Tuesday 26 November 2013

Rape Case saitation

    अभियोक्त्री (अ.सा.1), जिसके नाम का उल्लेख ’संहिता’ की धारा 228(ए) के प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में, जिनके विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा हिमाचल प्रदेष राज्य विरूद्ध श्रीकांत सेकरी, 2004(8) एस.सी.सी.-153 में यह व्यक्त किया गया है कि बलात्कार की पीडि़ता को मानसिक पीड़ा से बचाने के सामाजिक उद्देष्य को दृष्टिगत रखते हुये निर्णय में अभियोक्त्री के नाम का उल्लेख न करना अपेक्षित है, इस प्रकरण में नहीं किया जा रहा है, के साथ बलात्कार किया।
आयु निर्धारण के बिन्दु पर विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये
25    न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध मोहिंदरसिंह, ए.आई.आर.-2008 एस.सी.1868 में  प्रतिपादित किया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र के पिता, संरक्षक या निकट संबंधी द्वारा दी गयी जानकारी के आधार पर की गयी प्रविष्टियाॅ भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32 उपधारा 5 के अंतर्गत अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आधिकारिक प्रकृति की साक्ष्य मानी जायेगी जब तक कि यह स्थापित न कर दिया जाये कि ऐसा किया जाना संभव नहीं था।
26.        न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.1057 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि आयुु के विनिष्चय के संबंध में सामान्यतः मौखिक साक्ष्य बहुत उपयोगी नहीं है तथा ऐसे मामलो में प्रलेखीय साक्ष्य निर्भर योग्य हो सकती है यदि उसकी प्रमाणिकता प्रकट हो। इस मामले में यह ठहराया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में जन्मतिथि के बारे में की गयी प्रविष्टियाॅं अच्छी साक्ष्य की परिधि में आती है तथा ऐसी प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि संबंधित पंजी लोकसेवक के द्वारा ही संधारित की गयी हो, अपितु कामकाज के सामान्य अनुक्रम में विधि के अंतर्गत संधारित की गयी पंजी में यथाविधि की गयी प्रविष्टियों को भी महत्व दिया जाना चाहिये।
27.        न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र (पूर्वोक्त) के मामले में इस बात का संज्ञान माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा लिया गया कि सामान्यतः ग्रामीण व्यक्ति जन्म और मृत्यु कीं सूचना देने के बारे में बहुत सजग नहीं होते हैं तथा इस बारे में यदि कोई व्यतिक्रम है तो उसे अन्य साक्ष्य के लिये घातक नहीं माना जा सकता है। इस मामले में न्याय दृष्टांत मोहम्मद इकराम हुसैन विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1964 एस.सी.-1625 में न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह द्वारा किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ भी दिया गया कि विद्यालय छात्र पंजी में की गयी प्रविष्टि, जो विवाद होने के पूर्व की थी, साक्ष्यगत महत्व रखती है।
28.        न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 361 के मामले में विद्यालय छात्र पंजी में आयु विषयक की गयी प्रविष्टि को, जिसे प्रधान अध्यापक ने प्रमाणित किया था, आयु निर्धारण के लिये सुसंगत एवं अवलंबनीय माना गया।
29.        न्याय निर्णयों की उक्त श्रृंखला के आधार पर वर्तमान मामले के तथ्यों पर दृष्टिपात करें तो यह बात उभरकर सामने आती है कि अभियोक्त्री (अ.सा.1) की माॅं मानकुॅवर (अ.सा.2) के द्वारा अभियोक्त्री की आयु के संबंध में प्रकट की गयी यह साक्ष्य कि अभियोक्त्री (अ.सा.1) की आयु घटना के समय 13 वर्ष थी, अपने आप में विष्वास योग्य है तथा उसे केवल इस आधार पर रद्द करना उचित नहीं है कि मानकुॅवर (अ.सा.2) एक ग्रामीण अषिक्षित महिला है तथा वह जन्मतिथि को याद नहीं रख सकती है। यदि इस तार्किक व्यवस्था को अंगीकार किया जाये तो देष के 60-70 प्रतिषत अषिक्षित ग्रामीण व्यक्तियों के संबंध में उनकी आयु को उचित रूप से प्रमाणित करना ही लगभग असंभव हो जायेगा।
23.        न्याय दृष्टांत जीवराखन विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004 क्रि.लाॅ.ज.-2359 (म.प्र.) में स्कूल पंजी के आधार पर जन्म संबंधी प्रमाण-पत्र प्रधान अध्यापक ने जारी किया था, जिसे विष्वास योग्य नहीं माना गया, क्योंकि स्कूल के सुसंगत अभिलेख को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था।
21.        न्याय दृष्टांत बिरदमल सिंघवी विरूद्ध आनंद पुरोहित, ए.आई.आर. 1958 एस.सी.-1796, जिसमें चुनाव से संबंधित विवाद अंतर्वलित था, यह अभिनिर्धारित किया गया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के अंतर्गत आयु संबंधी प्रमाण के साक्ष्य में ग्राह्य करने के लिये यह आवष्यक है कि प्रथमतः प्रविष्टि लोक सेवक अथवा शासकीय कारोबार के अनुक्रम में संधारित अधिकृत पंजी में की गयी हो, द्वितीयतः ऐसी प्रविष्टि सुसंगत तथ्य के रूप में हो तथा तृतीयतः यह प्रविष्टि लोक सेवक के द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा विधि के अंतर्गत निर्धारित दायित्वों के निर्वाह के क्रम में की गयी हो। इस मामले में यह ठहराया गया है कि विद्यालय छात्र पंजी में जन्मतिथि के बारे में की गयी प्रविष्ठि साक्ष्य अधिनियम की धारा 35 के अंतर्गत सुसंगत है, लेकिन यदि नहीं दर्षाया गया है कि प्रविष्टि किस आधार पर की गयी तो उसका महत्व बहुत अधिक नहीं रह जाता है। इस मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि ऐसी प्रविष्टि माता-पिता या ऐसे व्यक्ति की सूचना के आधार पर जिसे जन्मतिथि के बारे में ज्ञान हो सकता था, की गयी है तो उसका महत्व है, लेकिन यदि किसी अजनबी द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर ऐसी प्रविष्टि की गयी है, तो उसका कोई साक्ष्यगत महत्व नहीं है। इस मामले में किये गये प्रतिपादन के प्रकाष में वर्तमान प्रकरण के तथ्यों पर विचार करें तो यह प्रकट होता है कि अभियोक्त्री (अ.सा.1) की जन्मतिथि उसकी नानी के द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर अभिलिखित की गयी है तथा नानी के बारे में साधारणतः यह नहीं कहा जा सकता कि वह अजनबी व्यक्ति थी अथवा उसे अभियोक्त्री (अ.सा.1) की जन्मतिथि के बारे में कोई ज्ञान नहीं हो सकता था। यह संभव है कि उसे तिथि या माह की निष्चित जानकारी न रही हो, लेकिन आयु का सहज या सामान्य ज्ञान, जो ग्रामीण परिवेष के व्यक्तियों को होता है वह तो उसे निष्चिय ही रहा होगा। यह बात अलग है कि उसकी मृत्यु हो जाने के कारण उसे साक्ष्य में प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं था।
  
14.        न्याय दृष्टांत सोमनाथ भानूदास मोरे विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, दाण्डिक अपील क्र. 134/2008 मुंबई उच्च न्यायालय, औरंगाबाद पीठ, निर्णय दिनाॅंक 29.03.2008 की कंडिका 11 में प्रकट की गयी यह स्थिति इस क्रम में सुसंगत एवं उल्लेखनीय है कि यह आवष्यक नहीं है कि ग्रामीण परिवेष के समाज के बिल्कुल निचले तबके से आने वाले मामलों में पिता को पीडि़त व्यक्ति की निष्चित जन्मतिथि का ज्ञान हो। वस्तुतः ऐसे ग्रामीण व्यक्तियों से निष्चित जन्मतिथि की अपेक्षा करना ही अपने आप में रहस्यपूर्ण होगा।
1    कुल मिलाकर उक्त प्रलेखीय अभिसाक्ष्य विद्यालय छात्र पंजी अथवा अंकसूची से गीता बाई (अ.सा.6) के जन्म के विषय में प्र.पी-4, प्र.पी-1 तथा प्र.पी-7 में लेखबद्ध की गयी जन्मतिथि (08.09.1991) के आधार या स्त्रोत का कोई पता नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में उसका अपने आप में कोई साक्ष्यगत महत्व नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
    न्याय दृष्टांत पंजाब राज्य विरूद्ध गुरमितसिंह आदि, 1996(2) एस.सी.सी. 384 (पैरा-13) में अभियोक्त्री तथा उसके माता-पिता द्वारा अभियोक्त्री की आयु के बारे में दी गयी मौखिक, अखण्डित अभिसाक्ष्य को स्वीकार्य माना गया है। अतः    वर्तमान मामले में भी अभियोक्त्री (अ.सा.1) तथा उसके माता-पिता की मौखिक अभिसाक्ष्य स्पष्ट, अक्षुण एवं चुनौती विहीन होने कारण स्वीकार किये जाने योग्य है।
15.         सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। माखन विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2003(3) एम.पी.एल.जे.-115 के मामले में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत उमेषचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1982 एस.सी.-1057 तथा रौनकी सरूप विरूद्ध राज्य, ए.आई.आर. 1970 पंजाब एवं हरियाणा-450 को उद्धृत करते हुये यह ठहराया गया है कि विद्यालय पंजी (छात्र पंजी) में की गयी प्रविष्ठियाॅ उस दषा में बहुत महत्व नहीं रखती हैं, जबकि यह स्थापित करने के लिये कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है कि ऐसी प्रविष्ठियों का आधार क्या है। उक्त मामले में मुन्नालाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1977 जे.एल.जे.-731 (खण्डपीठ) को उद्धृत करते हुये यह भी इंगित किया गया है कि अभियोक्त्री की आयु को प्रमाणित करने के लिये सर्वश्रेष्ठ प्रमाण उसके माता-पिता की साक्ष्य तथा जन्म प्रमाण-पत्र है तथा जहाॅ उनका परीक्षण नहीं कराया गया है तथा जन्म प्रमाण-पत्र प्रस्तुत नहीं किया गया है, वहाॅं उस स्थिति में जबकि विद्यालय पंजी में की गयी प्रविष्ठियों का आधार ही प्रकट नहीं है, विद्यालय पंजी की प्रविष्टियों का महत्व नहीं रह जाता है।
16.        न्याय दृष्टांत सुधा विरूद्ध चरण सिंह व एक अन्य, 2007(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-118 के मामले में अभियोजन ने विद्यालय पंजी में अभियोक्त्री की जन्मतिथि की प्रविष्टियों के विषय में अवलम्ब लेना चाहा था, लेकिन ऐसी कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी थी कि किस प्रमाण के आधार पर और किस के कहने पर विद्यालय प्राधिकारी द्वारा ये प्रविष्टियाॅं की गयीं। अभियोक्त्री के पिता ने यह स्वीकार किया था कि अभियोक्त्री की जन्मपत्री तैयार नहीं की गयी है न ही उसके पास जन्मपत्री का कोई लिखित रिकार्ड है और न ही उसने जन्म के विषय में जन्म के समय ग्राम कोटवार, सरपंच या ग्राम के चैकीदार को कोई सूचना दी थी, वह स्वयं अपनी तथा अन्य बच्चों की जन्मतिथि बताने में असफल रहा था। ऐसी दषा में विद्यालय पंजी में की गयी जन्म विषयक् प्रविष्टियों को महत्व नहीं दिया गया।
17.        न्याय दृष्टांत प्रवाकर पाटी विरूद्ध अजय कुमार दास व एक अन्य, 1996 क्रि.लाॅ.ज. 2626 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय द्वारा यह भी ठहराया गया है कि विद्यालय प्रवेष पंजी में छात्र की जन्मतिथि विषयक् प्रविष्टियों को बहुत अधिक निर्भर योग्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि संरक्षकों में स्वाभाविक रूप से प्रवेष के समय आयु को कम करके लिखाने की प्रवृत्ति होती है।
    न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 41(म.प्र.) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसकी कंडिका 6 में विद्यालय छात्र पंजी की प्रविष्टियों और उसके आधार पर जारी ऐसे प्रमाण-पत्र के महत्व के बारे में विचार किया गया, जिसके संबंध में यह स्थापित नहीं हुआ था कि वास्तव मंे जन्मतिथि किसके द्वारा लिखायी गयी तथा उसका आधार क्या था। इस मामले में ऐसे प्रमाण-पत्र को साक्ष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं माना गया।
10.        वैज्ञानिक साक्ष्य भी, जो अस्थि विकास जाॅच पर आधारित होती है, इस हेतु सुसंगत है, संदर्भ:- धौडि़या विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1983 एम.पी.वी.नो. नोट नं. 248. अस्थि विकास जाॅच द्वारा निर्धारित की गयी आयु में दोनों ओर लगभग 2 वर्ष का विचलन हो सकता है तथा सामान्यतः इसका लाभ अभियुक्त के पक्ष में जाना चाहिये, संदर्भ:- अकील विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1998(2) एम.पी.एल.जेे. पृष्ठ 199 एवं शीला बाई विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1997(1) विधि भास्वर 94.
16.        अस्थि विकास जाॅच के आधार पर निष्कर्षित आयु के विषय में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि इसमें दोनों ओर दो वर्ष का विचलन हो सकता है तथा ऐसे विचलन का लाभ स्वाभाविक रूप से अभियुक्त पक्ष को मिलना चाहिये, संदर्भ- शीला बाई विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1997(1) विधि भास्वर 94.
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संपुष्टि के लिये कोई स्वतंत्र साक्ष्य
    न्याय दृष्टांत रामेष्वर विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 54 के मामले में जहाॅं  8 साल की पीडि़ता बच्ची ने घटना के लगभग 4 घण्टे बाद अपनी माॅं को घटनाक्रम बताया था, वहाॅं उसे स्वतंत्र संपुष्टिकारक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया।
17.        बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि अभियोक्त्री की अभिसाक्ष्य की संपुष्टि के लिये कोई स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है अतः अभियोक्त्री (अ.सा.1) की अभिसाक्ष्य विष्वास योग्य नहीं है, लेकिन यह तर्क विधि सम्मत नहीं है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत श्री नारायण शाह विरूद्ध त्रिपुरा राज्य, (2004) 7 सु.को.के. 7751 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्संग के मामले में अभियोक्त्री की एकल असम्पुष्ट साक्ष्य यदि विश्वास योग्य पायी जाती है तो सम्पुष्टि के बिना भी उसके आधार पर दोषसिद्धि का निष्कर्ष अभिलिखित किया जा सकता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट लेखबद्ध कराने में हुआ यह विलम्ब
18.        बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क भी किया गया है कि घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट अभिकथित घटना दिनाॅंक 12.06.2009 को न लिखाते हुये लगभग 23 घण्टे बाद अगले दिन 3 बजे लिखायी गयी है तथा प्रथम सूचना रिपोर्ट लेखबद्ध कराने में हुआ यह विलम्ब अभियोजन कहानी को अविष्वसनीय बना देता है, लेकिन यह तर्क भी स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। इस क्रम में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्याय दृष्टांत हरपालसिंह विरूद्ध हिमाचल प्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 361 में किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्कार के मामलों में पीडि़ता महिला तथा उसके परिवार का सम्मान दांव पर लगा रहता है। अतः ऐसे मामलों में विचार-विमर्श कर किंचित देरी से पुलिस में रिपोर्ट करना असामान्य नहीं है, उक्त मामले में प्राथमिकी लेख कराने में हुये 10 दिन के विलम्ब को भी घातक नहीं माना गया।
19.        न्याय दृष्टांत तारासिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी. 536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविश्वसनीय ठहराने का आधार नही बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवश्यक है। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां किसी बच्ची के सम्मान और ख्याति का मुददा अंतर्वलित हो वहाॅं परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से परामर्श लिये बिना पुलिस मे रिपोर्ट न लिखाना कतई अस्वाभाविक नहीं है।
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    क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतिया
    न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, संदर्भ- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. जब तक विसंगतियाॅं मूल प्रश्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नहीं पड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईश्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है, संदर्भ - म.प्र.राज्य विरूद्ध रामकिशोर 1993 (1) एम.पी.जे.आर. 119. छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैं, उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, संदर्भ- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी, 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सुु.को.18 ।
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सहमतपक्ष
23.        न्याय दृष्टांत बापूलाल विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2002 क्रि.लाॅ.रि. (एम.पी.)-139 के मामले में अभियोक्त्री, जिसके शरीर पर कोई क्षतियाॅ नहीं पायी गयी थी तथा जो अभियुक्त की संगत में लंबे समय तक विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करती रही थी तथा जिसे इस अवधि में अनेक बार यह अवसर उपलब्ध था कि वह कथित बलात् व्यपहरण के बारे में लोगों को षिकायत करे, लेकिन उसके द्वारा ऐसा नहीं किया गया, यह ठहराया गया कि अभियोक्त्री के आचरण से सुरक्षित रूप से यह निष्कर्षित किया जा सकता है कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था एवं उस दषा में, जबकि उसकी आयु का 18 वर्ष से कम होना प्रमाणित नहीं है, अभियुक्त को दोषी नहीं माना जा सकता है।
21.        अभिसाक्ष्य से प्रकट है कि अभियोक्त्री (अ.सा.10) अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ भोपाल गयी, अपनी सहमति से फोटोग्राफ खिंचवाया तथा अनेक बार यह अवसर उपलब्ध होने के बावजूद भी उसने कथित बलात् व्यपहरण की षिकायत किसी से नहीं की, जो स्पष्ट रूप से यह दर्षाता है कि वह अपनी सहमति से अभियुक्त के साथ गयी तथा उसके और अभियुक्त के बीच जो भी शारीरिक सम्बन्ध रहें वह सहमतिपूर्ण रहे। इस संदर्भ में न्याय दृष्टांत पेरू विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1996(1) एम.पी.जे.आर.शार्ट नोट-4. सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
    अतः अभियोक्त्री के द्वारा सामान्य स्थितियों के विपरीत आचरण करने की, जो बातें प्रकट की जा रही है वे निष्चित ही विष्वास योग्य नहीं है तथा अभियोक्त्री (अ.सा.4) का आचरण उसके इस कथन को झुठलाता है कि अभियुक्त उसे धमकी देकर अपने साथ ले गया। उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत कैलाष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज.-41 (एम.पी) भी अवलोकनीय है, जिसमें इस तथ्य-स्थिति के परिप्रेक्ष्य में कि अभियोक्त्री स्वतंत्र रूप से अभियुक्त के साथ भिन्न-भिन्न स्थानों पर काफी समय तक घूमती रही, लेकिन इसके बावजूद उसने किसी से कोई षिकायत नहीं की, यह माना जायेगा कि उसका आचरण सहमतिपूर्ण था।
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धारा 366(क) का अपराध स्थापित करने के लिये दो तत्व
29.        जहाॅं तक ’संहिता’ की धारा 366(क) के आरोप का संबंध है, न्याय दृष्टांत लालता प्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, क्रि.लाॅ.रि. (एस.सी.)-1979 पेज-114 के मामले प्रतिपादित किया गया कि ’संहिता’ की धारा 366(क) का अपराध स्थापित करने के लिये दो तत्वों को प्रमाणित किया जाना चाहिये, प्रथम यह कि संबंधित महिला को विधिपूर्ण संरक्षकता से अपहृत या व्यपहृत किया गया, द्वितीय यह कि उसे किसी व्यक्ति के साथ विवाह हेतु बाध्य करने के आषय से अथवा उसकी इच्छा के विरूद्ध अयुक्त सम्भोग के लिये विवष या विलुब्ध करने के आषय से व्यपहृत किया गया।।
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दण्ड के संबंध मंे उदार दृष्टिकोण नहीं
27.        जहाॅं तक दण्डाज्ञा का संबंध है, अभियुक्त की ओर से यह प्रकट किया गया है कि उसका कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है, वह युवा है अतः दण्ड के संबंध मंे उदार दृष्टिकोण अपनाया जाये। अभियुक्त के द्वारा की गयी प्रार्थना के क्रम में न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध वोडम सुंदर राव, 1995 (6) एस.सी.सी. 230 मंे किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हाल ही के वर्षों में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में वृद्धि हुयी है। ऐसे अपराध समाज में मानव की गरिमा को क्षति पहुॅचाते हैं अतः ऐसे मामलों में अयुक्तियुक्त रूप से न्यून दण्ड न केवल विधायिका के निर्देष के विरूद्ध है, अपितु पीडि़त पक्ष के साथ अन्याय भी है तथा यह अपरोक्षतः अपराधी को प्रोत्साहन भी दे सकता है। इस मामले में यह स्पष्ट किया गया है कि न्यायालयों का यह दायित्व है कि वे ऐसे मामलों में समाज की पुकार को सुनते हुये न्याय की भावना के अनुरूप दोषी व्यक्ति के विरूद्ध युक्तियुक्त दण्ड अधिरोपित करें, क्योंकि दण्ड से अपराधी के प्रति समाज की भत्र्सना का भाव प्रकट होना चाहिये। न्यायालयों को न केवल अभियुक्त के अधिकारों को दृष्टिगत रखना चाहिये बल्कि अपराध से पीडि़त व्यक्ति और समाज के हितों को ध्यान में रखते हुये युक्तियुक्त दण्ड अधिरोपित करना चाहिये। इसी मामले में यह भी ठहराया गया है कि जहाॅं 13-14 वर्ष की असहाय बालिका के साथ बलात्कार किया गया है, वहाॅं स्थितियाॅं न केवल अमानवीय बल्कि न्यायिक विवेक को हिला देने वाली हैं अतः ऐसे मामलों में दण्ड के संबंध में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना उचित नहीं होगा।

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