Tuesday 26 November 2013

s-306,304B,498A saitation

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धारा 306,304वी,498ए
13.        उक्त परिपे्रक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या अभियुक्तगण ने मृतिका के साथ क्रूर व प्रताड़नापूर्ण व्यवहार कर उसे किसी प्रकार से आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया ? इस बारे में दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है, संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645. उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान मामले में अभियुक्तगण ने ममताबाई को आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?
14.        उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
-12.        न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645 मंे यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।
13.        उक्त क्रम में मामले की विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है।
14.        न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
15.        न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
16.        वर्तमान मामले में अभियोजन का ऐसा कहना नहीं है कि अभियुक्तगण ने अंजूबाई को आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरित किया अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसे आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित अथवा प्रेरित किया।

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धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहाॅं पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहाॅं न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितुु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध्ंा में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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15.        न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
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24.        उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.लाॅ.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।
25.        जहाॅं तक क्रूरता स्थापित करने के लिये सा़क्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूॅकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर  से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में ्रपस्तुत की जा सकती है, संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.लाॅ.ज. 1186 आंध्रप्रदेश। मृतिका द्वारा मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में माता-पिता एवं परिचितों को बतायी गयी बातों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत ठहराया गया है तथा उस क्रम में मृतिका द्वारा क्रूर व्यवहार के बारे में माता-पिता आदि को बतायी गयी बातें भी सुसंगत है, संदर्भ:- शरद विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1984 सु.को. 1622. उक्त विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करना होगा।
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37.        यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है। न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा।
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