Tuesday 26 November 2013

S.302 ipc saitation

21.        पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहाॅं साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहाॅं ऐसी परिस्थितियाॅं, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंृखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा, संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431, चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।
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बचाव पक्ष की ओर से इस क्रम में यह तर्क किया गया है कि पुलिस साक्षी होने के कारण संपुष्टि के अभाव में उनकी अभिसाक्ष्य पर विश्वास किया जाना विधि सम्मत नहीं होगा, लेकिन यह तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंाकन भी उसी प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425
24.        पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है, संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.
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किसी साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।
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-बचाव पक्ष की ओर से चुनौती दी गयी है कि वे हितबद्ध साक्षी हैं अतः उनकी अभिसाक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जा सकता है, लेकिन उक्त तर्क स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है। वस्तुतः ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा (जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी चाहिये। उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित है, जिसमें प्रकट किया गया है कि  ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु जहाॅं साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियांें की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की कमियों की समीक्षा कर ले।’’
27.        उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी ही मताभिव्यक्ति   की:-
    ’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त करते हैं कि इस आधार में कि चॅूकि साक्षी निकट का नातेदार है और परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’
28.        इस दलील को कि हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत व्यक्त किया: -
        ’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियांे के परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंै और सात पुरूषों का भाग्य उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसेे नियम की जानकारी नहीं है। यदि यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों में उपदर्षित होता है।’’
-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार साक्षी है। यह सही है कि पप्पू उर्फ महेष (अ.सा.1) तथा मुकेष (अ.सा.2) मृतक के सगे भाई हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये। दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि, ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना लगभग असम्भव है।
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न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतियाॅ साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।
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न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडि़ता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मेें नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है। न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.लाॅ.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया। न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मंें विष्वास योग्य ठहराया गया।
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34.        बचाव पक्ष की ओर से तर्क किया गया है कि प्राथमिकी प्र.पी-10 में शफीक खाॅ (अ.सा.2) की उपस्थिति का उल्लेख न होने के कारण शफीक खाॅ (अ.सा.2) की साक्ष्य विष्वास योग्य नहीं है, लेकिन इस क्रम में यह विधिक स्थिति ध्यातव्य है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर. 1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।
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टेलीफोनिक सूचना रोजनामचा पंजी में प्र.पी-18 के रूप में दर्ज की गयी है वह इस बात की संक्षिप्त जानकारी भर है कि लतीफ खाॅ को मार डाला गया है। ऐसी टेलीफोनिक सूचना को अपने आप में प्राथमिकी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत तपिन्दर सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1970 एस.सी. 1566 एवं षिवप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2005(1) एम.पी.एल.जे. नोट-13. प्र.पी.10 की उक्त रिपोर्ट धारा 157 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत सम्पुष्टिकारक साक्ष्य है अतः न केवल शफीक खाॅ (अ.सा.2) की मौखिक अभिसाक्ष्य अपितु प्र.पी-10 की प्राथमिकी से भी महक बी (अ.सा.1) के कथन को सम्पुष्टि मिलती है।
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न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध गम्भीर सिंह व अन्य, 2005 क्रि.ला.रि. (एस.सी.) 501 में मृतक के रिष्तेदार की साक्ष्य को विष्वास योग्य नहीं माना गया, जिसका कारण यह था कि पुलिस के द्वारा उसका कथन घटना के एक माह बाद लेखबद्ध किया गया था तथा उसकी साक्ष्य में विसंगतियाॅं थीं।
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यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ;क्पेबवअमतल व िंिबजद्ध की परिधि में नहीं आती है। संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 ।
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एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142। न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2) एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते हैं, जहाॅं किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या विसंगति विहीन है।
23.        न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहाॅं किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहाॅं उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।
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-17.        मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु का आखेट बना है। एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684. एवं पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443
-19.        पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युुकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और मााननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मंे निर्भर रहा जाये, संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383. न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था।
20.        न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाॅच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।
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46.        अभियुक्त और उसके अधिवक्ता को दण्ड के विषय में सुना गया। अभियुक्त के द्वारा अपनी पत्नी पप्पी बाई पर मिट्टी का तेल छिड़ककर उसकी हत्या करने का अपराध निष्चय ही अत्यंत गम्भीर प्रकृति का है, लेकिन न्याय दृष्टांत मच्छीसिंह आदि वि0 पंजाब राज्य ए.आई.आर. 1983 सु.को. 1957 एवं न्याय दृष्टांत वचनसिंह बनाम पंजाब राज्य ए.आई.आर.1980 एस.सी. 898 के मामलों में मृत्युदण्ड के लिये विरलों में से विरलतम मामलों की जो परिसीमा खींची गयी है, उसमें इस मामले को नहीं रखा जा सकता है। अतः अभियुक्त को मृत्युदण्ड से दण्डित करने का औचित्य प्रकट नहीं है।
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23.        न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाॅ मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहाॅं ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-
(1)    वे परिस्थितियाॅं जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,
(2)    वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,
(3)    परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और
(4)    दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’
24.        न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.लाॅ.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितियाॅं पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।
25.        उक्त परिप्रेक्ष्य में अभियोजन द्वारा अभियुक्त के विरूद्ध अभिकथित विभिन्न परिस्थितियों के विषय में क्रमवार साक्ष्य का विष्लेषण करना आवष्यक होगा। अभियोजन ने अभियुक्त के विरूद्ध प्रधानतः निम्न दोषिताकारक परिस्थितियाॅं अभिकथित की है:-
1. अभियुक्त की संलिप्तता के विषय में रोजनामचा प्रविष्टि (प्रमाणित प्रतिलिपि प्र.पी-32(सी)) के अनुसार सूचना प्राप्त होना,
2. अभियुक्त का घटनास्थल के निकट ही पेड़ से बंधा होना,
3. अभियुक्त द्वारा घटना के तत्काल बाद गले में फांसी लगाकर आत्महत्या का प्रयास करना,
4. बसंती बाई (अ.सा.1) का विलाप कर यह बताना कि अभियुक्त मगनलाल ने बच्चियों को काट डाला है,
5. अभियुक्त द्वारा रतनसिंह (अ.सा.7) के समक्ष की गयी कथित न्यायकेत्तर संस्वीकृति,
6. अभियुक्त, जो घटनास्थल पर मौजूद था, के द्वारा तत्काल घटना के बारे में किसी को सूचित न किया जाना,
7. कथित रूप से अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतक फूलकुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर तथा घटनास्थल से जप्त कुल्हाड़ी पर ’ए-बी’ रक्त समूह की उपस्थिति,
8. अभियुक्त के हाथ और पैर के नाखूनों पर रक्त की मौजूदगी,
9. अभियुक्त द्वारा अपनी कृषि भूमि विक्रय करने की इच्छा और उसकी पत्नियाॅं बसंती बाई (अ.सा.1) और संतोबाई (अ.सा.2) द्वारा इसका विरोध,
10. अभियुक्त की कथित विरोधाभासपूर्ण एवं अस्वाभाविक प्रतिरक्षा।
26.        उक्त अभिकथित दोषिताकारक परिस्थितियों के बारे में अभिलेखगत साक्ष्य का क्रमवार विष्लेषण एवं मूल्यांकन कर यह देखना होना कि क्या उक्त परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित है तथा क्या उनके आधार पर एक ऐसी कड़ी निर्मित होती है, जो एकल और एकल रूप से उक्त पाॅचों मृत बालिकाओं की हत्या के संबंध में अभियुक्त की संलिप्तता की ओर ही इंगित करती है तथा उसकी निर्दोषिता से असंगत है ?
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पक्ष विरोधी घोषित किया गया है, लेकिन न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध राज्य, 1993(3) क्राईम्स 82 एस.सी. के मामले में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया गया है कि पक्ष विरोधी साक्षियों के कथन को अभिलेख से बिल्कुल साफ हुआ नहीं माना जा सकता है। उनके साक्ष्य का वह भाग, जो मान्य किये जाने योग्य है, उपयोग में लाया जा सकता है।
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44.         प्र.पी-40 प्रयोगषाला के सहायक रासायनिक परीक्षक द्वारा जारी प्रतिवेदन है, जिसमें इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि ज्ञापन के अनुसार भेजे गये सभी पैकेट उचित रूप से सीलबंद हालत में प्राप्त हुये। प्रतिवेदन प्र.पी-40 में सहायक रासायनिक परीक्षक ने वस्तु ’ई’, जो अभियुक्त से जप्तषुदा पेंट बतायी जाती है तथा वस्तु ’जे-1’ एवं ’जे-2’, जो मृतिका फूलकुॅवर की अण्डरवियर और फ्राक बतायी जाती है, पर ’ए-बी’ समूह का रक्त प्रतिवेदित किया है। यही रक्त कुल्हाड़ी ’डी’ पर भी प्रतिवेदित किया गया है, जो अभियुक्त की टापरी से अभिग्रहित की गयी। प्र.पी-40 का प्रतिवेदन, जो धारा 293 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत औपचारिक सिद्धि के बिना साक्ष्य में ग्राह्य है, पर अविष्वास करने का कोई कारण प्रकट नहीं है। अतः यह सुप्रमाणित है कि अभियुक्त से अभिग्रहित पेंट तथा मृतिका फूलकुॅवर की अण्डवियर और फ्राक एवं अभियुक्त की टापरी से प्राप्त कुल्हाड़ी पर एक ही समूह-’ए-बी’ समूह का रक्त पाया गया।
45.        अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुॅचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है। जहाॅं कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है, वहीं पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल लाॅ रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया। न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है। हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहाॅं रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिि से प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।
46.        पूर्वोक्त विधिक एवं ताथ्यिक पृष्ठभूमि के संबंध में अभियुक्त की पेेंट व घटनास्थल से अभिग्रहित कुल्हाड़ी पर पर उसी समूह के रक्त की उपस्थिति, जो समूह मृतिका फूलकुुॅवर की फ्राक और अण्डरवियर पर पाया गया, अपने आप में ठोस एवं निर्णायक दोषिताकारक परिस्थिति है। अभियुक्त अपनी पेंट पर रक्त की उक्त मौजूदगी के बारे में किसी भी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण धारा 313 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किये गये परीक्षण में अथवा अन्यथा देने में असफल रहा है। अतः उक्त स्थिति अभियुक्त के विरूद्ध एक महत्वपूर्ण दोषिताकारक कड़ी के रूप में सामने आती है।
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49.        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहाॅं अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथियाॅं अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-
(1)    अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडि़या समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।
(2)    ये परिस्थितियाॅं युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और
(3)    यह परिस्थितियाॅं समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।
50.        इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।
51.        वर्तमान मामले में अभियुक्त के द्वारा यह प्रतिरक्षा ली गयी है कि घटना वाले दिन कोई व्यक्ति उसके घर आया था, जिसने पाॅचों बच्चियों की हत्या कर दी तथा इसके बाद वह व्यक्ति अभियुक्त को टापरी के निकट स्थित पेड़ से उसे बांधकर चला गया। अभिलेखगत साक्ष्य के गहन एवं विस्तृत विष्लेषण में अभियुक्त की उक्त प्रतिरक्षा पूरी तरह असत्य, निराधार एवं कपोल-कल्पित पायी गयी है तथा अभियुक्त के द्वारा ली गयी उक्त असत्य एवं निराधार प्रतिरक्षा अपने आप में वर्तमान मामले में एक दोषिताकारक परिस्थिति को जन्म देती है।
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हेतुक:-
52.         बचाव पक्ष की ओर से यह तर्क किया गया है कि वर्तमान मामले में अभिकथित हत्याओं के विषय में अभियुक्त का हेतुक अभियोजन के द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है अतः अभियोजन की यह कहानी कि उक्त पाॅचों बच्चियों की हत्या अभियुक्त के द्वारा की गयी, युक्तियुक्त रूप से संदेहास्पद हो जाती है।
53.    उक्त तर्क के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना उचित होगा। ’हेतुक’ एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना ;ैनइ.बवदेबपवनेद्ध में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है। विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है। विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहाॅं हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.लाॅ.रि.(सु.को.) 495 । जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाॅंति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 । न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है। ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहाॅं ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।
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59.        न्याय दृष्टांत माछीसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1983)3 एस.सी.सी. 470 के मामले में निम्न मत व्यक्त किया गया था:-
        ’विरल से विरलतम मामले’ जिसमंे मृत्यु दंडादेश अधिरोपित किया जा सकता है का अवधारण करने के लिए कसौटी के रूप में निम्नलिखित प्रश्नोत्तर किए जा सकते हैं:-
(क)    क्या अपराध के बारे में ऐसी कोई असमान्य बात है जो आजीवन कारावास के दंडादेश को अपर्याप्त बनाती हो और मृत्यु दंडादेश अपेक्षित हो जाए ?
(ख)    क्या अपराध की परिस्थितियाॅं, ऐसी हैं कि अपराधी के पक्ष की न्यूनकारी परिस्थितियों को अधिकतम महत्व देने के पश्चात् भी मृत्यु दंडादेश अधिरोपित करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है ?
60.        माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि न्याय दृष्टांत बचनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, (1980)2 एस.सी.सी. 184 वाले मामले से उद्भूत निम्नलिखित मार्गदर्शक सिद्धांत प्रत्येक ऐसे मामले के तथ्यों पर लागू किए जाने चाहिए जहाॅं मृत्यु दंडादेश का प्रश्न उठाता है:
;पद्ध    हत्या के घोरतम जघन्य मामलों के सिवाए मृत्यु का घोर दंड अधिरोपित नहीं किया जाना चाहिए,
;पपद्ध    मृत्युदण्ड का विकल्प चुनने के पूर्व ’अपराध’ की परिस्थितियों सहित अपराधी की परिस्थिति को भी विचार में लिया जाना चाहिए,
;पपपद्ध    आजीवन कारावास नियम है और मृत्यु दंडादेश एक अपवाद है। मृत्यु दण्डादेश तभी अधिरोपित किया जाना चाहिए जब अपराध की सुसंगत परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए आजीवन कारावास कुल मिलाकर अपर्याप्त दण्ड प्रतीत होता हो और अपराध की प्रकृति और परिस्थतियों तथा सभी सुसंगत परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आजीवन कारावास के दंडादेश के विकल्प का प्रयोग न किया जा सकता हो,
;पअद्ध    गुरूतरकारी ;।हहतंअंजपदहद्ध और न्यूनकारी ;डपजपहंजपदहद्ध परिस्थितियों को विचार में लिया जाना चाहिए और ऐसा करते हुये न्यूनकारी परस्थितियों को पूरा महत्व देना चाहिए और विकल्प का प्रयोग करने के पूर्व गुरूतरकारी और न्यूनकारी परिस्थितियों के बीच एक उचित संतुलन बनाया जाना चाहिए।
61.        न्याय दृष्टांत देवेन्द्र पाल सिंह विरूद्ध देहली राज्य, (2002) 5 एस.सी.सी. 234 के मामले में बचनसिंह (पूर्वोक्त) तथा माछीसिंह (पूर्वोक्त) के मामलों का संदर्भ लेते हुये यह प्रतिपादित किया गया कि जब समाज का अंतःकरण संचयी रूप से इतना व्यथित हो जाए जिससे वह न्यायिक शक्ति धारकों से, मृत्युदण्ड की वांछनीयता या अन्यथा के संबंध में उनकी व्यक्तिगत राय को विचार में लिए बिना, मृत्युदण्ड अधिरोपित करने की प्रत्याशा करना चाहे तब मृत्युदण्ड अधिनिर्णित किया जाना चाहिए। इस मामले में प्रकट किया गया कि समाज में ऐसी भावना, निम्नलिखित परिस्थितियों में उत्पन्न हो सकती है:-
(1)    जब हत्या अत्यधिक पाश्विक, विकृत, क्रूर, घिनौनी रीति से या नृशंस रूप से की गई हो, जिससे समुदाय में अत्यधिक उत्तेजना, क्रोध उत्पन्न होता है।
(2)    जब हत्या ऐसे हेतुक के लिए की जाती है, जिससे पूर्णतया जघन्यता और नीचता प्रदर्शित हो, अर्थात् भाड़े पर लाए गए हत्यारे द्वारा धन या इनाम के लिए नृशंस हत्या की गई हो या जहाॅं हत्यारे के नियंत्रणाधीन किसी प्रतिपाल्य या किसी व्यक्ति की या उसके संबंध में जिस पर हत्यारे का अधिक प्रभुत्व है या उसका विश्वासपात्र है, से फायदा लेने के लिए या मातृभूमि से विश्वासघात करने के लिए हत्या की जाती है।
(3)    जब अनुसूचित जाति या अल्पसंख्यक समुदाय इत्यादि के किसी सदस्य की हत्या किसी निजी कारण से नहीं बल्कि उन परिस्थितियों में की जाती है, जिससे समाज में क्रोध उत्पन्न होता है या ’नव-वधु जलाने’ या ’दहेज-मृत्यु’ की दशा में या जब कोई हत्या एक बार पुनः दहेज ऐंठने के लिए पुनर्विवाह करने हेतु या प्रोमोन्माद के कारण किसी अन्य महिला से विवाह करने के लिए की जाती है।
(4)    जब वह अपराध आनुपातिक रूप से अत्यंत बड़ा हो। अर्थात् किसी कुटुंब के सभी या लगभग सभी सदस्यों की हत्या की जाती है या किसी विशेष जाति, समुदाय या परिक्षेत्र के अनेक सदस्यों की हत्याएं की जाती हैं।
(5)    जब हत्या का शिकार एक अबोध शिशु या असहाय महिला या कोई वृद्ध व्यक्ति या असहाय व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति है जिस पर हत्यारे का प्रभुत्व है या आहत व्यक्ति एक ऐसा प्रमुख व्यक्ति है, जिसे साधारणतया समाज द्वारा प्यार और सम्मान दिया जाता है।
62.        यदि उपरोक्त प्रतिपादनों को दृष्टिगत करते हुए सभी परिस्थितियों पर विचार करने पर और यदि विरल से विरलतम मामलों की कसौटी के लिए पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर मामला विरल से विरलतम मामले की परिधि में आता है, तब मामले की परिस्थितियों में मृत्युदण्डादेश अपेक्षित होगा और न्यायालय ऐसा करने को अग्रसर होगा।  
63        न्याय दृष्टांत धनंजय चटर्जी उर्फ धन्ना विरूद्ध पष्चिम बंगाल राज्य, (1994)2 एस.सी.सी. 220 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि कुछ अपराधियों को अत्यंत कठोर दण्ड मिलता है, कुछ अन्य को कम दण्ड मिलता है, जबकि अपराध समान रूप से गम्भीर है और अनेक अपराधी दण्डित किये बिना ही बच निकलते हैं, जो अंततः अपराधी को प्रोत्साहित करता है एवं न्यायिक व्यवस्था की विष्वसनीयता के क्षीण होने के कारण न्याय प्रभावित होता है। इस मामले में यह भी ठहराया गया कि अपराधी का आचरण तथा पीडि़त/मृतक की बचाव रहित स्थिति भी इस संबंध में देखी जाना चाहिये। युक्तियुक्त दण्ड का अधिरोपण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा न्यायालय न्याय के लिये समाज की पुकार के प्रति अपनी चेतना को व्यक्त करता है। न्याय की अपेक्षा है कि न्यायालय को अपराध की गम्भीरता के समानुपातिक ऐसा दण्ड अधिरोपित करना चाहिये, जिससे कि जनसामान्य में उस अपराध के प्रति घृणा की स्थिति परिलक्षित हो। न्यायालयों को केवल अपराधी के ही अधिकारों का ध्यान नहीं रखना चाहिये अपितु अपराध के पीडि़त एवं समाज के अधिकारों को भी दण्ड अधिरोपण के समय दृष्टिगत रखना चाहिये।
64.        न्याय दृष्टांत रावजी उर्फ रामचंद्र विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 787 के मामले में पत्नी, तीन अवयस्क बच्चे एवं एक पड़ोसी, जिनका कहीं कोई दोष नहीं था, की जघन्य हत्या के लिये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
65.        न्याय दृष्टांत उमाषंकर पंडा विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (1996)8 एस.सी.सी. 110 के मामले में पत्नी तथा 2 पुत्रियों की हत्या तथा अन्य 2 पुत्रियों एवं 1 पुत्र की हत्या का प्रयास करने के लिये घटना में प्रयुक्त हथियार, अपराध की पाष्विक प्रकृति तथा मारे गये व्यक्तियों की संख्या एवं उनकी असहाय स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये मृत्युदण्ड को उचित ठहराया गया।
66.        न्याय दृष्टांत सुरेषचंद्र बहेरी विरूद्ध बिहार राज्य, (1985) (सप्लीमेंट)1 एस.सी.सी. 80 के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह ठहराया गया कि अबोध बच्चे की उनके ही पिता के द्वारा खून को जमा देने वाले तरीके से की गयी क्रूर हत्या, जिसमें परिवार के लगभग सभी सदस्यों को खत्म कर दिया गया था, के लिये मृत्युदण्ड के अलावा अन्य कोई उपयुक्त दण्ड समझ में नहीं आता है तथा मामला विरल से विरलतम मामलों की श्रेणी में आता है, जहाॅं मृत्युदण्ड के अलावा किसी अन्य दण्ड को उचित एवं पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है।
67.        न्याय दृष्टांत जगदीष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, (2009) 9 एस.सी.सी. 495, जिसमें अभियुक्त के द्वारा पत्नी और 5 बच्चों की हत्या की गयी थी, में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विचार करते हुये यह पाया कि अभियुक्त ने नितांत पाष्विक, वीभत्स और निर्दय तरीके से पत्नी और बच्चों की हत्या की है, जिनके ऊपर वह प्रभावी स्थिति में था तथा जो सभी निर्दोष और असहाय थे अतः मामले की समग्रता को देखते हुये मृत्युदण्ड उचित ठहराया गया।
------------------------------------------------------20.        उक्त पृष्ठभूमि में प्रत्यक्षदर्षी साक्ष्य के रूप में मृतक दीनदयाल के पुत्र दीपक (अ.सा.5) की अभिसाक्ष्य अभिलेख पर शेष रह जाती है। एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता है:-
    प्रथम -  पूर्णतः विष्वसनीय,
    द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
    तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।

21.        उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये, अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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