Friday 30 May 2014

अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य

                   अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश का कार्य
                   न्यायालय व विभिन्न शाखाओं के बारे में


1. जब भी किसी न्यायाधीश को प्रशिक्षण के पश्चात् नियमित न्यायालय में पदस्थ किया जाता है तब न्यायालय में बैठते ही कुछ कर्मचारियों से उन्हें रोजाना कार्य लेना होता है और वे दैनिक संपर्क में रहते है अतः प्रत्येक न्यायाधीश को यदि उन कर्मचारियों के वैधानिक कत्र्तव्यों और दायित्वों के बारे में जानकारी होती है तो उनसे कार्य लेने में अपेक्षाकृत आसानी होती है और किसी न्यायालय के कार्य पर न्यायाधीश का नियंत्रण भी इससे अच्छा रहता है यहां हम किसी भी न्यायालय के प्रमुख कर्मचारियों के कत्र्तव्यों के बारे में चर्चा करेंगे। किसी भी न्यायालय में मुख्य रूप से निम्न लिखित कर्मचारी पदस्थ होते है:-
1. व्यवहार प्रस्तुतकार या सिविल रीडर
2. निष्पादन लिपिक या एक्सीक्यूशन क्र्लक/ क्रिमिनल रीडर
3. साक्ष्य लेखक
4. स्टेनो ग्राफर /क्र्लक स्टेनो
5. आदेशिका लेखक या प्रोसेस राईटर
6. बोर्ड प्यून
उक्त कर्मचारीगण के मध्यप्रदेश सिविल न्यायालय नियम, 1961 एवं नियम एवं आदेश अपराधिक के अनुसार कत्र्तव्य इस प्रकार होते है। परिशिष्ट - ए
2. न्यायालय के कार्य के अतिरिक्त कुछ शाखाए या सेक्शन भी होते है जिनकी कार्य प्रणाली समझना आवश्यक होता है क्योंकि उन शाखाओं का न्यायालय के कार्य पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है और कभी-कभी न्यायाधीश को उन शाखाओं का प्रभारी अधिकारी भी बनाया जाता है अतः इन शाखाओं के कर्मचारी और उनके कत्र्तव्य भी समझना आवश्यक होता है जो निम्न प्रकार से हैं:-
1. प्रतिलिपि शाखा
2. नजारत
3. अभिलेखागार या रिकार्ड रूम
4. ग्रंथालय या लाईब्रेरी
5. लेखा शाखा
6. सांख्यिकी या स्टेटीकल शाखा
7. मालखाना
8. कर्मचारीगण के सामान्य व्यवहार आचरण एवं मध्यप्रदेश सिविल सेवा आचरण नियम, 1965
उक्त शाखाओं के कर्मचारियों के कत्र्तव्य एवं दायित्व इस प्रकार है। परिशिष्ट - बी
3. व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार, गठन, वर्ग के बारे में
मध्यप्रदेश व्यवहार न्यायालय अधिनियम, 1958 के प्रकाश में:-
इस अधिनियम की धारा 2 ए के अनुसार ’’उच्चतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ हायर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य जिला न्यायाधीशों का संवर्ग और उसके अंतर्गत जिला न्यायाधीश तथा अपर जिला न्यायाधीश आते है।
उक्त अधिनियम की धारा 2 बी के अनुसार ’’निम्नतर न्यायिक सेवा का संवर्ग’’ अर्थात केडर आफ लावर ज्यूडिशियल सर्विस से तात्पर्य सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग तथा सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग से गठित होने वाला सिविल न्यायाधीश का संवर्ग आता है।
उक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है की एक केडर उच्चतर न्यायिक सेवा का है और दूसरा केडर निम्नतर न्यायिक सेवा का है प्रथम केडर में सभी जिला जज और अपर जिला जज आते है जबकि द्वितीय केडर में सभी व्यवहार न्यायाधीश या सिविल जज वर्ग 1 और 2 आते है।
उक्त अधिनियम की धारा 2 डी के अनुसार किसी वाद या मूल कार्यवाही के संबंध में ’’मूल्य’’ से तात्पर्य ऐसे वाद या मूल कार्यवाही की विषय वस्तु की रकम या उसका मूल्य है।
4. सिविल न्यायालयों के वर्ग या क्लासेस आफ सिविल कोर्ट
धारा 3 सिविल न्यायालयों के वर्ग (1) तत्समय प्रवर्त किसी अन्य विधि के अधीन स्थापित न्यायालयों के अतिरिक्त सिविल न्यायालयों के निम्न लिखित वर्ग होते है:-
        1. जिला न्यायाधीश का न्यायालय
        2. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग का न्यायालय
        3. व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग का न्यायालय
धारा 3 (2) के अनुसार जिला न्यायाधीश के प्रत्येक न्यायालय का पीठासीन उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जिला न्यायाधीश होता है और उच्च न्यायालय जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए उच्चतर न्यायिक सेवा के केडर में से अपर जिला न्यायाधीशों को भी नियुक्त कर सकता है।
धारा 3 (3) के अनुसार सिविल न्यायाधीश के न्यायालय का अपर न्यायाधीश निम्नतर न्यायिक सेवा से नियुक्त किया जा सकता है।
धारा 3 (4) के अनुसार जिला न्यायाधीश के न्यायालय के अंतर्गत अपर जिला न्यायाधीश का न्यायालय भी आता है तथा व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के अंतर्गत उस न्यायालय के अपर व्यवहार न्यायाधीश का न्यायालय भी आयेगा।
धारा 4 सिविल जिले (1) राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया कोई राजस्व जिला सिविल जिला भी होगा,
परंतु राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सिफारिश पर ऐसे सिविल जिलों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकेगी या नये सिविल जिले का सृजन या निर्माण कर सकेगी।
धारा 4 (2) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल जिले की सीमाओं या उनकी संख्या में परिवर्तन किये जाने पर या नये सिविल जिले का निर्माण किये जाने पर उच्च न्यायालय वादों अपीलों तथा कार्यवाहियों को वर्तमान जिले के न्यायालयों में से ऐसे अन्य न्यायालय को, जिन्हें ऐसे परिवर्तन या निर्माण के परिणाम स्वरूप क्षेत्रीय अधिकारिता प्राप्त हो गई हो, अंतरित किये जाने के बारे में तथा उनसे संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में ऐसा आदेश कर सकेगा जैसा वह उचित समझे।
वर्तमान में मध्यप्रदेश में 50 सिविल जिले है।
धारा 5 सिविल न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकार:-

ए. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए जिला न्यायाधीश के न्यायालय और
बी. प्रत्येक व्यवहार जिले के लिए अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग और व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के उतने न्यायालयों की स्थापना कर सकेगी जितने उसे उचित प्रतीत हो।
धारा 6 सिविल न्यायालयों की प्रारंभिक अधिकारिता (1) तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि के प्रावधानों के अधीन रहते हुये:-
ए. सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय को दो लाख 50 हजार रूपये तक के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
बी. सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को 10 लाख तक के मूल्य के किसी भी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
सी. जिला न्यायाधीश के न्यायालयों को मूल्य के संबंध में बिना किसी सीमा के किसी सिविल वाद या मूल कार्यवाही को सुनने और निराकृत करने की अधिकारिता होती हैं।
धारा 6 (2) के अनुसार उप धारा 1 के खण्ड ए और बी में उल्लेखित न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाए वह होगी जिन्हें राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा नियत करे।
धारा 7 प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय (1) जिला न्यायाधीश का न्यायालय सिविल जिले की प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य सिविल न्यायालय होता हैं।
धारा 7 (2) के अनुसार कोई अपर जिला न्यायाधीश जिला न्यायालय के कृत्यों, जिनमें आरंभिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय के कृत्य भी सम्मिलित है, में से किन्ही भी ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करेगा, जो की जिला न्यायाधीश साधारण या विशेष आदेश द्वारा उसे सौपे और ऐसे कृत्यों का निर्वाहन करने में वह उन शक्तियों का प्रयोग करेगा जिनका की प्रयोग जिला न्यायाधीश करते हैं।
धारा 8 अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति (1) जब कभी यह आवश्यक या उचित प्रतीत होता है जिला न्यायाधीश, अपर जिला न्यायाधीश, सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग, सिविल न्यायाधीश द्वितीय वर्ग के न्यायालय के लिए अपर न्यायाधीश या अपर न्यायाधीशों की नियुक्ति उक्त न्यायालयों में की जा सकेगी और ऐसे अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की, जिसमें की उसे नियुक्त किया गया है, अधिकारिता का तथा उस न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्तियों का प्रयोग उस प्राधिकारी के जिसके द्वारा उसकी नियुक्ति की गई है, किन्हीं ऐसे साधारण या विशेष आदेशों के अधीन रहते हुये करेगा, जो की वह प्राधिकारी उन वादों जिनका की विचारण, सुनवाई या अवधारण ऐसे अपर न्यायाधीश द्वारा कर सकेगा के वर्ग या मूल्य के संबंध में दे।
धारा 8 (2) के अनुसार किसी अधिकारी को एक या अधिक न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा और किसी अधिकारी को, जो किसी एक न्यायालय में है किसी अन्य न्यायालय का अथवा अन्य न्यायालयों का अपर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा।
धारा 9 कुछ न्यायालयों को लघुवाद न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से विनिहित करने की शक्ति (1) उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा किसी सिविल न्यायालय में लघुवाद न्यायालय की शक्तिया उस विधि के अधीन निहित कर सकेगा, जो किसी क्षेत्र में लघुवाद न्यायालय के संबंध में उस समय प्रवर्त हो, ऐसी शक्ति का प्रयोग उन मामलों में किया जा सकेगा, जो उस न्यायालय की अधिकारिता की सीमाओं के भीतर या ऐसी सीमाओं के भीतर किसी विशिष्ट क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं।
धारा 9 (2) के अनुसार लघुवाद स्वरूप के व्यवहार वादों का मूल्य जिला न्यायाधीश के न्यायालय की दशा में 1 हजार रूपये, व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 1 के न्यायालय की दशा में 5 सौ रूपये और व्यवहार न्यायाधीश वर्ग 2 की दशा में 2 सौ रूपये से अधिक नहीं होगा।
धारा 10 कुछ कार्यवाहियों में सिविल न्यायाधीशों द्वारा जिला न्यायालय के क्षेत्राधिकार का प्रयोग (1) उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग को संज्ञान लेने और किसी जिला जज के पास लंबित मामले को सिविल जज प्रथम वर्ग को अंतरित करने का आदेश निम्न मामलों के बारे में दे सकता है:-
ए. भाग 1 से 8 के अधीन भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925
बी. भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम 1925 के भाग 9 के अधीन किसी कार्यवाही जिसका निराकरण जिला प्रत्यायोजन द्वारा नहीं किया जा सकता।
सी. गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 या
डी. प्रोविनसियल एनशोलवेंसी एक्ट, 1920
धारा 10 (2) के अनुसार भारतीय उत्तराधिकारी अधिनियम, 1925 की धारा 388 में किसी बात के होते हुये भी उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा जिला न्यायाधीश की श्रेणी से निम्न के किसी न्यायाधीश को उस अधिनियम के भाग 10 के अधीन जिला न्यायाधीश के अधिकारों का प्रयोग करने की शक्ति दे सकता है।
धारा 10 (3) जिला न्यायाधीश उसके नियंत्रण के किसी सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई या उसे अंतरित ऐसी कार्यवाही को वापस ले सकता है जिनका या तो वह स्वयं निपटारा कर सकता है या किसी सक्षम न्यायालय को अंतरित कर सकता हैं।
धारा 10 (4) के अनुसार इस धारा के अधीन सिविल न्यायाधीश प्रथम वर्ग द्वारा संज्ञान ली गई अथवा उसे हस्तांतरित की गई कार्यवाहियों जिला न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाहियों को लागू होने वाली विधि और नियमों के अनुसार उसके द्वारा निपटाई जायेगी।
धारा 11 के अनुसार जिला न्यायालय के न्यायाधीश को भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 के अधीन किसी मूल कार्यवाही की सुनवाई और निर्णय करने का क्षेत्राधिकार होगा और वह उस सिविल जिले का इस अधिनियम के तहत जिला न्यायालय समझा जायेगा।
धारा 12 सिविल न्यायालयों के बैठने का स्थान (1) प्रत्येक व्यवहार न्यायालय उन स्थानों में बैठेगा, जहां उच्च न्यायालय अधिसूचना द्वारा निर्देशित करे अथवा ऐसे किसी निर्देश के अभाव में उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी भी स्थान में बैठेगा।
धारा 12 (2) के अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित किये गये किसी न्यायालय के प्रत्येक अपर न्यायाधीश उस न्यायालय की जिसके की वे अपर न्यायाधीश है, अधिकारिता के स्थानीय सीमाओं के भीतर ऐसे स्थान या स्थानों पर बैठेगे जैसा उच्च न्यायालय निर्देशित करे।
धारा 12 (3) के अनुसार जिला न्यायाधीश और जिले के अन्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय की पूर्व मंजूरी से और पक्षकारों को सम्यक सूचना देने के पश्चात अस्थायी रूप से किसी विशिष्ट वर्ग के मामलों के सुनवाई के लिए जिले किसी अन्य स्थान पर अस्थायी रूप से बैठ सकेंगे।
धारा 13 अपीलीय क्षेत्राधिकार (1) तत्समय प्रवृत किसी विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित स्थिति को छोड़कर मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले न्यायालयों की डिक्रीयों या आदेशों से अपीले निम्नांकित प्रारंभिक अधिकारिता वाले न्यायालय में होगी:-
ए. व्यवहार न्यायाधीश प्रथम वर्ग या व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय वर्ग की अज्ञाप्ति या आदेश से जिला न्यायाधीश के न्यायालय में अपील होगी।
बी. जिला न्यायाधीश के न्यायालय की डिक्री या आदेश से उच्च न्यायालय में अपील होगी।
स्पष्टीकरण:- सिविल न्यायाधीश के न्यायालय या जिला न्यायाधीश के न्यायायल के अंतर्गत इस न्यायालय का अपर न्यायाधीश भी आयेगा।
धारा 14 जिले के सिविल न्यायालयों और न्यायाधीशों पर अधिक्षण तथा नियंत्रणः- उच्च न्यायालय के साधारण अधिक्षण तथा नियंत्रण के अधीन रहते हुये जिला न्यायाधीश अपनी अधिकारिता के भीतर के स्थानीय क्षेत्र में इस अधिनियम के अधीन स्थापित किये गये समस्त अन्य सिविल न्यायालयों का तथा ऐसे न्यायालयों में नियुक्त किये गये समस्त अपर न्यायाधीशों के बारे में उसका यह कत्र्तव्य होगा की वह:-
ए. अपने नियंत्रण के अधीन न्यायालयों तथा कार्यालयों की कार्यवाहियों का निरीक्षण करे या निरीक्षण करवाये।
बी. किन्ही मामालों के बारे में ऐसे प्रशासनिक निर्देश दे जैसे वह उचित समझे।
सी. जिले में अधीनस्थ न्यायालयों तथा न्यायाधीशों से ऐसी रिपोर्ट तथा रिटर्न मगाये जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित किये जावे या जिनकी प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए उसे अपेक्षा हो।
धारा 15 कार्य विभाजन की शक्ति (1) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में या किसी क्षेत्र में तत्समय प्रर्वत लघुवाद न्यायालयों से संबंधित विधि में या इस अधिनियम में अंतरविष्ट किन्ही अन्य उपबंधों में किसी बात के होते हुये भी जिला न्यायाधीश लिखित आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकेगा की उसके न्यायालय द्वारा सिविल जिले में धारा 5 के अधीन स्थापित किये गये अन्य सिविल न्यायालयों के अपर न्यायाधीशों के बीच कार्य परस्पर ऐसी रीति में किया जाये, जैसा की वह उचित समझे,
परंतु लघुवाद न्यायालय उसके धन संबंधी अधिकारिता से बाहर कार्य करने के लिए सशक्त नहीं की जा सकेगी।
धारा 15 (2) के अनुसार सक्षम अधिकारिता वाले किसी न्यायालय में संस्थित किसी वाद अपील या कार्यवाही में का कोई भी न्यायिक कार्य केवल इस तथ्य के कारण अविधिमान्य नहीं होगा की ऐसा संस्थित किया जाना उप धारा 1 में निर्दिष्ट किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुसार नहीं था।
धारा 15 (3) के अनुसार जब कभी किसी ऐसे न्यायालय को जो कि उप धारा 2 में उल्लेखित है, यह प्रतीत हो की उसके समक्ष लंबित किसी वाद अपील या कार्यवाही का संस्थित किया जाना उप धारा 1 के अधीन किये गये कार्य वितरण आदेश के अनुरूप नहीं था, तो वह ऐसे वाद अपील या कार्यवाही का अभिलेख समूचित आदेश के लिए जिला न्यायालय को प्रस्तुत करेगा तथा उसके संबंध में जिला न्यायाधीश संबंधित अभिलेख का अंतरण या तो कार्य वितरण आदेश के अनुसार समूचित न्यायालय को करते हुये या उसका अंतरण सक्षम अधिकारिता वाले किसी अन्य न्यायालय को करते हुये आदेश पारित कर सकेगा।
धारा 15 (4) के अनुसार उप धारा 1 के अधीन सिविल कार्य का वितरण करते समय जिला न्यायाधीश ऐसे सिद्धां
तो द्वारा मार्गदर्शित होगा जो उच्च न्यायालय द्वारा विहित की जाये।
धारा 15 की इस कार्यवाही को सामान्यतः कार्य विभाजन पत्रक या डिस्ट्रीब्यूशन मेमो कहते है अतः जब भी कोई वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी भी न्यायाधीश के समक्ष प्रथम बार प्रस्तुत हो तो उसे कार्य विभाजन पत्रक के प्रकाश में यह संतुष्टि कर लेना चाहिए की ऐसी कार्यवाही का उसे कार्य विभाजन पत्रक के अनुसार क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
धारा 16 व्यक्तिगत हित वाले प्रकरण का विचारण न करना (1) कोई भी न्यायाधीश किसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही की सुनवाई या निर्णय नहीं करेगा जिसमें वह एक पक्षकार है या जिस कार्यवाही से वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं।
उप धारा (2) के अनुसार जब भी ऐसी वाद अपील या अन्य कार्यवाही किसी न्यायाधीश के समक्ष आती है तो वह उसकी एक रिपोर्ट मय अभिलेख जिला न्यायाधीश महोदय को भेजेंगे जो या तो उसे स्वयं निपटा सकते है या निपटारे के लिए किसी अन्य न्यायालय को अंतरित कर सकते हैं।
उप धारा (3) के अनुसार यदि जिला न्यायाधीश के समक्ष ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो तो वह इसकी रिपोर्ट माननीय उच्च न्यायालय को करते हैं।
धारा 18 जिला न्यायाधीश के पद पर अस्थायी रिक्ती जहा जिला न्यायाधीश मृत्यु या अवकाश पर होने के कारण या बीमारी या अन्य कारण से अनुपस्थित हो तब वरिष्ठतम जिले के अगले न्यायाधीश को उनके कत्र्तव्य अस्थायी रूप से पालन करने के लिए माननीय उच्च न्यायालय सशक्त कर सकता है।
धारा 19 के अनुसार जिला न्यायाधीश भी जब वह जिले में ही मुख्यालय छोड़कर जा रहे हो तब ऐसी शक्तिया वरिष्ठतम अपर न्यायाधीश या उनके भी न होने पर सिविल न्यायाधीश को प्रत्यायोजित कर सकते हैं।
धारा 21 अवकाश (1) राज्य शासन के अनुमोदन के अधीन रहते हुये उच्च न्यायालय उन दिनों की एक सूची तैयार करेगा जिसके अनुसार उसके अधीन सिविल न्यायालय में प्रति वर्ष अवकाश मनाये जायेंगे।
(2) के अनुसार ऐसी सूची राजपत्र में प्रकाशित की जायेगी।
(3) के अनुसार कोई न्यायिक कार्य केवल इस कारण अमान्य न होगा की वह अवकाश के दिन में कर लिया गया था।
(4) के अनुसार जिला न्यायाधीश अवकाश के दौरान अत्यावश्यक सिविल मामले के निपटारे के लिए ऐसी व्यवस्था कर सकेगे जैसे वह ठीक समझे।
धारा 22 मुद्रा या सील प्रत्येक व्यवहार न्यायालय ऐसे प्रकार और परिणाम की मुद्रा का जैसा राज्य सरकार विहित करे उसके द्वारा जारी की गई सभी आदेशिकाओं जारी आदेशों और पारित डिक्रीयों में उपयोग करेंगे।
धारा 23 में नियम बनाने की शक्ति आदि दिये गये हैं।
व्यवहार प्रक्रिया संहिता
धारा 3 सी.पी.सी. के अनुसार जिला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है और जिला न्यायालय से अवर या निम्न श्रेणी का सिविल न्यायालय और लघुवाद न्यायालय उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय के अधीनस्थ हैं।
धारा 6 धन संबंधी अधिकारिता अभिव्यक्त रूप से जैसा उपबंधित है उसके सिवाय किसी बात का प्रभाव ऐसा नहीं होगा की वह किसी न्यायालय को उन वादों पर अधिकारिता दे दे जिनकी रकम या जिनकी विषय वस्तु का मूल्य उसकी मामूली अधिकारिता की धन संबंधी सीमाओं से अधिक है।
धारा 9 के अनुसार न्यायालयों को उन वादों के सिवाये जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।
धारा 12 एवं 15 से 21 ए तथा 26 भी क्षेत्राधिकार के बारे में ध्यान रखे जाने योग्य है।
क्षेत्राधिकार के बारे में और उक्त प्रावधानों के बारे में वैधानिक स्थिति
धारा 9 सी.पी.सी. पर
1. न्याय दृष्टांत कमलकांत गोयल विरूद्ध मेसर्स लूपिन लेबोलेटरीज लिमिटेड, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 2191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि:-
1. धारा 84 (4) कंपनी अधिनियम के प्रावधानों के तहत रजिस्ट्रार आफ कंपनी का यह कत्र्तव्य है कि वह स्वयं एक जांच गठित करे इस संबंध में कंपनी - इश्यू आफ शेयर सर्टीफीकेटस - रूल्स, 1960
में भी प्रावधान हैं।
मामला यह था की वादी यह वाद लेकर आया था की एक बैग जिसमें सभी शेयर सर्टीफीकेट रखे थे और ट्रांसफर डीट भी रखी थी वह गुम गया वादी इस घोषणा का वाद लेकर आया की प्रतिवादी शेयर सर्टीफीकेट किसी अन्य को अंतरित न करे और डूप्लीकेट शेयर सर्टीफीकेट जारी करे ऐसी घोषणा की जावे।
न्याय दृष्टांत श्रीपाल जैन विरूद्ध टोरेंट फर्मा सूटीकल लिमिटेड, 1995 सप्लीमेंट (4) 590 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को ऐसा वाद सुनने का अधिकार नहीं हैं क्योंकि कंपनी अधिनियम की धारा 84 (4) और उक्त नियम, 1960 के अनुसार रजिस्ट्रार आफ कंपनी को स्वयं जांच गठित करना चाहिए और उचित आदेश करना चाहिए साथ ही धारा 41 (एच) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अधीन जहां समानतः प्रभावकारी अनुतोष उपलब्ध हो वहां निषेधाज्ञा नहीं देना चाहिए।
2. न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह विरूद्ध मंगल खान, 2011 (3) एम.पी.एल.जे. 306 में धारा 185 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के प्रावधानों के प्रकाश में यह प्रतिपादित किया गया की वादी एक अधिपति कृषक के रूप में संपत्ति के आधिपत्य में था जिसे वापस पाने के लिए वह वाद लेकर आया था प्रतिवादी ने जमीन पर अतिक्रमण करने का अभिवचन किया था वादी का आधिपत्य नायब तहसीलदार के आदेशानुसार था ऐसे में यह माना गया की वादी का बहतर स्वत्व है और आधिपत्य की पुनः प्राप्ति का उसका वाद चलने योग्य हैं।
3. वादी ने घोषणा का वाद पेश किया जो टेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के प्रकाश में चलने योग्य नहीं पाया गया क्योंकि यह अधिनियम एक संपूर्ण संहिता है यदि कलेक्टर ऐसा निर्देश दे कि स्वत्व के निराकरण के लिए पक्षकार व्यवहार न्यायालय जावे तभी व्यवहार वाद प्रचलन योग्य होता है कलेक्टर ने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया था और जांच करके संपत्ति स्वामी रहित घोषित कर दी थी अतः न्याय दृष्टांत देव कुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ म.प्र., 2005 (4) एम.पी.एल.जे. 146 पर भरोसा करते हुये यह प्रतिपादित किया गया की व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं।
अवलोकनीय न्याय दृष्टांत अजीज उद्दीन कुरेसी विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 978
4. न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध दीनदयाल शर्मा, 2010 (4) एम.पी.एल.जे. 274 (एस.सी.) में यह प्रतिपादित किया गया था कि सेवा से डिसमिस किये जाने के विवाद के बारे में व्यहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार का प्रश्न - कर्मचारी ने यह अभिकथन किया था कि विभागीय जांच उसके डिसमिसल के आदेश के पूर्व किया जाना चाहिये था, ऐसा अधिकार औद्योगिक विवाद के रूप में उपलब्ध होता है और प्रवर्तित कराया जा सकता है ऐसे मामलों में व्यवहार न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं होना पाया गया।
न्याय दृष्टांत चीफ इंजीनियर हायडल प्रोजेक्टर विरूद्ध रविन्द्रनाथ, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी वर्क चार्ज के आधार पर कर्मचारी था उसके सेवा से निकालने के बारे में विवाद था ऐसा विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में आयेगा व्यवहार न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं हैं।
           जहां क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति अपील के स्तर पर उठायी गई हो वहां भी ’’कोरम नान जूडिश’’ का सिद्धांत लागू होगा और जहां मूल डिक्री ही क्षेत्राधिकार के बिना दी गई हो वहां यह तात्विक नहीं है की ऐसी आपत्ति प्रारंभिक स्तर पर क्यों नहीं उठाई गई
        न्याय दृष्टांत मंटू सरकार विरूद्ध आरियनटल इंश्योरेंश कंपनी (2009) 2 एस.सी.सी. 244 में भी इस स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है कि जहां वाद की विषय वस्तु और आर्थिक क्षेत्राधिकार के बारे में प्रश्न हो वहां आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने पर निर्णय शून्य नहीं होगा जब तब की न्याय की विफलता और विपक्षी के हितों पर प्रतिकूल असर गिरना प्रमाणित न हो जबकि विषय वस्तु का मामला हो तब बिना क्षेत्राधिकार के निर्णय शून्य होगा।
5. न्याय दृष्टांत राघविन्दर सिंह विरूद्ध बेन्त कोर (2011) 1 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वाद प्रीमेच्योर हो तब भी प्रत्येक मामले में उसका निरस्त किया जाना आवश्यक नहीं होता है क्योंकि यह क्षेत्राधिकार की जड़ तक नहीं जाता है न्यायालय को केवल यह देखना चाहिए की प्रतिवादी को क्या कोई अपूर्णणीय प्रीज्यूडीस हुआ है या उसके साथ अन्याय हुआ हैं।
6. न्याय दृष्टांत राम कन्या बाई विरूद्ध जगदीश, (2011) 7 एस.सी.सी. 452 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि तहसीलदार ने धारा 131 म.प्र. भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत किसी वाद का निराकरण किया है तो कोई भी पक्षकार उसके सुखाधिकार स्थापित करने के लिए व्यवहार न्यायालय में जा सकता है व्यवहार न्यायालय को व्यवहार प्रकृति के सभी वादों को सुनने का अधिकार होता है जब तब की उनका संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्छित रूप से वर्जित न किया हो।
7. क्या व्यवहार न्यायालय को खसरों के गलत इंद्राज को सुधारने संबंधी वाद के विचारण की अधिकारिता है ?
नहीं, केवल तहसीलदार ऐसे विवाद को निराकृत कर सकता है यदि वाद चलने योग्य न हो या क्षेत्राधिकार न हो तब वाद को सक्षम न्यायालय में पेश करने के लिए लौटा देना चाहिए अपीलीय या रीविजन न्यायालय भी ऐसा कर सकती हैं। इस संबंध में अवलोकनीय न्याय दृष्टांत भगवान दास विरूद्ध श्रीराम, 2010 वाल्यूम 2 एम.पी.जे.आर. 26
8. क्या वक्फ ट्रीब्यूनल किसी किरायेदार के निष्कासन संबंधी वाद /विवाद के लिए सक्षम हो ?
नहीं, ऐसे वाद केवल व्यवहार न्यायालय में ही पेश किये जा सकते हैं अवलोकनीय न्याय दृष्टांत रमेश गोर्वधन विरूद्ध सुगरा हुमायू मिर्जा वक्फ (2010) 8 एस.सी.सी. 726
9. न्याय दृष्टांत लालजी विरूद्ध सीताराम, 2009 (1) एम.पी.जे.आर. 149 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी का मामला यह है कि प्रतिवादीगण ने अवैध रूप से और अप्राधिकृत तरीके से प्रतिकर की राशि प्राप्त कर ली है जो की शासन द्वारा भूमि के अधिग्रहण के कारण दी गई थी इस मामले में धारा 18 एवं 29 भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर विचार करते हुये यह निष्कर्ष दिया की ऐसा वाद चलने योग्य है क्योंकि इसमें अधिग्रहण को चुनौती नहीं दी गई है।
लेकिन न्याय दृष्टांत देवकुमार बेन साह विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी, 2005 (3) जे.एल.जे. 286 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 6 भू-अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की अधिसूचना को चुनौती देने का वाद चलने योग्य नहीं होता है।
10. जहां दो न्यायालयों को किसी विषय वस्तु पर समवर्ति क्षेत्राधिकार हो वहां पक्षकार अनुबंध द्वारा किसी एक न्यायालय को क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसा तय कर सकते है और दूसरे न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं होगा ऐसा तय कर सकते हैं यह लोक नीति के विरूद्ध नहीं है इस संबंध में न्याय दृष्टांत फिटजी लिमिटेड विरूद्ध संदीप गुप्ता, 2006 (4) एम.पी.एल.जे. 518 अवलोकनीय हैं।
लेकिन न्याय दृष्टांत श्री शुभ लक्ष्मी फेब्रिक्स प्राईवेट लिमिटेड विरूद्ध चांदमल (2005) 10 एस.सी.सी. 704 में यह प्रतिपादित किया है कि जिस न्यायालय को क्षेत्राधिकार ही न हो पक्षकार अनुबंध करके उस न्यायालय को क्षेत्राधिकार नहीं दे सकते हैं।
11. न्याय दृष्टांत द्वारका प्रसाद अग्रवाल विरूद्ध रमेश चन्द्र, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 2696 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जो कोई क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति उठाता है उसको प्रमाणित करने का भार उसी पर होता हैं।
12. न्याय दृष्टांत सोपान सुखदेव साबले विरूद्ध असिस्टेण्ट चरेटी कमीश्नर, (2004) 3 एस.सी.सी. 137 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वादी ऐसे अनुतोष को जो न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर का हो उसे कम करना चाहता हो तो उसे इसकी अनुमति दी जा सकती हैं।
13. न्याय दृष्टांत स्वामी आत्मानंद विरूद्ध श्रीरामकृष्ण तपोवनम्, (2005) 10 एस.सी.सी. 51 में न्याय दृष्टांत धूलाबाई विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., (1968) 3 एस.सी.आर. 662 पर विचार किया गया है जो धारा 9 सी.पी.सी. में व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाधित होने के बारे में एक महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत है जिसमें सारी वैधानिक स्थिति स्पष्ट होती हैं साथ ही न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन विरूद्ध बालमुकुंद (2009) 4 एस.सी.सी. 299 तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ भी अवलोकनीय हैं।
14. न्याय दृष्टांत देव श्याम विरूद्ध पी. सविता रम्मा (2005) 7 एस.सी.सी. 653 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि अंतरनिहित क्षेत्राधिकार के अभाव में कोई आदेश पारित किया गया है तो वह शून्य होता हैं।
14ए. किसी स्वामी के जीवन काल में उसके संभाव्य उत्तराधिकारियों को संपत्ति में कोई स्वत्व या अधिकार नहीं होते है संपत्ति के स्वामी ने संपत्ति विक्रय की और उस विक्रय व्यवहार को अपने जीवन काल में चुनौती नहीं दी अपीलार्थी को उस व्यवहार को चुनौती देना का अधिकारी नहीं माना गया अवलोकनीय न्याय दृष्टांत बिपता बाई विरूद्ध श्रीमती क्षिप्रा बाई, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1402
14बी. सहकारी भूमि विकास बैंक अधिनियम, 1966 (म.प्र.) की धारा 27, 64 और 82 अपीलार्थी ने बैंक से एन.ओ.सी. प्राप्त करके भूमि खरीदी अपीलार्थी को सूचना पत्र दिये बिना उसी भूमि को किसी अन्य व्यक्तियों के बकाया के लिए कुर्क किया गया चाहे सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार वर्जित किया गया हो फिर भी सिविल न्यायालय को यह अधिकार है कि वह अधिनियम के प्रावधानों की पालना की गई है या नहीं और न्यायिक प्रक्रिया की मूलभूत सिद्धांतों का पालन किया है या नहीं यह देखे वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध कापरेटिव भूमि विकास बैंक, आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1707 अवलोकनीय हैं।
14सी. न्याय दृष्टांत विमला बाई विरूद्ध बोर्ड आफ रेव्यनू, (1) एम.पी.जे.आर. 321 भी भूमि स्वामी के अधिकारों के बारे में सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के संबंध में महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत हैं।
14डी. न्याय दृष्टांत अब्दुल गफूर विरूद्ध स्टेट आफ उत्तराखण्ड, 2008 (10) एस.सी.सी. 97 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहां बहस के योग्य प्रश्न हो वहां न्यायालय को कारण लिखे बिना वाद को संक्षिप्त से निरस्त नहीं करना चाहिए।
अन्य प्रावधानों पर
15. वादी और प्रतिवादी में संविदा हुई जिसमें अनुच्छेद 9 में यह शर्त थी कि ’’आल डिस्प्यूट शैल बी सबजेक्ट टू सतना कोर्ट’’ जबलपुर में कुछ वाद कारण उत्पन्न हुआ वादी ने जबलपुर में वाद पेश किया वादी ने केवल सतना न्यायालय को ही क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसी सहमति नहीं दी थी अतः जबलपुर में प्रस्तुत वाद चलने योग्य पाया गया न्याय दृष्टांत रजिस्ट्रार महात्मा गाधी चित्रकूट विरूद्ध एम.सी. मोदी, आई.एल.आर. 2007 एम.पी. 1851 अवलोकनीय हैं।
न्याय दृष्टांत लाइफ केयर इंटरनेशनल विरूद्ध महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा, आई.एल.आर. 2011 एम.पी. 175 में भी आउसटर आफ ज्यूरिडिक्शन को स्पष्ट किया है जिसके तहत शब्द आनली, एलान, एक्सक्लूजिव जैसे कोई शब्द अनुबंध के आउसटर क्लाज में काम में नहीं लिये गये है केवल ’’एग्रीमेंट शैल बी सबजेक्ट टू ज्यूरीडिक्शन आफ कोर्ट एट बाम्बे’’ लिखा हुआ था न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अपवर्जित करने का आशय स्पष्ट असंदिग्ध और विनिर्दिष्ट रूप से होना चाहिए और ऐसे कोई शब्द जैसे आनली, एलान, एक्सक्लूजिव काम में नहीं लिये गये हैं इंदौर न्यायालय को क्षेत्राधिकार माना गया।
न्याय दृष्टांत राजस्थान स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड विरूद्ध यूनीवरशल पेट्रोल केमीकल्स (2009) 3 एस.सी.सी. 107 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के मामले में अनुबंध द्वारा यदि किसी एक न्यायालय के बारे में क्षेत्राधिकार होना सीमित कर लिया जाता है तो वह वेध और बंधनकारी है और यह आरबीटेªशन के मामले में भी लागू होता हैं।
16. न्याय दृष्टांत लक्ष्मण प्रसाद विरूद्ध प्रोडिजी इलेक्ट्रोनिक्स (2008) 1 एस.सी.सी. 618 में यह प्रतिपादित किया गया है कि हागकोंग की कंपनी और उसके कर्मचारी के बीच हागकोंग में एक संविदा निष्पादित हुआ जिसके अनुसार संविदा को हागकोंग के कानून के अनुसार अर्थ लगाया जायेगा। ऐसी शर्त व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार को वर्जित नहीं करती हैं वाद कारण जहां उत्पन्न हुआ वहां वाद चलने योग्य हैं।
17. जहां सेवा में कमी हुई हो या उपेक्षा हुई हो या सुविधा में कमी हुई हो तभी सेवा प्रदाता के विरूद्ध वाद कारण उत्पन्न होता है उपभोगता फोरम और स्थायी लोक अदालत केवल असुविधा या हार्डशिप या सिमपेथी के आधार पर प्रतिकर नहीं दिला सकते क्योंकि कारण ऐसा था जो सेवा प्रदाता के नियंत्रण के बाहर था और उसने सद्भावना पूर्वक कार्य किया था इस संबंध न्याय दृष्टांत इंटर ग्लोबल एवीएशन लिमिटेड विरूद्ध एन. सचिदानन्द (2011) 7 एस.सी.सी. 463 अवलोकनीय हैं।
18. न्याय दृष्टांत रूचि माजू विरूद्ध संजीव माजू, (2011) 6 एस.सी.सी. 479 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गार्जियन एण्ड वार्ड एक्ट, 1890 धारा 9 (1) के तहत प्रादेशिक क्षेत्राधिकार उस स्थान पर होता है जहां अवयस्क सधारणतया रहता है रेसीडेंस का तात्पर्य किसी फ्लाईंग विजिट या केजूवल स्टे से अधिक होता है इस मामले में क्षेत्राधिकार के निर्धारण का परीक्षण बतलाया गया
19. न्याय दृष्टांत मेसर्स अर्जना साड़ी प्रोपराइटर जुगल किशोर विरूद्ध एम.पी. हेण्डीक्राफ्ट एण्ड हेण्डलूम डवलपमेंट कार्पोरेशन, 2010 (5) एम.पी.एच.टी. 443 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण और प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के लिए सभी आवश्यक, तात्विक, इंटीग्रल तथ्य निश्चित कर लेना चाहिए जब तब ये तत्व किसी स्थान पर न हो वाद कारण उत्पन्न होना इंफर नहीं किया जा सकता।
20. न्याय दृष्टांत ए.के. लक्ष्मीपति विरूद्ध राव साहब अन्ना लाल एच. लाहोटी चेरीटेबल ट्रस्ट (2010) 1 एस.सी.सी. 287 में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी चेरीटेबल या धार्मिक ट्रस्ट से संबंधित संपत्ति के अंतरण के मामले में प्रादेशिक क्षेत्राधिकार के बारे में लागू होने वाली विधि वह होगी जहां चेरीटेबल ट्रस्ट का मुख्यालय पंजीकृत हो।
21. न्याय दृष्टांत श्री जयराम एजूकेशनल ट्रस्ट विरूद्ध ए.जी. सैयद मोहिद्दीन, (2010) 2 एस.सी.सी. 513 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद जो धारा 92 सी.पी.सी. के तहत प्रस्तुत किया गया हो वहां मूल क्षेत्राधिकार की आरंभिक आधिकारिता वाली प्रधान सिविल न्यायालय वाली या राज्य सरकार द्वारा सशक्त किसी अन्य न्यायालय को क्षेत्राधिकार होगा जिसमें कोई आर्थिक लिमिट नहीं है धारा 92 सी.पी.सी. के मामलों में धारा 15 से 20 सी.पी.सी. के प्रावधान भी लागू नहीं होंगे।
22. क्या धारा 34 माध्यस्थ एवं सुलह अधिनियम का आवेदन अपर जिला जज के न्यायालय में चलने योग्य है ?
धारा 7 (2) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के तहत अपर जिला जज, जिला जज की समस्त शक्तिया प्रयोग कर सकता हैं अतः आवेदन चलने योग्य हैं न्याय दृष्टांत म.प्र. एस.ई.बी. विरूद्ध अनसालदू एनरजीया एस.पी.ए., ए.आई.आर. 2008 एम.पी. 328 अवलोकनीय हैं साथ ही न्याय दृष्टांत प्रताप सिंह हारडीया विरूद्ध संजीव चावरेकर, 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 477 डी.बी. भी इसी संबंध में है।
न्याय दृष्टांत एन.के. सक्सेना विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2008 (2) एम.पी.एच.टी. 365 डी.बी.
में भी यह स्पष्ट किया गया है कि केवल धारा 24 सी.पी.सी. में अपर जिला जज को जिला जज के अधीनस्थ बतलाया गया है अन्यथा 1982 से अपर जिला जज वे शक्तिया प्रयोग कर रहे है जो जिला जज करते हैं।
23. न्याय दृष्टांत दुर्गश चैरसिया विरूद्ध प्रकाश कुशवाहा, 2010 (2) एम.पी.एच.टी. 369 डी.बी. में दोनों पक्षों ने उनकी साक्ष्य दे दी थी विचारण पूर्ण हो चुका था केवल अंतिम तर्क होना था और निर्णय होना था विचारण न्यायालय ने वाद आर्थिक क्षेत्राधिकार न होने से लौटाया ऐसे लौटाने का परिणाम पुनः विचारण होगा आदेश अपास्त किया गया और विचारण न्यायालय को यह निर्देशित किया गया कि वह मामले को धारा 15 (3) एम.पी. सिविल कोर्ट, 1958 के तहत जिला जज को उचित आदेश के लिए भेजे।
धारा 15 (3) म.प्र. सिविल कोर्ट एक्ट के अनुसार ऐसे मामले में जिला जज उचित आदेश कर सकते है।
24. न्याय दृष्टांत हरसद चिमन लाल विरूद्ध डी.एफ.एल. (2005) 7 एस.सी.सी. 791 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 20 धारा 15 से 19 की शर्तो के अधीन है सहमति या अधित्याजन या मोन स्वीकृति यदि न हो तो वह क्षेत्राधिकार प्रदान नहीं कर सकती है।
25. न्याय दृष्टांत राम बोहारी विरूद्ध टाटा फायनेंश, 2005 (3) एम.पी.एल.जे. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है की संपत्ति गलत तरीके से ली गई यह एक दुष्कृत्य है सिविल न्यायालय को ऐसे मामले में क्षेत्राधिकार है प्रतिवादी कंपनी ने ट्रक को अवैधानिक तरीके से जब्त किया क्योंकि मासिक किस्त में चूक हुर्ह थी व्यवहार वाद चलने योग्य पाया गया।
26. यदि वाद आदेश 9 नियम 1 और 2 सी.पी.सी. के तहत अनुपस्थिति में खारीज हो जाता है तब उसी वाद कारण पर नया वाद धारा 12 सी.पी.सी. के प्रकाश में चलने योग्य नहीं होता न्याय दृष्टांत गोविन्द दास विरूद्ध विक्रम सिंह, 2006 (3) एम.पी.जे.आर. 56 अवलोकनीय हैं।
27. न्याय दृष्टांत बिट्ठल भाई विरूद्ध यूनियन बैंक, (2005) 4 एस.सी.सी. 315 में अपरिपक्व शूट के बारे में स्थिति स्पष्ट की गई हैं।
28. न्याय दृष्टांत कुसुम इनगोटस् एण्ड अलायस विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया, (2004) 6 एस.सी.सी. 254 में यह प्रतिपादित किया गया है कि वाद कारण वाद लाने के अधिकार को दर्शाता है हर क्रिया कोर्स आफ एक्शन पर आधारित होती हैं मामले में वाद कारण को स्पष्ट किया गया।
29. न्याय दृष्टांत मोदी इंटरटेनमेंट नेटवर्क विरूद्ध डब्ल्यू.एस.जी. क्रिकेट प्राईवेट लिमिटेड (2003) 4 एस.सी.सी. 341 में भी व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार और एण्टीसूट इंजेक्शन को स्पष्ट किया गया हैं।
                        ज्योत्री

स्थानीय अन्वेषण के लिये कमीशन आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.


                            स्थानीय अन्वेषण के लिये कमीशन के बारे में
                           (आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.)


                प्रायः व्यवहार वादों में पक्षकार द्वारा स्थानीय अन्वेषणप के लिये कमीशन जारी करने का आवेदनपत्र आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.के तहत प्रस्तुत किया जाता है। आवेदनपत्र प्रस्तुत करने वाला पक्षकार कमीशन जारी करना आवश्यक बतलाता है जबकि विरोधी पक्षकार की आपत्ति यह रहती है कि साक्ष्य संग्रहित करने के लिये कमीशन जारी नहीं किया जाना चाहिये तब न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होते हैं कि कब कमीशन जारी करें व कब नहीं। साक्ष्य संग्रहण कब माने कब नहीं किसे कमिश्नर नियुक्त करें। क्या न्यायालय स्वप्रेरणा से भी कमीशन जारी कर सकता है या नहीं । ऐसे कमीशन के खर्चे कौन देगा ऐसा आवेदन प्रकरण के किस प्रक्रम पर आना चाहिये आदि। यहाॅ हम ऐसे ही प्रश्नों और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति पर विचार करेंगे ताकि ऐसे आवेदनों का त्वरित निराकरण हो सके।

        आदेश 26 नियम 9     सी.पी.सी.के अनुसार किसी भी वाद में जिसमें न्यायालय विवाद में के किसी विषय के विशदीकरण के या किसी संपत्ति के बाजार मूल्य के या किन्हीं अंतकालीन लाभों या नुकसानी या वार्षिक शुद्ध लाभों की रकम के अभिनिश्चय के प्रयोजन के लिये स्थानीय अन्वेषण करना उचित समझता है न्यायालय ऐसे व्यक्ति के नाम जिसे वह ठीक समझे, ऐसा अन्वेषण करने के लिये और उस पर न्यायालय को रिपोर्ट देने के लिये उसे निर्देश देते हुये कमीशन निकाल सकेगा।

        परन्तु जहाॅ राज्य सरकार ने उन व्यक्तियों के बारे में नियम बना दिये हैं जिनके नाम ऐसा कमीशन निकाला जा सकेगा वहाॅ न्यायालय ऐसे नियमों से आबद्ध होगा।

        धारा 75 (बी) सी.पी.सी. में भी स्थानीय अन्वेषण करने के लिये कमीशन निकालने के बारे में प्रावधान हैं।

        आदेश 39 नियम 7 (1) (ए) सी.पी.सी.के अनुसार न्यायालय पक्षकार के आवेदनपत्र पर वादग्रस्त संपत्ति के परीक्षण या निरीक्षण का आदेश कर सकता है।

        नियम 264 (1) म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 के अनुसार जहाॅ विवादग्रस्त विषय सामान्य रूप से साक्ष्य लेने से निश्चित नहीं हो सकता हो वहाॅ न्यायालय स्थानीय अन्वेषण जारी कर सकता है।

           
       
            1.   प्रावधान की प्रकृति

    कमीशन जारी करना या न करना न्यायालय के विवेकाधिकार का विषय है। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत लक्ष्मण वि. रामसिंह 1992 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 255 अवलोकनीय है।

            2. कब कमीशन जारी करना उचित है

1.    जब पक्षकारों के मध्य वादग्रस्त सम्पत्ति की पहचान का विवाद हो और अतिक्रमण का भी मामला हो तब यह अपरिवर्तनीय नियम है कि कमिश्नर नियुक्त करके वादग्रस्त सम्पत्ति का माप करवाना चाहिये । इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत कपूरीदेवी वि0 भागरी 1999(2) एम.पी.एल.जे. एस0एन0 27 अवलोकनीय है।

2.    जहाॅं दोनों पक्ष अपने पंजीकृत विक्रयपत्रों के आधार पर स्वयं को किसी भूमि का स्वामी बतला रहें हो सम्पत्ति की पहचान और उसके सीमांकन का एक स्पष्ट प्रश्न हो वहाॅ यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह कमीशन नियुक्त करें और ऐसे मामले में कमीशन नियुक्त करने के लिये किसी आवेदन की आवश्यकता नहीं होती है इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत जसवंत वि0 दीनदयाल 2011(2) एम.पी.एल.जे. 576 अवलोकनीय है जिसमें न्याय दृष्टांत श्रीपत वि. राजेन्द्र प्रसाद (2000)6 सुप्रीम 389, हरियाणा वक्फ बोर्ड वि0 शांति स्वरूप (2008)8 एस.सी.सी. 671 व दुर्गाप्रसाद वि0 प्रवीण फौजदार 1975 एम.पी.एल.जे. 801(डी.बी.) पर विश्वास किया गया।

3.    न्याय दृष्टांत हरियाणा वक्फ बोर्ड विरूद्ध शांति स्वरूप (2008)8 एस.सी.सी. 671 के मामले में दोनों पक्षों कीभूमि लगी हुई थी पक्षों के मध्य सीमांकन का विवाद था वादी ने उसकी भूमि पर अतिक्रमण का भी अभिवचन किया था प्रतिवादी ने जबाव में इसका खण्डन नहीं किया था अपीलार्थी ने विचारण न्यायालय और अपील न्यायालय में स्थानीय अन्वेषण के लिये आवेदन भी दिये थे जो निरस्त किये गये थे मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय ने कमीशन नियुक्ति की आवश्यकता बतालते हुये आवेदन स्वीकार किया गया।

4.    न्याय दृष्टांत निमाबाई वि0 सरस्वतीबाई 2002 राजस्व निर्णय 416(एच.सी.) केअनुसार जहाॅ संपत्ति की पहचान का विवाद हो और केवल मौखिक साक्ष्य के आधार पर डिक्री पारित नहीं की जा सकती हो वहाॅ न्यायालय को सम्पत्ति की पहान सुनिश्यित करने के लिये कमीशन जारी करना चाहिये।

5.    जहाॅं दोनों पक्षों द्वारा स्वीकृत मानचित्र अभिलेख पर न हो वहाॅभी कमीशन नियुक्त किया जाना चाहिये इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत उक्त दुर्गाप्रसाद वि. प्रवीण फौजदार 1975 एम.पी.एल.जे. 801 डी.बी. अवलोकनीय है।

    पक्षकारों द्वारा भिन्न-भिन्न मानचित्र पेश किये गये वहाॅं भी कमिश्नर नियुक्ति उचित होती है।

6.    न्याय दृष्टांत राजाराम वि. नूर मोह. 2001 (2) एम.पी.एल.जे. एस.एन. 12 के मामले में भी यह कहा गया कि अतिक्रमण बतलाते हुये जहाॅ निषेधाज्ञा का वाद लाया गया वहाॅ कमिश्नर द्वारा मौके पर माप लिया जाना आवश्यक होता है।

7.    न्याय दृष्टांत प्रेमबाई वि0 घनश्याम 2010(3) एम.पी.एल.जे. 345 के मामले में वादी ने प्रतिवादी के विरूद्ध स्थायी निषेधाज्ञा का वाद पेश किया था कि प्रतिवादी वादी के प्लाट की तरफ उसके दरवाजे, खिड़कियाॅ और नाली न खाले। पक्षों के मध्य वादग्रस्त संपत्ति की सीमाओं सम्बन्धी विवाद था मामले में सक्षम कमिश्नर विवाद के निराकरण के पूर्व नियुक्त करना उपयुक्त बतलाया गया।

8.    न्याय दृष्टांत केशवसिंह विय0 धन्तोबाई 2009(1) एम.पी.जे.आर. 162 डी0बी0 के मामले में वादी ने प्रतिवादी के विरूद्ध वाद प्रस्तुत किया कि वह वादग्रस्त सम्पत्ति का स्वामी है और प्रतिवादी ने इस  पर निर्माण किया। प्रतिवादी के अनुसार निर्माण वादग्रस्त सम्पत्ति पर नहीं है। वादी ने साक्ष्य प्रारंभ होने के पहले आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.का आवेदन प्रस्तुत किया, न्यायालय ने आवेदन निरस्त किया। 

    अपील में मान्नीय उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जहाॅ कोई पक्षकार न्यायालय की सहायता के लिये विवाद के विशदीकरण हेतु कमीशन नियुक्ति का आवेदन देता है तो उसे साक्ष्य संग्रहित करने के लिये आवेदन दिया जाना नहीं कहा जा सकता । वादी वाद प्रस्तुत करने से पहले राजस्व अधिकारियों से स्वयं र्को प्रतिवेदन बनवाता है और उसे पेश करता हे तो उसे वादी के पक्ष में साक्ष्य माना जाता है। 
9.    जहाॅ यह प्रश्न हो कि कुआं वादी की भूमि में स्थित है या प्रतिवादीगण की भूमि में इस प्रश्न का निराकरण कमिश्नर नियुक्त करके करना चाहिये । इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत बालू सिंह वि0 रंजीत 1996(1) डब्ल्यू.एन. 78 अवलोकनीय है।

    इस प्रकार विधिक स्थिति यह स्पष्ट होती है कि जहाॅ वादग्रस्त सम्पत्ति की पहचान का विवाद हो या पक्षों के मध्य सम्पत्ति के सीमांकन का विवाद हो या अतिक्रमण का मामला हो या दोनों पक्षों द्वारा स्वीकृत मानचित्र अभिलेख पर न हो या मौखिक साक्ष्य के आधार पर विवाद तय किया जाना सम्भव न होया वादग्रस्त सम्पत्ति इस प्रकृति की हो कि उसके बारे में मौखिक साक्ष्य से न्यायालय के समक्ष उसकी स्थिति स्पष्ट न की जा सकती हो वहाॅ स्थानीय अन्वेषण हेतु कमीशन जारी करने का आवेदन स्वीकार किया जाना चाहिये।

        3. कब कमीशन जारी करना उचित नहीं है

1.    जहाॅं न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न हो कि कौन पक्षकार अचल सम्पत्ति के आधिपत्य में है वहाॅ उसका निराकरण अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर किया जाना चाहिये कमिश्नर नियुक्त नहीं करना चाहिये। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत बाबू खान वि0 कप्तानसिंह 1980(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 261 अवलोकनीय है जिसमें यह भी कहा गया है कि न्यायालय किसी विवादित विषय का विचारण कमिश्नर को नहीं सौंप सकते जिसका विचारण करने के लिये वे बाध्य हैं।

न्याय दृष्टांत उक्त लक्ष्मण वि.रामसिंह 1992 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 255 कन्हैयालाल वि0 पार्वतीबाई 1993 (2) डब्ल्यू.एन. 184 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि कौन पक्षकार सम्पत्ति के आधिपत्य में है इसके निरीक्षण के लिये कमिश्नर जारी नहीं करना चाहिये।

2.    न्याय दृष्टांत आशुतोष दुबे वि0 तिलक गृह निर्माण सहकारी समिति मर्यादित भोपाल 2004 (2) एम.पी.एच.टी. 14 के अनुसार साक्ष्य संग्रहित करने के लिये कमीशन जारी नहीं किया जाना चाहिये।

    न्याय दृष्टांत सूर्यभान सिंह वि0 स्टेट आॅफ एम.पी. 2006(3)एम.पी.डब्ल्यू.एन.42 के अनुसार भी कमिश्नर साक्ष्य एकत्रित करने के लिये नहीं बल्कि विवाद के विशदीकरण के लिये नियुक्त किया जा सकता है।

3.    जहाॅ वादग्रस्त सम्पत्ति की पहचान सीमाएं अतिक्रमण की स्थिति मौखिक साक्ष्य से स्पष्ट रूप से स्थापित की जा सकती हो वहाॅ भी कमिश्नर नियुक्त नहीं करना चाहिये।

    न्याय दृष्टांत हरीशंकर वि0 श्रीलाल 1993 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.144 के अनुसार जहाॅ विवादित बिन्दु साक्ष्य द्वारा तय किया जाना अपेक्षित हो वहाॅ कमीशन नियुक्त नहीं किया जा सकता।

4.    किसी पक्षकार के मामले की कमी की पूर्ति के लिये भी कमीशन जारी नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत गीता मंदिर ट्रस्ट वि0 रामचन्द्र 1988 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.203 अवलोकनीय है।

5.    विद्यालय के संचालन की देखरेख के लिये कमिश्नर नियुक्त करना उचित नहीं माना गया। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत जे.के.बोर्ड आॅफ स्कूल ऐजुकेशन वि. दीवान बद्रीनाथ विद्या मंदिर ए.आई.आर. 1994 (2) जे.के. 16 डी.बी. अवलोकनीय है।

6.    जहाॅ मौके की स्थिति स्पष्ट हो वहाॅ कमीशन का जारी न किया जाना उचित माना गया। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत महेन्द्र कुमार वि0 मूलचंद्र 1994(2) डब्ल्यू. एन. अवलोकनीय है।

        इस प्रकार विधिक स्थिति यहस्पष्ट होती है कि साक्ष्य संग्रहित करने के लिये या कौन पक्ष अचल संपत्ति के आधिपत्य में है यह पता लगाने के लिये या किसी पक्षकार के मामले की कमी को पूरा करने के लिये या जहाॅ मौके की स्थिति स्पष्ट हो या जहाॅ तथ्य ऐसे हो जो मौखिक साक्ष्य से प्रमाणित किये जा सकते हो वहाॅ कमीशन जारी नहीं करना चाहिये।

            4.   स्वप्रेरणा से कमिश्नर की नियुक्ति

    न्यायालय उचित मामलों में किसी पक्षकार के आवेदन के बिना भी स्वप्रेरणा से कमिश्नर नियुक्त कर सकते हैं इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत हरीचरण वि. घनश्यामदास 1988 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 23, चुन्नीलाल वि.सुन्दरलाल 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 278, जसवंत वि0 दीनदयाल 2011(2) एम.पी.एल.जे. 576 अवलोकनीय है।

            5.     किसे कमिश्नर नियुक्त किया जाये

        न्यायालय को स्वयं स्थानीय अन्वेषण करने से विरत रहना चाहिये। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार भी न्यायाधीश को स्वयं कमिश्नर नहीं बनना चाहिये। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत मनिन्द्र कुमार राय वि. परेश चंद्र डे ए.आई.आर. 1971 असम 127 डी0बी0 अवलोकनीय है।

        आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी. में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि न्यायालय जिस व्यक्ति को उचित समझे उसे कमीशन जारी कर सकते हैं परन्तु राज्य सरकार ने यदि इस बारे में नियम बना रखे हैं तब न्यायालय ऐसे नियमों से आबद्ध होते हैं।

        मध्यप्रदेश सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में नियम बनाये गये हैं जो नियम अधिसूचना क्रमांक 29566-4315/21-ख/मध्यप्रदेश राजपत्र भाग 4 (ग) दिनांक 14.0.9.1992 पृष्ठ क्रमांक 611 पर प्रकाशित हुये हैं चूंकि ये नियम आसानी से पुस्तकों में नहीं मिलते हैं इसलिये इसका उल्लेख यहाॅं किया जा रहा है।

1.   (1)    ये नियम मध्यप्रदेश स्थानीय अन्वेषण हेतु कमीशन नियम कहे जाएंगे

        (2)    इनका विस्तार समस्त मध्यप्रदेश में होगा,

2.    इन नियमों में जब तक सन्दर्भ से अन्यथा नहीं हो:-
   
      (क)    ‘‘ संहिता ‘‘ का अर्थ सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 से होगा।

     (ख) ‘‘ कमीशन‘‘ का अर्थ सिविल प्रकिया संहिता की प्रथम अनुसूची के आदेश         26 नियम 9 के अधीन निकाले जाने वाले कमीशन से होगा।
     (ग)  ‘‘ राजस्व अधिकारी‘‘ का अर्थ तहसीलदार व नायब तहसीलदार से होगा         और उसमें राजस्व लिपिक, मापक एवं पटवारी सम्मिलित होंगे।

    राजस्व अधिकारी जिनकेनाम कमीशन निकाला जा सकेगा

3.    संहिता की प्रथम अनुसूची के आदेश 26 नियम 9 में उल्लेखित किसी कार्य हेतु जब न्यायालय किसी वाद या कार्यवाही में स्थानीय अन्वेषण किया जाना अपेक्षित एवं उचित समझे तो वे अपनी स्थानीय अधिकारिता में ऐसा अन्वेषण करने के लिये किसी राजस्व अधिकारी के नाम कमीशन निकाल सकेंगे।

    परन्तु यह कि किसी विशेष कारण से जो विलिखित किये गये हों ऐसा कमीशन अपनी स्थानीय अधिकारिता के बाहर, स्थानीय अन्वेषण के लिये किसी राजस्व अधिकारी के नाम निकाल सकंेगे।

4.    ऐसा कमीशन उस जिले के कलेक्टर के मार्फत निकाला जावेगा जिसके अधीनस्थ वह राजस्व अधिकारी हो और कलेक्टर को उसे राजस्व अधिकारी के नाम आवश्यक स्थानीय अन्वेषण करने हेतु पृष्ठांकित करेगा।

5.    अगर कलेक्टर का यह मत हो कि वह राजस्व अधिकारी सरकार के हित को ध्यान में रखते हुये ऐसा स्थानीय अन्वेषण नहंीं कर सकेगा तब वेअपना मत कमीशन पर पृष्ठांकित कर प्रेषित करने वाले न्यायालय को वापिस कर देंगे। उनका मत निश्चायक रूप से स्वीकार किया जावेगा कि उस राजस्व अधिकारी की सेवा उपलब्ध नहीं है।

6.        1. इन नियमों के अधीन जिस राजस्व अधिकारी के नाम कमीशन निकाला         गया है, वह मध्यप्रदेश यात्रा भत्ता नियमों के अधीन यात्रा एवं दैनिक             भत्ता प्राप्त करने का अधिकारी होगा। 
         2. न्यायालय द्वारा स्थानीय अन्वेषण के कार्य के लिये नियत की गई फीस         में भी आधी फीस सरकार को जमा की जावेगी ।
        3. कार्य की प्रकृति, स्थानीय अन्वेषण में लगने वाले अनुमानित दिन एवं         दैनिक भत्ते के अतिरिक्त जब खर्च राजस्व अधिकारी का उस समय             होगा, जबकि वह स्थानीय अन्वेषण करेगा, जो ध्यान में रखकर फीस             नियत की जावेगी।
        4. कमीशन निकालने के पूर्व न्यायालय ऐसे पक्षकार या पक्षकारों से             और ऐसे अनुपात में जैसा वे उचित समझे, यात्रा भत्ता एवं फीस             न्यायालय में जमा करवाएंगे। 
        5. कमीशन का निष्पादन पूर्ण होने पर राजस्व अधिकारी अपनी लिखित         रिपोर्ट एवं जितनी दूरी उसने यात्रा कीथी का विवरण वापिस करेगा तब         न्यायालय उसकी जैसी उचित समझे जांच करने पश्चात् उस नियम के         अनुसार गणित कर निश्चित किया गया यात्रा भत्ता एवं उसके हिस्से की         फीस का भुगतान उसे कर देंगे।
        6.  राजस्व अधिकारी इसके अतिरिक्त अन्य कोई यात्रा भत्ता या दैनिक         भत्ता सरकार से प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होगा।

                 राजस्व अधिकारी से भिन्न अन्य अधिकारी
               जिनके नाम कमीशन निकाला जा सकता है

7.        संहिता की प्रथम अनुसूची के आदेश 26 नियम 9 में उल्लेखित किसी कार्य हेतु न्यायालय किसी वाद में स्थानीय अन्वेषण किया जाना अपेक्षित व उचित समझे और न्यायालय से कार्य हेतु राजस्व अधिकारी से भिन्न किसी उच्च अधिकारी के नाम कमीशन निकालना आवश्यक समझे, तब उस कार्यालय के प्रधान से जिसमें वह अधिकारी कार्यरत् हो, अगर उस कार्यालय में वह अधिकारी ही प्रधान हो, तो उस अधिकारी से जिनके अधीनस्थ वह अधिकारी हो, विचार करेगा कि क्या उसकी सेवायें, उस कार्य हेतु उपलब्ध हैं।

8.        1. अगर यह निश्चित हो कि उस अधिकारी की सेवायें उपलब्ध होगी तब         कार्यालय के प्रधान या जिस अधिकारी से विचार किया गया था स्थानीय         अन्वेषण के ऐसे खर्च का आकार विनिश्चित करेंगे, जो कमीशन निकाले         जाने से पूर्व में न्यायालय में जमा कराया जावे।
         2. कार्यालय के प्रधान या ऐसे अधिकारी जिनसे विचार किया था, ऐसे         खर्चे में निम्नलिखित खर्चे का समावेश करेंगे -
        (एक)- उस अधिकारी के पद को ध्यान में रखते हुये यात्रा भत्ते का             अनुमानित आकार, और
         (दो)- स्थानीय अन्वेषण के काम की फीस,
        3. कार्य की प्रकृति स्थानीय अन्वेषण में लगने वाले अनुमानित दिन के         अतिरिक्त जेब खर्च जो अधिकारी का उस समय होगा, जबकि वह             स्थानीय अन्वेषण करेगा, को ध्यान में रखकर फीस नियत की जावेगी।
        4. वह अधिकारी जो कमीशन का निष्पादन करेगा सम्पूर्ण यात्रा भत्ता एवं          आधी फीस प्राप्त करने का हकदार होगा और आधी फीस सरकार में             जमा होगी। वह अधिकारी इससे भिन्न और यात्रा भत्ता या दैनिक भत्ता         सरकार से प्राप्त करने का हकदार नहीं होगा।
        5. कमीशन निकालने के पूर्व न्यायालय ऐसे पक्षकार या पक्षकारों से         और ऐसे अनुपात में जैसा उचित समझे यात्रा भत्ता एवं फीस न्यायालय में जमा     करवाएंगे।

9.    जिस आफीसर के नाम कमीशन निकाला जावेगा वह उस कार्यालय के प्रधान     के मार्फत निकाला जायेगा, जिसके अधीनस्थ अधिकारी कार्यरत् हो, अगर वह     अधिकारी स्वयं कार्यालय का प्रधान हो, तो ऐसे अधिकारी के मार्फत निकाला     जावेगा, जिसके अधीन वह कार्यरत् हो।

    उक्त नियमों को कमीशन जारी करते समय ध्यान में रखना चाहिये और किसी     कमिश्नर नियुक्त करें इसका निर्धारण उक्त नियमों के प्रकाश में करना चाहिये।

    नियम 266 म.प्र.सिविल न्यायालय नियम, 1961 के अनुसार न्यायालय किसी अधिवक्ता या शासकीय अधिकारी या अशासकीय व्यक्ति को कमीशन जारी कर सकती है। शासकीय अधिकारी को कमीशन जारी करते समय उक्त म.प्र.स्थानीय अन्वेषण हेतु कमीशन नियम ध्यान में रखना चाहिये।

    यदि कृषि भूमि हो या ग्रामीण क्षेत्र. की ऐसी भूमि हो जिसका अभिलेख राजस्व विभाग के पास हो, या नजूल भूमि हो उस अनुसार राजस्व अधिकारी को कमीशन जारी किया जाना चाहिये।

    यदि भूमि नगर पालिका क्षेत्र की हो या नगर निगम क्षेत्र की हो तब यथास्थिति नगरपालिका या नगरनिगम के अधिकारी के नाम कमीशन जारी किया जाना उचित हो सकता है।
    कमीशन कार्य की प्रकृति को देखते हुये और उस कार्य के विशेषज्ञ को जारी करना चाहिये।

            6.  कमीशन जारी करनेका प्रक्रम 

        इन मामलों में एक प्रश्न यह भी रहता है कि ऐसा आवेदन किस प्रक्रम पर आना चाहिये। आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी. में ऐसे आवेदन के लिये या कमीशन जारी करने के लिये कोई प्रक्रम नहीं बतलाया है लेकिन आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.के शब्द ‘‘ किसी भी वाद में जिसमें न्यायालय विवाद में के किसी विषय के विशदीकरण‘‘ से स्पष्ट होता है कि विवाद के विषय का विशदीकरण सामान्यतः विचारण के प्रारंभ होने के पूर्व होना चाहिये।

        सामान्यतः ऐसे आवेदन अनुचित विलंब के बिना प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया जाना चाहिये। नियम 264 (2) म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 में आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.के आवेदनपत्र पर विचार करते समय न्यायालय को जिन चीजों कासमाधान करना चाहिये वे बतलाई हैं जो इस प्रकार हैं -

ए.    आवेदन सद्भावनापूर्वक दिया गया है अर्थात् आवेदक का यह आशय नहीं है कि विवाद को लम्बा किया जाये या विपक्षी को अनावश्यक व्यय में डालकर उसे परेशान किया जाये।
बी.    आवेदनपत्र प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है।
सी.    प्रकरण के स्वरूप को देखते हुये स्थानीय अन्वेषण आवश्यक है।
डी.    प्रकरण के महत्व के कारण यह उचित है कि पक्षकारों को इस व्यय में डाला जाये।
ई.    स्थानीय अन्वेषण से ऐसे विलंब की संभावना नही है कि प्राप्त होने वाला लाभ प्रतिसंतुलित  हो जाये।

    नियम 243 (3) म.प्र.सिविल न्यायालय नियम, 1961 में भी कमीशन जारी करने के लिये आवेदन अनुचित व अनावश्यक विलंब के बिना दिया जाना आवश्यक बतलाया गया है और विलंब का पर्याप्त स्पष्टीकरण न होने पर आवेदन निरस्त किया जा सकता है ऐसा भी बतलाया गया है।

    यदि न्यायालय साक्ष्य अभिलिखित करने के पश्चात् कमीशन नियुक्त करते हैं तो न्यायालय को ऐसी कमीशन रिपोर्ट पर भी विचार करना होगा इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत नागाराम वि0 प्रभु 1999 (1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 171 अवलोकनीय है।

    अपील न्यायालय को भी कमीशन जारी करने की शक्तियाॅ होती हैं अतः अपील के प्रक्रम पर भी कमीशन जारी किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत टी.एन.राजशेखर वि. काशीविश्वनाथन ए.आइ.आर. 2005 एस.सी. 3794 अवलोकनीय है।

                7.  कमिश्नर के खर्च

    आदेश 26 नियम 15 सी.पी.सी.के अनुसार न्यायालय कमीशन निकालने से पूर्व कमीशन के व्ययों के लिये युक्तियुक्त राशि नियत समय में जमा करवाने के लिये उस पक्षकार निर्देश दे सकता है जिसकी प्रेेरणा पर या जिसके फायदे के लिये कमीशन जारी किया गया है।

    कमीशन के खर्च नियत करते समय न्यायालय उक्त नियम 6  और नियम 8 म.प्र.स्थानीय अन्वेषण नियम को भी ध्यान में रखना चाहिये।

    नियम 244 म.प्र.सिविल न्यायालय नियम, 1961 को भी कमीशन के खर्च नियत करते समय ध्यान मे ंरखना चाहिये।

        सामान्यतः कमिश्नर को खर्च कार्यवाही पूर्ण हो जाने के पश्चात् ही देना चाहिये और इस सम्बन्ध में नियम 249 म.प्र.सिविल न्यायालय नियम 1961 को ध्यान मे ं रखना चाहिये।

               8. कमीशन की वापसी

        आदेश 26 नियम 18 बी सी.पी.सी.के अनुसार न्यायालय वहतारीख नियत करेगाजिसको या जिसके पूर्व कमीशन निष्पादन के पश्चात् उसको लौटाया जायेगा और इस प्रकार नियत की गई तारीख नहीं बढाई जायेगी। जब तक कि न्यायालय का यह समाधान नहीं हो जाता कि तारीख बढ़ाने के लिये पर्याप्त हेतुक है।

        नियम 246 म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 मे ंभी कमीशन जारी करते समय न्यायालय को उसके लौटाने की एक तिथि नियत करने और आवश्यक होने पर कारण लिखते हुये समय बढ़ाने का प्रावधान है।

            9.   कमीशन के साथ भेजे जाने वाले दस्तावेज 

        नियम 245 म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 के अनुसार न्यायालय ने जिस पक्षकार के आवेदन पर कमीशन जारी किया है उसे निर्देश देना चाहिये कि वादपत्र, लिखित कथन, वादविषय या अन्य सुसंगत दस्तावेज की प्रतिलिपियाॅ प्रस्तुत करें ताकि उन्हें कमीशन के पत्र के साथ भेजा जा सके।

        यदि न्यायालय ने स्वप्रेरणा से कमीशन जारी किया है तब किसी भी पक्ष को ऐसे दस्तावेज पेश करने के लिये निर्देश दे सकता है।

        उक्त दस्तावेजों से कमिश्नर को विवाद को समझने में सुविधा होती है।

                    10.  पक्षकारों को निर्देश

        आदेश 26 नियम 18 सी.पी.सी.के अनुसार न्यायालय कमीशन निकालते समय पक्षकारों को निर्देश देंगे कि वे कमिश्नर के समक्ष स्वयं या अपने अभिकर्ताओं या प्लीडर के माध्यम से उपस्थित रहें।

        यदि पक्षकार या उनमें से कोई उपस्थित नहीं होते हैं तो कमिश्नर उनकी अनुपस्थिति में कार्यवाही कर सकते हैं।

        यदि ऐसा किया जाना सुविधाजनक हो तो, न्यायालय को कमिश्नर के सामने पक्षकारों की उपस्थिति की तिथि कमिश्नर की सुविधा और पक्षकारों की सुविधा से न्यायालय से ही नियत कर देना चाहिये।

            11.  कमिश्नर को निर्देश

        न्यायालय को कमीशन जारी करते समय आदेश में वे बिन्दु स्पष्ट रूप से उल्लेखित करना चाहिये जिन पर कमिश्नर से प्रतिवेदन चाहा है।
        नियम 265 (2) म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 के अनुसार कमिश्नर को उसका प्रतिवेदन उक्त बिन्दुओं तक ही सीमित रखना चाहिये । पक्षकारों के कहने पर भी अन्य बिन्दुओं की जांच नहीं करना चाहिये।

            12.  अनुपूरक कार्यवाहियों के समय कमीशन

        कभी कभी न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न होता है कि क्या अनुपूरक कार्यवाहियों के दौरान या अन्तरवर्ती आवेदनपत्रों के प्रक्रम पर कमीशन जारी किया जा सकता है।

        विधि में ऐसी कोई रोक नहीं है कि अन्तरवर्ती प्रक्रम पर कमीशन जारी नहीं किया जा सकता। अस्थाई निषेधाज्ञा आवेदन के निराकरण के पूर्व भी न्यायालय उचित मामलों में कमीशन जारी कर सकती है।

            13.  कमीशन प्राप्त होने पर प्रक्रिया

        जब स्थानीय निरीक्षण के बाद कमिश्नर का प्रतिवेदन प्राप्त होता है तब न्यायालय को उस पर उभयपक्षों की यदि कोई आपत्ति हो तो पेश करने का एक अवसर देना चाहिये। और यदि कोई आपत्ति पेश होती है तो उन आपत्तियों का निराकरण करके फिर कमिश्नर रिपोर्ट को साक्ष्य में विचार में लेना चाहिये।

        यदि कमिश्नर की रिपोर्ट पर पक्षकार आपत्ति नहीं करते हैं या उसके परीक्षण की प्रार्थना नहीं करते हैं तो उसकी रिपोर्ट साक्ष्य में पढ़ी जायेगी , इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत मांगीलाल वि0 गौरीशंकर ए.आई.आर. 1992 एम.पी. 309 अवलोकनीय है।

        जहाॅं कमिश्नर के प्रतिवेदन पर आपत्ति पेश करने का अवसर देने पर भी आपत्ति पेश नहीं की गई । कमिश्नर रिपोर्ट स्पष्ट थी बाद में आपत्ति नहीं उठाई जा सकती इस सम्बन्ध में न्याय दृष्टांत नेमीचंद्र वि.विष्णु 1995 (1) डब्ल्यू.एन. 196 अवलोकनीय है।

        आदेश 26 नियम 10 (3) सी.पी.सी.के अनुसार जहाॅं न्यायालय किसी कारण से कमिश्नर की कार्यवाही से असंतुष्ट है वहाॅ वह ऐसी अतिरिक्त जांच का निर्देश भी दे सकते हैं जो वे उचित समझे।

        न्यायालय उचित मामलों में नये कमिश्नर भी नियुक्त कर सकती है। लेकिन उसे पूर्व के कमिश्नर प्रतिवेदन को अमान्य करने का कारण देना चाहिये।

        इस तरह जब कभी स्थानीय अन्वेषण के लिये आदेश 26 नियम 9 सी.पी.सी.के तहत आवेदन प्रस्तुत होता है तो उसे उक्त वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुये निराकृत करना चाहिये। 

                        ------
 

Thursday 29 May 2014

न्यायिक अधिकारी की गिरफ्तारी और निरोध के संबंध में कुछ दिशा निर्देश

  न्यायिक अधिकारी के बारे में
     न्याय दृष्टांत देल्ही ज्यूडिसियल सर्विस ऐशोसियेशन तीस हजारी कोर्ट देल्ही विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1991 सुप्रीम कोर्ट 2176 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने न्यायिक अधिकारी की गिरफ्तारी और निरोध के संबंध में कुछ दिशा निर्देश जारी किये है जो निम्नानुसार हैः-
ए.     यदि किसी न्यायिक अधिकारी को किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाना हो तब उसे जिला जज या उच्च न्यायालय को सूचित करते हुये ही गिरफ्तार किया जाये।
बी.     यदि तथ्य और परिस्थितियाँ ऐसी हो की अधिनस्थ न्यायालय के न्यायिक अधिकारी को तत्काल गिरफ्तार किया जाना आवश्यक हो तब एक तकनीकी या औपचारिक गिरफ्तारी प्रभाव में लाई जा सकती हैं।
सी.     गिरफ्तारी की तथ्य की सूचना तत्काल संबंधित जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को भेजी जावे।
डी.     ऐसे गिरफ्तार किये गये न्यायिक अधिकारी को पुलिस थाना नहीं ले जाया जायेगा जब तक की संबंधित जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश इस बावत् पूर्व आदेश व निर्देश न दे दे।
ई.     संबंधित न्यायिक अधिकारी को उसके परिवार के सदस्यों, विधिक सलाहकारों और  जिला एवं सत्र न्यायाधीश सहित अन्य न्यायिक अधिकारीगण से संपर्क करने की तत्काल सुविधा उपलब्ध कराई जायेगी।
एफ.     संबंधित न्यायिक अधिकारी के विधि सलाहकार की उपस्थिति में ही या समान या उच्च रेंक के न्यायिक अधिकारी की उपस्थिति में ही संबंधित न्यायिक अधिकारी का बयान अभिलिखित किया जायेगा या कोई पंचनामा बनाया जायेगा या कोई चिकित्सा परीक्षण कराया जायेगा अन्यथा नहीं।
जी.     संबंधित न्यायिक अधिकारी को हथकड़ी नहीं लगाई जायेगी और यदि परिस्थितिया ऐसी हो तब तत्काल संबंधित जिला एवं सत्र न्यायाधीश को प्रतिवेदन दिया जायेगा और मुख्य न्यायाधीश को भी प्रतिवेदन दिया जायेगा लेकिन पुलिस पर यह प्रमाण भार रहेगा की वह भौतिक गिरफ्तारी और हथकड़ी लगाना आवश्यक हो गया था यह प्रमाणित करे यदि भौतिक गिरफ्तारी और हथकड़ी लगाना न्याय संगत नहीं पाया जाता है तब संबंधित पुलिस अधिकारी दुराचार का दोषी हो सकेगा और प्रतिकर के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी रहेगा।

गिरफ्तारी की विधि और प्रक्रिया एवं उसके अधिकार


एक वयस्क व्यक्ति (पुरूष या स्त्री) और ‘विधि सम्बन्धित निरोध में किशोर की गिरफ्तारी की विधि और प्रक्रिया एवं उसके अधिकार, यदि कोई हो, समझाइयें ?
    
     भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह मौलिक अधिकार है कि उसे उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता सें विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नहीं। लेकिन कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि किसी व्यक्ति पर किसी अपराध को करने का अभियोग लगाया जाता है तब विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुये उसकी गिरफ्तारी आवश्यक होती है ऐसी गिरफ्तारी में उस व्यक्ति के अधिकार, गिरफ्तारी की विधि व प्रक्रिया के बारे में आवश्यक प्रावधानों व वैधानिक स्थिति को समझ लेना आवश्यक होता है तभी भारतीय नागरिकों के उक्त मौलिक अधिकार की रक्षा की जा सकती है।
     न्यायदृष्टांत डी0 के0 बसु विरूद्ध स्टेट आफ वेस्ट बंगाल, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 610 व जोगिन्दर कुमार विरूद्ध स्टेट आफ यू0पी0, ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1349 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किसी व्यक्ति की  गिरफतारी व निरोध के बारे में कई दिशा निर्दैश दिये है जिन्हें अब दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 में संशोधन कर के समावष्टि कर लिये गये है जिन पर हम विचार करेगे।
     धारा 41 बी द0 प्र0 सं0 गिरफ्तारी की प्रक्रिया तथा गिरफ्तार करने वाले अधिकारी के कत्र्तव्य-
     प्रत्येक पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी करते समय -
    (ए)     अपने नाम का सही, दृश्य मान तथा स्पष्ट पहचान धारण करेगा जो कि पहचान को सहज कर सकेगा,
    (बी)     गिरफ्तारी का ज्ञापन तैयार करेगा जो कि -
(1)     कम से कम एक साक्षी द्वारा जो गिरफ्तार किये गये व्यक्ति के परिवार का सदस्य है, या जहा गिरफ्तारी की गई है, उस मोहल्ले का किसी सम्मानीय सदस्य द्वारा अनुप्रमाणित किया जायेगा
(2)     गिरफ्तारी किये गये व्यक्ति द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित किया जायेगा,  तथा
   (सी)     जब तक ज्ञापन उसके परिवार के किसी सदस्य द्वारा अनुप्रमाणित नहीं किया जाता, गिरफ्तारी किये गये व्यक्ति को सूचित करेगा की उसे उसके द्वारा नामित नातेदार या मित्र को उसकी सूचना दिये जाने का अधिकार है।
     धारा 41 सी द0प्र0सं0 जिलों में नियंत्रण कक्ष -
 (1) राज्य सरकार -
    (ए)    प्रत्येक जिले में, तथा 
    (बी)     राज्य स्तर पर, (एक पुलिस नियंत्रण कक्ष स्थापित करेगी।
  (2)     राज्य सरकार प्रत्येक जिले में नियंत्रण कक्ष के बाहर रखे गये नोटिस बोर्ड पर गिरफ्तार किये गये व्यक्तियो के नाम, पते तथा गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारियों के नाम तथा पदनाम प्रदर्शित करवायेगी।
  (3)     राज्य स्तर पर पुलिस मुख्यालय पर नियंत्रण कक्ष समय-समय पर गिरफ्तार किये गये व्यक्ति, अपराध की प्रकृति जिनके लिए उन्हें आरोपित किया गया है, के विवरण एकत्रित करेगा तथा जनसाधारण की सूचना के लिए आकडे रखेगा।
     धारा 46 द0प्र0सं0 गिरफ्तारी कैसे की जायेगी - 
(1) गिरफ्तारी करने में पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति जो गिरफ्तारी कर रहा है, गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति के शरीर को वस्तुतः छूऐगा या परिरूद्ध करेगा, जब तक उसके वचन या कर्म  द्वारा उसने अपने आप को अभिरक्षा में समर्पित न कर दिया हो।
(2)     यदि ऐसा व्यक्ति अपने गिरफ्तार किये जाने का प्रयास का बलात् प्रतिरोध करता है या गिरफ्तारी से बचने का प्रयत्न करता है तो ऐसा पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति  आवश्यक सब साधनों को उपयोग में ला सकता है।
(3)     इस धारा की कोई बात ऐसी व्यक्ति की जिस पर मृत्यु या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का अभियोग नहीं है, मृत्यु कारित करने का अधिकार नहीं देती है।
     न्याय दृष्टांत स्टेट आफ उत्तर प्रदेश विरूद्ध देमन उपाध्याय, ए.आई.आर. 1960 एस.सी. 1125 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय के चरण 12 में धारा 46 के बारे में यह प्रतिपादित किया है कि धारा 46 दं.प्र.सं. एक व्यक्ति को अभिरक्षा में लेने के पूर्व किसी औपचारिकता के बारे में प्रावधान नहीं करती है मुंह से कहे गये शब्द या व्यक्ति की क्रिया पर्याप्त होती है।
     धारा 51 द0प्र0सं0 गिरफ्तार व्यक्ति की तलाशी गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों चाहे वे पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किये गये हो या प्राईवेट व्यक्ति द्वारा धारा 43 द0प्र0सं0 के तहत  गिरफ्तार करके पुलिस को सौपे गये हो, संबंधित पुलिस अधिकारी उस व्यक्ति की तलाशी ले सकते है और पहनने के आवश्यक वस्त्रो को छोड़कर यदि उनके पास कोई वस्तु पाई जाती है तो उसे सुरक्षित अभिरक्षा में रख सकता है और गिरफ्तार व्यक्ति से अभिग्रहित वस्तु की रसीद देने के प्रावधान है ।
     धारा  52 द्र0प्र0.स्र0 आक्रामक आयधु को अभिग्रहणं गिरफ्तार व्यक्ति के पास यदि कोई आक्रामक आयुध पाये जाते है तो उन्हें अभिग्रहित करने के प्रावधान है।
     धारा 55 ए द0प्र0सं0 के अनुसार अभियुकत की अभिरक्षा रखने वाले व्यक्ति का यह कत्र्तव्य होगा कि वह अभियुक्त के स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की युक्तियुक्त देख-रेख करे ।
     धारा 58 दं0प्र0सं0 के अनुसार पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी जिला मजिस्टेट को या उसके ऐसे निर्देश देने पर उपखण्ड मजिस्टेट को, अपने अपने थाने की सीमाओं के भीतर वारण्ट के बिना गिरफ्तार किये अये सब व्यक्तियों कें मामले के रिपोर्ट करेंगे चाहे उन व्यक्तियों की जमानत ले ली गई हो या नहीं।
                    महिलाओं के बारे में विशेष प्रावधान
     उक्त प्रावधानों के साथ-साथ जहां किसी महिला को गिरफ्तार किया जाना हो वहां निम्न प्रावधान भी ध्यान में रखना होते हैः-
     धारा 46 (1) द0प्र0सं0 के परंतुक के अनुसार -
     परंतु यह की जहां किसी स्त्री को गिरफ्तार किया जाता है, जब तक परिस्थितियां विपरित संकेत न दे गिरफ्तारी की मौखिक सूचना पर, अभिरक्षा में उसकी समर्पण की उपधारणा की जायेगी तथा जब तक परिस्थितियां अन्यथा अपेक्षा न करे या जब तक पुलिस अधिकरी महिला न हो तब तक उसको गिरफ्तार करने के लिए पुलिस अधिकारी स्त्री के शरीर का स्पर्श नहीं करेगा।
     धारा 46 (4) द.प्र0सं0 के अनुसार असधारण परिस्थितियों के सिवाय, कोई स्त्री सूर्यास्त के पश्चात और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं की जायेगी और जहां ऐसी असाधारण परिस्थितियां विद्यमान है वहां स्त्री पुलिस अधिकारी, लिखित में रिपोर्ट करके, उस प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुज्ञा प्राप्त करेगी, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर अपराध किया गया है या गिरफ्तारी की जानी है।
     न्यायदृष्टांत शीला बारसे वि0 स्टेट आफ महाराष्ट्र, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 378 में यह प्रतिपादित किया गया है कि महिला अभियुक्त को पुलिस थाने में पृथक लाकप में रखा जाना चाहिए उन्हें  पुरूष अभियुक्त के साथ निरूध नहीं करना चाहिए यदि ऐसा लाकप उपलब्ध न हो तो उन्हें पृथक कमरे में रखना चाहिए।
     न्यायदृष्टांत स्टेट आफ महाराष्ट्र वि0 क्रिश्चियन कम्यूनिटि वेलफेयर काउंसिल आफ इंडिया, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 7 में ये प्रतिपादित किया गया है कि जहां महिला को गिरफ्तार किया जाना हो वहां गिरफ्तार करने वाले प्राधिकारी ऐसे सभी प्रयास करेंगे कि महिला सिपाही उपस्थित रहे लेकिन परिस्थितियों ऐसी हो कि महिला सिपाही उपस्थित न हो या गिरफ्तारी में विलम्ब अनुसंधान को प्रभावित करे तब गिरफ्तार करने वाला अधिकारी कारण अभिलिखित करेगा उसके बाद ही महिला को विधि पूर्ण कारणों से गिरफ्तार कर सकेगा।
     धारा 53  (2) दं.प्र.सं. के अनुसार किसी स्त्री की शारीरिक परीक्षा केवल रजिस्ट्रीकृत महिला चिकित्सा व्यवसायी या उसके पर्यवेक्षण में कराना होती है।
             विधि संबंधित निरोध में किशोर के बारे में
     धारा 10 किशोर न्याय  (बालकों की देख रेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अनुसार जैसे ही विधि संबंधित निरोध में कोई किशोर पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है, उसे विशेष किशोर पुलिस इकाई या पदाभिहित  (क्मेपहदंजमक) पुलिस अधिकारी के प्रभार के अधीन रखा जायेगा जो उस किशोर को बिना कोई समय गवाये और पकड़े गये स्थान से बोर्ड तक लाने में यात्रा में लगे समय को छोड़कर 24 घंटे के भीतर बोर्ड के समक्ष पेश करेंगा,
     परंतु किसी भी दशा में, विधि संबंधित विरोध में कोई किशोर पुलिस लोकअप में नहीं रखा जायेगा या जेल नहीं भेजा जायेगा।
     धारा 10 (2) के तहत राज्य सरकार को इस अधिनियम के संबंध में और किशोर बोर्ड के समक्ष ऐसे व्यक्तियों को पेश करने के संबंध में नियम बनाने की शक्तियाँ दी गई हैं।
     जिसके प्रयोग में राज्य सरकार ने नियम 11 किशोर न्याय  (बालकों की देख रेख और संरक्षण) नियम 2007 बनाया है जिसमें इस संबंध में आवश्यक प्रावधान किये गये हैं। जो निम्नानुसार है:-
                  न्यायिक अधिकारी के बारे में
     न्याय दृष्टांत देल्ही ज्यूडिसियल सर्विस ऐशोसियेशन तीस हजारी कोर्ट देल्ही विरूद्ध स्टेट आफ गुजरात, ए.आई.आर. 1991 सुप्रीम कोर्ट 2176 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने न्यायिक अधिकारी की गिरफ्तारी और निरोध के संबंध में कुछ दिशा निर्देश जारी किये है जो निम्नानुसार हैः-
ए.     यदि किसी न्यायिक अधिकारी को किसी अपराध में गिरफ्तार किया जाना हो तब उसे जिला जज या उच्च न्यायालय को सूचित करते हुये ही गिरफ्तार किया जाये।
बी.     यदि तथ्य और परिस्थितियाँ ऐसी हो की अधिनस्थ न्यायालय के न्यायिक अधिकारी को तत्काल गिरफ्तार किया जाना आवश्यक हो तब एक तकनीकी या औपचारिक गिरफ्तारी प्रभाव में लाई जा सकती हैं।
सी.     गिरफ्तारी की तथ्य की सूचना तत्काल संबंधित जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को भेजी जावे।
डी.     ऐसे गिरफ्तार किये गये न्यायिक अधिकारी को पुलिस थाना नहीं ले जाया जायेगा जब तक की संबंधित जिले के जिला एवं सत्र न्यायाधीश इस बावत् पूर्व आदेश व निर्देश न दे दे।
ई.     संबंधित न्यायिक अधिकारी को उसके परिवार के सदस्यों, विधिक सलाहकारों और  जिला एवं सत्र न्यायाधीश सहित अन्य न्यायिक अधिकारीगण से संपर्क करने की तत्काल सुविधा उपलब्ध कराई जायेगी।
एफ.     संबंधित न्यायिक अधिकारी के विधि सलाहकार की उपस्थिति में ही या समान या उच्च रेंक के न्यायिक अधिकारी की उपस्थिति में ही संबंधित न्यायिक अधिकारी का बयान अभिलिखित किया जायेगा या कोई पंचनामा बनाया जायेगा या कोई चिकित्सा परीक्षण कराया जायेगा अन्यथा नहीं।
जी.     संबंधित न्यायिक अधिकारी को हथकड़ी नहीं लगाई जायेगी और यदि परिस्थितिया ऐसी हो तब तत्काल संबंधित जिला एवं सत्र न्यायाधीश को प्रतिवेदन दिया जायेगा और मुख्य न्यायाधीश को भी प्रतिवेदन दिया जायेगा लेकिन पुलिस पर यह प्रमाण भार रहेगा की वह भौतिक गिरफ्तारी और हथकड़ी लगाना आवश्यक हो गया था यह प्रमाणित करे यदि भौतिक गिरफ्तारी और हथकड़ी लगाना न्याय संगत नहीं पाया जाता है तब संबंधित पुलिस अधिकारी दुराचार का दोषी हो सकेगा और प्रतिकर के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी रहेगा।
              गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकार
     गिरफ्तार व्यक्ति के निम्न अधिकार होते है
 पूछताछ के दौरान अपने पसंद के अधिवकता सें मिलने का अधिकार
     धारा 41 डी दं0 प्र0 सं0 के अनुसार जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है तथा पुलिस द्वारा उससे परिप्रश्न किये जाते है, तो परिप्रशनों के दौरान उसे अपने पंसद के अधिवक्ता से मिलने का हक होगा, पूरे परिप्रश्नों के दौरान नहीं।
     संविधान के अनुच्छेद 22 (1) में भी गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी पसंद के विधि व्यवसायी से परामर्श करने का मौलिक अधिकार दिया  गया है।
गिरफ्तारी के आधार व जमानत के अधिकार के बार में जानने का अधिकार
     धारा 50(1) दं0प्र0सं0 के अनुसार किसी व्यक्ति को वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकरी या अन्य व्यक्ति उस व्यक्ति को उस अपराध की, जिसके लिए वह गिरफ्तार किया गया है पूर्ण विशिष्टियाँ या ऐसी गिरफ्तारी के अन्य आधार तुरंत सूचित करेगा।
     धारा 50(2) दं0प्र0सं0 के अनुसार जहां कोई पुलिस अधिकरी अजमानती अपराध के अभियुक्त व्यक्ति से भिन्न किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है, वहां वह गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को सूचना देगा कि वह जमानत पर छोडे जाने का अधिकार है और वह प्रतिभू का इंतजाम करे।
गिरफ्तारी आदि के बारे में मित्रो और रिशेतेदारों को सूचना का अधिकार
     धारा 50 ए (1) दं0प्र0सं0 के अनुसार इस संहिता के अधीन कोई गिरफ्तारी करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकरी या अन्य व्यक्ति ऐसी गिरफ्तार या उस स्थान के बारे में जहां गिरफ्तार किया गया व्यक्ति रखा जा रहा है, जानकारी उसके मित्रों, नातेदारों या ऐसे अन्य व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किये गये व्यक्ति द्वारा ऐसी जानकारी देने के प्रयोजन के लिए प्रकट या नामर्निदिष्ट किया जाये, उसको तुरंत देगा ।
     धारा 50 ए (2) के  अनुसार पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को, जैसे ही वह पुलिस थाने में लाया जाता है उपधारा 1 के अ धीन उसके अधिकारों के बारे में सूचित करेगा ।
     धारा 50 ए (3) के अनुसार इस तथ्य की प्रविष्टि की ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी की सूचना किसे दी गई है, राज्य सरकार द्वारा विहित प्रारूप में रखी जाने वाली पुस्तक में की जायेगी।
     धारा 50 ए(4) के अनुसार उस मजिस्टेट का जिसके समक्ष ऐसे गिरफ्तार किया गया व्यक्ति, पेश किया जाता है, यह कत्र्तव्य होगा कि वह अपना समाधान करे कि उपधारा (2), (3) की अपेक्षाओं का पालन किया गया है ।
गिरफ्तारी से 24 घंटे से अधिक निरूध न करने संबंधी अधिकार
     धारा 56 दं0प्र0सं0 के अनुसार वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने वाल पुलिस अधिकारी अनावश्यक विलंब के बिना और जमानत के संबंध में आवश्यक प्रावधानों के अधीन रहते हुये जो गिरफ्तार किया गया है उस मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष या किसी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी के समक्ष ले जायेगा या भेजेगा।
     धारा 57 दं0प्र0सं0 1973 के अनुसार कोई पुलिस अधिकारी वारण्ट के बिना गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को उससे अधिक अवधि के अभिरक्षा में निरूध नहीं रखेगा जो उसक मामले की सब परिस्थितियों में उचित है तथा ऐसी अवधि, मजिस्टेट के धारा 167 के अधीन विशेष आदेश के अभाव में गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्टेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोडकर 24 घंटे से अधिक की नहीं होगी।
     संविधान के अनुच्छेद 22 (2) में भी इस संबंध में प्रावधान है की गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोडकर ऐसी गिरफ्तारी से 24 घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्टेट के समक्ष पेश किया जायेगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरूध नहीं रखा जायेगा।
                            हथकड़ी के बारे में
     न्यायदृष्टांत प्रेम चंद शुक्ला वि0 दिल्ली एडमिनिस्टेशन ए.आइ.आर. 1980 एस.सी.1535 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विचाराधीन बंदियों को जेल से न्यायालय तक लाने या न्यायालय से जेल तक ले जाने तक हथकडी नहीं लगाई जाना चाहिए। बंदी की अभिरक्षा के लिए उत्तरदायी अधिकारी को प्रत्येक बंदी के मामले पर विचार करके यह निश्चय करना चाहिए कि कया बंदी ऐसा व्यक्ति है जिसकी परिस्थितियां या जिसका आचरण व्यवहार और चरित्र को ध्यान में रखते हुये यह माना जा सकता हे कि वह भागने का प्रयत्न करेगा या शंति भंग करेगा इसी सिद्धांत को ध्यान में रख कर बंदी को हथकडी लगाने या न लगाने का के बारे में विनिश्चय करना चाहिए।
                                 मेडिकल परीक्षण का अधिकार
     धारा 54 (1) दं0प्र0सं0 के अनुसार जब किसी व्यक्ति को  गिरफ्तार किया जाता है, तब गिरफ्तार किये जाने के तुरंत बाद उसका केन्द्रीय या राज्य सरकार की सेवा में चिकित्सा अधिकारी द्वारा या उसके उपलब्ध न होने पर पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षण किया जायेगा,
     परंतु जहां गिरफ्तार व्यक्ति महिला है तो उसके शरीर का परीक्षण महिला चिकित्सा अधिकारी या उसके पर्यवेक्षण में या उसके उपलब्ध न होने पर महिला पंजीकृत चिकित्सा व्यवसायी द्वारा किया जायेगा ।
     धारा 54 (2) के अनुसार परीक्षण करने वाला अधिकारी गिरफ्तार किये गये व्यक्ति पर किसी क्षति या हिंसा के चिन्ह और उनके कारित होने का लगभग समय उल्लेख करते हुये अभिलेख तैयार करेगा ।
     धारा 54 (3) के अनुसार परीक्षण प्रतिवेदन के एक परत गिरफ्तार किये गये व्यक्ति के या उसके द्वारा नामित व्यक्ति को दी जायेगी।
पोलीग्राफ टेस्ट, नारको टेस्ट या ब्रेन फिंगर प्रिंटिंग टेस्ट के बारे में अधिकार
     न्याय दष्टांत श्रीमति सैलवी विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटक, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1974 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि स्वयं को अपराध में फसाने के विरूद्ध संरक्षण अभियुक्त को अनुसंधान के अवस्था में भी प्राप्त होता है बल्कि संदिग्ध और अपराध के गवाह को भी यह संरक्षण प्राप्त होता है अतः किसी व्यक्ति को पोलीग्राफ टेस्ट या नारको टेस्ट या ब्रेन फिंगर प्रिंट टेस्ट के लिए कहना संविधान के अनुच्छेद 20 (3) एवं 21 के तहत् निजता के अधिकार का उलंघन है ये जांचे धारा 53 ए एवं 54 दं.प्र.सं. के क्षेत्र में नहीं आती हैं परंतु न्यायिक मजिस्टेट के सामने संबंधित व्यक्ति की सहमति अभिलिखित करने के पश्चात ऐसे टेस्ट करवाये जा सकते है और वह धारा 27 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत स्वीकार किये जा सकते हैं।
आवश्यक मामलों में ही गिरफ्तारी का अधिकार
     किसी भी व्यक्ति को पुलिस धारा 41 एवं धारा 42 दं.प्र.सं. में वर्णित परिस्थितियाँ होने पर ही गिरफ्तार कर सकती हैं।
     धारा 41 ए दं.प्र.सं. के अनुसार यदि मामला धारा 41 दं.प्र.सं. में नहीं आता है तब पुलिस अधिकारी का यह कत्र्तव्य है कि अभियुक्त को सूचना पत्र देगा और सूचना पत्र में उपस्थिति का स्थान और समय स्पष्ट किया जायेगा और यदि अभियुक्त सूचना पत्र की पालना में उपस्थित नहीं होता है केवल तभी उसे गिरफ्तार किया जा सकेगा अन्यथा नहीं। 
                                          विविध तथ्य 
     धारा 53 दं.प्र.सं. में गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी की प्रार्थना पर अभियुक्त के चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षण करने के प्रावधान है जिसके अनुसार यदि पुलिस अधिकारी के पास यह विश्वास करने के उचित आधार होते है कि गिरफ्तार व्यक्ति की शारीरिक परीक्षा से अपराध किये जाने के बारे में साक्ष्य मिल सकती है तब उप निरीक्षण या उससे उपर की पंक्ति का पुलिस अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति का शारीरिक परीक्षण करवा सकता है।
     न्याय दृष्टांत संजीव नंदा विरूद्ध स्टेट आफ एन.सी.टी. देल्ही, 2007 सी.आर.एल.जे. 3786 में माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि धारा 53 दं.प्र.सं. पुलिस अधिकारी के निवेदन पर अभियुक्त के चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षण का प्रावधान करती है न्यायालय भी ऐसी शक्तियों का प्रयोग उचित मामले में कर सकते है और अभियुक्त को उसके रक्त का नमूना देने के लिए निर्देश कर सकते है चाहे अभियुक्त जमानत पर हो।
     धारा 53ए दं.प्र.सं. में बलात्संग के अपराधी व्यक्ति की चिकित्सा व्यवसायी द्वारा परीक्षा करवाने के प्रावधान है।
     न्याय दृष्टांत कृष्ण कुमार मलिक विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा, (2011) 7 एस.सी.सी. 130 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि धारा 53 ए दं.प्र.सं. के प्रावधानों के प्रकाश में अभियोजन के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अभियोक्त्री के वस्त्रों पर पाये गये शिमन और अभियुक्त के शिमन के मिलान या डी.एन.ए. टेस्ट उचित मामले में करवावे।
     जब भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके किसी मजिस्टेट या न्यायाधीश के समक्ष पेश किया जाता है तो उसे इस बात का समाधान करना चाहिये कि गिरफ्तारी उक्त प्रावधानों के अनुसार की गई है साथ ही अभियुक्त के संविधान द्वारा एवं दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 द्वारा दिये गये उक्त अधिकारों का हनन तो नहीं हुआ है और यदि ऐसा पाया जाता है तब उचित वैधानिक कार्यवाही भी की जाना चाहिए।

(पी.के. व्यास)
विशेष कत्र्तव्यस्थ अधिकारी
न्यायिक अधि. प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान
उच्च न्यायालय जबलपुर म.प्र.



आयुध अधिनियमए 1959

                        आयुध अधिनियमए 1959


इस अधिनियम में धारा 2 के कुछ परिभाषाए धारा 3 एवं 4 धारा 25 धारा 38 धारा 39 मुख्य रूप से दिन प्रतिदिन के लिए उपयोगी होती है जिन्हें समझना आवश्यक है।
1- धारा 2 बी आयुध अधिनियम में ष्ष्गोला बारूदष्ष् या ।उनदंजपवद की परिभाषा दी गई है जिसके अनुसाररू.
गोला बारूद से किसी अग्न्यायुध या फायर आर्म अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत .
1- राकेटए बमए ग्रेनेडए गोला और अन्य अस्त्रए
2- टारपीडो को काम लाने और अन्तःसमुद्री सुरंगें बिछाने के लिए वस्तुए
3- विस्फोटकए स्फूर्जनकारी या विखण्डनीय सामाग्री या अपायकर द्रवए गैस या अन्य ऐसी चीज को रखने वाली वस्तुए चाहे वे फायर आर्म के रूप में उपयोग के योग्य हो या होए
4- अग्न्यायुधों के लिए भरण या चार्ज और ऐसे भरणों या चार्ज के लिए उप साधन या एसेसारिजए
5- फ्यूजेस और घषर्ण नलिकाएंए
6- गोला बारूद के संघटक और उसके निर्माण के लिए मशीनरीए
7- गोला बारूद के ऐसे संघटक जिन्हें केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा इस निमित विनिर्दिष्ट करें।
2- धारा 2 सी आयुध अधिनियम के अनुसार आयुध या आर्मस से तात्पर्य आक्रमण या प्रतिरक्षा के लिए शस्त्रों के रूप में डिजाईन या अनुकूलित किसी भी वर्णन की वस्तुए और अग्न्यायुधए तीखे धार वाले और अन्य घातक शस्त्रए आयुधों के भाग और उनके विनिर्माण के लिए मशीने आती है किन्तु केवल धरेलू या कृषि उपयोगों के लिए डिजाईन वस्तुए जैसे लाठी या मामूली छड़ी या वे शस्त्र जो खिलोनो से भिन्न रूप में उपयोग में लाये जाने के या काम के शस्त्रों में परिवर्तित किये जाने के लिए अनुपयुक्त हो इसके अंतर्गत नहीं आते है।
3- धारा 2 डी आयुध अधिनियम के अनुसार जिला मजिस्टेª में किसी ऐसे क्षेत्र के संबंध में जिसके लिए पुलिस कमीश्नर नियुक्त किया गया हो उस क्षेत्र का पुलिस कमीश्नर आता है या किसी ऐसे भाग पर अधिकारिता का प्रयोग करने वाला उप पुलिस आयुक्त या डिप्टी कमीश्नर जिसे राज्य सरकार ने ऐसे क्षेत्र या भाग के संबंध में विनिर्दिष्ट किया हो आते है।
4- धारा 2 आयुध अधिनियम के अनुसार अग्न्यायुध या फायर आर्मस से किसी विस्फोटक या अन्य प्रकारों की ऊर्जा की क्रिया से किसी भी प्रकार के प्रोजेक्टिल को चलाने के लिए डिजाईन या अनुकूलित किसी भी वर्णन के शस्त्र आते है तथा:-
1- तोपेए हथ गोलेए रायट.पिस्तोलों या किसी भी अपायकर द्रवए गैस या अन्य ऐसी चीज को छोड़ने के लिए डिजाईन या अनुकूलित किसी भी प्रकार के शस्त्रए
2- किसी भी ऐसे अग्न्यायुध को चलाने से हुई आवाज या चमक को कम करने के लिए डिजाईन या अनुकूलित उसके उप साधन या एसेसारिज।
3- अग्न्यायुधों के भाग और उन्हें बनाने के लिए मशीनरी।
4- तोप को चलानेए उनका परिवहन करने और उन्हें काम में लाने के लिए गाडियाए मंच और आर्टीलरी आते है।
5- धारा 2 एच आयुध अधिनियम के अनुसार ष्ष्प्रतिषिद्ध गोला बारूदष्ष् से किसी भी अपायकर द्रवए गैस या अन्य ऐसी चीज को अंतरविष्ट रखने वाला या अंतरविष्ट रखने के लिए डिजाईन या अनुकूलित कोई भी गोला बारूद अभिप्रेत है और राकेटए बमए ग्रेनेडए गोलाए अस्त्रए टारपीडो को काम में लाने और अतःसमुद्री सुरंगे बिछाने के लिए डिजाईन वस्तुए और ऐसी अन्य वस्तुए जिन्हें केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा प्रतिषिद्ध गोला बारूद होना विनिर्दिष्ट करें इसके अंतर्गत आते है।
6- धारा 2 आई आयुध अधिनियम के अनुसार प्रतिषिद्ध आयुधों के अंतर्गतरू.
1- वे अग्न्यायुध या फायर आर्म जो इस प्रकार डिजाईन या अनुकूलित हो कि यदि घोड़े या ट्रिगर पर दबाव डाला जाएए तो जब तक दबाव ट्रिगर पर से हटा लिया जाएए या अस्त्रों को अंतरविष्ट रखने वाला मैगनीज खाली हो जाएए अस्त्र छूटते रहे अथवा
2- किसी भी वर्णन के वे शस्त्र जो किसी भी अपायकरए द्रवए गैस या ऐसी ही अन्य चीजों को छोड़ने के लिए डिजाईन या अनुकूलित हो अभिप्रेत हैए और इनके अंतर्गत तोपेए वायुयान भेदी और टेंक भेदी अग्न्यायुध और ऐसे अन्य आयुध आते है जैसे केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा प्रतिषिद्ध आयुध होना विनिर्दिष्ट करें।
7- धारा 3 आयुध अधिनियम में फायर आर्मस और एम्यूनेशन के अर्जन और कब्जे के लिए अनुज्ञप्ति के बारे में प्रावधान है। धारा 3 (1) के अनुसार कोई भी व्यक्ति कोई अग्न्यायुध या गोला बारूद अर्थात फायर आर्म या एम्यूनेशन तब तक तो अर्जित करेगा अपने कब्जे में रखेगा और ले कर चलेगा जब तक की इस अधिनियम और इसके अंतर्गत बनाये गये नियमों के अनुसार जारी अनुज्ञप्ति उसके पास होए
परंतु कोई व्यक्ति स्वयं अनुज्ञप्ति धारित किये बिना किसी अग्न्यायुध या गोला बारूद को मरम्मत के लिए या अनुज्ञप्ति के नवीनीकरण के लिए या ऐसे अनुज्ञप्ति के धारक द्वारा उपयोग में लाये जाने के लिएए उस अनुज्ञप्ति के धारक की उपस्थिति में या उसके लिखत प्राधिकार के अधीन लेकर वहन कर सकेगा।
धारा 3 (2)के अनुसार उप धारा 1 में उल्लेखित किसी बात के होते हुये भी कोई व्यक्ति जो उप धारा 3 में उल्लेखित व्यक्ति से भिन्न है किसी भी समय 3 अग्न्यायुधों या फायर आर्मस से अधिक तो अर्जित करेगा अपने कब्जे में रखेगा और लेकर चलेगाए
परंतु ऐसा व्यक्ति जिसके कब्जे में आयुध संशोधन अधिनियमए 1983 के प्रारंभ पर 3 से अधिक फायर आर्मस हैए अपने पास उनमें से कोई 3 फायर आर्मस प्रतिधारित कर सकेगा और शेष को उक्त अधिनियम के प्रारंभ से 90 दिन के भीतर निकटतम पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी के पास या धारा 21 की उप धारा 1 के प्रयोजन के लिए विहित शर्तो के अधीन रहते हुये किसी अनुज्ञप्त किसी लाईसेंस डीलर के पास अथवा ऐसा व्यक्ति यदि संद्य के सशस्त्र बलों का सदस्य है वहां किसी यूनिट शस्त्रागार में जमा करेगा।
धारा 3 (3) के अनुसार उप धारा 2 की कोई बात फायर आर्म के किसी लाईसेंस डीलर या ऐसे रायफल क्लब या रायफल एसोसियेशन को जो केन्द्र सरकार द्वारा लायसेंस या मान्यता प्राप्त है और निशाना लगाने के अभ्यास के लिए 22 बोर रायफल या हवाई रायफल का प्रयोग करता हैए किसी सदस्य को लागू नहीं होगी।
धारा 3 (4) के अनुसार धारा 21 कि उप धारा 2 से उप धारा 6 के प्रावधान धारा 3 की उप धारा 2 के बारे में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे 21 के उप धारा 2 के अधीन किसी आयुध या गोला बारूद जमा करवाने के संबंध में लागू होते है।
8- धारा 4 आयुध अधिनियम के अनुसार यदि केन्द्रीय सरकार की राय हो की किसी क्षेत्र में मौजूद परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुयेए लोक हित में यह आवश्यक है कि अग्न्यायुधों से भिन्न आयुधों का अर्जनए कब्जे में रखना या वहन विनियमित किया जाना चाहिए तो वह शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकेगी कि अधिसूचना में विनिर्दिष्ट क्षेत्र को यह धारा लागू होगी और उसके बाद कोई भी व्यक्ति ऐसे वर्ग या वर्णिन के आयुध जैसे उस अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किये जाये या उस क्षेत्र में तब तक तो अर्जित करेगा अपने कब्जे में रखेगा या लेकर चलेगा जब तक की वह इस अधिनियम और उसके अंतर्गत बनाये गये नियमों के अनुसार दी गई अनुज्ञप्ति इस निमित धारित करता हो।
धारा 4 की अधिसूचना प्रायः नहीं मिल पाती है जिस कारण कठिनाई होती है धारा 4 की अधिसूचना मध्यप्रदेश के राजपत्र में दिनांक 3 जनवरी 1975 को पेज नंबर 20 पर प्रकाशित हुई है वह अधिसूचना इस प्रकार हैः.

ARMS ACT : POSSESSION OF KNIVES ETC. ILLEGAL

Notification No. 6312-6552-II-B(i) Dated The 22nd November, 1974:
Where as the State Government is of the opinion that having regard to the prevailing conditions in the State of Madhya Pradesh, it is necessary and expedient in the public interest that the acquisition possession and carring of sharp edged weapons with a blade more than 6 inches long 2 inches wide and spring actuated knives with a blade of any size in public place should also be regulated.
Now therefore in exercise of the powers conderred by section 4 of the Arms Act, 1959, (No 54 of 1959) read with the Government of India, Ministy of Home Affairs, Notification No. G.S.R. 1309, dated the 1st October 1962, the State Government hereby directs that the said section shall apply with effect from the date of publication of this Notification in the "Madhya Pradesh Gazette" to the whole of the State of Madhya Pradesh in respect of acquisition, possession or carrying of sharp edged weapons with a baled more than - 6 inches long or 2 inches wide and spring actuated knives with a blade of any size in public places only.
(Published in M.P. Rajpatra Pt. I dtd. 03-01-75 Page 20)

9- धारा 25 आयुध अधिनियम दण्ड के संबध् में महत्वपूर्ण प्रावधान करती है जिसमें मुख्य रूप से धारा 3 और धारा 4 के उल्लंघन संबंधी दण्ड ही दिन प्रतिदिन के न्यायिक कार्य में उपयोगी होता है अतः मुख्य रूप से इन्हीं के बारे में विस्तार से विचार करेंगेः.
धारा 25 (1 बी) के अनुसार जो कोई:-
ए- धारा 3 के उल्लंघन में कोई अग्न्यायुध या गोला बारूद अर्थात फायर आर्मस या एम्यूनेशन अर्जित करेगाए अपने कब्जे में रखेगा या लेकर चलेगा।
बी- धारा 4 के अधीन अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट किसी स्थान में ऐसे वर्ग या वर्णिन के जो उस अधिसूचना में विनिर्दिष्ट कर दिये गये है कोई आयुध या आर्मस उस धारा के उल्लंघन में अर्जित करेगाए अपने कब्जे में रखेगा या लेकर चलेगा।
वह कारावास से जिसकी अवधि 1 वर्ष से कम नहीं होगी किन्तु जो 3 वर्ष तक हो सकेगी दण्डनीय होगा तथा जुर्माने से भी दण्डनीय होगाए
परंतु न्यायालय किन्ही पर्याप्त और विशेष कारणों से जो निर्णय में अभिलिखित किये जायेगेए 1 वर्ष से कम अवधि के कारावास का दण्डादेश अधिरोपित कर सकेगा।
10- धारा 38 आयुध अधिनियम के अनुसार इस अधिनियम के अधीन हर अपराध संज्ञेय होगा।
11- धारा 39 आयुध अधिनियम के अनुसार किसी व्यक्ति के विरूद्ध धारा 3 के अधीन किसी भी अपराध के बारे में कोई भी अभियोजन जिला मजिस्टेª की पूर्व मंजूरी के बिना संस्थित नहीं किया जायेगा।
जमानत के बारे में
12- चूंकि अपराध तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय है अतः दण्ड प्रक्रिया संहिताए 1973 की प्रथम अनुसूची के अनुसार धारा 25 आयुध अधिनियम का अपराध अजमानतीय होता है।
सामान्यतः इन मामलों में अभियुक्त को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये जमानत का लाभ दिया जाना चाहिये जैसे यदि अभियुक्त आदतन अपराधी नहीं है उसके विरूद्ध कोई पूर्व दोषसिद्धि के बारे में कोई तथ्य अभिलेख पर हो तब सामान्यतः इन मामलों में जमानत का लाभ दिया जाता है।
विचारण की विधि
13- इन मामलों में वारंट ट्रायल प्रक्रिया लागू होती है क्योंकि ये वारंट मामले है अतः इन मामलों के विचारण में वारंट मामले प्रक्रिया अपनाना चाहिये।
आरोप के संबंध में
14- आरोप की रचना के समय दण्ड प्रक्रिया संहिताए 1973 की धारा 211 से 224 के प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिये और आरोप पत्र में अपराध किये जाने की तारीखए माहए वर्षए अपराध करने का समय और स्थान का स्पष्ट उल्लेख करना चाहिये।
जब धारा 4 आयुध अधिनियम के उल्लंघन में आयुध या आर्मस रखने का मामला हो तब उक्त अधिसूचना क्रमांक 6312.6552.2.बी (1) दिनांक 22 नवम्बर 1974 के उल्लंघन में आर्मस रखने का उल्लेख आरोप पत्र में अवश्य करना चाहिये।
आरोप पत्र का नमूना
मैं एए बीए सीए न्यायिक मजिस्टे प्रथम श्रेणी तुम आरोपी एक्स पिता वाय पर नीचे लिखे आरोप लगाता हॅ.
1- तुमने दिनांक 02-01-2012 को दिन में 11-00 बजे या उसके लगभग आनंद नगर जबलपुर में अपने आधिपत्य में बिना वैधानिक अनुज्ञप्ति के एक देशी कट्टाध् 12 बोर बंदुक आधिपत्य में रखे और ऐसा करके धारा 3 आयुध अधिनियमए 1959 के प्रावधानों का उल्लंघन किया जो कृत्य धारा 25 (1.बी) (ए) आयुध अधिनियमए 1959 में दण्डनीय अपराध है और जो मेरे प्रसंज्ञान का है और इस न्यायालय द्वारा विचारणीय योग्य है क्या आरोप स्वीकार करते हो या विचारण चाहते हो।

एए बीए सी
न्यायिक मजिस्टे प्रथम श्रेणी जबलपुर
या
मैं एए बीए सीए न्यायिक मजिस्टे प्रथम श्रेणी तुम आरोपी एक्स पिता वाय पर नीचे लिखे आरोप लगाता हॅ.
1- तुमने दिनांक 02-01-2012 को दिन में 11ण्00 बजे या उसके लगभग आनंद नगर जबलपुर में लोक स्थान पर अपने आधिपत्य में बिना वैधानिक अनुज्ञप्ति के एक धारदार तलवार जिसकी लम्बाई 6 इंच से अधिक या चैड़ाई 2 इंच ध्एक खटके दार चाकू आधिपत्य में रखे और ऐसा करके धारा 4 आयुध अधिनियमए 1959 के प्रावधानों के तहत जारी मध्यप्रदेश शासन की अधिसूचना क्रमांक 6312.6552.2.बी (1) दिनांक 22 नवम्बर 1974 राजपत्र में प्रकाशित दिनांक 03-01-1975 पृष्ठ क्रमांक 20 उल्लंघन किया जो कृत्य धारा 25 (1.बी) (बी) आयुध अधिनियमए 1959 में दण्डनीय अपराध है और जो मेरे प्रसंज्ञान का है और इस न्यायालय द्वारा विचारणीय योग्य है क्या आरोप स्वीकार करते हो या विचारण चाहते हो।
एए बीए सी
न्यायिक मजिस्टे प्रथम श्रेणी जबलपुर

न्याय दृष्टांत गुणवंत लाल विरूद्ध स्टेट आफ एमण्पीण्ए एण्आईण्आरण् 1972 एसण्सीण् 1756 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ में यह प्रतिपादित किया गया है कि आरोप पत्र के प्रारूप में दिनांक या उसके पूर्व अर्थात आन आर बीफोर शब्द के बजाय दिनांक या उसके लगभग अर्थात आन आर एबाउट शब्द का प्रयोग करना चाहिये अतः आरोप पत्र के प्रारूप में उक्त न्याय दृष्टांत में प्रतिपादित विधि को ध्यान में रखना चाहिये।
आरोप विरचित करते समय यदि आरोपी अनुपस्थित हो तब न्याय दृष्टांत राज्य विरूद्ध लखन लाल 1960 एमपीएलजे 133 एवं श्रीकृष्ण विरूद्ध राज्य 1991 एमपीएलजे 85 को विचार में लेना चाहिये जिसके अनुसार यदि अभियुक्त अनुपस्थित हो तब भी उसके अभिभाषक के माध्यम से आरोप अस्वीकार करवाया जा सकता है और कार्यवाही आगे बढ़ाई जा सकती है अतः किन्ही अपरिहार्य कारणों से आरोपी यदि अनुपस्थित हो तब भी आरोप विरचित करने की कार्यवाही उसके अभिभाषक के माध्यम से पूर्ण की जा सकती है।
साक्ष्य के समय हथियार की प्रस्तुती
15- सामान्यतः इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिये कि जब्तीकर्ता की साक्ष्य के समय हथियार को मालखाना से बुलवाना चाहिये और उस पर आर्टीकल डलवाना चाहिये एक दिन पहले ही ऐसे प्रकरणों को देख लेना चाहिये और मालखाना नाजिर को मालखाना वस्तु अगले दिन प्रातः 11-00 बजे प्रस्तुत करने के निर्देश देना चाहिये।
किसी दिन नियत साक्ष्य के प्रकरणों को एक दिन पहले ही देख लेने की आदत विकसित कर लेना चाहिये ताकि जिन प्रकरणों में साक्ष्य के दौरान मालखाना वस्तु बुलवाना है उसके बारे में एक दिन पहले ही मालखाना नाजिर को निर्देशित किया जा सके मालखाना वस्तुओं पर साक्ष्य के दौरान प्रदर्शन अंकित हो सके ताकि इस संबंध में निर्णय के समय कोई कठिनाई हो।
न्याय दृष्टांत काले बाबू विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2008 (4) एमपीएचटी 397 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जब्त आर्टीकल को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं करने से अभियोजन कहानी उसके महत्व को खो देती है और आरेपी दोषमुक्ति का हकदार होता है।
इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिये की साक्ष्य में मालखाना वस्तु बुलवाकर प्रदर्शित की जाये।
रोजनामचा के बारे में
16- जब्तीकर्ता की साक्ष्य के समय कार्यवाही दिनांक का रोजनामचा अवश्य बुलवाना चाहिये साक्ष्य में प्रमाणित करवाना चाहिये। जब्तीकर्ता को गवाह संमन करते समय संबंधित थाने से कार्यवाही दिनांक का रोजनामचा बुलाये जाने के निर्देश भी दे देने चाहिये।
अभियोजन चलाने की अनुमति के बारे में
17- अभियोजन चलाने की अनुमति कई बार जिला मजिस्टेª के स्थान पर अतिरिक्त जिला मजिस्टे द्वारा दी होती है और तब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसी अनुमति वैधानिक नहीं है इस संबंध में आर्मस रूल्स 1962 का नियम 2 (एफ) (2) अवलोकनीय है जिसके अनुसार जिला मजिस्टे में उस जिले का अतिरिक्त जिला मजिस्टेª या अन्य अधिकारी जिसे राज्य सरकार ने विशेष रूप से सशक्त किया हो शामिल होते है। न्याय दृष्टांत विजय बहादुर उर्फ बहादुर विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2002 (4) एमपीएचटी 167 भी इसी संबंध में अवलोकनीय है जिसमें उक्त नियम की व्याख्या की गई है और यह प्रतिपादित किया गया है कि अतिरिक्त जिला मजिस्टे द्वारा दी गई मंजूरी उक्त नियम के तहत वैध मंजूरी है प्रतिरक्षा के तर्को को अमान्य किया गया अतः जब कभी विचारण के दौरान उक्त स्थिति उत्पन्न हो तभी यह ध्यान रखना चाहिये की जिला मजिस्टेª में अतिरिक्त जिला मजिस्टेª और अन्य अधिकारी यदि राज्य सरकार द्वारा सशक्त किया गया हो तो वह भी शामिल होता है।
18- कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि संबंधित जिला मजिस्टे को अभियोजन चलाने की अनुमति प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य में प्रस्तुत नहीं किया गया है इस संबंध में न्याय दृष्टांत माननीय सर्वोच्च न्यायालय का स्टेट आफ एमपी विरूद्ध जीया लाल आईएलआर (2009) एमपी 2487 अवलोकनीय है जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति का आदेश स्पष्ट रूप से जिला मजिस्टेª में उसके पदीय कत्र्तव्य के निर्वहन के दौरान जारी किया इस लिए यह उपधारणा की जायेगी की यह कार्य सद्भाविक तरीके से किया गया है जिला मजिस्टे को गवाह के रूप में परिक्षित कराया जाना अभियोजन के लिए आवश्यक नहीं है। यह न्याय दृष्टांत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियमए 1988 पर आधारित है लेकिन अभियोजन चलाने की अनुमति के संबंध में इससे मार्गदर्शन लिया जा सकता है और जो वैधानिक स्थिति उक्त अधिनियम के बारे में प्रतिपादित की गई है वहीं आयुध अधिनियम के बारे में भी समान रूप से लागू होती है।
19- न्याय दृष्टांत स्टेट विरूद्ध नरसिम्हाचारी एआईआर 2006 एससी 628 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति एक लोक दस्तावेज होता है और इसे धारा 76 से 78 भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बतलाये तरीके से प्रमाणित किया जा सकता है न्याय दृष्टांत शिवराज सिंह यादव विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2010 (4) एमपीजेआर 49 डीबी में माननीय 0प्र0 उच्च न्यायालय ने अभियोजन चलाने के आदेश को एक लोक दस्तावेज माना है और उसका प्रस्तुत किया जाना ही उसका प्रमाणित होना माना जायेगा अनुमति देने वाले अधिकारी का परीक्षण करवाना आवश्यक नहीं होगा यह प्रतिपादित किया है।
20- न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एमपी विरूद्ध हरिशंकर भगवान प्रसाद त्रिपाठी (2010) 8 एससीसी 655 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति देते समय संबंधित अधिकारी के लिए यह आवश्यक नहीं है की वह आदेश में यह इंडिकेट करे की उसने व्यक्तिगत रूप से संबंधित पत्रावली की छानबीन की है और यह संतोष किया है की अनुमति देनी चाहिये।
21- न्याय दृष्टांत सीएस कृष्णामूर्ति विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटका (2005) 4 एससीसी 81 में यह प्रतिपादित किया गया है कि तथ्य जो अपराध गठित करते है वे अनुमति आदेश में रिफर किये गये अभियोजन के लिए यह प्रमाणित करना आवश्यक नहीं है कि सारी सामाग्री अनुमति देने वाले अधिकारी के सामने रखी गई थी।
हलाकि उक्त सभी न्याय दृष्टांत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियमए 1988 पर आधारित है लेकिन अनुमति से संबंधित होने से इनसे मार्गदर्शन लिया जा सकता है।
न्याय दृष्टांत गुरूदेव सिंह उर्फ गोगा विरूद्ध स्टेट आफ एमपी आईएलआर (2011) एमपी 2053 में माननीय 0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्ड पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि अभियोजन चलाने की मंजूरी लेते समय आयुधों को प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं होता है और प्राधिकारी द्वारा उनका परीक्षण भी आवश्यक नहीं होता है। इस न्याय दृष्टांत में न्याय दृष्टांत राजू दुबे विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 1998 (1) जेएलजे 236 एवं श्रीमती जसवंत कौर विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 1999 सीआरएलआर ;(एमपी) 80 प्रभु दयाल विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2002 सीआरएलआर (एमपी) 192 को इस न्याय दृष्टांत में ओवर रूल्ड कर दिया गया है अतः ये न्याय दृष्टांत यदि इस संबंध में प्रस्तुत होते है कि जब्त सुदा हथियार अभियोजन चलाने की मंजूरी लेते समय प्रस्तुत नहीं किये गये है तो यह प्रतिरक्षा मान्य नहीं की जायेगी क्योंकि जब्त सुदा हथियार का अभियोजन चलाने की मंजूरी लेते समय प्रस्तुत किया जाना आवश्यक नहीं है।
पंच गवाहों द्वारा जब्ती का सर्मथन करने के बारे में
22- कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि पंच साक्षीगण जब्ती का सर्मथन नहीं करते है और अभिलेख पर एक मात्र जब्तीकर्ता की साक्ष्य रहती है इस संबंध में वैधानिक स्थिति यह है कि यदि एक मात्र जब्तीकर्ता की साक्ष्य विश्वास किये जाने योग्य हो तब पंच साक्षीगण की पुष्टि के अभाव में भी उस पर विश्वास किया जा सकता है इस संबंध में न्याय दृष्टांत नाथू सिंह विरूद्ध स्टेट आफ एमपी एआईआर 1973 एससी 2783 अवलोकनीय है जो आर्मस एक्ट पर आधारित मामला है और इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पंच गवाहों के सर्मथन करने के बाद भी यदि पुलिस साक्षीगण की साक्ष्य विश्वास योग्य हो तो उसे विचार में लिया जाना चाहिये।
न्याय दृष्टांत काले बाबू विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2008 (4) एमपीएचटी 397 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अन्य साक्षीगण कहानी का सर्मथन नहीं करते मात्र इस कारण पुलिस अधिकारी की गवाह अविश्वसनीय नहीं हो जाती है।
न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध स्टेट देहली एडमीनिशटेशन (2003) 5 एससीसी 297 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पुलिस अधिकारी के साक्ष्य को भी अन्य साक्षीगण के साक्ष्य की तरह लेना चाहिये विधि में ऐसा कोई नियम नहीं है की अन्य साक्षीगण की पुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी के साक्ष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता एक व्यक्ति इमानदारी से कार्य करता है यह उपधारणा पुलिस अधिकारी के पक्ष में भी लेना चाहिये अच्छे आधारों के बिना पुलिस अधिकारी के साक्ष्य पर विश्वास करना और संदेह करना उचित न्यायिक परिपाठी नहीं है लेकिन यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
न्याय दृष्टांत बाबू लाल विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2004 (2) जेएलजे 425 में माननीय 0प्र0 उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि पुलिस के गवाहों के साक्ष्य को यांत्रिक तरीके से खारीज करना अच्छी न्यायिक परम्परा नहीं है ऐसी साक्ष्य की भी सामान्य साक्षी की तरह छानबीन करके उसे विचार में लेना चाहिये।
इस तरह जब भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो की पंच साक्षीगण जब्ती का सर्मथन करे और केवल पुलिस अधिकारी की साक्ष्य अभिलेख पर हो तब उक्त न्याय दृष्टांतों से मार्गदर्शन लेना चाहिये और पुलिस अधिकारीगण की साक्ष्य की सावधानी से छानबीन करना चाहिये और यदि साक्ष्य विश्वास योग्य पाई जाये तो उस पर विश्वास किया जाना चाहिये।
हथियार की जाच
23- प्रायः ऐसे मामलों में एक आर्मोरर भी होता है जो हथियार की जाच करता है और उसके कथन करवाये जाते है जो हथियार की स्थिति के बारे में कथन करता है यह साक्षी केवल धारा 3 आयुध अधिनियम के उल्लंघन के मामले में होता है जिनमें देशी कट्टाए बंदुकए रिवाल्वर आदि हथियार होते है। इस संबंध में दो महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत ध्यान में रखना चाहिये।
न्याय दृष्टांत हरनेक सिंह विरूद्ध स्टेट (1999) 1 एससीसी 132 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पिस्तोल 25 जीवित कारतूस का मामला था पिस्तोल लोडेड थी उसे आर्मोरर को जाच हेतु नहीं भेजा था लेकिन जब्तकर्ता पुलिस अधिकारी इस संबंध में साक्ष्य देने में सक्षम थे की पिस्तोल वर्केबल है या नहीं। लोडेड पिस्तोल के बारे में युक्तियुक्त निश्चितता से कहां जा सकता है की वह वर्केबल है।
न्याय दृष्टांत जशपाल सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब 1999 (1) एमपीडब्ल्यूएन 42 (एससी) में यह प्रतिपादित किया गया है कि जब्त सुदा पिस्तोल का चेम्बर खाली था ऐसी साक्ष्य नहीं थी की वह चलने योग्य है ऐसे में अपराध नहीं बनेगा।
न्यायदृष्टात जरनेल सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब एआईआर 1999 एससी 321 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पुलिस अधिकारी जो जप्त हथियार जैसे हथियार के प्रयोग के बारे में प्रशिक्षित हो तब उनकी साक्ष्य भी पर्याप्त होती है मामला डबल बैरल गन की जप्ती का था जिसमें विशेषज्ञ साक्षी आर्मोरर का कथन नहीं करवाया गया था माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि विशेषज्ञ साक्षी की साक्ष्य की ऐसे मामलों में आवश्यकता नहीं होती है।
इस तरह प्रत्येक मामले के तथ्यों और प्रस्थितियों के आधार पर इस बारे में प्रस्तुत साक्ष्य पर विचार करके निष्कर्ष निकालना चाहिये और उक्त मार्गदर्शक सिद्धांत ध्यान में रखना चाहिये।
हथियार के आकार के बारे में
24- न्याय दृष्टांत रामप्रकाश विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 1993 सीआरएलजे 3078 इस संबंध में मार्गदर्शक है जिसमें हथियार के आकार को निर्धारित करने के बारे में आवश्यक विधि प्रतिपादित की गई है जिसके प्रकाश में हथियार की लंबाई और हत्थे के चैड़ाई के प्रश्न पर विचार करना चाहिये।
अधिसूचना को प्रमाणित करने के बारे में
25- प्रायः यह प्रतिरक्षा ली जाती है कि धारा 4 के तहत जारी अधिसूचना को प्रमाणित नहीं किया गया है और इस संबंध में न्याय दृष्टांत भी प्रस्तुत किये जाते है।
सर्वप्रथम यह ध्यान में रखना चाहिये की आरोप पत्र में अधिसूचना का पूर्ण और स्पष्ट वर्णन और राजपत्र में उसका प्रकाशन दिनांक उल्लेख कर देना चाहिये ताकि किस अधिसूचना का उल्लंघन किया गया है यह स्पष्ट रहे।
न्याय दृष्टांत स्टेट आफ 0प्र0 विरूद्ध रामचरण एआईआर 1977 एमपी 68 पूर्ण पीठ इस संबंध में अवलोकनीय है जिसके अनुसार सभी आदेश और अधिसूचनाए जो वैधानिक शक्तियों के तहत जारी की जाती है और जो लेजिसलेटिव नेचर की होती है वे कानून मानी जाती है और उनके बारे में धारा 57 भारतीय साक्ष्य अधिनियमए 1872 के तहत न्यायालय को उनकी न्यायिक अवेक्षा या ज्यूडिसियल नोटिस लेना होता है इस तरह यदि अधिसूचना कार्यपालक शक्तियों के तहत जारी की गई है तो उसे कानून नहीं माना जायेगा और यदि अधिसूचना विधायीक शक्तियों तहत जारी की गई है तो उसे कानून माना जायेगा इस संबंध में ज्योति जनरल वर्ष 2007 के पेज 164 पर प्रकाशित लेख अवलोकनीय है जिसमें शासन द्वारा जारी अधिसूचनाओं के ज्यूडिसियल नोटिस लेने के संबंध में वैधानिक स्थिति बतलाई गई है।
चंूकि धारा 4 आयुध अधिनियम के तहत उक्त अधिसूचना जारी की गई है अतः न्यायालयों को धारा 57 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत उसकी न्यायिक अवेक्षा करना चाहिये या ज्यूडिसियल नोटिस लेना चाहिये क्योंकि वह विधि के समान बल रखने वाली अधिसूचना है।
प्रथम सूचना लेखक और अनुसंधान अधिकारी के बारे मे
25- कभी कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि जप्तीकर्ता एवं प्रथम सूचना लेखक तथा अनुसंधान अधिकारी एक ही व्यक्ति होता है और तब इस संबंध में तर्क किये जाते है ऐसे में न्यायदृष्टांत स्टेट विरूद्ध विजयपाल 2004 एआईआर एससीडब्ल्यू 1762 में प्रतिपादित विधि का ध्यान में रखना चाहिए जिसके अनुसार संज्ञेय अपराध का अनुसंधान वह पुलिस अधिकारी करने में सक्षम है जो किसी सूचना के आधार पर प्रथम सूचना प्रतिवेदन लिखता है और अपराध पंजीबद्ध करता है वह अधिकारी अंतिम प्रतिवेदन भी प्रस्तुत कर सकता है अभियुक्त के हितों पर इससे प्रतिकूल प्रभाव पड़ा यह स्वतः ही अनुमान नहीं लगाया जा सकता यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है साथ ही न्यायदृष्टांत एस जीवनाथम विरूद्ध स्टेट एआईआर 2004 एससी 4608 को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें एक निरीक्षक जिसने तलाशी और जप्ती की थी उसी ने अपराध पंजीबद्ध किया था यह कृत्य उस निरीक्षक ने उसके शासकीय कत्र्तव्यों के निर्वाहन के दौरान किया तथा अनुसंधान करके चार्जशीट प्रस्तुत की उस निरीक्षक को प्रकरण से हितबद्ध व्यक्ति नहीं माना जा सकता।
तलाशी में अनियमितता के बारे में
25बी- कभी.कभी ऐसे प्रश्न उत्पन्न होते है जिसमें तलाशी के संबंध में आवश्यक प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है तब न्यायदृष्टांत स्टेट आफ एमपी विरूद्ध पलटन मल्लाह 2005 वाल्यूम 3 एससीसी 169 से मार्गदर्शन लेना चाहिए जिसमें यह प्रतिपादित किया है कि यदि जप्तीकर्ता पुलिस अधिकारी उसी क्षेत्र के गवाह तलाशी में लिये होए यदि दंण्प्रण्संण् के सामान्य प्रावधानों काए जो मार्गदर्शक होते हैए थोड़ा उल्लंघन हुआ है तब भी न्यायालय को यह विवेकाधिकार है कि वह तय करे की साक्ष्य स्वीकार योग्य है या नहीं।
न्यूनतम से कम दण्ड के बारे में
26- आयुध अधिनियम की धारा 25 में धारा 3 और 4 के उल्लंघन करने पर न्यूनतम एक वर्ष के कारावास और अर्थदण्ड का प्रावधान है कई बार ऐसी परिस्थितिया होती है जिनमें न्यायालय को न्यूनतम से कम दण्ड देने पर विचार करना होता है इस संबंध में धारा 25 में ही यह प्रावधान है की न्यायालय पर्याप्त और विशेष कारण अभिलिखित करने के पश्चात न्यूनतम से कम दण्ड अधिरोपित कर सकते है कुछ मार्गदर्शक मामले निम्न प्रकार से हैः.
आरोपी 80 वर्ष का वृद्ध था धटना वर्ष 1976 की थी ऐसे में एक वर्ष के कारावास को धटाकर अभिरक्षा में बिताई अवधि किया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत 1994 एससीसी (क्रिमिनल) 51 अवलोकनीय है।
न्याय दृष्टांत 1995 एआईआर एससीडब्ल्यू 1518 में 10 वर्ष पुरानी धटना थी आरोपी जेल में भी रहा था अभिरक्षा में गुजारी अवधि को उचित माना गया।
न्याय दृष्टांत 2000 (3) एमपीएलजे 384 एवं 1987 एससीसी क्रिमिनल 631 भी इसी संबंध में अवलोकनीय है।
अतः मामले के तथ्यों और परिस्थियों में यदि न्यूनतम से कम दण्ड देनी की परिस्थितिया हो तो उक्त न्याय दृष्टांतों से मार्गदर्शन लेकर पर्याप्त विशेष कारण लिखते हुये न्यूनतम से कम दण्ड दिया जा सकता है।
मालखाना निस्तारण
27- यदि मालखाना वस्तु बंदुकए पिस्टनए देशी कट्टा कारतूस हो तो उन्हें विधिवत निराकरण के लिये संबंधित जिले के जिला मजिस्टेª को अपील अवधि पश्चात अपील होने की दशा में भेजे जाने का आदेश करना चाहिये।
यदि मालखाना वस्तुए चाकूए तलवारए आदि धारदार हथियार हो तो उन्हें अपील अवधि पश्चात अपील होने की दशा में तोड़कर नष्ट करने के आदेश देना चाहिये।
अपील होने की दशा अपील न्यायालय के आदेशानुसार माल निस्तारण के आदेश देना चाहिये।
विविध तथ्य
28- आरोपी उसके पिता दोनो पर आरोप थे पिता पर यह आरोप था की उसने आरोपी को मृतक पर फायर करने उकसाया। किसी अन्य को शूट करने को कहना अपराध गठित नहीं करता है पिता को दोषमुक्त किया गया था इस संबंध में न्याय दृष्टांत विजय सिंह विरूद्ध स्टेट आफ एमपी 2000 (1) एमपीएचटी 183 अवलोकनीय है।
29- न्याय दृष्टांत काका सिंह विरूद्ध स्टेट आफ पंजाब 1999 (3) क्राइमस 53 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि आरोपी बिना लाईसेंसी गन और कार्टलेज के साथ अधिसूचित क्षेत्र में पाया गया दोषसिद्धि को उचित माना गया।
30- न्याय दृष्टांत शंकर नारायण विरूद्ध स्टेट आफ महाराष्ट्र एआईआर 2004 एससी 166 में गन आरोपी के पुत्र की थी आरोपी के पास गन रखने का लाईसेंस नहीं था आरोप प्रमाणित माना गया।
31- न्याय दृष्टांत एआईआर 1992 एससी 675 में पुत्र ने पिता की लाईसेंसी गन चलाई जो पिता की रक्षा के लिए चलाई थी जब परिवादी पक्ष ने उसके पिता को लाठी से मारा इससे अवैध आधिपत्य नहीं माना गया और आरोपी को दोषमुक्त किया गया।
32- न्याय दृष्टांत गणवंत लाल विरूद्ध स्टेट आफ एमपी एआईआर 1972 एससी 1756 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने आधिपत्य शब्द को स्पष्ट किया है जिसके अनुसार आधिपत्य में केवल भौतिक आधिपत्य ही नहीं बल्कि कस्टेªक्टिव पाजेशन भी शामिल है जो फायर आर्म पर आरोपी का नियंत्रण या डोमीनियन दर्शाता है। आधिपत्य को समझने के लिए ये न्याय दृष्टांत मार्गदर्शक है
33- न्याय दृष्टांत स्टेट आफ तमिलनाडू विरूद्ध नलिनी एआईआर 1999 एससी 2640 में तीन न्याय मूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि आर्मस और एम्यूनेशन आरोपी के घर में छिपाये हुये पाये गये दोषसिद्धि को उचित माना गया।
34- न्याय दृष्टांत प्रवीण विरूद्ध स्टेट आफ एमपी एआईआर 2008 एससी 1846 में बिना अनुज्ञप्ति के पिस्टन का प्रयोग धारा 5 के उल्लंघन में पाये जाने से दोषसिद्ध को उचित माना गया।
35- तलाशी और जब्ती में दण्ड प्रक्रिया संहिताए 1973 के प्रावधान आकर्षित होते है साथ ही धारा 22 और 37 के प्रावधान भी आकर्षित होते है अतः अवैध उद्देश्य के लिये यदि घर में हथियार छिपाने का मामला हो तब विश्वास के आधार अभिलिखित करने के पश्चात ही आवास गृह में प्रवेश करना चाहिए इस संबंध में न्याय दृष्टांत वाहिद खान विरूद्ध स्टेट आफ एमपी आईएलआर (2007) एमपी 1808 अवलोकनीय है।
36- बिना लाईसेंस की कृपाण का कब्जा रखना अपराध है नील विरूद्ध स्टेट एआईआर 1972 एससी 2066 अवलोकनीय है।
37- रिवाल्वर और दो कारतूस का मामलाए जब्त समानों का विवरण और विशेषज्ञ की रिर्पाट का विवरण सामान था पश्चातवर्ती प्रक्रम पर जब्त सामाग्री को टेम्पर करने का बचाव लिया गया जो अमान्य किया गया सामाग्री को मोहर बंद करना महत्वपूर्ण नहीं माना गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत बिलाल अहमद विरूद्ध स्टेट आफ आंध्रप्रदेश एआईआर 1997 एससी 348 निर्णय चरण 20 अवलोकनीय है।
38- पिता के पास बंदुक का लाईसेंस था बंदुक घर से बरामद की गई पुत्र को कब्जे के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता काली विरूद्ध स्टेट (1984) 1 क्राइम्स 428 एसपी
39ण् अनुज्ञप्ति के बिना गिरबीदार द्वारा कब्जा अपराध है स्टेट विरूद्ध रामकिशन एआईआई 1956 राजस्थान 24
40- तालाब में अभियुक्त द्वारा फेकी गई पिस्तोल की बरामदगी की गई इसे कंस्टेªक्टिव कब्जा माना गया छोटे लाल विरूद्ध स्टेट एआईआर 1954 इलाहाबाद 685
41- अलमारी से पिस्तोल बरामदए अभियुक्त द्वारा पेश की गई चाबी द्वारा अलमारी खोली गई थी इसे सचेत कब्जा माना गया महेन्द्र विरूद्ध स्टेटए एआईआर 1973 एससी 2285
इस तरह आयुध अधिनियमए 1959 के मामलों में उक्त अनुसार वारंट विचारण प्रक्रिया अपनाना चाहिये और आरोप विरचित करने के समय संबंधित अधिसूचना का उल्लेख जिसके उल्लंघन में कथित आयुध रखा गया है आरोप पत्र में ही जावे इसका ध्यान रखना चाहिये। साक्ष्य के समय रोजनामचा बुलवानेए मालखाना वस्तु बुलवानेए और उन्हें साक्ष्य में प्रदर्शित करवाने पर ध्यान देना चाहिये जब्ती पंचनामा अपने आप में तात्विक साक्ष्य नहीं होती है बल्कि उसके तथ्य अभिलेख पर आना चाहिये इसका ध्यान रखना चाहिये।