Tuesday 26 November 2013

संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार LALARAM MEENA

संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार भारतीय दण्ड संहिता में

उच्चतम न्यायलय ने पूनणसिंह और अन्स बनाम राज्य(ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674) के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया था:-



      ‘‘ कब्जे की प्रकृति, जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
        गुण होना चाहिये:-



    1-    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

    2-    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास
         के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
         अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
           परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3-    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम
        होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4-    व्यवस्थापितब्जिे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं
        मेंसेएक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कबजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
      यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
           मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
            अधिकार नहीं है, उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा

    2=    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0-290
 निर्दिष्ट किया गया- आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होताहै, जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति-
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है। अभियुक्त
        को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओर या तो
        उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र
               बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
 अभियोजन साक्षीगण के प्रति-परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा(
सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0-391  अबलंबित)


3=-        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता (अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित )    चूॅकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
 करने    का कोई आशय नहीं था,उसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
 पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा325 के तहत अपराध के लिये        
   उत्तरदायी    ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भीयह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कi अतिक्रमण किया गया
        था ।

4=-        एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
          करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
          अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति ‘‘प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार ‘‘ को परिभाषित नहीं करती ,यह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है


5= क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
      रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था ,   
     प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
           तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
काल्पनि   रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।
 तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
 पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
 में कार्य  किया था, यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
             अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था, तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
        का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
        विचारण करसकती है ,यहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
        यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
        हे।


6== भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
        तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है, जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
  अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
        के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
  न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
        द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
        के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।
 प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
आवश्यक रूप से साक्ष्य    बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
 का संदर्भ लेकर उसके             अभिचवन को स्थपित कर सकता है ।    ऐसे मामले
में प्रश्न अभियोजन             साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
        द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
 जहां प्रायवेट प्रति
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
        और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
        अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
        अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
   लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त परहोता है
        और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार परउस अभिवचन के हित में
        संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित        
 होता है



।(मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 -2 एस0सी0आर
        455,
गुजरात राज्य बनाम बाई फातमा,1975-3एस.सी.आर. 993
 उत्तर
        प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान, ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979-2 एस0सी0आर0 805

        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
   करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है ,तो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

 सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य -
        1979-2 एस.सी.आर.-394 में इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार है:-
            ‘‘ यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्ळाापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति-
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि-
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किकया जा सकेगा। ‘‘
        अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
        अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
  लिये पर्याप्त होगा ,यथा सिविल मामले मंे उसके अभिवचन के हित में
        संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7- यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था, सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भिी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है ,तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       वचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभाविपत करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की    
    गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है ,परन्तु    
      अभियोजन के द्वाराक्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
          बिल्कल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्वांत उन मामलोंमें लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारावहन की गई क्षतियॉ मामूली है, और उपरी
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितवद्व नहीं है,इतने अधिक संभाव्य ,सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
   अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
। लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0-2263,

 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
     जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
अभियुक्त को उपलव्ध है ,तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे  आक्रमक पर
घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।यह
        पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है ,तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
 धारा 97   प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   
 अधिकार का अभिवचन

1- अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2- किसीअन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है,और

        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद्व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी,लूट,रिष्टि याआपराधिक अतिचार के अपराधों
           और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा-99
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
          अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
          अधिकार और 100 से 106 तक, धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।

          स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है किउसे प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था

     धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
-    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है

        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
           करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती         है ।
 यद्यपि अपराध नहीं किया होगा ,परन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।

        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 -3 एस.सी.आर.489 में यह सम्प्रेक्षित
           किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता
    है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है ,तो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   
   9-    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशका,अभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।

 एक समान अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य ए.आई.आर. 1975    एस.सी.-87
देखो वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व ,जे.टी. 2002 -8 एस.सी.-21
-2002 -8  एस.सी.सी.-354

        10- बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जे.टी. 1991 -5 एस.सी. 366 ,

ए0आई0 आर0 1991 एस.सी.-1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 ,जो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है ,को उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों ,जो हथियारों स लैस थे, को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हे, जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये ,जहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना ,यहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चात, आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया ,आवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।

        11- आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार है,जो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं
        किया    जाना चाहिये । (देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एव.सी.1857,) ।

 स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति    से सामना करके
 क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त   के विषय
परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
        नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
          बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लिये, इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगा, जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान ,शांत,व्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को    
    धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है ,से साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीन, जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
     होता है, केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।

        12-  रसेल (रसेल ऑन क्राईम, ग्यारहवां संस्करण भाग-1 पृष्ठ 49)के
        दैदिप्यमान शब्दो में:
          ‘‘..... कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै , जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
     कर सकेगा ,जहां तक वह खड़ा हुआ है ,परन्तु वास्तव में उसकी    
      विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता है, तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है

        13- प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भा.दं.सं. द्वारा        
   जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है ,जो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है ,जब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
   अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के    
    लिये उपबंधित करते समय भा.द.सं. में सावधानी वरती गयी है ,ऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले ,जिसके द्वारा        
 आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करता, विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 (देखो वी0 सुब्रमणी व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य ,जे0टी0 2005)(3)एस0सी0-82, 2005(10)
        एस0सी0सी0-358

        19-    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ,
        जे0टी0 2005 (9)एस.सी.-290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि .......
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है ,जहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।

        20-    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था -
            ‘‘ प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने ,अबैध बल को
        प्रवरित करने ,अबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध है, तो व्यक्ति, अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
   प्रतिरक्षा कर रहा है ,जो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें ,पर विशेष
        लिप्त्ता के साथ ‘‘ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता है, के समान देखी जाती है । ।

        21-    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता था, क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।

        22-    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जे.टी. 2005(10)एस.सी.168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था ,तो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया ,परन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।

        28-    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।

        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ‘‘ अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता केबारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था ,किसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति केबारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया था, जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया हो, वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरण,जाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।

        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ए.आई.आर. 1971 एस.सी.
ृ        2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968-3 ए.सी.आर.552 ।

        29-    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था ,क्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में ,अभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे ।अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वाराव्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।

 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जे.टी. 2006 -3 एस.सी.36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।

        ‘‘ इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद सेz  अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय जब अपराध कारित किया गया था, विधि विरूद्व का जमाव का एकसदस्य था  इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34  धारा 149 आकर्षित हाती है ।
 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एस.सी.सी.-44

   शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य ए.आई.आर.  1982 एस.सी.1228

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य  बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जे.टी.2005 -9 एस.सी.290 में यह कहा गय था । ‘‘ धारा 149 और या 34 भा.दं.सं. आकर्षित करने के प्रयोजन के लिय  अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह    प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा   कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि सने अन्य लोगों के साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ‘‘ ।

















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