Wednesday 27 November 2013

MCC CIVIL Digest

        यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, ए.आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107, बैंक आॅफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368 एवं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1499 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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    ट्रेक्टर को गांव वापस लाते समय ट्रेक्टर-ट्राली पलट गयी । ज्ञानसिंह (अनावेदक क्र-1) वह सर्वोत्तम साक्षी था जो यह स्पष्ट कर सकता था कि ट्रेक्टर-ट्राली किन परिस्थितियों में पलटी । लेकिन ज्ञानसिंह जो दुर्घटना की परिस्थितियों पर ठोस और वास्तविक प्रकाश डाल सकता था साक्षी के कटघरे मं आने का साहस नहीं कर सका है अतः न्याय दृष्टांत लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल लाॅ जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4 में प्रतिपादित विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । न्याय दृष्टांत वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र. में भी यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में  ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’  का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
---16.        उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं । इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक प्रतिपादनों का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रैक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 
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11.        आवेदकगण ने ’’अधिनियम’’ की धारा-163 (क) के अन्तर्गत प्रतिकर दिलाये जाने की प्रार्थना की है। ’अधिनियम’ की धारा-163 (क)के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147. ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए । संदर्भ- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58. 
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 बलवंतसिंह ने अनावेदक साक्षी के रूप में अपने सशपथ कथन मं यह कहा है कि विक्रमसिंह उसके यहां रूपये 1500/-पर मजदूरी करता था लेकिन तद्आशय कोई अभिवचन बलवंतसिंह द्वारा भी अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया  गया है  कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है ।
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20.        उक्त विषय में न्याय दृष्टांत-ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971 तथा यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि ए.आई0आर. 2008 एस.सी. 460 सुसंगत एवं अवलोकनीय है । इन दोनों मामलों में शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा यह सुस्पष्ट प्रतिपादिन किया गया है कि ट्रेक्टर ट्राली में श्रमिक के रूप में यात्रा कर रहे  व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसे व्यक्ति अधिनियम के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के उक्त विधिक उत्पादउन का अवलंब लेते हुए न्याय दृष्टांत नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514 तथा कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रेक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है  क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 
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14.    वादप्रश्न क्रमांक 4:-                   

        अनावेदक क्रमांक 3 की और से यह अभिवचन किया गया है कि प्रश्नगत दुर्धटना के समय मुंशीलाल ;अनावेदक क्रं.1द्धके पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र नहीं था । अनावेदक क्रं.3 का दायित्व संविदा आधारित दायित्व है । अनावेदक क्रं. 3 ने वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0आर0,1985 एस0सी0 1281 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये गये विधिक प्रतिपादन के प्रकाश में यह प्रमाणित करने का भार अनावेदक क्रं. 3 बीमा कंपनी पर था कि बीमा संविदा की उक्त शर्तो का उल्लंघन जगदीश चैधरी अनावेदक क्रं0 2 ने किया है ।  अनावेदक क्रं. 3 की और से उक्त अभिवचन के संबंध में कोई अभिसाक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गई है अतः यह साफ प्रगट है कि अनावेदक क्रं.3 यह प्रमाणित करने में असफल रहा है कि मुंशीलाल ;अनावेदक क्रं.1द्ध के पास प्रश्नगत दुर्धटना के समय वैध एवं प्रभावशील चालक अनुज्ञप्ति पत्र नहीं था तथा जगदीश चैधरी ;अनावेदक क्रं.2द्ध ने बीमा पालिसी की शर्तो का उल्लंघन किया था । तदानुसार वाद प्रश्न क्रमांक 4 निराकृत किया जाता है ।
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17.    वादप्रश्न क्रमांक 3:-   

        मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्ांसपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104 के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
         अ.    मृतक की आयु .
         ब.    मृतक की आय
         स.    मृतक के आश्रितों की संख्या.

18.    उक्त  सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्धवाले मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है । माॅं ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।उक्त विधिक स्थिति के प्रकाश में वर्तमान मामले में प्रस्तुत अभिसाक्ष्य पर विचार करना होगा ।
21.    जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, सरला वर्मा  ;पूर्वोक्तद्ध के मामलें में यह भी ठहराया गया है कि जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी माॅं है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है । इस विधिक स्थिति के प्रकाश में वर्तमान मामलें में मृतक की आश्रितता 15000/-रूपयें वार्षिक अभिनिश्चित की जाती है ।

22.    प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्ध के मामले में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए । यह विधि सुस्थापित है कि  मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए । वर्तमान मामलें में मृतक की एकमात्र आश्रिता माॅं कौशल्या ;आवेदिका क्रं0 2द्धकी आयु 48 वर्ष बताई गई है,  ऐसी दशा में सरला वर्मा ;पूर्वोक्तद्ध में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में वर्तमान मामले में 13 का गुणक प्रतिकर आंकलन हेतु प्रयुक्त किया जाना विधिसम्मत होगा । इसके आधार पर कुल आश्रितता क्षति ;15000 ग13 द्ध रू0 1,95,000 आती है ।
                       
23.    सरला वर्मा;पूर्वोक्तद्ध में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 5000/-रूपयें कुल 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
14.        जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।       
18.    जगदीश प्रसाद की पत्नि उमा बाई की आयु 23 वर्ष बताई गई है जबकि नक्शा पंचायतनामा प्र.डी-7 तथा शव परीक्षण प्रतिवेदन प्र. डी.6 में जमना प्रसाद आयु 25 वर्ष उल्लिखित की गई है अतः न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाश में 18 का गुणांक प्रयुक्त करते हुये आश्रितता क्षति ( ृ 24000 ग 18 त्र 4,32,000/-)     ृ 4,32,000/- विनिश्चित की जाती है, जिसमें  सम्पदा की क्षति के लिये ृ 5000/- सहचर्य क्षति के लिये ृ 5000/- तथा अंत्येष्ठि व्यय आदि के रूप में कुल ृ 15000/- जोड़कर देय प्रतिकर राशि ृ 4,47,000/- विनिश्चित की जाती है, जो आवेदकगण, अनावेदकगण से प्राप्त करने के अधिकारी हैं। वाद प्रश्न क्र. 2 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
18.        जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।       
        आवेदकगण ने क्लेम आवेदन में मृतिका की आयु 50 वर्ष अभिकथित की है। पोस्ट मार्टम प्रतिवेदन की प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.पी-5 में भी मृतिका की आयु 50 वर्ष उल्लिखित है। अकील खाॅ (आ.सा.1), जो मृतिका का पुत्र है, ने उसकी आयु 50-55 वर्ष बतायी है, जिसे प्रतिपरीक्षण में कोई चुनौती नहीं दी गयी है। उक्त परिप्रेक्ष्य में अभिलेखगत साक्ष्य के आधार पर यह प्रकट होता है कि अभिकथित दुर्घटना के समय मृतिका लगभग 55 वर्ष की थी। ऐसी दषा में न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये प्रतिपादन के प्रकाष में प्रतिकर निर्धारण हेतु 11 का गुणक प्रयुक्त किया जाना न्यायोचित होगा।
मृतिका रू. 200-400 /- प्रतिदिन कमाती थी, पूरी तरह कल्पित एवं बनावटी है तथा उनकी साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि मृतिका किसी भी दषा में रू.100/- प्रतिदिन से अधिक की राषि शारीरिक श्रम के द्वारा उपार्जित नहीं कर सकती थी। ऐसी दषा में एक माह में 25 कार्य दिवसों की गणना करते हुये मोटे तौर पर उसकी मासिक आय रू.2500/- तथा वार्षिक आय रू.30,000/- मानी जा सकती है। न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये निर्धारण के प्रकाष में उसकी आय में से 1/3 राषि स्वयं के ऊपर किये जाने वाले व्यय के रूप में घटाते हुये वार्षिक उपार्जन क्षति रू.20,000/- आंकलित की जाती है।
20.        11 के गुणक के आधार पर रू.20,000/- वार्षिक क्षति के क्रम में कुल आश्रितता क्षति रू. 2,20,000/- आंकलित की जाती है। न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में अंत्येष्ठि व्यय, सहचर्य क्षति तथा लाॅस आॅफ इस्टेट के लिये मोटे तौर पर रू.10,000/- की राषि अनुज्ञात की जा सकती है। उक्त परिप्रेक्ष्य में आवेदकगण को प्रतिकर रूप में रू. 2,30,000/- की राषि दिलाया जाना उचित होगा। आवेदकगण, जो मृतिका के पति, पुत्र तथा पुत्रियाॅं हैं, उक्त राषि में से बराबर-बराबर 1/7 भाग प्रत्येक प्राप्त करने के अधिकारी हैं। वाद प्रष्न क्र.2 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
22.        न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के दिषा निर्धारक मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मृत्यु के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के निर्धारण हेतु प्रधानतः निम्न तीन तथ्यों को स्थापित किया जाना आवष्यक है:-
        (1)    मृतक/आश्रितों की आयु (जो भी अधिक हो),
        (2)    मृतक की आय,
        (3)    आश्रितों की संख्या।
        उक्त मामले में यह भी ठहराया गया कि आश्रितता की क्षति/मृतक की आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतियाॅ, मृतक के व्यक्तिगत जीवन-यापन के लिये की जाने वाली कटौती तथा मृतक की आयु के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाला गुणक का निर्धारण भी आवष्यक है।
13.        न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के दिषा निर्धारक मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि मृत्यु के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के निर्धारण हेतु प्रधानतः निम्न तीन तथ्यों को स्थापित किया जाना आवष्यक है:-
        (1)    मृतक/आश्रितों की आयु (जो भी अधिक हो),
        (2)    मृतक की आय,
        (3)    आश्रितों की संख्या।
        उक्त मामले में यह भी ठहराया गया कि आश्रितता की क्षति/मृतक की आय के निर्धारण के लिये जोड़/कटौतियाॅ, मृतक के व्यक्तिगत जीवन-यापन के लिये की जाने वाली कटौती तथा मृतक की आयु के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाले गुणक का निर्धारण भी आवष्यक है। इस क्रम में यह भी ठहराया गया कि अन्यथा प्रमाण के अभाव में पिता के पास स्वयं की आय होना सम्भाव्य होगा तथा उसे आश्रित नहीं माना जायेगा एवं केवल माता को ही आश्रित माना जा सकेगा। यह भी ठहराया गया कि विपरीत साक्ष्य के अभाव में भाईयों और बहनों केा आश्रित नहीं माना जा सकेगा, क्योंकि वे या तो उपर्जान करने वाले होंगे या विवाहित अथवा पिता पर आश्रित होंगे।
    --19.        न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह भी स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि विभिन्न आयु वर्गों के लिये क्या आदर्ष गुणक होना चाहिये तथा इसके साथ ही यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि अविवाहित मृतक के संबंध में उसकी आय में से व्यक्तिगत व्यय और जीवन-यापन के प्रति 50 प्रतिषत कटौती किया जाना युक्ति-सम्मत होगा तथा ऐसे मामलों में सामान्यतः केवल माॅ को आश्रित माना जा सकता है।
    --14.        न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा व एक अन्य विरूद्ध दिल्ली परिवहन निगम व एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 के मामले में न्यायोचित प्रतिकर के बिन्दु पर विचार करते हुये यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहाॅं तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता। इस मामले मे सुसम्मा थाॅमस विरूद्ध केरल राज्य, 1994(2) एस.सी.सी.-176 के मामले का संदर्भ देते हुये प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक पद्धति का अनुमोदन किया गया।
    --8.        जहाॅं तक गुणंक का सम्बन्ध है, न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में मृतिका अथवा आवेदक जिसकी आयु अधिक हो उसके आधार पर गुणंक का निर्धारण करना होगा। वर्तमान मामले में आवेदक खुषीलाल ने अपनी पत्नी की आयु 50-55 साल बतायी है। अधिकरण ने स्वयं के आंकलन के आधार पर उसी आयु 65 वर्ष अंकित की है, जबकि क्लेम आवेदन पत्र में उसकी आयु 60 वर्ष अंकित की गयी है। यदि उसके द्वारा अभिलिखित उसकी स्वयं की आयु को भी यथावत स्वीकार किया जाये तो वर्तमान मामले में उसकी आयु 60 वर्ष के आधार पर न्याय दृष्टांत सरला वर्मा (पूर्वोक्त) में किये गये अभिनिर्धारण के प्रकाष में 9 का गुणक प्रयुक्त किया जाना विधि-सम्मत होगा।
--20.        जहाॅं तक प्रतिकर राषि के निर्धारण का सम्बन्ध है, इस संबंध में न्याय दृष्टांत श्रीमती सरला वर्मा विरूद्ध देहली ट्रांसपोर्ट कार्पोरेषन एवं एक अन्य, ए.आई.आर. 2009 (एस.सी.) 3104 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिकरण द्वारा आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
4. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
5. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
6. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
21.        मृतक की आयु प्र.पी.8 में 28 वर्ष तथा प्र.पी.17 की डिस्चार्ज टिकिट में 27 वर्ष उल्लिखित है। गोपीकृष्ण पाटीदार (आ.सा.2) ने उसकी आयु 25 वर्ष बताई है, लेकिन मृतक के पेन कार्ड प्र.पी.16 में उसकी जन्मतिथि 10.01.1985 उल्लिखित है, जिसके आधार पर अभिकथित दुर्घटना दिनांक 30.05.2009 को उसकी आयु 24) वर्ष के आस-पास आती है। मृतक की उक्त आयु के परिपेक्ष्य में पूर्वोक्त न्यायदृष्टांत के प्रकाष में 18 का गुणंक प्रयुक्त किया जाना न्यायोचित होगा।
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16.        बीमा कंपनी (अनावेदक क्र.4) की ओर से अवलंबित न्याय दृष्टांत सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है। इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.) के साथ-साथ अन्य अनेक मामलों का संदर्भ भी दिया गया है। निर्णय की कंडिका 8 में न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.) का संदर्भ है। इस मामले में दुर्घटना परिवहन यान से हुयी थी, जबकि चालक रामनारायण के पास हल्के मोटर यान के लिये अनुज्ञप्ति थी, जिस पर परिवहन यान चलाने की पात्रता का पृष्ठांकन नहीं था अतः बीमा कंपनी को उत्तरदायी नहीं माना गया।
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20.        अनावेदक क्र.4 की ओर से इस क्रम में न्याय दृष्टांत इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.) का अवलंब लेते हुये यह तर्क किया गया है कि चालक अनुज्ञप्ति के विषय में बीमा पालिसी के शर्तों के उल्लंघन के कारण अनावेदक क्र.4 का उत्तरदायित्व प्रतिकर के संबंध में स्थापित नहीं हुआ है अतः बीमा कंपनी से प्रतिकर की राषि आवेदक को दिलाये जाने तथा तत्पष्चात् उस राषि को बीमा कंपनी द्वारा वाहन स्वामी से वसूल किये जाने के बारे में कोई निर्देष नहीं दिया जा सकता है। अवलंबित मामले में मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा श्च्ंल ंदक तमबवअमतश् को प्रयोज्य नहीं माना गया।
21.        उक्त क्रम में यह बात उल्लेखनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ ने नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297 के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहाॅं पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहाॅं तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा। समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) में किये गये विनिष्चयों से भी प्रकट होती है। ऐसी स्थिति में अनावेदक क्र.4 की ओर से किया गया यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है कि वर्तमान मामले में श्च्ंल ंदक तमबवअमतश् का सिद्धांत लागू नहीं होगा।
--22.        चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन अनावेदक क्र.2 द्वारा चालक अनुज्ञापत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
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9.        न्याय दृष्टांत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
10.        न्याय दृष्टंात राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाॅंक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी। दुर्घटना से संबंधित बताये जाने वाले दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियों ने प्रतिपरीक्षण में यह स्वीकार किया था कि वे अषिक्षित हैं तथा पढ़ना-लिखना नहीं जानते हैं इसके बाद भी उन्होंने कथित दुर्घटना कारित करने वाले वाहन का पंजीयन क्रमांक बताया था, लेकिन जिस मोटर सायकल द्वारा कथित टक्कर मारी गयी उसके रंग के विषय में दोनों के कथनों में भिन्नता थी। मामले की परिस्थितियों में यह ठहराया गया कि प्रष्नगत वाहन द्वारा दुर्घटना कारित किया जाना पूरी तरह संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
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16.        अनावेदक क्र.4 (बीमा कंपनी) की ओर से ए.डी.खान का परीक्षण कराया गया है, जिसने प्र.डी-3 व प्र.डी-4 के प्रलेख प्रमाणित किये हैं। प्र.डी-3 अनावेदक क्र.1 के पक्ष में जारी चालक अनुज्ञापत्र का संक्षिप्त विवरण है, जिससे विदित होता है कि यह प्रलेख दिनाॅंक 24.1.2001 से दिनाॅक 04.02.2020 तक की अवधि के लिये हल्के मोटर यान को चलाने के लिये जारी किया गया है। प्र.डी-4, जो दुर्घटना में संलिप्त कार की बीमा पालिसी की फोटो प्रति है तथा प्र.डी-5 कार से संबंधित परमिट की फोटोप्रति है, के अवलोकन से यह भी प्रकट है कि उक्त कार परिवहन यान (टैक्सी) के रूप में पंजीकृत थी। ऐसी स्थिति में उक्त वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंात ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.) में स्पष्ट रूप से विधिक प्रावधानों के प्रकाष में प्रतिपादित किया गया है।
17.        पूर्वोक्त परिप्रेक्ष्य में यह सुस्पष्ट है कि प्रष्नगत दुर्घटना के समय अनावेदक क्र.1 के पास टैक्सी क्र. एम.पी-04-टी-4986 को चलाने के लिये वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र नहीं था, जो बीमा पालिसी की शर्तों के उल्लंघन की श्रेणी मे आता है। अतः अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी को प्रतिकर के संदाय हेतु उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। वाद प्रष्न क्र. 4 एवं 5 तदानुसार निराकृत किये जाते हैं।
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20.        अनावेदक क्र.3 की ओर से यह आपत्ति की गयी हैं कि ट्रैक्टर के स्वामी, चालक एवं बीमा कंपनी प्रकरण में आवष्यक पक्षकार थे, लेकिन पूर्वोक्त विष्लेषण के क्रम में ट्रैक्टर चालक की कोई लापरवाही प्रमाणित नहीं हुयी है। ऐसी स्थिति में उक्त तीनों को प्रकरण के लिये आवष्यक पक्षकार नहीं माना जा सकता है। यदि तर्क के लिये मामला योगदायी उपेक्षा का मान भी लिया जाये तो भी उक्त आपत्ति विधि सम्मत नहीं है, क्योंकि माननीय म.प्र.उच्च न्यायालय द्वारा सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोेरेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहाॅं दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहाॅं दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
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27.        यह प्रकट है कि दुर्घटना के समय आवेदक मांगीलाल एवं मृतक नरबत माल वाहक यान में या तो किराया देकर अथवा अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहे थे। न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) तथा जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892  में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
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24.        यह प्रमाणित पाया गया है कि प्रष्नगत वाहन को अनावेदक क्र.1 के द्वारा तेजी और लापरवाही से चलाये जाने के कारण दुर्घटना घटित हुयी। यह वाहन अनावेदक क्र.2 के स्वामित्व का था अतः अनावेदक क्र. 1 एवं 2 प्रतिकर के लिये संयुक्ततः एवं पृथक-पृथक उत्तरदायी हंै। चॅूकि अनावेदक क्र.3 बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है, अतः अनावेदक क्र.3 का सीधा उत्तरदायित्व प्रतिकर अदायगी हेतु नहीं है, लेकिन न्याय दृष्टांत नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297, नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 तथा न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) के परिप्रेक्ष्य में अनावेदक क्र.3 उक्त प्रतिकर राषि आवेदक को अदा करेगी तथा यह राषि अनावेदक क्र. 1 व 2 से इसी अधिनिर्णय के अंतर्गत वसूल कर सकेगी।
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9.        न्याय दृष्टांत वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहाॅं तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुॅचेगा। उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूॅंढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके। दुर्घटना से पीडि़त पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो। निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
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11.        न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहाॅं प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहाॅं इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है।
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व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडि़त पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये, प्रथम-वित्तीय क्षति, द्वितीय-विषेष क्षति। इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं। जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय। विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता, जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि। उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मामले में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
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11.        उक्त मौखिक एवं प्रलेखीय साक्ष्य, जिस पर अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है, के आधार पर यह बात सुस्पष्ट प्रमाणित है कि दिनाॅंक 21.01.20009 को शाम लगभग 4.40 बजे इंदौर-भोपाल रोड़ पर इंदौर नाके के निकट राधेष्याम (अनावेदक क्र.1) ने प्रेमनारायण (अनावेदक क्र.2) के स्वामित्व की टेम्पो ट्रैक्स क्र. एम.पी.-37-टी.-0281 से आवेदक में टक्कर मारी। अनावेदक क्र.1 स्वयं साक्षी के कठघरे में आकर यह बताने का प्रयास नहीं कर सका है कि दुर्घटना किन परिस्थितियों में हुयी तथा उसके द्वारा किस प्रकार की सावधानी बरती गयी। ऐसी दशा में  न्याय दृष्टंात लाजवंती विरूद्ध केशव प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स (एन.ओ.सी) 4 में किये गये प्रतिपादन के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध निष्कर्ष निकाला जाना चाहिये। अतः मामले की सम्पूर्णता के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अनावेदक क्र.1 की लापरवाही के कारण प्रष्नगत दुर्घटना घटित हुयी, जिसमें आवेदक लक्ष्मण सिंह को उपहति कारित हुयी। वाद प्रष्न क्र.1 तदानुसार निराकृत किया जाता है।
17.        कृपालसिंह (अनावेदक क्र.1) स्वयं साक्षी के कटघरे में आकर दुर्घटना की परिस्थतियों पर प्रकाष डालने का साहस नहीं कर सका है। अतः न्याय दृष्टांत अतः न्याय दृष्टंात लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल लाॅ जजमेंट्स (एन.ओ.सी) 4  में प्रतिपादित विधिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में उसके विरूद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जाना चाहिये। न्याय दृष्टांत वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र. में भी यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ (त्मे.पचें सवुनपजनत)  का सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था।
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