Wednesday 27 November 2013

Cr. Appeal saitation

1. पक्षविरोधी साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता, उसका सावधानीपूर्वक अभियोजन के लिए समर्थित बिन्दुओं पर विश्लेषण करना चाहिए ।
        यद्यपि सहज धारणा यह है कि पक्षविरोधी घोषित किये जाने की दषा में संबंधित साक्षी का महत्व पूरी तरह समाप्त हो जाता है, लेकिन जैसा कि न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को, जिसे अभियोजन के द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है, यांत्रिक रूप से रद्द करने के बजाय सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर यह देखना आवष्यक है कि क्या उसका कोई हिस्सा विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य है।

2. साक्षी की साक्ष्य में आई भिन्नता या विरोधाभाष के कारण साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्ष्य में व्याप्त ऐसी विसंगतियों और विरोधाभासों को जो वर्णनात्मक भिन्नता के कारण प्रकट हुये हैं या फिर अतिरंजनाओं के कारण आये हैं, उस स्थिति में सम्पूर्ण साक्ष्य को रद्द करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिये। जबकि आधारभूत कथा में सत्य का अंष मौजूद हो, संदर्भ:- भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753. अतः खुषीलाल (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य को उक्त कारणवष अस्वीकार करना विधि सम्मत नहीं होगा।

3. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को मात्र उसके हितबद्ध होने के कारण नकारा नहीं जा सकता है:-

        इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर कि वह हितबद्ध है, यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता है।

4. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य यदि विश्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।

5. किसी साक्षी की साक्ष्य को मात्र इस कारण अस्वीकार नहंी किया जा सकता कि उसके समर्थन में किसी स्वतंत्र साक्षी की साक्ष्य नहीं कराई गई ।
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि उसकी सम्पुष्टि के लिये स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है। संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88. । जहाॅं साक्षीगण की अभिसाक्ष्य अन्यथा विष्वास योग्य है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई त्रुटि नहीं मानी जा सकती है।

6. एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, चाहे अभियोजन द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत भी न किया हो:-
        अभियोजन का मामला विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की एकल साक्ष्य पर आधारित है, क्योंकि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी बताये जाने वाले भाऊसिंह को अभियोजन ने प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन मात्र इस आधार पर कि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी को प्रस्तुत नहीं किया गया, विष्णुप्रसाद (अ.सा.1) की साक्ष्य को यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता। यदि उसकी साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि निर्धारित की जा सकती है, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य 2003 (3) एस.सी.सी.-401.

7. यदि घटना में आरोपी/अपीलार्थी को भी चोटें आई हों तो अभियोजन आरोपी को आई चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण देना होगा:-
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि अभियुक्त पक्ष को चोटें है जो अत्यंत छुद्र स्वरूप की नहीं है तो अभियोजन का यह दायित्व है कि वह यह स्पष्ट करें कि ये चोटें कैसे आई अन्यथा यह उपधारित किया जायेगा कि अभियोजन  घटना के स्वरूप और उद्गम को छिपा रहा है, संदर्भ लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263 ।

8. अभियोजन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को आई प्रत्येक चोट का स्पष्टीकरण न्यायालय में दे, गंभीर चोट के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक है लेकिन क्षुद्र और सतही चोटों के संबध्ंा में स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं है:-
        अभियोजन पक्ष के द्वारा बचाव पक्ष की चोटांे को स्पष्ट किये जाने के बारे में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि अभियोजन के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को कारित की गयी प्रत्येक चोट को न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकृत करें। अभियोजन अभियुक्त पक्ष को आई क्षुद्र और सतही चोटों को स्पष्ट करने के लिये दायित्वाधीन नहीं है। हाॅं, यदि चोटें गम्भीर हैं तो उन्हें स्पष्ट किया जाना आवष्यक है, संदर्भः- श्रीराम विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004(1) जे.एल.जे.-256 (एस.सी.) एवं लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263


9. साक्ष्य मूल्यांकन के पश्चात् यदि उचित पाई गई, तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
        यदि उचित मूल्यांकन एवं विवेचना के बाद साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण पाई गई है, तो उसके आधार पर अभिलिखित की गई दोष-सिद्धि को त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है, संदर्भ:- लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी. 401

10. एक झंूठ, सब झंूठ का सिद्धांत दांडिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है:-
        यह विधिक स्थिति भी यहाॅं संदर्भ योग्य है कि ’’एक झूंठ सब झूंठ का सिद्धांत’’ दाण्डिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है, संदर्भ:- जकी उर्फ सलवाराज विरूद्ध राज्य 2007 ब्तण् स्ण् श्रण् 1671 (एस.सी)।

11. किसी साक्षी की साक्ष्य को इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि उसका समर्थन किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहंी किया गया:-
        यहाॅं इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

12. विचारण न्यायालय द्वारा धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने शनैः-षनैः इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये। इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडि़त व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये। ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है। माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडि़त व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुॅच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।


13. विवाहिता के साथ प्रताड़ना के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस प्रकार प्रताडि़त किया जाए कि आसपास/पडौस के लोगों की जानकारी में आए, यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन आसपास/पडौस के लोगों को प्रताड़ना के संबध्ंा में साक्ष्य हेतु प्रस्तुत करे:-
    यदि निकट संबंधी ही साक्षी के रूप में प्रस्तुत किए गए तो उनकी अभिसाक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।
        न्याय दृष्टांत पष्चिमी बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल, 1994 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2104 (एस.सी.) में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि सामान्यतः यह अपेक्षित नहीं है कि पति तथा उसके रिष्तेदारों द्वारा वधु के साथ प्रताड़नापूर्ण व्यवहार इस प्रकार किया जाये कि वो पड़ोसियों तथा आसपास रहने वाले किरायेदारों की जानकारी में आये, क्योंकि ऐसी स्थिति में पड़ोसी उन्हें असम्मान एवं अवमान की दृष्टि से देखेंगे अतः वधू के साथ ससुराल पक्ष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना के मामले में यह आवष्यक नहीं है कि अभियोजन पड़ोसियों तथा आसपास के लोगो को स्वतंत्र साक्षी के रूप में अपने मामले के समर्थन में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें।
         उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि पीडि़त  के निकट संबंधियों, जो अभियोजन में रूचि रखते हैं, की अभिसाक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये कि स्वतंत्र साक्षियों से उसकी सम्पुष्टि नहीं हुयी है अपितु मामले के विषिष्ट तथ्यों  के आधार पर उसकी विष्वसनीयता के बारे में विनिष्चय किया जाना चाहिये क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।

14. दांडिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हैै, यह प्रत्येक मामले के तथ्य व परिस्थिति पर निर्भर करता है:-
    उक्त मामले में गुरूवचनसिंह विरूद्ध सतपाल सिंह, ए.आई.आर. 1990 (सु.को.)209 का संदर्भ देते हुये यह भी प्रतिपादित किया गया हे कि दाण्डिक विचारण में अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित किये जाने का कोई निष्चित मापदण्ड नहीं है तथा प्रत्येक मामले के तथ्यों, परिस्थितियों एवं साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर निष्कर्ष निाकला जाना चाहिये

15. प्रथम सूचना रिपोर्ट में हुए विलंब के कारण पूरे मामले को अस्वीकार नहंी किया जा सकता है:-
         न्याय दृष्टान्त तारासिंह विस्द्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी.536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविष्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवष्यक है।


16. साक्षियों के कथनों में आए महत्वहीन विरोधाभाष या विसंगति से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि न्यायालय को यह देखना चाहिए कि उक्त विसंगति एवं विरोधाभाष का प्रभाव मूल प्रश्न पर तो नहीं पड़ता है ।
        साक्षियों के कथनों में व्याप्त विसंगतियों एवं उनके प्रभाव के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति भी इस संबंध में संदर्भ योग्य है. उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. में यह ठहराया गया है कि न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, जब तक विसंगतियंा मूल प्रष्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नही ंपड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईष्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है। छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैंद्व उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता हैद्व संदर्भ- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सु.को.18.

17. विधि फरियादी पक्ष को यह अनुमति नहीं देती है कि वह अपीलार्थी के शांतिपूर्ण कब्जे में उसे बलपूर्वक बेदखल करे, अपीलार्थी को अपने आधिपत्य की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है:-

विधि उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वे बलपूर्वक आपीलार्थीगण के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करें तथा विवादित भूमि से उनको बलपूर्वक बेदखल करे अतः उस सीमा तक अपने आधिपत्य की सुरक्षा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत गंगाप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-(1) नोट-236 एवं गुड्डू उर्फ राकेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-2001(1) नोट -34 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। जिनमंे सम्पत्ति की प्रायवेट रक्षा के अधिकार के अस्तित्व होने की दषा मेें ’संहिता’ की धारा 323/34 की दोष-सिद्धि को उचित नहीं ठहराया गया है।

18. यदि मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती तो उसे रदद नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दशा में मामले को अविश्वसनीय ठहरा सकते हैं जहां मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो:-
        न्याय दृष्टांत में ही संदर्भित माननीय सर्वोच्च न्यायालय न्याय दृष्टांत नागेन्द्र बाला विरूद्ध सुनीलचंद, ए.आई.आर. 1960 एस.सी.-706 में किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ आवष्यक है कि चिकित्सीय साक्ष्य एक अभिमत मात्र है तथा यदि मौखिक साक्ष्य अपने आप में स्पष्ट है तो मात्र इस आधार पर कि ऐसी मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती है, उसे रद्द नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दषा में मामले को अविष्सनीय ठहराया जा सकता है, जहाॅं मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो।

19. एकल साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, अगर वह  विसंगतिविहीन एवं विश्वास योग्य हो:-

निष्चय ही विधि का ऐसा कोई नियम नहीं है कि एकल साक्ष्य पर दोष-सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने के लिये यह आवष्यक है कि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य ठोस, विसंगति विहीन एवं विष्वास योग्य हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में प्रतिपादित विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

20. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
        माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो, संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.

21. यदि किसी साक्षी की साक्ष्य में घटना के संबध्ंा में समर्थनकारक साक्ष्य है तो उसकी साक्ष्य में आई प्रकीण बिन्दुओं पर विसंगति के कारण पूरी साक्ष्य को नहीं नकारा जा सकता है:-
        विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये कि यदि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य में आधारभूत घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो उसे प्रकीर्ण बिन्दुओं पर आई विसंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये, संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897

22.अपीलार्थीगण/आरोपीगण की न्यायालय में पहचान के संबंध में:-
(325 क्रि.अ.क्र. 96/10 पेज-10)
        विवेचना-क्रम में पहचान न कराये जाने के बाद न्यायालय में पहली बार की गयी पहचान कार्यवाही को सारभूत एवं महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना गया है, अपितु दुर्बल किस्म की साक्ष्य माना गया है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत अफसर विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009(3) एम.पी.डब्ल्यू.एन.नोट-63 संदर्भ योग्य है, जिसमें बार-बार न्यायालय आने-जाने के बाद विचारण के दौरान साक्षी न्यायालय में द्वारा की गयी पहचान को महत्वहीन ठहराया गया।

23. द.प्र.सं. की धारा 391 के तहत आवेदन पेश होने पर उक्त आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिए, न्यायालय स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित कर सकता है या विचारण न्यायालय को निर्देशित कर सकता है:-
        धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय आवष्यक समझने पर अतिरिक्त साक्ष्य या तो स्वयं अभिलिखित कर सकता है अथवा संबंधित मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित करने का निर्देष दे सकता है। न्याय दृष्टांत धर्मेन्द्र भंडारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006 क्रि.लाॅ.रि. एम.पी.-216 में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिये तथा यदि आवेदन पत्र स्वीकार किया जाता है तो अपील न्यायालय मामले को साक्ष्य अभिलिखित करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है अथवा स्वयं साक्ष्य ले सकता है।

24. पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का अन्य साक्षियों की साक्ष्य की तरह ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोत से संपुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जाएगा :-
        न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध राज्य, (2003) 5 एस.सी.सी. 291 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।

25. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-
        उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितियाॅं पूरी की जानी चाहिये।

26. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-
        न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।


27. पुलिस अधिकारी की एकल साक्ष्य, जो स्वतंत्र साक्ष्य से परिपुष्ट नहीं है, के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, जबकि वह विश्वास योग्य हो:-
         विधि या प्रज्ञा का ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य स्वतंत्र संपुष्टि के बिना स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टांत ’ख’  के अंतर्गत ऐसी अपेक्षा केवल सह अपराधी की अभिसाक्ष्य के विषय में की गई है। न्यायालय यदि किसी विषिष्ट मामले में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य पाता है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस विधिक स्थिति के बारे में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट ने आलोच्य निर्णय में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये विधिक स्थिति का उचित विष्लेषण किया है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी.2783 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

28. अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध्ंा में:-
        जैसा कि न्याय दृष्टांत गड्डो उर्फ विनोद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य 2006(1) एम.पी.जे.आर. शार्टनोट- 35 में अभिनिर्धारित किया गया है, अपचारी बालक को सुुपुर्दगी पर दिये जाने या अभिरक्षा से मुक्त किये जाने के संबंध में मामले के गुण-दोषों के बजाय ’अधिनियम’ की धारा 12 के परिप्रेक्ष्य मंे सामान्य नियम यह है कि ऐसे किषोर को अभिरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिये। अपवाद की स्थिति वहाॅं हो सकती है, जहाॅं पर यह विष्वास करने के युक्तियुक्त आधार हो कि अभिरक्षा से मुक्त किये जाने पर ऐसे किषोर के ज्ञात अपराधियों के सानिध्य में आने की संभावना है अथवा निरोध से मुक्त किये जाने पर उसको नैतिक, भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खतरा होगा अथवा उसके कारण न्याय के हितों का हनन होगा।

29. पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
    यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहाॅं कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहाॅं उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा, संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।

30.    धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-
’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था। इस संबंध मंें न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

31. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-
        उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।
32. धारा 138 के संबध्ंा में:-
        न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
        इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।       

33.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

        उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

34. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
        ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया । उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।

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7.        मैंने उभय पक्ष के तर्क सुने एवं मूल अभिलेख का परिषीलन किया। विचारणीय प्रष्न यह है कि:-
        ’’क्या उपरोक्तानुसार भरण-पोषण भत्ता दिलाये जाने संबंधी विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट का आदेष अषुद्ध, अवैधाकि अथवा अनौचित्यपूर्ण है ?
8.        जैसा कि न्याय दृष्टांत जागीर कौर विरूद्ध जसवंत सिंह, 1963 ए.आई.आर. (एस.सी.)-521 मंे अभिनिर्धारित किया गया है कि ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत सम्पादित की जाने वाली कार्यवाहियाॅं व्यवहार प्रकृति की संक्षिप्त स्वरूप की होती है, जिनका उद्देष्य असहाय व्यक्तियों को तात्कालिक सहायता पहुॅचाने का है, ताकि उन्हें जीवन यापन के लिये सड़क पर न भटकना पड़े। ऐसे मामलों में प्रमाण भार उतना कठोर नहीं होता है, जितना कि दाण्डिक मामलों में होता है, अपितु साक्ष्य बाहुल्यता एवं अधि-संभावनाओं की प्रबलताओं के आधार पर निष्कर्ष अभिलिखित किये जाने चाहिये।
9.        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10.        जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है। .
9.        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहाॅं वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.
10.        जहाॅं तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है।
द0प्र0सं0 311
    9.        जैसा कि न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।
498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
9.        न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मंें माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै। न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।
10.        न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहाॅं कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।
11.            न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।
12.            वर्तमान मामले में उक्त विधिक स्थिति तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 177 एवं 178 के प्रावधानों के प्रकाष में दृष्टिपात करने पर यह प्रकट होता है कि आवेदिका द्वारा प्रस्तुत की गयी लिखित षिकायत तथा अनुसंधान के दौरान अभिलिखित किये गये आवेदिका के धारा 161 द.प्र.सं. के कथन में रंचमात्र भी ऐसी कोई बात नहीं है कि अनावेदकगण ने सीहोर में उसके साथ किसी प्रकार का क्रूर या प्रताड़नापूर्ण व्यवहार किया था। ऐसी स्थिति में पूर्वाेक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सीहोर स्थिति न्यायिक मजिस्ट्रेट को अनावेदकगण के विरूद्ध सुनवाई की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती है।
एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-
8.    ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है,  में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है । न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है । अतः पुनरीक्षणकर्ता के विद्वान अधिवक्ता द्वारा किया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि एल.पी.जी. गैस सिलेंडर अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत नहीं आती है ।

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