Wednesday 26 March 2014

प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, साक्षियक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक सिथति ?

 प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्षियक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक सिथति समझार्इये?   

        दण्ड प्रकि्रया सहिता की धारा 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इतितला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गर्इ है तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इतितला देने वाले को पढ़कर सुनार्इ जाएगी और प्रत्येक ऐसी इतितला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गर्इ हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गर्इ हो, उस व्यकित द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा।

        इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी संज्ञेय अपराध के संबंध में की गर्इ वह पहली सूचना है जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जांच प्रारंभ की जाती है।

        यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की सिथति में नहीं है तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता है। इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती है तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता है। प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया है, यह एक जानकारी मात्र है, जो अन्वेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती है।

        प्रथम सूचना प्रतिवेदन धारा 154 दण्ड प्रकि्रया संहिता के साक्ष्य में उसी तथ्य के बारे में पश्चातवर्ती अभिसाक्ष्य की संतुषिट करने के लिए साक्षी के पूर्वतम कथन के रूप में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 एवं 157 के अंतर्गत खण्डन अथवा समर्थन के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत-अजर्ुनसिंह बनाम स्टेट आफ एम.पी. 1997 (1) म.प्र. वीकली नोट 1994 व म.प्र. राज्य वि. के.के. पाण्डे 2007 (3) म.प्र. वीकली नोट 21 अवलोकनीय है।

        प्रथम सूचना रिपोर्ट के साक्षियक मूल्य को स्पष्ट किया गया। इसे सारवान साक्ष्य नहीं माना जा सकता है अपितु इसका उपयोग समर्थन अथवा खण्डन तक सीमित माना गया । (शिव सिंह बनाम स्टेट आफ एम.पी., 2009 (4) एम.पी.एच.टी. 140:2009(3) एम.पी.जे.आर. 329:2009 (3) जे.एल.जे. 118:2010 कि्र.ला रि. 95 म.प्र.)

        प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट किया गया। यह सुस्थापित सिथति मानी गर्इ कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को घटनाओं के सूक्ष्तम ब्यौरों को अंतनिर्हित करने वाले इंनसाइक्लोपीडिया होना नहीं समझा जाता है। (न्यायदृष्टांत-किरेंदर सरकार बनाम स्टेट आफ आसाम, 2009 (3) सी.सी.एस.सी. 1379 सु.को. अवलोकनीय)

        प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती है। इसे विस्तृत होना आवश्यक नहीं है अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध का गठन होना होता हो पर्याप्त माना गया। इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, कि्र.ला ज. 1486 बम्बर्इ) आनंद सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. 2010 कि्र.ला ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र 1999 (4) सु.को. के. 268. सुजाय सेन बनाम स्टेट आफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को.)

        घटना के बावत धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया है इस संबंध में न्यायदृष्टांत-पतार्इ उर्फ कृष्णकुमार बनाम स्टेट आफ यू.पी. 2010 कि्र.ला ज. 2815    सु.को. अवलोकनीय।
        यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखार्इ गर्इ है तो उसमें की गर्इ संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा-25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्राहय नहीं होगी लेकिन धारा-8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी।
        प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता है। यह मामले के तथ्य और परिसिथतियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए। इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिसिथतियां बतार्इ हैं जो निम्नलिखित हैं -
1- भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह     घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें।
2- मानवीय स्वभाव होता है कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होनें घटना देखी है उनसे शीघ्रता से रिपोर्ट किए जाने की आशा नहीं की जा सकती।
3- इसके अलावा ग्रामीण व्यकित बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता है।
4- इस तरह की सिथति शहरी व्यकितयों के साथ भी हो सकती है जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
5- सूचना देने वाले व्यकित को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव।
6- मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मसितष्क की प्रशांति को पुन: हासिल करने में समय लग सकता है।
7- जो व्यकित ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगड़ी होने की सिथति में हो सकती है कि पुलिस को दुर्घटना के बावत कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पहुंचना पड़ा हो।
        इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुन: चिकित्सीय सहायता पहुंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिसिथतियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए। उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए। (कृपया देखें-अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह, 2003 (2) सु.को.के. 518:2003 ए.आर्इ.आर. डब्ल्यू. 717, साहिब राव बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र 2006 कि्र.ला ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोर्इ अंकगणितीय फामर्ूला नहीं है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके।

        प्रथम सूचना रिपोर्ट तत्काल रात में ही दर्ज नहीं करार्इ गर्इ थी प्रश्नगत क्षेत्र आतंकवादी क्षेत्र था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलंब होने संबंधी आपतित अमान्य की गर्इ। (न्यायदृष्टांत-स्टेट आफ पंजाब बनाम कर्नेलसिंह, 2003 कि्र.ला ज. 3892:2003 कि्र.ला रि. 797:2003 (3) क्राइम्स 292:2003(3) करेंट कि्रमिनल रिपोर्टस 261:2003 (3) राजस्थान कि्रमिनल कैसेज 809:2003 (7) जे.टी. 543:2003 (5) सुप्रीम 508:2003(6) स्केल 434 सु.को. अवलोकनीय)

        न्यायदृष्टांत तारासिंह वि. पंजाब राज्य 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी. 536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलंब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविश्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलंब को स्पष्ट करने वाली परिसिथतियों पर विचार करना आवश्यक है उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां किसी बच्ची के सम्मान और ख्याति का मुददा अंतर्वलित हो वहां परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से परामर्श लिए बिना पुलिस में रिपोर्ट न लिखाना कतर्इ अस्वाभाविक नहीं है।

        बलात्संग के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायदृष्टांत हरपालसिंह वि. हिमाचल प्रदेश राज्य 1981 सु.को. 361 में किया गया यह प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि बलात्कार के मामलों में पीडि़ता महिला तथा उसके परिवार का सम्मान दांव पर लगा रहता है अत: ऐसे मामलों में विचार-विमर्श कर किंचित देरी से पुलिस में रिपोर्ट करना असामान्य नहीं है। उक्त मामले में प्रथम सूचना रिपेार्ट लेख कराने में हुए 10 दिन के विलंब को भी घातक नहीं माना गया है।
       
        प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब हुआ था। परंतु इसका युकितयुक्त स्पष्टीकरण परिवादीअभियोक्त्री व उसके पिता के द्वारा दिया गया था। ऐसी सिथति में विलंब अभियोजन के लिए घातक नहीं माना गया। (न्यायदृष्टांत-भारत बनाम स्टेट आफ एम.पी., 2010 कि्र.ला रि. 182:2010(2) म.प्र.वी.नो. 3:2010(3) मनिसा 34 म.प्र. अवलोकनीय)

        यौन अपराध में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अन्य अपराधों की रिपोर्ट को लिखाने में विलंब की तरह नहीं समझा जाना चाहिए। (न्यायदृष्टांत-2010 (1) एम.पी.एच.टी. 465 सु.को. अवलोकनीय)।

        उपरोक्तानुसार दण्ड प्रकि्रया संहिता की धारा 154 के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट का उपयोग एवं महत्व भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 145 एवं 157 के अंतर्गत खण्डन एवं सम्पुषिट कारक है।
       

No comments:

Post a Comment