Friday 6 June 2014

क्या सत्र न्यायालय के समक्ष बचाव साक्षी को बुलाए जाने का खर्चा अभियुक्त या शासन द्वारा अदा कराये जाने का न्यायालय को विवेकाधिकार हैं ?

क्या सत्र न्यायालय के समक्ष बचाव साक्षी
को बुलाए जाने पर उसका खर्चा
अभियुक्त द्वारा या शासन द्वारा अदा किए
जाने के संबंध में आदेश दिये जाने बावत्
न्यायालय को कोई विवेकाधिकार हैं ?

उक्त विधिक प्रश्न का विश्लेषणात्मक उत्तर
हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय
जबलपुर की एकल पीठ द्वारा क्रिमीनल
रिवीजन नं. 767/07 नंदलाल
देवानी एवं अन्य बनाम स्टेट आफ
महाराष्टं में दिनांक 10.03.2008
को पारित
निर्णय में मिलता हैं।
माननीय उच्च न्यायालय द्वारा इस न्याय
दृष्टांत में यह प्रकट किया गया है कि उक्त
विधिक प्रश्न के उत्तर के लिए सर्वप्रथम दण्ड
प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 233 (3)
एवं धारा 312 तथा नियम एवं आदेश
(आपराधिक) के नियम 558 का अवलोकन
आवश्यक हैं जो निम्नानुसार हैं:-
233 - प्रतिरक्षा आरम्भ करना -

  (1).................................................
  (2)..................................................  (3) यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाजिर
होने या कोई दस्तावेज या चीज पेश करने
को विवश करने के लिए कोई आदेशिका
जारी करने के लिए आवेदन करता है तो
न्यायाधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा जब
तक उसका ऐसे कारणों से, जो लेखबद्ध किए
जाएंगे, यह विचार न हो कि आवेदन इस
आधार पर नामंजूर कर दिया जाना चाहिये
कि वह तंग करने या विलम्ब करने या न्याय
के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से
किया गया हैं।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 312
परिवादियों और साक्षियों के व्यय के
संबंध में निम्न प्रावधान करती हैं:-

’’राज्य सरकार द्वारा बनाए गये किन्ही नियमों
के अधीन रहते हुए, यदि कोई दण्ड न्यायालय
ठीक समझता है तो वह ऐसे न्यायालय के
समक्ष इस संहिता के अधीन किसी जांच,
विचारण या अन्य कार्यवाही के प्रयोजन से
हाजिर होने वाले किसी परिवादी या साक्षी के
उचित व्ययों के राज्य सरकार द्वारा दिए जाने
के लिए आदेश दे सकता है।’’
नियम 558 - इसमें इसके पश्चात् अंतर्विष्ट
उपबंधों के अधीन रहते हुए, दण्ड न्यायालय:-
   (क) परिवादियों तथा साक्षियों, चाहे वे अभियोजन
साक्षी हों या प्रतिरक्षा साक्षी, के व्ययों का संदाय
निम्नलिखित मामलों में करने के लिए प्राधिकृत
हैं -
   (1) ऐसे मामले, जो राज्य सरकार के या किसी
न्यायाधीश, मजिस्टेंट या उस हैसियत में कार्य
करने वाले अन्य लोक अधिकारी के द्वारा /या
उसके आदेशों के अधीन या मंजूरी से
अभियोजित किए गए हों, संस्थित किए गए
हों या चलाए गए हों,
   (2) ऐसे मामले, जिसमें पीठासीन अधिकारी ऐसे
संदायों के संबंध में यह समझता है कि वे
लोकहित को प्रत्यक्षतः अग्रसर करने वाले स्वरूप
के हैं, और
   (3) समस्त अजमानतीय मामले
(ख) उन साक्षियों के व्ययों का संदाय करने के
लिए प्राधिकृत हैं जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1898
की धारा 540 (समानांतर प्रावधान वर्तमान दं.प्र.
सं. 1973 की धारा 311 में हैं) के अधीन
पीठासीन अधिकारी द्वारा स्वप्रेरणा से, समन किए
गए हों या पुनः बुलाए गए हो:
परंतु किसी भी साक्षी को सरकार की ओर से
कोई भी संदाय उस दशा में नहीं किया जाएगा
जबकि ऐसे साक्षियों की हाजिरी के लिए संहिता
की धारा 216, 244, 257 (समानांतर प्रावधान
वर्तमान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 243 या
254 में हैं) के अधीन न्यायालय में व्ययों का
निक्षेप कर दिया गया हैं।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 312 एवं
उक्त नियम एवं आदेश (आपराधिक) के नियम
558 के प्रावधान आपराधिक मामलों में साक्षियों
को तलब करने के दाण्डिक न्यायालयों को
विवेकाधिकार प्रदान करते हैं। मद्रास उच्च
न्यायालय द्वारा रे वेन्दांत, ए.आई.आर. 1950
मद्रास 283
में यह कहा गया है कि दण्ड
प्रक्रिया संहिता की धारा 312 में शब्द साक्षी के
अंतर्गत अभियोजन और बचाव दोनों के ही साक्षी
समाहित हैं। माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय
की खण्डपीठ ने कोडू बनाम बनमाली, 1968
जे.एल.जे. 530
में उक्त विवेकाधिकार युक्त
शक्तियों के प्रयोग के संबंध में निम्न मार्गदर्शन
दिए हैं:-
1. विवेकाधिकार का प्रयोग राज्य शासन के द्वारा
बनाए गए नियमों के अनुसार किया जाना
चाहिए।
2. विवेकाधिकार का न्यायिक रूप से इस्तेमाल
किया जाना चाहिए।
3. ऐसा आदेश प्रत्यक्षतः लोकहित को अग्रसर
करने वाला होना चाहिए।
माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस संबंध
में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत
महे आलम बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, 2005
क्रिमिनल ला जर्नल 4554
के इस मत को कि
मजिस्टेंट को साक्षियों के व्यय के संबंध में दण्ड
प्रक्रिया संहिता की धारा 243
(3) के अंतर्गत
विवेकाधिकार प्राप्त है परंतु सत्र न्यायालय को
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 233
(3) के
अंतर्गत ऐसा कोई विवेकाधिकार प्राप्त नहीं हैं,
त्रुटिपूर्ण मानते हुए एवं धारा 312 दण्ड प्रक्रिया
संहिता के प्रावधानों को अनदेखा किये जाने के
आधार पर विभेदित किया हैं।
माननीय मधयप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस संबंध
में केरल उच्च न्यायालय के न्याय दृष्टांत के वीबेबी

 बनाम फूड इन्सपेक्टर, वधककनचेरी
सर्कल, 1994 क्रिमिनल ला जर्नल 3421
को
भी मध्यप्रदेश में असंगत होना प्रकट किया है
क्योंकि केरल राज्य द्वारा धारा 312 दण्ड प्रक्रिया
संहिता के अंतर्गत वर्णित नियम नहीं बनाए गए
है जबकि मध्यप्रदेश में उक्त पूर्व वर्णित नियम
558 के प्रावधान हैं।
अंत में माननीय उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित
किया है कि सत्र न्यायालय के समक्ष विचारण के
मामले में प्रत्येक बचाव साक्षी को शासकीय व्यय
पर ही बुलाना आवश्यक नहीं हैं एवं अभियुक्त
की आर्थिक स्थिति इस संबंध में निर्धारक तत्व
नहीं होगी वह केवल पूर्व वर्णित मार्गदर्शक
सिद्धान्तों के अनुसार विवेकाधिकार के उपयोग
के लिए एक सुसंगत विचारणीय परिस्थिति हो
सकती है।
दूसरे शब्दों में माननीय उच्च न्यायालय ने यह
निर्धारित किया है कि सत्र न्यायालय को यह
विवेकाधिकार है कि यदि वह लोकहित में उचित
समझता है तो बचाव साक्षी को शासकीय व्यय
पर बुला सकता है अथवा अभियुक्त को ही
बचाव साक्षी का व्यय वहन करने का आदेश दे
सकता है।

1 comment:

  1. क्या वाचाव साक्ष्य और अभियोजन साक्षी की साक्ष्य को न्यायायल बराबर महत्व देता है

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