Wednesday 2 April 2014

म.प्र. स्थान नियंत्रण अधिनियम के मिश्रित निष्कासन संबंधी वाद का श्रवणाधिकार सिविल न्यायालय को प्राप्त हैं ?

क्या सिविल न्यायालय को ऐसे मिश्रित

वाद के श्रवण का अधिकार है जिसमें

निष्कासन हेतु लिये गये अन्य आधारों के

साथ-साथ एक या अधिक आधार म.प्र.

स्थान नियंत्रण अधिनियम के  अन्तर्गत होकर भाड़ा नियंत्रक

प्राधिकार के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत हो?




म.प्र. स्थान नियंत्रण अधिनियम के

अन्तर्गत निवास एवं व्यवसाय हेतु सदभावपूर्ण

आवश्यकता के आधार पर किरायेदार के

किरायेदारी भाग से निष्कासन हेतु ऐसे भूमि

स्वामियों के लिये उपबंध किये गये है जो

अधिनियम की धारा 23-j के अन्तर्गत परिभाषित

है, तथा जो किसी सरकार के कर्मचारी या

सरकार के स्वत्व या नियंत्रण की कम्पनी के

कर्मचारी है या कोई विधवा या विच्छिन्न विवाह

पत्नी या विकलांग व्यक्ति आदि हैं।

अधिनियम की धारा 45 ⁄1⁄ के अन्तर्गत उन

मामलों में सिविल न्यायालय की क्षेत्राधिकारिता

का वर्जन किया गया है जिन्हें निराकृत करने

की अधिकारिता भाड़ा नियंत्रक प्राधिकार को

प्राप्त है। जबकि अधिनियम की धारा 45 ⁄2⁄ के

अन्तर्गत सिविल न्यायालय ऐसे वाद आदि के

विचारण हेतु सक्षम है जिसमें किसी किरायेदारी

स्थान के स्वत्व का प्रश्न या किसी किरायेदारी

स्थान के किराये की प्राप्ति के अधिकार संबंधी

प्रश्न अन्तर्वलित हो।

इसी प्रकार अधिनियम की धारा 12 ⁄1⁄⁄a⁄ से

लेकर P तक में वर्णित एक या अधिक आधारों

पर, जिनमें सद्भाविक आवश्यकता के आधार E

और F भी सम्मिलित है, निष्कासन हेतु वाद का

श्रवणाधिकार सिविल न्यायालय को प्राप्त है।

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या सिविल

न्यायालय को ऐसे मिश्रित वाद का श्रवणाधिकार

है जिसमें निष्कासन हेतु लिये गये अन्य आधारों

के साथ-साथ एक या अधिक आधार म.प्र. स्थान

नियंत्रण अधिनियम के अध्याय III A के अन्तर्गत

होकर भाड़ा नियंत्रक प्राधिकार के क्षेत्राधिकार के

अन्तर्गत हो?

पूर्व में म.प्र. उच्च न्यायालय द्वारा नंदलाल

विरूद्ध मांगीबाई, 2006 ⁄2⁄ एम.पी.एच.टी.

3000 में यह विनिश्चित किया गया था कि उक्त

प्रकृत के मिश्रित वाद का श्रवणाधिकार सिविल

न्यायालय को नहीं है एवं ऐसा वाद प्रस्तुत होने

पर सिविल न्यायालय मात्र उन्हीं आधारों पर

वाद का विचारण कर सकता है जो भाड़ा

नियंत्रक प्राधिकार के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत

नहीं आते है, अर्थात् न्यायालय अधिनियम की

धारा 23-j में वर्णित भूमिस्वामी की सद्भाविक

आवयश्यकता के आधार मात्र पर आधारित वाद

का विचारण नहीं करेगा।

न्यायदृष्टांॅत नंदलाल ⁄उपरोक्त⁄ को आधार मान

कर मध्यप्रदेश उच्च इन्दौर द्वारा पुनः न्यायालय

खण्डपीठ राजेन्द्र सिंह विरूद्ध

सुलोचना, द्वितीय अपील क्रमांक 260/2004 में

दिनांक 28.09.2006 को निर्णय पारित करते

हुए यह मत व्यक्त किया गया कि सिविल

न्यायालय को ऐसे मिश्रित वाद की

श्रवणाधिकारिता प्राप्त नहीं है।

उक्त निर्णय के विरूद्ध संस्थित अपील
सुलोचना विरूद्ध राजेन्द्र सिंह, ए.आई.आर.

2008 सु.को. 2611 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा

यह अभिमत व्यक्त किया गया कि सिविल

न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्जन करने वाली

विधि की व्याख्या कठोरता से की जाना

चाहिये एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा म.प्र. उच्च

न्यायालय के मिश्रित वाद संबंधी उपरोक्त मत

को पुष्टि योग्य न मानते हुए यह न्याय सिद्धान्त

प्रतिपादित किया गया कि ऐसा मामला जो

Stricto Sensu अधिनियम के अध्याय III A
 की परिधि में नहीं आता है, वह सिविल न्यायालय द्व

ारा विचारणीय है एवं ऐसे मिश्रित निष्कासन

संबंधी वाद का श्रवणाधिकार सिविल न्यायालय

को प्राप्त हैं। अतः अधिनियम की धारा 45 ⁄2⁄

के प्रावधान एवं न्याय दृष्टांत सुलोचना
उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि अधिनियम की

धारा 23-j में वर्णित प्रकृति के भूमिस्वामी द्वारा

मात्र सद्भाविक आवश्यकता संबंधी आधार पर

प्रस्तुत वाद के संबंध में सिविल न्यायालय का

क्षेत्राधिकार वर्जित होगा किन्तु उक्त आधार के

अतिरिक्त अन्य आधार भी वाद में लिये जाने पर

ऐसे मिश्रित वाद का श्रवणाधिकार सिविल

न्यायालय को प्राप्त होगा।

No comments:

Post a Comment