Tuesday 27 May 2014

विक्रय अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन संबंधी वाद

विक्रय अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन संबंधी वादों के बारे में:-
        वर्तमान में जनसंख्या बढ़ने, शहरों और गांवों के विस्तार, व्यापार के विस्तार आदि कारणों से अचल सम्पत्ति के क्रय विक्रय के संव्यवहार तेजी से बढ रहे हैं। इन मामलों में पहले क्रेता और विक्रेता के बीच एक विक्रय अनुबंध निष्पादित होता है, जिसमें संविदा की शर्र्ते दर्ज होती है और बाद में विक्रय पत्र निष्पादित होता है।
        वर्तमान में अचल सम्पत्तियों की कीमतें भी तेज गति से बढ रही है ऐसे में कई बार समय पर अवशेष प्रतिफल अदा न होने के कारण या किसी एक पक्ष के मन में दुर्भावना आ जाने के कारण विवाद उत्पन्न होते हैं और तब व्यवहार न्यायालय के समक्ष विक्रय अनुबंध के पालन का वाद पेश होता है। इन वादों में विचारण न्यायालय के समक्ष कई प्रश्न उत्पन्न होते हैं जैसे वादी का अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक होना कब माना जावे और कब नहीं, कब समय संविदा का मर्म होता है, विक्रय अनुबंध का पंजीकृत या रजिस्टर्ड न होना, सम्पाश्र्विक प्रयोजन किसे कहते हैं, परिसीमा आदि। यहा हम इन्हीं वादो के बारे में विचारण न्यायालय के समक्ष उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रश्नों और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति पर विचार करेगें ताकि इन वादों का निराकरण आसान हो सके।
1. विक्रय अनुबंध की प्रकृति :-
        धारा 54 सम्पत्ति अंतरण अधिनियम के अनुसार विक्रय करार सम्पत्ति में क्रेता का कोई हित सृजित नहीं करता है। विक्रय करार का केवल विनिर्दिष्ट पालन करवाया जा सकता है।
        न्याय दृष्टांत रामभाउ नामदेव गजरे विरूद्ध नारायण बापू जी धोत्रा(2004) 8 एस.सी.सी. 614  के अनुसार अचल सम्पत्ति के विक्रय का करार प्रस्तावित क्रेता के पक्ष में सम्पत्ति पर कोई हित या भार सृजित नहीं करता है इस संबंध मे  न्याय दृष्टांत स्टेट आफ यू0पी0 विरूद्ध डिस्ट्रिक्ट जज (1997) 1 एस.सी.सी. 496 निर्णय चरण 7  भी अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत धर्मा नायक विरूद्ध रामा नायक ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1276  के अनुसार विक्रय का अनुबंध अचल सम्पत्ति में कोई हित सृजित नहीं करता है। विक्रय का अनुबंध एक एक्सीक्यूटरी कान्टेक्ट होता है जबकि विक्रय एक्जीक्यूटेंट कान्टेक्ट होता है।
         न्याय दृष्टांत कुमार गोन्सू साहब विरूद्ध मोहम्मद मिया उर्फ बाबन ए.आई.आर. 2009 एस.सी. (सम्लीमेंट) 1254 के अनुसार अग्रक्रयाधिकार का अधिकार या हकशफा का अधिकार केवल विक्रय अनुबंध के आधार पर नहीं मांगा जा सकता जब तक कि क्रेता के पक्ष में विक्रय पत्र का निष्पादन न हो जाये।
2. अनुबंध के स्टाम्प के बारे में:-
        इन मामलों में कई बार प्रश्न उत्पन्न होता है कि स्टाम्प बहुत पहले खरीद लिया गया था या दो अलग-अलग तारीखों पर खरीदे गये स्टाम्प पर अनुबंध लिखा गया है आदि।
        इस संबंध में न्याय दृष्टांत टी.पिल्लै विरूद्ध नवीन न्यामल ए.आई.आर. 2008 एस.सी.1541 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि किसी स्टाम्प के उपयोग में लाने की कोई अवधि निश्चित नहीं होती है। स्टाम्प की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती है। स्टाम्प खरीदने वाले के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसका छः माह के भीतर ही उपयोग करें। धारा 54 स्टाम्प एक्ट में जो छः माह की अवधि दी गयी है वह कलेक्टर से अनुपयोगी स्टाम्प की कीमत वापस पाने के लिए है।
        इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि दस्तावेज दो स्टाम्प पेपर पर लिखा गया जो एक ही व्यक्ति ने अलग-अलग तारीख पर खरीदे थे, मात्र इस कारण दस्तावेज अवैध नहीं हो जाता है।
        इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि दस्तावेज पर अंगूठा निशानी था जिस पर विवाद था। न्यायालय ने उसकी प्रमाणिकता पर विशेषज्ञ की राय लिये बिना मत दे दिया इसे उचित नहीं माना गया।
3. संविदा में परिवर्तन के बारे में:-
        कभी कभी इन मामलों में संविदा में तात्विक परिवर्तन कर लेने का प्रश्न उपस्थित होता है ऐसे समय पर यह ध्यान रखना चाहिए कि वे तथ्य जो संविदा के मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं करते हैं उन्हें तात्विक परिवर्तन नहीं माना जाता है।
        भूमि के विक्रय करार के मेमोरेण्डम में शब्द   ’’ ऋण चुकता करें व सभी भार से मुक्त विक्रय पत्र निष्पादित करें ’’  अनुबंध के निष्पादन के बाद बढाये गये इसे तात्विक परिवर्तन नहीं माना गया क्योंकि यह विक्रेता का कर्तव्य है कि वह सम्पत्ति के बारे में सारे ऋण चुकावें व एक भारमुक्त सम्पत्ति विक्रय करें इस संबंध में  न्याय दृष्टांत कालीअन्ना गोंडर विरूद्ध पालानी गोंडर ए.आई.आर. 1970 एस.सी.1942 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत राम खिलौने विरूद्ध सरदार ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2548 के मामले में क्रेता ने अनुबंध मे दो स्वतंत्र गवाह बढा लिये इसे तात्विक परिवर्तन नहीं माना गया यह कहा गया कि मूल संविदा और उसकी शर्तो में कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
4. परिसीमा काल:-
         इन मामलों में परिसीमा अधिनियम 1963 के अनुच्छेद 54 के अनुसार किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए कोई वाद पालन के लिए नियत की गयी तारीख से तीन वर्ष के भीतर या यदि ऐसी तारीख नियत नहीं की गयी है तो तब वादी को यह सूचना हो जाये कि पालन से इंकार कर दिया गया है तब से तीन वर्ष के भीतर वाद पेश किया जा सकता है।
         न्याय दृष्टांत वन विभाग कर्मचारी गृह निर्माण सहकारी संस्था मर्यादित विरूद्ध रमेश चंद्र ए.आई.आर. 2011 एस.सी.41 के मामले में वादी ने घोषणा और निषेधाज्ञा का एक वाद पेश किया जिमसें अनुबंध के पालन की सहायता नहीं मांगी जबकि उसका वाद कारण उत्पन्न हो चुका था क्योंकि प्रतिवादी  ने अनुबंध से इंकार कर दिया था और उसे निरस्त कर देना बतलाया था। वादी ने 11 वर्ष बाद अनुबंध के पालन का अनुतोष जोड़ने के लिए संशोधन आवेदन पेश किया जिसे परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 54 के प्रकाश में अवधि बाधित माना गया आवेदन निरस्त किया गया।
         न्याय दृष्टांत अहमद साहब अब्दुल्ला मृत द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध बीबी जान (2009)5 एस.सी.सी. 462 में अनुच्छेद 54 परिसीमा अधिनियम में प्रयुक्त शब्द ’’ डेट’’ ’’फिक्सड’’ को स्पष्ट किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि कैलेन्डर में उल्लेखित किसी विशिष्ट तारीख के संदर्भ में यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस मामले में यह कहा गया है कि तारीख नियत हो या न हो जिस तारीख को वादी को अनुबंध के पालन से इंकार करने की सूचना   मिलती है, उस तारीख से परिसीमा प्रारंभ होती है।
         न्याय दृष्टांत गुणवंत भाई मूलचंद्र शाह विरूद्ध अंटोत उर्फ फारेल (2006) 3 एस.सी.सी.634 में यह प्रतिपादित किया गया है कि विचारण न्यायालय को सर्वप्रथम यह जांच करना चाहिए कि क्या विक्रय करार के पालन के लिए कोई समय नियत किया गया था और यदि किया गया था तो क्या उस नियम समय के तीन वर्ष के पश्चात् वाद पेश किया गया है। जिस मामले में अनुबंध पालन के लिए कोई समय नियत न किया गया हो वहा न्यायालय को यह ज्ञात करना चाहिए कि वादी को यह सूचना किस तारीख को मिली कि अनुबंध के पालन से इंकार कर दिया गया है और यह देखना चाहिए कि क्या उस तारीख से तीन वर्ष के भीतर वाद पेश किया गया है। इस मामले में परिसीमा के बारे में जांच करने की विधि को स्पष्ट किया गया है। इस संबंध में  न्याय दृष्टांत आर.के.पर्वत राज गुप्ता विरूद्ध के.सी. जयदेव रेडडी (2006) 2 एस.सी.सी. 428  भी अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत पंचानन धारा विरूद्ध मोनमाथानाथ मेती (2006)5 एस.सी.सी. 340 के अनुसार विक्रेता अपनी ही गलती का लाभ नहीं ले सकता है। परिसीमा अधिनियम के प्रश्न पर विचार करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि अनुबंध का पालन कई तथ्यों पर निर्भर करता है जैसे संबंधित प्राधिकारी से उचित मामलों में अनुमति लेना क्योंकि विक्रय पत्र के निष्पादन के लिए कई मामलों में ऐसी अनुमति आवश्यक होती है।
         न्याय दृष्टांत एस. ब्रहमानंद विरूद्ध के.आर.मुथ्थू गोपाल (2005) 12 एस.सी.सी. 764  के मामले में अनुबंध के पालन के लिए एक तारीख नियत की गयी थी। बाद में प्रतिवादी ने एक पत्र के द्वारा पालन की तारीख स्थगित करने का निवेदन किया और भविष्य की तारीख नियत करने का अनुरोध किया। धारा 63 भारतीय संविदा अधिनियम के प्रकाश में ऐसा किया जा सकता है। यह संविदा पहले अनुच्छेद 54 के प्रथम भाग की थी और बाद में द्वितीय भाग  में आ गयी यह प्रतिपादित किया गया कि अनुबंध पालन के लिए इस प्रकार समय बढाना अस्वाभाविक नहीं है।
        न्याय दृष्टांत श्रीमती सुगनी विरूद्ध रामेश्वर दास ए.आई.आर. 2006 एस.सी.2172  के अनुसार ष्विक्रय करार मे पालन की कोई तारीख निश्चित नही की गयी थी प्रतिवादी ने अनुबंध से इंकार किया। तृतीय पक्ष के हित में विक्रय पत्र निष्पादन की जानकारी लगने के कुछ ही महीनों में वाद पेश किया। वाद अवधि बाधित नहीं माना गया।
         न्याय दृष्टांत सत्यजैन मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध अनीश अहमद रूसदी द्वारा वैध प्रतिनिधि ए.आई.आर. 2013 एस.सी.434 के मामले में विक्रेता प्रतिवादी विदेश में था इस अवधि की धारा 15 परिसीमा अधिनियम के तहत छूट दी गयी।
5. कब समय संविदा का मर्म होता है:-
        सामान्यतः अचल सम्पत्ति के विक्रय अनुबंध के मामले में यह उपधारित किया जाता है कि समय संविदा का मर्म नहीं है चाहे ऐसा स्पष्ट अनुबंध भी हो , यह उपधारणा खंडित की जा सकती है। यह स्थापित विधि है कि यह ज्ञात करने के लिए कि समय संविदा का मर्म है यह उचित प्रतीत होता है कि संविदा की शर्ते देखी जाये इस संबंध में  न्याय दृष्टांत एन.श्रीनिवास विरूद्ध कुटटीकरण मशीन टूल्स लिमिटेड (2009) 5 एस.सी.सी. 182 अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत श्रीमती चंदा रानी विरूद्ध श्रीमती कमला रानी ए.आई.आर. 1993 एस.सी.1742 पांच न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि अचल सम्पत्ति के विक्रय करार में ऐसी उपधारणा नहीं होती है कि समय संविदा का मर्म है यदि समय संविदा का मर्म न हो तब भी न्यायालय यह इंफर कर सकती है कि संविदा का युक्तियुक्त समय में पालन होना चाहिए। न्यायालय 1. संविदा की प्रत्यक्ष शर्तो से 2. सम्पत्ति की प्रकृति से 3. अन्य परिस्थितियों के आधार पर जैसे संविदा करने का उददेश्य आदि से इस बारे में मत बना सकती है।
         न्याय दृष्टांत गौमाथी नामागम पिल्लै विरूद्ध पालानी स्वामी नादार ए.आई.आर. 1967 एस.सी.868 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि वह समय तय करना जब तक संविदा का पालन हो जाना चाहिए या चूक होने की  क्लोज डाल देने मात्र से समय संविदा का मर्म नहीं हो जाता। संविदा का मर्म तब होता है जब पक्षकारो का आशय ऐसा हो। पक्षकारों का आशय प्रत्यक्ष या परिस्थितियों से निकाला जा सकता है। सामान्य उपधारणा यह है कि भूमि के विक्रय की संविदा में समय संविदा का मर्म नहीं होता है।
        यदि समय संविदा का मर्म मूलतः न रहा हो लेकिन बाद में भी इसे विपक्षी को नोटिस देकर संविदा का मर्म बनाया जा सकता है।
         न्याय दृष्टांत गोविन्द प्रसाद चतुर्वेदी विरूद्ध हरिदत्त शास्त्री ए.आई.आर.  1977 एस.सी. 1005  तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ भी इस बारे में अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत शंकरलाल पांडे विरूद्ध ताराचंद्र आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 824 के अनुसार समयावधि के बाद विक्रेता ने प्रतिफल का आंशिक भुगतान स्वीकार किया। यह माना गया कि संविदा के पालन के लिए वहा से नया परिसीमा काल बढेगा। विक्रेता ने ऐसी राशि लेकर यह कहने का अधिकार त्याग दिया कि समय संविदा का मर्म है पक्षकारों के मध्य निर्धारित समय संविदा का मर्म नहीं था।
         न्याय दृष्टांत बाला साहिब दयानंद नायक मृत द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध अप्पा साहिब दत्तात्रय पवार ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1205 के अनुसार सामान्य नियम यह है कि अचल सम्पत्ति की विक्रय संविदा में समय संविदा का सार नहीं होता है। इसके विपरीत आशय स्पष्ट शब्दों में और मजबूत परिस्थितियों द्वारा दर्शित होना चाहिए। इस मामले में संवैधानिक पीठ के न्याय दृष्टांत  चांद रानी मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध कमला रानी मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि (1993) 1 एस.सी.सी. 519 को विचार में लिया गया जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि यह स्थापित सिंद्धांत है कि अचल सम्पत्ति की विक्रय संविदा में समय संविदा का सार नहीं होता है बल्कि इसके विपरीत उपधारणा होती है जहा समय को सार बनाने का आशय हो वहा इसे प्रत्यक्ष और स्पष्ट भाषा में लिखना चाहिए। इस संबंध में  न्याय दृष्टांत इंदिरा कौर विरूद्ध सेवोलाल कपूर (1988) 2 एस.सी.सी. 488, गोविन्द्रप्रसाद चतुर्वेदी विरूद्ध हरिदत्त शास्त्री ए.आई.आर. 1977 एस.सी. 1005 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ लीलाधर यादव विरूद्ध सिद्धार्थ हाउसिंग कोआपरेटिव सोसायटी लिमिटेड 2006 (2) एम.पी.ले.जे. 329 डी.बी.भी अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत गौरीशंकर प्रसाद विरूद्ध ब्रहमानंद सिंह (2008) 8 एस.सी.सी. 287 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा विक्रय और पुनः क्रय विक्रय का अनुबंध पृथक दस्तावेजों से किया गया हो वहा इसे बंधक नहीं कहा जा सकता और ऐसे मामलों में जहा पुनः हस्तातंरण होना है वहा समय हमेशा संविदा का सार माना जाता है इस संबंध में  न्याय दृष्टांत चुनचुन झा विरूद्ध इबादत अली ए.आई.आर. 1954 एस.सी. 345, बिस्मिल्ला बेगम विरूद्ध रहमतुल्ला खान ए.आई.आर. 1998 एस.सी.970  अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत मेसर्स सीताडेल फाईनेस फाइन फार्मा सूटीकल विरूद्ध मेसर्स राम नियाम रियल एस्टेट प्राईवेट लिमिटेड ए.आई.आर. 2011 एस.सी.3351 के अनुसार शहरी भूमि के विक्रय की संविदा थी जिसमें समय संविदा का सार रहेगा ऐसी स्पष्ट शर्त थी और समय सीमा में संविदा का पालन न करने के परिणाम भी दिये गये थे क्रेता पर अनुमति लेने का दायित्व था वह नियत समय मे अनुमति नहीं ले सका विक्रेता ने संविदा निरस्त कर दी इसे उचित माना गया।
         न्याय दृष्टांत ए.के.लक्ष्मीपति मृतक विरूद्ध रायसाहब  पन्नालाल एच. लाहोटी चेरीटेबिल ट्रस्ट ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 577 के अनुसार संविदा में कई स्थानों से यह स्पष्ट दर्शित हुआ था कि समय संविदा का सार है संविदा में अवशेष जमा करने की तारीख अंकित की गयी थी यह प्रतिपादित किया गया कि समय संविदा का सार है।
         न्याय दृष्टांत श्रीमती शारदा मणि कान्डापन्न विरूद्ध श्रीमती एस.राजलक्ष्मी ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3234 के अनुसार अचल सम्पत्ति के विक्रय की संविदा में प्रतिफल के भुगतान के लिए टाईम शेडयूल नियत किया गया था और संबंधित दिनांक को यदि अवकाश हो तो उसके लिए भी एक अनुच्छेद बनाया गया था विक्रय पत्र के निष्पादन को प्रतिफल के भुगतान से जोड़ा गया था यह प्रतिपादित किया गया कि ऐसी संविदा में समय संविदा का सार होता है।
        इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिमत भी दिया कि अचल सम्पत्ति की बढती हुई कीमतें और बदली हुई परस्थितियो में इस सिद्धांत को रिविजीट किया जाना चाहिए कि अचल सम्पत्ति की विक्रय की संविदा में समय संविदा का सार नहीं होता है।
6. न्यायालय शुल्क:-
        धारा 7 (10) न्यायालय फीस अधिनियम 1870 के अनुसार विनिर्दिष्ट पालन के वादों में संविदा के प्रतिफल की रकम के अनुसार न्यायालय शुल्क देय होता है।
        अतः इन मामलों में न्यायालय शुल्क उक्त प्रावधान के अनुसार देखना चाहिए लेकिन अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन के अलावा कोई और अनुतोष जैसे स्थायी निषेधाज्ञा कोई अन्य घोषणा भी चाही गयी है तो उनके लिए पृथक से मूल्यांकन करके न्यायालय शुल्क देना होता है।
7. अनुबंध का रजिस्ट्रीकरण:-
        धारा 17 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के अनुसार निम्नलिखित दस्तावेजों का रजिस्ट्रीकरण अनिवार्य होता है।
        (एफ) कोई दस्तावेज जो किसी अचल सम्पत्ति के विक्रय के किसी संविदा का प्रवर्तन या उसे प्रभावी करने हेतु तात्पर्यित है।
        (जी) अचल सम्पत्ति के किसी भी रूप में विक्रय से संबंधित मुख्तारनामा।
        धारा 17 में उक्त संशोधन 17 (एफ) 17 (जी) के बारे में 14 जनवरी 2010 को मध्यप्रदेश अधिनियम के द्वारा किया गया है।
        धारा 17 (1ए) रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के अनुसार सम्पत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882  (क्रमांक 4 सन् 1882) की धारा 53-क के प्रयोजनके लिए किसी अचल सम्पत्ति को प्रतिफल के लिए हस्तांतरित करने वाली संविदाओं को समाविष्ट करने वाले दस्तावेजों को रजिस्ट्रीकरण किया जायेगा मानों उनका निष्पादन रजिस्ट्रीकरण एवं अन्य संबंधित विधिया (संशोधन) अधिनियम 2001 के प्रारंभ पर या उसके बाद किया गया हो और यदि ऐसे दस्तावेजों का रजिस्ट्रीकरण ऐसे प्रारंभ पर या उसके बाद नहीं कराया जाता है तो धारा 53 -क के प्रयोजन के लिए उनका कोई प्रभाव नहीं होगा।
        धारा 49 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के परन्तुक के अनुसार ऐसे दस्तावेज को किसी सम्पाश्र्विक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर जो रजिस्ट्रीकृत लेख द्वारा किये जाने के लिए अपेक्षित न हो लिया जा सकेगा।
        धारा 17 के उक्त संशोधन के प्रकाश में धारा 49 में अभी कोई संशोधन नहीं किया है।
         न्याय दृष्टांत एस.कलादेवी विरूद्ध वी.आर. सोमा सुदरम् ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 1654  के अनुसार अनुबंध के पालन के वाद में अपंजीकृत विक्रय पत्र साक्ष्य मे प्रस्तुत हुआ ऐसा विक्रय पत्र संविदा को और सम्पाश्र्विक संव्यवहार को प्रमाणित करने के लिए ग्राहय किया जा सकता है। धारा 49 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के परन्तुक के प्रकाश में यह विधि प्रतिपादित की गयी।
        न्याय दृष्टांत शांताबाई विरूद्ध पुशकरलाल आई.एल.आर. 2012 एम.पी.एस.एन. 9 के अनुसार ऐसा दस्तावेज जिसका रजिस्ट्रेशन अनिवार्य हो और रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया गया हो तब भी उसे सम्पाश्र्विक प्रयोजन के लिए उपयोग में लिया जा सकता है जैसे आधिपत्य की प्रकृति प्रतिफल की अदायगी के बारे में स्वीकारोक्ति आदि।
         न्याय दृष्टांत मांगीलाल विरूद्ध डमबरलाल 2008 (1) एम.पी.एच.टी. 68 के अनुसार यदि किसी दस्तावेज का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य हो और नहीं करवाया गया हो और उसे रजिस्ट्रेशन न करवाने के कारण साक्ष्य में ग्राहय न होना निर्धारित कर दिया गया हो तब भी कोई पक्ष उसे सम्पाश्र्विक उददेश्य से उस पर भरोसा कर सकता है।
        इस माममे में  न्याय दृष्टांत रामरतन विरूद्ध परमानंद ए.आई.आर. 1946 प्री.वी.कौंसिल 51  को भी विचार में लिया गया जिसमें यह प्रतिपादित किया गया कि धारा 35 स्टाम्प अधिनियम में उल्लेखित शब्द ’’ फार एनीपरपस’’ को उसके प्राकृतिक अर्थो में देखना चाहिए, जिसमें सम्पाश्र्विक उददेश्य भी शामिल हैं। एक अस्टाम्पित विभाजन लेख मौखिक साक्ष्य की पुष्टि के और विभाजन के तथ्य के निर्धारण के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता। इस संबंध में  न्याय दृष्टांत टी.भास्कर राव विरूद्ध टी.ग्रेबिल ए.आई.आर. 1981 ए.पी. 175, भास्कर भोटला पद्यनाभ विरूद्ध वी.लक्ष्मीनारायण ए.आई.आर. 1962 ए.पी. 132, संजीव रेडडी विरूद्ध जान पुत्र रेडडी ए.आई.आर. 1972 ए.पी. 373  भी अवलोकनीय है।
         न्याय दृष्टांत हरिओम अग्रवाल विरूद्ध प्रकाश चंद्र मालवीय (2007) 8 एस.सी.सी. 514 के अनुसार यदि किसी दस्तावेज की फोटोप्रति, जबकि दस्तावेज पर पर्याप्त मूल्य के स्टाम्प हो लेकिन उनका विवरण गलत दर्ज हो तब भी फोटोकापी को परिबद्ध नहीं किया जा सकता।
        यहा हमें विचार करना होगा कि सम्पाश्र्विक संव्यवहार या सम्पाश्र्विक प्रयोजन क्या है ?
        इस संबंध में  न्याय दृष्टांत के.बी.शाह एंड संस प्रा0लिमि0 विरूद्ध डेवलपमेंट कन्सलटेंट लिमि0 (2008) 8 एस.सी.सी.564 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि एक दस्तावेज जिसका रजिस्ट्रेशन आवश्यक था और यदि रजिस्ट्रेशन नहीं कराया गया है तो वह साक्ष्य में ग्राहय नहीं होता है लेकिन उसका उपयोग सम्पाश्र्विक संव्यवहार उददेश्य से किया जा सकता है। इस मामले में सम्पाश्र्विक प्रयोजन क्या है, इसको स्पष्ट किया गया है जो इस प्रकार है:-     
          From the principles laid down in the various decisions of this court and the High court as referred to hereinabove, it is evident that:-
1- A document required be registered is not admissiable into evidence under section 49 of the Registration act.
2- Such unregistered document can however be used as an evedence of collateral purpose as provided in the Proviso to Section 49 of the Registration act
3- A collateral transaction must be independent or devisiable from the transaction to effect which the law required registration.
4- A collateral transaction must be a transaction not itself required to be effected a registered document that is a transaction creating etc any right title of interest in immoveable property of the value of one hundered rupees and upwards.
5- If a document is inadmissible in evidence for want of registration none of this terms can be admitted evidence and that to use a documant for the purpose of proving an important clause would not be using it as a collateral purpose.
 
        इस मामले में अपंजीकृत पटटा था और उसकी शर्त क्रमांक 9 को वादी प्रमाणित करना चाहता था जिसके अनुसार किराये के दिये गये परिसर में कंपनी के एक विशिष्ट अधिकारी ही उसका उपयोग करेंगे।
        कंपनी का अन्य अधिकारी परिसर का उपयोग करने लगा था तब वाद पेश किया गया था और अपंजीकृत पटटे की उक्त शर्त सम्पाश्र्विक प्रयोजन के लिए वादी प्रमाणित करना चाहता था और उक्त दस्तावेज का उपयोग करना चाहता था।  दस्तावेज साक्ष्य में ग्राहय नहीं पाया गया।
        उक्त  न्याय दृष्टांत के0बी0शाह में प्रतिपादित विधि से यह स्पष्ट है कि यदि कोई दस्तावेज पंजीकरण के अभाव में साक्ष्य में ग्राहय न हो तब उसकी कोई भी शर्त साक्ष्य में ग्राहय नहीं की जा सकती। संविदा का कोई महत्वपूर्ण अनुच्छेद सम्पाश्र्विक बतलाते हुए भी उपयोग में नहीं लिया जा सकता।
        इस  न्याय दृष्टांत में प्रतिपादित विधि से यह भी स्पष्ट है कि सम्पाश्र्विक संव्यवहार एक स्वतंत्र और मूल संव्यवहार से विभाजित किये जाने योग्य संव्यवहार होना चाहिए।
        इस तरह जब कभी अनुबंध पालन के वादो में 14.1.2010 के बाद का कोई विक्रय करार पेश हो और वह पंजीकृत न हो तो उसे संविदा की मूल शर्तो को प्रमाणित करने के लिए सम्पाश्र्विक उददेश्य या सम्पाश्र्विक प्रयोजन बतलाते हुए उपयोग में नहीं लिया जा सकता है।
        यदि ऐसा दस्तावेज पंजीकृत भी न हो और र्याप्त स्टाम्प पर भी न हो तब उसे सम्पाश्र्विक प्रयोजन के लिए उपयोग में लेने की स्थिति क्या होगी  या दस्तावेज में आधिपत्य देना दर्ज हो और विक्रेता यह बचाव ले कि आधिपत्य नहीं दिया गया था तब क्या स्थिति बनेगी ?
         न्याय दृष्टांत मानसिंह मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध रामेश्वर आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 1077 डी.बी.  में यह प्रतिपादित किया गया है कि अचल सम्पत्ति के विक्रय अनुबंध में सम्पत्ति का आधिपत्य क्रेता को सौंपने का तथ्य दर्ज है। विक्रेता ने यह बचाव लिया कि क्रेता को आधिपत्य नहीं दिया गया था। यह प्रतिपादित किया गया कि विक्रेता का बचाव दस्तावेज की प्रकृति को प्रभावित नही करेगा और दस्तावेज पर उसकी प्रकृति के अनुसार स्टाम्प डयूटी लगेगी। यदि अनुबध पर र्याप्त स्टाम्प नही लगे है तो वादी को डयूटी पैनाल्टी के प्रश्न के निर्धारण के लिए स्टाम्प कलेक्टर को आगे आवेदन करना है ऐसे निर्देश दिये गये। धारा 38(2) इंडियन स्टाम्प एक्ट के अनुसार वादी विचारण न्यायालय में ऐसा आवेदन कर सकता है कि दस्तावेज को स्टाम्प कलेक्टर को रैफर किया जाये। जैसा कि न्याय दृष्टांत उमेश कुमार विरूद्ध राजाराम डब्ल्यू.पी.नंबर 3014/2008 निर्णय दिनांक 19 जनवरी 2009  में व्यक्त किया गया है।
        न्याय दृष्टांत शिवकुमार सक्सेना विरूद्ध मनीषचंद्र सिन्हा 2004 (4) एम.पी.एच.टी. 475 डी.बी. में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा विक्रय करार में आधिपत्य भी अंतरित किया गया हो वहा कन्वेयन्स या हस्तांतरणपत्र के अनुसार स्टाम्प लगेगें जैसा कि स्टाम्प अधिनियम के आर्टिकल 23 शेडयूल 1-ए में 15.10.90 से मध्यप्रदेश के संशोधन द्वारा व्यवस्था की गई है कि जहा क्रेता को विक्रय करार में अचल सम्पत्ति का आधिपत्य भी दिया जाता है वहा उस पर स्टाम्प डयूटी हस्तांतरण पत्र या कन्वेयन्स के अनुसार लगेगा इस मामले में स्टाम्प डयूटी से संबंधित प्रश्न पर विचार करते समय ध्यान रखे जाने वाले सिद्धांतों पर प्रकाश डाला है जो इस प्रकार हैं:-
         The following cardinal principles laid down by courts should always be kept in view before considering any question relating to stamp duty;-
1- Stamp duty is liviable on the instrument and not be transaction.
2- The subtance of the transaction enbodied in the instrument determines the stamp duty and not the form of title of the instrument.
3- in order to determines the nature of document and whether is is sufficients stamped the court shall only look to the contents pf the document as it stand and not any collateral circumstance which may be placed by way of evidence. In other words for purpose of stamp duty, the intertion and the parties to be gathered only from the contents of the instrument not any outside material (But where the stamp duty depends on the market value, outside material can be considering in the manner provided in the relevant stamp law)
4- To find out of the true character an instrument for purpose of stamp duty the document should be read as a whole and the dominant purpose of the instrument should be indentified.
5- The instrument must be stamped according to its tenor though it can not be givan effect for some indendent cause.
6- The Revenue can not contend that the object of the transaction was to achive a purpose not disclosed in the document and therefore, the document should be stamped as per such deemed but undisclosed purpose similarly. the parties liable to pay stamp duty can not be contend that the purpose disclosed in the instrument is not the actual purpose and therefore, he is not liable to pay stamp duty on the apparent tenor of the instrument.
7- Once a document containing effective words of disposition is executed, it attracts stamp duty. The taxable event can not be postpond by contending that it was intended to come into effect a future date, on the happenings of a particular contingengy.

             न्याय दृष्टांत अविनाश कुमार चैहान विरूद्ध विजय कृष्ण मिश्रा (2009) 2 एस.सी.सी. 532 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 35 स्टाम्प अधिनियम में यह प्रावधान है कि यदि कोई लिखत सम्यक रूप से स्टाम्पित न हो तो वह साक्ष्य में किसी भी उददेश्य के लिए अग्राहय होती है और धारा 33 स्टाम्प अधिनियम साक्ष्य लेने के लिए अधिकृत प्रत्येक व्यक्ति पर एक कर्तव्य अधिरोपित करती है और लोक कार्यालय में कार्य करने वाले व्यक्ति का भी यह कर्तव्य है कि उसके सामने कोई ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत होता है तो सम्यक रूप  से स्टाम्पित नहीं है तो वह उस परिबद्ध करे जैसे की प्रक्रिया धारा 33 (2) स्टाम्प अधिनियम में दी गयी है।
        इस मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 49 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम में यह प्रावधान है कि धारा 17 के तहत जिन दस्तावेजों का रजिस्ट्रेशन आवश्यक होता है और वे रजिस्ट्रर्ड भी न हो तब भी उनका साक्ष्य में सम्पाश्र्विक प्रयोजन के लिए उपयोग किया जा सकता है लेकिन धारा 35 स्टाम्प अधिनियम में यह स्पष्ट प्रावधान है कि यदि दस्तावेज अपर्याप्त स्टाम्प पर हो या स्टाम्पित न हो तो उसे किसी भी उददेश्य से एडमिट नहीं किया जा सकता जब तक कि धारा 35 और धारा 33 स्टाम्प अधिनियम के प्रावधानों का पालन न किया जावे तब तक ऐसे दस्तावेज धारा 49 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम में बतलाये अनुसार सम्पाश्र्विक संव्यवहार के लिए भी उपयोग में नहीं लाया जा सकता।
        इस प्रकार यदि कोई दस्तावेज पंजीकृत या रजिस्टर्ड न हो और प्र्याप्त स्टाम्प पर भी न हो तब उसे जब तक उचित डयूटी पेनाल्टी देकर रिवेलीडेट न करवाया जाये तब तक उसे सम्पाश्र्विक प्रयोजन या सम्पाश्र्विक संव्यवहार के लिए भी उपयोग में नहीं ले सकते।
8. वाद प्रश्न:-
        इन मामलों में प्रायः निम्नलिखित वाद प्रश्न बनाये जाते हैं:-
    1.    क्या प्रतिवादी ने वादी से दिनांक 01.01.2013 को वादग्रस्त सम्पत्ति पांच लाख रूपये में विक्रय करने का अनुबंध किया और वादी के पक्ष में अनुबंध पत्र भी निष्पादित किया ?
    2.    क्या प्रतिवादी ने उक्त अनुबंध के अनुसार वादी के पक्ष में विक्रय पत्र निष्पादित करने से अवैध रूप से इंकार किया है ?
    3.    क्या वादी अनुबंध के अपने भाग का पालन करने के लिए सदैव तैयार तथा रजामंद या इच्छुक रहा है ?
        इन मामलों में वादप्रश्न क्रमांक 3 अवश्य बनाना चाहिए क्योंकि यह एक विधिक वादप्रश्न है और न्यायालय को इसके संबंध में निष्कर्ष देना आवश्यक होता है जैसा की धारा 16(सी) विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 से स्पष्ट है।
         न्याय दृष्टांत सीतादेवी सोनी विरूद्ध शरदकांत सोनी  आई.एल.आर 2012 एम.पी.2789 के अनुसार वादी के अनुबध पालन के बारे में तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में वादप्रश्न बनाना और उस पर निष्कर्ष देना एक वैधानिक आवश्यकता है और यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह इस बारे में वादप्रश्न बनावे और इस पर निष्कर्ष देवें यदि प्रतिवादी ने बचाव भी न लिया हो तब भी न्यायालय के लिए आज्ञापक है कि वह ऐसा वादप्रश्न बनावे और उस पर निष्कर्ष देवें। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सीताराम विरूद्ध हेमचंद 1998(1)एम.पी.एल.जे. 561 डी.बी. , सूरजसिंह विरूद्ध सोहनलाल ए.आई.आर. 1981 इलाहाबाद 330  भी अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत गौमाथी नामागम पिल्लै विरूद्ध पालानी स्वामी ए.आई.आर 1967 एस.सी. 868 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि तत्परता व इच्छा पर विचारण न्यायालय ने विशेष रूप से वादप्रश्न नहीं बनाया लेकिन पक्षकार एक दूसरे के मामले को जानते हैं, उन्होनें साक्ष्य भी पेश की उसको विचार में लिया गया वादप्रश्न बनाने का कोई प्रभाव नहीं माना गया।
9. प्रमाण भार:-
        वादी को अनुबंध के पालन के वाद में सफल होने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रमाणित करना होते हैं:-
    1’.    एक वैध विक्रय करार प्रतिवादी ने वादी के पक्ष में किया था             और उसकी शर्ते।
    2.    प्रतिवादी ने संविदा का भंग किया है।
    3.    वादी अनुबंध की शर्तो के उसके भाग का पालन करने के लिए         सदैव तत्पर और इच्छुक रहा है ।
        इस संबंध में न्याय दृष्टांत मानकुंवर मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध हरतारसिंह (2010) 10 एस.सी.सी. 512 अवलोकनीय है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहा मुख्तार को संव्यवहार का या वादी के अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहने के तथ्य का व्यक्तिगत ज्ञान न हो वहा यह वादी के स्थान पर कथन नहीं दे सकता है। इस मामले में यह भी बतलाया गया है कि वादी मूल स्वामी के स्थान पर मुख्तार कब कथन दे सकता है और इस संबंध में न्याय दृष्टांत जानकी वासुदेव भोजवानी विरूद्ध इंडुसिंड बैंक लिमि. (2005) 2 एस.सी.सी. 217 को भी विचार में लिया गया है जो कि मूलवादी के स्थान पर मुख्तार के कथन देने के बारे में है।
        न्याय दृष्टांत अम्मीलाल विरूद्ध कमलाबाई आई.एल.आर. 2010 एम.पी. 243  के अनुसार जहा अनुबंध के पालन के वाद में वाद का इस आधार पर प्रतिरोध किया जाता है कि अनुबंध एक ऋण संव्यवहार है, जहा विक्रय करार का निष्पादन स्वीकृत हो वहा धारा 91 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रकाश में ऋण संव्यवहार के बारे में मौखिक साक्ष्य को विचार में नहीं लिया जा सकता और उसके आधार पर अनुबंध की शर्तो के विपरीत कोई अनुमान नहीं निकाला जा सकता।
        इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहा कृषि भूमि के विक्रय का करार एक सहस्वामी ने किया हो और वह अन्य सहस्वामी के हित के विपरीत हो तब अनुबंध पालन नहीं करवाया जा सकता। मामले में वादी अनुबंध के अपने भाग के पालन के लिए तत्पर और तैयार भी नहीं रहा ऐसे मामले में अग्रिम दी गई राशि को वापस करने की डिक्री दी जा सकती है।
        न्याय दृष्टांत काली अन्ना गोडर विरूद्ध पालानी गोंडर ए.आई.आर 1970 एस.सी. 1942  तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में विक्रय संविदा में दो हजार रूपये अदा करने का उल्लेख था विक्रेता का पक्ष था कि उसे मात्र 350 रूपये अदा किये गये। शेष राशि नहीं दी । विक्रेता पर भारी प्रमाण भार है कि वह इस तथ्य को साबित करे। क्रेता को इस बारे में साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि लेख में रूपये की प्राप्ति अंकित थी।
10. वादी के तत्पर व इच्छुक होने के बारे में:-
        धारा 16 (सी) अधिनियम 1963 के अनुसार किसी अनुबंध का विनिर्दिष्ट पालन किसी व्यक्ति के पक्ष में तभी कराया जा सकता है वह ऐसे अभिवचन करें और उन्हें प्रमाणित करें कि संविदा के अत्यावश्यक शर्तो जो उसके द्वारा पालन किया जाने हैं का उसने पालन कर दिया है या उनका पालन करने के लिए वह सदैव तैयार और रजामंद रहा है।
        इस तरह इन मामलों में वादी के लिए अनुबंध के उसके भाग के पालन के लिए उसके तत्पर और रजामंद रहने के बारे में अभिवचन होना आवश्यक होते हैं और इन तथ्यो को उसे प्रमाणित भी करना होता है। तभी उसके पक्ष में अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री दी जा सकती है। इस बारे में वैधानिक स्थिति निम्न प्रकार हैं:-
        न्याय दृष्टांत जे.सेम्युअल विरूद्ध गटटू महेश (2012) 2 एस.सी.सी. 300 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में जब तक वादी के ऐसे विनिर्दिष्ट अभिवचन न हो कि उसने अनुबंध के उसके भाग का पालन कर दिया है या वह अनुबंध के उसके भाग के पालन के लिए सदैव तत्पर और इच्छुक रहा है। वाद खारिज कर दिया जायेगा ऐसे अभिवचन के अभाव में वादी के पक्ष मे अनुबंध पालन की डिक्री नहीं दी जायेगी।
        इस मामलें में वादी ने विचारण प्रारंभ होने के बाद ऐसे अभिवचन जोड़ने के लिए संशोधन आवेदन दिया और टंकण त्रुटि हो जाना बतलाया इसे टंकण त्रुटि नहीं माना गया और संशोधन निरस्त किया गया।
        न्याय दृष्टांत राजकुमार विरूद्ध दीपेन्द्र कौर सेठी ए.आई.आर 2005 एस.सी.1592 के मामले में वाद स्थायी निषेधाज्ञा के लिए पेश किया गया था कि प्रतिवादी वादग्रस्त भूमि का विक्रय न करे वाद में संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का संशोधन समाविष्ट किया गया था। वादी की उपेक्षा के कारण उसके तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में आवश्यक अभिवचन नहीं किये जा सके थे, दूसरा संशोधन आवेदन पेश किया जो स्वीकार किया गया।
        न्याय दृष्टांत नरिन्दर जीतसिंह विरूद्ध नार्थ सटर एस्टेट प्रमोटर लिमिटेड ए.आई.आर 2012 एस.सी.2035  के अनुसार जहा वादी के तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में समवर्ती निष्कर्ष अभिलेख पर हो उन्हें केवल इस आधार पर अपास्त नहीं किया जा सकता कि वादी लगातार अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुर रहा है और उसके पास फंड भी उपलब्ध रहा है ऐसे विशिष्ट अभिवचन नहीं है।
        इस मामले में यह भी कहा गया कि वादी के तत्पर और इच्छुक रहने के बार में कोई स्टेट जैकेट फार्मूला नहीं है यह बिंदु मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पक्षकारों के आशय और आचारण के आधार पर तय किया जाना चाहिए। इस संबंध में न्याय दृष्टांत आर.सी.चंडोक विरूद्ध चुन्नीलाल सबरलाल (1970) 3 एस.सी.सी.140 भी अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत मानकंवर मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध हरतारसिंह (2010) 10 एस.सी.सी.512 के अनुसार वादी को न केवल अनुबंध व उसकी शर्ते प्रमाणित करना होती है बल्कि वादी के अनुबंध के पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहना भी प्रमाणित करना रहता है।
        न्याय दृष्टांत श्रीमती सुगनी विरूद्ध रामेश्वर दास ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 2172  के अनुसार वादी के अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में कोई शब्द आवश्यक नहीं होते हैं तत्परता और इच्छुक होने के अभिवचन के पीछे सिद्धांत यह है कि यह दर्शित हो कि वादी का आचरण निर्दोष है।
        न्याय दृष्टांत जे.पी.बिल्डर्स विरूद्ध ए.रामदास राव (2011) 1 एस.सी.सी. 42 के मामले मे यह प्रतिपादित किया गया है कि रेडीनेंस का संबंध आर्थिक क्षमता से है जबकि विलिंग नेस का संबंध वादी के अनुबंध पालन के संबंध में आचरण से है वादी को अनुबंध पालन के लिए लगातार तत्पर और इच्छुक रहना प्रमाणित करना होता है और यदि ऐसे अभिवचन और प्रमाण नहीं है तो न्यायालय वाद खारिज कर सकता है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सीतादेवी सोनी शरदकांत सोनी आई.एल.आर 2012 एम.पी. 2789 भी अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत ए.के.लक्ष्मीपति मृतक विरूद्ध रायसाहब पन्नालाल एस.लाहोटी चेरीटेबल ट्रस्ट ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 577  के अनुसार अनुबंध के पालन के वाद में वादी को यह प्रमाणित करना होता है कि वह अनुबंध की शर्तो की पूर्ति के लिए सदैव तत्पर और इच्छुक रहा है उसने संविदा को त्यागा नहीं है और उसका आशय संविदा को निष्पादन होने तक जीवित रखना है।
        न्याय दृष्टांत शंकरलाल विरूद्ध ताराचंद्र आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 824 के अनुसार वादी के तत्पर और इच्छुक होने के बारे में मौखिक साक्ष्य पेश की गई केवल दस्तावेजी साक्ष्य का अभाव होने से यह अनुमान नहीं निकाला जा सकता कि वादी अनुबंध के उसके भाग के पालन के  लिए तत्पर और इच्छुक नहीं था।
        न्याय दृष्टांत एच.पी.प्यारे जान विरूद्ध दासप्पा मृत द्वारा वैध प्रतिनिधि (2006) 2 एस.सी.सी. 496 के मामले में वादी के वादी के अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में अभिवचन करने और उसे प्रमाणित करने की आवश्कयता धारा 16 सी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के प्रकाश में बतलाई गयी है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत ए. योहानन विरूद्ध रामलता (2005) 7 एस.सी.सी. 534 भी अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत बालकृष्ण विरूद्ध भगवान दास ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1786 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि वादी के अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहने के बारे में अभिवचन करना आज्ञापक है। अनुबंध पालन का अनुतोष साम्या और विवेकाधिकार पर आधारित है जिसमें मामले की सभी सुसंगत परिस्थितियों को विचार में लिया जाना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत देवल साहब मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध इब्राहिम साहब (2005) 3 एस.सी.सी. 342 के अनुसार अनुबंध के पालन का अनुतोष देते समय विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी पक्ष के लिए अऋजु या अनफेयर या असाम्यापूर्ण नहीं होना चाहिए। प्रतिवादी क्रमांक 1 ने प्रतिवादी क्रमांक 2 से दुरभिसंधि करके वादी के क्लेम को डिफिट करना चाहा और एक दुरभिसंधि समझौते के आधार डिक्री प्राप्त की वादी को अनुबंध पालन के लिए अधिकारी पाया गया।
        न्याय दृष्टांत उमराव बाई विरूद्ध नीलकंठ डी.चैहान (2005) 6 एस.सी.सी. 243  में विभिन्न न्याय दृष्टांतों के माध्यम से वादी के अनुबंध पालन के लिए तत्पर और इच्छुक रहने के प्रमाण के बारे में प्रकाश डाला गया है।
        न्याय दृष्टांत सत्य जैन मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध अनीश अहमद रूसदी द्वारा वैध प्रतिनिधि ए.आई.आर. 2013 एस.सी.434 के मामले में विक्रय अनुबंध के करार में विक्रेता का स्वयं के व्यय पर आयकर क्लीरयेंस प्रमाण पत्र लेना था अनुबंध में यह शर्त थी कि क्रेता आयकर प्राधिकारी गण को ऐसे प्रमाण पत्र जारी करने के लिए किसी राशि की आवश्यकता होगी तो देगा क्रेता ऐसी राशि सीधे आयकर प्राधिकारीगण को देने के लिए तत्पर और इच्छुक  था लेकिन उसने विक्रेता को ऐसी राशि देने से मना कर दिया इसे क्रेता की चूक नहीं माना जायेगा वह डिक्री पाने का अधिकारी है यह प्रतिपादित किया गया।
        न्याय दृष्टांत प्रमोद बिल्डिंगस् विरूद्ध सांता चोपड़ा ए.आई.आर 2011 एस.सी. 1424  के अनुसार अनुबंध पालन के वाद में वादी तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक वह यह प्रमाणित न करें कि वह अनुबंध पालन के लिए सदैव तत्पर और इच्छुक रहा है। वादी विक्रय के समय 34 लाख रूपये की राशि देने के लिए तैयार नहीं था वह यह दावा नहीं कर सकता कि वह अनुबंध पालन के लिए तत्पर और तैयार रहा है।
11. विवेकाधिकार के बारे में:-
        अनुबंध के पालन की सहायता न्यायालय के विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है केवल ऐसा करना विधि पूर्ण होगा इस कारण यह अनुतोष नहीं दिलाया जा सकता न्यायालय को अपने विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायिक रीति से करना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत सीटाडेल फाईन फार्मा सूटीकल विरूद्ध रामानियम रियल इस्टेट प्राईवेट लिमिटेड ए.आई.आर 2011 एस.सी. 3351 के अनुसार अनुबंध के पालन का अनुतोष एक विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है और जो पक्ष ऐसा अनुतोष चाहता है उसे स्वच्छ हाथों से न्यायालय में आना चाहिए और सारे आवश्यक तथ्यों को बतलाना चाहिए। वादी ने ये तात्विक तथ्य छिपाये कि प्रतिवादी ने उसे 10 लाख रूपये का चैक रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजा था जो उसने लेने से इंकार कर दिया था और ऐसे तथ्यों को छिपाते हुए उसने अग्रिम 10 लाख रूपये 24 प्रतिशत ब्याज सहित क्लेम किए न्यायालय ने वाद निरस्त किया।
        न्याय दृष्टांत लार्ड मेरी डेविड विरूद्ध लुईस चिनाम्मा आरोग्य स्वामी ए.आई.आर 1996 एस.सी. 2814   के अनुसार वह व्यक्ति जो स्वच्छ हाथों से न्यायालय में नहीं आता है उसे विक्रय करार के पालन का अनुतोष नहीं दिलाया जा सकता।
        न्याय दृष्टांत सागरमल विरूद्ध श्री गुजराती बीडी 2011 (2) एम.पी.एल.जे. 626 डी.बी. के अनुसार अनुबंध के पालन का अनुतोष न्यायालय के विवेकाधिकार पर आधारित होता है न्यायालय ऐसा अनुतोष देने के लिए मात्र इस कारण बाध्य नहीं होते कि ऐसा करना विधिपूर्ण होगा। विवेकाधिकार युक्तियुक्त सुदृढ होना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत लक्ष्मण तात्यावा काकटे विरूद्ध तारामणि हरीशचंद्र धात्रक ए.आई.आर 2010 एस.सी. 3025  के अनुसार न्यायालय अपने विवेकाधिकार का प्रयोग वादी के पक्ष में उस समय नहीं करेगें जब संविदा समान और ऋजु या फेयर न हो चाहे संविदा शून्य न हो तब भी ऐसी संविदा को लेकर वादी के पक्ष में विवेकाधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत पारा कुन्नन वीट्टील जोसेफ विरूद्ध नेदुमबारा  ए.आई.आर 1987 एस.सी. 2328 के अनुसार विक्रय करार के पालन के वाद में यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह यह देखे कि वादी को अनफेयर एडवांटेज न मिले और लिटिगेशन विपक्षी को परेशान करने का हथियार न बने।
        न्याय दृष्टांत अजहर सुल्ताना विरूद्ध बी.राजामणि ए.आई.आर 2009 एस.सी. 2157 के अनुसार न्यायालय विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय यह तथ्य भी विचार में ले सकता है कि वाद युक्तियुक्त समय के भीतर पेश किया गया है या नहीं। युक्तियुक्त समय क्या है यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है।
        इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि न केवल मूल विक्रेता बल्कि पश्चातवर्ती क्रेता भी आपत्ति ले सकता है कि वादी अनुबंध पालन के लिए सदैव तत्पर और तैयार नहीं रहा है।
        लेकिन न्याय दृष्टांत डा जीवन लाल विरूद्ध ब्रजमोहन मेहरा ए.आई.आर. 1973 एस.सी.559 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि यदि वादी के अपना क्लेम लाने से अन्य पक्ष को वाद के कारण प्रिजूडिस की संभावना न हो तो वाद केवल बिलंब के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता।
        धारा 53-ए सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की सुरक्षा वह प्रस्तावित क्रेता नहीं पा सकता जो अनुबंध के उसके भाग के पालन के लिए तत्पर और तैयार न रहा हो। इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुभाष चंद्र विरूद्ध श्रीमती मंजुल 2004 (3) एम.पी.एच.टी. 159, मोहन लाल विरूद्ध मिर्जा अब्दुल गफ्फार ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 910, रामकुमार अग्रवाल विरूद्ध थावर दास ए.आई.आर 1999 एस.सी. 3248 अवलोकनीय है।
12. अतिरिक्त राशि देने का आदेश:-
        न्यायालय अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते समय अनुबंध के पालन के वाद में अनुतोष देते समय या अनुतोष से इंकार करते समय कोई भी युक्तियुक्त शर्त लगा सकते हैं जिसमें एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को अतिरिक्त राशि देने का निर्देश भी दिया जा सकता है।
        न्याय दृष्टांत प्रताप लक्ष्मण मूछन्दी विरूद्ध श्यामलाल उद्धव दास बाधवा ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 1378 के अनुसार अनुबंध पालन की डिक्री विवेकाधिकार पर आधारित है विवाद लगभग 25 वर्ष तक चला इस बीच वादग्रस्त सम्पत्ति की कीमत काफी बढ गई न्यायालय ने क्रेता को बढी हुई कीमत अदा करने के निर्देश दिये इस मामले में तृतीय पक्ष सम्पत्ति के आधिपत्य में था उसे भी यह निर्देश दिये कि वह सम्पत्ति का कब्जा क्रेता को सौंप दे ताकि लिटिगेशन का दूसरा राउंड न चलाना पड़े।
13. प्रतिफल का कम होना:-
        केवल प्रतिफल का कम होना धारा 20 की उपधारा 2 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के प्रकाश में अनफेयर एडवांटेज नहीं माना जा सकता इस संबंध में न्याय दृष्टांत पी.डिसूजा विरूद्ध एस.नायडू (2004) 6 एस.सी.सी. 649 अवलोकनीय है।
14. कीमतों का बढ जाना और हार्डशिप:-
        कभी कभी प्रतिवादी यह बचाव भी लेता है कि सम्पत्ति की कीमतें काफी बढ चुकी थी तब यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्पत्ति की कीमतें बढ जाना अपने आप में अनुबंध के विनिर्दिष्ट पालन से इंकार का आधार नहीं बनाया जा सकता विशेषकर जहा प्रतिवादी ने उसे अनुबंध पालन से कष्ट या हार्डशिप होने के बारे में कोई अभिवचन न किये हो और न ही कोई प्रमाण दिया गया हो कि अनुबंध का पालन करवाया जाना असाम्य पूर्ण होगा।    
        न्याय दृष्टांत काशीराम विरूद्ध ओमप्रकाश ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2150 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुंबंध पालन की डिक्री स्वतः नहीं दी जा सकती। विवेकाधिकार का प्रयोग साम्य, न्याय व शुद्ध अंतकरण सिद्धांतों के आधार पर करना चाहिए सम्पत्ति का मूल्य बढ जाना विनिर्दिष्ट पालन से इंकार का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।
        न्याय दृष्टांत नरिंदर जीतसिंह विरूद्ध नार्थ स्टार एस्टेट प्रमोटर लिमि. ए.आई.आर 2012 एस.सी. 2035  के अनुसार अनुबंध के पालन के अनुतोष में केवल मूल्य वृद्धि के आधार पर इंकार नहीं किया जा सकता विशेषकर जब विक्रेता ने हार्डशिप के बारे में न तो अभिवचन किये हो और न ही यह दर्शाने के लिए गवाही दी हो कि अनुबंध पालन करवाना असाम्यपूर्ण होगा।
        न्याय दृष्टांत प्रकाश चंद्र विरूद्ध नारायण ए.आई.आर 2012 एस.सी. 2826 के अनुसार जहा प्रतिवादी ने उसके साथ अनुबंध पालन से कष्ट होने के बारे में कोई बचाव न लिया हो और न इस बारे में कोई वादप्रश्न बनाया गया हो तब हार्डशिप के आधार पर अनुबंध पालन का अनुतोष दिलाने से इंकार करना न्यायसंगत नहीं माना गया क्योंकि यह एक तथ्य का प्रश्न है जिस पर वाद पद और साक्ष्य के बिना ऐसे अनुतोष से इंकार करना उचित नहीं माना गया।
        न्याय दृष्टांत विमलेश्वर नागप्पा सेठ विरूद्ध नूर अहमद शेरीफ ए.आई.आर 2011 एस.सी. 2057 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि अनुबंध के पालन की सहायता एक विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है वाद लंबे समय बाद प्रस्तुत किया गया शहरी क्षेत्रों में सम्पत्ति की कीमतें तेजी से बढती हैऐसे में ऐसी सहायता देना साम्यपूर्ण नहीं होगा यह प्रतिपादित किया गया।
        न्याय दृष्टांत काम्मना सम्भामूर्ति विरूद्ध कालीपतन अच्चूतम्मा ए.आई.आर 2011 एस.सी. 103 के मामले में मृतक विक्रेता की 10 लड़किया मकान में रहती थी उन्हें अनुबंध पालन से हार्डशिप होगी ऐसे तर्को को नहीं माना गया। मामले में पति ने सम्पत्ति का विक्रय करार किया था सम्पत्ति में पत्नि का भी आधा हिस्सा था। पत्नि ने अनुबंध निष्पादित नहीं किया था। पत्नि ने पति को अनुबंध करने के लिए कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष अधिकार दिये थे  ऐसी साक्ष्य भी नहीं थी क्रेता सम्पत्ति में पत्नि के आधे हिस्से के बारे में अनुबंध पालन नहीं करवा सकता लेकिन शेष आधे हिस्से के बारे में अनुबंध पालन करवाने में कोई रोक नहीं है यह प्रतिपादित किया गया।
        न्याय दृष्टांत श्रीमती शहरयार बानो विरूद्ध साबल दास ए.आई.आर 1976 एस.सी. 2073 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ के मामले में मकान के विक्रय का अनुबंध हुआ था केवल विक्रेता के अधिभोग का हिस्सा बेचना तय हुआ था किरायेदार के अधिभोग का भाग शामिल नहीं था किरायेदार के अधिभोग के भाग के संबंध में क्रेता का क्लेम असफल होगा केवल ’’ पूरा मकान’’ शब्द का प्रयोग अतात्विक है जहा क्रेता जानता था कि किरायेदार का भाग अलग है।
        न्याय दृष्टांत बी.मुथ्थू स्वामी विरूद्ध अनंग मल ए.आई.आर 2002 एस.सी. 1279  के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह एक  विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है अतः न्यायालय को तुलनात्मक कष्ट या हार्डशिप देखना चाहिए।
15. अनुबंध पालन के वाद में पक्षकार जोड़ना:-
        न्याय दृष्टांत बिदुर इम्पलेक्स एंड टेडर्स  प्रा0 लिमि0 विरूद्ध तोष अपार्टमेंट प्राई0 लिमि0 ए.आई.आर 2012 एस.सी. 2925  के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के 9 न्याय दृष्टांतों पर विचार करते हुए आदेश 1 नियम 10 सी.पी.सी. के तहत प्रस्तुत आवेदन के निराकरण में ध्यान रखे जाने योग्य सिद्धांत बतलाये जो इस प्रकार हैं:-
1- The court can, at any stage of the proceedings either on an application made by the parties or otherwise direct impleadment of any person as party who ought to have been joined as plaintiff of defendant or whose presence before the court is necessary for effective and complete adjudication of the issuses involved in the suit.
2- A necessary party is the person who ought to be joined as party to the suit and in whose absence an effective decree can not by passed by court.
3- A proper party is a person whose presence would enable the court to completely effective and properly adjudicate upon all matter and issues though he may not be a person in favour of or against whom a decree is to by made.
4- If a person is not found to be a proper of necessary the court does not have the jurisdiction to order his inpleament against the wishes of the plaintiff.
5- In a suit for specific performance the court can order inpleament of a purchaser whose conduct is above board and who files application for being joined as party within reasonable time of his acquiring knowledge about the pending litigation.
6- However if the applicant is guilty of contumacious conduct is beneficiary of a clandestine transaction or a transaction made by the owner of the suit property in violation of the restrainst order passed by the court or the application is unduly delayed then the court will be fully justified in declining the prayer for impleadment.

              न्याय दृष्टांत शकुन्तला देवी विरूद्ध शिवपुरी सहकारी भूमि विकास बैंक मर्यादित 2009 (1) एम.पी.एल.जे. 467 के अनुसार वाद लंबन का सिद्धांत किसी पक्षकार को वादग्रस्त सम्पत्ति के बारे में कोई भी संव्यवहार करने से निषेधित करता है और वाद लंबन के दौरान यदि कोई ऐसी सम्पत्ति ली जाती है तो अंतरीति ऐसे वाद में अंततः पारित आज्ञप्ति से बाध्य होता है।
        इस मामले में यह भी कहा गया है कि किसी अनुप्रमाणिक साक्षी के बारे में ऐसी उपधारणा नहीं की जा सकती कि वह दस्तावेज के तथ्यों से  अवगत है या उन्हें जानता है।
        न्याय दृष्टांत संजय वर्मा विरूद्ध माणिक राय ए.आई.आर 2007 एस.सी. 1332  के अनुसार न्यायालय की अनुमति के बिना अनुबंध के पालन के वाद के लंबित रहने के दौरान प्रतिवादी ने सम्पत्ति विक्रय कर दी अंतरीति वाद लंबन सिद्धांत के प्रकाश में पक्षकार के रूप में जोड़े जाने का दावा नहीं कर सकता है।
        न्याय दृष्टांत कस्तूरी विरूद्ध इय्याम पेरूमल (2005) 6 एस.सी.सी. 733 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया कि अनुबंध पालन के वाद में संविदा करने वाले विक्रेता के विरूद्ध दावा करने वाला व्यक्ति आवश्यक पक्षकार नहीं होता है।
16. द्विपक्षीय संविदा:-
        सभी विक्रय करार द्विपक्षीय संविदाए होती है लेकिन उन पर दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षर आवश्यक नहीं होते हैं केवल विक्रेता के हस्ताक्षर होते है ऐसा अनुबंध वैध और प्रवर्तनीय होता है। अनुबंध तैयार करने वाले ने ऐसा फार्मेट तैयार किया था जिसमें क्रेता और विक्रेता दोनों के हस्ताक्षर का आशय था लेकिन पक्षकारों का आशय यह था कि दस्तावेज विक्रेता को निष्पादित करना था विक्रेता ने अनुबंध निष्पादित किया इसे वैध संविदा माना गया। इस संबंध में न्याय दृष्टांत आलोक विरूद्ध परमात्मा देवी ए.आई.आर. 2009 एस.सी.1527 अवलोकनीय है।
17. आधिपत्य न मांगने पर:-
        यदि वादग्रस्त सम्पत्ति पर वादी का आधिपत्य न हो तो निष्पादन न्यायालय भी वादी को आधिपत्य दिलवा सकती है चाहे डिक्री आधिपत्य के बिंदु पर मौन हो क्योंकि अनुबंध के पालन की सहायता में आधिपत्य की सहायता शामिल होती है चाहे उसे विशेष रूप से न मांगा गया हो इस संबंध में न्याय दृष्टांत संुदरलाल विरूद्ध गोपालशरण 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 330, बाबूलाल विरूद्ध मेसर्स हजारीलाल किशोरीलाल (1982) 1 एस.सी.सी. 525, बाटा शू कंपनी विरूद्ध प्रीतम दास 1983 जे.एल.जे. 422, दादूलाल विरूद्ध देवकुमार 1983 जे.एल.जे. 234: ए.आई.आर 1963 एम.पी. 186, ब्रजमोहन विरूद्ध चंद्रभागाबाई ए.आई.आर 1948 नागपुर 406 , मोहम्मद याकूब विरूद्ध अब्दुल रौफ 2002 (1) एम.पी.एच.टी. 216, श्रीकृष्ण गुप्ता विरूद्ध सीताराम एम.निगम 1997 (2) एम.पी.एल.जे. 501, गोबर्धन सिंह विरूद्ध अब्दुल्ला जी 2005 (2) जे.एल.जे. 135 अवलोकनीय है।
18. जहा संविदा की शर्ते अनिश्चित हो:-
        न्याय दृष्टांत संभाजीराव विरूद्ध विमलेश कुमारी कुलश्रेष्ठ 2003 (3) एम.पी.एल.जे. 76 एवं मायावती विरूद्ध कौशल्या देवी (1990) 3 एस.सी.सी. 1  के अनुसार जहा संविदा की शर्ते अनिश्चित हो वहा उसका विनिर्दिष्ट पालन नहीं कराया जा सकता।
19. सक्षम अधिकारी की अनुमति बगैरह:-
        न्याय दृष्टांत निर्मला आंनद विरूद्ध एडवेंट कारर्पोरेशन प्रा0 लिमि0 (2002) 5 एस.सी.सी. 481  के अनुसार अनुबंध का पालन केवल ऐसे अवरोधों के कारण इंकार नहीं किया जा सकता कि विक्रेता को सक्षम प्राधिकारी की अनुमति या सहमति लेना है जब तक कि ऐसी अनुमति के लिए आवेदन न किया गया हो और ऐसा आवेदन अंतिम रूप से अस्वीकृत न कर दिया गया हो और संविदा धारा 56 भारतीय संविदा अधिनियम के प्रकाश में असंभव न हो गई हो।
20. कब अनुबंध पालन के स्थान पर क्षतिपूर्ति:-
        इस मामलों में एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कब अनुबंध पालन के स्थान पर प्रतिकर या क्षतिपूर्ति दिलायी जाये।
        कभी कभी ऐसी स्थिति बनती है कि वादी अपना मामला प्रमाणित कर देता है लेकिन न्यायालय की राय में अनुबंध पालन मामले के तथ्यों और परिस्थतियों में उचित नहीं होता है वहा वह तथ्य परिस्थितिया और कारण लिखते हुए अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए अनुबंध पालन के स्थान पर प्रतिकर दिलवा सकते हैं।
        न्याय दृष्टांत उक्त मानकुंवर मृतक द्वारा वैध प्रतिनिधि विरूद्ध हरतार सिंह (2010) 10 एस.सी.सी 512  के अनुसार जहा अनुबंध में यह प्रावधान हो कि अनुबंध के भंग होने पर अनुबंध पालन की बजाय राशि भंग करने वाला पक्षकार अदा करेगा तब अनुबंध पालन परिमिसिबल नहीं भी हो सकता है।
        न्याय दृष्टांत काशीराम विरूद्ध ओमप्रकाश ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2150 में यह प्रतिपादित किया गया कि जहा क्रेता ने स्वयं ने विकल्प में क्षतिपूर्ति मांगी हो वहा विनिर्दिष्ट पालन असाम्य पूर्ण व अयुक्तियुक्त होगा।
        न्याय दृष्टांत शमसू सुराहा बेबी विरूद्ध जे.एलेक्स (2004) 8 एस.सी.सी. 569 में धारा 21 विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के प्रावधानों पर विचार करते हुए यह प्रतिपादित किया गया कि न्यायालय उचित मामलों में अनुतोष पालन के स्थान पर प्रतिकर देने के निर्देश दे सकते हैं। प्रतिकर तय करते समय धारा 73 भारतीय संविदा अधिनियम के प्रावधानों को ध्यान में रखना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत पी0सी0 वर्गीस विरूद्ध देवकी अम्मा ए.आई.आर  2006 एस.सी. 145  के अनुसार यदि अग्रिम जमा या अरनेस्ट अमाण्उट  और क्षतिपूर्ति का वैकल्पिक अभिवचन वादी ने किया है मात्र इस कारण वाद अनुबंध पालन की डिक्री के अयोग्य नहीं हो जाता है।
        न्याय दृष्टांत जगदीशसिंह विरूद्ध नत्थूसिह ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 1604  के अनुसार जहा संविदा का पालन भूमि के अधिग्रहण के कारण असंभव हो गया हो वहा  प्रतिकर दिलवाना चाहिए।
        इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि वादी ने संविदा के पालन के साथ या उसके अतिरिक्त प्रतिकर के लिए संशोधन आवेदन पेश किया ऐसा आवेदन स्वीकार करना चाहिए।
21. अतिक्रामक के विरूद्ध वाद:-
        जिस व्यक्ति के पक्ष में अनुबंध विक्रय होता है वह अतिक्रामक के विरूद्ध आधिपत्य वापस लाने का वाद ला सकता है क्योंकि अतिक्रामक से अनुबंध के पालन के अनुतोष का कोई संबंध नहीं होता है अतः ऐसा वाद चलने योग्य पाया गया इस संबंध में न्याय दृष्टांत रमेश विरूद्ध अनिल पंजवानी ए.आई.आर 2003 एस.सी. 2508 अवलोकनीय है।
        न्याय दृष्टांत शंकरा वेंकटराव विरूद्ध के.वेंकटराव (2005) 11 एस.सी.सी. 436 के मामले में वादी ने अनुबंध पालन के स्थान पर केवल निषेधाज्ञा का वाद पेश किया विचारण न्यायालय ने वाद आज्ञप्त किया और ये डिक्री दी कि वादी को वैधानिक प्रक्रिया अपनाये बिना आधिपत्य विहीन न किया जाये उच्च न्यायालय ने डिक्री द्वितीय अपील में इस आधार पर निरस्त की वादी ने अनुबंध पालन की सहायता मांगे बिना केवल निषेधाज्ञा का वाद पेश किया थ जो चलने योग्य नहीं है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह मत दिया कि वादी वादग्रस्त सम्पत्ति के आधिपत्य में है अन्य प्रश्नों को विचार के लिए खुला रखते हुए अपील निराकृत की गयी और यह प्रतिपादित किया कि वादी को वैध प्रक्रिया अपनाये बिना आधिपत्य विहीन न किया जाये।
        लेकिन विक्रय अनुबंध का वाद कारण उत्पन्न होने के बाद भी वादी यदि उसका अनुतोष न मांगकर केवल स्थाई निषेधाज्ञा का वाद पेश करता है तो उसे ऐसा विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष नहीं देना चाहिए क्योंकि वादी स्वच्छ हाथों से अपना पूरा मामला लेकर नही आया है।
22. डिक्री का स्वरूप:-
        इन मामलों में निर्णय के क्रियाशील भाग में और डिक्री में निम्न प्रकार के स्पष्ट निर्देश देना चाहिए:-
        ’’ प्रतिवादी वादी के पक्ष में वादग्रस्त सम्पत्ति (सम्पत्ति का पूरा विवरण देना चाहिए) का विक्रय पत्र निष्पादित करे और यह यदि प्रतिवादी ऐसा नहीं करता है तो वादी न्यायालय के माध्यम से विक्रय पत्र का निष्पादन करवा सकेगा। ’’
        यदि प्रतिवादी द्वारा युक्तियुक्त समय के भीतर या निष्पादन का सूचना पत्र मिलने के बाद भी विक्रय पत्र का निष्पादन नहीं करवाया जाता तब न्यायालय को विक्रय पत्र का प्रारूप तैयार करवाकर  और उसे डिक्रीधारी को दिखलाना चाहिए या डिक्रीधारी से भी एक प्रारूप लिया जा सकता है और फिर एक पत्र बनाकर विक्रय पत्र बनाकर निष्पादन के लिए रजिस्ट्रार को भेजना चाहिए जिसमें न्यायालय की ओर से प्रस्तुतकार या न्यायालय द्वारा अधिकृत कर्मचारी हस्ताक्षर करता है विक्रय पत्र का खर्च अर्थात् स्टाम्प शुल्क बगैरह डिक्रीधारी/वादी वहन करता है।
23. विक्रेता एवं प्रस्तावित क्रेता को पक्षकार बनाना:-
        वर्तमान में जमीनों की कीमत बढ जाने के कारण विक्रेता एक व्यक्ति के साथ विक्रय अनुबध करता है और अनुबंध का भंग करके सम्पत्ति किसी अन्य को विक्रय कर देता है। जब प्रस्तावित क्रेता को यह तथ्य पता लगता है तब वह विक्रेता के विरूद्ध अनुबंध पालन का वाद लाता है। ऐसे मामलों मे वादी अर्थात् प्रस्तावित क्रेता को कथित विक्रेता और जिसमे पक्ष में उसने विक्रय पत्र निष्पादित कर दिया है उस व्यक्ति को भी पक्षकार बनाना चाहिए और न्यायालय को विक्रेता और कथित विक्रय पत्र जिस व्यक्ति के पक्ष में किया गया है दोनों को उचित मामलों में वादी के पक्ष में विक्रय पत्र निष्पादित करने के निर्देश देना चाहिए क्योंकि स्वत्व उस क्रेता के पास होते हैं।
24. ग्राहयता संबंधी आपत्ति का समय व न्यायालय का कर्तव्य:-
        किसी भी दस्तावेज के साक्ष्य में ग्राहय होने या न होने के बारे में आपत्ति का उचित समय तब आता है जब उसे साक्ष्य में निविदा या टेंडर या प्रदर्शित करने हेतु प्रस्तुत किया जाता है या उसकी शर्तो के बारे में प्रश्न किये जाते हैं। न्यायालय को सावधान रहना चाहिए और यह देखना चाहिए कि कोई प्रश्न ग्रहण न करने योग्य साक्ष्य ग्राहय न कर ली जाये।
        वैसे न्यायालय को प्रांरभ में ही संबंधित पक्ष को सचेत कर देना चाहिए ताकि वह दस्तावेज को स्टाम्प कलेक्टर के यहा से रीवेलीडेट करवाना चाहे तो कार्यवाही प्रारंभ कर सकता है। ऐसा करने से साक्ष्य के समय अनावश्यक रूकावट नहीं आती है। वर्तमान में कुछ न्यायालय कमिश्नर के माध्यम से साक्ष्य लेखबद्ध करवाते है अतः प्रांरभ से ही दस्तावेज न्यायालय देख ले तो अधिक उचित रहता है।
25. उपसंहार:-
        इस प्रकार अनुबंध के पालन का वाद पेश होने पर उक्तानुसार वादप्रश्न विरचित करना चाहिए । वादी के अनुबंध के अपने भाग के पालन के लिए सदैव तत्पर और इच्छुक रहने के बिंदु पर अभिमत देना चाहिए और इस संबंध में वादप्रश्न बनाना न्यायालय का कर्तव्य है। यदि 14 जनवरी 2010 के बाद का विक्रय करार हो और पंजीकृत या रजिस्टर्ड न हो तो उसे धारा 17-एफ रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के प्रकाश में साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जा सकता और धारा 49 रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 के अनुसार उसे सम्पाश्र्विक संव्यवहार के लिए उपयोग में ले सकते हैं जैसे आधिपत्य की प्रकृति। लेकिन मूल संविदा की शर्तो को प्रमाणित करने के लिए उपयोग में नहीं लिया जा सकता। यदि ऐसा अपंजीकृत दस्तावेज र्याप्त स्टाम्प पर भी न हो तब उसे आवश्यक डयूटी पेनाल्टी देने के बाद ही सम्पाश्र्विक प्रयोजन के लिए उपयोग में ले सकते है। अनुबंध के पालन का अनुतोष एक विवेकाधिकार पर आधारित अनुतोष है उचित मामलों में न्यायालय अनुबंध पालन के स्थान पर प्रतिकर भी दिलवा सकता है। उक्त वैधानिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ऐसे वादो का निराकरण करना चाहिए।

5 comments:

  1. बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी. आपके प्रयासों को सलाम

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  2. बहुत परिश्रम से तैयार किए गए आलेख के लिए आपको बधाई।

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  3. आप ने गागर में सागर भर कर हमें एक आसान और सस्ता कानुनी ज्ञान प्रदान किया है। धन्यवाद 🙏

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