Tuesday 27 May 2014

व्यवहार प्रकरणों में स्थगन आदेश 17 सी.पी.सी.

          व्यवहार प्रकरणों में स्थगन आदेश 17 सी.पी.सी.

        प्रायः व्यवहार प्रकरणों में स्थगन देना या न देना प्रत्येक न्यायाधीश के सामने प्रतिदिन एक महत्वपूर्ण प्रश्न होता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत मेसर्स शिव कोटेक्स विरूद्ध तिरगुन आटो प्लास्ट लि. 2011 ए.आई.आर एससीडब्ल्यू 5789 में स्थगन के बारे में यह प्रतिपादित किया है कि यदि स्थगनों को नियंत्रित नहीं किया गया तो देर सबेर पक्षकारों का न्यायदान की व्यवस्था से विश्वास उठ जायेगा। इसी तरह न्याय दृष्टांत विनोद सेठ विरूद्ध देवेन्द्र बजाज 2010 ए.आई.आर एस.सी.डब्ल्यू 4860 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल प्रक्रिया संहिता में असत्य दावों को रोकने के अनेक उपाय बतलाये हैं जिनमें आदेश 17 नियम 2 व 3 सी.पी.सी. को बिलंब कारित करने वाले पक्षकार के विरूद्ध कार्यवाही करने के एक उपाय के रूप में बतलाया है।
        आदेश 17 नियम 1 (1) सी.पी.सी. के अनुसार:-यदि वाद के किसी भी प्रक्रम में र्याप्त हेतुक दर्शित किया जाता है तो न्यायालय ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किये जायेगंे पक्षकारों या उनमें से किसी को भी समय दे सकेगा और वाद की सुनवाई को समय समय पर स्थगित कर सकेगा।
        परन्तु कोई ऐसा स्थगन वाद की सुनवाई के दौरान किसी भी पक्षकार को तीन बार से अधिक प्रदान नहीं किया जायेगा।
        वर्ष 2002 के सी.पी.सी. के संशोधन के द्वारा उक्त परन्तुक जोड़ा गया है जिसके बारे में उक्त न्याय दृष्टांत मेसर्स शिव काटेक्स में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा है कि जब न्यायसंगत कारण हो तभी तीन से अधिक स्थगन उचित होते हैं। न्यायसंगत कारण का अर्थ न केवल र्याप्त कारण से है बल्कि वह पक्षकार जो ऐसे स्थगन की प्रार्थना कर रहा है वह बाध्यताकारी आवश्यकता व न रोके जा सकने वाले कारण के अधीन होना चाहिए।
        इस तरह माननीय सर्वोच्च न्यायालय का तीन से अधिक स्थगन देने के बारे में स्पष्ट मत है कि ऐसे स्थगन तभी देना चाहिए जब स्थगन क लिए बतलाये गये कारण पक्षकार के नियंत्रण के बाहर के हो। इस मामले में यह भी कहा गया कि जहा बड़ी सम्पत्ति का मामला वहा पक्षकार को अधिक गंभीर रहना चाहिए। इस मामले में वादी का वाद साक्ष्य के अभाव में तीन स्थगन देने के बाद निरस्त किया गया था अपील में आदेश स्थिर रहा था ऐसे समवर्ती निष्कर्ष पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मात्र इस आधार पर हस्तक्षेप करना उचित नहीं माना कि बड़ी सम्पत्ति का मामला है और यह कहा कि ऐसी अनावश्यक सहानुभूति संरक्षित पक्षकार के लिए मजाक होती है।
        न्याय दृष्टांत सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया ए.आई.आर 2005 एससी 3353 में तीन न्यायमूर्ति गण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया कि तीन स्थगन का प्रावधान- जहा परिस्थितिया ऐसी हो जो पक्षकार के नियंत्रण के बाहर हो वहीं तीन से अधिक स्थगन दिये जा सकते हैं।
        न्याय दृष्टांत राजकुमार पटेल विरूद्ध शिवराज सिंह 2009 (2) एम.पी.एच.टी. 285 में माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि आदेश 17 नियम 1 सी.पी.सी. का परंतुक वैवेकीय है जिसमें तीन से अधिक स्थगन पर रोक है लेकिन इस प्रावधान को तीन से अधिक स्थगन देकर व्यर्थ या रिडन्डट नहीं कर देना चाहिए।
        इन न्याय दृष्टांतों से मार्गदर्शन ले तब भी यही स्पष्ट होता है कि रूटिन में कार्यवाही के लिए तीन बार से अधिक स्थगन देकर वर्ष 2002 के संशोधन के माध्यम से जोडे गये इस परंतुक को व्यर्थ या प्रभावही नहीं करना चाहिए बल्कि इसे प्रभावपूर्ण तरीके से लागू करने के प्रयास करना चाहिए।
1. अंतिम अवसर:-
        न्याय दृष्टांत रमेश विरूद्ध रामेश्वर ए.आई.आर 1987 एम.पी. 110 में माननीय मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि प्रमाण समाप्त करने से पूर्ण अंतिम अवसर देना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत ऋषिराज चैधरी विरूद्ध रामनाथ सिंगल 1996(1) डब्ल्यू एन 183  में यह प्रतिपादित किया गया है कि गवाहों के परीक्षण के लिए अंतिम अवसर दिये गये जिनका उपयोग नहीं किया गया आगामी स्थगन अस्वीकार करना अवैध नहीं है।
        इस तरह किसी भी पक्षकार के विरूद्ध कोई भी कठोर कदम उठाने से पहले उसे अंतिम अवसर संबंधित कार्यवाही के लिए प्रदान करके एक बार न्यायालय का आशय उसके ध्यान में लाना चाहिए। कई बार ऐसा देखा जाता है कि किसी कार्यवाही के प्रकरण कई बार बढाया जा चुका होता है और फिर अचानक एक दिन उस पक्षकार का अवसर समाप्त कर दिया जाता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत स्टैट बैंक आफ इंडिया विरूद्ध कुमारी चंदा गोविन्द जी 2000 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू 3967 महें यह प्रतिपादित किया गया है कि इस आधार पर स्थगन न देना कि पूर्व मे कई स्थगन दिये गये हैं उचित नहीं मान जा सकता। पूर्व के स्थगन युक्तियुक्त कारण से दिये गये है ऐसा माना जा सकता है।
        इस तरह कई बार अंतिम अवसर दे देने से संबंधित पक्ष भी सचेत हो जाता है। यह विधि का कोई नियम नहीं है कि अंतिम अवसर दिया ही जाये लेकिन किसी पक्ष के साथ अन्याय न हो इस दृष्टिगत रखते हुए कठोर कदम होने से पूर्व एक अंतिम अवसर देने की प्रणाली अपनायी जा सकती है।
2. अभिभाषक का उपलब्ध न होना:-
        कई बार कोई पक्ष इसलिये स्थगन चाहता है कि उसके अभिभाषक अन्य न्यायालय में व्यस्त होने, अस्वस्थ होने आदि के कारण उपलब्ध नहीं है।
        यद्यपि आदेश 17 नियम 1(2)(डी)सी.पी.सी. के अनुसार जहा प्लीडर की बीमारी या अन्य न्यायालय में उसके व्यस्त होने से भिन्न कारण से मुकदमे का संचालन करने में उसकी असमर्थता को स्थगन के लिए एक आधार के रूप में पेश किया जाता है वहा न्यायालय तब तक स्थगन मंजूर नहीं करेगा ज ब तक कि यह समाधान नहीं हो जाता कि ऐसे स्थगन के लिए आवेदन करने वाला पक्षकार समय पर दूसरा प्लीडर नियुक्त नहीं कर सकता था।
        प्रायोगिक रूप से उक्त दोनो प्रावधान लागू करने में यह कठिनाई होती है। कोई भी अभिभाषक एक बार  में एक नहीं न्यायालय मे उपस्थित हो सकता है एक दिन में उस पक्षकार के पास एक से अधिक न्यायालयों के प्रकरण होते हैं ऐसे महें किसी पक्षकार से उसी समय दूसरे अभिभाषक की व्यवस्था करने की अपेक्षा करना भी अव्यवहारिक हो सकता है साथ ही किसी भी स्थान पर कुछ अभिभाषक ऐसे होते हैं जिनके पास अधिक मात्रा में कार्य होता है साथ ही अपनी पसंद का अभिभाषक नियुक्त करना किसी व्यक्ति का संवैधानिक अधिकर भी होता है।
        माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत ठाकुर सुखपाल सिंह विरूद्ध ठाकुर कल्याण सिंह एआईआर 1963 एससी 146 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि जहा एक पक्षकार द्वारा नियुक्त अभिभाषक न्यायालय को संबोधित करने से पहले (अर्थात प्रकरण के संचालन से) इंकार कर देता है तब उस पक्षकार के लिए  संभव नही है कि उसी समय नया अभिभाषक नियुक्त करें ताकि वह उसी समय बहस कर सके। ऐसे में उस पक्षकार को स्वयं बहस करने का कहना उचित नहीं है इन परिस्थितियों में एक स्थगन देना चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार स्थगन देने से इंकार करने का आदेश वैवेकीय  होता है जिसमें सामान्यतः हस्तक्षेप नहीं किया जाता है।
        माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत बशीर अहमद विरूद्ध महमूद हसन खा एआईआर 1995 एससी 1857 के मामले में वादी के प्रतिपरीक्षण के लिए प्रकरण नियत था। अगले दिन के लिए प्रकरण नियत किया गया। रात्रि में प्रतिवादी के वकील बीमार हो गये। प्रतिवादी ने स्थगन चाहा न्यायालय ने स्थगन अस्वीकार किया और प्रतिवादी का प्रतिपरीक्षण का अधिकार भी समाप्त कर दिया इस आदेश को न्यायसंगत नहीं माना गया प्रतिवादी के लिए उस दिन नये अभिभाषक नियुक्त करना अव्यवहारिक या खतरनाक हो सकता था न्यायालय को आगामी तिथि के लिए प्रकरण स्थगित करना था ताकि प्रतिवादी अभिभाषक नियुक्त कर सके और उन्हें निर्देश दे सके।
        न्याय दृष्टांत एन.जी. दस्ताने विरूद्ध श्रीकात एस.शिवेद एआईआर 2001 एससी 2028 में तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ ने यह प्रतिपादित किया गया कि यदि एक अभिभाषक न्यायालय में उपस्थित गवाहों के परीक्षण करने में बार बार स्थगन मांगता है तो यह दुराचरण है धारा 35 अभिभाषक अधिनियम 1961 के प्रकाश में यह विधि प्रतिपादित की गई।
        इस तरह अभिभाषक के अस्वस्थ होने, अन्य न्यायालय में व्यस्त होने आदि के आधार पर स्थगन चाहा जाये तब एक उचित संतुलना बनाना चाहिए और जब वे अभिभाषक अन्य न्यायालय से निवृत्त हो जावे तब उसी दिन कार्यवाही पूर्ण करवाने का अधिकतम प्रयास करना चाहिए। न्यायालय समय के अतिरिक्त समय में भी या मध्यान्ह अवकाश में या अगले कार्यदिवस में सुविधा अनुसार ऐसा किया जा सकता है इससे अनावश्यक स्थगन मांगने वाले पक्षकार पर रोक लग सकती है और ऐसे पक्षकार की पहचान हो सकती है जो वास्तव में कार्य करना चाहते हैं या किसी न किसी प्रकार से स्थगन चाहते है। और ऐसे बिलंब कारित करने वाले पक्षकार पर न्यायालय वैधानिक कठोर कार्यवाही कर सकते हैं।
3. हड़ताल:-
        कभी कभी न्यायालय का कार्य अभिभाषकगण की हड़ताल, बहिष्कार या कार्य से विरत रहने आदि के कारण भी स्थगित होता है। इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टांत एक्स कैप्टन हरिश उप्पल विरूद्ध यूनियन आफ इंडिया एआईआर 2003 एससी 739 में पांच न्यायमूर्तिगण की पीठ ने प्रतिपादित किया है कि अभिभाषकगण को यह अधिकार नहीं है कि हड़ताल पर जाये या बहिष्कार करें । एक दिन के विरोध स्वरूप अनुपस्थिति को विरलतम परिस्थितियों में अनदेखा किया जा सकता है। न्यायालयो को ऐसे हड़ताल या बहिष्कार पर प्रकरण स्थगित नहीं करना चाहिए।
        न्याय दृष्टांत रोमन सर्विस प्रा0लि0 विरूद्ध सुभाष कपूर एआईआर 2001 एससी 207  में यह प्रतिपादित किया है कि अभिभाषकगण के हड़ताल पर होने के कारण प्रकरण स्थगित नहीं करना चाहिए। अभिभाषक के  हड़ताल के कारण अनुपस्थित रहने से पारित एकपक्षीय आज्ञप्ति का प्रतिकारात्मक खर्च लगाकर अपास्त किया गया और ये निर्देश दिये गये कि यदि पक्षकार चाहे तो ऐसे प्रतिकारात्मक खर्च को संबंधित अभिभाषक से वसूल कर सकता है।
        प्रायोगिक रूप से होता यह है कि ऐसी हड़ताल पर प्रकरण स्थगित कर दिये जाते है जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उचित नहीं माना है। किसी स्थान विशेष पर नियुक्त न्यायाधीशगण इस संबंध में विधिक और प्रायोगिक स्थिति पर विचार करके एक युक्तियुक्त कदम ऐसे अवसरों पर उठा सकते हैं। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत में अधिकांश मामले अशिक्षित या अल्पशिक्षित या न्यायालय की प्रक्रिया को कम समझने वाले लोगों के हैं जो अपनी ओर से एक अभिभाषक नियुक्त कर लेते हैं और उस पर यह विश्वास करते हैं कि वह कार्यवाही तत्परता से संचालित कर रहे होगे ऐसे में अचानक हड़ताल या बहिष्कार कर देने वाले अभिभाषक के कृत्य के लिए क्या पक्षकार को दंडित किया जाना उचित होगा यह भी ध्यान में रखना होगा।
4. प्रतिकारात्मक खर्च:-
        स्थगन देते समय प्रतिकारात्मक खर्च 35-बी सी0पी0सी0 के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए अधिरोपित की जा सकती है ताकि अनावश्यक स्थगन रोके जा सके और विपक्षी को होने वाली क्षति की पूर्ति भी कराई जा सके।
        न्याय दृष्टांत उक्त सलेम एडवोकेट बार एसोसियशन  में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि स्थगन के खर्चे या कास्ट व्यवहारिक होना चाहिए और विपक्षी को मिले यह भी ध्यान में रखना चाहिए।
        संशोधन आवेदन के निराकरण के समय प्रतिकारात्मक खर्च लगाते समय  न्याय दृष्टांत रेवा जीतू बिल्डर्स विरूद्ध नारायण स्वामी एआईआर 2009 एस.सी. (सप्लीमेंट) 2897 से मार्गदर्शन ले सकते हैं जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिकारात्मक खर्च अधिरोपित करने के उददेश्य बताये हैं जो इस प्रकार हैं:-
    1.    ऐसे संशोधन जो दुर्भावनापूर्वक विधिक कार्यवाही को बिलंबित करने के लिए पेश होते हैं उन्हें निरूत्साहित करना।
    2.    विरोधी पक्ष को बिलंब और उसे हुई असुविधा के लिए क्षतिपूर्ति दिलवाना।
    3.    संशोधन के प्रकाश में उसके विरोध स्वरूप कार्यवाही में लगने वाले खर्च दिलवाना
    4.    पक्षकारों को यह स्पष्ट संदेश देना कि वे उनके मूल अभिवचन तैयार करने मे सावधान रहे।
        इस तरह संशोधन आवेदन स्वीकार करते समय प्रतिकारात्मक खर्च अधिरोपित करने में उक्त उददेश्यों को ध्यान में रखना चाहिए।
         न्याय दृष्टांत मनोहरसिंह विरूद्ध डी0एस0शर्मा एआईआर 2010 एस0सी0 508 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 35-बी सी.पी.सी. के तहत लगाई गई कास्ट अदा नहीं की जाती है तब वाद खारिज नहीं किया जा सकता बल्कि वादी को आगामी अभियोजन से या आगामी कार्यवाही में भाग लेने से रोका जा सकता है और प्रतिवादी को उसके बचाव को अभियोजित करने से रोका जा सकता है। इस तरह न्यायालय को स्थगन देते समय न केवल उचित प्रतिकारातमक खर्च लगाना चाहिए बल्कि उसके न दिये जाने पर संबंधित पक्ष को आगामी कार्यवाही में भाग लेने से रोकना चाहिए। यह भी स्थगनों को रोकने का प्रभावी तरीका हो सकता है।
5. पर्याप्त साक्ष्य अभिलेख पर:-
         न्याय दृष्टांत बी0जे0चेटटी विरूद्ध ए0के0पार्थ सारथी एआईआर 2003 एससी 3527  में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा किसी सुनवाई के दिनांक पर अनुपस्थित पक्षकार उसका साक्ष्य या साक्ष्य का तात्विक भाग पेश कर चुका हो वहा उसकी अनुपस्थिति में भी न्यायालय ऐसे कार्यवाही कर सकता है। जैसे वह पक्षकार उपस्थित है लेकिन न्यायालय को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए और अपनी संतुष्टि अभिलिखित भी करना चाहिए कि अनुपस्थित पक्षकार या साक्ष्य का तात्विक भाग पेश कर चुका है इस मामले में यह भी कहा गया है कि आदेश 17 नियम 2 सीपीसी का स्पष्टीकरण आज्ञापक नहीं है।
        इस संबंध में  न्याय दृष्टांत महालक्ष्मी टेडर्स विरूद्ध सुदर्शन इंडस्टीज 2007 (2) एम पी एल जे 174  भी अवलोकनीय है जिस मामले में न्यायालय ने उक्त संतुष्टि अभिलिखित नहीं की थी जिसे उचित नहीं माना गया।
        इस तरह जहा अभिलेख पर प्र्याप्त साक्ष्य मौजूद हो वहा न्यायालय उक्तानुसार संतुष्टि अभिलिखित करके भी अग्रसर हो सकता है।
6. कब आदेश 17 नियम 2 और कब आदेश 17 नियम 3 सी.पी.सी.:-
         न्याय दृष्टांत प्रकाशचंद्र मनचंदा विरूद्ध श्रीमती जानकी मनचंदा एआईआर 1987 एससी 42  के मामले में सुनवाई के लिए नियत दिनांक पर प्रतिवादी अनुपस्थित थाप्रतिवादी को कोई साक्ष्य नहीं हुआ था ऐसे में आदेश 17 नियम 2 सीपीसी लागू होगी आदेश 17 नियम 3 सीपीसी लागू नहीं होगी और न्यायालय को आदेश 9 सीपीसी के तहत कार्यवाही करना थी  यह प्रतिपादित किया गया।
         न्याय दृष्टांत मोहनदास विरूद्ध घासीदास एआईआर 2002 एस.सी. 436 में वादी प्रमाण पर प्रकरण नियत था वादी ने एक आवेदन लिखित कथन में बेहतर कथन देने के लिए प्रस्तुत किया जो निरस्त हुआ। दूसरा आवेदन लिखित कथन में कुछ पैरा डिलिट करने के लिए दिया जो निरस्त हुआ एक आवेदन पुनरीक्षण लगाने के लिए स्थगन देने का दिया वह भी निरस्त हुआ न्यायालय ने आदेश 17 नियम 3 सीपीसी के तहत प्रकरण खारिज किया। इस मामले  यह कहा गया कि आदेश 17 नियम 2 सीपीसी लागू होगी क्योंकि वादी का प्रमाण नहीं हुआ है।
         न्याय दृष्टांत सेन्टल बैंक आफ इंडिया विरूद्ध मेसर्स अरेस्तन के मामले में वादी के अभिभाषक ने स्थगन चाहा था वाद साक्ष्य के अभाव में निरस्त किय गया इसे आदेश 17 नियम 2 सीपीसी के तहत खारिज किया गया। इस संबंध में  न्याय दृष्टांत स्टेट बैंक आफ इंडिया विरूद्ध नंदराम 1999 (1) एम पी एल  जे 719 एवं रामराव विरूद्ध शांतिबाई एम पी एल जे 364 पूर्णपीठ भी अवलोकनीय है।
7. सुनवाई की तिथि:-
        प्रकरण में केवल सुनवाई की तिथि पर ही वाद खारिज किया जा सकता है या प्रतिवादी के विरूद्ध एकपक्षीय कार्यवाही के आदेश दिये जा सकते हैं जैसा कि आदेश 9 नियम 3 सीपीसी आदेश 9 नियम 6 सीपीसी एवं आदेश 9 नियम 7 एवं आदेश 9 नियम 8 सीपीसी से स्पष्ट है यहा सुनवाई की तिथि शब्द का प्रयोग किया गया है।
         न्याय दृष्टांत संग्रामसिंह विरूद्ध इलेक्शन ट्रिब्यूनल एआईआर 1955 एससी 425 एवं अर्जुनसिंह विरूद्ध महेन्द्र कुमार एआईआर 1964 एससी 937 के मामलों में वादप्रश्न के स्थिरीकरण की तिथि को वाद की प्रथम सुनवाई तिथि बतलाया है जबकि आदेश 18 नियम 2 सीपीसी के अनुसार वाद की सुनवाई तिथि पर साक्ष्य अभिलिखित की जाती है या वह तिथि जिस दिन के लिए सुनवाई स्थगित की गई हो पक्षकार अपनी साक्ष्य आरंभ करेगें साथ ही आदेश 20 नियम 1 सीपीसी के अनुसार विचार करें तो अंतिम तर्क की तिथि भी सुनवाई की तिथि होती है। इस तरह सुनवाई की तिथि पर यदि वादी अनुपस्थित हो तो वाद खारिज किया जा सकता है या प्रतिवादी अनुपस्थित हो तो उसके विरूद्ध एकपक्षीय कार्यवाही करने के आदेश दिये जा सकते हैं।
        यदि मामला किसी आवेदन की सुनवाई के लिए नियत हो और कोई पक्ष अनुपस्थित हो तब वाद खारिज करने या प्रतिवादी के विरूद्ध एकपक्षीय कार्यवाही करने के बजाय उस आवेदन को निराकृत करना चाहिए तथा अगले प्रक्रम के लिए प्रकरण नियत कर देना चाहिए और इस संबंध में  न्याय दृष्टांत हरदत्त विरूद्ध सत्यनारायण 1959 एम पी एल जे नोट 191, जानकीबाई विरूद्ध जानकीदास 1952 एन एल जे नोट 22 से मार्गदर्शन लेना चाहिए।
8. पक्षकार के नियंत्रण के बाहर रहने के कारण:-
        कौन से कारण पक्षकार के नियंत्रण के बाहर के होते हैं इसे कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं।
    1.     न्याय दृष्टांत मनोरमा विरूद्ध मनीष एआईआर 1967 एम पी 139 डी0बी0 में गवाहों की तामील उचित पता न होने से नहीं हो सकी थी। इस मामले में यह कहा गया कि न्यायालय को स्थगत अस्वीकार नहीं करना चाहिए था जब तक यह पता न लगता हो कि संबंधित पक्ष ने दुर्भावनापूर्वक प्रकरण को लंबित करने के लिए गवाहो का गलत पता दिया या अक्सर देने पर  भी सही पता नहीं दिया।
        इस मामले से यह समझा जा सकता है कि कोई भी पक्षकार उसे ज्ञात गवाहों के नाम, पते और तलवाना प्रस्तुत करता है गवाहों के तामील उचित पता न होने के कारण नहीं होती है  न्यायालय को यह विचार करना चाहिए कि क्या पक्षकार को  सही पता देने के लिए एक अवसर देना चाहिए या नहीं।
    2.     न्याय दृष्टांत कुंदनलाल विरूद्ध गुलजारी मल एआईआर 1952 अजमेर 29 (2)  के मामले में प्रकरण प्रमाण के लिए नियत था। पक्षकार ने प्रोसेस भी दिया था। कार्यालय की लापरवाही से प्रोसेस जारी नहीं हुआ, न्यायालय ने स्थगत से इंकार किया उसे उचित नहीं माना गया।
        पक्षकार प्रोसेस प्रस्तुत कर सकता है लेकिन उसका जारी किया जाना उसके नियंत्रण में नहीं होता है इसे इस तरह समझा जा सकता है।
    3.     न्याय दृष्टांत अमृतलाल कपूर विरूद्ध कुसुमलता कपूर (2010) 6 एस0सी0सी0 583  के मामले में प्रतिवादी का एक गवाह शासकीय सेवक था उसके उच्चाधिकारी ने उसे नियुक्ति स्थल से बाहर जाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया इसलिए वह उपस्थित नहीं हुआ गवाह किसी उपेक्षा या अक्रियाशीलता के कारण पेश नहीं किया जा सका ऐसा मामला नहीं था ऐसे में प्रतिवादी प्रमाण समाप्त करना उचित नही माना गया।
    4.     न्याय दृष्टांत बी.पी.मोईदीन सेवा मंदिर विरूद्ध ए.एम.मूर्ति एआईआर 2008 एस.सी.. (सप्लीमेंट) 1123 के मामले में अभिभाषक लंच के पूर्व सत्र में तैयार थे उन्होनें अचानक बीमारी के कारण लंच के बाद तक का स्थगन चाहा ऐसे लघु स्थगन  अस्वीकृत नहीं करना चाहिए। ऐसे लघु स्थगन अस्वीकृत करना         उचित नहीं माना गया।
    5.     न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध स्टेट आफ एम पी. 1999 (2)  डब्ल्यू एन 207  के मामले में रिश्तेदार की मृत्यु के कारण स्थगन चाहा ऐसा स्थगन दिया जाना चाहिए यह बतलाया गया।
    6.     न्याय दृष्टांत स्टील अथारिटी आफ इंडिया विरूद्ध रमजान अली 1999 (1) डब्ल्यू एन 147 में न्यायालय का स्टाफ साक्ष्य की तिथि पर हड़ताल पर चला गया था ऐसे में साक्ष्य प्रस्तुत  करने के लिए स्थगन दिया जाना चाहिए यह प्रतिपादित किया गया।
    7.     न्याय दृष्टांत रघुनाथ प्रसाद विरूद्ध पटवारी देवी, 1999 (2) डब्ल्यू एन 110 के मामले में प्रतिवादी का संशोधन स्वीकार किया गया। प्रकरण साक्ष्य के लिए स्थगित किया जाना चाहिए।  प्रतिवादी यह प्रत्याशा नहीं कर सकता कि उससे संशोधन पर  साक्ष्य उसी समय मांगी जायेगी।
    8.     न्याय दृष्टांत राजेश कुमार विरूद्ध धल्लूमल, 2005 (4) एम पी एल जे 286 में यह प्रतिपादित किया गया कि तकनीकी आधारों पर स्थगन का आवेदन निरस्त नहीं करना चाहिए। इस मामले में मुख्तियार उपस्थित था जो अस्वस्थ थ इसलिये कथन नही दे सकता था मूल पक्षकार उपस्थित नहीं था इसलिये स्थगन चाहा था जो नहीं दिया गया था।
9. उपसंहार:-
        उक्त विवेचन से ये स्पष्ट होता है कि:-
    1.    अनावश्यक स्थगन को दृढता से रोकना होगा तभी न्याय प्रणाली में लोगों का विश्वास कायम रहेगा। विधायिका के संशोधन को प्रभावी ढंग से लागू करना न्यायालय का कर्तव्य है।
    2.    किसी कार्यवाही के लिए किसी पक्षकार को तीन से अधिक  स्थगन तभी देना चाहिए जब स्थगन का कारण पक्षकार के नियंत्रण के बाहर का हो यहा हमं बिलंब कारित करने की प्रवृत्ति और पक्षकार के नियंत्रण के बाहर होने के कारण के अंतर को समझ कर एक संतुलित मार्ग अपनाना चाहिए।    
    3.    धारा 35-बी सी.पी.सी. के प्रावधानों को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करना चाहिए और एक युक्तियुक्त खर्च स्थगन चाहने वाले पक्षकार पर लगाना चाहिए।
    4.    पक्षकार को एक अंतिम अवसर देकर जागृत किया जा सकता  है।
    5.    तात्विक न्याय व शीघ्र न्याय के बीच एक न्यायिक संतुलन  बनाना होगा।
   6.    वाद की सुनवाई की तिथि व आवेदन पर विचार की तिथि में अंतर समझना चाहिए और उस अनुसार कार्यवाही करना चाहिए।
    7.    कब आदेश 17 नियम 2 सी.पी.सी लागू होगी और कब आदेश 17 नियम 3 सी.पी.सी लागू होगी इसे ध्यान में रखना चाहिए।
    8.    एक अभिभाषक एक समय पर एक दिन में एक ही न्यायालय में  उपस्थित हो सकता है ऐसे में न्यायालय के कार्य की प्रगति भी हो और संबंधित अभिभाषक या पक्षकार की उचित कठिनाई भी समझी जा सके ऐसा एक संतुलन बनाना चाहिए, लेकिन संदेश यह जाना चाहिए कि संबंधित न्यायालय में जिस कार्यवाही के लिए प्रकरण नियत है वह कार्य किया ही जाना है।

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