Tuesday 26 November 2013

धारा-34 और 149 आई0पी0सी0सामान्य आशय-सामान्य उददेश्य LALARAM MEENA

  धारा-34 और 149 आई0पी0सी0            
                                         सामान्य आशय       
     धारा-’34 भा0द0वि0 के अंतर्गत यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति कोई कार्य संयुक्त रूप से करते है तो विधि के अंतर्गत स्थिति वहीं होगी कि मानो उनमें से प्रत्येक के वह कार्य स्वयं व्यक्तिगत रूप से किया गया हो । व्यक्तियों का कार्य अलग हो सकता है किन्तु उनका आषय एक रहना आवष्यक है ।

    इस संबंध में विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि धारा-34 किसी आपराधिक कृत्य को करने के संयुक्त दायित्व के सिद्धांत के आधार पर अधिनियमित की गई है । यह धारा केवल एक साक्ष्य का नियम है और इसमें कोई सरवान् अपराध सृजित नहीं किया गया है ।

 इस धारा की सुभिन्न विषेषता यह है कि इसमें कार्यवाई में सहभागिता का तत्व विद्यमान है । अनेक व्यक्तियों द्वारा किये गये आपराधिक कार्य के अनुक्रम में किसी व्यक्ति द्वारा किये गए किसी अपराध के लिए किसी अन्य व्यक्ति का दायितव धारा-34 के अधीन तभी उद्भूत होगा यदि ऐसा आपराधिक कार्य उन व्यक्तियों के, जो अपराध करने में सम्मिलित हुये थे, किसी सामान्य आषय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो ।

        सामान्य आशय से संबंिधत धारा-भा0द0सं0 35,36,37,38, है ।

        संहिता की धारा-35 जब कि ऐसा कार्य इस कारण आपराधिक है कि वह आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया है-जब कभी कोई कार्य जो आपराधिक ज्ञान या आशय से किये जाने के कारण ही आपराधिक है, कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति जो ऐेसे ज्ञान या आशय से उस कार्य में सम्मिलित होता है, उस कार्य के लिए उसीप्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह कार्य उस ज्ञान या आशय से अकेले उसी द्वारा किया गया हो ।

        संहिता की धारा-36 अंशतः कार्य द्वारा और अंशतः लोप द्वारा कारित परिणाम-जहां कही किसी कार्य द्वारा या किसी लोप द्वारा किसी परिणाम का कारित किया जाना या उस परिणाम को कारित करने का प्रयत्न करना अपराध है, वहां वह समझा जाना है कि उस परिणाम का अंशतः कार्य द्वारा और अश्ंातः लोप द्वारा कारित किया जाना वहीं अपराध है ।

        संहिता की धारा-37 किसी अपराध को गठित करने वाले कई कार्यो में से किसी एक को करके सहयोग करना जब कि कोई अपराध कई कार्यो द्वारा किया जाता है, तब जो कोई या तो अकेले या किसी अन्य व्यक्ति के साथ सम्मिलित होकर उन कार्यो में से कोई एक कार्य करके उस अपराध के किए जाने में साशय सहयोग करता है, वह उस अपराध को करता है । 

        संहिता की धारा-38 आपराधिक कार्य में संपृक्त व्यक्ति विभिन्न अपराधो के दोषी हो सकेंगे जहां कि कई व्यक्ति किसी आपराधिक कार्य को करने में लगे हुए या सम्पृक्त है, वहां वे उस कार्य के आधारपर विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकेंगे । 

        सामान्य आषय का प्रत्यक्ष सबूत यदाकदा उपलब्ध होता है और इसलिए ऐसे आषय का निष्कर्ष केवल मामले के साबित तथ्यों और साेिबत परिस्थितियों से उपदर्षित परिस्थितियों से ही निकाला जा सकता है । सामान्य आषय के आरोप को साबित करने के अनुक्रम में अभियोजन पक्ष को साक्ष्य द्वारा, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या पारिस्थितिक, यह साबित करना होता है कि उस अपराध केा करने की, जिसके लिए उन्हें धारा-34 के अंतर्गत आरोपित किया गया है, सभी अभियुक्त व्यक्तियों की योजना थी या मतैक्य था । चाहे वह पूर्व योजनाबद्ध हो या क्षणिक हो किन्तु यह सब आवष्यक रूप से अपराध किये जाने से पूर्व होना चाहिए ।       

        अषोक कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य ए0आई0आर0 1977 एस0सी0 109. वाले मामले में मत व्यक्त किया गया है कि इस धारा को लागू करने के लिए किसी अपराध में भाग लेने वालो के मध्य एक सामान्य आषय का विद्यमान होना आवष्यक तत्व है यह आवष्यक नहीं है कि किसी अपराध को संयुक्त रूप से करने के लिए आरोपित अनेक व्यक्तियों  के कार्य समान और समरूप है कार्य स्वरूप में भिन्न भिन्न हो सकते हैं किन्तु वे एक ही सामान्य आषय से किए गये होने चाहिए जिससे कि इस उपबंध को लागू किया जा सके ।

                                      सामान्य उददेश्य 

        धारा-149 प्रतिनिधिक एंव आन्वयिक दाण्डिक दायितत्व विधि विरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य हेतु विहित करती है,जहां अपराध उस जमाव के सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में ऐसे विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया गया हो या उस जमाव के सदस्यों का उस उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना जानते हुए किया हो ।

        विधि के सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था। भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।

        धारा-141 भा0द0सं0 के अनुसार विधिविरूद्ध जमाव- पांच या अधिक व्यक्तियों का जमाव विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य हो-

    पहला-    केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को या किसी राज्य के विधान मंडल को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना अथवा

    दूसरा-    किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का  प्रतिशेध करना अथवा

    तीसरा-    किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का रना अथवा


    चैथा-        किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा  लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के अधिकार के उपभोग से या जल का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका वह कब्जा रखता हो, या उपभोग करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार को प्रवर्तित करना अथवा

    पांचवा-    आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप करने के लिए जिसे करने का वह वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

    स्पष्टीकरण-    कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो सकेगा ।

        यह इस प्रकार अवेक्षित किया जाना चाहिए कि धारा-149 के आवश्यक संघटको में से एक है कि अपराध विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया जाना चाहिए और धारा-149 यह स्पष्ट करती है कि यह केवल वहां होता, जहंा पांच या अधिक व्यक्ति ने जमाव गठित किया, जो एक विधिविरूद्ध जमाव होता है, उक्त धारा की अन्य आवश्यकतांए स्पष्टतः, यथा उस जमाव को करते हुए व्यक्तियों का सामान्य उददेश्य पूर्ण हो । अन्य शब्दों में, विधिविरूद्ध जमाव की एक आवश्यक शर्त है कि इसकी सदस्यता पांच या अधिक होना चाहिए । धारा-149 द्वारा विनिर्दिष्ट अपराध के आवश्यक संघटकों के संबंध में सही विधिक स्थिति शंका में नहीं है। 

        यदि जमाव की सदस्यता पांच से कम हो तो धारा-141 लागू नहीं होती है । इसलिए धारा-149 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता । यदि पंाच या अधिक व्यक्ति विधिविरूद्ध जमाव गठित करने के रूप में आरोपित हैं और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य उन समस्त के विरूद्ध आरोप साबित करता है, यह एक स्पष्ट प्रकरण होता है, जहां धारा- 149 अवलम्ब ली जा सकती है । यह परन्तु आवश्यक नहीं है कि पांच या अधिक व्यक्ति धारा-149 के तहत आरोप के पूर्व दोषसिद्ध किये जाने चाहिए।

        विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के विरूद्ध सफलतापूर्वक धारा-149 का आरोप लगाया जा सकता है । यह हो सकेगा कि पांच व्यक्तियों से कम धारा-149 के तहत आरोपित एंव दोष सिद्ध किये जा सकेंगे, यदि आरोप है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति अन्य के साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते, ऐसे नामित अन्य व्यक्ति परीक्षण हेतु उनके साथियों के साथ उपलब्ध नहीं हो सकेंगे, इस कारण से उदाहरण हेतु कि वह फरार हो गये हो ।

        ऐसे प्रकरण मंे, तथ्य कि पांच से कम व्यक्ति न्यायालय के समक्ष हैं,   धारा-149 को इस साधारण कारण से अप्रयोज्य नहीं बनाता है कि आरोप एंव साक्ष्य दोनो साबित किये जाना ईप्सित है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति और पांच से अधिक संख्या में एंव इस प्रकार, वे एक साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते । इसलिए, धारा-149 के तहत आरोप लगाने के अनुसरण मंे, यह आवश्यक नही है कि पांच या अधिक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष आवश्यक रूप से लाये जाने चाहिए और दोषसिद्ध किये जाने चाहिए ।

        उपर्युक्त उपबन्ध यह स्पष्ट करता है कि भा.द.सं. की धारा-149 की सहायता से अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के पूर्व, न्यायालय को सामान्य उददेश्य और यह कि उददेश्य विधिविरूद्ध था की प्रकृति के बारे में स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए । ऐसे निष्कर्ष साथ ही अभियुक्तगण द्वारा किसी ओर कार्य के अभाव में भी, मात्र तथ्य कि वे लैस थे सामान्य उददेश्य साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा ।धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध हेतु दण्ड व्यवहत करती है ।
      
        विधान का धारा-149 अधिनियमित करने में विधिविरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य केा इसके एक या अधिक सदस्यों द्वारा कारित किये प्रत्येक अपराध के लिए दण्डित किये जाने का उत्तरदायी बनाने का आशय नहीं है । धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए कि फंसाने वाला कृत्य विधि विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया या था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया गया था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए । यथा सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित होते हुए विशिष्ट अपराध की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

        यदि परिवादी और अभियुक्त स्वयं खुली लडाई में संलग्न थे, इसलिए भा.द.सं. की धारा-149 के तत्व आकर्षित नहीं होगे क्यों कि अपराध की सदोषता अपीलार्थीगण को व्यक्तिगत रूप से अन्तर्वलित करेगा । काउंटर प्रकरण में इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए।

        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर. 1976 एस0सी0 912 पूरणबनाम राजस्थान राज्य  में प्रतिपादित किया है कि अचानक दो पक्षकारो के मध्य पारस्परिक लडाई के मामले मंे, भा0द0सं0 की धारा 149 आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु अवलम्ब नहीं ली जा सकती और अभियुक्तगण व्यक्तिगत रूप से उनके द्वारा कारित क्षतियों के लिए दोषसिद्ध किये जायगे । इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि पक्षकारो के मध्य अचानक पारस्परिक लडाई के मामले में, भा.0द0सं0 की धारा-149 की सहायता का अवलम्ब लेने के प्रश्न आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु नहीं होगा और अभियुक्त केवल उसके द्वारा उसके वयैक्तिक कार्य द्वारा कारित क्षतियां के लिए दोषसिद्धि किया जा सकता था ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा मरियादासन और अन्य बनाम तमिलनाडू राज्य ए0आई0आर0 1980 एस0सी0 573, ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 339 अब्दुल हमीद और अन्य बनाम उ0प्र0 राज्यमें अभिनिर्धारित किया है कि अपराध कारित करने के सामान्य उददेश्य से किसी अवैध सभा का गठन साबित करने के लिए संतोष जनक साक्ष्य के अभाव में और जब सम्पूर्ण लडाई अचानक आवेश के क्षण प्रारम्भ हुई हो, तब अभियुक्त अकेला उनके वैयक्तिक कार्याे के लिए उत्तरदायी हो सकता है और भा0द0सं0 की धारा-149 के तहत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता 

            अब्दल हमीद बनाम उ0प्र0 राज्य 1991 भाग 1 एस0सी0सी0 339 गजानन्द बनाम उ0प्र0 राज्य ए0आई0आर0 1954 एस0सी0 695    द्वारका प्रसाद बनाम उ0प्र0 राज्य 1993 सप्ली 3 एस0सी0सी0 141 के मामले में यह ठहराया गया है कि एक खुली लडाई परिभाषा    के अनुसार है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारम्भ होना अर्थ है, खुली होती है और एक अवस्था की लडाई होती है प्रश्न ऐसी लडाई में कोैन हमला करता है और कौन बचाव पूर्णतः अतात्विक होता है प्रतिद्वंद्वी कमाण्डर द्वारा अपनाई गयी चालाकियों पर निर्भर करता है।
    ।
    यह स्थिति गजानन्द बनाम उ.प्र.राज्य कानबी नानजी वीरजी बनाम गुजरात राज्य, पूरण बनाम राजस्थान राज्य, विश्वास अबा कुराने बनाम महाराष्ट्र, के मामलो में स्थापित की गई है। यथा एक बार अभियोजन द्वारा यह स्थापित होता है कि प्रश्नगत घटना खुली लडाई के परिणामस्वरूप है, तब सामान्यतः प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार किसी भी पक्षकार को उपलब्ध नहीं होता है और वे क्रमशः उनके कार्यो हेतु दोषी होंगे ।

    केवल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2003 भाग-12 एस0सी0सी0 369 में  यह सम्प्रकाशित में यह ठहराया गया है कि दोनो पक्षकारगण सशस्त्र आए और खुली लडाई में हुए, जिसके परिणामस्वरूप दोनो     पक्षकारो को क्षतियां हुई ।    चूंकि दोनो पक्षकारगण लडाई के लिए तैयारी से आए थे इस प्रश्न में जाना अनावश्यक है कि क्या उनमें से किसी ने प्रायवेट प्रतिरक्षा के     अधिकार का अनुप्रयोग किया और इसलिए अभियुक्त की सदोषता उनके वैयक्तिक कार्यो हेतु निर्देशन द्वारा विनिश्चित की जानी चाहिए।इसलिए ऐसी स्थिति में भा0द0सं0 की धाराओ 147,148 और 149 के सिद्धांतो को लागू करने हेतु न्यायालय के लिए सुरक्षित नही ंहोगा ।       

                                     अचानक लडाई-

 2010 भाग-4 क्राईम्स 217 एस.सी. गनपत विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा एंव अन्य,
 2008 भाग-3 एम.पी.वि.नोट 18 रायसिंह एंव अन्य विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी,
2009 भाग-3 एम.पी.वि.नोट 7 रमेश कुमार उर्फ टोनी विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा,
 2009 भाग-2 क्राईम्स 365 एस.सी. नफे सिंह विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा,
 2007 भाग-1 जे.एल.जे. 377 शरीफ खान विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी.

            उपरोक्त न्यायदृष्टांतो में अभिनिर्धारित सिंद्धांतो के अनुसार अचानक पारस्पिरिक लडाई के मामले में भा0द0वि0 की धारा-34 और 149 दोनो लागू नहीं होती है । सभी व्यक्ति अपने अपने द्वारा किए गये कार्य के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते हैं । उपस्थित हो जाने मात्र से सामान्य आशय का गठन नहीं होता है । इसके लिए पूर्व नियोजन आवश्यक है । मात्र अपराध के समय एक साथ रहने से यदि व्यक्ति अचानक कोई घटना कर बैठे तो व्यक्ति को 34, 149 में दोषी नही ठहराया जा सकता । इसके लिए उसका पूर्व नियोजित होना आवश्यक है । 

        सामान्य उददेश्य का अभिनिर्धारण समूह की प्रकृति घटना स्थल पर ले जाये जाने वाले हथियार और उसके पूर्व व पश्चात के व्यवहार,सदस्यों के कृत्य, आचरण, सदस्यों द्वारा मौके पर गृहण आचरण के आधार पर अभिनिर्धारित किया जा सकता है । एक समूह जो प्रारंभ में विधिपूर्ण था बाद में अविधिपूर्ण हो सकता है और मौके पर भी सामान्य आशय तथा उददेश्य का गठन किया जा सकता है । 

        यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को मार डालने के सबंध में मस्तिष्को के मिलन बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

        अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार किये जाते है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई अचानक होती है जिसके लिए दोनो पक्ष दोषी होते है 

        प्रतिपादित दिशा निर्देशो के अनुसार सामान्य उददेश्य पूर्व मिलन की अपेक्षा नहीं करता इसके लिए  जरूरी है कि 5 या 5 से अधिक सदस्य सामान्य उददेश्य बनाये और उस उददेश्य को हासिल करने उस समूह में स्वयं कृत्य करें यहां समूह का कृत्य ही सबको बराबर का उत्तरदायी बनाता है । 

        इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं होती है । इसे आरोपीगण के कृत्य, आचरण सुसंगत परिस्थितियों के आधार पर देखा जाता है । इसमें आरोपीगण के कृत्य पहंुचाई गई क्षतियां प्रयुक्त हथियार, कार्य की प्रकृति और आरोपीगण का आचरण मुख्य तथ्य है। इसके लिए समूह की प्रकृति, समूह के सदस्यों द्वारा ले जाए जाने वाले हथियार, घटना के समय अथवा घटना के नजदीक सदस्यों का व्यवहार देखा जाना चाहिए।

        यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को मार डालने के सबंध में मस्तिष्को के मिलन बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

.        अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार किये जाते है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई अचानक होती है जिसके लिए दोनो पक्ष दोषी होते है ऐसा हो सकता है कि लडाई एक पक्ष प्रारंभ करे और दूसरा पक्ष उसको बढावा न दे तो लडाई के गंभीर परिणाम सामने नहीं आते हैं।

        अचानक लडाई के मामले में धारा-300 के भाग-4 के अंतर्गत हत्या की जगह आपराधिक मानव वध का अपराध प्रमाणित माना जाता है । महेश विरूद्ध एम.पी.राज्य ए.आई.आर. 1996 सु.को. 3315  गलीवेंकटयया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 ए.सी.सी. 370  मंे प्रतिपादित किया है कि भा.द.सं. की धारा-300 के स्पष्टीकरण 4 को लागू किये जाने के लिए आवश्यक है कि आरोपी यह साबित करे कि जो लडाई हुई है वह-

क-        पूर्व चिंतन के बिना,
ख-        अकस्मात लडाई में,
ग-        अपराधी द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किये बिना या कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य किये             बिना और,
घ-        मारे गये व्यक्ति के साथ लडाई होनी चाहिए ।

        लडाई दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आयुधो के साथ या बिना मुठ भेड होती हे यह संभव नहीं है कि इस बारे में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित किया जाये कि अकस्मात झगडा किसको माना जाये । यह तथ्य का प्रश्न है और यह बात कि कोई झगडा अकस्मात हुआ या नहीं, आवश्यक रूप से प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर निर्भर होगा ।

         अपवाद 4 को लागू करने के लिए यह दर्शित किया जाना पर्याप्त नहीं है कि अकस्मात झगडा हुआ था और उसके लिए पूर्व चिंतन नहीं किया गया था । यह भी दर्शित किया जाना चाहिए कि अपराधी ने अनुचित लाभ नहीं लिया या उसने कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य नहीं किया । अभिव्यक्ति अनुचित लाभ जैसा कि उपंबध में प्रयुक्त किया गया है का अर्थ है अऋजू लाभ। उपरोक्त सिद्धांत मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गलीवेंकटयया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 ए.सी.सी. 370  मंे प्रतिपादित किया है।

        इस मामले में मान्नीय न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया है कि दंड संहिता की धारा-300 का चैथा अपवाद अकस्मात हाथापाई में किये गये कार्यो को आच्छादित करता है । यह अपवाद इसी सिद्धांत पर आधारित है कि दोनो में ही पूर्वचिंतन का अभाव है ।

        जबकि अपवाद 1 के मामले में आत्म नियंत्रण का पूर्ण अभाव है और स्पष्टीकरण 4 के मामले में केवल आवेश की तीव्रता का उल्लेख है जो व्यक्तियों के सौम्य संतुलन को प्रभावित करती है और उनको उन कार्यो को करने के लिए प्रेरित करती है । जिन्हें वे अन्यथानहीं करेंगे । अपवाद 4 में प्रकोपन को उपबंधित किया गया है ।जैसा कि अपवाद 1 में है किन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष परिणाम नही है ।

        वास्तव में अपवाद 4 के अधीन ऐसे मामलो पर विचार किया गया है जिनमें इस बात के होते हुए भी कि प्रहार किया गया है या विवाद के उदगम में कुछ प्रकोपन दिया गया है या किसी भी रीति में झगडे से उत्पन्न हुआ है तथापि दोनो पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण उनके अपराध के संबंध में समान आधार पर रख देता है । 

        अकस्मात लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार विवक्षित है । तब कारित मानववध स्पष्टतः एक पक्षीय प्रकोपन के अंतर्गत नहीं आता है और न ही ऐसे मामलो में सम्पूर्ण दोष किसी एक पक्ष पर डाला जा सकता है । ऐसा होता हो जो अपवाद अधिक उपयुक्त रूप से लागू होगा वह अपवाद 1 है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या अवधारण नहीं होता है लडाई अचानक होती है जिसके लिए लगभग दोनो ही पक्ष दोषी होते हैं । 

        अचानक लडाई के मामले में जब परस्पर प्रकोपन का मामला हो यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि दोनो पक्षों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है तो धारा 304 के अपवाद 4 में मामला माना जायेगा । 

        इसी प्रकार पूर्व चिंतन पूर्व रंजिश के अभाव में यदि क्षति पहंुचाई जाती है तो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त नहीं है और चिकित्सीय सहायता द्वारा अभियुक्त को बचाया जा सकता था तो यह कार्य आपराधिक मानव वध माना जायेगा ।      
     

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