Wednesday 27 November 2013

ILR 2012-13

ILR 2012-13
1.    स्थान नियंत्रण अधिनियम, म.प्र. (1961 का 41), धारा 12(1)(एफ)-वास्तविक आवश्यकता- व्यवसाय के स्वरूप का अभिवाक् आवश्यक नहीं - भूमि स्वामी के लिये साबित करना आवश्यक नहीं कि उसके पास निवेश हेतु रकम है अथवा यह कि उसे व्यवसाय करने का अनुभव है - अपीलार्थी बेदखली की डिक्री का हकदार। (शारदा     सिंघानिया (श्रीमति) वि. भारत पेट्र्ोलियम कारपोरेशन लि.)    -
            आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2780

2.    आयुध नियम, 1962, नियम 54, संविधान, अनुच्छेद 162, सातवीं अनुसूची, सूची प्रविष्टि ट-आयुध अनुज्ञप्ति के नवीनीकरण हेतु अनुज्ञप्ति शुल्क- केवल संसद आयुध के विषय पर कानून बनाने के लिये सशक्त है - संसद ने आयुध अधिनियम 1959 व नियम अधिनियमित किये हैं - सामान्यतः आयुध के संबंध में तथा अनुज्ञप्ति शुल्क अधिरोपित करने या बढ़ाने के संबंध में, या तो प्रारंभिक प्रदान हेतु अथवा नवीनीकरण हेतु राज्य सरकार को, ना तो कानून बनाने की और न ही कार्यपालिक कार्यवाही करने की शक्ति है - नवीनीकरण शुल्क की बढ़ोत्तरी की अधिसूचना/परिपत्र दिनांकित 10.06.2011 अभिखण्डित। (महेन्द्र भट्ट वि. म.प्र. राज्य)    -आई.एल.आर. (2012)एम.पी. (डी.बी.).....3021

3.    बेनामी संव्यवहार (प्रतिषेध) अधिनियम (1988 का 45), धारा 4 (1), सिविल प्रक्रिया संहित (1908 का 5), आदेश 7 नियम 11- घोषणा के लिये वाद कि चूंकि सम्पत्ति को उसके द्वारा बेनामी, अपनी माता के नाम से क्रय किया गया था इसलिये उसे स्वामी  घोषित किया जाए- यदि वाद को अधिनियम प्रवर्तित होने के पश्चात् किसी बेनामी संव्यवहार के आधार पर किसी अधिकार, हक या हित का दावा करते हुए प्रस्तुत किया जाता है, वह धारा 4(1) के अंतर्गत वर्जित होगा, भले ही अधिनियम के प्रभावी होने से पूर्व या अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात् ऐसा किया गया हो - पुनरीक्षण मंजूर- आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत आवेदन मंजूर। (आनंद कुमार वि. विजय कुमार)    -
            आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....3090
4.    सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), धारा 15, आदेश 7, नियम 1 व 10- वाद का मूल्यांकन - वादी के विक्रय विलेखों को शून्य एवं अकृत घोषित किये जाने हेतु निश्चित न्यायालय शुल्क पर वाद प्रस्तुत किया- अभिनिर्धारित- चूंकि, वादीगण विक्रय विलेखों के पक्षकार नहीं, इसलिये निश्चित न्यायालय शुल्क पर वाद पोषणीय है - ऐसी स्थिति में वादीगण अधिकारिता के प्रयोजन हेतु सम्पत्ति के बाजार मूल्यानुसार या विक्रय विलेख में उल्लेखित विक्रय प्रतिफल के अनुसार वाद का मूल्यांकन करने के लिये बाध्य नहीं थे। । (बाजे राव वि. गुलाब राव)    -                     आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2968

5.     सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), आदेश 1 नियम 10- सहस्वामी को पक्षकार बनाया जाना - याची ने सम्पत्ति का सह स्वामी होने के नाते प्रत्यर्थी क्र0-1 से 3 तक के विरूद्ध बेदखली का वाद प्रस्तुत किया- सह स्वामियों को उनके आवेदन पर प्रतिवादीगण के रूप मे पक्षकार बनाया गया- अभिनिर्धारित- बेदखली का वाद किसी भी सह स्वामी द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है- वाद न्यायनिर्णित करने के लिये सभी स्वामियों की उपस्थिति आवश्यक नहीं - यदि विचारण करने पर अधिमूल्यन पश्चात् यह पाया जाता है कि वादी/याची अकेले बेदखली हेतु वाद प्रस्तुत करने के लिये हकदार नहीं था, तब ऐसी स्थिति में, याची  को वाद की खारिजी के परिणाम का सामना करना पड़ेगा- इसलिए, सह स्वामियों की उपस्थिति आवश्यक नहीं- सह स्वामियों को प्रतिवादीगण के रूप में पक्षकार बनाये जाने का आदेश अपास्त। (जगदीश प्रसाद गुप्ता वि. मदनलाल)    -                                                    आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2971

6.     सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), आदेश 6 नियम 17 - धन संबंधी अधिकारिता- जब कभी किसी न्यायालय द्वारा किसी वाद को, धन संबंधी या क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में अपोषणीय पाया जाता है तब उक्त न्यायालय के पास कोई विकल्प नहीं सिवाय इसके कि वादी को वादपत्र, ऐसे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए वापिस करें जो उसे ग्रहण करने की अधिकारिता रखता है। (मो. युनूस वि. नईम अहमद)    -                                  आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2682

7.     सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5) - आदेश 7 नियम 11, आदेश 7 नियम 11 (डी) एवं बेनामी संव्यवहार (प्रतिषेध) अधिनियम (1988 का 45), धारा 4(1) - वाद या दावे का वर्जन- याची प्रत्यर्थी क्रमांक 1 का सगा भतीजा है एवं प्रेम एवं अनुराग के चलते उसने भूमि याची के नाम से क्रय की और विक्रय प्रतिफल का भुगतान प्रत्यर्थी क्रमांक 1 ने किया था - ये सभी क्रय बेनामी थें - वाद प्रस्तुत करने या दावा करने के लिये वर्जन है और न कि कोई विशिष्ट संव्यवहार बेनामी है या नहीं - यदि वाद, अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात् प्रस्तुत किया गया, जिसमें किसी बेनामी संव्यवहार के आधार पर किसी अधिकार, हक या हितों का दावा किया गया है, ऐसा या तो अधिनियम के प्रभावी होने से पूर्व या अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात् किया गया तब यह अधिनियम की धारा 4 की उप-धारा (1) के अंतर्गत अर्जित होगा- अधिनियम के अंतर्गत निषेध पूर्णतः लागू होगा और उक्त वादपत्र सि.प्र.सं. के आदेश 7 नियम 11 (डी) से प्रभावित होगा- ऐसी स्थिति में, अधिनस्थ न्यायालय के लिये याची का आवेदन अस्वीकार करना उचित नहीं था - पुनरीक्षण मंजूर। आनंद कुमार वि. विजय कुमार)    -
            आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2554

8.     सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), आदेश 21 नियम 29 - निष्पादन कार्यवाहियों पर रोक- याची के विरूद्ध एक पक्षीय डिक्री पारित - एकपक्षीय डिक्री अपास्त किये जाने हेतु आवेदन निरस्त- अपील भी खारिज - एकपक्षीय डिक्री अपास्त किये जाने के लिये वाद लंबित - इस दावे में कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं - अभिनिर्धारित - जब तक कि किसी सक्षम न्यायालय द्वारा या किसी अंतवर्ती आदेश द्वारा निष्पादन कार्यवाहियों को रोका नहीं जाता, निष्पादन न्यायालय डिक्री से परे नहीं जा सकता और निष्पादन नहीं रोक सकता- याचिका खारिज। (चन्द्रिका प्रसाद वि. इन्द्रमणी (मृतक) द्वारा विधिक प्रतिनिधि)
                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2964

9.  प्रतियोगिता परीक्षा - आदर्श उत्तर - एक प्रश्न के दो सही उत्तर - अभ्यर्थी जिन्होंने ‘सी’ को सही उत्तर अंकित किया है उन्हें एक अंक नहीं मिलेगा यद्यपि उसका उत्तर सही है और वह एक अंका का हकदार है - प्रत्यर्थीगण को निर्देशित किया गया कि वे उन अभ्यर्थियों की उत्तर पुस्तिका निकाले जो एक अंक से,  न्यूनतम निर्धारित अंक प्राप्त करने में असफल रहे और परीक्षण करें कि क्या उन्होंने प्रश्न का उत्तर ‘सी’ अंकित किया है। यदि उक्त अभ्यर्थी ने सही उत्तर दिया है तब उसे एक अंक प्रदान किया जाए और प्रारंभिक परीक्षा का परिणाम पुनः सारणीबद्ध किया जाए। (अंकित खरे वि. द हाईकोर्ट आॅफ एम.पी.)-                                आई.एल.आर. (2012)एम.पी. (डी.बी.)....2372

10.     संविधान- अनुच्छेद 341 व 343 - जाति प्रमाण पत्र - व्यक्तियों का प्रवास- याचीगण का पिता चमार जाति का है और उ.प्र. का निवासी था - याचीगण का जन्म व पालन पोषण मध्यप्रदेश में हुआ- चमार जाति को एस.सी. के रूप में उ.प्र. तथा म.प्र. में भी अधिसूचित किया गया है - याचीगण उत्तरप्रदेश में दिये जाने वाले विशेषाधिकार एवं लाभों के समान उपभोग लेने के हकदार नही - राज्य स्तरीय उच्चाधिकार समिति द्वारा उनके जाति प्रमाणपत्र का निरस्तीकरण उचित - किन्तु उनके व्यवसायिक डिग्रियों के संरक्षण का सीमित अनुतोष प्रदान किया गया - याचिका निराकृत। (हंसराज सिंह वि. म.प्र. राज्य)                                           आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....3001

11.     दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2), धारा 174 - शव के पंचनामे की तैयारी - भाई जो शव का पंचनामा तैयार किये  जाते समय उपस्थित था, उसने पुलिस को अपनी बहन के उत्पीड़न के बारे मे जानकारी नही दी - अपीलार्थी संदेह के लाभ का हकदार। (सरजू वि. म.प्र. राज्य)    -                आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2806

12.    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2), धारा 190 - विशेष न्यायालय - विशेष न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र - विशेष न्यायालय को आरंभिक आपराधिक अधिकारिता वाला न्यायालय माना जाना चाहिए और सभी प्रयोजनों हेतु विशेष न्यायाधीश को मजिस्ट्र्ेट समझा जाना चाहिए जो अपराध का संज्ञान लेने के लिए सशक्त है यदि पुलिस  रिपोर्ट इस आशय की है कि अभियुक्त के विरूद्ध प्रकरण नहीं बनता - चूंकि, अपराध का संज्ञान विशेष न्यायालय द्वारा धारा 190 द.प्र.सं. के अंतर्गत लिया गया इसलिये वह उन व्यक्तियों के विरूद्ध कार्यवाही कर सकता है जिन्हें आरोप पत्र में अभियुक्त के रूप में दोषारोपित नहीं किया गया है। (गोपाल जी सिंह वि. म.प्र. राज्य)    -                                                             आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....3122

13.     काष्ठ चिरान (विनियमन) अधिनियम, म.प्र. (1984 का 13), धाराएं 3 व 4 - वनसंरक्षक के आदेश के विरूद्ध अपील/पुनरीक्षण - प्रत्यर्थी द्वारा धारा 12 (3) के अंतर्गत वनसंरक्षक द्वारा पारित किये गये आदेश के विरूद्ध अपील (पुनरीक्षण) प्रस्तुत की गई - उसे सिविल अपील के रूप में ग्रहण कर निर्णीत किया जाना चाहिए था। (म.प्र. राज्य वि. आदित्य नारायण शुक्ला)    -                      आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2872

14.     नगरपालिका अधिनियम, म.प्र. (1961 का 37), धाराएॅं 127, 129 व 355 - सीमा कर का उदग्रहण - राज्य सरकार ने म.प्र. नगरपालिक सीमाओं से निर्यात किये जाने वाली वस्तुओं पर सीमा कर (निर्धारण और संग्रहण), नियम 1996 द्वारा सीमा कर की दर विहित की है - नगरपालिका परिषद द्वारा सीमा कर की उच्च दर विहित करने के संकल्प को कोई विधिक प्राधिकारिता प्राप्त नहीं है। (मोहन चोपड़ा वि. म.प्र. राज्य)    -                                               आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2930

15.     परक्राम्य लिखत अधिनियम (1881 का 26), धारा 138 - हस्तलेख विशेषज्ञ द्वारा परीक्षण - अपराध कड़े दायित्व का अपराध है - दस्तावेजों को परीक्षण एवं राय हेतु हस्तलेख विशेषज्ञ के पास भेजने से इंकार करना, अभियुक्त को उपधारणा खण्डित करने के अवसर से वंचित करने की कोटि में आएगा - आवेदन मंजूर। (रामसेवक पाटीदार वि. नारायणसिंह पाटीदार)-                          आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2876

16.    परक्राम्य लिखत अधिनियम (1881 का 26), धारा 138 - शिकायत को वापिस लेना - बचाव के प्रक्रम पर समझौते के आधार पर शिकायत वापिस लेने के लिये निवेदन को चेक राशि का 10 प्रतिशत् जमा करने के दिशानिर्देश का पालन किये बिना मंजूरी नहीं दी जा सकती जैसा कि उच्चतम न्यायालय द्वारा दामोदर एस.प्रभु. वि. सैयद बाबालाल के प्रकरण में प्रतिपादित किया गया है। (रघुनाथ सिंह पटेल वि. चन्द्रपाल सिंह परिहार) आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....3112   

17.      पंचायत निर्वाचन नियम, म.प्र. 1995, नियम 35 (2), साक्ष्य अधिनियम (1872 का 1), धारा 35 - जन्मतिथि - जन्म एवं मृत्यु पंजीयक द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र, शाला प्रमाण पत्र पर अभिभावी होगा। (बसंतीबाई (श्रीमति) वि. श्रीमति प्रेमवतीबाई)    -                                                     आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2416

18.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 302 - हत्या - परिस्थितिजन्य साक्ष्य - अपीलार्थी अपनी पत्नी से अक्सर झगड़ा किया करता था और उसने देर रात उससे झगड़ा किया, अपीलार्थी तथा मृतिका एक साथ देखे गये, मृतिका का शव घर में पाया गया, अपीलार्थी घटना स्थल से फरार हो गया और उसे 5 दिन पश्चात् गिरफ्तार किया गया, उसकी निशानदेही पर हथियार की जब्ती की गई और अपीलार्थी की पत्नी की मृत्यु मानववध स्वरूप की थी -अपीलार्थी की दोषिता युक्तियुक्त संदेह से परे साबित की गई। (टुन्नू उर्फ राजेश कुमार वि. म.प्र. राज्य)-       आई.एल.आर.(2012)एम.पी.(डी.बी.)....2498

19.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 323 व 376, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2), धारा 222 - निम्नतर अपराध - धारा 323 के अंतर्गत अपराध को धारा 376 के अंतर्गत दण्डनीय अपराध से निम्नतर नहीं कहा जा सकता - अपीलार्थी को भा.द.सं. की धारा 323 के अंतर्गत आरोपी विरचित किये बिना दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता था। (लालू उर्फ बालमुकुंद वि. म.प्र. राज्य)    -         आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2526

20.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 354- लज्जा भंग करना - अपीलार्थी ने अभियोक्त्री को निर्वस्त्र किया और उसे जमीन पर रखे अपने पतलून पर लेट जाने के लिये निर्देशित किया और इसके बाद वह अभियोक्त्री पर लेट गया और उसी समय साक्षीगण  घटना स्थल पर आये, अपीलार्थी भाग गया- चूंकि अपीलार्थी ने अभियोक्त्री पर उसकी लज्जा भंग करने के लिये कुछ आपराधिक बल का प्रयोग किया, वह भा.द.सं. की धारा 354 के अंतर्गत दण्डनीय अपराध कारित करने का दोषी है। (लाल सिंह गौंड वि. म.प्र. राज्य)    -                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2510

21.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 363- व्यपहरण - अपीलार्थी ने अभियोक्त्री को अपने साथ नाले के पास की झाडि़यों में चलने के लिये उत्प्रेरित किया और इसलिए, उसे उस स्थान से कुछ गज दूर ले जाया गया जहाॅं वह खेल रही थी - उसे उसके नानाजी के संरक्षण से नहीं ले जाया गया - अभियोक्त्री को नजदीक के स्थान पर ले जाया गया जिससे कि अन्य लोग देख न सके - अपीलार्थी का कृत्य व्यपहरण की कोटि में नहीं आता। (लालसिंह गौंड वि. म.प्र. राज्य)-              आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2510

22.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376- अभियोक्त्री की आयु - निर्धारण - अभियोक्त्री के माता-पिता का परीक्षण नहीं किया गया - शाला पंजी में प्रविष्टि माता-पिता द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर की गई थी जिनका परीक्षण नहीं किया गया- अभियोक्त्री द्वारा प्रकट की गई उम्र मात्र अनुश्रुति थी - बहन जो करीब 17 वर्ष की आयु की है, अपनी साक्ष्य में उसने अभियोक्त्री की उम्र 14 वर्ष बताई - अभियोक्त्री के जन्म के समय बहन 3 वर्ष की थी,  अतएव वह भी अनुश्रुत साक्षी है - कोई अन्य दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया - अभियोजन यह साबित करने में विफल रहा कि अभियोक्त्री करीब 14 वर्ष के आयु की थी। (अरमान अली वि. म.प्र. राज्य)-
                                  आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2817

23.      दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376- आयु का निर्धारण - ओसीफिकेशन जांच- निदेशक, चिकित्सा विधिक संस्था की सलाह पर ओसिफिकेशन जांच नहीं की गई - अन्वेषण एजेंसी विवाद के किसी बिंदू पर अन्वेषण करने से इंकार नहीं कर सकती - क्या शैक्षणिक अभिलेख विश्वसनीय है अथवा नहीं, इसका निर्णय न्यायालय द्वारा किया जाएगा और न कि चिकित्सक द्वारा, भले ही वह चिकित्सा विधिक संस्था का निदेशक हो - यह प्रतीत होता है कि  ओसिफिकेशन जांच से इंकार किसी अंतरस्थ हेतु से किया गया था जिससे अभियोजन के विरूद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निर्मित होता है। (अरमान अली वि. म.प्र. राज्य)-                                        आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2817
24.      दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376- बलात्कार -अपीलार्थी ने अभियोक्त्री को निर्वस्त्र किया और उसके उपर लेट गया - अभियोक्त्री ने अपने मुख्य परीक्षण में निर्दिष्ट रूप से कथन किया है कि अपीलार्थी कुछ नहीं कर सका क्योंकि उसकी समय, साक्षीगण घटना स्थल पर पहुंचे और उन्हें देखकर अपीलार्थी भाग गया - अपीलार्थी, भा.द.सं. की धारा 376/511 के अंतर्गत दण्डनीय अपराध कारित करने का दोषी - अपील अंशतः मंजूर। (संतोष कुमार विश्वकर्मा वि. म.प्र. राज्य)- आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2481

25.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376/511- अभियोक्त्री की आयु - कोटवारी बही - कोटवारी बही की प्रविष्टी, किसी विशिष्ट बालक के जन्म का निश्चायक प्रमाण है क्योंकि प्रविष्टि बालक के जन्म के तुरंत बाद की गई थी। (विनोद उर्फ अरविंद वि. म.प्र. राज्य)-                             आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2827

26.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376/511- अभियोक्त्री की आयु - ओसीफिकेशन जांच - आयु 14-16 वर्ष के बीच - चिकित्सक ने पाया कि अभियोक्त्री के द्वितीय यौन लक्षण पूर्णतः विकसित नहीं हुये थे - जनेन्द्रियों के बाल और अन्य अवयव पूर्णतः विकसित नहीं हुए थे - अभियोक्त्री की शारीरिक संरचना देखते हुये, दो वर्ष अधिक नहीं जोड़े जा सकते। (विनोद उर्फ अरविंद वि. म.प्र. राज्य)-
                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2827

27.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376/511- अभियोक्त्री की आयु - ओसीफिकेशन जांच - आयु 15-16 वर्ष के बीच - चिकित्सक ने पाया कि अभियोक्त्री के द्वितीय यौन लक्षण पूर्णतः विकसित नहीं हुये थे - और उसका मासिक धर्म आरंभ नहीं हुआ था - अभियोक्त्री की शारीरिक संरचना देखकर, दो वर्ष अधिक नहीं जोड़े जा सकते। (लालसिंह गौंड वि. म.प्र. राज्य)-                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2510

28.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376/511- बलात्कार का प्रयत्न - कोई चोट नहीं पाई गई - हाईमन सही सलामत पाया गया - अभियोक्त्री ने कोई शोर नहीं मचाया जब उसके अंतर्वस्त्र हटाये गये यद्यपि घटना स्थल, सार्वजनिक पथ के बहुत नजदीक था - अपीलार्थी को संभोग कारित करने से रोकने वाला कोई नहीं था यदि यह उसका आशय होता - चूंकि कोई प्रवेशन नहीं पाया गया इसलिये प्रत्यक्ष कृत्य, बलात्कार कारित करने के प्रयत्न की कोटि में नहीं आता। (विनोद उर्फ अरविन्द वि. म.प्र. राज्य)-                                             आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2827

29.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 379, 411, 120-बी व 201- प्रधान पुलिस आरक्षक ने प्रत्यर्थी के कब्जे से 29.851 कि.ग्रा. चांदी जब्त की - अनुसंधान पश्चात् चालान प्रस्तुत किया गया - न्यायिक मजिस्ट्र्ेट  प्रथम श्रेणी ने प्रत्यर्थी को किसी अपराध का दोषी नहीं पाते हुए उसे दोषमुक्त किया - प्रत्यर्थी से जब्त सम्पत्ति प्रत्यर्थी के पक्ष में मुक्त किये जाने के लिये भी निर्देशित किया गया - किन्तु इस दौरान पुलिस अधिकारियों द्वारा सम्पत्ति का दुर्विनियोजन किया गया - अभिनिर्धारित- सम्पत्ति को राज्य की ओर से उसके कर्मचारी द्वारा जब्त किया गया था और सम्पत्ति का दुर्विनियोजन  उसी के कर्मचारी द्वारा किया गया - प्रकरण के विनिश्चय के उपरांत राज्य, सम्पत्ति लौटाने के लिये दायी है - एकल न्यायाधिपति ने उचित रूप से जब्त सम्पत्ति अथवा उसका उस समय का प्रचलित मूल्य वापिस करने के लिये निदेशित किया - रिट अपील खारिज। (म.प्र. राज्य वि. मोतीलाल)-                  आई.एल.आर. (2012)एम.पी.(डी.बी.)....2331

30.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 402- डकैती कारित करने के उद्देश्य से जमाव - जब्दशुदा शस्त्रों को प्रस्तुत नहीं किया गया - पुलिस अधिकारी, जिसने छापा संचालित किया, जब्ती मेमों तैयार किया और प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की, उसी ने स्वयं मामले की विवेचना की - अपीलार्थीगण की धारा 399 के अंतर्गत दोषमुक्ति एवं भा.द.सं. की धारा 402 के अंतर्गत दोषसिद्धि अपने आप में विरोधाभासी है - अपील मंजूर। (जितेन्द्र सोनी वि. म.प्र. राज्य)-                                       आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2549

31.     लोक न्यास अधिनियम, म.प्र. (1951 का 30), धाराएं 8 व 14- वाद प्रस्तुत करने की परिसीमा - धारा 8 विनिर्दिष्ट  रूप से सीमा विहित करती है - व्यक्ति जो लोक न्यास में हित रखता है और लोक न्यास के रजिस्ट्र्ार के आदेश से जो व्यथित है, उसे 6 माह के भीतर सिविल वाद संस्थित करना चाहिए - परिसीमा बढ़ाये जाने के लिये कोई उपबंध नही - विलंब की माफी के लिये परिसीमा अधिनियम लागू नहीं होगा - अधिनियम की धारा 14 के अंतर्गत पारित किये गये आदेश की तिथि से परिसीमा आरंभ होगी - अपील खारिज। (प्रहलाद कुशवाहा वि. रानी देवमती)-        आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2774


32.     अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (1989 का 33) धारा 3 (1)(अप)(ग) - जाति- शिकायतकर्ता की जाति साबित करने के लिये कोई चक्षुदर्शी या दस्तावेजी साक्ष्य नही- मात्र बचाव पक्ष या उसके अधिवक्ता की कमजोरी के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्यर्थी ने साबित किया है कि उसकी जाति व समुदाय अधिनियम के अंतर्गत आती है। (पर्वत सिंह वि. खंजुवा)-            
                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2491

33.     सेवा विधि - प्रतिकूल गोपनीय प्रतिवेदन - संसूचना - यदि वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन में कोई प्रतिकूल प्रविष्टि की जाती है, उसे एक माह के भीतर संसूचित किया जाना चाहिए और यदि कोई अभ्यावेदन किया जाता है उसका 30 दिनों के भीतर विनिश्चय किया जाना चाहिए - अभ्यावेदन से संबंधित किसी जांच की स्थिति में उसे 3 माह के भीतर समाप्त किया जाना चाहिए। ( राजेश कुमार सक्सेना वि. म.प्र. राज्य)-            
                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2920

34.     सेवा विधि - प्रतिकूल गोपनीय प्रतिवेदन - विलोपन - इस आशय की प्रविष्टि की गई कि याची द्वारा कारित विलम्ब एवं उसके आचरण के विरूद्ध शिकायतें प्राप्त हो रही है और उसे अ पने कार्य में सुधार लाना अपेक्षित है - किसी शिकायत का कोई प्रमाण नहीं - एक पंक्ति के आदेश द्वारा अभ्यावेदन अस्वीकार किया गया - प्रतिकूल प्रविष्टि को हटाया गया - प्रत्यर्थीगण को प्रतिकूल प्रविष्टियों को हटाये जाने के पश्चात् याची को पुनः पदक्रमित करने के लिये निदेशित किया गया - याची को प्रकरण पर विचार करने के लिये पुनर्विलोकन विभागीय पदोन्नति समिति को बुलाया जाये - याचिका मंजूर। ( राजेश कुमार सक्सेना वि. म.प्र. राज्य)-                       आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2920

35.    सेवा विधि - विभागीय जांच - आपराधिक प्रकरण- रोक- समान आरोपों पर आपराधिक प्रकरण एवं विभागीय जांच - जब समान आरोपों के संबंध में विभागीय जांच लंबित थी, समुचित रूप से प्रत्यर्थीगण को, आपराधिक प्रकरण के लंबित रहने तक विभागीय जांच आस्थागित करना चाहिए थी। (परविन्दर सिंह (एक्स.ए.एस.आई/एम.)वि. यूनियन आॅफ इंडिया)-                              आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....109

36.    सेवा विधि - गुरूतर शास्ति या लघु शास्ति - संचयी प्रभाव से वेतनवृद्धि को रोका जाना - संचयी प्रभाव से वेतनवृद्धि को रोका जाना शासकीय कर्मचारी को न केवल सेवा में रहते प्रतिकूल प्रभाव, आर्थिक हानि कारित करेगा बल्कि कर्मचारी की सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी हानि कारित करेगा और यहां तक कि परिवार पेन्शन भी प्रभावित होगी - इसे लघु शास्ति नहीं माना जा सकता। ( एम.एम. मुदगल वि. म.प्र. राज्य)-                                                        आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2651

37.    विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (1963 का 47), धारा 16 - संविदा का विनिर्दिष्ट पालन - तैयार और रजामंदी - विवाद्यकों को विरचित किया जाना - विवाद्यक विरचित करना एवं तैयार और रजामंदी के विवाद्यक का निपटारा करना, न्यायालय का कर्तव्य और कानूनी अपेक्षा है - यदि प्रतिवादी ने बचाव नहीं लिया है तब भी, न्यायालय के लिये धारा 16 के निर्देशानुसार विवाद्यक विरचित करना और उसका विनिश्चय करना आज्ञापक है - प्रकरण को विवाद्यक विरचित करने तथा पक्षकारों को साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनमति देने के पश्चात् उसका विनिश्चय करने हेतु विचारण न्यायालय को प्रतिप्रेषित किया गया। ( सीता देवी सोनी वि. शरदकांत सोनी)-               आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2789

38.     उत्तराधिकार अधिनियम (1925 का 39), धारा 372 - मोटर यान अधिनियम (1988 का 59), धारा 166- उत्तराधिकार प्रमाणपत्र- मोटर यान अधिनियम, 1988 के अंतर्गत प्रदान की गई प्रतिकर की रकम मुक्त किये जाने हेतु किसी व्यक्ति की मृत्यु उपरांत उत्तराधिकार प्रमाणपत्र के लिये उसके विधिक वारिसों से आग्रह नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रतिकर राशि को ऋण या प्रतिभूति के रूप में नहीं समझा जा सकता।  (चन्द्रा (श्रीमति ) वि. रनवीर सिंह रामावतार)-                        आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....2847

39.     उत्तराधिकार अधिनियम (1925 का 39), धारा 372 - उत्तराधिकार प्रमाणपत्र- द्वितीय विवाह शून्य था क्योंकि उसे विवाह विच्छेद की डिक्री अभिप्राप्त किये बिना संपन्न किया गया था - विवाह विच्छेद की डिक्री को पश्चात्वर्ती प्रदान करना द्वितीय विवाह को विधिसम्मत नहीं बनाएगा- उत्तराधिकार प्रमाणपत्र प्रदान करने का आदेश अपास्त-पुनरीक्षण मंजूर। (दीपक कुमार चैकसे वि. सूपरइंटैंडेंट, आॅफिस आॅफ डिस्ट्र्क्टि आयुर्वेदिक आॅफीसर, सागर)-                     आई.एल.आर. (2012)एम.पी.....3095

40.    अपकृत्य- अनुयोज्य उपेक्षा - मंडी परिसर में स्थित कुंआ स्लैब से ढका था - उक्त ढके हुए कुंए पर मंडी समिति द्वारा मीटिंग बुलाई गई - पत्थर के स्लैब गिर गये जिसके परिणामस्वरूप डूबने से कई लोगों की जाने गई - मंडी समिति के संपूर्ण क्षेत्र पर मंडी समिति का अधिकार, नियंत्रण तथा कब्जा था - क्षेत्र के आसपास कोई सूचना प्रदर्शित नहीं की गई थी कि कुंए के ढके हुए क्षेत्र का उपयोग प्रवेश हेतु या बैठने के लिये या कोई मीटिंग करने के लिये नहीं किया जाए - मंडी समिति की कार्यवाही, अनुयोज्य उपेक्षा की परिभाषा के अंतर्गत आती है - सम्यक् दायित्व का विद्धांत, नगरपालिका को भी लागू होता है - वाद का विनिश्चय करने हेतु तथा प्रतिकर का निर्धारण करने हेतु मामला प्रतिप्रेषित। (संतोषदेवी (श्रीमति) वि. म.प्र. राज्य)-आई.एल.आर. (2012)एम.पी. (डी.बी.)....3046

41.    नगर भूमि (अधिकतम सीमा और विनियमन) निरसन अधिनियम (1999 का 15), धारा 4 - विधिक कार्यवाहियों का उपशमन - कब्जा - भूमि के अधिशेष घोषित किये जाने के पश्चात्, दिनांक 9-9-1996 को कब्जा सौंपने के लिये नोटिस जारी किया गया - राजस्व अधिकारियों द्वारा कब्जा लिया गया - न तो भूतपूर्व स्वामियों ने और न ही किसी याची ने उपरोक्त किसी आदेश के संबंध में या कब्जा लेने के लिये नोटिस के विरूद्ध कोई आक्षेप उठाया - कब्जा लेने का पंचनामा अपने आप में यह निष्कर्ष निकालने के लिये पर्याप्त है कि भूमि का कब्जा 13-3-1999 को लिया गया - चूंकि कब्जा पहले ही लिया जा चुका है, इसलिये याचीगण का अभ्यावेदन यह धारणा करते हुए कि कब्जा पहले ही लिया गया था, किसी हस्तक्षेप की मांग नहीं करता - याचिका खारिज। (क्रांति कुमार जैन वि. म.प्र. राज्य)                                 आई.एल.आर. (2012)एम.पी. ....2701

42.     कर्मकार प्रतिकर अधिनियम (1923 का 8), धारा 30 - प्रतिकर - दावाकर्ता कन्डक्टर के रूप में पदस्थ था - चिकित्सक का कथन है कि दावाकर्ता ने 40 प्रतिशत् निःशक्तता सहन की परंतु कूल्हे की हड्डी के अस्थिभंग के कारण, कर्मकार, कन्डक्टर के कार्य का निर्वहन करने के लिए पूर्णतः निःशक्त है - कर्मकार की स्थायी निःशक्तता 100 प्रतिशत् है क्योंकि वह कन्डक्टर के कार्य का निर्वहन नहीं कर सकता। (नेशनल इंश्योरेन्स कं.लि. वि. रामकिशोर मिश्रा)                    आई.एल.आर. (2012)एम.पी. ....119

43.    कर्मकार प्रतिकर अधिनियम (1923 का 8), धारा 30 तृतीय परंतुक - बीमाकर्ता का दायित्व - बीमाकर्ता कम्पनी को संयुक्त एवं पृथक रूप से प्रतिकर का भुगतान करने के लिये दायी पाया गया - चूंकि वाहन बीमित था, जो भी दायित्व नियोक्ता पर था वह बीमा कम्पनी पर भी था - तृतीय खण्ड, बीमाकर्ता पर भी लागू होगा। (नेशनल इंश्योरेन्स कं.लि. वि. रामकिशोर मिश्रा)                        आई.एल.आर. (2012)एम.पी. ....119
ज्भ्म् प्छक्प्।छ स्।ॅ त्म्च्व्त्ज्ै ;श्रंदनंतल.2013द्ध डण्च्ण् ैम्त्प्म्ै

1.    स्थान नियंत्रण अधिनियम, म.प्र. (1961 का 41), धारा 12 (1)(सी)     - हक से इंकार - स्वत्व त्याग की स्थिति में, प्रतिवादी द्वारा मात्र हक को अस्वीकार करना पर्याप्त नहीं किन्तु प्रतिवादी को हक किसी अन्य में भी स्थापित करना चाहिए था - अधिनियम 1961 की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत डिक्री के प्रदान को अभिपुष्ट नहीं किया जा सकता।  (सुभाष जायसवाल वि. त्रिलोकीनाथ कक्कड़)                        .........’7

2.    आयुध अधिनियम (1959 का 54), धारा 17 - अनुज्ञप्ति का प्रतिसंहरण - अनुज्ञप्तिधारी के अप्राप्तवय पुत्र ने अप्राप्तवय बालिका पर गोली चलायी जिससे उसकी मृत्यु हो गई - किशोर न्यायाधीश द्वारा याची के अप्राप्तवय पुत्र को दोषी ठहराया गया - याची की अनुज्ञप्ति प्रतिसंहरित की गई - अभिनिर्धारित - याची ने अग्नेयायुध रखने में घोर उपेक्षा की - व्यक्ति जो उक्त आयुध को अनुज्ञप्ति की शर्तोंनुसार नहीं रख सकता, वह आयुध रखने का हकदार नहीं - आयुध अनुज्ञप्ति के प्रतिसंहरण का आदेश विधि विरूद्ध नहीं कहा जा सकता - याचिका खारिज।
(बैजनाथ रजक वि. डिस्ट्र्क्टि मजिस्ट्र्ेट/कलेक्टर, सीधी)                      .....108

3.    सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), धारा 10 - वाद पर रोक - आपराधिक प्रकरण का लंबित रहना - प्रत्यर्थी द्वारा किया गया कपट, जिसके संबंध में में आपराधिक प्रकरण लंबित है, उस कपट के कारण हुई हानि की वसूली हेतु सिविल वाद को रोका नहीं जा सकता। (आॅरिएन्ट विंदयास (मे.) वि. सज्जी कुट्टपन)                      .....105

4.    साक्ष्य अधिनियम (1872 का 1), धारा 3 - संबंधित साक्षी - साक्षियों के साक्ष्य को मात्र उनके नजदीकी संबंधों के आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता - अपितु, उनके साक्ष्य का परीक्षण सावधानी एवं सतर्कता से किया जाना चाहिए। (मंगना उर्फ महेन्द्र वि. म.प्र. राज्य)    -                                         (क्ठ).....216

5.     साक्ष्य अधिनियम (1872 का 1), धारा 32 - मृत्युकालिक कथन - नायब तहसीलदार द्वारा अभिलिखित - उपरोक्त कथन अभिलिखित किये जाने से पूर्व संबंधित चिकित्सक ने प्रमाणित किया कि मृतिका बयान देने के लिए सक्षम थी - चिकित्सक ने यह भ्ज्ञी प्रमाणित किया कि मरीज मृत्युकालिक कथन देते समय चैतन्यावस्था में थी - उसे अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं - अभियोजन के लिए उक्त पर विश्वास करना पूर्णतः न्यायोचित। (राम विसवास वि. म.प्र. राज्य)    -                         (ैब्).....1

6.     साक्ष्य अधिनियम (1872 का 1), धारा 65 - दस्तावेज की छायाप्रति - याची ने रसीद की छायाप्रति लेने के लिए आवेदन इस आधार पर प्रस्तुत किया कि वादी/प्रत्यर्थी के पति द्वारा मिथ्या बहाने से मूल दस्तावेज ले जाया गया था - द्वितीयक साक्ष्य अभिलेख पर लेने के लिये किये गये आवेदन में यह कहीं उल्लिखित नहीं कि छायाप्रति को मूल से बनाया गया था और उसे मूल के साथ मिलान किया गया था - उस व्यक्ति का नाम भी उल्लिखित नहीं जिसने यांत्रिक प्रक्रिया से छायाप्रति अभिप्राप्त की और इसके अतिरिक्त किसने उक्त को मूल के साथ मिलान किया उसका भी उल्लेख नहीं - छायाप्रति को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में अभिलेख पर नहीं लिया जा सकता। (अनीता राजपूत (श्रीमति) वि. श्रीमति सरस्वती गुप्ता)    -                                                 .....43

7.     मोटर यान अधिनियम (1988 का 59), धाराएॅं 147, 166, केन्द्रीय मोटर यान नियम 1989 - बीमा कंपनी का दायित्व - बीमा पाॅलिसी का उल्लंघन - लर्निंग लाईसेंस - यह दर्शाने के लिए अभिलेख पर कुछ नहीं कि प्रत्यर्थी क्र.ं- 1 लर्नर लाईसेंस से संबंधित उपबंधों का उल्लंघन कर वाहन चला रहा था।(उदय सिंह उर्फ उदरिया वि. लुमसिंह)    -
            .....179

8.     मोटर यान अधिनियम (1988 का 59), धारा 166 - आय - अधिकरण ने मृतक की आय का निर्धारण रू. 100/- प्रति दिन करने के पश्चात्, प्रति माह आय रू. 2,500/- नहीं समझना चाहिए था - प्रति माह आय रू. 3,000/- माना गया - अवार्ड बढ़ाकर रू. 3,52,500/- की बजाये रू. 4,35,000/- किया गया। (रामसिंह वि. दशरथ)      .....184

9.  परक्राम्य लिखत अधिनियम (1881 का 26), धारा 138 - संज्ञान - लोक सेवक - सरकारी कम्पनी का प्रत्येक कर्मचारी लोक सेवक है जो अधिनियम 1881 की धारा 138 के अपराध से संबंधित शिकायत के संबंध में द.प्र.सं. की धारा 200 के खंड (ए) के परंतुक के अंतर्गत छूट का हकदार है। (अर्जुन देव नागपाल वि. म.प्र. स्टेट इंडस्ट्र्यिल डव्हेलपमेन्ट कारपोरेशन लि.)-                                                 ......’1

10.     परक्राम्य लिखत अधिनियम (1881 का 26), धारा 138 - विलम्ब के लिए माफी - क्या अभियुक्त विलम्ब के लिए माफ किये जाने से पूर्व सुनवाई के अवसर का हकदार है - अधिनियम जो कि एक विशेष कानून है के अंतर्गत शिकायत प्रस्तुत करने में विलम्ब के लिए माफी की जांच में भाग लेने के लिए अभियुक्त को समर्थ बनाने वाले किसी उपबंध की अनुपस्थिति में मामला अनन्य रूप से शिकायतकर्ता और न्यायालय के बीच का रहेगा - केवल आदेशिका जारी करने के पश्चात ही, अभियुक्त विलम्ब के लिए माफी के आदेश की वैधता या अन्यथा का प्रश्न उठा सकता है, इस आधार पर कि कोई पर्याप्त कारण नहीं दर्शाया गया। (सी.के. चावला वि. शिशिर जैन)                                .....243

11.     परक्राम्य लिखत अधिनियम (1981 का 26), धारा 138 - कम्पनी का परिसमापन - कोई कम्पनी इस आधार पर दाण्डिक दायित्व से बच नहीं सकती कि कम्पनी को, रकम अदा करने के नोटिस द्वारा निदेशित किये जाने से पूर्व कम्पनी के परिसमापन हेतु याचिका प्रस्तुत की गई थी । (अर्जुन देव नागपाल वि. म.प्र. स्टेट इंडस्ट्र्यिल डव्हेलपमेन्ट कारपोरेशन लि.)-                                                 ......’1

12.    परक्राम्य लिखित अधिनियम (1981 का 26), धारा 141 - प्रतिनिधिक दायित्व - शिकायत में धारा 141 की भाषा को शब्दशः उद्धृत किया जाना आवश्यक नहीं - यदि शिकायत में किये गये अभिकथनों का सार, धारा 141 की अपेक्षाओं की पूर्ति करता है तब शिकायत पर कार्यवाही होगी और उसका विचारण किया जाना अपेक्षित है - उसे अभिखंडित करने के उद्देश्य से अति तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए। (अर्जुनदेव नागपाल वि. म.प्र. स्टेट इंडस्ट्र्यिल डव्हेलपमेन्ट कारपोरेशन लि.)              .......’1                  
13.    दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376 - बलात्कार का सबूत - अभियोक्त्री ने न्यायालय के समक्ष अभिलिखित की गई उसकी साक्ष्य में, प्रथम सूचना रिपोर्ट में अभिलिखित वर्णन से तात्विक विशिष्टियों में पूर्णतः अलग वर्णन दिया है - चिकित्सकका चिकित्सीय साक्ष्य, अभियोक्त्री के अभिकथ्नों का बिल्कुल समर्थन नहीं करता - यह वर्णन कि अपीलार्थी ने उसका मुंह जबर्दस्ती बंद किया और बलपूर्वक उसका बलात्कार किया, विश्वास उत्पन्न नहीं करता - अपराध के लिए दोषसिद्धि को कायम नहीं रखा जा सकता। (अज्जू उर्फ अफजल वि. म.प्र. राज्य)    -                                .....212

14.     रेल अधिनियम (1989 का 24), धारा 124ए - सबूत का भार - रेलगाड़ी की      दुर्घटना या दुर्भाग्यपूर्ण घटना के प्रकरण में यह साबित करने का भार कि मृतक के पास वैध टिकट या पास नहीं था और वास्तविक यात्री नहीं था, रेल प्रशासन पर होता है। (श्रीमति शांति वि. यूनियन आॅफ इंडिया)    -                                ......162

15.     सेवा विधि - अधिक संदाय की वसूली - वेतन का पुनरीक्षण त्रुटिपूर्ण रूप से किया गया और अधिक संदाय किया गया - मात्र इसलिए कि यात्री से वचन लिया गया था, उसकी सेवानिवृत्ति पश्चात् कोई वसूली नहीं की जा सकती - अपितु, राज्य सरकार दोषी अधिकारियों से हानि वसूल सकती है। (राम सिया कनोजिया वि. म.प्र. राज्य)-                                                                          ........70

16.    सेवा विधि - सेवा समाप्ति - जाति प्रमाण पत्र का निरस्तीकरण - याची ने उस जाति प्रमाण पत्र के आधार पर सेवा अभिप्राप्त की जिसे उच्चाधिकार जाति छंटनी समिति द्वारा निरस्त किया गया था - याची की सेवा समाप्त की गई - जहां व्यक्ति मिथ्या जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करके नियुक्ति प्राप्त करता है, उसकी सेवा का संरक्षण नहीं किया जा सकता और बहाली का आदेश पारित नहीं किया जा सकता - जहां व्यक्ति मिथ्या जाति प्रमाण पत्र के आधार पर नियुक्ति प्राप्त करता है, उसे उसके द्वारा कारित अनुचितता का लाभ रखे रहने की मंजूरी नहीं दी जा सकती और उसकी सेवा समाप्त किये जाने योग्य है - याचिका खारिज। (विलास कुमार भूगांवकर वि. म.प्र. राज्य)       .....133

ज्भ्म् प्छक्प्।छ स्।ॅ त्म्च्व्त्ज्ै ;थ्मइतनंतल.2013द्ध डण्च्ण् ैम्त्प्म्ै

1.    सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), धारा 20, संविदा अधिनियम (1872 का 9), धारा 28 - क्षेत्रीय अधिकारिता - सतना एवं जयपुर के न्यायालयों को अधिकारिता है - अनुबंध द्वारा पक्षकारों ने केवल जयपुर के न्यायालयों की क्षेत्रिय अधिकारिता मान्य की - सतना न्यायालय ने वादपत्र को जयपुर के सक्षम अधिकारिता के न्यायालय के समक्ष उसे प्रस्तुत किये जाने हेतु उचित रूप से वापिस किया।  (मनोज कुमार एण्ड कं. वि. जनरल मेनेजर वक्र्स)                                               ........407

2.    सिविल प्रक्रिया संहिता (1908 का 5), आदेश 5 नियम 17 व 19 - समन की तामीली - दिये गये पते पर प्रतिवादी नहीं मिला - प्रतिवादी की पत्नी ने नोटिस लेने से इंकार किया - आदेशिका तामीलकर्ता ने दरवाजे पर नोटिस चस्पा की - आदेशिका तामीलकर्ता ने न तो कोई शपथ पत्र प्रस्तुत किया और न ही उसका परीक्षण किया गया - चूंकि आदेश 5 नियम 17 व 19 के उपबंधों का पालन नहीं किया गया, इसलिए अपीलार्थी के विरूद्ध प्रदान की गई एकपक्षीय डिक्री अपास्त - मामले में सुनवाई का पर्याप्त अवसर देने और साक्ष्य अभिलिखित करने के पश्चात नये सिरे से न्यायनिर्णित करने हेतु मामला प्रतिप्रेषित - अपील मंजूर। (रामकृपाल वि. वीरभद्र)                           .....424

3.    साक्ष्य अधिनियम (1872 का 1), धारा 3 - साक्षी - किसी तथ्य को बेहतर ढंग से स्पष्ट करने के इरादे से, यदि कुछ नया शामिल किया जाता है तब कुछ विरोधाभास तात्विक नहीं कहा जा सकता। (म.प्र. राज्य वि. रविकुमार सिंह मल्होत्रा)           .....442

4.    हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (1956 का 30), धारा 8 - पक्षकारों का हिस्सा - शपथ पत्र/त्यजन विलेख - अभिकथित रूप से वादी की शपथ के शपथ पत्र को त्यजन विलेख के रूप में नहीं माना जा सकता - वादी ने अपने हिस्से का कभी भी अपीलार्थी के
पक्ष में पंजीकृत मोचन विलेख या अन्य ग्राह्य दस्तावेज निष्पादित करके त्यजन नहीं किया है - सह-स्वामित्व की सम्पत्ति को एक सह-स्वामी द्वारा अन्य के पक्ष में, मोचन विलेख का दस्तावेज बनाये बिना या अंतरण के दस्तावेज के बिना विमुक्त या अंतरित नहीं किया जा सकता। (हरगोविन्द वि. सगुन बाई)    -                                 .....401

5.     हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (1956 का 30), धारा 8 - पक्षकारों का हिस्सा - पिता की मृत्यु के पश्चात् वादी, उसके भाई व प्रत्यर्थी क्र.-7 का नाम, प्राकृतिक वारिस होने के नाते राजस्व अभिलेख में नामांतरित किया गया - तत्पश्चात वादी का नाम राजस्व अभिलेख से अपवर्जित किया गया - खसरा और खतौनी जैसे राजस्व अभिलेख में प्रविष्टि को हक का दस्तावेज नहीं माना जा सकता - ऐसे अभिलेख केवल उक्त भूमि के राजस्व के भुगतान हेतु दायित्व लादने के प्रयोजनों हेतु तैयार किया जाता है और नकि किसी अन्य प्रयोजनों हेतु - वादी को उचित रूप से 1/3 हिस्से का हकदार अभिनिर्धारित किया गया । (हरगोविन्द वि. सगुन बाई)    -                                      ......401

6.     भू राजस्व संहिता, म.प्र. (1959 का 20), धारा 110 - नामांतरण - ‘हितबद्ध व्यक्ति’ - याचीगण ऐसे अपंजीकृत दस्तावेज के आधार पर हक का दावा कर रहे हैं जिसे पंजीकृत किया जाना चाहिए था - याचीगण ‘हितबद्ध व्यक्ति’ नहीं हो सकते - उन्हें तहसीलदार द्वारा सूचित किया जाना आवश्यक नहीं था। (दिनेश कुमार वि. श्रीमति सर्वे श्री)    -                                                                ........345

7.     मोटर यान अधिनियम (1988 का 59), धारा 166 - उचित प्रतिकर - मृतक एक नवयुवक, वर्ष 2006 से दुर्घटना का शिकार हुआ - काल्पनिक आधार पर आय रू. 2,000/- प्रति माह होनी चाहिए थी और 17 का गुणक लागू करना चाहिए था - प्रतिकर की रकम रू. 98,500/- से बढ़ाकर रू. 2,92,000/- की गई, बढ़ाई गई रकम पर ब्याज के साथ। (लक्ष्मी बाई वि. नौशाद)    -                           ........’9

8.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 109 - दुष्प्रेरण का आरोप - आरोपमुक्त किये जाने हेतु इस आधार पर आवेदन किया गया कि चूंकि मुख्य अभियुक्त की मृत्यु हो गई है, और वे अभिकथित दुष्प्रेरक होते हुए उन्हें अभियोजित एवं दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता - अभिनिर्धारित - किसी व्यक्ति को किसी अपराध के दुष्प्रेरण के लिए दोषसिद्ध किया जा सकता है तब भी जब विचारण के दौरान प्रमुख अभियुक्त, जिसने अभिकथित रूप से उस अपराध को कारित किया, उसकी मृत्यु हो गई है - विचारण न्यायालय ने, आवेदक द्वारा अपराधों से स्वयं को आरोपमुक्त किये जाने हेतु आवेदन को उचित रूप से खारिज किया। (पंकज पाठक वि. म.प्र. राज्य)                                       (क्ठ).........503

9.  दण्ड संहिता (1860 का 45), धाराएॅं 307 व 326 - हत्या कारित करने का प्रयत्न या घोर उपहति - पीडि़तों के हाथों और पैरों पर वार - एक पीडि़त ने सिर पर वार सहन किया किन्तु आघात शक्तिशाली नहीं था - उसे मस्तिष्क में कोई रक्तस्त्राव कारित नहीं हुआ - अपीलार्थी का आशय मृत्यु कारित करना नहीं था - प्रत्यक्ष कृत्य भा.द.सं. की धारा 300 की किसी श्रेणी में नहीं आते - अभिनिर्धारित - अपराध धारा 326 के अंतर्गत आयेगा और न कि धारा 307 के अंतर्गत। (बसंत कुमार भार्गव वि. म.प्र. राज्य)-         .......468

10.     दण्ड संहिता (1860 का 45), धारा 376 - बलात्कार - अभियोक्त्री का चरित्र - अभियोक्त्री ने स्वीकार किया कि उसने एक बार एक व्यक्ति के विरूद्ध अपहरण से संबंधित रिपोर्ट दर्ज कराई थी और बाद में मामले में समझौता कर लिया था और उसके समुदाय की लड़कियां सामान्यतः लैंगिक कार्यकलाप में समाविष्ट रहती हैं - इसका अर्थ यह नहीं होगा कि अभियोक्त्री या उसके समुदाय की अन्य लड़कियां लोक सम्पत्ति है - उन्हें भी एकांतता तथा आजीविका का अधिकार है - चरित्रहीन महिला भी एकांतता की हकदार है, उसे किसी व्यक्ति द्वारा अधिक्रांत नहीं किया जा सकता। (राजमल वि. म.प्र. राज्य)                               
                                              ..........433

11.     विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (1963 का 47), धारा 20 - संविदा का विनिर्दिष्ट पालन - न्यायालय का विवेकाधिकार - पक्षकारों का वास्तविक आशय सुनिश्चित करने के लिए करार को संपूर्णता से पढ़ा जाता है और यदि दश्रित होता है कि सम्पत्ति का विवरण निश्चित नहीं है, तब संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद डिक्रीत नहीं किया जा सकता। (काशीराम वि. मिठ्ठूलाल) -                                            ..........410

12.    स्टाम्प अधिनियम (1989 का 2), धारा 35 - दस्तावेज का पंजीकरण - उचित स्टाम्प ड्यूटी पर दस्तावेज नहीं बनाया गया और उसे विहित प्रक्रिया के अंतर्गत पंजीकृत नहीं किया गया, तब उक्त दस्तावेज विधि अंतर्गत अग्राहय है। (हरगोविन्द वि. सगुन बाई)                                                            .........401                  
13.    उत्तराधिकार अधिनियम (1925 का 39), धाराऐं 283 व 284 - प्रोबेट प्रकरण में पक्षकार - जब तक कि मृतक की सम्पदा में कोई हित न हो, किसी व्यक्ति को प्रोबेट कार्यवाहियों में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता - चूंकि सर्वसामान्य, मृतक की सम्पदा मे हित रखने वाला व्यक्ति नहीं है, उसे अनावेदक के रूप में पक्षकार बनाए जाने के लिए निदेशित नहीं किया जा सकता था - प्रोबेट प्रकरण में सर्वसामान्य को पक्षकार बनाए जाने के लिए निदेशित करना, प्रोबेट जब की अधिकारिता से परे है। (नीना व्ही. पटेल (डाॅ.) वि. श्रीमति ज्योत्सना बेन पी. पटेल)    -                                     ........357

14.     सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम (1882 का 4), धारा 52 - लंबित वाद से संबंधित सम्पत्ति का अंतरण - विक्रय विलेख 05.09.1983 को निष्पादित किया गया जबकि हक की घोषणा हेतु वाद 02.11.1983 को प्रस्तुत किया गया - विक्रय विलेख को चुनौती नहीं दी गई - निष्कर्ष कि विक्रय विलेख को वाद लंबित रहने के दौरान निष्पादित किया गया और विधि अंतर्गत कायम रखने योग्य नहीं और विपर्यस्त है - तथापि, जैसा कि पूर्वतर वाद में अभिनिर्धारित किया गया था कि सम्पत्ति वादी और प्रतिवादी के संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है इसलिए प्रतिवादी के हिस्से की सीमा तक निष्पादित किया गया विक्रय विलेख वैध है - वादी, सम्पत्ति का बंटवारा कराने के लिए हकदार है और प्रतिवादीगण रिक्त कब्जा वादी को सोंपने के लिए बाध्यताधीन हैं।  (सुरेश कुमार केशवानी वि. किशनलाल विश्वकर्मा)    -                                                       ......383


    शब्द और वाक्यांश
15.     ‘गलत निर्णय’ एवं ‘गलती जो अभिलेख से प्रकट होती है’ - के बीच अंतर - जब कि पहला उच्चतर न्यायालय द्वारा सुधारा जा सकता, बाद का केवल पुनर्विलोकन अधिकारिता के प्रयोग द्वारा ही सुधारा जा सकता है। (यूनियन आॅफ इंडिया वि. उदय पाल)-                                                         ........378

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