Friday 7 April 2023

केवल धमकी और मांग के साधारण आरोपों से आईपीसी की धारा 384 का आरोप नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि के लिए कोई सामग्री न हो : राजस्थान हाईकोर्ट

*केवल धमकी और मांग के साधारण आरोपों से आईपीसी की धारा 384 का आरोप नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि के लिए कोई सामग्री न हो : राजस्थान हाईकोर्ट*

रजाक खान हैदर राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में आरटीआई कार्यकर्ता के खिलाफ तत्कालीन सरपंच द्वारा उद्दापन (ब्लैकमेलिंग) के आरोप में दर्ज करवाई गई एफआईआर रद्द करने का आदेश देते हुए कहा कि केवल धमकी और मांग के साधारण आरोपों से आईपीसी की धारा 384 का आरोप नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि के लिए कोई सामग्री नहीं हो। जस्टिस अशोक कुमार जैन की बेंच ने सभी पक्षों की सुनवाई के बाद ने आदेश में कहा कि केवल धमकी और मांग के साधारण आरोपों से धारा 384 का आरोप नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि के लिए कोई सामग्री नहीं हो। इस अपराध के गठन के लिए महज शिकायतकर्ता का बयान पर्याप्त नहीं होगा। 
 मामले की पृष्ठभूमि श्रीगंगानगर जिले की 24 एएस-सी ग्राम पंचायत की तत्कालीन सरपंच ने पुलिस थाना घड़साना में आरटीआई कार्यकर्ता कमलकांत मारवाल के खिलाफ वर्ष 2017 में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 384 के तहत एफआईआर दर्ज करवाई थी। शिकायतकर्ता ने एफआईआर में आरोप लगाया कि कमलकांत नेउसे धमकी दी है कि यदि तीन लाख रुपए नहीं दिए तो मैं आपके खिलाफ झूठे तथ्यों पर मुकदमा दर्ज करवा दूंगा। कमल कांत कुम्हार की ओर से एडवोकेट रजाक खान हैदर ने हाईकोर्ट में दण्ड प्रक्रिया संहिता, (सीआरपीसी) 1973 की धारा 482 के तहत आपराधिक विविध याचिका दायर कर एफआईआर को चुनौती देते हुए कहा कि एफआईआर में उल्लेखित आरोप से उद्दापन (ब्लेकमेलिंग) का अपराध नहीं बनता।

यह तर्क दिया गया कि आईपीसी की धारा 383 में परिभाषित उद्दापन केवल उस स्थिति में ही बनता है जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति को क्षति करने के भय में डालता है और क्षति में डाले गए व्यक्ति को कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति परिदत्त करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करता है। आगे कहा गया कि धारा 383 के दृष्टांत का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर विधि का यह आशय भी स्पष्ट होता है कि केवल उन कृत्यों की धमकी देकर सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति परिदत्त करना उद्दापन है, जो कि अपने आप में आपराधिक कृत्य हैं। इस प्रकरण में आरोपी पर एफआईआर दर्ज करवाने की धमकी देने का ही आरोप है, यह कृत्य आपराधिक नहीं है। 
 याचिका में कहा गया कि याचिकाकर्ता ने शिकायतकर्ता को ऐसी कोई धमकी नहीं दी और न ही कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति ली है। ऐसे में बिना कोई ठोस सबूत के आधार पर मनगढ़ंत आरोप लगाकर एफआईआर दर्ज करवाना कानून का दुरुपयोग है। इसके विपरीत जांच अधिकारी ने आरोपी के खिलाफ जुर्म प्रमाणित मानते हुए हाईकोर्ट में जांच रिपोर्ट प्रस्तुत की। जस्टिस अशोक कुमार जैन की बेंच ने सभी पक्षों की सुनवाई के बाद ने आदेश में कहा कि 
 "केवल धमकी और मांग के साधारण आरोपों से धारा 384 का आरोप नहीं बन सकता, जब तक कि इसकी पुष्टि के लिए कोई सामग्री नहीं हो। इस अपराध के गठन के लिए महज शिकायतकर्ता का बयान पर्याप्त नहीं होगा।" इसके साथ ही हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया और राजस्थान हाईकोर्ट के विभिन्न न्यायिक दृष्टांतों में अभिनिर्धारित विधि, जिनमें सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति परिदत्त करना धारा 384 के अपराध के गठन के लिए आवश्यक कारक माना गया है, उनके आधार पर याचिकाकर्ता की आपराधिक विविध याचिका स्वीकार करते हुए एफआईआर रद्द करने का आदेश पारित किया। 
केस टाइटल : कमल कांत कुम्हार बनाम राजस्थान राज्य व अन्य (एकलपीठ आपराधिक विविध याचिका नंबर 1036/2018)

पार्टिशन सूट में सेटल.मेंट डीड में सभी पक्षकारों की लिखित सहमति शामिल होनी चाहिए; केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति का फैसला कायम नहीं रखा जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

पार्टिशन सूट में सेटलमेंट डीड में सभी पक्षकारों की लिखित सहमति शामिल होनी चाहिए; केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति का फैसला कायम नहीं रखा जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस ए.एस. बोपन्ना और जस्टिस जेबी परदीवाला की खंडपीठ ने प्रशांत कुमार साहू और अन्य बनाम चारुलता साहू और अन्य में दायर अपील पर फैसला सुनाते हुए माना कि संयुक्त संपत्ति के बंटवारे के मुकदमे में केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति से डिक्री को बनाए नहीं रखा जा सकता, जब संयुक्त संपत्ति के संबंध में सेटलमेंट डीड निष्पादित किया गया तो इस तरह के समझौते को वैधता प्राप्त करने के लिए लिखित सहमति और 'सभी' पक्षकारों के हस्ताक्षर रिकॉर्ड करना चाहिए। 
इपृष्ठभूमि तथ्य 1969 में कुमार साहू का निधन हो गया और उनके तीन बच्चे चारुलता (पुत्री), शांतिलता (पुत्री) और प्रफुल्ल (पुत्र) बच गए। 03.12.1980 को चारुलता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष पार्टिशन के लिए मुकदमा दायर किया, जिसमें उनके मृत पिता साहू की पैतृक संपत्ति के साथ-साथ स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्से का दावा किया गया। ट्रायल कोर्ट ने 30.12.1986 को प्रारंभिक डिक्री पारित की और कहा कि चारुलता और शांतिलता पैतृक संपत्तियों में 1/6 हिस्सा और स्वर्गीय कुमार साहू की स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्सा पाने की हकदार हैं। ट्रायल कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि बेटियां मध्यम मुनाफे की हकदार हैं। हालांकि, प्रफुल्ल (पुत्र) के संबंध में वह पैतृक संपत्ति में 4/6 वें हिस्से के हकदार है और साहू की स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्सा था, जिसमें मुख्य लाभ भी शामिल था।

प्रफुल्ल ने हाईकोर्ट के समक्ष पहली अपील दायर की, जिसमें यह तर्क दिया गया कि साहू की सभी संपत्तियां पैतृक संपत्ति हैं। अपील के लंबित रहने के दौरान, शांतिलता और प्रफुल्ल ने 28.03.1991 को समझौता किया, जिसके तहत शांतिलता ने प्रफुल्ल के पक्ष में 50,000/- रुपये के बदल संयुक्त संपत्ति में अपना हिस्सा छोड़ दिया। हालांकि, इस तरह के सेटलमेंट डीड पर चारुलता द्वारा हस्ताक्षर नहीं किए गए, जिनके पास संयुक्त संपत्ति में हिस्सेदारी थी। 
 प्रफुल्ल ने इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के समक्ष प्रथम अपील दायर करना जारी रखा कि क्या कुछ संपत्तियां जो विभाजन के मुकदमे की विषय वस्तु थीं, पैतृक हैं या उनके पिता द्वारा स्वयं अर्जित की गईं। एक समानांतर अपील में चारुलता ने अपनी बहन और भाई के बीच हुए सेटलमेंट डीड दिनांक 28.03.1991 की वैधता को चुनौती दी। हाईकोर्ट के समक्ष लंबित उक्त प्रथम अपील में प्रफुल्ल ने समझौता याचिका दायर की। हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने सेटलमेंट डीड को वैध और प्रफुल्ल को शांतिलता की संपत्ति के हिस्से का हकदार मानते हुए प्रथम अपील का निस्तारण किया। हालांकि, इस सवाल पर कुछ भी तय नहीं किया गया कि कौन-सी संपत्ति पैतृक या स्वयं अर्जित की गई और अकेले इस मुद्दे पर हाईकोर्ट की खंडपीठ के समक्ष लेटर पेटेंट अपील दायर की गई।

05.05.2011 को हाईकोर्ट की खंडपीठ ने प्रफुल्ल द्वारा दायर अपील खारिज कर दी और प्रफुल्ल और शांतिलता के बीच हुए सेटलमेंट डीड अमान्य कर दिया। प्रफुल्ल ने दिनांक 05.05.2011 के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। यह तर्क दिया गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (अधिनियम, 1956) में 2005 में लाए गए संशोधन, जिससे बेटियां बेटों के बराबर सह-दायित्व बन गईं। इतने वर्षों के बाद सेवा में नहीं लगाया जा सकता। इसके अलावा, शांतिलता के अधिकार समाप्त हो गए और सेटलमेंट डीड के मद्देनजर, प्रफुल्ल को हस्तांतरित कर दिए गए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला पार्टिशन सूट में सेटलमेंट डीड में 'सभी' पक्षकारों की लिखित सहमति और हस्ताक्षर शामिल होना चाहिए खंडपीठ ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII नियम 3 के अनुसार, जब मुकदमे में दावा किसी कानूनी समझौते द्वारा पूर्ण या आंशिक रूप से समायोजित किया गया तो समझौता लिखित रूप में होना चाहिए और पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यह पाया गया कि तीन भाई-बहनों की संयुक्त संपत्ति के संबंध में अकेले प्रफुल्ल और शांतिलता के बीच सेटलमेंट डीड दिनांक 28.03.199 निष्पादित किया गया। चारुलता तीसरी सहोदर और संयुक्त संपत्ति की सह-स्वामी होने के नाते समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया। खंडपीठ ने कहा कि सेटलमेंट डीड 'सभी' पक्षों की लिखित सहमति के बिना होने के कारण गैरकानूनी है। संयुक्त संपत्ति के बंटवारे के मुकदमे में केवल कुछ पक्षों के बीच सहमति से डिक्री को बनाए नहीं रखा जा सकता है। बेंच ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा किए गए हिस्से के आवंटन को सही ठहराया और पक्षकारों के शेयरों को फिर से निर्धारित किया। बेंच द्वारा सेटलमेंट डीड को अमान्य कर दिया गया और प्रफुल्ल और शांतिलता के हिस्से का दावा नहीं कर सकते हैं। 
केस टाइटल: प्रशांत कुमार साहू व अन्य बनाम चारुलता साहू व अन्य। साइटेशन: लाइवलॉ (एससी) 262/2023