Thursday 24 April 2014

श्री आर. सी. चंदेल न्यायाधीश

(विमल वधावन) एक समय था जब न्यायाधीश को ईश्वर के समकक्ष माना जाता था। न्यायाधीश का कार्य बहुत बड़े विश्वास के आधार पर टिका होता है इसलिए न्यायाधीश को एक सामान्य व्यक्ति की बुद्धि से बहुत ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए। आज के युग में बेशक न्यायिक सेवा एक सामान्य सरकारी नौकरी की तरह लगती है परन्तु न्यायाधीशों को किसी प्रकार से भी सरकार के नौकर के रूप में नहीं माना जा सकता। न्यायाधीश का पद एक ऐसा सार्वजनिक पद है जो राज्य का एक स्वतन्त्र कार्यभार संभालता है। बेशक न्यायाधीश अपना कार्य करते हुए सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, परन्तु उसके बावजूद भी उनका कार्य समूची जनता के विश्वास का कार्य होता है। उनकी निष्पक्षता और स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की शैली संदेह से परे होनी चाहिए। नैतिक मूल्यों के प्रति भी उन्हें गम्भीरता के साथ ईमानदार होना चाहिए।

जब भी जनता का कोई व्यक्ति किसी अदालत के कक्ष में प्रवेश करे तो उसे इस सुरक्षा का एहसास होना चाहिए कि जिस न्यायाधीश के समक्ष वह उपस्थित हुआ है वह बिना भेदभाव के और किसी प्रकार के प्रभाव से ग्रस्त हुए बिना अपना न्यायपूर्ण निर्णय देगा। न्यायाधीश का आचरण भी एक सामान्य व्यक्ति से ऊंचा होना चाहिए।

न्यायाधीशों के मामले में यह तर्क भी कार्य नहीं कर सकता कि आधुनिक युग में समाज का स्तर बहुत गिर चुका है और न्यायाधीश भी उसी समाज से आते हैं। अत: उनसे जीवन के उच्च स्तर और नैतिक मूल्यों की सुदृढ़ता की कामना कैसे की जा सकती है? वास्तव में न्याय व्यवस्था की पूरी विश्वसनीयता उन न्यायाधीशों के विश्वास पर टिकी हुई है जो इसे चलाते हैं। लोकतंत्र का जीवन तथा कानून का राज्य हमारी न्याय व्यवस्था पर ही निर्भर करते हैं। न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि इस प्रक्रिया में लगे हुए न्यायाधीश अपने न्यायिक कार्यों को पूरी निष्पक्षता और बौद्धिक ईमानदारी के साथ करें।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अधीन पन्ना के जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्री आर. सी. चंदेल को न्यायिक प्रक्रिया पर लगे काले दाग के रूप में प्रदर्शित करते हुए उनकी अपनी अपील याचिका सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमू श्री आर. एम. लोढा एवं न्यायमूर्ति श्री अनिल दवे की खंडपीठ के समक्ष प्रस्तुत हुई। श्री आर.सी. चंदेल ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के  रूप में 1979 में कार्यभार संभाला। 1985 में उन्हें जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया। मार्च, 2004 में उनके नाम की संस्तुति उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में भी कर दी गई परन्तु सितम्बर, 2004 में ही उन्हें जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद से ही अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश दे दिया गया।

इस आदेश को जनहित में बताया गया। श्री आर. सी. चंदेल ने इस अनिवार्य सेवानिवृत्ति के विरुद्ध मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के समक्ष रिट याचिका प्रस्तुत की। एकल न्यायाधीश ने उनकी अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को रद्द कर दिया। मध्य प्रदेश प्रशासन ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध खंडपीठ के समक्ष अपील की। खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के निर्णय को पलट दिया। इस प्रकार श्री आर. सी. चंदेल को सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी।

सर्वोच्च न्यायालय ने श्री आर. सी. चंदेल के सेवा कार्यकाल की कुछ वार्षिक गुप्त रिपोर्टों का आकलन किया। 1981-82 में श्री चंदेल को डी-ग्रेड दिया गया था। इसी प्रकार 1988-89 में भी उन्हें डी-ग्रेड देते हुए उनकी रिपोर्ट में लिखा गया था कि उनकी कभी भी साफ छवि नहीं रही। उनके निर्णयों और आदेशों की गुणवत्ता भी संतोषजनक नहीं थी। 1991 में उन्हें सी-ग्रेड मिला परन्तु 1992 में पुन: उन्हें डी-ग्रेड दिया गया। 1993 में उनका स्तर और अधिक नीचे गिरकर ई-ग्रेड पर आ गया जिसमें यह कहा गया था कि उनका कार्य स्तर बहुत ही निन्दनीय है, मुकद्दमों के निपटारे की दर भी बहुत कम है और इनकी छवि भी अच्छी नहीं है। 1994 में भी इसी प्रकार की टिप्पणियों के साथ उन्हें फिर से ई-ग्रेड दिया गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन तथ्यों के दृष्टिगत हमारे सामने प्रश्न यह है कि क्या मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा श्री चंदेल को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त करने का आदेश निराधार है?क्या अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त करने के आदेश पर न्यायिक पुनर्विचार संभव है? क्या मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा इस अनिवार्य सेवानिवृत्ति को उचित ठहराया जाना गलत है?

उक्त प्रश्नों के उत्तर में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों से संबंधित तथा अनिवार्य सेवानिवृत्ति  से संबंधित कई पूर्व निर्णयों का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए कहा कि अनिवार्य सेवानिवृत्ति का निर्णय पूरे सेवा कार्यकाल के रिकार्ड पर निर्भर करता है। यदि किसी अधिकारी  को नकारात्मक टिप्पणियों के बावजूद भी उसके  सेवा कार्यकाल में कुछ पदोन्नतियां या वेतन वृद्धियां दी गई हैं तो उससे नकारात्मक टिप्पणियों का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता। अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आदेश करते समय पूरे सेवा कार्यकाल के रिकॉर्ड को ध्यान में रखना होता है।

इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने श्री चंदेल से संबंधित एक ऐसे पत्र का अवलोकन किया जो एक सांसद द्वारा केन्द्रीय कानून मंत्री को लिखा गया था। इस संस्तुति के आधार पर केन्द्रीय कानून मंत्रालय ने मध्य प्रदेश सरकार तथा उच्च न्यायालय को उनके ज्ञापन की संस्तुति भेजी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने एक न्यायाधीश के द्वारा इस प्रकार एक संसद सदस्य तथा कानून मंत्रालय की शरण में जाने को अक्षम्य तथा न्यायिक अधिकारियों के गौरव के विरुद्ध माना।

जिस प्रकार यह आशा की जाती है कि एक न्यायाधीश को किसी प्रभाव में नहीं आना चाहिए, उसी प्रकार एक न्यायाधीश को अपने स्वार्थ के कारण किसी पर अनावश्यक प्रभाव डालना भी नहीं चाहिए। इस प्रकार एक जिला सत्र न्यायाधीश के राजनीतिज्ञों की शरण में जाने को सर्वोच्च न्यायालय ने एक गलत कार्य माना।

श्री चंदेल की यह कानूनी लड़ाई सारी न्याय व्यवस्था के न्यायाधीशों के लिए एक स्पष्ट संकेत प्रस्तुत करती है कि न्यायाधीशों को अपने सेवा कार्यकाल के दौरान पूर्ण रूप से निष्पक्ष और ईमानदार रहना चाहिए। उन्हें एक सामान्य व्यक्ति की सोच और जीवनशैली  से कहीं अधिक ऊपर उठकर जीवन जीना चाहिए। कत्र्तव्यों और अधिकारों के साथ-साथ उन्हें अपने अहंकार के स्तर को भी नियंत्रित संतुलन में रखना चाहिए।




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