाद प्रस्तुत करने का ब्याज पक्षकरों की संविदा के आधार पर तय होता है जबकि वाद प्रस्तुत करने का वाद धारा 34 सीपीसी के प्रावधानों से तय होता है। अतः धारा 34 सी.पी.सी. के प्रावधान भी ध्यान रखना चाहिए जिसके अनुसारः-
    धन के संदाय की डिक्री में न्यायालय यह आदेश दे सकेगा कि मूल राशि पर वाद की तारीख से डिक्री की तारीख तक ब्याज ऐसी दर से जो न्यायालय युक्ति युक्त समझे, ऐसी मूल राशि पर डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख तक या ऐसी किसी पूर्व तारीख तक जो न्यायालय ठीक समझे, 6 प्रतिशत प्रतिवर्ष से अनाधिक ऐसी दर जो न्यायालय उचित समझे आगे के ब्याज सहित दिया जाये।
    यदि डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख के बारे में डिक्री मौन है तो यह समझा जायेगा कि न्यायालय ने ऐसा ब्याज दिलाने से इंकार किया है।
    साथ ही धारा 34 का परंतुक भी घ्यान में रखना चाहिए। जहां व्यापार संव्यवहार या बैंक आदि में ब्याज दर संविदात्मक दर से होने के प्रावधान है।
    ब्याज के बारे में न्यायदृष्टांत थाझथे पुराहिल सराबी विरूद्ध युनियन आॅफ इंडिया, (2009) 7 एस.सी.सी. 372 अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः जब एक धन की डिक्री पारित की जाती है तब यह अतिआवश्यक है कि धन जब देय हो गया था उस अवधि का ब्याज दिलवाया जाये क्योंकि उस व्यक्ति जिसके पक्ष में डिक्री दी गई है वह उस धन का उपयोग नहीं कर सका ब्याज का भुगतान मूलतः अधिकृत व्यक्ति को क्षति पूर्ति देने जैसा है क्योंकि जिस अवधि में उस व्यक्ति को राशि का उपयोग करना नहीं मिला उस अवधि में उस व्यक्ति ने उस राशि का उपयोग किया जो उसे देने का दायी है अतः धन की डिक्री में ब्याज दिलवाना एक सामान्य प्रक्रिया है। अपवाद स्वरूप मामलों में वाद प्रस्तुति के पूर्व का ब्याज दिलवाया जाता है जहां पक्षकारों के मध्य कोई अनुबंध हो या विधायिका द्वारा ऐसा किया जाना अनुमत किया गया हो।
    अतः धन की डिक्री में वाद प्रस्तुति दिनांक से ब्याज दिलवाते समय उक्त वैधानिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए और यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि अधिकृत व्यक्ति धन केे उपयोग से वंचित रहा और अदा करने के दायी व्यक्ति ने उसका उपयोग किया।
    इस तरह वाद प्रस्तुति दिनांक से अदायगी तक का ब्याज धारा 34 सीपीसी या पक्षकारों के मध्य हुये व्यापारिक मामले के किसी करार को ध्यान में रखते हुये दिलवाना चाहिए और साहूकारी अधिनियम के उक्त प्रावधानों को भी साहूकारी वाले मामले में ध्यान मे ंरखना चाहिए।
    धारा 11 म0प्र0 साहूकारी अधिनियम के तहत निष्पादन के दौरान निर्णीत ऋणी किस्तों की सुविधा के लिए आवेदन कर सकता है और न्यायालय को उभयपक्ष को सुनकर और एक जांच करके ऐसे आवेदन का निराकरण करना चाहिए।
    न्यायदृष्टांत तूकाराम विरूद्ध मेसर्स चैन सिंह, 1984 एम.पी. डब्ल्यू.एन. 24 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां निर्णीत ऋणी के पास उसके आधिपत्य में एक मुश्त अदायगी करने के लिए पर्याप्त साधन हो वहां किश्तों की सुविधा नहीं दिलवाई जाना चाहिए।
    इस तरह न्यायालय को सर्वप्रथम यह विचार करना चाहिए कि वाद साहूकार की ओर से प्रस्तुत किया गया है औरयदि ऐसा है तब धारा 3 के प्रावधानो ंकी पालना हुई या नहीं यह देखना चाहिए। और साहूकार के पास साहूकारी का प्रमाणपत्र है या नहीं यह देखना चाहिए। प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने का अवसर भी दिया जाना चाहिए औरयदि प्रतिवादी वादी के साहूकार होने का अभिवाक् लेता है तब उक्तानुसार वाद प्रश्न विरचित करके उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसकी आपत्ति का निराकरण करना चाहिए। यदि धारा 3 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया है तब साहूकार को ब्याज न दिलवाना आज्ञापक है जबकि वाद खर्च न्यायालय के विवेकाधिकार पर रखा गया है।

ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008

भारतीय दण्ड संहिता के अधीन विचारण योग्य अपराध एवं भरण-पोषण के बारे में
   
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 दिनांक 2.10.2009 से प्रभावशील हुआ है और इस अधिनियम की धारा 3 (1) के प्रकाश में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की गई है और अधिनियम की धारा 5 के प्रकाश में न्यायाधिकारी नियुक्त किये गये है।
    धारा 11 के तहत ग्राम न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, सिविल और दाण्डिक दोनों अधिकारिता का प्रयोग इस अधिनियम के अधीन उपबंधित रीति और विस्तार तक करने का अधिकार होता है।
    धारा 12 (1) के तहत दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी ग्राम न्यायालय किसी परिवाद पर या पुलिस प्रतिवेदन पर किसी अपराध का संज्ञान ले सकेगा और-
    ए.    पहली अनुसुची के भाग 1 में विनिर्दिष्ट सभी अपराधों को विचारण करेगा, और
बी.    पहली अनुसूची के भाग 2 में सम्मिलित अधिनियमों के अधीन विनिर्दिष्ट सभी  अपराधों का विचारण करेगा और अनुतोष, कोई हा,े प्रदान करेगा।
    धारा 12 (2) के तहत ग्राम न्यायालय राज्य अधिनियमों कें अधीन ऐसे सभी अपराधें का भी विचारण करेगा या ऐसा अनुतोष प्रदान करेगा, जो धारा 14 की उपधारा 3 के अधीन राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाये।
    इस तरह ग्राम न्यायालय की दांंिड़क अधिकारिता धारा 12 ग्राम न्यायालय अधिनियम से  शासित होती है। प्रथम अनुसूची पर विचार करें तो उसमें भारतीय दण्ड संहिता के निम्न अपराधों का विचारण ग्राम न्यायालय कर सकते हैः-
1.    ऐसे अपराध जो मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दण्डनीय नहीं है,
2.    धारा 379, 380 या 381 भा0दं0सं0 के अधीन, चोरी, जहां चुराई हुई संपत्ति का मूल्य ृ 20,000/- से अधिक नहीं है,
3.    धारा 411 भा0दं0सं0 के अधीन चुराई हुई संपित्त को प्राप्त करना या प्रतिधारित करना जहां संपत्ति का मूल्य ृ 20,000/- से अधिक नहीं है,
4.    धारा 414 भा0दं0सं0 के अधीन चुराई हुई संपत्ति को छुपाने या उसके व्ययन में सहायता करना जहां संपत्ति का मूल्य ृ 20,000/- से अधिक नहीं है,
    5.    धारा 454  और 456 भा0दं0सं0 के अधीन अपराध,
    6.    धारा 504 एवं 506 भाग प्रथम भा0दं0सं0 के अपराध,
    7.    उक्त अपराधों में से किसी का दुष्प्रेरण,
    8.    उक्त अपराधों में से किसी अपराध का प्रयत्न जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो।
    प्रथम अनुसूची के प्रथम खण्ड के अनुसार ग्राम न्यायालय को दो वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय भारतीय दण्ड संहिता के अपराधों के विचारण की अधिकारिता प्राप्त है इन अपराधों में कुछ अपराधों के मामले अधिक आते है और कुछ के यदाकदा आते है। अतः सुविधा के लिये एक सूची अपने टेबल के नीचे रखना चाहिए जिसे देखते ही पता लग जाये कि प्रस्तुत मामले में ग्राम न्यायालय को अधिकारिता है या नहीं। यहां हम सुविधा के लिये ऐसी सूची दे रहे है जो इस प्रकार हैः-
1.    अधिक संख्या में आने वाले मामले:- 147, 160, 182, 186, 188, 211, 279, 294, 304ए, 309, 323, 336, 337, 338, 341, 342, 352, 353, 354, 385, 403, 417, 426, 427, 428,  447, 448, 451 (चोरी के अलावा अन्य कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए गृह अतिचार), 453, 461, 465, 498, 500 (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री के विरूद्ध लोक कृत्यों के निर्वहन में उनके आचरण के बारे में हुई मानहानि को छोड़कर अन्य मामले में मानहानि), 509

2    यदाकदा आने वाल मामले:- धारा 120बी (यदि अपराध जिसका षडयंत्र किया गया दो वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय है), धारा 135, 136, 137, 138, 140, 143, 144, 145, 151, 153, 154, 155, 156, 157, 158, 171ई से 171आई,  172 से 174, 175 से 180, 183 से 185, 187, 189, 190, 202 से 204, 206 से 210, 215, 217, 224, 228, 229ए, 229, 241, 254, 262, 263ए, 264 से 278 282 से 292, 294ए, 295, 296 से 298, 318, 334, 343, 355 से 358, 421 से 424, 434, 482, 483, 486, 489, 489ई, 490, 491, 501 (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री के विरूद्ध लोक कृत्यों के निर्वहन में उनके आचरण के बारे में हुई मानहानि को छोड़कर अन्य मामले में मानहानि), 502 (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री के विरूद्ध लोक कृत्यों के निर्वहन में उनके आचरण के बारे में हुई मानहानि को छोड़कर अन्य मामले में मानहानि), 508, 510,

    इस प्रकार प्रकरण प्रस्तुत होने पर यह देख लेना चाहिए कि उक्त सूची में संलग्न अपराध से संबंधित प्रकरण होना चाहिए कई बार रूटिन में मामले ले लिये जाते है और काफी समय बाद यह पता लगता है कि उनमें ग्राम न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं है और अनावश्यक पत्राचार करना पड़ता है अतः प्रारंभ से ही यह देख लेना चाहिए कि प्रस्तुत मामले ग्राम न्यायालय के दाण्डिक क्षेत्राधिकार का है या नहीं।
    अब अगले विषय अर्थात भरण-पोषण पर चर्चा करेंगे।




ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008

ग्राम एवं प्रक्षेत्र गृह या फार्म हाउस के आधिपत्य संबंधी विवाद के बारे में
   
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 दिनांक 2.10.2009 से प्रभावशील हुआ है और इस अधिनियम की धारा 3 (1) के प्रकाश में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की गई है और अधिनियम की धारा 5 के प्रकाश में न्यायाधिकारी नियुक्त किये गये है।
    धारा 11 के तहत ग्राम न्यायालय को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 या व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, सिविल और दाण्डिक दोनों अधिकारिता का प्रयोग इस अधिनियम के अधीन उपबंधित रीति और विस्तार तक करने का अधिकार होता है।
    धारा 13 में ग्राम न्यायालय की सिविल अधिकारिता के बारे में प्रावधान है जो इस प्रकार है:-
(1)    सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 या तत्समय प्रवृत्त अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी और उपधारा 2 के अधीन रहते हुए ग्राम न्यायालय की निम्नलिखित अधिकारिता होगी:-
ए.    दूसरी अनुसूची के भाग 1 में विनिर्दिष्ट वर्गो के विवादों के अधीन आने वाले सिविल प्रकृति के सभी वादों या कार्यवाहींयों का विचारण करना,
बी.    उन सभी वर्गो के दावों और विवादों का विचारण करना, जो धारा 14 की उपधारा 1 के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा और उक्त धारा की उपधारा 3 के अधीन राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किये जाये।
(2)    ग्राम न्यायालय की धनीय सीमायें या आर्थिक क्षेत्राधिकार वह होगा, जो उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार की परामर्श से समय-समय पर अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट की जाये।
    मध्यप्रदेश ग्राम न्यायालय, न्यायाधिकारी धनीय अधिकारिता की सीमा नियम, 2009 के नियम 4 के अनुसार:-
    तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंधों के अध्यधीन, अधिनियम के अधीन ग्राम न्यायालय को ृ 25,000/- के अनधिक मूल्य के किसी वाद, दावे, विवाद या मूल कार्यवाहियों को सुनने एवं अवधारित करने की अधिकारिता होगी।
    इस प्रकार ग्राम न्यायालय इस समय तक ृ 25,000/- की आर्थिक क्षेत्राधिकार के दूसरी अनुसूची के व्यवहार प्रकृति के विवाद सुनने की अधिकारिता रखते है।
    अधिनियम की दूसरी अनुसूची के खण्ड 2 (ए) में ग्राम और फार्म हाउस के आधिपत्य संबंधी विवाद में ग्राम न्यायालय को क्षेत्राधिकार दिया गया है। जिसके बारे में यहां हम चर्चा करेंगे।
    ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 में ग्राम और फार्म हाउस की कोई परिभाषा नहीं दी गई है इस संबंध में मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता, 1959 के प्रकाश में विचार करे तो उसके धारा 2 (1) (जेड-5)  में ग्राम शब्द की परिभाषा दी गई है जो इस प्रकार है:-

‘‘ग्राम‘‘ से अभिप्रेत है कोई ऐसा भू-भाग जिसे इस संहिता के प्रवृत्त होने से पूर्व तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के उपबंधों के अधीन ग्राम में रूप में मान्य किया गया था या उस रूप में घोषित किया गया था, तथा कोई ऐसा अन्य भू-भाग जिसे किसी राजस्व सर्वेक्षण में इस के बाद ग्राम के रूप मे ंमान्य किया जाये या जिसे राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा ग्राम के रूप में घोषित करे।

    न्यायदृष्टांत स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध आत्माराम, 1970 एम.पी.एल.जे. 195 के अनुसार ग्राम एक तहसील के विभाजन का प्रतिनिधित्व करता है और राजस्व सर्वेक्षण में ग्राम के रूप में ही डीमार्केट होता है जब तक कि वह नगर पालिका के क्षेत्र में शामिल न हो जाये।
    न्यायदृष्टांत समीर मल विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, ए.आई.आर. 1980 एम.पी.176 के अनुसार जब ग्राम शब्द को परिभाषित करते है तो केवल निवासीय भाग ध्यान में रखा जाता है यह टाउनशिप के रूप में विकसित हो सकता है और क्षेत्र के नाम देने के लिये एक छोटा युनिट भी हो सकता है।
    इस प्रकार ग्राम शब्द के लिए हमे मध्यप्रदेश भू-राजस्व की उक्त परिभाषा और ग्राम शब्द के सामान्य अर्थ को ध्यान में रखना होगा। किसी ग्राम की सीमा में स्थिति मकानों के आधिपत्य संबंधी विवाद ग्राम न्यायालय में आयेगें। ग्राम की भूमि संबंधी विवाद नहीं आऐंगे। यदि विधायिका का आशय ग्राम की भूमि संबंधी विवाद को भी ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार में देने का होता तब दूसरी अनुसूची में इसका स्पष्ट उल्लेख किया जा सकता था। इस प्रकार किसी ग्राम में स्थिति मकानों के आधिपत्य संबंधी विवादों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
    इन विवादों पर विचार के समय हमे मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता की धारा 2(ए) के अनुसार आबादी की परिभाषा भी ध्यान में रखना होगी जो इस प्रकार हैः-

‘‘आबादी‘‘ से अभिपे्रत है नगरेत्तर क्षेत्र के किसी ग्राम में उसके निवासियों को निवास के लिये या उसके अनुषांगिक प्रयोजनो ंके लिए समय-समय पर आरक्षित क्षेत्र और इस अभिव्यक्ति के किसी अन्य स्थानिक पर्याय जैसे ‘‘ग्राम स्थल‘‘ या ‘‘गाॅव स्थान‘‘ का अर्थ भी तद्नुसार लगाया जायेगा।

धारा 72 मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के अनुसार:-
बन्दोबस्त अधिकारी प्रत्येक बसे हुये ग्राम के मामले में भूमियों में के अधिकारों का सम्यक ध्यान रखते हुए निवासियों के निवास के लिए या उससे आनुषंगिक प्रयोजनों के लिए आरक्षित किए जाने वाला क्षेत्र अभिनिश्चित तथा अवधारित करेगा और ऐसे क्षेत्र को ग्राम की आबादी समझा जायेगा।

धारा 243 मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के अनुसारः-
यदि आबादी के लिए आरक्षित क्षेत्र, कलेक्टर की राय में अपर्याप्त हो वहां वह ग्राम की दखल रहित भूमि में से ऐसा क्षेत्र आरक्षित कर सकेगा जैसा वह ठीक समझे।
जहां आबादी के प्रयोजन के लिए दखलरहित भूमि उपलब्ध न हो, वहां राज्य सरकार आबादी के विस्तारण के लिए भूमि अर्जित कर सकेगी।
ऐसी अर्जित भूमि के बारे में भूमि अर्जन अधिनियम के प्रावधान प्रतिकर आदि के बारे में लागू होंगे।

धारा 244 मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता के अनुसारः-
ग्राम पंचायत और उसके गठित न होने की दशा में तहसीलदार आबादी क्ष्ेात्र के स्थलों का निपटारा करेंगे।
उक्त आबादी क्षेत्र में बने हुए मकान अर्थात् ग्राम में बने हुए मकान के आधिपत्य के बारे में जो भी विवाद उत्पन्न होंगे वे ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार के होंगे।
ग्राम न्यायालय अधिनियम में ग्राम की ही तरह प्रक्षेत्रगृह या फार्म हाउस की भी कोई परिभाषा नहीं दी गई है मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता की धारा 59 के स्पष्टीकरण में फार्म हाउस के बारे में यह कहा गया है कि ऐसा भवन या संनिर्माण जो धारा 2 (1)(जे) में परिभाषित सुधार है और जिसका कुर्सी क्षेत्र या प्लींथ ऐरिया एक सौ वर्ग मीटर से अधिक नहीं होगा और निर्मित क्षेत्र एक सौ पचास वर्ग मीटर से अधिक नहीं होगा।

लेकिन उक्त परिभाषा की केवल भू-राजस्व या लैण्ड रिवेन्यू के उद्देश्य से सुसंगत है। ग्राम न्यायालय अधिनियम के तहत फार्म हाउस का तात्पर्य खेत या कृषि भूमि पर निर्मित किसी निर्माण से है और उसके आधिपत्य संबंधी कोई विवाद उत्पन्न होता है तो वह ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकर में आयेगा। 
    इस तरह ग्राम और फार्म हाउस के आधिपत्य से संबंधी विवाद जैसे स्थायी व्यादेश, आधिपत्य वापसी, अन्तवर्तीय लाभ आदि के संबंध में उत्पन्न विवाद ग्राम न्यायालय में प्रस्तुत होंगे और उनके द्वारा निपटाये जायेंगे और ग्राम न्यायालय सामान्य विधि जैसे विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963, संपत्ति अंतरण अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम आदि को ध्यान में रखते हुए इन विवादों को निराकरण करेंगे।
    ग्राम न्यायलय के समक्ष मुख्य रूप से स्थायी व्यादेश के बाद ग्राम और फार्म हाउस के बारे मे ंप्रस्तुत होंगे और इन में अस्थयी व्यादेश भी मांगा जायेगा अतः हमें अस्थायी व्यादेश, स्थायी व्यादेश, अस्थायी व्यादेश के भंग के उपचार, अतिक्रामक का आधिपत्य, स्थापित आधिपत्य के बारे में विस्तृत जानकारी होना आवश्यक है साथ ही धारा 6 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, को भी समझना आवश्यक है, तभी हम इन विवादों को सरलता से निपटा सकेंगे।
    चूंकी ग्राम न्यायालय को दूसरी अनुसूची के अनुसार ग्राम और फार्म हाउस के केवल आधिपत्य संबंधी विवाद पर ही विचार करना है अतः उनके समक्ष स्वत्व का प्रश्न महत्व का नहीं रहेगा और व्यादेश में आधिपत्य महत्वपूर्ण होता है। अतः अब  हम इन्हीं विषयों पर चर्चा करेंगे।
    जहां तक संपत्ति क्रय करने के अधिकार का प्रश्न है यह अधिकार भी सामान्य विधि से ही शासित होगें।    

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