Saturday 19 April 2014

केन्द्र व म.प्र. राज्य द्वारा किये गये धारा 320 Crpc की सारणी प्रतिस्थापित किये जाने के संदर्भ में विचार कीजिए ?

आर्टिकल
(अ)- ‘‘क्या भारतीय दण्ड संहिता की धारा 379, 381, 406, 407, 408, 411 या 414 के अंतर्गत ऐसा अपराध, जो 31 दिसम्बर 2009 के पूर्व कारित किया है और प्रभावित संपत्ति का मूल्य 250 रूपये से अधिक है, दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2008 के संदर्भ में 31 दिसम्बर 2009 के पश्चात् शमनीय है ?


विचारणीय प्रश्न ‘‘अ‘‘ के संबंध में 31 दिसम्बर 2009 के पूर्व कारित किये गये धारा 379, 381, 406, 407, 408, 411 या 414 के संबंध में संपत्ति का मूल्य 250 रूपये से अधिक होने के संबंध में स्थिति को स्पष्ट करना चाहा है । इस संबंध में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि धारा 379, 381, 406, 407, 408, 411 या 414 के संबंध में दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनिमय 2005 की धारा 28 (सी) द्वारा ‘‘250 रूपये‘‘ शब्दों के स्थान में ‘‘2000 रूपये‘‘ प्रतिस्थापित किये गये है, जो अधिसूचना संख्या एस.ओ. 923 (ई), दिनांक 21.06.2006 द्वारा दिनांक 23.06.2006 से प्रभावी हो गया है । इस कारण दिनांक 23.06.2006 से दिनांक 31.12.2009 तक 250 रूपये से राशि बढ़ाकर 2000 रूपये कर दी गई थी और दिनांक 31 दिसम्बर 2009 से राशि 2000 रूपये को भी विलोपित कर इन अपराधों में शमनीय होने के लिये राशि की सीमा समाप्त कर दी गई है । 

इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नरेश कुमार विरूद्ध हरियाणा राज्य एवं अन्य 2013 आर-1 एम.पी.एच.टी. 10, मोहम्मद अब्दुल सुफान लसकर विरूद्ध स्टेट आॅफ आसाम, 2008 ए.आई.आर. एस.सी.व्ही. 5755 एवं हीराबाई, झाबेरबाई विरूद्ध स्टेट आॅफ गुजरात, 2010 ए.आई.आर. एस.सी.व्ही. 3136 के न्यायदृष्टांतों में यह प्रतिपादित किया है कि यदि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 324 के अधीन दण्डनीय अपराध घटित होने की तिथि पर शमनीय था तो वह संशोधन से प्रभावीत नहीं होगा । अर्थात् 30 दिसम्बर 2009 एवं उसके पूर्व घटित भारतीय दण्ड विधान की धारा 324 के अधीन दण्डनीय अपराध न्यायालय की अनुज्ञा से उक्त संशोधन के प्रवृत्त होने के उपरांत भी शमन योग्य होगें । 

अतः उपरोक्तानुसार भारतीय दण्ड विधान की धारा 379, 381, 406, 407, 408, 411 या 414 के अंतर्गत ऐसा अपराध जो 31 दिसम्बर 2009 के पूर्व कारित किया गया है और प्रभावित संपित्त का मूल्य 2000 रूपये से अधिक है एवं ऐसा अपराध दिनांक 23.06.2006 के पूर्व कारित किया गया है और प्रभावित संपत्ति का मूल्य 250 रूपये से अधिक है तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2008 के संदर्भ में 31 दिसम्बर 2009 के पश्चात् शमनीय नहीं होगा । 


(ब)- ‘‘दण्ड प्रक्रिया संहिता (मध्यप्रदेश संशोधन) अधिनियम 1999 के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 320(2) की सारणी में अंतः स्थापित की गई धारा 147, 148 एवं 294 भारतीय दण्ड संहिता के संबंध में विधिक स्थिति पर 31 दिसम्बर 2009 से प्रभावी दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2008 के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 की सारणी प्रतिस्थापित किये जाने के संदर्भ में विचार कीजिए ?‘‘


दण्ड प्रक्रिया संहिता (मध्यप्रदेश संशोधन) अधिनियम संख्या 17 सन् 1999, धारा 3 जो दिनांक 21.05.1999 से प्रभावशील हुई है के अनुसार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 (2) के अंतर्गत भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294, 147, 148, 506 भाग 2 के अपराधों को न्यायालय की अनुमति से समझौता योग्य बनाया गया है ।

इस संबंध में केन्द्र सरकार द्वारा बाद में किये गये उक्त संशोधन अधिनियम 2008 जो 31 दिसम्बर 2009 से प्रभावशील हुआ है के अनुसार दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2008 (क्रमांक 5 सन् 2009) की धारा 23 (2) द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 की सम्पूर्ण सारणीयों को विलोपित कर नवीन सारणीयां प्रतिस्थापित की है जो दिनांक 31 दिसम्बर 2009 से प्रभावशील हुई है, जिसके अनुसार भारतीय दण्ड विधान की धारा 506 जो तो समझौता योग बनाया गया है, लेकिन भारतीय दण्ड विधान की धारा 147, 148, 294 को इन सारणीयों में शामिल नहीं किया गया है । 

इस संबंध में स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के भाग 11 में संघ और राज्यों के बीच संबंध दर्शाते हुये विधाई की शक्तियों का वितरण किया गया है, जिसके अनुसार अनुच्छेद 245 में संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र के लिये या उसके किसी भाग के लिये या राज्य का विधान मण्डल उसके सम्पूर्ण या उस राज्य के किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा । जबकि संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार संसद द्वारा बनाये गई विषयों और राज्यों के द्वारा बनाई गई विषय वस्तु को दर्शाया गया है, जिसका वितरण निम्नानुसार है:-

          1 - संसद को सातवीं अनुसूची की सूची I में जिसे संघ सूची                      कहा गया हैं, दिये गए किसी भी विधि के संबंध में विधि बनाने                 की असीमित शक्ति होगी । 
           2 - किसी भी राज्य के विधान मण्डल को 7वीं अनुसूची की सूची            III  में किये समवर्ती सूची कहा गया हैं । किसी भी विषय के                संबंध में संसद और राज्य दोनों को विधि बनाने की शक्ति                     होगी । 
          3 - किसी भी राज्य के विधान मण्डल को 7वीं अनुसूची की सूची               II जिसे राज्य सूची कहा गया हैं । उसके संबंध में विधि बनाने                   की शक्ति होगी । 

किसी भी राज्य के विधान मण्डल के विधि बनाने की शक्ति संसद की शक्ति को रोक नहीं लगाईगी और यदि एक ही विषय पर संसद और विधान मण्डल द्वारा विधि बनाई गई हैं तो संसद के द्वारा बनाई गई विधि प्रभावशील होगी। राज्य विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि उस मात्रा तक अप्रवर्तनशील होगी, चाहे विधान मण्डल द्वारा बनाई गई विधि पहली हो या बाद में हो ।

उपरोक्तानुसार मध्यप्रदेश राज्य द्वारा संवत की सूची में सूची क्रमांक 3 के क्रमांक 1 में दण्ड विधि क्रमांक 2 में दण्ड प्रक्रिया संहिता में जो संशोधन किया है उसके संबंध में संसद द्वारा बाद में किये गये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 के संशोधन एक-दूसरे के विपरित है । क्योंकि केन्द्र सरकार द्वारा उक्त भारतीय दण्ड विधान की धारा 147, 148 एवं 294 शमनीय नहीं माना है, जबकि राज्य द्वारा पूर्व में किये गये संशोधनों द्वारा इनकों शमनीय बनाया गया था । इस प्रकार केन्द्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा बनाई गई विधियों में असंगति की दशा में सामान्य नियम यह है कि केन्द्रीय विधि राज्य के विधान मण्डल की विधि पर अभीभावी होगी । अनुच्छेद 254 के खण्ड (2) के उपबंधों के अधीन संसद द्वारा बनाई गई विधि राज्य की विधि पर अभीभावी होगी और राज्य के विधान मण्डल  द्वारा बनाई गई विधि उस सीमा तक शून्य होगी । 

उक्त विचारणीय प्रश्न के संबंध में यह बात उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता संशोधन 2008 के अनुसार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 की सारणीयों में संशोधन नहीं किया गया है बल्कि सारणीयों को हटाकर नवीन सारणीयां प्रतिस्थापित की गई है, ऐसी स्थिति में पुरानी सारणीयों में चाहे वह राज्य सरकार द्वारा संशोधन किये गये हो या केन्द्र सरकार द्वारा बनाई गई हो सम्पूर्ण सारणी प्रतिस्थापित कर दी गई है । इसलिये संशोधन सहित पुरानी सारणी विलोपित हो चुकी है । इसलिये अब पुरानी सारणी में म.प्र. राज्य द्वारा संशोधन कर भारतीय दण्ड विधान की धारा 147, 148 एवं 294 को शमनीय बनाने के संबंध में किया गया संशोधन भी समाप्त हो चुका है ।

यदि केन्द्र सरकार उक्त संशोधन अधिनियम 2008 के माध्यम से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 की सारणीयों को विलोपित कर नई सारणी प्रतिस्थापित नहीं करती और केवल इन सारणीयों में संशोधन करती तो ऐसी स्थिति में म.प्र. राज्य द्वारा किये गये पूर्व संशोधन लागू रहते लेकिन यहां पर ऐसा नहीं हुआ है । केन्द्र सरकार द्वारा सारणीयों को ही विलोपित कर दिया गया है इसलिये म.प्र. राज्य के संशोधन अब दिनांक 31 दिसम्बर 2009 से लागू नहीं है । इसलिये भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147, 148 एवं 294 दिनांक 31 दिसम्बर 2009 से शमनीय नहीं रहे है । जैसे कि केन्द्र सरकार सम्पूर्ण दण्ड प्रक्रिया संहिता को ही समाप्त कर दे तो उसमें हुये सभी संशोधन चाहे वह राज्य सरकार द्वारा किये गये हो या केन्द्र सरकार द्वारा किये गये हो समाप्त हो जायेगें, इसी प्रकार केन्द्र सरकार द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 320 की सारणीयों को विलोपित कर नई सारणीयां प्रतिस्थापित की गई है तो उसमें केन्द्र सरकार सहित म.प्र. राज्य सरकार द्वारा किये गये  इस संबंध में संशोधन भी अपने आप समाप्त हो चुके है । 

                                                                    (लालाराम मीणा)
                                                          प्रथम अपर जिला न्यायाधीश,
                                                      गाडरवारा, जिला-नरसिंहपुर (म.प्र.)




                         कानून का निर्वचन



1 -लाभकारी प्रावधान का उदारतापूर्वक अर्थान्वयन
कानून का निर्वचन - विधान के लाभकारी प्रावधान का उदारतापूर्वक अर्थान्वयन किया जाना चाहिए । ऐसा करने के पीछे प्रयोजन यह है कि विधान के प्रयोजन को पूरा किया जाना चाहिए न कि उसे परास्त किया जाना चाहिए । (भावनगर यूनिवर्सिटी बनाम पालिकाना सुगर मिल्स लिमिटेड, ए.आई.आर. 2003 सु.को. 511, 2003(2) सु.को.के. 111, 2002(8) सुप्रीम 400, 2002(2)जे.टी. 55 सु.को.)

2 -भूतलक्षी प्रभाव
कानून का निर्वचन - विधायिका को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह या तो विधान को प्रथम बार परिचित कराए अथवा भूतलक्षी प्रभाव से सृजित विधि को संशोधित करे । परन्तु ऐसा विभिन्न न्यायिक मान्यता प्राप्त सीमाओं के अध्यधीन किया जाना चाहिए । प्रथम अपेक्षा यह है कि उपयोगिता शब्दों में मूतलक्षी क्रियान्वयन से प्रभावी होने के संबंध में स्पष्ट प्रावधान होना चाहिए । दूसरा यह है कि भूतलक्षी प्रभाव युक्तियुक्त होना चाहिए न कि इसे कर्कश अथवा अतिरेक रूप से होने की स्थिति होना चाहिए अन्यथा यह असंवैधानिक होने के आधार पर निरस्त किए जाने की जोखिम के अधीन आ जाएगा । (नेशनल एग्रीकल्चरल को-आॅरेटिव्ह मार्केटिंग फेडरेशन आॅफ इंडिया बनाम यूनियन आॅफ इंडिया 2003 (5) सु.को.के 23, ए.आई.आर. 2003 सु.को. 1329, 2003(3) एस.एल.टी.635, 2003(207) आई.टी.आर. 548, 2003(128) टेक्समेन 368, 2003(3) सुप्रीम 617 सु.को.)

3 -विधान का किश्तों में अर्थान्वयन न किया जाना
कानून का निर्वचन - अब यह सुस्थापित विधिक सिद्धांत है कि विधान का कोई भी भाग अथवा विधान का कोई भी शब्द किस्तों में अर्थान्वयन नहीं किया जा सकता है । यह स्पष्ट किया गया कि विधान अथवा इसके अंतर्गत निर्मित नियमों को सम्पूर्ण तौर पर पढ़ा जाना चाहिए । विधान के किसी प्रावधान का अर्थान्वयन अधिनियम के उद्देश्य की संगतता में प्रावधान को हासिल करने के लिए अन्य प्रावधान के संदर्भ में किया जाना चाहिए । (प्रकाश कुमार उर्फ प्रकाश बनाम स्टेट आॅफ गुजरात, 2005 (1) सी.सी.एस. 383 सु.को.)

4 -भूतलक्षी प्रभाव 
कानून का निर्वचन - प्रत्येक विधान जब तक कि व्यक्त तौर पर अथवा आवश्यक विवक्षा से इसे भूतलक्षी तौर पर प्रयोज्य होना न बताया गया हो, का भविष्यलक्षी प्रभाव होता है । (संगम स्पिनर्स बनाम रीजनल प्राॅविडेंट फण्ड कमिश्नर, 2007 (13) स्केल 653 सु.को.)

5-शीर्षक-
कानून का निर्वचन -शीर्षक को क्या महत्व दिया जाना चाहिए इस संबंध में विरोधाभासी राय व्यक्त की गई है । एक विचार के अनुसार शीर्षक को उद्देशिका के रूप में माना जा सकता है । अन्य विचार के अनुसार शीर्षक का अवलंब मात्र उस दशा में लिया जा सकता है जबकि शब्द संदिग्ध हों । शीर्षक साधारण शब्दों के अभिप्राय को नियंत्रण नहीं कर सकता है अपितु वह कोई संदिग्धता हो तो उसको स्पष्ट कर सकता है । इस संबंध में जस्टिस जी.पी. सिंह कृत्य प्रिंसीपल आॅफ स्टेटरी इन्टरपिटेशन नवां संस्करण 2004, पृष्ठ 152, 155 पर निर्भरता व्यक्त की गई । निष्कर्ष के तौर पर उच्चतम न्यायालय ने व्यक्त किया कि विधान के अर्थन्वयन में धारा का शीर्षक सीमित रौल अदा कर सकता है । प्रावधान की साधारण भाषा एवं शीर्षक के अभिप्राय के मध्य विरोधाभास होने की दशा में शीर्षक उस अभिप्राय को नियंत्रित नहीं कर सकता है जो कि प्रावधान में साधारण भाषा में वर्णित हो । (रायचुर मथुम प्रभाकर बनाम रवतमाल, ए.आई.आर. 2004 सु.को. 3625, 2004(4)सु.को.के. 766, 2004(56)।AII.L.R.105 सु.को.)

                                                                      (लालाराम मीणा)
                                                             प्रथम अपर जिला न्यायाधीश,
                                                        गाडरवारा, जिला-नरसिंहपुर (म.प्र.)

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