Tuesday 26 November 2013

Se.307,323,325,326 ipc saitation

धारा 307,323,325,326
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15.        यह सही है कि ग्राम दोराहा में सलीम के घर के आसपास रहने वाला कोई व्यक्ति प्रत्यक्षदर्षी समर्थक साक्षी के रूप में अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है, लेकिन यह सुविदित है कि सामान्यतः लोग दूसरों के झगड़े में पड़कर किसी से बैर भाव नहीं लेना चाहते हैं, इस कारण न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होने में अनिच्छुक रहते हैं। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998. ऐसी स्थिति में इमरान खान (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य मात्र इस आधार पर  अस्वीकार नहीं की जा सकती है कि किसी स्वतंत्र साक्षी की अभिसाक्ष्य से उसका समर्थन नहीं है। प्रकटतः उसकी साक्ष्य अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की कोई सारवान् विसंगति या विरोधाभास नहीं है, ऐसी स्थिति में  उक्त अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानने का कोई कारण प्रकट नहीं है।
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हित वद साक्षी-उक्त दोनों ही साक्षियों के प्रतिपरीक्षण में ऐसी कोई बात प्रकट नहीं है, जिसके आधार पर उनकी साक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर अस्वीकार किया जाये। मात्र इस आधार पर कि वे इमरान खान (अ.सा.1) की माॅ और बहन हैं, उनकी अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। ------------------------------------------------------
21.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.------------------------------------------------------
लोप-विरोधाभाश-अतिरंजना--इस क्रम में यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि साक्षियों की प्रवृत्ति तथ्यों को किंचित नमक मिर्च लगाकर अतिरंजना के साथ प्रस्तुत करने की होती है, लेकिन यदि साक्ष्य में घटना के मूल स्वरूप के बारे में सच्चाई का अंष विद्यमान है तो ऐसी अतिरंजनाओं के आधार पर, जो मामले की तह तक नहीं जाती है, साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998.
16.        उक्त परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि आहतगण राजू सिंह चैहान (अ.सा.1) एवं लक्ष्मीनारायण (अ.सा.7) की साक्ष्य की सम्पुष्टि करने के लिये कोई स्वतंत्र प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य अभिलेख पर नहीं है, लेकिन यह विधिक स्थिति स्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अविष्वसनीय अथवा अस्वीकार्य नहीं माना जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की सम्पुष्टि नहीं होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रायः यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी अभियोजन की कथा का समर्थन करने के लिये अनिच्छुक रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह उपलब्ध साक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण एवं मूल्यांकन करें। यदि ऐसी अभिसाक्ष्य विष्वास योग्य एवं गुणवत्तापूर्ण है, तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है।
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17.        उक्त क्रम में इस विधिक स्थिति का संदर्भ लिया जाना भी असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी के कथन में यदि मूल घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो ऐसी अतिरंजनाओं और विसंगतियों के कारण सम्पूर्ण मामले को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897. न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियों साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है।
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26.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
27.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
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11.        उक्त परिप्रेक्ष्य में आधारभूत घटना के संबंध में अजबसिंह (अ.सा.4) की अभिसाक्ष्य में कोई सारवान् विसंगति अथवा विषमतायें विद्यमान नहीं है। जहाॅं तक प्रकीर्ण विसंगति एवं विषमताओं का प्रष्न है, यह विधिक स्थिति उल्लेखनीय है कि अभिसाक्ष्य में मामूली एवं अमहत्वपूर्ण स्वरूप की विसंगतियाॅं या विरोधाभास जो आधारभूत कथा की सत्यता को प्रभावित नहीं करते हैं, को महत्व नहीं दिया जाना चाहिये, संदर्भ:- गणेश विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 जे.एल.जे. 778 एवं नानूसिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1985 एम.पी.एल.जे. 268. यह भी ध्यातव्य है कि एक घायल व्यक्ति साक्षी के रूप में ऐसा कभी नहीं चाहेगा कि जिन्होंने उसे वास्तव में आहत किया है, वे बच जायें तथा अन्य निर्दोष लोग ऐसे मामले में फंसा दिये जाये, संदर्भ:- बलवंतसिंह विरूद्ध हरियाणा राज्य, 1972-तीन सु.को.केसेस 193. उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में अभियोजन की अभिसाक्ष्य का विश्लेषण करना होगा।
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17.            ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है, संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
18.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।
19.        म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुॅचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
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हितबद्ध साक्षी-निष्चय ही कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5) की उक्त अभिसाक्ष्य स्पष्ट एवं विसंगति विहीन होने कारण स्वीकार योग्य हैं तथा उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि कृष्ण गोपाल उर्फ गोपाल (अ.सा.5), विनोद कुमार (अ.सा.4) का भतीजा है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि केवल हितबद्धता के आधार पर किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय मानकर रद्द नहीं किया जा सकता है, संदर्भ:- सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82.
16.        उक्त परिप्रेक्ष्य में अभिकथित घटनाक्रम के विषय में एक मात्र ओंकार पुरी (अ.सा.2) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। यह सही है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) एक हितबद्ध साक्षी है, लेकिन यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि वह हितबद्ध है, अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण किया जाना चाहिये तथा उस पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851
10.        इसी प्रकार इस विधिक स्थिति का संज्ञान लिया जाना भी आवष्यक है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को इस आधार पर कि वह हितबद्ध है रद्द किया जाना विधि सम्मत नहीं है, लेकिन ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य पर निर्भर करने के लिये यह आवष्यक है कि वह गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय हो, संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851.

11.        इसी क्रम में न्याय दृष्टांत सूरजपाल विरूद्ध राज्य, 1994(2) क्रि.लाॅ.ज. 928 एस.सी. भी अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि किसी साक्षी का कथन मात्र इस आधार पर निरस्त नहीं किया जाना चाहिये कि वह हितबद्ध है, अपितु उसी साक्ष्य की सावधानीपूर्वक छानबीन की जानी चाहिये तथा जहाॅं ऐसी साक्ष्य एकरूपतापूर्ण है, वहाॅं उस पर विष्वास किया जा सकता है।
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25.        जहाॅं तक प्रथम बिन्दु का सम्बन्ध है, ’संहिता’ की धारा 34 के अंतर्गत दायित्व आरोपित करने के लिये यह स्थापित किया जाना आवष्यक है कि मात्र उकसाने के अलावा कुछ ऐसा कार्य किया गया, जो सामान्य आषय का परिचायक हो। इस क्रम में न्याय दृष्टांत उड़ीसा राज्य विरूद्ध अर्जुनदास अग्रवाल, ए.आई.आर. 1999 एस.सी. 3229 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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29.        ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये। वर्तमान मामले में प्रहार इतनी तीव्रता के साथ नहीं किया गया है कि उससे कंधे पर काफी गहरायी तक चोट आये, क्योंकि प्रष्नगत चोट मात्र 1) से.मी. गहरी है। प्रहार की पुनरावृत्ति भी प्रकट नहीं है और न ही शरीर के किसी मार्मिक हिस्से पर चोट पहुॅचायी गयी है। ऐसी दषा में ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित आषय अथवा ज्ञान की स्थिति वर्तमान मामले में स्थापित नहीं होती है अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि एल्कारसिंह प्रष्नगत प्रहार के द्वारा विनोद कुमार (अ.सा.4) की हत्या करने का आषय रखता था अथवा उसके द्वारा अपने ज्ञान में ऐसी चोट कारित की गयी, जो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो।
30.        परिणामस्वरूप अभियुक्त एल्कारसिंह का कृत्य ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में न आकर ’संहिता’ की धारा 326 की परिधि में आता है, जो धारदार हथियार से गम्भीर उपहति कारित किये जाने को दण्डनीय ठहराता है।
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12.        बचाव पक्ष की ओर से न्याय दृष्टांत सर्वेष नारायण शुक्ला विरूद्ध दरोगा सिंह, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 320 (पैरा-11) तथा म.प्र.राज्य विरूद्ध रमेष प्रसाद मिश्रा, 1996(3) क्राइम्स 181 एस.सी. का अवलंब लेते हुये उचित रूप से इस विधिक स्थिति की ओर से न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है कि पक्ष विरोधी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यंत्रवत तरीके से पूरी तरह रद्द नहीं किया जाना चाहिये तथा सघन परीक्षण के बाद यदि ऐसी साक्ष्य अभियोजन की कहानी अथवा बचाव पक्ष द्वारा ली गयी प्रतिरक्षा से संगत है तो उसका उपयोग उस सीमा तक किया जाना चाहिये। निष्चय ही उक्त विधिक स्थिति सुस्थापित है तथा रमेष (अ.सा.3) एवं धरमसिंह (अ.सा.7) की अभिसाक्ष्य का विष्लेषण करते समय उक्त विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखा जाना चाहिये।
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21.        बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत विरेन्द्र कुमार प्यासी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1993(प्प्) डण्च्ण्ॅण्छण् छवजम.77 का अवलम्ब लेते हुये यह तर्क किया है कि सभी चोटें साधारण प्रकृति की हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अभियुक्तगण का आषय ओंकार पुरी (अ.सा.2) की हत्या करने का था। अवलम्बित मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि इस मामले में आहत को चाकू से 7 चोटें पहुॅचायी गयी थी, जिनमें से एक चोट सीने पर भी थी तथा कोई भी चोट शरीर के मार्मिक हिस्से पर नहीं थी अतः मामले को ’संहिता’ की धारा 307 के बजाय धारा 324 की परिधि में रखा गया। लेकिन वर्तमान मामले में यह प्रकट है कि ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो शरीर का एक मार्मिक हिस्सा है, 5 ग् 1 ग् 6 से.मी. आकार का हड्डी तक गहरा फटा हुआ घाव कारित किया तथा सिर की ऐसी चोट कभी भी, किसी भी व्यक्ति के लिये प्राण-घातक साबित हो सकती है, इस स्थिति को सहज ही नकारा नहीं जा सकता है।
22.        उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
23.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
24.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
25.        उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था। वर्तमान मामले में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के सिर पर, जो एक संवेदनषील हिस्सा है, बड़े आकार का फटा हुआ घाव पाया गया है, कंधे पर मौजूद तीन चोटें कहीं न कहीं यह इंगित करती है कि प्रहार सिर के मार्मिक भाग के आस-पास किया गया, पीठ पर पायी गयी दो लम्बी चोटें भी मेरूदण्ड को किन्हीं परिस्थितियों में भारी क्षति कारित कर सकती थीं, यह बात अलग है कि ऐसी क्षति कारित नहीं हुयी। ऐसी दषा में मामले की सम्पूर्ण परिस्थितियों को देखते हुये एकमेव यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अभियुक्तगण सामान्य आषय के अग्रषरण में ओंकार पुरी (अ.सा.2) को उक्त उपहति कारित कर उसकी हत्या करना चाहते थे।
26.        परिणामस्वरूप अभिलेखगत साक्ष्य के आधार पर अभियुक्तगण के विरूद्ध ’संहिता’ की धारा 307/34 का यह आरोप युक्तियुक्त शंका और संदेह के परे प्रमाणित है कि घटना दिनाॅंक 05.12.2009 को शाम लगभग   4.30 बजे उन्होंने ग्राम भाऊखेड़ी में ओंकार पुरी (अ.सा.2) के खेत के निकट सामान्य आषय के अग्रषरण में उसके सिर पर तथा शरीर के अन्य भागों पर लाठी और ’निजन’ से प्रहार कर उसकी हत्या का प्रयास किया।
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23.       ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
24.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहाॅं तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।
25.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
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30.        दण्ड के संबंध में अभियुक्त को सुना गया। अभियुक्त की ओर से यह प्रार्थना की गयी है कि वह युवा है तथा उसका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है अतः दण्ड के संबंध मंे उदार दृष्टिकोण अपनाया जाये। दण्ड अधिरोपित किये जाने के संबंध में यह विधिक स्थिति ध्यान में रखना आवष्यक है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
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 उक्त क्रम में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्षी के कथन में आयी ऐसी विसंगतियाॅ, जो मामले की तह तक नहीं जाती हंै तथा प्रकीर्ण स्वरूप की हैं, उसकी अभिसाक्ष्य को अविष्वसनीय ठहराये जाने का आधार नहीं बनायी जा सकती हैं। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा साक्षी मिले जिसकी अभिसाक्ष्य में अतिरंजनायें, विसंगतियाॅं या असत्य का अंश न हो, लेकिन मात्र इस आधार पर उसकी अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से अस्वीकृत करना न्याय सम्मत नहीं है। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि ऐसे मामले में वह सत्य और झूंठ का पता लगाये तथा यदि आधारभूत बिन्दुओं पर साक्ष्य विश्वास योग्य है तो उसका उपयोग करे। केवल उसी दशा में ही सम्पूर्ण साक्ष्य को अस्वीकृत किया जा सकता है, जब सत्य और झूंठ को पृथक करना असम्भव हो।
एकल साक्षी-
15.        यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वेदी वेलू थिवार  विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
21.        इसी क्रम में     उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88 = ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज 1998 दिशा निर्धारक मामले में शीर्षस्थ न्यायालय ने दांडिक मामलों में साक्ष्य विश्लेषण संबंधी सिद्धांत की गहन एवं विस्तृत समीक्षा करते हुये यह प्रतिपादित किया है कि यदि प्रस्तुत किया गया मामला अन्यथा सत्य एवं स्वीकार है तो उसे केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं है कि घटना के सभी साक्षीगण तथा स्वतंत्र साक्षीगण को संपुष्टि के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया है। साक्ष्यगत अतिरंजना के विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह इंगित किया है कि हमारे देश के साक्षियों में यह प्रवृत्ति होती है कि किसी भी अच्छे मामले का अतिश्योक्तिपूर्ण कथन द्वारा समर्थन किया जाये तथा साक्षीगण इस भय के कारण भी अभियोजन पक्ष के वृतांत  में नमक मिर्च मिला देते हैं कि उस पर विश्वास किया जायेगा, किन्तु यदि मुख्य मामले में सच्चाई का अंश है तो उक्त कारणवश उनकी साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में से वास्तविक सच्चाई का पता लगाये तथा इस क्रम में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई न्यायाधीश दांडिक विचारण में मात्र यह सुनिश्चित करने के लिये पीठासीन नहीं होता कि कोई निर्दोष व्यक्ति दण्डित न किया जाये अपितु न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने के लिये भी कर्तव्यबद्ध है कि अपराधी व्यक्ति बच न निकले।
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बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि ब्रजेष की उक्त चोट को अभियोजन ने स्पष्टीकृत नहीं किया है अतः अभियोजन की कहानी युक्तियुक्त संदेहग्रस्त हो जाती है। इस तर्क के समर्थन में न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1997 (एस.सी.) 2583 का अवलंब भी लिया गया है, जिनमें अभियुक्त पक्ष को आयी चोटों के स्पष्ट न किये जाने के बारे में विधिक स्थिति पर विचार किया गया है।
25.        न्याय दृष्टांत डी.बी.शणमुगम (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिषा निर्धारक निर्णय लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर 1976 (एस.सी.) 2263 का अवलंब लेते हुये इस स्थिति को स्पष्ट किया गया है कि यदि अभियुक्त पक्ष की चोटें गंभीर प्रकृति की है और उन्हें स्पष्ट नहीं किया गया है, वहाॅं यह उपधारित किया जा सकता है कि अभियोजन ने घटना की वस्तु-स्थिति को छिपाने का प्रयास किया है।
26.        वर्तमान मामले में यह नहीं कहा जा सकता कि अभियोजन के द्वारा अभियुक्त ब्रजेष की चोटों को छिपाने का प्रयास किया गया है, क्योंकि ब्रजेष के गिरफ्तारी पत्रक प्र.पी-3 की कंडिका 7 में ही इस बात का उल्लेख है कि दिनाॅंक 04.06.2009 को बंदी बनाये जाते समय उसके बांये हाथ की दूसरी ऊंगली में कटने की चोट पायी गयी। तद्क्रम में उसका मेडिकल परीक्षण अभियोजन के द्वारा कराया एवं मेडिकल परीक्षण प्रतिवेदन प्र.डी-4 अभियोगपत्र के साथ प्रस्तुत किया गया। अभियुक्त ब्रजेष भील के द्वारा हरिनारायण (अ.सा.2) को ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया गया है कि उसने प्रष्नगत घटना के समय या उसके पूर्व उसकी ऊंगली को काट लिया था। कंडिका 9 में हरिनारायण (अ.सा.2) को मात्र यह सुझाव दिया गया है कि उसके लड़के संजय ने दिन के 5-6 बजे डण्डे से मारपीट की थी, निष्चय ही डण्डे से ऊंगली का कटना संभव नहीं है। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 4 जून को बंदी बनाये जाने से पूर्व अभियुक्त ब्रजेष के द्वारा उसके बांये हाथ में आयी उक्त चोट के बारे में हरिनारायण (अ.सा.2) या अन्य के विरूद्ध कोई षिकायत पुलिस में नहीं की गयी है। ऐसी दषा में यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रष्नगत चोट उसे प्रष्नगत घटनाक्रम में कारित हुयी।
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एकल साक्षी-15.        यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलू थिवार  विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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13.        दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372.
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11.        उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)
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15.        इस बात के बावजूद कि पंच साक्षी देवेन्द्र सिंह (अ.सा.3) एवं मांगीलाल (अ.सा.11) की अभिसाक्ष्य छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को सम्पुष्ट नहीं करती है, छत्रपाल सिंह सोलंकी (अ.सा.12) की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से इस आधार पर रदद् नहीं किया जा सकता कि वे पुलिस अधिकारी हैं, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425 ।
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19.        उक्त पृष्ठभूमि में अभिलेख पर प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में एक मात्र रमेष (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य शेष रह जाती है। बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि रमेष (अ.सा.1) जो एकल हितबद्ध साक्षी है तथा जिसकी अभिसाक्ष्य की सम्पुष्टि किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहीं हुयी है पर विष्वास किया जाना सुरक्षित नहीं है, लेकिन उक्त तर्क विधि सम्मत न होने के कारण स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। न्याय दृष्टांत वादी वेलूथिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि एकल साक्षी पूर्णतः विष्वास योग्य है तो स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि के अभाव में भी उसकी अभिसाक्ष्य पर निर्भर किया जा सकता है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी.-401 में पुनः रेखांकित किया गया है। जहाॅं तक स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि का प्रष्न है यह आवष्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतंत्र साक्षी उपलब्ध हों। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में यह इंगित किया गया है कि यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी प्रायः अभियोजन घटनाक्रम का समर्थन करने के लिये बहुत अधिक इच्छुक नहीं रहते हैं, ऐसी दषा में उपलब्ध साक्ष्य को मात्र यह कहकर अस्वीकृत कर देना कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसका समर्थन नहीं होता है, उचित नहीं है।
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13.        दिनेष कुमार (अ.सा.2) का नाम प्राथमिकी प्र.डी-3 में प्रत्यक्षदर्षी साक्षी के रूप में नहीं लिखाया गया है तथा इस आधार पर बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) की साक्ष्य को प्रत्यक्षदर्षी साक्षी की साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना विधि-सम्मत नहीं होगा। लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि प्रथम सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टियाॅं उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372. इस क्रम में यह बात भी उल्लेखनीय है कि दिनेष कुमार (अ.सा.2) को प्रतिपरीक्षण की कंडिका 5 में यह सुझाव दिया गया है जब टापरी जली तो वह, उसका पिता (परसराम-अ.सा.1), रामसिंह तथा मल्की बाई मौजूद थे, जिसे इस साक्षी ने स्वीकार किया है। इस सुझाव के परिप्रेक्ष्य में भी घटनास्थल पर दिनेष कुमार (अ.सा.2) की उपस्थिति संदेहास्पद नहीं लगती है।
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11.        उक्त क्रम में सजनसिंह (अ.सा.3) की अभिसाक्ष्य भी दृष्ट्व्य है। यद्यपि अभियोजन ने इस साक्षी को पक्ष विरोधी घोषित किया है, लेकिन यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)

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