Sunday 30 March 2014

पारिवारिक व्यवस्था-पंजीकरण के संबंध में-मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता धारा 178 खाते का विभाजन

मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता धारा 178 खाते का विभाजन-पारिवारिक व्यवस्था-पंजीकरण के संबंध में

1-सहमति से बटवारा

    आवेदक एवं अनावेदक द्वारा पूर्व के {बटवारा एवं कब्जा के आधार पर सम्मिलित रूप से आवेदन पर हस्ताक्षर करके ग्राम पंचायत के सरपंच को सम्बोधित कर पेश किया गया। इश्तहार जारी कर ग्राम पंचायत ने बटवारा का प्रस्ताव पारित किया। बटवारा को विवादास्पद मानकर चुनौती नही दी जा सकती। {(देखें कल्याणसिंह वि. दीवानसिंह, 2005 रा.नि. 219 (श्री डी. सिंघई, सदस्य म.प्र. राजस्व मंडल)}

2- प्रारंभिक डिक्री के अनुसार बंटवारा

    संक्षेप में प्रकरण इस प्रकार हैं कि आवेदक एवं अनावेदकगण अविभाजित संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य थे, इस परिवार की चल एवं अचल संपत्ति हैं। व्यवहार वाद क्रमांक 3अ/1940 में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, सागर द्वारा संपत्ति के बंटवारे में प्रिलिमिनरी डिक्री दिनांक 29-10-1947 को पारित की गई। इस प्रिलिमिनरी डिक्री के अनुसार बंटवारा करने के लिए आदेश 20 नियम 10 के अनुसार आदेश हुआ था तथा प्रिलिमिनरी डिक्री के अनुसार हिस्सों के बंटवारे के लिए कलेक्टर, सागर को प्रकरण भेजा गया था। कलेक्टर सागर ने इन हिस्सों को डिक्री के अनुसार बंटवारें हेतु अतिरिक्त तहसीलदार को भेंजा। अतिरिक्त तहसीलदार बीना द्वारा कुछ भूमि का बंटवारा किया गया और इस संबंध में कलेक्टर सागर को प्रतिवेदन भेजा। बीच में फायनल डिक्री पारित करने के लिए आवेदन पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया गया जो कि दिनांक 25-6-1975 को खरिज किया गया। व्यवहार न्यायालय के आदेश दिनांक 25-6-1975 के विरूद्ध अपील न्यायालय में प्रस्तुत की गई जोकि दिनांक 11-10-1955 को माननीय उच्च न्यायालय द्वारा खारिज की गई तथ अतिरिक्त जिलाधीश सागर द्वारा पारित की गई प्रिलिमिनरी डिक्री दिनांक 29-10-1947 की पुष्टि की। आवेदक द्वारा दिनांक 12-11-1984 को एक आवेदन-पत्र कलेक्टर सागर के समक्ष प्रस्तुत किया गया। दिनांक 6-8-1985 को अतिरिक्त कलेक्टर सागर ने यह आदेश दिया कि सिविल न्यायालय में प्रकरण निर्णीत हो चुका हैं तथा उसी न्यायालय में जब किसी भी प्रकार की कार्यवाही नही हो सकती, अतः प्रकरण में कार्यवाही समाप्त की जाए और संबंधित न्यायालय को प्रकरण वापिस किया जाए डिक्री अनुसार कार्यवाही पूर्ण करें। उक्तादेश में असंतुश्ट होकर द्वितीय अपील प्रस्तुत की गई। प्रकरण क्रमांक 23अ/27/85-86 में दिनांक 15-1-1986 को आदेश पारित किया जाकर आयुक्त द्वारा आवेदक की द्वितीय अपील निरस्त की गई। इस प्रकार यह निगरानी आवेदन प्रस्तुत किया। राजस्व मण्डल ने निर्णय दिया कि अति. जिला न्यायाधीश के द्वारा पारित प्रिलिमिनरी डिक्री पारित करना हैं। व्यवहार न्यायालय के द्वारा आज अंतिम डिक्री हेतु पेश आवेदन खारिज किया गया तो कोई अंतर नही पडता। निगरानी आवेदन खारिज किया जाता हैं प्रिलिमिनरी डिक्री के अनुसार बंटवारा करने तहसीलदार को प्रत्यावर्तित। {(मोहनलाल वि. धन्नालाल तथा अन्य 1988 रा.नि. 23 (श्री राबर्ट हरंगडोला सदस्य म.प्र. राजस्व मण्डल)}

3-मध्यवर्ती लाभ

    संयुक्त खातेदार वाद पेश करने के दिनांक से बंटवारा कब्जा पाने के दिनांक तक अपने हिस्से की जमीन का मध्यवर्ती लाभ पाने का अधिकारी हैं। {(राधाबाई कुर्मी वि. श्रीमती रामथिर बाई एवं अन्य 1987 रा.नि. 224 (न्या.श्री गुलाब सी. गुप्ता म.प्र. हा.को.)}

4- उत्पादकता की आपत्ति

    प्रकरण का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं कि ग्राम चांदपुर तहसील अम्बाह की विवादित भूमि खाता क्रमांक 67/2038 रकबा 14 बीघा, 19 विस्वा के बंटवारे हेतु प्रतिप्रार्थीगण गोविन्द आदि ने संहिता की धारा 178 के अंतर्गत आवेदन पत्र तहसील न्यायालय में प्रस्तुत किया। इस आवेदन पत्र में उन्होंने समान भाग में बंटवारा करने की प्रार्थना की। तहसील न्यायालय में प्रार्थीगण लज्जाराम आदि ने इस आशा की आपत्ति अपने पत्र दिनांक 8-3-1982 द्वारा प्रस्तुत की कि प्रस्तावित फर्द बंटवारा अपूर्ण हैं क्योंकि भूमि की उत्पादकता कृषि सुविधा की दृश्टिगत नही किया गया हैं। उन्होंने आपत्ति पत्र में यह भी अंकित किया गया कि विवादित भूमि पर गोविन्द आदि का कोई कब्जा मौके पर नही हैं, इस कारण उन्हें बंटवारा कराने का कोई स्वत्व प्राप्त नही हैं। तहसीलदार ने उक्त आपत्ति पर अपने आदेश दिनांक 12-4-1982 द्वारा यह आदेश पारित किया गया कि लज्जाराम आदि को प्रस्तावित बंटवारे में आपत्ति हैं तो वे स्वयं बतावें कि प्रत्येक नम्बर में वे किस तरफ की भूमि पंसद करेंगे। स्वयं की सूचित पेश करे अन्यथा प्रत्येक सर्वे नम्बर का उपखण्ड किये जाकर किसी भी दिशा की भूमि उन्हें दी जावेगी।
    तहसील न्यायालय के उक्तादेश से असंतुष्ट होकर प्रार्थीगण लज्जाराम आदि ने निगरानी अतिरिक्त कलेक्टर के समक्ष संहिता की धारा 50 के अंतर्गत प्रस्तुत की। अतिरिक्त कलेक्टर ने अपने आदेश दिनांक 31-7-1982 द्वारा निगरानी मान्य की गई और प्रकरण तहसील न्यायालय को प्रत्यवर्तित किया गया।
        अति. कलेक्टर के उक्तादेश से असंतुष्ट होकर प्रतिप्रार्थीगण श्री गोविन्द आदि ने निगरानी अपर आयुक्त के समक्ष प्रस्तुत की। अपर आयुक्त ने अपने आदेश दिनांक 29-3-1985 द्वारा यह आदेश दिये कि लज्जाराम आदि की स्वत्व संबंधी आपत्ति निरर्थक हैं तथा यदि वे तहसील द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावित बंटवारे से असंतुष्ट नही थे तो उन्हें अपने विवेकानुसार स्वतः की फर्द प्रस्तुत करना चाहिए थी जो उनके द्वारा नही की गई। अतः अपर आयुक्त द्वारा निगरानी का आवेदन-पत्र स्वीकार कर अति. कलेक्टर का आदेश निरस्त कर तहसील का आदेश दिनांक 2-4-1982 पुर्नस्थापित किया गया। इस आदेश से असंतुष्ट होकर अब प्रार्थीगण लज्जाराम आदि ने यह निगरानी का आवेदन पत्र राजस्व मण्डल में प्रस्तुत किया हैं। राजस्व मण्डल ने निर्णय दिया कि नियम 6 के अनुसार बंटवारा पूरा होने के बाद आपत्ति आने पर तहसीलदार निराकरण करेगा परंतु लज्जाराम ने आपत्ति किया कि जमीन की उत्पादकता को ध्यान बंटवारा किया जाना चाहिए परंतु तहसीलदार ने प्रत्येक उपखण्ड का बंटवारा करने का आदेश दिया जो विधि के अनुकूल नही है, इसलिए अपर आयुक्त ने तहसीलदार का आदेश पुनस्र्थापित कर त्रुटि किया हैं। निगरानी स्वीकार आयुक्त एवं तहसीलदार का आदेश निरस्त। {लज्जाराम तथा अन्य वि. गोविन्द तथा अन्य 1987 रा.नि.95}

5- बंटवारा याददास्त

    ग्राम मवई में रामसेवक एवं ईश्वरी प्रसाद की कतिपय भूमि शामलाती दर्ज थी। रामसेवक के अनुसार उसमें तथा ईश्वरी प्रसाद में भूमि का बंटवारा हो गया था जिसके लिये फर्दे भी तैयार की गई थी जो कि प्रदर्श डी-1 तथा प्रदर्श डी-2 हैं। इस बंटवारे के अनुसार दोनो अपनी-अपनी भूमियों पर काबिज थे। ईश्वरीप्रसाद की मृत्यु के पश्चात् उसके वारिसान ने पूरी भूमि पर ईश्वरीप्रसाद के स्थान पर उनका नाम दर्ज करने का आवेदन किया जिस पर रामसेवक ने अपनी आपत्ति की। राजस्व मण्डल द्वारा दिनांक 25-4-1975 के आदेश द्वारा यह प्रकरण तहसील न्यायालय को प्रत्यावर्तित हुआ था क्योंकि सभी भागीदारों के नाम की भूमि रामसेवक और ईश्वरीप्रसाद के बंटवारे के बाद क्या हुई। राजस्व मण्डल ने यह भी निर्देश दिया कि यह देखा जाएगा कि दिनांक 23-6-1965 की जो फर्दे थी वह बंटवारे का इकरारनामा था या बंटवारा था। क्या यह बंटवारा नामें पर कोई अमल हुआ था। तत्पश्चात् सभी पक्षों को सुनने के पश्चात् नायब तहसीलदार द्वारा रामसेवक का नाम उसके द्वारा चाही गई भूमि पर करने के आदेश हुए। इसके विरूद्ध अनुविभागीय अधिकारी के समक्ष अपील की गई जिसमें कि यह करार दिया कि चूंकि इकरारनामा रजिस्ट््रीकृत नही हैं अतएव इससे कोई हम रामसेवक को प्राप्त नही होते हैं। उन्होंने प्रकरण रिमाण्ड किया तथा नायब तहसीलदार को यह निर्देश दिये कि अपीलार्थी रामसेवक की आपत्ति चंूकि अमान्य की जा चुकी हैं अतएव विवादित भूमि का नामांतरण मृतक खातेदार मृतक खातेदार ईश्वरीप्रसाद के वैध वारिस को किया जाये। अतिरिक्त आयुक्त के समक्ष निगरानी में यह फैसला यथावत रखा गया। जिसके विरूद्ध यह निगरानी प्रस्तुत की गई। निर्णय दिया गया कि पूर्व से बंटवारा होने का याददास्त सूचियां बनाई जाती हैं तो ऐसे फर्दे याददास्त का पंजीकरण आवश्यक नही हैं बंटवारा किया जा सकता हैं। नायब तहसीलदार का आदेश बहाल किया गया अनुविभागीय अधिकारी एवं आयुक्त के आदेश निरस्त।   {रामसेवक वि. नरेन्द्र कुमार तथा अन्य 1984 रा.नि. 237 (श्री केवलकृष्ण सेठी सदस्य म.प्र. राजस्व मण्डल)}

6- बंटवारा डिक्री अवधि

    प्रत्यर्थी 1 से 4 ने बंटवारा के लिए सिविल वाद पेश किया था जिसमें दिनांक 6-5-1983 को बंटवारा की प्रारंभिक डिक्री पारित की गई परंतु बंटवारा की कार्यवाही नही हुई। वादी ने 15-9-1999 को आदेश 20 नियम 18 सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत आवेदन पेश कर कलेक्टर को बंटवारा के लिए निर्देशित करने प्रार्थना किया आवेदक ने आर्टिकल 137 कालसीमा अधिनियम के अंतर्गत अवधि वर्जित होने की आपत्ति किया । धारा 54 सहपठित आदेश 20 नियम 18 के अंतर्गत आवेदन पेश करने के लिए कोई अवधि निर्धारित नही है, अतः अवधि वर्जित नही है। {शिवचरण वि. भंवरी बाई तथा अन्य 2002 रा.नि. 341 (न्या.श्री एस.वी.सकरी कर म.प्र.हा.को.)}

7- मौखिक बंटवारा

    पैतीस साल पूर्व कौटुम्बिक व्यवस्था के रूप में मौखिक बंटवारा का कथन करते हुए वादी ने वादग्रस्त जमीन के स्वामित्व की घोषणा के लिए वाद पेश किया तथा 35 वर्ष से खुला कब्जा सबूत किया। स्वामित्व की डिक्री वादी के पक्ष में पारित की गई। {भुवन तथा अन्य वि. नागू 1996 रा.नि. 33 (न्या.श्री आर.डी.शुक्ला म.प्र. हा.को.)}

8- सिविल प्रक्रिया संहिता धारा 54 तथा आदेश 20 नियम 18 कलेक्टर द्वारा बंटवारा

    सिविल न्यायालय के द्वारा बंटवारा के वाद में केवल प्रारंभिक डिक्री पारित करने का प्रावधान है और प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद वह कलेक्टर को प्रारंभिक डिक्री के अनुसार बंटवारा करने का निर्देश देगा और कलेक्टर को ही बंटवारा करने का अधिकार हैं। सिविल न्यायालय के द्वारा अंतिम डिक्री पारित करने और कब्जा दिलाने का प्रावधान नही हैं। {करनसिंह तथा अन्य वि. जगदीशप्रसाद तथा अन्य 1987 रा.नि. 412, शंकरलाल वि. भंवरलाल एवं अन्य 1988 रा.नि. 356, रामनारायण वि. दत्त 1988 रा.नि.347(हा.को.)}

9- वाद में अंतिम डिक्री पारित न होने पर

    बंटवारा के वाद में सिविल न्यायालय के द्वारा बंटवारा की प्रारंभिक डिक्री पारित कर दी गई परंतु अंतिम डिक्री के लिये पेश आवेदन खारिज कर दिया गया। प्रारंभिक डिक्री के अनुसार तहसीलदार के द्वारा बंटवारा किया जा सकता हैं। {मोहनलाल वि. धन्नाला तथा अन्य 1988 रा.नि.23}

10- प्रारंभिक डिक्री

    बंटवारा के लिए सिविल वाद पेश किये जाने पर सिवल न्यायालय के द्वारा पक्षकारों का हिस्सा घोशित करते हुए प्रारंभिक डिक्री पारित की जाती हैं उसके बाद धारा 54 आदेश 20 नियम 18 के प्रावधानों के अनुसार सिविल न्यायालय का कार्य समाप्त हो जाता हैं तथा कलेक्टर या उसके अधीनस्थ के द्वारा निर्णय के निश्पादन में संपूर्ण बंटवारा की कार्यवाही एवं कब्जा दिलाने की कार्यवाही की जाती हैं। {काशीराम वि. दयाराम 1983 रा.नि.60 इस्माइल खान वि. रफीक खांन 1982 रा.नि. 505 (हा.को.)}

11- संपूर्ण खातों का बंटवारा होना चाहिए

    सहस्वामियों के संयुक्त खाते में जितनी जमीन हैं सभी बंटवारा जमीन के उपजाउपन और किस्म के अनुसार किया जाना चाहिए किसी एक खसरा नंबर का बंटवारा नही किया जाना चाहिए। {बिहारीलाल वि. जगन्नाथ 1992 रा.नि. 81 (न्या.श्रीडी.एम.धर्माधिकारी म.प्र.हा.को.)}
 

12- बंटवारा सूची

    यदि बंटवारा की सूची का ज्ञापन पेश किया जाता हैं तो पंजीकरण की जरूरत नही हैं सूची के अनुसार नामातंरण किया गया।  {रामसेवक वि. नरेन्द्र कुमार 1984 रा.नि.237}



13- जहां तक टुकडे नही करें

    जमीन के उपजाउपन के आधार पर उसके मूल्यांकन के आधर पर बंटवारा किया जायें। जहां तक संभव हो एक खसरा नबंर का टुकडा नही किया जाये।  {गमला वि. बेरसिंह 1980 रा.नि.291}

14- अनेक खसरा नम्बर में से एक का बंटवारा

    संयुक्त स्वामित्व में पांच खसरा नम्बर रकबा 25.70 एकड हैं, परन्तु याची ने केवल एक खसरा नम्बर के बंटवारा के लिए आवेदन पेश किया था राजस्व मण्डल ने सभी संयुक्त जमीन को बंटवारा करने का आदेश पुरनरीक्षण में पारित किया जिसे याची ने उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका पेश कर चुनौती दिया। याचिका खारिज कर निर्णय दिया गया कि संयुक्त खाते में से एक खसरा नम्बर का बंटवारा नही किया सकता। {इकबाल तथा अन्य वि. म.प्र. राजस्व मण्डल 2000 रा.नि. 432(न्या.श्री एन.के. जैन म.प्र. हा.को.)}

15- मुख्त्यार आम

    भूमिस्वामी के मुख्तयार आम के द्वारा आवेदन पेश किया गया अभिलेख में मुख्तयार आम संलग्न नही रहने पर आपत्ति नही की गई तो अपील स्तर पर आपत्ति नही की जा सकती। {मनबोध वि. मलाबाई 1995 रा.नि.70 (श्री मुनीश गोयल सदस्य राजस्व मण्डल)}

16- सहस्वामी द्वारा बिक्री 

    पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार सहस्वामी कब्जे में था जिसने अपने हिस्से की जमीन बिक्री कर दिया खरीददार द्वारा बंटवारा का वाद पेश करना चाहिए। {बलराम वि.मानसाय तथा अन्य 1990 रा.नि.15(न्या.श्री गुलाब सी. गुप्ता म.प्र. हा.को.)}

17- संविदा के विशिष्ट पालन की डिक्री

    एक सहस्वामी द्वारा बिक्री के करार के आधार पर संविदा के विशिष्ट पालन की डिक्री प्राप्त होने पर डिक्रीधारी कब्जा का दावा नही कर सकता बंटवारा का वाद लाना चाहिए। {मोहन उर्फ झगडू तथा एक अन्य वि. जगन्नाथ प्रसाद तथा अन्य 1990 रा.नि. 275 (न्या.श्री गुलाब सी. गुप्ता)}

18- असमान आपसी बंटवारा

    दोनो भाईयों के बीच हुये बंटवारा में एक भाई को डेढ बीघा जमीन अधिक मिली थी परंतु दूसरे पक्ष ने बाद में सिविल वााद बंटवारा के लिए पेश किया और कथन किया कि उनके बीच बंटवारा नही हुआ हैं बराबर-बराबर बंटवारा कर दिया जायें। बंटवारा में यह सिद्ध पाया गया कि जमीन की किस्म के अनुसार एक भाई को डेढ बीघा जमीन बंटवारा में अधिक मिली थी बंटवारा हो चुका हैं अतः दुबारा बंटवारा नही किया जा सकता। {दयाराम वि. हरचन्द 1989 रा.नि.14}


19- अंतिम बंटवारा आदेश

    सिविल न्यायालय हिस्सा संबंधी प्रारंभिक डिक्री पारित करेगा और अंतिम बंटवारा का आदेश राजस्व न्यायालय पारित करेगा। {देखें काशीराम वि.दयाराम, 1983 रा.नि. 60, इस्माइल खां वि. रफीक खां, 1982 रा.नि. 505 (हाईकोर्ट)}

20- स्वत्व के प्रश्न पर सिविल वाद

    यदि बंटवारा के प्रकरण में स्वत्व का प्रश्न उपस्थित हो तो तीन माह के लिए प्रकरण स्थगित करना चाहिए एवं पक्षकार यदि सिविल न्यायालय में स्थगन आदेश न लाएं तो पुनः बटवारा कार्यवाही प्रारंभ होगी। किसी पक्षकार को सिविल वाद करने के लिए आदेश नही दिया जाएगा। {देखें कपूरचंद वि. सिकलबती, 1983 रा.नि.276}, यदि मामला स्थगित करने के बाद वाद पेश किया गया परंतु सिविल न्यायालय से स्थगन नही लाया गया तो तीन माह बाद तहसीलदार बंटवारा कार्यवाही प्रारंभ करेगा। {देखें घसनिन वि. सुकवारों एवं अन्य, 1983, रा.नि.393, कपिल वि. प्रहलाद, 1982 रा.नि. 664, माना बाई वि.धुकेलराम, 1979 रा.नि. 452} मामले के दौरान किसी भी स्तर पर स्वत्व का प्रश्न उठाने पर बंटवारा की कार्यवाही स्थगित होगी। {देखें चम्पालाल वि.मोहनलाल, 1979 रा.नि.573, मंजूर अली खां वि.सखर अलिी, 1977 रा.नि.338} स्वतत्व के प्रश्न के औचित्य पर राजस्व न्यायालय निर्णय नही देगा। {देखें पेतराम वि. राजस्व मंडल, 1968 एम.पी.एल.जे. 346 (हाईकोर्ट) }


21- बटवारा में पंजीकरण आवश्यक नही

    हिन्दू संयक्त परिवार के सदस्य संयुक्त संपत्ति का मौखिक बंटवारा कर सकते हैं और बंटवारा के बाद बंटवारा के ज्ञापन संबंधी अपंजीबद्ध दस्तावैज साक्ष्य में ग्राह्य हैं। {देंखे देवचन्द एवं अन्य वि. शिवराज एवं अन्य, 1970 एम.पी.एल.जे. 371 (हाईकोर्ट)}

22- सुनवाई का अवसर

    पक्षकार सूचना पाकर अनुपस्थित रहा तो यह नही कह सकते कि सुनवाई का अवसर नही मिला। {देखें पंजाबराव वि. श्रीमती लीलाबाई, 1982 रा.नि.371}

23- स्वत्व प्रश्न नही होगा

    यदि बंटवारा संबंधी मामले में कोई पक्षकार यह प्रार्थना करें कि पक्षकारों के बीच पहले से आपसी बंटवारा हो चुका हैं इसी के अनुसार बंटवारा किया जाए तो ऐसी प्रार्थना स्वत्व का प्रश्न नही मानी जाएगी। बंटवारा कार्यवाही स्थगित नही होगी। {देखें पन्नालाल वि. महाराजसिंह, 1981 रा.नि.22}




24-समान बंटवारा

    जमीन की किस्म देखकर बंटवारा होगा, सभी खसरा नम्बर के टुकडा नही करना चाहिए उपजाउ जमीन का मूल्यांकन करके बराबर बटवारा करना चाहिए।  {देखें गमला वि. बेरसिंह, 1980 रा.नि. 291}

25- सिविल डिक्री

    सिविल न्यायालय के द्वारा स्वत्व का निर्णय किया गया तो जमाबन्दी या स्वत्व अभिलेख पेश करना आवश्यक नही। {देखें अजुद्धी वि. गारेलाल, 1976 रा.नि.125}

27- स्वत्व का प्रश्न क्या है

    जब बटवारा के मामले में कोई पक्षकार स्वत्व का प्रश्न उठा देता हैं तो सिविल वाद के लिए अवसर देकर तीन माह तक सिविल निर्णय की प्रतीक्षा की जाएगी बशर्ते कि सिविल न्यायालय से स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया गया हो। स्वत्व का प्रश्न क्या हैं यह निम्न न्याय दृष्टांतों से स्पष्ट होगा-
   
    1.    बंटवारा लेने का दावा- यदि प्रकरण में किसी पक्षकार को बंटवारा में जमीन प्राप्त करने का अधिकार ही विवादित हो तो इसे स्वत्व का प्रश्न कहा जाएगा। {देखें सीताराम वि. कुसुमबाई, 1976 रा.नि. 31}

    2.    यथास्थिति में परितर्वन- यदि पक्षकार के अंतर्गत की जमीन में     अलग-अलग काबिज हों तथा पूर्व बंटवारा तथा कब्जा भी विवादित     हो यथास्थिति में परिवर्तन की मांग हो तो स्वत्व का प्रश्न हैं। {देखें     सीताराम वि. कुसुमबाई, 1976 रा.नि.31, रघुनाथ वि. दिलीप, 1970रा.    नि. 596, साथ ही देखें पन्नालाल वि. महराजसिंह, 1981 रा.नि.22}

28- बंटवारा डिक्री निष्पादन

    अवयस्क भगवानसिंह श्रीमती गुलाबरानी, श्रीमती दुलारी ने बंटवारा के लिए वाद पेश किया जिसमें प्रारंभिक डिक्री पारित की गई। सिविल न्यायालय ने धारा 54 आदेश 20 यिम 18 के अंतर्गत राजस्व न्यायालय को भेजा तो कलेक्टर ने बंटवारा करके सिविल न्यायायल को भेजा तो सिविल न्यायायल ने बंटवार की अंतिम डिक्री दिनांक 25-1-1960 को पारित किया। ख.न. 520/1 शिवप्रसाद अैर काशीप्रसाद को आवंटित किया गया था। अंतिम डिक्री पारित होने के बाद वादी मृत शिवप्रसाद के विधिक प्रतिनिधि ने डिक्री निश्पादन का आदेश पेश किया तो न्यायालय ने इस आधार पर निष्पादन आवेदन खारिज किया कि उसे कब्जा दिलाने का अधिकार नही हैं अपीली न्यायालय ने अपील स्वीकार कर कब्जा वारंट जारी करने का निर्देश दिया। तब उच्च न्यायायल के समक्ष अपील हुई तो खण्डपीठ ने निर्णय दिया, अंतिम डिक्री को भगवान सिंह वगैरह ने चुनौती नही दिया परंतु यह आपत्ति वे पेश कर सकते हैं कि कलेक्टर को धारा 54 आदेश 20 नियम 18 के अंतर्गत निर्देशित करने के बाद सिविल न्यायालय अंतिम डिक्री पारित करने के लिए सक्षम नही था। (1973 जे.एल.जे. 1008 में रिपोर्र्टेट हैं) कलेक्टर ने अपने आदेश दिनांक 12-3-1990 के द्वारा आवेदन खारिज कर निर्णय दिया कि पक्षकार धारा 178 भू-राजस्व संहिता के अंतर्गत आवेदन दे सकते हैं। तब याचियों ने उस आदेश के विरूद्ध उच्च न्यायालय के समक्ष रिट याचिका पेश किया। निर्णय दिया गया कि सिविल न्यायायल को पक्षकारों को हिस्सा घोषित करना हैं और कलेक्टर को घोषित हिस्से के अनुसार बंटवारा के लिए निर्देशित करना हैं। पक्षकार भी डिक्री के अनुसार कलेक्टर को बंटवारा के लिए आवेदन दे सकता हैं कलेक्टर ने आवेदन खरिज कर धारा 178 के अंतर्गत आवेदन पेश करने का निर्देश देकर गलत आदेश पारित किया हैं। कलेक्टर ने आवेदन खारिज कर धारा 178 के अंतर्गत आवेदन पेश करने का कनर्देश देकर गलत आदेश पारित किया हैं कलेक्टर को विधि के अनुसार एवं डिक्री के अनुसार बंटवारा कराना था, आवेदन खारिज नही करना था अतः कलेक्टर का आदेश निरस्त किया जाता हैं। कलेक्टर सिविल न्यायालय द्वारा निर्णय के अनुसार कार्यवाही करें। {नरेन्द्र प्रसाद तथा अन्य वि. श्रीमती सुखरानी तथा अन्य 2000 रा.नि.178 (न्या.श्री आर.एस. गर्ग म.प्र. हा.को.) }


29-{धारा 178-क. भूमिस्वामी के जीवनकाल में भूमि का विभाजन}

    (1)     जब कभी कोई भूमिस्वामी अपनी कृषि भूमि को अपने जीवनकाल के दौरान अपने विधिक वारिसों में विभाजित करना चाहता हैं, तो वह विभाजन के लिए तहसीलदार को आवेदन कर सकेगा।
    (2)    तहसीलदार विधिक वारिसों की सुनवाई करने के पश्चात् खाते को विभाजित कर सकेगा और उस खाते के निर्धारण को इस संहिता के अधीन बनाए गए नियमों के अनुसार प्रभाजित कर सकेगा





राजस्व न्यायालय आदेश 20 नियम 18 सह धारा 54 सीपीसी के अन्तर्गत यह न्यायालय सिविल न्यायालय द्वारा आबंटित अंशानुसार खाते का विभाजन करने के लिए आबद्ध है

1        स्वर्गीय रामसिंह ने अपने जीवन में ही अपने उत्तराधिकारियों के मध्य स्यवं की भूमियों का दिनंाक 26.01.1994 को मौखिक रूप से पारिवारिक व्यावस्था के अन्तर्गत सभी सदस्यों के सामने बटवारा कर दिया था एवं सभी को अपने-अपने हिस्से का वास्तविक, आधिपत्य उसी समय दे दिया था, उसी व्यावस्था के अनुसार सभी सदस्यगण अपने-अपने हिस्से की भूमि के स्वत्व व आधिपत्य में चले आ रहे हैं । इस दिनंाक 26.01.1994 के मौखिक बटवारे का स्वर्गीय रामसिंह जी की मृत्यु उपरान्त उनके उत्तराधिकारियों ने लिखित ज्ञापन दिनंाक 11.06.06 को तैयार किया गया था । उस मौखिक व्यावस्था दिनंाक 26.01.1994 के लिखित ज्ञापन 11.06.06 के अनुसार सिविल न्यायालय द्वारा 30-11-08 को निर्णय दिया गया। 

2        सिविल न्यायालय द्वारा इस निर्णय के आधार पर मामला कलेक्टर भोपाल को  निर्दिष्ट किया गया (यहंा सिविल न्यायालय अन्य एक्सपर्ट व्यक्ति को भी कमिश्नर नियुक्त कर सकता है)। जो तहसीलदार तहसील हुजूर के यंहा भेजा गया, जो लंबित है। आदेश 20 नियम 18 सह धारा 54 सीपीसी के अन्तर्गत यह न्यायालय सिविल न्यायालय द्वारा आबंटित अंशानुसार खाते का विभाजन करने के लिए आबद्ध है । म.प्र. भू-राजस्व संहिता की धारा 178 के अधीन विभाजन के लिए राजस्व अधिकारी आवेदन करने का निर्देश भी नहीं दे सकता, जैसा कि न्याय दृष्टांत 2000 रा.नि. 178 नरेन्द्र प्रसाद व अन्य बनाम श्रीमती सुखरानी तथा अन्य के मामले में म.प्र. उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आर.एस.गर्ग द्वारा प्रतिवादित किया गया है ।

3    यह सिविल न्यायालय की डिक्री अंतिम आदेश नहीं है, इस राजस्व न्यायालय के आदेश उपरांत अंतिम डिक्री पारित होगी इस लिए भी डिक्री का पंजीकरण आवश्यक नहीं है।

4    हिन्दू संयक्त परिवार के सदस्य संयुक्त संपत्ति का मौखिक बंटवारा कर सकते हैं और बंटवारा के बाद बंटवारा के ज्ञापन संबंधी अपंजीबद्ध दस्तावैज साक्ष्य में ग्राह्य हैं। {देंखे देवचन्द एवं अन्य वि. शिवराज एवं अन्य, 1970 एम.पी.एल.जे. 371 (हाईकोर्ट)}

5    यह देखा जाएगा कि दिनांक 23-6-1965 की जो फर्दे थी वह बंटवारे का इकरारनामा था या बंटवारा था। क्या यह बंटवारा नामें पर कोई अमल हुआ था। तत्पश्चात् सभी पक्षों को सुनने के पश्चात् नायब तहसीलदार द्वारा रामसेवक का नाम उसके द्वारा चाही गई भूमि पर दर्ज करने के आदेश दिए। इसके विरूद्ध अनुविभागीय अधिकारी के समक्ष अपील की गई जिसमें कि यह करार दिया कि चूंकि इकरारनामा रजिस्ट््रीकृत नही हैं अतएव इससे कोई हक रामसेवक को प्राप्त नही होते हैं। जिसके विरूद्ध यह निगरानी प्रस्तुत की गई। निर्णय दिया गया कि पूर्व से बंटवारा होने की याददास्त सूचियां बनाई जाती हैं तो ऐसे फर्दे याददास्त का पंजीकरण आवश्यक नही हैं बंटवारा किया जा सकता हैं। नायब तहसीलदार का आदेश बहाल किया गया अनुविभागीय अधिकारी एवं आयुक्त के आदेश निरस्त। {रामसेवक वि. नरेन्द्र कुमार तथा अन्य 1984 रा.नि. 237 (श्री केवलकृश्ण सेठी सदस्य म.प्र. राजस्व मण्डल)}

 6        ज्ञापन के आधार पर सिविल न्यायालय निर्णय का दस्तावेज पूर्व से ही किये गये निबंधन के प्रति निर्देश है, अतः इस पर कोई स्टाम्प शुल्क अपेक्षित नहीं है। (राव मोहिन्द्र सिंह बनाम एस.आर इन्दौर ए.आई.आर 1983 एम.पी.144)

7            जो डिक्री विभिन्न पक्षकारों को विशिष्ट संपत्ति आबंटित करती है तथा अन्य पक्षकारों को निर्देशित करती है कि वे कब्जा परिदत करें तथा उसमें विक्रय विलेख तथा कतिपय संपत्ति के पट्टे निष्पादित करने का भी उपबंध है, ऐसे विभाजन की लिखत के रूप में शुल्क देय होता है लेकिन इस प्रकरण में तो 26.01.94 को ही अंश देकर कब्जा दिया जा चुका है व उसी अनुसार सभी काबिज है इसलिए रजिस्टेर््शन आवश्यक नहीं है एवं शुल्क देय नहीं हो सकता है। (गवरा राजू बनाम के.सत्यनारायण, ए.आई.आर 1973 ए.पी. 300)

8        अनुच्छेद,45 के अन्तर्गत प्रभार्य बनाने के लिये पक्षकारों के अधिकारों की मात्र घोषणा करने तथा उनमें विशिष्ट अभिनिश्चय (ंेंबमतजंपदउमदज) के लिए आगामी कार्यवाही निर्देशित करने बाला सिविल न्यायालय का यह आदेश इस प्रकार प्रभार्य नहीं होगा, जब तक दूसरे पक्षकार को कब्जा छोडने का निर्देश न दिया हो । (थिरूवेंगाधथन बनाम मंगया 35 मद्रास 26)

9        इस प्रकरण में भूमियों पर हितों का सिविल निर्णय के समय या वर्तमान में अन्तरण नहीं हुआ है, सन् 1994 में मोखिख रूप से हो चुका था। यह विभाजन का मामला नहीं है बल्कि पक्षकारों के पूर्ववर्ती शेयरों की  घोषणा का है। इस लिए इसका स्टाम्पित किया जाना अपेक्षित नहीं है। (राजकुमार रावला बनाम मानवेन्द्र बनर्जी ए.आई.आर 2004 कलकत्ता 294)

10         यह ज्ञापन पूर्व (26-01-94) में हुए  मौखिक विभाजन को अभिलिखित करता है वर्तमान में कोई अधिकार सृजित नहीं करता है, इसे विभजन सृजित करने वाली लिखत (दस्तावेज) मान्य नहीं  किया जा सकता है, ऐसी डिक्री स्टाम्प अधिनियम की धारा 2(15) अधीन नहीं आती है। (नितिन जैन बनाम अनुज जैन ए.आई.आर 2007 देहली 219)

11         इस मामले में पारित निर्णय (30.11.08) स्वमंयेव इंगित करती है कि यह पूर्व विद्यमान व्यावस्था (26.01.94) के आधार पर तैयार लिखित ज्ञापन (11.06.06) की स्वीकृति पर डिक्री है, ऐसी कौटुम्बिक व्यावस्था का रजिस्ट््रीकरण करना आवश्यक नहीं है। (सोमदेव व अन्य बनाम रतिराम व अन्य 2006 ए.आई.आर 3297)

12        इस न्यायलय में डिक्री साक्ष्य की वस्तु नहीं है, यह न्यायालय मात्र सिविल न्यायालय का कमिश्नर है। यदि कुछ देर के लिये यह मान भी लिया जावे कि 4 माह की अवधि में पंजीयन कराना था जो नहीं कराया है तो क्या अब पक्षकारों के तथा मृतक माता-पिता के नाम ऐसे ही दर्ज रहेंगे तथा क्या अब पक्षकारों के नाम कभी भी राजस्व रिकार्ड में दर्ज नहीं होंगे ।

13        अतः उपरोक्त अनुसार यह प्रकरण स्टाम्प अधिनियम की धारा 2(15) के अधीन नहीं आता है सिविल निर्णय 30.11.08 या ज्ञापन दिनंाक 11.06.06 द्वारा किसी भी पक्षकार को कोई कब्जा देने या कब्जा लेने का आदेश नहीं दिया गया है यह मात्र मौखिक कोटुम्बिक व्यावस्था की सिविल न्यायालय  द्वारा स्वीकृति पर दी गई डिक्री है इसलिए सिविल न्यायालय द्वारा आदेश 20 नियम 18 सह धारा 54 सीपीसी के अन्तर्गत आबंटित अंशानुसार खातों का विभाजन कर सिविल न्यायालय को अवगत कराया जाये जिससे अन्तिम डिक्री तैयार हो सके।
                                                                                                               आवेदक
 बालाराम मीणा, ग्राम कोहडी जिला भोपाल
       ======================================
            



                              पारिवारिक व्यवस्था पत्र





                                       पारिवारिक व्यवस्था पत्र को भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 2-24 में व्यवस्थापन के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि:-



        किसी जंगम या स्थावर संपत्ति का ऐसा लिखत जिसमें अवसीयती व्ययन अभिप्रेत है,  जिसमें व्यवस्थापन की सपंत्ति उनके कुटुम्ब के या उन व्यक्तियों के बीच जिनके लिए वह व्यवस्था करना चाहता है, वितरित करने के प्रयोजन के लिए या उस पर आश्रित व्यक्तियों के लिए व्यवस्था करने के प्रयोजन के लिए किया गया है ।
 

        इसके अंतर्गत विवाह के प्रतिफल के लिए किया गया व्यवस्थापन और धार्मिक या पूर्त प्रयोजन के लिए किया गया व्यवस्थापन शामिल है । इसके अंतर्गत ऐसा व्ययन लिखित में नहीं किया गया है, वहां किसी प्रयोजनके निबन्धनों को चाहे वह न्यास की घोषणा के तौर पर या अन्य प्रकार का हो, अभिलिखित करने वाली कोई लिखत है ।
 

        भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की अनुसूची 1-क के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन की लिखत पर उचित स्टाम्प शुल्क व्यवस्थापित संपत्ति की रकम के बाजार मूल्य के राशि के बंध पत्र के अनुसार लगाया जाएगा और अनुसूची के क्रमांक 12 के अनुसार प्रतिभूत रकम या मूल्य का चार प्रतिशत स्टाम्प शुल्क अदा किया जाएगा । 

        अनुसूची के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन के लिखित के अंतर्गत महर विलेख शामिल है । लेकिन इसे विवाह के अवसर पर मुसलमानों के बीच निष्पादित किया गया महर विलेख चाहे ऐसा विलेख विवाह के पूर्व या विवाह के पश्चात् निष्पादित किया गया हो, उसे छूट प्रदान की गई है । 


        व्यवस्थापन का प्रतिसंहरण 100/-रूपये के स्टाम्प के शुल्क पर होगा तथा जहां कि व्यवस्थापन के लिए करार व्यवस्थापन की लिखत के लिए अपेक्षित स्टाम्प से स्टाम्पित है और ऐसे करार के अनुसरण में व्यवस्थापन संबंधी लिखत तत्पश्चात् निष्पादित की गई है, वहां ऐसी लिखत पर शुल्क 100/-रूपये से अधिक नहीं होगा ।
      

             पारिवारिक व्यवस्था पत्र के संबंध में यह सुस्थापित विधि है कि वह धारा 25 संविदा अधिनियम के अंतर्गत बिना प्रतिफल के अंतरण माना जाता है, जो धारा 23 संविदा अधिनियम के अंतर्गत प्रवर्तनीय है, जो धारा 2 (डी) संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक वैध संविदा है और धारा 5 और 9 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत एक प्रकरण का अंतरण है । जो धारा 118 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विबंध के रूप में लागू होते हैं । 


            पारिवारिक व्यवस्था पत्र कुटुम्ब के सदस्यों के बीच विवाद न बढ़े और उन्हें अनावश्यक खर्च न उठाना पड़े, इसके लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति के संबंध में संयुक्त परिवार के सदस्यों को आपसी समझौता के आधार पर बने कुटुम्ब प्रबंध को पारिवारिक व्यवस्था पत्र कहा गया है । इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं कि:-


            (1)  पूरे परिवार के हित में परिवार के सदस्यों के बीच संदेहास्पद या विवादित दावों के राजीनामा के संबंध में उसी प्रकार के सदस्यों के बीच यह एक इकरार है ।


            (2) कौटुम्बिक प्रबंध करने के लिए परिवार में ऐसी परिस्थितियां  होनी चाहिए, जिसके कारण ऐसा प्रबन्ध करना पड़ा ।


            (3) कौटुम्बिक प्रबन्ध की वैधता को स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है कि वर्तमान में या भविष्य में वैधानिक दावों पर विवाद हो जाना संभावित हो या सद्भावपूर्वक विवाद की स्थिति हो या भविष्य में हो जाने की संभावना हो ।   


            (4) यदि अचल संपत्ति पर किसी का स्वत्व वर्तमान में स्थापित करना हो तो उनके पक्ष में कौटुम्बिक प्रबन्ध का पंजीकरण किया जाना आवश्यक है, परंतु ऐसा स्वत्व स्थापित न हो तो बिना पंजीकरण के ही कौटुम्बिक प्रबन्ध वैध माना जाएगा ।


            (5) यदि सद्भावनापूर्वक कौटुम्बिक प्रबन्ध किया गया हो और उसकी शर्तें भी उचित हों तो ऐसे कौटुम्बिक प्रबन्ध को न्यायालय स्वीकार करते हुए प्रभावी करेगी ।



            किसी भी पारिवारिक व्यवस्था पत्र की वैधानिकता के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैंः-


            (1) पारिवारिक प्रबन्ध सदभावपूर्वक होना चाहिए, जिससे कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच संयुक्त परिवार की संपत्ति का उचित एवं साम्यापूर्ण बंटवारा हो और पारिवारिक विवाद और     परस्पर विरोधी दावे समाप्त हो जाऐं ।


            (2) पारिवारिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है और ज्ञापन (यादगार) के रूप में लिखे गए दस्तावेज का पंजीकरण आवश्यक नहीं है ।


            (3) ऐसा पारिवारिक प्रबन्ध स्वेच्छा से किया गया हो और धोखा, कूटरचना या अनुचित प्रभाव से न किया हो ।


            (4) यदि पूर्व में कर लिए गए मौखिक पारिवारिक प्रबन्ध का ज्ञापन तैयार किया जाता है जो न्यायालय को प्रमाणीकरण की सूचना के लिए या जानकारी के लिए हो तो उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं है परंतु यदि पारिवारिक प्रबंध करते समय ही दस्तावेज लिखा     जाता है ताकि उसका उपयोग सबूत के लिए किया जा सके तो पंजीकरण आवश्यक है ।


            (5) पारिवारिक प्रबन्ध में जो पक्षकार हों, उनका संयुक्त संपत्ति में पूर्व से स्वामित्व, दावा या हित हो या भावी दावा हो, जिसे सभी पक्षकार स्वीकार करते हों । यदि पारिवारिक प्रबन्ध के एक पक्षकार का संयुक्त संपत्ति में कोई स्वामित्व न हो परन्तु अन्य     पक्षकार उसके पक्ष में अपने हित को छोड़ता हो और उसको पूर्णस्वामी देता हो, को उस व्यक्ति का पूर्व का ही स्वामित्व माना जायेगा और न्यायालय भी इस पारिवारिक प्रबन्ध को मान्यता देगा।


            (6) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच सद्भावपूर्वक हुए कौटुम्बिक प्रबन्ध जो उचित और साम्यापूर्ण हो और जिसमें विधिक दावा शामिल न हो तो वह कौटुम्बिक प्रबन्ध में शामिल पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होगा । 


            कौटुम्बिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है लेकिन यदि उसे ज्ञापन के रूप में अभिलिखित किया जाता है और उससे पारिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है, ऐसे दस्तावेज का पंजीयन कराना आवश्यक है क्योंकि इससे संपत्ति पर पक्षकारों के कब्जे और अधिकार की घोषणा होती है और यह उनके स्वामित्व को दर्शाने वाला दस्तावेज होता है ।


                  लेकिन यदि पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार पहले से लोग अपनी-अपनी संपत्ति पर शांतिपूर्ण रूप से व्यवस्था बनाकर रहते हैं और बाद में उसका विवरण लिखा जाता है तो इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था का पंजीयन आवश्यक नहीं है अर्थात ऐसा दस्तावेज जिसे लिखे जाने के दिनांक से हक और अधिकार सृजित होता है, उस दस्तावेज का पंजीयन आवश्यक है और ऐसे दस्तावेज लिख् जाने से पूर्व पारिवारिक हक व अधिकार की पुष्टि होती है । इस प्रकार के पारिवारिक व्यवस्था पत्र का पंजीयन आवश्यक नहीं है ।
            

                     यदि पारिवारिक व्यवस्था पत्र रजिस्टर्ड नहीं है तो वह रजिस्टीकरण अधिनियम 1908 की धारा 48 और 49 के अनुसार साम्पाशर्विक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाएगा, इस संबंध में रजिस्टीकरण अधिनियम की धारा 49 प्रावधानों की:- जो जो लिखत अभिलिखित रजिस्ट्रीकृत लिखित द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित हों, रजिस्ट्रीकृत न की गई हों, ऐसी दस्तावेज साम्पाशर्वक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकती है 
                                     साम्पाशर्विक सहव्यवहार वह सह व्यवहार होगा जो उस दस्तावेज में दिए गए कथनों को विभाजित कर दे, अलग रूप से पढा जा सके और जिसका उल्लेख उसमें न हो । जैसे कि कब्जा प्रदान किया जाना, दस्तावेज के अनुसार कार्य करना आदि ।

15 comments:

  1. sir , meri jamin ki pawti me mera our meri mataji ka naam hai . our mera ek bhai hai uski jamin per kewal uska hi naam hai kyoki . hamara batwara ho chuka hai. per meri mataji ka swargwaas ho jane se . ab meri pawati se meri mataji ka naam kam karwana chahta hu. per mata ke waris me mere bhai ka naam our meri bahan ka naam bhi aayega esa nayab tehsildaar bol rahe hai . per hamara batwara pehle hi ho chuka hai kewal truti was meri mataji ka naam pawati me reh gaya tha .. aab me kya karywahi karu

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  2. sir , meri jamin ki pawti me mera our meri mataji ka naam hai . our mera ek bhai hai uski jamin per kewal uska hi naam hai kyoki . hamara batwara ho chuka hai. per meri mataji ka swargwaas ho jane se . ab meri pawati se meri mataji ka naam kam karwana chahta hu. per mata ke waris me mere bhai ka naam our meri bahan ka naam bhi aayega esa nayab tehsildaar bol rahe hai . per hamara batwara pehle hi ho chuka hai kewal truti was meri mataji ka naam pawati me reh gaya tha .. aab me kya karywahi karu

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  3. SIR MERI MATAJI KI 12 BIGHA JAMIN UNKE NAAM SE THI UNKE HUM 2 BHAI OR 2 BAHAN HAI UNKE JIVAN KAAL ME UNHONE HAMARA BATWARA KAR 6 BIGHA BADE BHAI KE NAAM SE OR 6 BIGHA MERE NAAM SE KAR DIYA PER GOV KI LIPIKIY TRUTI KE KARAN MERE HISSE KI JAMIN KE KHASRA NUMER ME MERI MATAJI KA NAAM REH GAYA THA JO AAJ TAK CHALA AA RAHA HAI . 2015 ME MERI MATAJI KA SWARG WAS HO GAYA THA TO MENE MATAJI KA NAAM KAM KARNE KE LIYE TEHSIL OFFICE ME AAVEDAN BHI KAR DIYA OR BADE BHAI KE BAYAN BHI KARWA DIYE KI USE USKA HISSA MIL CHUKA HAI JO RAJSW RECORD ME DARJ HAI OR BAHNO NE BHI APNE BAYAN ME KAHA KI HAMARI SHADI KO 40 40 SAAL HO GAYE HAI OR HUM SUKH PURWAK NIWAS KAR RAHI HAI APNE SASURAL ME HAME IS JAMIN SE NAMANTARAN KARTE HAI TO HAMME KOI AAPATTI NAHI HAI. PHIR BHI NAYAB TEHSILDAR NE AADESH ME BADE BHAI OR BAHNO KE NAAM DARJ HETU AADESH KAR DIYA AB ME KYA KARU

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  4. एक कॉलोनी जिसमे 30*60 के प्लाट हैं। 15*60,15*60 सो हिस्से अलग अलग दो सेज भाइयों को एक विक्रेता ने बेच दिए। चूँकि पार्ट खंड हो गए अतः म.प्र. रतलाम नगर निगम माकन बनाने की अनुमति नानबाई देता। क्या दोनों भाई दोनों प्लॉटों को संयुक्त करके एक रजिस्ट्री या पारिवारिक सह व्यवस्थापन पंजीकृत करा सकते हिन्। ऐसी रजिस्ट्री बिल्डिंग परमिशन देगी।

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  5. एक कॉलोनी जिसमे 30*60 के प्लाट हैं। 15*60,15*60 सो हिस्से अलग अलग दो सेज भाइयों को एक विक्रेता ने बेच दिए। चूँकि पार्ट खंड हो गए अतः म.प्र. रतलाम नगर निगम माकन बनाने की अनुमति नानबाई देता। क्या दोनों भाई दोनों प्लॉटों को संयुक्त करके एक रजिस्ट्री या पारिवारिक सह व्यवस्थापन पंजीकृत करा सकते हिन्। ऐसी रजिस्ट्री बिल्डिंग परमिशन देगी।

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  6. मेरा और मेरे भाई के मध्य संयुक्त भूमि है जिसका बंटवारा अभी नही हुआ का उपयोग में करता हू तथा मैंने अपने भाई को अपनी पत्नी और स्वम क्रय भूमि दी है जो भाई को बटवारे के बराबर है यानि दोनो समान भूमि की जीते करते है।
    हम दोनों भाई सहमत है कि जिस भूमि का उपयोग हम कर रहे है वह भूमि आपसे सहमति से हो जाए और जिस भूमि का जो उपयोग किया जा रहा उसके भू स्वामी वही हो तो श्रीमान जी ऐसी कोई मध्यप्रदेश भू राजस्व संहिता में नियम है कि बिना किसी अतिरिक्त व्वय के हम यह समझोता कर सके में हमारी सहायता करे ।

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    1. रजिस्‍ट्रर्ड विभाजन-पत्र का संपादन करके नामांतरण/बटवारे कीअर्जी लोक सेवा केन्‍द्र मे लगा दो

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  7. Sir may Apne case ke bare me app se bat Karna chata hu plz mobile number de

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  8. सर मेरे दादा जी ने मेरे बड़े पिता जी एवं मेरे पिता जी के नाम पर अलग-अलग एवं संयुक्त जमीन खरीदी थी। जिनका बटवारा वसीयत के आधार पर उन्होंने करीब 25 वर्ष पूर्व किया था। मेरे पिताजी और दादा जी दोनों को ही गुजरे हुए करीब 20 साल से ज्यादा हो गए। लेकिन मेरी बड़ी पिताजी की नियत खराब हो गई और उन्होंने वसीयतनामा का उल्लंघन करते हुए जो जमीन मेरे हिस्से में आई थी पिछले वर्ष तहसीलदार के यहां से उन्होंने अपने नाम पर केवल इस आधार पर दर्ज करा ली की रजिस्ट्री उनके नाम पर थी। इसकी जानकारी मुझे उस समय नहीं हो पाई लेकिन जैसे ही मुझे इसकी जानकारी लगी तो मैंने धारा 5 के तहत एस डी एम महोदय के यहां अपील की । मुझे वह जमीन वापस चाहिए। क्या भू राजस्व संहिता में ऐसा प्रावधान है या कोई नियम है कि वसीयत का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति से वह जमीन वापस ली जा सके कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें। साथ ही यही बताने का कष्ट करें कि इस प्रकरण में भू राजस्व संहिता की कौन सी किताब या नियम मेरे लिए हितकर साबित होगा जिसे बाजार से ले सकते हैं

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  9. श्रीमान मुझे संयुक्त हिंदू परिवार को"हिंदू अविभाजित परिवार" के रूप में पंजीकरण कराना है तो किस कार्यालय में पंजीकरण होगा।

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  10. पेत्रक सम्पाती से बहनों के हक़ त्याग पर कितनी स्टाम्प द्युति लगती है मप्र में

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  11. Sir,Parivarik Vyavastha Patra ka koi Sample Draft mil sakta hai kya?

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  12. पंचायत द्वारा दो भाइयों की सहमति पर जमीन का बंटवारा किया गया तीन भाई थे 16 साल बाद बचे भाई ने आपत्ति लगाई क्या सही है या गलत मध्यप्रदेश में सही है या गलत और दोनों भाई जिन्होंने सहमति ली थी वह दोनों खत्म हो गई जमीन के बंटवारे को हुए 16 साल हो चुके हैं तीसरा बच्चा भाई कहता यह बंटवारा गमतु आए 16 साल बाद कोई रूल नियम बताएं जिससे दोनों भाई की सहमति को लीगल बताया जा सके

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  13. पंचायत द्वारा दो भाइयों की सहमति पर जमीन का बंटवारा किया गया तीन भाई थे 16 साल बाद बचे भाई ने आपत्ति लगाई क्या सही है या गलत मध्यप्रदेश में सही है या गलत और दोनों भाई जिन्होंने सहमति ली थी वह दोनों खत्म हो गई जमीन के बंटवारे को हुए 16 साल हो चुके हैं तीसरा बच्चा भाई कहता यह बंटवारा गमतु आए 16 साल बाद कोई रूल नियम बताएं जिससे दोनों भाई की सहमति को लीगल बताया जा सके

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