Friday 6 June 2014

Ni Act धारा 138 का संज्ञान व द.प्र.सं. की धारा 200

138 के अधीन दण्डनीय अपराध का संज्ञान
परिवाद के साथ प्रस्तुत शपथ पत्र पर ले
सकता है। अथवा द.प्र.सं. की धारा 200 के
अधीन परिवादी के न्यायालय में कथन होना
आवश्यक है?

समाधान-इस समस्या हेतु परक्राम्य लिखत
अधिनियम, 1881 की धारा 145
(1) सुसंगत है
जो निम्नवत् है-
Evidence on affidavit.– “(1) Notwithstanding
anything contained in the Code of Criminal
Procedure, 1973 (2 of 1974), the evidence of
the complainant may be given by him on
affidavit and may, subject to all just
exceptions, be read in evidence in the
enquiry, trial or other proceeding under the
said Code.”

स्पष्ट है कि परिवादी की ओर से प्रस्तुत
शपथपत्र किसी भी जांच विचारण या अन्य
कार्यवाही
में साक्ष्य में पठनीय है। विचारण पूर्व
की समस्त कार्यवाही जिसमें संज्ञान लेना
सम्मिलित है, जांच के अधीन आती है। इस
दृष्टि से परिवादी की ओर से धारा -138
परक्राम्य लिखत अधिनियम के अधीन परिवाद के
समर्थन में प्रस्तुत शपथ पत्र पर मजिस्टंट
धारा-138 के अधीन दण्डनीय अपराध का
संज्ञान ले सकता है तथा इस हेतु परिवादी
की धारा-200 दं.प्र.सं. के अधीन न्यायालय में
परीक्षा किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस बिंदु पर महेन्द्र कुमार वि. आर्मस्टंग,
2005 (2) एम.पी.एल.जे. 419 (एकलपीठ
निर्णय दिनांक 24.02.2005), जितेन्द्र सिंह
कुशवाहा वि. भजनलाल राय, 2010
(2) एम.पी. जे.आर. 159 )
एकलपीठ निर्णय
दिनांक अग्निहोत्री 05.11.20081⁄2 वि. दिलीप,
एवं अभिलाषा आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 1836

 (एकलपीठ निर्णय दिनांक 25.02.2009) के न्याय दृष्टांतों में
माननीय म.प्र. उच्च न्यायालय द्वारा स्पष्टतः
प्रतिपादित किया है कि परक्राम्य लिखत
अधिनियम की धारा 138 के अधीन दण्डनीय
अपराध का संज्ञान परिवाद के समर्थन में प्रस्तुत
शपथपत्र पर लिया जा सकता है। इस हेतु दं.प्र.
सं. की धारा 200 के अधीन कथन अभिलिखित
करने की कोई विधिक आवश्यकता नहीं है।
यद्यपि वंशीलाल वि. अब्दुल मुन्नार, 2010
(1) MPHT 40 (एकलपीठ निर्णय दिनांक
15.09.2009)
में यह प्रतिपादित किया गया हे
कि परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 145
(1) मजिस्टंट को परिवादी के धारा-200 दं.प्र.सं.
के अधीन कथन अभिलिखित करने के दायित्व
से उन्मुक्त नहीं करती है। परंतु इस न्यायदृष्टांत
में महेन्द्र कुमार, जितेन्द्र सिंह कुशवाहा एवं
अभिलाषा अग्निहोत्री के पूर्व
उल्लिखित न्याय
दृष्टांतों में प्रतिपादित विधि को विवेचित नहीं
किया गया है। चूंकि वली मोहम्मद वि.
बतूलबाई, 2003 सी.आर.एल.जे. 2755
के
न्यायदृष्टांत में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की
पूर्णपीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि
समानपीठ के विनिश्चियों में विरोध हो तथा
पश्चातवर्ती विनिश्चय में पूर्वतन विनिश्चय में
प्रतिपादित विधि की विवेचना न की गई हो तो
पूर्वतन न्यायदृष्टांत में प्रतिपादित विधि आबद्धकर
होगी। अतएव महेन्द्र कुमार, जितेन्द्र सिंह
कुशवाहा एवं अभिलाषा अग्निहोत्री के पूर्व

उल्लिखित न्यायदृष्टांत में प्रतिपादित विधि
आबद्धकर प्रभाव रखती है।

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