Thursday, 19 June 2025

अनुच्छेद 12 के तहत 'राज्य' मानी जाने वाली संस्था में कार्यरत व्यक्ति सरकारी कर्मचारी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

अनुच्छेद 12 के तहत 'राज्य' मानी जाने वाली संस्था में कार्यरत व्यक्ति सरकारी कर्मचारी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति जो एक पंजीकृत सोसायटी में काम करता है जो अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर एक "राज्य" है, उसे सरकारी सेवक नहीं ठहराया जा सकता है। जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ त्रिपुरा हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सरकारी पद से याचिकाकर्ता को 'जूनियर वीवर' के रूप में खारिज करने को बरकरार रखा गया था। याचिकाकर्ता ने पात्र होने के लिए गलत तरीके से प्रस्तुत किया था कि वह पहले एक सरकारी कर्मचारी था। याचिकाकर्ता, जूनियर बुनकर के रूप में आवेदन करने से पहले, त्रिपुरा ट्राइबल वेलफेयर रेजिडेंशियल एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस सोसाइटी (TTWRES) में एक शिल्प शिक्षक के रूप में काम कर रहा था, जो सरकार द्वारा समर्थित एक स्वायत्त निकाय है। हाईकोर्ट ने बर्खास्तगी को बरकरार रखा, यह देखते हुए कि टीटीडब्ल्यूआरईएस एक सरकारी विभाग नहीं बल्कि एक सोसायटी थी और याचिकाकर्ता को जूनियर वीवर के पद के लिए पात्र होने के लिए सरकारी कर्मचारी नहीं माना जा सकता था। खंडपीठ ने याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया और इसे खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि सिर्फ इसलिए कि अनुच्छेद 12 के तहत 'समाज' का अर्थ 'राज्य' के रूप में किया गया है, यह वहां काम करने वाले व्यक्ति को सरकारी सेवक नहीं बनाता है।

है और जिसकी सेवाओं को अस्थायी रूप से केंद्र सरकार के निपटान में रखा गया है; उपरोक्त पर विचार करते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा कि "यह स्पष्ट है कि एक सरकारी कर्मचारी को भारत राज्य या संघ के तहत एक नागरिक पद धारण करना चाहिए। उक्त नियम को ध्यान में रखते हुए, टीटीडब्ल्यूआरईआईएस के तहत क्राफ्ट टीचर के पद को सिविल पद नहीं माना जा सकता है। ऐसे में याचिकाकर्ता को सिविल पद का धारक नहीं कहा जा सकता। न्यायालय ने इस तर्क को भी नकार दिया कि वर्तमान मामले में एस्टोपेल और छूट का सिद्धांत लागू होगा। यह तर्क दिया गया कि "याचिकाकर्ता को जूनियर वीवर के पद के खिलाफ नियुक्त किया गया था, इस शर्त के अधीन कि उसे सबूत प्रस्तुत करना होगा कि वह एक सरकारी कर्मचारी था। बाद में, हालांकि उन्हें इस घोषणा के आधार पर नियुक्त किया गया था कि वह एक सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन बाद में, यह पता चला कि वह इस कारण से सरकारी कर्मचारी नहीं थे कि उनका पिछला नियोक्ता सरकारी विभाग नहीं था, बल्कि यह एक सोसायटी थी। इसमें कहा गया है कि गलत बयानी के माध्यम से प्राप्त कोई भी सरकारी नियुक्ति शून्य थी। "यह कानून का स्थापित प्रस्ताव है कि झूठी जानकारी के आधार पर की गई नियुक्ति, या इसे अन्यथा कहने के लिए, भौतिक तथ्य की गलत बयानी से प्राप्त नियुक्ति आदेश को वैध रूप से नियोक्ता के विकल्प पर शून्य माना जाएगा, जिसे नियोक्ता द्वारा वापस लिया जा सकता है और ऐसे मामले में केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता-कर्मचारी को नियुक्त किया गया है और इस तरह के धोखाधड़ी के आधार पर महीनों या वर्षों तक सेवा में जारी रखा गया है नियुक्ति आदेश नियोक्ता के खिलाफ उसके पक्ष में या किसी भी एस्टॉपेल का दावा या इक्विटी नहीं बना सकता है।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/article-12-government-servant-state-registered-society-tripura-high-court-supreme-court-295064

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Monday, 16 June 2025

मूल बिक्री समझौता पंजीकृत नहीं है तो बाद के दस्तावेज़ का पंजीकरण भी स्वामित्व नहीं देगा: सुप्रीम कोर्ट

*मूल बिक्री समझौता पंजीकृत नहीं है तो बाद के दस्तावेज़ का पंजीकरण भी स्वामित्व नहीं देगा: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया है कि जब मूल बिक्री समझौता अपंजीकृत रहा, तो इसका परिणाम केवल इस आधार पर वैध टाइटल नहीं हो सकता है कि उक्त अपंजीकृत बिक्री विलेख के आधार पर बाद में लेनदेन पंजीकृत किया गया था। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की जहां प्रतिवादी ने 1982 के बिक्री समझौते ("मूल समझौते") के आधार पर स्वामित्व और बेदखली से सुरक्षा का दावा किया था, जिसे पंजीकरण अधिनियम के तहत अनिवार्य रूप से कभी पंजीकृत नहीं किया गया था। बाद में, मूल समझौते को 2006 में सहायक रजिस्ट्रार द्वारा मान्य होने का दावा किया गया था।

1982 के बिक्री समझौते के आधार पर प्रतिवादी को बेदखली से संरक्षण प्रदान करने वाले उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए, न्यायमूर्ति चंद्रन द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया है कि 1982 के बिक्री समझौते के गैर-पंजीकरण के दोष को 2006 में नए लेनदेन में लिए बिना इसके सत्यापन पर ठीक नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि पंजीकरण अधिनियम की धारा 23 इसके निष्पादन की तारीख से पंजीकरण के लिए एक दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए चार महीने का समय निर्धारित करती है। धारा 34 का परंतुक रजिस्ट्रार को देरी को माफ करने में भी सक्षम बनाता है, यदि जुर्माना के भुगतान पर दस्तावेज चार महीने की अतिरिक्त अवधि के भीतर प्रस्तुत किया जाता है। इस संदर्भ में, न्यायालय ने कहा, "1982 का समझौता, मूल एक और पुनर्वैध, एक वैध टाइटल में परिणाम नहीं दे सकता है, केवल इस कारण से कि बाद के उपकरण को पंजीकृत किया गया था। नतीजतन, न्यायालय ने पाया कि हाईकोर्ट ने बेचने के लिए अपंजीकृत समझौते के आधार पर प्रतिवादी को सुरक्षा प्रदान करने में गलती की।




Wednesday, 28 May 2025

लोन रिकवरी मामले में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, लोन नहीं भर पाने वालों को मिली बड़ी राहत Loan Recovery Rule

लोन रिकवरी मामले में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, लोन नहीं भर पाने वालों को मिली बड़ी राहत Loan Recovery Rule

Loan Recovery Rule: दिल्ली हाईकोर्ट ने लोन रिकवरी के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जो बैंकों की मनमानी पर रोक लगाता है और लोनधारकों के अधिकारों की सुरक्षा करता है। यह निर्णय उन लाखों लोगों के लिए राहत की खबर है जो लोन चुकाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि बैंक अपनी सुविधा के अनुसार लोन रिकवरी के लिए कठोर कदम नहीं उठा सकते। यह फैसला न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है बल्कि बैंकिंग प्रणाली में भी सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। हाईकोर्ट की यह टिप्पणी बैंकों के लिए एक चेतावनी है कि वे अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करें।

लुकआउट सर्कुलर पर न्यायालय का सख्त रुख


दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि बैंक हर मामले में लुकआउट सर्कुलर जारी नहीं कर सकते। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह सुविधा केवल उन मामलों में उपयोग की जा सकती है जो गंभीर प्रकृति के हों, आपराधिक हों, धोखाधड़ी से जुड़े हों या धन के गबन से संबंधित हों। सामान्य लोन डिफॉल्ट के मामलों में इस तरह के कठोर कदम उठाना न्यायसंगत नहीं है। यह निर्णय इस बात को स्थापित करता है कि वित्तीय विवाद और आपराधिक मामले दो अलग चीजें हैं। बैंकों को इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिए और तदनुसार कार्रवाई करनी चाहिए।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा


हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मौलिक अधिकारों की महत्ता को रेखांकित किया है। न्यायालय ने कहा कि लुकआउट सर्कुलर जारी करना किसी व्यक्ति के विदेश यात्रा के अधिकार का हनन है। यह अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हिस्सा है और इसे मनमाने तरीके से छीना नहीं जा सकता। न्यायालय ने धारा 21 का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सर्वोपरि है। केवल वित्तीय विवाद के आधार पर किसी व्यक्ति की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाना संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है।

इस महत्वपूर्ण मामले में एक कंपनी के पूर्व निदेशक के विरुद्ध बैंक द्वारा लुकआउट सर्कुलर जारी किया गया था। यह व्यक्ति कंपनी द्वारा लिए गए करोड़ों रुपये के लोन का गारंटर था। जब कंपनी ने लोन की अदायगी नहीं की तो बैंक ने कानूनी कार्रवाई शुरू की और गारंटर के विरुद्ध लुकआउट सर्कुलर जारी करने का अनुरोध किया। इस बीच गारंटर ने कंपनी छोड़ दी थी लेकिन उसकी कानूनी जिम्मेदारी बनी रही। बैंक का तर्क था कि गारंटर की जिम्मेदारी है कि वह लोन की अदायगी सुनिश्चित करे। हालांकि न्यायालय ने इस तर्क को सही नहीं माना और कहा कि यह पूर्णतः सिविल मामला है।


न्यायालय का तर्कसंगत विश्लेषण


हाईकोर्ट ने मामले का गहन विश्लेषण करते हुए पाया कि याचिकाकर्ता के विरुद्ध कोई आपराधिक मामला पंडित नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह न तो किसी धोखाधड़ी का आरोपी है और न ही धन की हेराफेरी में शामिल है। यह केवल एक वित्तीय विवाद है जिसका समाधान सिविल कानून के तहत किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि बैंक के पास लोन रिकवरी के लिए अन्य कानूनी उपाय उपलब्ध हैं जैसे कि संपत्ति कुर्की, नीलामी और सिविल मुकदमा। लुकआउट सर्कुलर जैसे कठोर कदम केवल गंभीर आपराधिक मामलों के लिए आरक्षित होने चाहिए।

बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता


न्यायालय ने बैंकों को फटकार लगाते हुए कहा कि उन्हें अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना चाहिए। बैंकों को समझना चाहिए कि लोन रिकवरी के लिए उनके पास वैकल्पिक और कम कठोर उपाय उपलब्ध हैं। हर मामले में लुकआउट सर्कुलर जारी करना न तो न्यायसंगत है और न ही कानूनी रूप से सही है। न्यायालय ने सुझाव दिया कि बैंकों को पहले बातचीत और समझौते के रास्ते अपनाने चाहिए। यदि यह संभव नहीं है तो सिविल कानून के तहत उपलब्ध उपायों का सहारा लेना चाहिए। लुकआउट सर्कुलर केवल अंतिम उपाय के रूप में और केवल गंभीर मामलों में ही उपयोग किया जाना चाहिए।


लोनधारकों के लिए राहत की खबर

यह फैसला उन लाखों लोगों के लिए राहत की खबर है जो विभिन्न कारणों से अपने लोन की अदायगी में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। कोविड-19 के बाद कई व्यवसाय प्रभावित हुए हैं और लोगों की आर्थिक स्थिति में गिरावट आई है। ऐसे में बैंकों की मनमानी से बचाव मिलना एक सकारात्मक विकास है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि लोन न चुकाना कानूनी है। बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि लोन रिकवरी की प्रक्रिया न्यायसंगत और मानवीय हो। लोनधारकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और ईमानदारी से लोन चुकाने का प्रयास करना चाहिए।


बैंकिंग क्षेत्र पर दीर्घकालीन प्रभाव


यह निर्णय बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक सुधार की शुरुआत कर सकता है। बैंकों को अब अधिक संयमित और न्यायसंगत तरीके से लोन रिकवरी करनी होगी। यह फैसला बैंकों को मजबूर करता है कि वे अपनी नीतियों की समीक्षा करें और ग्राहक-अनुकूल दृष्टिकोण अपनाएं। दीर्घकालीन रूप में यह बैंकिंग प्रणाली में विश्वास बढ़ाएगा और लोग अधिक निडर होकर व्यावसायिक गतिविधियों में भाग ले सकेंगे। साथ ही यह उद्यमशीलता को बढ़ावा देगा क्योंकि लोग जानेंगे कि असफलता की स्थिति में उनके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाएगा।

आगे की राह और सुझाव


इस फैसले के बाद अपेक्षा की जाती है कि बैंक अपनी लोन रिकवरी नीतियों में सुधार करेंगे और अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाएंगे। सरकार को भी इस दिशा में नीतिगत सुधार करने चाहिए ताकि लोन रिकवरी की प्रक्रिया संतुलित हो। लोनधारकों को भी सलाह दी जाती है कि वे अपनी वित्तीय कठिनाइयों के बारे में बैंक को सूचित करें और पुनर्भुगतान की योजना पर चर्चा करें। बैंकों को चाहिए कि वे रिस्ट्रक्चरिंग और वन-टाइम सेटलमेंट जैसे विकल्पों को बढ़ावा दें। यह फैसला न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाता है और उम्मीद जगाता है कि भविष्य में भी ऐसे संतुलित निर्णय आएंगे जो सभी पक्षों के हितों की रक्षा करेंगे।




तलाक मामले में 10 साल बाद वैवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना की याचिका नहीं कर सकते पति-पत्नी

तलाक मामले में 10 साल बाद वैवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना की याचिका नहीं कर सकते पति-पत्नी: इलाहाबाद हाईकोर्ट


https://hindi.livelaw.in/allahabad-highcourt/restitution-of-conjugal-rights-divorce-case-amendment-application-divorce-proceedings-allahabad-high-court-293416

Sunday, 25 May 2025

किशोर न्याय बोर्ड के पास अपने आदेशों की समीक्षा करने की शक्ति नहीं: सुप्रीम कोर्ट

किशोर न्याय बोर्ड के पास अपने आदेशों की समीक्षा करने की शक्ति नहीं: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board) को अपने स्वयं के निर्णयों की समीक्षा करने या बाद की कार्यवाही में विरोधाभासी रुख अपनाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि किशोर न्याय बोर्ड के पास कानून के तहत कोई पुनर्विचार अधिकार क्षेत्र नहीं है। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए यह फैसला सुनाया, जहां किशोर न्याय बोर्ड ने उम्र का पता लगाने के लिए एक याचिका पर फैसला करते समय जन्म तिथि को ध्यान में रखा, हालांकि बाद की सुनवाई में किशोर न्याय बोर्ड ने मेडिकल बोर्ड की राय ली।


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मैटरनिटी लीव प्रजनन अधिकारों का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव देने से इनकार करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने किया खारिज

 मैटरनिटी लीव प्रजनन अधिकारों का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव देने से इनकार करने का फैसला किया खारिज सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ का आदेश खारिज कर दिया, जिसमें सरकारी शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मैटरनिटी लीव (Maternity Leave) देने से इनकार कर दिया गया था। इसमें राज्य की नीति के अनुसार दो बच्चों तक ही लाभ सीमित करने का हवाला दिया गया था। जस्टिस अभय ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने कहा कि मैटरनिटी बैनिफिट प्रजनन अधिकारों का हिस्सा हैं और मैटरनिटी लीव उन लाभों का अभिन्न अंग है। 

केस टाइटल- के. उमादेवी बनाम तमिलनाडु सरकार


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S.141 NI Act | चेक अनादर की शिकायत में कंपनी के निदेशकों की विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका बताने की आवश्यकता नहीं : सुप्रीम कोर्ट

 S.141 NI Act | चेक अनादर की शिकायत में कंपनी के निदेशकों की विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका बताने की आवश्यकता नहीं : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चेक अनादर के अपराध के लिए कंपनी के निदेशकों को उत्तरदायी बनाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि शिकायत में कंपनी के भीतर उनकी विशिष्ट भूमिका बताई जाए। 

 कोर्ट ने कहा कि जबकि परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 141(1) के तहत यह स्पष्ट रूप से कहा जाना आवश्यक है कि वह व्यक्ति "कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिए प्रभारी और कंपनी के प्रति उत्तरदायी था", कानून की भाषा को शब्दशः अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, भौतिक अनुपालन पर्याप्त है, बशर्ते शिकायत में निदेशक की भूमिका निर्दिष्ट की गई हो। Case : HDFC Bank Ltd. v. State of Maharashtra


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Friday, 9 May 2025

अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट

*अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सार्वजनिक प्रवचन और मीडिया जांच के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि अदालतों, खुले और सार्वजनिक संस्थानों के रूप में, टिप्पणियों, बहस और रचनात्मक आलोचना के प्रति ग्रहणशील रहना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि जब कोई मामला विचाराधीन होता है, तब भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करना महत्वपूर्ण होता है। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने कहा, ''हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की जरूरत है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन क्यों न हो।

खंडपीठ ने उदार लोकतंत्र को बनाए रखने में न्यायपालिका और मीडिया द्वारा निभाई गई पूरक भूमिकाओं को भी रेखांकित किया, दोनों संस्थानों को भारत के संवैधानिक ढांचे के "मूलभूत स्तंभ" कहा। कोर्ट ने कहा, 'उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को रद्द करते हुए ये टिप्पणियां कीं कि समाचार एजेंसी एएनआई के विकिपीडिया के खिलाफ मानहानि मामले के बारे में विकिपीडिया पेज "प्रथम दृष्टया अवमाननाकारी" था। हाईकोर्ट ने उस पेज को हटाने का निर्देश दिया था, जिसमें बताया गया था कि न्यायाधीश ने चेतावनी दी थी कि अगर उन्होंने एएनआई के खिलाफ की गई कथित अपमानजनक टिप्पणी को नहीं हटाया तो विकिपीडिया भारत में बंद कर दिया जाएगा।

हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए, विकिमीडिया फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जस्टिस भुइयां द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया: उन्होंने कहा कि एक सार्वजनिक और खुली संस्था के रूप में अदालतों को सार्वजनिक टिप्पणियों, बहस और आलोचनाओं के लिए हमेशा खुला रहना चाहिए। वास्तव में, अदालतों को बहस और रचनात्मक आलोचना का स्वागत करना चाहिए। हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर लोगों और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की आवश्यकता होती है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन हो।

तथापि, आलोचना करने वालों को यह याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश ऐसी आलोचना का उत्तर नहीं दे सकते हैं लेकिन यदि कोई प्रकाशन न्यायालय या न्यायाधीश या न्यायाधीशों को बदनाम करता है और यदि अवमानना का मामला बनता है, जैसा कि न्यायमूत अय्यर ने छठे सिद्धांत में उल्लेख किया है, तो निश्चित रूप से न्यायालयों को कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन मीडिया को यह कहना अदालत का काम नहीं है कि इसे हटा दो, इसे हटा दो।

किसी भी प्रणाली के सुधार के लिए जिसमें न्यायपालिका शामिल है, आत्मनिरीक्षण महत्वपूर्ण है। यह तभी हो सकता है जब अदालत के समक्ष आने वाले मुद्दों पर भी मजबूत बहस हो। न्यायपालिका और मीडिया दोनों ही लोकतंत्र के मूलभूत स्तंभ हैं जो हमारे संविधान की मूल विशेषता है। एक उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए, दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। इससे पहले, किसानों के विरोध प्रदर्शन के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक मुद्दा तैयार किया था कि क्या किसी ऐसे मुद्दे पर सार्वजनिक विरोध की अनुमति दी जा सकती है जो अदालत के समक्ष विचाराधीन है।



Sunday, 4 May 2025

138 चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया

चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया 

हाई कोर्ट ने इस कंफ्यूजन को किया दूर-

अब तक कई लोगों के बीच संशय बना हुआ था कि ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा गया नोटिस (cheque bounce notice rules) मान्य नहीं होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने यह कंफ्यूजन दूर कर दी है। कोर्ट के अनुसार चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से नोटिस भेजा जाता है तो इसे अमान्य नहीं कहा जा सकता है।

      यह वैध (cheque bounce valid notice) और मान्य होगा, बस वह आईटी एक्ट की धारा 13 में दिए गए प्रावधानों के अनुसार होना चाहिए। अब फोन से व्हाटसएप, ईमेल करके चेक बाउंस का डिमांड नोटिस (demand notice) भेजा जाता है तो वह वैध होगा। 

ई-मेल से भेजे नोटिस को दिया वैध करार-

चेक बाउंस का यह मामला राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (UP govt) से जुड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (Negotiable Instruments Act) की धारा 138 इस बात को सही मानती है कि कोई लिखित नोटिस है तो वह मान्य होगा। इस धारा में नोटिस कैसे लिखा या टाइप करके किस माध्यम से भेजा, यह नहीं कहा गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने इस आधार पर चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजे गए नोटिस को वैध व मान्य करार दिया है।

एविडेंस एक्ट की धारा 65 बी का दिया हवाला - 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चेक बाउंस (how to send cheque bounce notice ) के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट व आईटी एक्ट में दिए गए प्रावधानों की पड़ताल करके यह निर्णय सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि आईटी कानून (IT Act) में स्पष्ट किया गया है कि चेक बाउंस के मामले में कोई जानकारी लिखित या टाइप हो और यह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भेजी जाती है तो इसे सही माना जाएगा, बशर्ते की इसका प्रूफ रखना होगा।

आईटी कानून के सेक्शन 4 और 13 का भी हाईकोर्ट ने इस बात की पुष्टि के लिए हवाला दिया है। इसके अलावा इंडियन एविडेंस एक्ट (Indian Evidence Act) की धारा 65 बी का भी निर्णय सुनाते हुए हवाला दिया। इस धारा में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार करने की बात कही गई है।

राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार

 



Thursday, 1 May 2025

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules


Gratuity Rules: देश के सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। हाल ही में हाईकोर्ट ने ग्रेच्युटी (Gratuity) के मामले में कर्मचारियों के हित में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इस फैसले के अनुसार, योग्य कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है और उन्हें पूरा लाभ मिलना चाहिए। यह फैसला लाखों कर्मचारियों के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है।
ग्रेच्युटी एक महत्वपूर्ण सेवानिवृत्ति लाभ है जो कर्मचारियों को लंबे समय तक एक ही संगठन में काम करने पर मिलता है। यह रकम उनके भविष्य की आर्थिक सुरक्षा का एक अहम हिस्सा होती है और कई परिवारों के लिए इसका बहुत अधिक महत्व होता है। कई बार देखा गया है कि नियोक्ता विभिन्न कारणों से इस राशि में कटौती करते हैं या भुगतान में देरी करते हैं, जिससे कर्मचारियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

हाईकोर्ट के फैसले का महत्व
हाईकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि अगर कोई कर्मचारी न्यूनतम आवश्यक सेवा अवधि पूरी कर चुका है, तो उसे पूरी ग्रेच्युटी राशि का भुगतान अनिवार्य रूप से मिलना चाहिए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि नियोक्ता किसी भी परिस्थिति में ग्रेच्युटी देने से इनकार नहीं कर सकते, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो।

इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अब कर्मचारियों को उनके कानूनी अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी। अक्सर देखा जाता है कि ग्रेच्युटी के भुगतान में नियोक्ताओं द्वारा विभिन्न बहाने बनाए जाते हैं, लेकिन अब इस फैसले के बाद ऐसा करना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट संदेश है कि कर्मचारियों के हितों की रक्षा होनी चाहिए।

ग्रेच्युटी क्या है और कब मिलती है?

ग्रेच्युटी एक प्रकार का धन्यवाद स्वरूप दिया जाने वाला पारितोषिक है, जो कर्मचारियों को उनकी लंबी और निष्ठापूर्ण सेवाओं के लिए दिया जाता है। यह रकम नौकरी छोड़ने, सेवानिवृत्ति या कर्मचारी की मृत्यु के मामले में उसे या उसके परिवार को दी जाती है। ग्रेच्युटी पाने के लिए कर्मचारी को कम से कम 5 साल तक एक ही कंपनी या संगठन में सेवा करनी होती है।

यह नियम सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों पर लागू होता है, लेकिन निजी क्षेत्र में यह केवल उन्हीं संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। 5 साल की सेवा अवधि पूरी करने के बाद, कर्मचारी जिस भी कारण से नौकरी छोड़ता है, वह ग्रेच्युटी का हकदार होता है, चाहे वह स्वेच्छा से इस्तीफा दे या फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाए।

ग्रेच्युटी की गणना कैसे होती है?
ग्रेच्युटी की गणना के लिए एक विशेष फॉर्मूला निर्धारित किया गया है। इस फॉर्मूले के अनुसार, ग्रेच्युटी की राशि की गणना इस प्रकार होती है: (अंतिम बेसिक सैलरी + डीए) × काम किए गए वर्ष × 15/26। यहां, अंतिम बेसिक सैलरी और डीए (महंगाई भत्ता) का मतलब कर्मचारी के आखिरी महीने का वेतन होता है।

उदाहरण के लिए, अगर किसी कर्मचारी का अंतिम बेसिक वेतन और डीए 30,000 रुपये है और उसने किसी संगठन में 10 साल तक काम किया है, तो उसकी ग्रेच्युटी की राशि होगी: (30,000 × 10 × 15) ÷ 26 = 1,73,076 रुपये। यह राशि काफी महत्वपूर्ण हो सकती है, खासकर उन कर्मचारियों के लिए जिन्होंने एक संगठन में लंबे समय तक सेवा की है।

हाईकोर्ट के फैसले से कर्मचारियों को क्या फायदा होगा?
हाईकोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले के बाद अब कर्मचारियों को कई प्रकार के फायदे मिलेंगे। सबसे पहले, अब नियोक्ता द्वारा ग्रेच्युटी रोकने, कम करने या भुगतान में देरी करने की स्थिति में कर्मचारी सीधे कोर्ट में शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इससे उन्हें न्याय प्राप्त करने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा।

दूसरा महत्वपूर्ण फायदा यह है कि कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि अगर नियोक्ता ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करता है, तो उसे इस राशि पर ब्याज भी देना होगा। यह ब्याज दर काफी अधिक हो सकती है, इसलिए नियोक्ताओं के लिए अब ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करना महंगा पड़ सकता है। इससे समय पर भुगतान सुनिश्चित होगा।

किन कर्मचारियों को मिलेगा इस फैसले का लाभ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का लाभ देश के सभी सरकारी कर्मचारियों और उन निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलेगा जहां 10 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। इसमें सभी प्रकार के कर्मचारी शामिल हैं, चाहे वे रिटायरमेंट के कारण सेवानिवृत्त हुए हों, नौकरी छोड़ी हो या फिर कर्मचारी की मृत्यु हो गई हो।

विशेष रूप से, यह फैसला उन कर्मचारियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जिन्हें पहले ग्रेच्युटी के भुगतान में समस्याओं का सामना करना पड़ा है। अब वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि उन्हें कानून के अनुसार पूरा लाभ मिले। यह फैसला देश के लाखों कर्मचारियों के परिवारों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करेगा।

ग्रेच्युटी का महत्व कर्मचारियों के जीवन में
ग्रेच्युटी एक ऐसी राशि है जो कर्मचारियों के सेवानिवृत्त जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह एकमुश्त राशि उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और सेवानिवृत्ति के बाद के जीवन में होने वाले खर्चों को पूरा करने में मदद करती है। बहुत से लोग इस राशि का उपयोग अपना घर खरीदने, बच्चों की शिक्षा या शादी के खर्च, या फिर स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए करते हैं।

कई परिवारों के लिए, ग्रेच्युटी उनकी जीवन भर की बचत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। इसीलिए इसका समय पर और पूरा भुगतान सुनिश्चित होना बहुत जरूरी है। हाईकोर्ट के इस फैसले से यह सुनिश्चित होगा कि कर्मचारियों के जीवन भर के परिश्रम का उचित मूल्य उन्हें मिले और उनका भविष्य सुरक्षित रहे।

नियोक्ताओं के लिए क्या हैं निहितार्थ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का नियोक्ताओं पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। अब उन्हें ग्रेच्युटी के भुगतान को लेकर अधिक सावधानी बरतनी होगी और कानूनी प्रावधानों का सख्ती से पालन करना होगा। अगर वे ग्रेच्युटी के भुगतान में चूक करते हैं या देरी करते हैं, तो उन्हें कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है और अतिरिक्त ब्याज भी देना पड़ सकता है।

नियोक्ताओं को अब अपने वित्तीय प्रबंधन में ग्रेच्युटी के भुगतान को प्राथमिकता देनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी परिस्थिति में, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, कर्मचारियों के ग्रेच्युटी के अधिकार का उल्लंघन न हो। इससे नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का माहौल बनेगा और कार्यस्थल पर सकारात्मक वातावरण का निर्माण होगा।

ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और क्या सुधार की आवश्यकता है?
हालांकि हाईकोर्ट के इस फैसले से कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है, लेकिन ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और भी सुधार की आवश्यकता है। सबसे पहले, ग्रेच्युटी अधिनियम केवल उन संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। छोटे संगठनों में काम करने वाले कर्मचारियों को भी इस लाभ का विस्तार करने की आवश्यकता है।

दूसरा, वर्तमान में ग्रेच्युटी पर कर छूट की सीमा 20 लाख रुपये है। महंगाई और वेतन में वृद्धि को देखते हुए इस सीमा को बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि कर्मचारियों को अधिक लाभ मिल सके। साथ ही, ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी पर ब्याज दर को और अधिक स्पष्ट करने की जरूरत है ताकि नियोक्ताओं द्वारा इसका दुरुपयोग न हो सके।
यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्यों के लिए है। हालांकि इसमें दी गई सभी जानकारियां विश्वसनीय स्रोतों से ली गई हैं, फिर भी ग्रेच्युटी से संबंधित नवीनतम नियमों और आधिकारिक जानकारी के लिए पाठकों को संबंधित सरकारी अधिसूचनाओं और कानूनी दस्तावेजों से परामर्श करने की सलाह दी जाती है। किसी भी विसंगति की स्थिति में, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए नवीनतम फैसले और सरकारी अधिसूचनाएं ही मान्य होंगी।


बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता

 बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि बीमा कंपनी चाहती है कि बीमा पॉलिसी जारी करने के लिए फॉर्म में विशिष्ट विवरण दाखिल किए जाएं, तो उसे पॉलिसी चाहने वाले व्यक्ति से इसका खुलासा करने पर जोर देना चाहिए। एक बार जब पॉलिसी ऐसे तथ्यों का खुलासा किए बिना व्यक्ति को जारी कर दी जाती है और बीमा कंपनी द्वारा प्रीमियम वसूल कर लिया जाता है, तो वह तथ्यों को छिपाने/न बताने के आधार पर अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। जस्टिस शेखर बी सराफ और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने कहा, "यदि प्रस्ताव फॉर्म में विशिष्ट प्रश्न पूछे गए हैं, तो बीमाधारक का यह कर्तव्य है कि वह उन विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर दे, लेकिन यदि प्रस्ताव फॉर्म में कोई प्रश्न या कॉलम खाली छोड़ दिया जाता है, तो बीमा कंपनी को बीमाधारक से उसे भरने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी कॉलम को छोड़े जाने के बावजूद बीमा कंपनी प्रीमियम स्वीकार करती है, और उसके बाद पॉलिसी बांड जारी करती है, तो वह बाद के चरण में बीमाधारक के दावे को अस्वीकार नहीं कर सकती। बीमाकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह पिछली पॉलिसी के विवरणों को सत्यापित करे जो पहले से ही उनके पास रिकॉर्ड में हैं।"

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मनमोहन नंदा बनाम यूनाइटेड इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड पर फिर से भरोसा किया गया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि बीमा कंपनी फॉर्म के कुछ विशिष्ट कॉलम दाखिल करना चाहती है, तो उसे उसे दाखिल करने पर जोर देना चाहिए। यदि कॉलम खाली छोड़ दिए जाते हैं और पॉलिसी जारी कर दी जाती है, तो बीमा कंपनी उन कॉलम में तथ्यों को छिपाने या उनका खुलासा न करने के कारण बाद में अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। तदनुसार, न्यायालय ने माना कि एलआईसी ने उन खाली कॉलम के बारे में कोई स्पष्टीकरण मांगे बिना प्रीमियम स्वीकार कर लिया, जहां पिछली पॉलिसियों का खुलासा किया जाना था। यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता की पत्नी की मृत्यु अचानक दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, न कि पिछली बीमारियों के कारण, न्यायालय ने माना कि एलआईसी की कार्रवाई मनमानी थी। विवादित आदेशों को खारिज करते हुए, न्यायालय ने एलआईसी द्वारा बीमित राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।

Monday, 28 April 2025

आर्थिक अपराध के अलग-अलग आधार, हाईकोर्ट को ऐसी FIR को आरंभिक चरण में रद्द करते समय सावधानी बरतनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

आर्थिक अपराध के अलग-अलग आधार, हाईकोर्ट को ऐसी FIR को आरंभिक चरण में रद्द करते समय सावधानी बरतनी चाहिए : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी के निदेशक के विरुद्ध आर्थिक अपराधों में उनकी कथित संलिप्तता के लिए दर्ज FIR रद्द करने से इनकार किया। कोर्ट ने यह निर्णय इसलिए दिया, क्योंकि हाईकोर्ट ने इस तथ्य के बावजूद मामला रद्द करने में गलती की कि कंपनी के निदेशकों ने कुछ नकली/छद्म कंपनियां स्थापित कीं और मौद्रिक लेनदेन इन नकली/छद्म कंपनियों को प्रसारित किया गया। जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले की खंडपीठ उस मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के निदेशक के विरुद्ध आर्थिक अपराधों से उत्पन्न आपराधिक कार्यवाही केवल इसलिए रद्द की थी, क्योंकि अपीलकर्ता और प्रतिवादी कंपनी के बीच लंबे समय से व्यापारिक लेन-देन चल रहा था और विवाद पूरी तरह से दीवानी (बकाया राशि का भुगतान न करना) लग रहा था।

हाईकोर्ट का निर्णय पलटते हुए जस्टिस वराले द्वारा लिखित निर्णय में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, हरियाणा राज्य और अन्य बनाम (1977) 4 एससीसी 451 के मामले पर भरोसा किया गया, जिसमें कहा गया कि हाईकोर्ट को जांच के प्रारंभिक चरण में FIR रद्द करने से बचना चाहिए था। न्यायालय ने कहा, “हाईकोर्ट यह भी ध्यान देने में विफल रहा कि जब आरोपी व्यक्तियों द्वारा रची गई आपराधिक साजिश के बारे में कुछ बुनियादी सामग्री हाईकोर्ट के संज्ञान में लाई गई तो जांच एजेंसी के लिए न्यायालय के समक्ष सच्चाई को उजागर करने की प्रक्रिया में गहन जांच करना आवश्यक था। इस पहलू का ट्रायल केवल उचित सुनवाई करके ही किया जा सकता था।”

न्यायालय ने दोहराया कि यद्यपि CrPC की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट को दी गई शक्तियां व्यापक और विवेकाधीन हैं, लेकिन उनका उपयोग वैध जांच को रोकने के लिए मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा, "यह सच है कि पक्षकारों द्वारा अपने समकक्षों को परेशान करने और पैसे ऐंठने के लिए शामिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर उसके उचित परिप्रेक्ष्य में विचार करे और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्या मामले की जांच की आवश्यकता है या कार्यवाही को रद्द करने की आवश्यकता है। वर्तमान मामले के विशिष्ट तथ्य और परिस्थितियां गहन जांच की मांग करती हैं, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी राशि शामिल थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि जब याचिकाकर्ता ने एफआईआर को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, तब जांच अपने प्रारंभिक चरण में थी। इस न्यायालय में वर्तमान विशेष अनुमति याचिका दायर करने के बाद ऐसा लगता है कि आरोप पत्र दायर करके जांच पूरी कर ली गई।"

आर्थिक अपराध एक अलग वर्ग है, एफआईआर को रद्द करने में सावधानी की आवश्यकता अदालत ने कहा, “परबतभाई अहीर बनाम गुजरात राज्य और अन्य [2017 (9) एससीसी 641] के मामले का संदर्भ लाभदायक हो सकता है, जिसमें यह देखा गया कि आर्थिक अपराध अपनी प्रकृति से निजी पक्षों के बीच विवाद के दायरे से परे हैं। हाईकोर्ट को उस स्थिति में अपराध रद्द करने से मना करना उचित होगा, जब अपराधी वित्तीय या आर्थिक धोखाधड़ी या दुष्कर्म जैसी गतिविधि में शामिल हो। वित्तीय या आर्थिक प्रणाली पर शिकायत किए गए कृत्य के परिणाम संतुलन में होंगे। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्थिक अपराध अपनी प्रकृति से अन्य अपराधों की तुलना में एक अलग स्तर पर हैं। उनके व्यापक प्रभाव हैं। वे एक अलग वर्ग बनाते हैं। आर्थिक अपराध पूरे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं और देश के वित्तीय स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। अगर ऐसे अपराधों को हल्के में लिया जाता है तो जनता का विश्वास और भरोसा डगमगा जाएगा।”

कोर्ट अदालत ने आदेश दिया, "हमारा मानना ​​है कि हाईकोर्ट द्वारा CrPC की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना न्यायोचित नहीं था। तदनुसार, अपील स्वीकार की जाती है। यह स्पष्ट किया जाता है कि उपर्युक्त टिप्पणियां केवल प्रथम दृष्टया प्रकृति की हैं और ट्रायल कोर्ट इस निर्णय/आदेश से प्रभावित हुए बिना और कानून के अनुसार ही आगे बढ़ेगा।" तदनुसार अपील स्वीकार की गई। 

केस टाइटल: दिनेश शर्मा बनाम ईएमजीई केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड और अन्य।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/economic-offences-stand-on-different-footing-high-courts-should-be-cautious-while-quashing-such-firs-at-early-stage-supreme-court-290530

चूक के लिए मुकदमा खारिज करने से उसी कारण से नया मुकदमा दायर करने पर रोक नहीं लगती : सुप्रीम कोर्ट

चूक के लिए मुकदमा खारिज करने से उसी कारण से नया मुकदमा दायर करने पर रोक नहीं लगती : सुप्रीम कोर्ट

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/dismissal-of-suit-for-default-doesnt-bar-fresh-suit-on-same-cause-of-action-supreme-court-290451

Saturday, 5 April 2025

केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

*केवल गलत आदेश पारित करने के आधार पर अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व तहसीलदार के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही रद्द की। कोर्ट इस मामले में यह फैसला दिया कि दुर्भावना या बाहरी प्रभाव के आरोपों के बिना गलत अर्ध-न्यायिक आदेश अकेले अनुशासनात्मक कार्रवाई को उचित नहीं ठहरा सकते। कोर्ट ने कहा कि जब आदेश सद्भावनापूर्वक (हालांकि गलत) पारित किया गया तो यह अर्ध-न्यायिक अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का औचित्य नहीं रखता, जब तक कि आदेश बाहरी कारकों या किसी भी तरह के रिश्वत से प्रभावित न हो।


जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस ए.जी. मसीह की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता (जब वह तहसीलदार था) के खिलाफ आदेश पारित करने के 14 साल बाद कथित गलत आदेश पारित करने के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई। संक्षेप में मामला 1997 में तहसीलदार के रूप में अपीलकर्ता ने मप्र भूमि राजस्व संहिता, 1959 की धारा 57(2) के तहत अर्ध-न्यायिक आदेश पारित किया, जिसमें उचित प्रक्रिया (नोटिस, पंचायत संकल्प, पटवारी रिपोर्ट) के बाद कुछ निजी पक्षों के पक्ष में भूमि का निपटान किया गया। आदेश को अंतिम रूप दिया गया, क्योंकि इसे कभी चुनौती नहीं दी गई।


हालांकि, 2009 में उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया और 2011 में आरोप पत्र जारी किया गया, जिसमें राज्य को नुकसान पहुंचाने वाले अवैध बंदोबस्त का आरोप लगाया गया। आरोप पत्र को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता ने मप्र हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अर्ध-न्यायिक कृत्यों के लिए न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 के तहत सुरक्षा की मांग की। साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि आरोप पत्र में बाहरी प्रभाव या भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप का उल्लेख नहीं है, जिसके लिए 14 साल की अत्यधिक देरी के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।


अस्पष्ट देरी का हवाला देते हुए एकल खंडपीठ ने आरोप पत्र खारिज कर दिया। हालांकि, खंडपीठ ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम के.के. धवन (1993) पर भरोसा करते हुए एकल जज के आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि लापरवाही/अर्ध-न्यायिक कृत्यों के कारण अनुचित पक्षपात हो सकता है, जिसके लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई की आवश्यकता हो सकती है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई। हाईकोर्ट की खंडपीठ का निर्णय दरकिनार करते हुए जस्टिस मसीह द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया कि भ्रष्टाचार, बाहरी प्रभाव या बेईमानी के आरोपों के बिना केवल "गलत आदेश" अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही को उचित नहीं ठहरा सकते।


कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य, (2019) 10 एससीसी 640 का संदर्भ देते हुए न्यायालय ने कहा कि अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए केवल गलत आदेश नहीं, बल्कि कदाचार का सबूत भी आवश्यक है। 


कृष्ण प्रसाद वर्मा के मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया, "न्यायिक अधिकारियों द्वारा गलत आदेश दिए जाने पर स्वतः ही अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, जब तक कि बाहरी प्रभावों के आधार पर कदाचार के आरोप न हों। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित पक्षों को कानून के तहत उपलब्ध सभी उपचारों का लाभ उठाने का अधिकार होगा। यह भी दोहराया गया कि जब तक कदाचार, बाहरी प्रभावों, किसी भी तरह की रिश्वत आदि के स्पष्ट आरोप न हों, तब तक केवल इस आधार पर अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं की जानी चाहिए कि न्यायिक अधिकारी द्वारा गलत आदेश पारित किया गया है या केवल इस आधार पर कि न्यायिक आदेश गलत है।" 


मामले के तथ्यों पर कानून लागू करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की: 


“वर्तमान मामले में हमारा विचार है कि आरोपपत्र में अपीलकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोप गलत आदेश की श्रेणी में आते हैं, जो बाहरी कारकों या किसी भी प्रकार की रिश्वत से प्रभावित नहीं प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदेश बिना किसी बेईमानी के सद्भावनापूर्वक पारित किया गया है। इसके अलावा, कारण बताओ नोटिस में उल्लिखित तथ्य ऐसी किसी भी अनुचितता का संकेत नहीं देते हैं। भूमि बंदोबस्त आदेश पारित करते समय अपीलकर्ता द्वारा तहसीलदार के रूप में प्रयोग की गई शक्ति को ऐसी प्रकृति का नहीं माना जा सकता, जिसके लिए उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की आवश्यकता हो। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया, अपीलकर्ता के वकील द्वारा जिस निर्णय पर भरोसा किया गया, वह इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है। परिणामस्वरूप, पहला प्रश्न अपीलकर्ता के पक्ष में उत्तरित किया जाता है।” उपर्युक्त को देखते हुए न्यायालय ने अपील को स्वीकार कर लिया और एकल पीठ द्वारा पारित आदेश को बहाल करते हुए विवादित आदेश रद्द कर दिया। 


केस टाइटल: अमरेश श्रीवास्तव बनाम मध्य प्र

देश राज्य और अन्य।


Tuesday, 25 March 2025

एनआई एक्ट 148| राशि का 20% जमा करने की शर्त पूर्ण नहीं; असाधारण मामला बनाने पर राहत दी जाती है : सुप्रीम कोर्ट

एनआई एक्ट 148| राशि का 20% जमा करने की शर्त पूर्ण नहीं; असाधारण मामला बनाने पर राहत दी जाती है : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजा को निलंबित करने की शर्त के रूप में निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 148 के तहत न्यूनतम 20% राशि जमा करना एक पूर्ण नियम नहीं है। न्यायालय ने कहा, जब कोई अपीलीय अदालत एक अभियुक्त की सीआरपीसी की धारा 389 के तहत प्रार्थना पर विचार करती है जिसे निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, वह इस पर विचार कर सकती है कि क्या यह एक असाधारण मामला है जिसमें जुर्माना/मुआवजा राशि का 20% जमा करने की शर्त लगाए बिना सजा को निलंबित करने की आवश्यकता है।

जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने कहा कि यदि अपीलीय अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि यह एक असाधारण मामला है, तो उक्त निष्कर्ष पर पहुंचने के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए। इस मामले में आरोपियों को धारा 138 एनआई एक्ट के तहत दोषी ठहराया गया और अपील में, धारा 148 एनआई अधिनियम पर भरोसा करते हुए, सत्र न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को मुआवजे की राशि का 20% जमा करने की शर्त के अधीन धारा 389 सीआरपीसी के तहत राहत दी। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इस आदेश पर मुहर लगा दी। हाईकोर्ट के मुताबिक सीआरपीसी की धारा 389 के तहत सजा के निलंबन से राहत अभियुक्त को मुआवज़ा/जुर्माना राशि का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश देकर ही प्रदान की जा सकती है।

अपील में, अदालत ने सुरिंदर सिंह देसवाल उर्फ कर्नल एसएस देसवाल और अन्य बनाम वीरेंद्र गांधी (2019) 11 SCC 341 मामले में की गई टिप्पणियों पर गौर किया और कहा: "इस न्यायालय का मानना है कि एनआई अधिनियम की धारा 148 की एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या की जानी चाहिए। इसलिए, आम तौर पर, अपीलीय अदालत को धारा 148 में प्रदान की गई जमा राशि की शर्त लगाना उचित होगा। हालांकि, ऐसे मामले में जहां अपीलीय न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि 20% जमा करने की शर्त अन्यायपूर्ण होगी या ऐसी शर्त लगाने से अपीलकर्ता को अपील के अधिकार से वंचित होना पड़ेगा, विशेष रूप से दर्ज किए गए कारणों से अपवाद किया जा सकता है।"

यह तर्क दिया गया कि न तो सत्र न्यायालय के समक्ष और न ही हाईकोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ताओं द्वारा कोई दलील दी गई थी कि इन मामलों में एक अपवाद बनाया जा सकता है और जमा की आवश्यकता या राशि का न्यूनतम 20% समाप्त किया जा सकता है। अदालत ने कहा , "जब कोई आरोपी सीआरपीसी की धारा 389 के तहत सजा के निलंबन के लिए आवेदन करता है, तो वह आम तौर पर बिना किसी शर्त के सजा के निलंबन से राहत के लिए आवेदन करता है। इसलिए, जब अपीलकर्ताओं द्वारा एक व्यापक आदेश मांगा जाता है, तो अदालत को विचार करना होगा मामला अपवाद में आता है या नहीं.. इन मामलों में, सत्र न्यायालय और हाईकोर्ट दोनों गलत आधार पर आगे बढ़े हैं कि न्यूनतम 20% राशि जमा करना एक पूर्ण नियम है जो किसी भी अपवाद को समायोजित नहीं करता है।

इसलिए पीठ ने हाईकोर्ट को मामले पर नये सिरे से विचार करने का निर्देश दिया। जम्बू भंडारी बनाम मप्र राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड - 2023 लाइव लॉ (SC) 776 - 2023 INSC 822 निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881; धारा 148 - आम तौर पर, धारा 148 में दिए गए अनुसार जमा की शर्त लगाना अपीलीय न्यायालय के लिए उचित होगा। हालांकि, ऐसे मामले में जहां अपीलीय न्यायालय संतुष्ट है कि 20% जमा की शर्त अन्यायपूर्ण होगी या ऐसी शर्त लगाना अनुचित होगा। यह अपीलकर्ता को अपील के अधिकार से वंचित करने के बराबर है, विशेष रूप से दर्ज किए गए कारणों से अपवाद किया जा सकता है। (पैरा 5-6)

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973; धारा 389 - निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट , 1881; धारा 148 - जब कोई अपीलीय अदालत एक अभियुक्त की सीआरपीसी की धारा 389 के तहत प्रार्थना पर विचार करती है जिसे निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, वह इस पर विचार कर सकती है कि क्या यह एक असाधारण मामला है जिसमें जुर्माना/मुआवजा राशि का 20% जमा करने की शर्त लगाए बिना सजा को निलंबित करने की आवश्यकता है- यदि अपीलीय न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि यह एक असाधारण मामला है, तो उक्त निष्कर्ष पर पहुंचने के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए। जब कोई आरोपी सीआरपीसी की धारा 389 के तहत आवेदन करता है। सजा के निलंबन के लिए, वह आम तौर पर बिना किसी शर्त के सजा के निलंबन से राहत देने के लिए आवेदन करता है। इसलिए, जब अपीलकर्ताओं द्वारा व्यापक आदेश की मांग की जाती है, तो न्यायालय को इस पर विचार करना होगा कि मामला अपवाद में आता है या नहीं। (पैरा 7-10)


https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/section-148-ni-act-deposit-of-minimum-20-amount-is-not-an-absolute-rule-can-be-relaxed-if-exceptional-case-is-made-out-supreme-court-237684


Friday, 14 March 2025

एमपी में दो से अधिक संतानों पर बर्खास्तगी पर हाईकोर्ट का बड़ा फैसला

मपी में दो से अधिक संतानों पर बर्खास्तगी पर हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, 14/03/2025

MP Highcourt एमपी में सरकारी सेवा में दो से अधिक संतान होने पर बर्खास्तगी पर जबलपुर हाईकोर्ट का महत्त्वपूर्ण निर्णय सामने आया है। इस मामले में मप्र हाईकोर्ट ने एक शिक्षक को राहत दी है। कोर्ट ने उनकी बर्खास्तगी का आदेश स्थगित कर दिया है। याचिकाकर्ता नसीर खान मैहर में मिडिल स्कूल के शिक्षक थे। दो से अधिक संतान पर सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा याचिकाकर्ता को छह मार्च, 2025 को सेवामुक्त कर दिया गया था जिससे हाईकोर्ट ने राहत दी। सुनवाई के दौरान कोर्ट में पूर्व के समान मामलों के आदेशों का भी हवाला दिया गया।

मप्र हाईकोर्ट MP Highcourt ने दो से अधिक संतान होने के आधार पर सेवा से बर्खास्तगी के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। जस्टिस विशाल मिश्रा की सिंगल बेंच ने आयुक्त लोक शिक्षण, जिला शिक्षा अधिकारी मैहर व अन्य को तलब किया। याचिकाकर्ता नसीर खान के मामले में यह निर्णय दिया गया।

मैहर में मिडिल स्कूल के शिक्षक नसीर खान को सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा 10 मार्च 2000 को जारी परिपत्र के आधार पर 6 मार्च, 2025 को सेवामुक्त कर दिया गया। इसके अनुसार ऐसे उम्मीदवार जिसके दो से अधिक जीवित संतान हैं, जिनमें से एक का जन्म 26 जनवरी, 2001 या उसके बाद हो, वह किसी सेवा या पद पर नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा।

हाईकोर्ट में कहा गया कि इसमें उम्मीदवार लिखा है, जबकि वह 1998 से नौकरी में था। याचिका पर बहस के दौरान हाई कोर्ट के पूर्व के समान मामलों के आदेशों का भी हवाला दिया गया।

Thursday, 27 February 2025

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने नियुक्ति से पहले आपराधिक रिकॉर्ड छिपाने के लिए सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने नियुक्ति से पहले आपराधिक रिकॉर्ड छिपाने के लिए सिविल जज की बर्खास्तगी को बरकरार रखा

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सिविल जज वर्ग-II अतुल ठाकुर की बर्खास्तगी को बरकरार रखा है, क्योंकि उन्होंने अपने सत्यापन फॉर्म में


Read more: https://lawtrend.in/mp-high-court-dismissal-civil-judge-suppression-criminal-record/

Monday, 24 February 2025

क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं, मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी - सुप्रीम कोर्ट

*क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं, मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी - सुप्रीम कोर्ट*

Supreme Court Decision : दहेज के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, हाईकोर्ट का फैसला पलटा

Supreme Court Decision :दहेज का मामला धारा 498ए के अंदर आता है। अगर कोई महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित करता है तो धारा 498ए के तहत कार्रवाई की जाती है। वहीं, धारा 498ए तहत केवल दहेत उत्पीड़न ही नहीं, अन्य मामले भी आते हैं। इसपर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया है। हाईकोर्ट की ओर से कुछ और फैसला दिया गया था।

*क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में एक मामला पहुंचा। जिसमें महिला ने उत्पीड़न का आरोप लगाया था। महिला की ओर से लगाए गए उत्पीड़न के आरोप पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान महिला से दहेज नहीं मांगा गया था।जिस वहज से पहले हाईकोर्ट ने एफआईआर को रद्द करा दिया था। फिर अब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court order) ने कहा है कि आपीसी की धारा 498ए के तहत क्रूरता साबित करने के लिए दहेज की मांग जरूरी नहीं है। 

*498ए का दायरा सिर्फ दहेज मांगने तक सीमित नहीं*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 498ए का मूल उद्देश्य महिलाओं को पति और ससुराल पक्ष की क्रूरता से बचाना है। इसमें यह जरूरी नहीं कि क्रूरता सिर्फ दहेज की मांग से ही की गई हो। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के दौरान साफ किया कि धारा 498ए का दायरा सिर्फ दहेज मांगने तक सीमित नहीं है। 

*मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना भी 498ए में आएगी*

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि अगर कोई महिला मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित की जाती है तो 498ए धारा लागू होगी। चाहे दहेज की मांग न की गई हो। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि अगर पति या ससुराल पक्ष का आचरण ऐसा है जिससे महिला को गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान हो सकता है, तो इसे क्रूरता माना जाएगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलता

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) से पहले मामला हाईकोर्ट में पहुंचा था। मामला आंध्र प्रदेश से जुड़ा है। हाईकोर्ट की ओर से व्यक्ति और उसके परिवार के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने का आदेश दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि क्योंकि दहेज की मांग नहीं की गई है तो इसलिए 498ए का मामला नहीं बनता है। परंतु, अब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्रूरता के अन्य रूप भी अपराध की श्रेणी में ही आते हैं। 

Saturday, 8 February 2025

गिरफ्तारी के बारे में रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी के आधार के बारे में गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करने के कर्तव्य का अनुपालन नहीं: सुप्रीम कोर्ट

 Article 22(1) | गिरफ्तारी के बारे में रिश्तेदारों को सूचित करना, गिरफ्तारी के आधार के बारे में गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करने के कर्तव्य का अनुपालन नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के बारे में व्यक्ति के रिश्तेदारों को सूचित करने से पुलिस या जांच एजेंसी को गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने के अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्व से छूट नहीं मिलती। अदालत ने कहा, "गिरफ्तार व्यक्ति की रिश्तेदार (पत्नी) को गिरफ्तारी के आधार के बारे में बताना अनुच्छेद 22(1) के आदेश का अनुपालन नहीं है।" इसके अलावा, कोर्ट ने राज्य के इस दावे को खारिज कर दिया कि रिमांड रिपोर्ट, गिरफ्तारी ज्ञापन और केस डायरी में गिरफ्तारी के बारे में विस्तृत जानकारी देना संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार प्रदान करने के संवैधानिक आदेश का पर्याप्त रूप से अनुपालन करता है। कोर्ट ने बताया कि ये दस्तावेज केवल गिरफ्तारी के तथ्य को दर्ज करते हैं, इसके पीछे के कारणों को नहीं। अदालत ने कहा, "रिमांड रिपोर्ट में गिरफ्तारी के आधार का उल्लेख करना, गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित करने की आवश्यकता का अनुपालन नहीं है।" अदालत ने कहा, "हाईकोर्ट के समक्ष (राज्य द्वारा) लिया गया रुख यह था कि अपीलकर्ता की पत्नी को गिरफ्तारी के बारे में सूचित किया गया। गिरफ्तारी के बारे में जानकारी गिरफ्तारी के आधार से पूरी तरह से अलग है। गिरफ्तारी के आधार गिरफ्तारी ज्ञापन से अलग हैं। गिरफ्तारी ज्ञापन में गिरफ्तार व्यक्ति का नाम, उसका स्थायी पता, वर्तमान पता, FIR और लागू धारा का विवरण, गिरफ्तारी का स्थान, गिरफ्तारी की तारीख और समय, आरोपी को गिरफ्तार करने वाले अधिकारी का नाम और उस व्यक्ति का नाम, पता और फोन नंबर शामिल है, जिसे गिरफ्तारी के बारे में जानकारी दी गई। हमने वर्तमान मामले में गिरफ्तारी ज्ञापन का अवलोकन किया। इसमें केवल ऊपर बताई गई जानकारी है, न कि गिरफ्तारी के आधार। गिरफ्तारी के बारे में जानकारी गिरफ्तारी के आधार के बारे में जानकारी से पूरी तरह से अलग है। गिरफ्तारी की सूचना मात्र से गिरफ्तारी के आधार प्रस्तुत नहीं किए जा सकते।" अदालत ने आगे कहा, “इस संबंध में 10 जून 2024 को शाम 6.10 बजे केस डायरी की प्रविष्टि पर भरोसा किया गया, जिसमें दर्ज है कि अपीलकर्ता को गिरफ्तारी के आधारों के बारे में सूचित करने के बाद गिरफ्तार किया गया। यह हाईकोर्ट के समक्ष और साथ ही इस न्यायालय में प्रथम प्रतिवादी के उत्तर में दलील नहीं दी गई थी। यह एक बाद का विचार है। हाईकोर्ट और इस कोर्ट के समक्ष दायर उत्तर में लिए गए रुख को देखते हुए केवल पुलिस डायरी में एक अस्पष्ट प्रविष्टि के आधार पर हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि अनुच्छेद 22(1) के अनुपालन का अनुमान लगाया जा सकता है। कोई भी समकालीन दस्तावेज रिकॉर्ड में नहीं रखा गया, जिसमें गिरफ्तारी के आधारों का उल्लेख किया गया हो। इसलिए डायरी प्रविष्टियों पर भरोसा करना पूरी तरह से अप्रासंगिक है।” 

केस टाइटल: विहान कुमार बनाम हरियाणा राज्य और अन्य, एसएलपी (सीआरएल) नंबर 13320/2024 

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/article-221-informing-relatives-about-arrest-isnt-compliance-of-duty-to-inform-arrestee-of-grounds-of-arrest-supreme-court-283328

आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में उत्पीड़न इतना गंभीर होना चाहिए कि पीड़ित के पास कोई और विकल्प न बचे: सुप्रीम कोर्ट

आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में उत्पीड़न इतना गंभीर होना चाहिए कि पीड़ित के पास कोई और विकल्प न बचे: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान अपीलकर्ताओं के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोपों को खारिज करते हुए दोहराया कि कथित उत्पीड़न ऐसी प्रकृति का होना चाहिए कि पीड़ित के पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प न हो। इसके अलावा, मृतक को आत्महत्या करने में सहायता करने या उकसाने के आरोपी के इरादे को स्थापित किया जाना चाहिए। कई फैसलों पर भरोसा किया गया, जिसमें हाल ही में महेंद्र अवासे बनाम मध्य प्रदेश राज्य शामिल थे।

"IPC की धारा 306 के तहत अपराध बनाने के लिए, उस उकसाने के परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्ति की आत्महत्या के बारे में लाने के इरादे से आरोपी की ओर से धारा 107 आईपीसी द्वारा विचार किए गए विशिष्ट उकसाने की आवश्यकता है। आगे यह माना गया है कि मृतक को आत्महत्या करने के लिए सहायता करने या उकसाने या उकसाने का अभियुक्त का इरादा आईपीसी की धारा 306 को आकर्षित करने के लिए जरूरी है [देखें मदन मोहन सिंह बनाम गुजरात राज्य और अन्य, (2010) 8 SCC 628]। इसके अलावा, कथित उत्पीड़न से पीड़ित को अपने जीवन को समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं छोड़ना चाहिए था और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में आत्महत्या के लिए उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्यों का सबूत होना चाहिए।

वर्तमान मामले की उत्पत्ति पहले अपीलकर्ता के बेटे, जियाउल रहमान (अब मृतक) और शिकायतकर्ता के चचेरे भाई तनु (मृतक) के बीच संदिग्ध संबंध में निहित है। अपीलकर्ता द्वारा एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि तनु के रिश्तेदारों ने उसके बेटे को पीटा था। इस घटना के बाद, अपीलकर्ता के बेटे ने चोटों के कारण दम तोड़ दिया। इसके बाद, आरोपों के अनुसार, अपीलकर्ताओं ने तनु को अपमानित किया और तनु को प्रताड़ित किया, उसे अपने बेटे की मौत के लिए दोषी ठहराया। शिकायतकर्ता के अनुसार, इससे उसके चचेरे भाई ने आत्महत्या कर ली। शिकायतकर्ता द्वारा आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला शुरू किया गया था। इसे चुनौती देते हुए, अपीलकर्ताओं ने इन कार्यवाहियों को रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया

हालांकि, हाईकोर्ट ने इसे रद्द करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि आत्महत्या और आरोपी के कृत्य के बीच एक निकट संबंध था। उच्च न्यायालय ने कहा कि मृतका एक अतिसंवेदनशील लड़की थी और वह बहुत उदास थी और अपमानित महसूस कर रही थी। इस पृष्ठभूमि के खिलाफ, वर्तमान अपील दायर की गई थी। इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा कि आरोप पत्र शिकायतकर्ता के बयानों के आधार पर दायर किया गया है। विशेष रूप से, जांच में किसी अन्य कोण का पता नहीं लगाया गया। अदालत ने दर्ज किया कि आरोप पत्र ने शिकायतकर्ता के संस्करण को एक सुसमाचार सत्य के रूप में स्वीकार किया।
"आज हमारे पास शिकायतकर्ता R-2 का एकतरफा संस्करण बचा है। क्या कुछ और भयावह था? अगर यह आत्महत्या भी थी तो असली वजह क्या थी? क्या मृतका तनु अपने दोस्त जियाउल रहमान के साथ जो हुआ उससे व्याकुल थी? अंडर-करंट और रिश्ते की अस्वीकृति को ध्यान में रखते हुए, क्या किसी अन्य कोने से आत्महत्या के लिए कोई उकसावा था? क्या मृतका तनु ने घटनाओं के बदसूरत मोड़ के कारण और इस तथ्य के कारण कि उसके परिवार के सदस्यों पर संदेह था, अपनी जान लेने की चरम कार्रवाई का सहारा लिया? हमारे पास आज कोई जवाब नहीं है।

आगे बढ़ते हुए, अदालत ने कहा कि आत्महत्या के लिए उकसाने के अवयवों का आरोप पत्र में दूर-दूर तक उल्लेख नहीं किया गया है। इसके अलावा, अपीलकर्ता द्वारा मौखिक कथनों को इस तरह की प्रकृति का नहीं कहा जा सकता है कि मृतक के पास उसके जीवन को समाप्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। अदालत ने कहा, "आसपास की परिस्थितियां, विशेष रूप से तनु के परिवार के खिलाफ अपने बेटे जियाउल रहमान की मौत के लिए पहले अपीलकर्ता द्वारा एफआईआर दर्ज करना, प्रतिवादी नंबर 2 की ओर से किसी तरह अपीलकर्ताओं को फंसाने के लिए हताशा का एक तत्व इंगित करता है। इसे देखते हुए, न्यायालय ने कहा कि वर्तमान कार्यवाही प्रक्रिया का दुरुपयोग करेगी और इस प्रकार उन्हें रद्द कर दिया। हालांकि, पुन: जांच की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए, अदालत ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को एक विशेष जांच दल का गठन करने और मृतक की अप्राकृतिक मौत की जांच करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि वर्तमान निष्कर्ष को प्रभावित किए बिना स्वतंत्र रूप से पुन: जांच की जाएगी। खंडपीठ ने कहा, ''उत्तर प्रदेश राज्य के पुलिस महानिदेशक, कानून एवं व्यवस्था को तनु की अप्राकृतिक मौत की जांच के लिए पुलिस उपमहानिरीक्षक स्तर के अधिकारी की अध्यक्षता में एक विशेष जांच दल गठित करने का निर्देश दिया जाता ..... हम विशेष जांच दल को रामपुर मनिहारन, जिला सहारनपुर में 2022 के अपराध संख्या 367 में दर्ज पहली सूचना रिपोर्ट को अप्राकृतिक मौत के रूप में मानने के लिए अधिकृत करते हैं। हम उन्हें उचित लगने पर एफआईआर फिर से दर्ज करने की स्वतंत्रता देते हैं। हम निर्देश देते हैं कि पुन: जांच रिपोर्ट आज से दो महीने की अवधि के भीतर सीलबंद लिफाफे में इस न्यायालय के समक्ष रखी जाएगी।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/abetment-of-suicide-harassment-victim-section-306-ipc-supreme-court-283361

Friday, 7 February 2025

आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का निर्देश दिया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट

आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का निर्देश दिया जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि आरोप पत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद भी आगे की जांच का निर्देश दिया जा सकता है। हसनभाई वलीभाई कुरैशी बनाम गुजरात राज्य और अन्य, (2004) 5 एससीसी 347 का सहारा लेते हुए कोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि आगे की जांच के लिए मुख्य विचार सत्य तक पहुंचना और पर्याप्त न्याय करना है। हालांकि, ऐसी जांच का निर्देश देने से पहले कोर्ट को उपलब्ध सामग्री को देखने के बाद इस बात पर विचार करना चाहिए कि संबंधित आरोपों की जांच की आवश्यकता है या नहीं।

वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता ने अपने पति के खिलाफ क्रूरता का मामला दर्ज कराया था। FIR में उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं (शिकायतकर्ता के ससुराल वालों) के खिलाफ दहेज की मांग के संबंध में उत्पीड़न का कोई आरोप नहीं लगाया था। इसके बाद पति के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया। अब ट्रायल कोर्ट के समक्ष शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए प्रारंभिक बयान के अनुसार, उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं का उल्लेख नहीं किया। हालांकि, लगभग दो साल बाद दिए बयान में उसने अपनी सास और ननद के खिलाफ उत्पीड़न का आरोप लगाया।

इसके बाद उसने वर्तमान अपीलकर्ताओं के खिलाफ क्रूरता के आरोपों के संबंध में आगे/नए सिरे से जांच की मांग करते हुए CrPC की धारा 173(8) के तहत आवेदन दायर किया। हालांकि ट्रायल कोर्ट ने आवेदन खारिज कर दिया, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे अनुमति दी। इससे व्यथित होकर अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री को देखने के बाद जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट ने नए सिरे से जांच का निर्देश देकर बहुत बड़ी गलती की है। इसने तर्क दिया कि आवेदन बहुत देरी से दायर किया गया था

बेंच ने कहा, "रिकॉर्ड में प्रस्तुत सामग्री को देखने पर हम पाते हैं कि वर्तमान मामले में हाईकोर्ट ने इस मामले में नए सिरे से जांच का निर्देश देते हुए घोर गलती की और अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया। इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज किया कि धारा 173(8) CrPC के तहत दायर आवेदन बहुत देरी से दायर किया गया था।" न्यायालय ने बताया कि प्रारंभिक बयान में अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई आरोप नहीं थे। इसने जोर देकर कहा कि स्थगित बयान में भी आरोप अस्पष्ट थे।

पुनरावृत्ति की कीमत पर यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि शिकायतकर्ता ने अपने पति संजय गौतम के खिलाफ लंबित मुकदमे में पहले ही गवाही दी थी और 12 अप्रैल, 2012 को दिए गए बयान में अपीलकर्ताओं के खिलाफ कोई भी आरोप नहीं लगाया गया। यहां तक ​​कि 24 मार्च, 2014 को दर्ज की गई स्थगित मुख्य परीक्षा में भी अपीलकर्ता नंबर 2 के खिलाफ बिल्कुल अस्पष्ट आरोप लगाए गए।" न्यायालय ने यह भी बताया कि शिकायतकर्ता के पास CrPC की धारा 319 के अंतर्गत आवेदन भरने सहित अन्य उपलब्ध उपायों को तलाशने का विकल्प था।

आगे कहा गया, “निस्संदेह, शिकायतकर्ता को अपने चीफ ट्रायल में अपना पूरा मामला/शिकायतें प्रस्तुत करने तथा ट्रायल कोर्ट से प्रार्थना करने की स्वतंत्रता थी कि जिन शेष परिवार के सदस्यों को छोड़ दिया गया, उनके विरुद्ध भी धारा 319 CrPC के अंतर्गत समन जारी करके कार्यवाही की जानी चाहिए। यदि शिकायतकर्ता के बयान में कुछ तथ्य बताए जाने से छूट गए तो उसे वापस बुलाने तथा आगे की परीक्षा आयोजित करने के लिए धारा 311 CrPC के अंतर्गत आवेदन दायर किया जा सकता था।” अंत में न्यायालय ने यह भी बताया कि उसके ससुर, सास, ननद तथा देवर, निश्चित रूप से शिकायतकर्ता तथा उसके पति से अलग रह रहे थे, जो बेंगलुरु में एक साथ रह रहे थे। हाईकोर्ट द्वारा आगे की जांच के निर्देश देने का कोई औचित्य न पाते हुए न्यायालय ने विवादित निर्णय को अस्थिर माना और उसे रद्द कर दिया। ऐसा करते हुए न्यायालय ने शिकायतकर्ता के लिए उपलब्ध उपायों का सहारा लेने का विकल्प भी खुला छोड़ दिया, जिसमें ऊपर बताए गए उपाय भी शामिल हैं। 
केस टाइटल: रामपाल गौतम बनाम राज्य, डायरी नंबर- 33274/2016

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/further-investigation-can-be-directed-even-after-filing-of-chargesheet-commencement-of-trial-supreme-court-283216

Wednesday, 5 February 2025

महिला अपने दूसरे पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है, भले ही उसका पहला विवाह भंग न हुआ हो: सुप्रीम कोर्ट

महिला अपने दूसरे पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है, भले ही उसका पहला विवाह भंग न हुआ हो: सुप्रीम कोर्ट


Wednesday, 29 January 2025

'लंबे समय तक' कर्तव्यों के निर्वहन से प्राप्त अनुभव यह साबित करने के लिए पर्याप्त कि कर्मचारी पद के लिए योग्य

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया, 'लंबे समय तक' कर्तव्यों के निर्वहन से प्राप्त अनुभव यह साबित करने के लिए पर्याप्त कि कर्मचारी पद के लिए योग्य

मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने 25 साल से सेवारत कर्मचारी को निर्धारित शैक्षणिक योग्यता नहीं होने पर हटाने के आदेश को रद्द कर दिया.

जबलपुर :निर्धारित शैक्षणिक योग्यता नहीं होने के कारण 25 साल की सेवा के बाद ड्राइवर को पद से हटा दिया गया. इस मामले की सुनवाई करते हुए मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने कर्मचारी को राहत दी है. हाईकोर्ट जस्टिस संजय द्विवेदी की एकलपीठ ने कहा है "लंबे समय तक कर्तव्यों का निर्वहन से प्राप्त अनुभव अपेक्षित योग्यता के लिए मान्य है". एकलपीठ ने स्पष्ट किया कि ड्राइवर पद के लिए शैक्षणिक योग्यता से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसा नहीं है कि इंजीनियर व डॉक्टर की डिग्री प्राप्त करने वाले अच्छे ड्राइवर हों.शहडोल पॉलिटेक्निक कॉलेज में 25 साल से नौकरीमामले के अनुसार राम दयाल यादव ने हाई कोर्ट में दायर याचिका में कहा "उसे साल 1997 में कलेक्टर दर से शहडोल पॉलिटेक्निक कॉलेज में चालक के पद पर नियुक्ति किया गया था. इसके बाद जनवरी 1998 में उसे ड्राइवर के रिक्त पद पर नियमित नियुक्त प्रदान कर दी गयी. इसके बाद साल 2020 में उसे कारण बताओ नोटिस जारी कर कहा गया कि उसके पास नियुक्ति के समय पर्याप्त शैक्षणिक योग्यता नहीं थी. वह सिर्फ 5वीं पास था और पर्याप्त शैक्षणिक योग्यता 8वीं पास थी. प्राधिकारी ने जांच रिपोर्ट में अनुभव के आधार पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का उल्लेख किया था. इसके बावजूद उसे पद से हटाने के आदेश जारी कर दिए गए.
हाईकोर्ट ने 30 साल पहले जारी विज्ञापन का हवाला दियाएकलपीठ ने सुनवाई के दौरान पाया कि नियुक्ति के संबंध में साल 1994 में जारी विज्ञापन में ड्राइवर के पद के लिए शैक्षणिक योग्यता के बारे में कोई स्पष्टता नहीं थी. यह भी स्पष्ट नहीं था कि यदि किसी ड्राइवर को नियमित किया जाता है तो उसे 8वीं कक्षा उत्तीर्ण और ड्राइविंग लाइसेंस होना चाहिये. एकलपीठ ने कहा कि 25 साल के लंबे समय बाद अचानक नींद से जागने के कारण विभाग द्वारा कार्रवाई शुरू की गई.
ड्राइवर को सेवा से मुक्त करने का आदेश निरस्तएकलपीठ ने अपने आदेश में कहा "नियुक्ति के समय प्रारंभिक शैक्षणिक योग्यता न रखने वाले कर्मचारी कई वर्षों की सेवा के बाद पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लेते हैं. ऐसे कर्मचारियों को केवल इस आधार पर स्थायीकरण से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपेक्षित योग्यता नहीं है." एकलपीठ ने सेवा समाप्त किये जाने के आदेश को निरस्त करते हुए याचिकाकर्ता के पक्ष में आदेश पारित किया.
जस्टिस संजय द्विवेदी ने इन टिप्पणियों के साथ एक व्यक्ति की याचिका स्वीकार कर ली, जिसे ड्राइवर के रूप में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। उसे यह देखते हुए बर्खास्त किया गया था कि उसके पास आवश्यक शैक्षणिक योग्यता नहीं होने के अलावा प्राधिकारी द्वारा उसके ड्राइविंग में कोई अन्य कमी नहीं दिखाई गई थी। इस प्रकार, उसने उसकी बर्खास्तगी को अन्यायपूर्ण करार दिया।

भगवती प्रसाद बनाम दिल्ली राज्य खनिज विकास निगम (1990) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, जस्टिस संजय द्विवेदी ने कहा, "इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि लंबे समय तक कर्तव्यों का निर्वहन करके प्राप्त अनुभव यह मानने के लिए पर्याप्त है कि कर्मचारी के पास अपेक्षित योग्यता है। 25 वर्षों की अवधि के लिए ड्राइवर के पद पर सेवाएं देने वाले याचिकाकर्ता ने एक आदर्श ड्राइवर बनने के लिए पर्याप्त अनुभव प्राप्त किया है। हालांकि, शैक्षणिक योग्यता के अलावा, याचिकाकर्ता की ओर से कोई अन्य कमी नहीं है जो उसके ड्राइविंग में कोई कमी दिखाती हो, ऐसे में, याचिकाकर्ता को केवल इस आधार पर बर्खास्त करने का आदेश, मेरी राय में, अन्यायपूर्ण और अनुचित है।"

कोर्ट ने कहा, 

“प्रतिवादियों को याचिकाकर्ता को सेवा में बहाल करने तथा यदि वह अभी तक सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त नहीं कर पाया है, तो उसे सेवा में शामिल होने की अनुमति देने का निर्देश दिया जाता है। स्वाभाविक रूप से, याचिकाकर्ता को इस आदेश की प्रति प्रस्तुत करने की तिथि से तीन महीने की अवधि के भीतर वेतन का बकाया भुगतान किया जाएगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो इस प्रकार गणना की गई बकाया राशि पर याचिकाकर्ता को वास्तविक भुगतान किए जाने तक 8% की दर से ब्याज लगेगा।"
 केस टाइटलः राम दयाल यादव बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य, रिट पीटिशन नंबर 17607/2022

https://hindi.livelaw.in/madhya-pradesh-high-court/experience-gained-by-discharging-duties-for-a-long-time-is-enough-to-hold-that-employee-is-qualified-for-post-mp-high-court-reiterates-282696

Tuesday, 28 January 2025

FIR में अतिरिक्त अपराध जोड़ने पर पुलिस को गिरफ्तारी का आदेश लेना जरूरी: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

 FIR में अतिरिक्त अपराध जोड़ने पर पुलिस को गिरफ्तारी का आदेश लेना जरूरी: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने दोहराया है कि यदि FIR में अपराध जोड़ा जाता है जहां आरोपी पहले से ही जमानत पर है, तो पुलिस अधिकारी अदालत से आदेश प्राप्त करने के बाद ही गिरफ्तार कर सकते हैं, जिसने जमानत दी थी। बलात्कार के एक मामले में जहां धारा 6 POCSO Act और धारा 376 (2) (n) को बाद में जोड़ा गया था, जस्टिस नमित कुमार ने पुलिस अधिकारियों को प्रदीप राम बनाम झारखंड राज्य और अन्य (2019) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देश का पालन करने के लिए कहा। प्रदीप राम के अनुसार, ऐसे मामले में जहां एक आरोपी को जमानत देने के बाद, आगे संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध जोड़े जाते हैं: (i) अभियुक्त आत्मसमर्पण कर सकता है और नए जोड़े गए संज्ञेय और गैर-जमानती अपराधों के लिए जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। जमानत से इनकार करने की स्थिति में आरोपी को गिरफ्तार किया जा सकता है। (ii) जांच एजेंसी अभियुक्त की गिरफ्तारी और उसकी हिरासत के लिए CrPC की धारा 437 (5) या 439 (2) के तहत अदालत से आदेश मांग सकती है।

(iii) न्यायालय, CrPC की धारा 437 (5) या 439 (2) के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए, आरोपी को हिरासत में लेने का निर्देश दे सकता है, जिसे उसकी जमानत रद्द होने के बाद पहले ही जमानत दे दी गई है। धारा 437 (5) के साथ-साथ धारा 439 (2) के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय उस व्यक्ति को गिरफ्तार करने का निर्देश दे सकता है जिसे पहले ही जमानत दे दी गई है और उसे गंभीर और गैर-संज्ञेय अपराधों के अलावा हिरासत में भेज सकता है जो हमेशा पहले की जमानत रद्द करने के आदेश के साथ आवश्यक नहीं हो सकता है।

(iv) ऐसे मामले में जहां किसी अभियुक्त को पहले ही जमानत दे दी गई है, किसी अपराध या अपराधों को जोड़ने पर अन्वेषण प्राधिकारी अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकता है, लेकिन अपराध या अपराधों को जोड़ने पर अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए उस न्यायालय से अभियुक्त को गिरफ्तार करने का आदेश प्राप्त करने की आवश्यकता है जिसने जमानत दी थी। हाईकोर्ट BNSS की धारा 528 के तहत एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उत्तरदाताओं को निर्देश दिया गया था कि वे BNSS की धारा 69 (कपटपूर्ण साधनों को नियोजित करके यौन संभोग, आदि) के तहत दर्ज आपराधिक कार्यवाही में आरोपी-याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कठोर कदम न उठाएं। याचिकाकर्ता के वकील समय संधावालिया ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को अंतरिम अग्रिम जमानत दी गई थी और इसके अनुसरण में याचिकाकर्ता जांच में शामिल हो गया है। हालांकि, इसके बाद, उन्हें धारा 35 (3) BNSS के तहत नोटिस जारी किया गया है, जिसके तहत उन्हें पुलिस स्टेशन बुलाया गया है और उक्त नोटिस में यह कहा गया है कि POCSO की धारा 6 और IPC की धारा 376 (2) (n) के तहत अपराध जोड़े गए हैं। इसके अलावा, वकील ने प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता के पिता ने पुलिस स्टेशन का दौरा किया है और प्रदीप राम बनाम में दिए गए फैसले की एक प्रति दी है। झारखंड राज्य और अन्य, हालांकि, याचिकाकर्ता को अतिरिक्त धाराओं के तहत गिरफ्तारी की आशंका है, जबकि राज्य इस न्यायालय से आदेश प्राप्त करने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। प्रस्तुतियों पर विचार करते हुए, अदालत ने पुलिस अधिकारियों को प्रदीप राम के मामले में निहित निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया, और प्रतिवादियों को कानून और सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार याचिकाकर्ता के खिलाफ आगे बढ़ने की स्वतंत्रता होगी।

https://hindi.livelaw.in/punjab-and-haryana-high-court/additional-offence-fir-court-order-arrest-punjab-and-haryana-high-court-282152

Saturday, 25 January 2025

SARFAESI Act | DRT किसी ऐसे व्यक्ति को सुरक्षित संपत्ति का कब्जा वापस नहीं दिला सकता, जो उधारकर्ता या मालिक नहीं: सुप्रीम कोर्ट

 SARFAESI Act | DRT किसी ऐसे व्यक्ति को सुरक्षित संपत्ति का कब्जा वापस नहीं दिला सकता, जो उधारकर्ता या मालिक नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT) को SARFAESI Act के तहत किसी ऐसे व्यक्ति को सुरक्षित संपत्ति का कब्जा "सौंपने" का अधिकार नहीं है, जो न तो उधारकर्ता है और न ही संपत्ति का मालिक है। इसने आगे कहा कि DRT के पास किसी ऐसे व्यक्ति को सुरक्षित संपत्ति का कब्जा "बहाल" करने का अधिकार नहीं है, जो न तो उधारकर्ता है और न ही संपत्ति का मालिक है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा सुरक्षित संपत्ति को सौंपने या बहाल करने की याचिका, जो न तो उधारकर्ता है और न ही संपत्ति का मालिक है, सिविल कोर्ट के समक्ष सुनवाई योग्य है।

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ इस मुद्दे पर निर्णय कर रही थी कि क्या कोई व्यक्ति, जिसके पास न तो सुरक्षित परिसंपत्ति है और न ही उसने उधार ली है, वह SARFAESI Act, 2002 की धारा 17(3) के तहत सुरक्षित परिसंपत्तियों की बहाली का दावा करने का हकदार होगा। नकारात्मक उत्तर देते हुए न्यायालय ने कहा कि चूंकि SARFAESI Act की धारा 17(3) में 'पुनर्स्थापित' शब्द का प्रयोग किया गया, न कि 'हस्तांतरण' का, इसलिए DRT के पास उस व्यक्ति को कब्जा लौटाने का अधिकार है, जो बैंक द्वारा कब्जा लिए जाने के समय कब्जे में था।

न्यायालय ने कहा, “धारा 17(3) के तहत DRT के पास कब्जा “बहाल” करने का अधिकार है, जिसका अर्थ यह होगा कि उसके पास उस व्यक्ति को कब्जा लौटाने का अधिकार है, जो बैंक द्वारा कब्जा लिए जाने के समय कब्जे में था। DRT के पास केवल कब्जा “बहाल” करने का अधिकार है; उसके पास उस व्यक्ति को कब्जा “सौंपने” का कोई अधिकार नहीं है, जो बैंक द्वारा कब्जा लिए जाने के समय कभी कब्जे में नहीं था।” यह वह मामला था, जिसमें प्रतिवादी नंबर 1, जिसके पास सुरक्षित परिसंपत्तियां नहीं हैं, ने सिविल न्यायालय से उस पर कब्ज़ा सौंपने की राहत मांगी। सिविल कोर्ट ने यह कहते हुए राहत देने से इनकार कर दिया कि केवल DRT ही SARFAESI Act की धारा 17(3) के तहत ऐसी राहत दे सकता है।

हाईकोर्ट ने सिविल कोर्ट के इस कथन को पलट दिया कि प्रतिवादी नंबर 1 ने ऐसी राहत के लिए सिविल कोर्ट से संपर्क किया, क्योंकि DRT के पास सुरक्षित परिसंपत्ति का कब्ज़ा उसे सौंपने का अधिकार नहीं है और वह उसे तभी वापस कर सकता है, जब किसी व्यक्ति के पास पहले से ही सुरक्षित परिसंपत्ति का कब्ज़ा हो। हाईकोर्ट द्वारा फाइल को सिविल कोर्ट में वापस करने के निर्णय से व्यथित होकर बैंक ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट के निर्णय की पुष्टि करते हुए न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी नंबर 1 ने सुरक्षित परिसंपत्ति का कब्ज़ा सौंपने के लिए सिविल कोर्ट से संपर्क किया था, क्योंकि DRT के पास उसे कब्ज़ा सौंपने का अधिकार नहीं था। "हालांकि यह सच है कि धारा 17(1) में "कोई भी व्यक्ति (उधारकर्ता सहित) पीड़ित" शब्दों का प्रयोग किया गया, लेकिन धारा 17(3) में DRT को उधारकर्ता के अलावा किसी अन्य को कब्जा वापस करने का स्पष्ट अधिकार नहीं दिया गया। हां, किसी दिए गए मामले में यदि उधारकर्ता ने किसी और को कब्जा दिया तो शायद यह तर्क दिया जा सकता है कि धारा 17(3) के तहत "उधारकर्ता" को कब्जा वापस करने की DRT की शक्ति में उस व्यक्ति को कब्जा वापस करने की शक्ति शामिल होगी, जो उधारकर्ता की ओर से कब्जा कर रहा था या उधारकर्ता के माध्यम से दावा कर रहा था। हालांकि, यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि धारा 17(3) के तहत DRT किसी ऐसे व्यक्ति को कब्जा सौंप सकता है, जिसका दावा उधारकर्ता के दावे के विपरीत है।" अपील को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा: "इसलिए वादी (प्रतिवादी नंबर 1) DRT से कब्जा वापस करने की राहत नहीं मांग सकती। DRT के पास उसे ऐसी राहत देने का कोई अधिकार नहीं होगा। इसलिए वादी को उसके मुकदमे (सिविल कोर्ट में दायर) में तीसरी राहत भी SARFAESI Act की धारा 34 के तहत वर्जित नहीं है। फैसले में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि संपत्ति के स्वामित्व और कब्जे के बारे में राहत का दावा करने के लिए सिविल मुकदमा SARFAESI Act की धारा 34 के तहत वर्जित नहीं है। तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई। 

केस टाइटल: सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बनाम प्रभा जैन और अन्य।


https://hindi.livelaw.in/supreme-court/sarfaesi-drt-cannot-restore-possession-of-secured-asset-to-a-person-who-isnt-the-borrower-or-possessor-supreme-court-281975

Order VII Rule 11 CPC | कुछ राहतों के वर्जित होने पर कई राहतों वाली याचिका खारिज नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

Order VII Rule 11 CPC | कुछ राहतों के वर्जित होने पर कई राहतों वाली याचिका खारिज नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब किसी याचिका में कई राहतें शामिल होती हैं तो उसे सिर्फ़ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें से एक राहत कानून द्वारा वर्जित है, जब तक कि दूसरी राहतें वैध रहती हैं।

कोर्ट के अनुसार, Order VII Rule 11 CPC के तहत याचिका को आंशिक रूप से खारिज नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा, “अगर सिविल कोर्ट का मानना ​​है कि एक राहत (मान लीजिए राहत A) कानून द्वारा वर्जित नहीं है, लेकिन उसका मानना ​​है कि राहत B कानून द्वारा वर्जित है तो सिविल कोर्ट को इस आशय की कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि राहत B कानून द्वारा वर्जित है। उसे Order VII Rule 11 CPC के आवेदन में उस मुद्दे को अनिर्णीत छोड़ देना चाहिए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगर सिविल कोर्ट किसी याचिका को आंशिक रूप से खारिज नहीं कर सकता है तो उसी तर्क से उसे राहत B के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।”

जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ SARFAESI Act के तहत एक मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसमें वादी ने सिविल न्यायालय में दायर मुकदमे में तीन राहत मांगी थी। दो राहतें, बैंक द्वारा स्वीकृत लोन के लिए संपार्श्विक के रूप में इस्तेमाल की गई मुकदमे की संपत्ति पर स्वामित्व और शीर्षक से संबंधित थीं, कानून द्वारा वर्जित नहीं थीं। सिविल कोर्ट के पास उन पर निर्णय लेने का अधिकार था। हालांकि, तीसरी राहत, जो SARFAESI Act की धारा 17 के तहत कब्जे की बहाली से संबंधित थी, कानून द्वारा वर्जित थी, क्योंकि इस तरह के आवेदन को ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT) के समक्ष दायर किया जाना चाहिए, न कि सिविल कोर्ट में।

न्यायालय ने कहा कि जबकि तीसरी राहत देने के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का आह्वान नहीं किया जा सकता, यह सिविल कोर्ट को पहले दो राहतों को संबोधित करने से नहीं रोकेगा। दूसरे शब्दों में, Order VII Rule 11 CPC (D) के तहत केवल इसलिए शिकायत खारिज नहीं की जा सकती, क्योंकि तीसरी राहत कानून द्वारा वर्जित है, जब तक कि अन्य राहतें न्यायाधिकरण के न्याय क्षेत्र के भीतर बनी रहें। अदालत ने टिप्पणी की, “इसलिए भले ही एक राहत बच जाए, लेकिन शिकायत Order VII Rule 11 CPC के तहत खारिज नहीं की जा सकती। इस मामले में जिस पहली और दूसरी राहत की मांग की गई, वह स्पष्ट रूप से SARFAESI Act की धारा 34 द्वारा वर्जित नहीं है। सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में है। इसलिए शिकायत Order VII Rule 11 CPC के तहत खारिज नहीं की जा सकती।” केस टाइटल: सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बनाम प्रभा जैन और अन्य।

https://hindi.livelaw.in/supreme-court/order-vii-rule-11-cpc-plaint-with-multiple-reliefs-cannot-be-rejected-just-because-some-reliefs-are-barred-supreme-court-281876

Sunday, 19 January 2025

किराएदार को मकान मालिक की मर्जी पर निर्भर रहना चाहिए, उसे संपत्ति तभी छोड़नी चाहिए जब मालिक को उसकी निजी इस्तेमाल के लिए जरूरत हो: इलाहाबाद हाईकोर्ट

किराएदार को मकान मालिक की मर्जी पर निर्भर रहना चाहिए, उसे संपत्ति तभी छोड़नी चाहिए जब मालिक को उसकी निजी इस्तेमाल के लिए जरूरत हो: इलाहाबाद हाईकोर्ट

 इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि किराएदार आमतौर पर मकान मालिक की मर्जी पर निर्भर रहता है और अगर मकान मालिक चाहे तो उसे संपत्ति छोड़नी होगी। कोर्ट ने कहा कि किराएदार के खिलाफ फैसला सुनाने से पहले कोर्ट को यह देखना चाहिए कि क्या मकान मालिक की जरूरत वास्तविक है। जस्टिस अजीत कुमार ने कहा, "किराएदार को इस मायने में मकान मालिक की मर्जी पर निर्भर रहना चाहिए कि जब भी मकान मालिक को अपनी निजी इस्तेमाल के लिए संपत्ति की जरूरत होगी तो उसे उसे छोड़ना होगा। कोर्ट को बस यह देखना है कि जरूरत वास्तविक है या नहीं।"

 केस टाइटल: जुल्फिकार अहमद और 7 अन्य बनाम जहांगीर आलम [अनुच्छेद 227 के तहत मामले संख्या - 6479 वर्ष 2021]


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