Wednesday, 28 May 2025

लोन रिकवरी मामले में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, लोन नहीं भर पाने वालों को मिली बड़ी राहत Loan Recovery Rule

लोन रिकवरी मामले में हाईकोर्ट का बड़ा फैसला, लोन नहीं भर पाने वालों को मिली बड़ी राहत Loan Recovery Rule

Loan Recovery Rule: दिल्ली हाईकोर्ट ने लोन रिकवरी के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जो बैंकों की मनमानी पर रोक लगाता है और लोनधारकों के अधिकारों की सुरक्षा करता है। यह निर्णय उन लाखों लोगों के लिए राहत की खबर है जो लोन चुकाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि बैंक अपनी सुविधा के अनुसार लोन रिकवरी के लिए कठोर कदम नहीं उठा सकते। यह फैसला न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है बल्कि बैंकिंग प्रणाली में भी सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। हाईकोर्ट की यह टिप्पणी बैंकों के लिए एक चेतावनी है कि वे अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करें।

लुकआउट सर्कुलर पर न्यायालय का सख्त रुख


दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि बैंक हर मामले में लुकआउट सर्कुलर जारी नहीं कर सकते। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह सुविधा केवल उन मामलों में उपयोग की जा सकती है जो गंभीर प्रकृति के हों, आपराधिक हों, धोखाधड़ी से जुड़े हों या धन के गबन से संबंधित हों। सामान्य लोन डिफॉल्ट के मामलों में इस तरह के कठोर कदम उठाना न्यायसंगत नहीं है। यह निर्णय इस बात को स्थापित करता है कि वित्तीय विवाद और आपराधिक मामले दो अलग चीजें हैं। बैंकों को इन दोनों के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिए और तदनुसार कार्रवाई करनी चाहिए।

व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा


हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मौलिक अधिकारों की महत्ता को रेखांकित किया है। न्यायालय ने कहा कि लुकआउट सर्कुलर जारी करना किसी व्यक्ति के विदेश यात्रा के अधिकार का हनन है। यह अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हिस्सा है और इसे मनमाने तरीके से छीना नहीं जा सकता। न्यायालय ने धारा 21 का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सर्वोपरि है। केवल वित्तीय विवाद के आधार पर किसी व्यक्ति की आवाजाही पर प्रतिबंध लगाना संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है।

इस महत्वपूर्ण मामले में एक कंपनी के पूर्व निदेशक के विरुद्ध बैंक द्वारा लुकआउट सर्कुलर जारी किया गया था। यह व्यक्ति कंपनी द्वारा लिए गए करोड़ों रुपये के लोन का गारंटर था। जब कंपनी ने लोन की अदायगी नहीं की तो बैंक ने कानूनी कार्रवाई शुरू की और गारंटर के विरुद्ध लुकआउट सर्कुलर जारी करने का अनुरोध किया। इस बीच गारंटर ने कंपनी छोड़ दी थी लेकिन उसकी कानूनी जिम्मेदारी बनी रही। बैंक का तर्क था कि गारंटर की जिम्मेदारी है कि वह लोन की अदायगी सुनिश्चित करे। हालांकि न्यायालय ने इस तर्क को सही नहीं माना और कहा कि यह पूर्णतः सिविल मामला है।


न्यायालय का तर्कसंगत विश्लेषण


हाईकोर्ट ने मामले का गहन विश्लेषण करते हुए पाया कि याचिकाकर्ता के विरुद्ध कोई आपराधिक मामला पंडित नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह न तो किसी धोखाधड़ी का आरोपी है और न ही धन की हेराफेरी में शामिल है। यह केवल एक वित्तीय विवाद है जिसका समाधान सिविल कानून के तहत किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि बैंक के पास लोन रिकवरी के लिए अन्य कानूनी उपाय उपलब्ध हैं जैसे कि संपत्ति कुर्की, नीलामी और सिविल मुकदमा। लुकआउट सर्कुलर जैसे कठोर कदम केवल गंभीर आपराधिक मामलों के लिए आरक्षित होने चाहिए।

बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता


न्यायालय ने बैंकों को फटकार लगाते हुए कहा कि उन्हें अपनी कार्यप्रणाली में सुधार करना चाहिए। बैंकों को समझना चाहिए कि लोन रिकवरी के लिए उनके पास वैकल्पिक और कम कठोर उपाय उपलब्ध हैं। हर मामले में लुकआउट सर्कुलर जारी करना न तो न्यायसंगत है और न ही कानूनी रूप से सही है। न्यायालय ने सुझाव दिया कि बैंकों को पहले बातचीत और समझौते के रास्ते अपनाने चाहिए। यदि यह संभव नहीं है तो सिविल कानून के तहत उपलब्ध उपायों का सहारा लेना चाहिए। लुकआउट सर्कुलर केवल अंतिम उपाय के रूप में और केवल गंभीर मामलों में ही उपयोग किया जाना चाहिए।


लोनधारकों के लिए राहत की खबर

यह फैसला उन लाखों लोगों के लिए राहत की खबर है जो विभिन्न कारणों से अपने लोन की अदायगी में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। कोविड-19 के बाद कई व्यवसाय प्रभावित हुए हैं और लोगों की आर्थिक स्थिति में गिरावट आई है। ऐसे में बैंकों की मनमानी से बचाव मिलना एक सकारात्मक विकास है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि लोन न चुकाना कानूनी है। बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि लोन रिकवरी की प्रक्रिया न्यायसंगत और मानवीय हो। लोनधारकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और ईमानदारी से लोन चुकाने का प्रयास करना चाहिए।


बैंकिंग क्षेत्र पर दीर्घकालीन प्रभाव


यह निर्णय बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक सुधार की शुरुआत कर सकता है। बैंकों को अब अधिक संयमित और न्यायसंगत तरीके से लोन रिकवरी करनी होगी। यह फैसला बैंकों को मजबूर करता है कि वे अपनी नीतियों की समीक्षा करें और ग्राहक-अनुकूल दृष्टिकोण अपनाएं। दीर्घकालीन रूप में यह बैंकिंग प्रणाली में विश्वास बढ़ाएगा और लोग अधिक निडर होकर व्यावसायिक गतिविधियों में भाग ले सकेंगे। साथ ही यह उद्यमशीलता को बढ़ावा देगा क्योंकि लोग जानेंगे कि असफलता की स्थिति में उनके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाएगा।

आगे की राह और सुझाव


इस फैसले के बाद अपेक्षा की जाती है कि बैंक अपनी लोन रिकवरी नीतियों में सुधार करेंगे और अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाएंगे। सरकार को भी इस दिशा में नीतिगत सुधार करने चाहिए ताकि लोन रिकवरी की प्रक्रिया संतुलित हो। लोनधारकों को भी सलाह दी जाती है कि वे अपनी वित्तीय कठिनाइयों के बारे में बैंक को सूचित करें और पुनर्भुगतान की योजना पर चर्चा करें। बैंकों को चाहिए कि वे रिस्ट्रक्चरिंग और वन-टाइम सेटलमेंट जैसे विकल्पों को बढ़ावा दें। यह फैसला न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाता है और उम्मीद जगाता है कि भविष्य में भी ऐसे संतुलित निर्णय आएंगे जो सभी पक्षों के हितों की रक्षा करेंगे।




तलाक मामले में 10 साल बाद वैवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना की याचिका नहीं कर सकते पति-पत्नी

तलाक मामले में 10 साल बाद वैवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना की याचिका नहीं कर सकते पति-पत्नी: इलाहाबाद हाईकोर्ट


https://hindi.livelaw.in/allahabad-highcourt/restitution-of-conjugal-rights-divorce-case-amendment-application-divorce-proceedings-allahabad-high-court-293416

Sunday, 25 May 2025

किशोर न्याय बोर्ड के पास अपने आदेशों की समीक्षा करने की शक्ति नहीं: सुप्रीम कोर्ट

किशोर न्याय बोर्ड के पास अपने आदेशों की समीक्षा करने की शक्ति नहीं: सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board) को अपने स्वयं के निर्णयों की समीक्षा करने या बाद की कार्यवाही में विरोधाभासी रुख अपनाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि किशोर न्याय बोर्ड के पास कानून के तहत कोई पुनर्विचार अधिकार क्षेत्र नहीं है। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए यह फैसला सुनाया, जहां किशोर न्याय बोर्ड ने उम्र का पता लगाने के लिए एक याचिका पर फैसला करते समय जन्म तिथि को ध्यान में रखा, हालांकि बाद की सुनवाई में किशोर न्याय बोर्ड ने मेडिकल बोर्ड की राय ली।


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मैटरनिटी लीव प्रजनन अधिकारों का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव देने से इनकार करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने किया खारिज

 मैटरनिटी लीव प्रजनन अधिकारों का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे बच्चे के लिए मैटरनिटी लीव देने से इनकार करने का फैसला किया खारिज सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ का आदेश खारिज कर दिया, जिसमें सरकारी शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के जन्म के लिए मैटरनिटी लीव (Maternity Leave) देने से इनकार कर दिया गया था। इसमें राज्य की नीति के अनुसार दो बच्चों तक ही लाभ सीमित करने का हवाला दिया गया था। जस्टिस अभय ओक और जस्टिस उज्जल भुयान की खंडपीठ ने कहा कि मैटरनिटी बैनिफिट प्रजनन अधिकारों का हिस्सा हैं और मैटरनिटी लीव उन लाभों का अभिन्न अंग है। 

केस टाइटल- के. उमादेवी बनाम तमिलनाडु सरकार


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S.141 NI Act | चेक अनादर की शिकायत में कंपनी के निदेशकों की विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका बताने की आवश्यकता नहीं : सुप्रीम कोर्ट

 S.141 NI Act | चेक अनादर की शिकायत में कंपनी के निदेशकों की विशिष्ट प्रशासनिक भूमिका बताने की आवश्यकता नहीं : सुप्रीम कोर्ट 

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि चेक अनादर के अपराध के लिए कंपनी के निदेशकों को उत्तरदायी बनाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि शिकायत में कंपनी के भीतर उनकी विशिष्ट भूमिका बताई जाए। 

 कोर्ट ने कहा कि जबकि परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 141(1) के तहत यह स्पष्ट रूप से कहा जाना आवश्यक है कि वह व्यक्ति "कंपनी के व्यवसाय के संचालन के लिए प्रभारी और कंपनी के प्रति उत्तरदायी था", कानून की भाषा को शब्दशः अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, भौतिक अनुपालन पर्याप्त है, बशर्ते शिकायत में निदेशक की भूमिका निर्दिष्ट की गई हो। Case : HDFC Bank Ltd. v. State of Maharashtra


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Friday, 9 May 2025

अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट

*अदालतों पर सार्वजनिक बहस और आलोचना हमेशा खुली रहनी चाहिए; लंबित मामलों पर भी जनता और मीडिया चर्चा कर सकते हैं: सुप्रीम कोर्ट*

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सार्वजनिक प्रवचन और मीडिया जांच के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि अदालतों, खुले और सार्वजनिक संस्थानों के रूप में, टिप्पणियों, बहस और रचनात्मक आलोचना के प्रति ग्रहणशील रहना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि जब कोई मामला विचाराधीन होता है, तब भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करना महत्वपूर्ण होता है। जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने कहा, ''हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनता और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की जरूरत है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन क्यों न हो।

खंडपीठ ने उदार लोकतंत्र को बनाए रखने में न्यायपालिका और मीडिया द्वारा निभाई गई पूरक भूमिकाओं को भी रेखांकित किया, दोनों संस्थानों को भारत के संवैधानिक ढांचे के "मूलभूत स्तंभ" कहा। कोर्ट ने कहा, 'उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को रद्द करते हुए ये टिप्पणियां कीं कि समाचार एजेंसी एएनआई के विकिपीडिया के खिलाफ मानहानि मामले के बारे में विकिपीडिया पेज "प्रथम दृष्टया अवमाननाकारी" था। हाईकोर्ट ने उस पेज को हटाने का निर्देश दिया था, जिसमें बताया गया था कि न्यायाधीश ने चेतावनी दी थी कि अगर उन्होंने एएनआई के खिलाफ की गई कथित अपमानजनक टिप्पणी को नहीं हटाया तो विकिपीडिया भारत में बंद कर दिया जाएगा।

हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए, विकिमीडिया फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जस्टिस भुइयां द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया: उन्होंने कहा कि एक सार्वजनिक और खुली संस्था के रूप में अदालतों को सार्वजनिक टिप्पणियों, बहस और आलोचनाओं के लिए हमेशा खुला रहना चाहिए। वास्तव में, अदालतों को बहस और रचनात्मक आलोचना का स्वागत करना चाहिए। हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर लोगों और प्रेस द्वारा जोरदार बहस करने की आवश्यकता होती है, भले ही बहस का मुद्दा अदालत के समक्ष विचाराधीन हो।

तथापि, आलोचना करने वालों को यह याद रखना चाहिए कि न्यायाधीश ऐसी आलोचना का उत्तर नहीं दे सकते हैं लेकिन यदि कोई प्रकाशन न्यायालय या न्यायाधीश या न्यायाधीशों को बदनाम करता है और यदि अवमानना का मामला बनता है, जैसा कि न्यायमूत अय्यर ने छठे सिद्धांत में उल्लेख किया है, तो निश्चित रूप से न्यायालयों को कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन मीडिया को यह कहना अदालत का काम नहीं है कि इसे हटा दो, इसे हटा दो।

किसी भी प्रणाली के सुधार के लिए जिसमें न्यायपालिका शामिल है, आत्मनिरीक्षण महत्वपूर्ण है। यह तभी हो सकता है जब अदालत के समक्ष आने वाले मुद्दों पर भी मजबूत बहस हो। न्यायपालिका और मीडिया दोनों ही लोकतंत्र के मूलभूत स्तंभ हैं जो हमारे संविधान की मूल विशेषता है। एक उदार लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए, दोनों को एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। इससे पहले, किसानों के विरोध प्रदर्शन के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक मुद्दा तैयार किया था कि क्या किसी ऐसे मुद्दे पर सार्वजनिक विरोध की अनुमति दी जा सकती है जो अदालत के समक्ष विचाराधीन है।



Sunday, 4 May 2025

138 चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया

चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा नोटिस मान्य किया जाना बताया 

हाई कोर्ट ने इस कंफ्यूजन को किया दूर-

अब तक कई लोगों के बीच संशय बना हुआ था कि ईमेल और व्हाट्सएप से भेजा गया नोटिस (cheque bounce notice rules) मान्य नहीं होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने यह कंफ्यूजन दूर कर दी है। कोर्ट के अनुसार चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से नोटिस भेजा जाता है तो इसे अमान्य नहीं कहा जा सकता है।

      यह वैध (cheque bounce valid notice) और मान्य होगा, बस वह आईटी एक्ट की धारा 13 में दिए गए प्रावधानों के अनुसार होना चाहिए। अब फोन से व्हाटसएप, ईमेल करके चेक बाउंस का डिमांड नोटिस (demand notice) भेजा जाता है तो वह वैध होगा। 

ई-मेल से भेजे नोटिस को दिया वैध करार-

चेक बाउंस का यह मामला राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (UP govt) से जुड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के अनुसार नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (Negotiable Instruments Act) की धारा 138 इस बात को सही मानती है कि कोई लिखित नोटिस है तो वह मान्य होगा। इस धारा में नोटिस कैसे लिखा या टाइप करके किस माध्यम से भेजा, यह नहीं कहा गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) ने इस आधार पर चेक बाउंस के मामलों में ईमेल और व्हाट्सएप से भेजे गए नोटिस को वैध व मान्य करार दिया है।

एविडेंस एक्ट की धारा 65 बी का दिया हवाला - 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चेक बाउंस (how to send cheque bounce notice ) के मामले में नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट व आईटी एक्ट में दिए गए प्रावधानों की पड़ताल करके यह निर्णय सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि आईटी कानून (IT Act) में स्पष्ट किया गया है कि चेक बाउंस के मामले में कोई जानकारी लिखित या टाइप हो और यह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भेजी जाती है तो इसे सही माना जाएगा, बशर्ते की इसका प्रूफ रखना होगा।

आईटी कानून के सेक्शन 4 और 13 का भी हाईकोर्ट ने इस बात की पुष्टि के लिए हवाला दिया है। इसके अलावा इंडियन एविडेंस एक्ट (Indian Evidence Act) की धारा 65 बी का भी निर्णय सुनाते हुए हवाला दिया। इस धारा में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार करने की बात कही गई है।

राजेंद्र यादव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार

 



Thursday, 1 May 2025

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules

कर्मचारियों को मिलेगा ग्रेच्युटी का पूरा लाभ Gratuity Rules


Gratuity Rules: देश के सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। हाल ही में हाईकोर्ट ने ग्रेच्युटी (Gratuity) के मामले में कर्मचारियों के हित में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इस फैसले के अनुसार, योग्य कर्मचारियों को उनकी ग्रेच्युटी में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है और उन्हें पूरा लाभ मिलना चाहिए। यह फैसला लाखों कर्मचारियों के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया है।
ग्रेच्युटी एक महत्वपूर्ण सेवानिवृत्ति लाभ है जो कर्मचारियों को लंबे समय तक एक ही संगठन में काम करने पर मिलता है। यह रकम उनके भविष्य की आर्थिक सुरक्षा का एक अहम हिस्सा होती है और कई परिवारों के लिए इसका बहुत अधिक महत्व होता है। कई बार देखा गया है कि नियोक्ता विभिन्न कारणों से इस राशि में कटौती करते हैं या भुगतान में देरी करते हैं, जिससे कर्मचारियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है।

हाईकोर्ट के फैसले का महत्व
हाईकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि अगर कोई कर्मचारी न्यूनतम आवश्यक सेवा अवधि पूरी कर चुका है, तो उसे पूरी ग्रेच्युटी राशि का भुगतान अनिवार्य रूप से मिलना चाहिए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि नियोक्ता किसी भी परिस्थिति में ग्रेच्युटी देने से इनकार नहीं कर सकते, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी खराब क्यों न हो।

इस फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अब कर्मचारियों को उनके कानूनी अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी। अक्सर देखा जाता है कि ग्रेच्युटी के भुगतान में नियोक्ताओं द्वारा विभिन्न बहाने बनाए जाते हैं, लेकिन अब इस फैसले के बाद ऐसा करना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। कोर्ट की ओर से यह स्पष्ट संदेश है कि कर्मचारियों के हितों की रक्षा होनी चाहिए।

ग्रेच्युटी क्या है और कब मिलती है?

ग्रेच्युटी एक प्रकार का धन्यवाद स्वरूप दिया जाने वाला पारितोषिक है, जो कर्मचारियों को उनकी लंबी और निष्ठापूर्ण सेवाओं के लिए दिया जाता है। यह रकम नौकरी छोड़ने, सेवानिवृत्ति या कर्मचारी की मृत्यु के मामले में उसे या उसके परिवार को दी जाती है। ग्रेच्युटी पाने के लिए कर्मचारी को कम से कम 5 साल तक एक ही कंपनी या संगठन में सेवा करनी होती है।

यह नियम सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों पर लागू होता है, लेकिन निजी क्षेत्र में यह केवल उन्हीं संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। 5 साल की सेवा अवधि पूरी करने के बाद, कर्मचारी जिस भी कारण से नौकरी छोड़ता है, वह ग्रेच्युटी का हकदार होता है, चाहे वह स्वेच्छा से इस्तीफा दे या फिर उसे नौकरी से निकाल दिया जाए।

ग्रेच्युटी की गणना कैसे होती है?
ग्रेच्युटी की गणना के लिए एक विशेष फॉर्मूला निर्धारित किया गया है। इस फॉर्मूले के अनुसार, ग्रेच्युटी की राशि की गणना इस प्रकार होती है: (अंतिम बेसिक सैलरी + डीए) × काम किए गए वर्ष × 15/26। यहां, अंतिम बेसिक सैलरी और डीए (महंगाई भत्ता) का मतलब कर्मचारी के आखिरी महीने का वेतन होता है।

उदाहरण के लिए, अगर किसी कर्मचारी का अंतिम बेसिक वेतन और डीए 30,000 रुपये है और उसने किसी संगठन में 10 साल तक काम किया है, तो उसकी ग्रेच्युटी की राशि होगी: (30,000 × 10 × 15) ÷ 26 = 1,73,076 रुपये। यह राशि काफी महत्वपूर्ण हो सकती है, खासकर उन कर्मचारियों के लिए जिन्होंने एक संगठन में लंबे समय तक सेवा की है।

हाईकोर्ट के फैसले से कर्मचारियों को क्या फायदा होगा?
हाईकोर्ट के इस महत्वपूर्ण फैसले के बाद अब कर्मचारियों को कई प्रकार के फायदे मिलेंगे। सबसे पहले, अब नियोक्ता द्वारा ग्रेच्युटी रोकने, कम करने या भुगतान में देरी करने की स्थिति में कर्मचारी सीधे कोर्ट में शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इससे उन्हें न्याय प्राप्त करने के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा।

दूसरा महत्वपूर्ण फायदा यह है कि कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि अगर नियोक्ता ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करता है, तो उसे इस राशि पर ब्याज भी देना होगा। यह ब्याज दर काफी अधिक हो सकती है, इसलिए नियोक्ताओं के लिए अब ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी करना महंगा पड़ सकता है। इससे समय पर भुगतान सुनिश्चित होगा।

किन कर्मचारियों को मिलेगा इस फैसले का लाभ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का लाभ देश के सभी सरकारी कर्मचारियों और उन निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलेगा जहां 10 से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। इसमें सभी प्रकार के कर्मचारी शामिल हैं, चाहे वे रिटायरमेंट के कारण सेवानिवृत्त हुए हों, नौकरी छोड़ी हो या फिर कर्मचारी की मृत्यु हो गई हो।

विशेष रूप से, यह फैसला उन कर्मचारियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जिन्हें पहले ग्रेच्युटी के भुगतान में समस्याओं का सामना करना पड़ा है। अब वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि उन्हें कानून के अनुसार पूरा लाभ मिले। यह फैसला देश के लाखों कर्मचारियों के परिवारों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद करेगा।

ग्रेच्युटी का महत्व कर्मचारियों के जीवन में
ग्रेच्युटी एक ऐसी राशि है जो कर्मचारियों के सेवानिवृत्त जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह एकमुश्त राशि उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और सेवानिवृत्ति के बाद के जीवन में होने वाले खर्चों को पूरा करने में मदद करती है। बहुत से लोग इस राशि का उपयोग अपना घर खरीदने, बच्चों की शिक्षा या शादी के खर्च, या फिर स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए करते हैं।

कई परिवारों के लिए, ग्रेच्युटी उनकी जीवन भर की बचत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। इसीलिए इसका समय पर और पूरा भुगतान सुनिश्चित होना बहुत जरूरी है। हाईकोर्ट के इस फैसले से यह सुनिश्चित होगा कि कर्मचारियों के जीवन भर के परिश्रम का उचित मूल्य उन्हें मिले और उनका भविष्य सुरक्षित रहे।

नियोक्ताओं के लिए क्या हैं निहितार्थ?
हाईकोर्ट के इस फैसले का नियोक्ताओं पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। अब उन्हें ग्रेच्युटी के भुगतान को लेकर अधिक सावधानी बरतनी होगी और कानूनी प्रावधानों का सख्ती से पालन करना होगा। अगर वे ग्रेच्युटी के भुगतान में चूक करते हैं या देरी करते हैं, तो उन्हें कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है और अतिरिक्त ब्याज भी देना पड़ सकता है।

नियोक्ताओं को अब अपने वित्तीय प्रबंधन में ग्रेच्युटी के भुगतान को प्राथमिकता देनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी परिस्थिति में, चाहे कंपनी की आर्थिक स्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, कर्मचारियों के ग्रेच्युटी के अधिकार का उल्लंघन न हो। इससे नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का माहौल बनेगा और कार्यस्थल पर सकारात्मक वातावरण का निर्माण होगा।

ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और क्या सुधार की आवश्यकता है?
हालांकि हाईकोर्ट के इस फैसले से कर्मचारियों को बड़ी राहत मिली है, लेकिन ग्रेच्युटी के क्षेत्र में और भी सुधार की आवश्यकता है। सबसे पहले, ग्रेच्युटी अधिनियम केवल उन संगठनों पर लागू होता है जहां कम से कम 10 कर्मचारी कार्यरत हों। छोटे संगठनों में काम करने वाले कर्मचारियों को भी इस लाभ का विस्तार करने की आवश्यकता है।

दूसरा, वर्तमान में ग्रेच्युटी पर कर छूट की सीमा 20 लाख रुपये है। महंगाई और वेतन में वृद्धि को देखते हुए इस सीमा को बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि कर्मचारियों को अधिक लाभ मिल सके। साथ ही, ग्रेच्युटी के भुगतान में देरी पर ब्याज दर को और अधिक स्पष्ट करने की जरूरत है ताकि नियोक्ताओं द्वारा इसका दुरुपयोग न हो सके।
यह लेख केवल सूचनात्मक उद्देश्यों के लिए है। हालांकि इसमें दी गई सभी जानकारियां विश्वसनीय स्रोतों से ली गई हैं, फिर भी ग्रेच्युटी से संबंधित नवीनतम नियमों और आधिकारिक जानकारी के लिए पाठकों को संबंधित सरकारी अधिसूचनाओं और कानूनी दस्तावेजों से परामर्श करने की सलाह दी जाती है। किसी भी विसंगति की स्थिति में, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए नवीनतम फैसले और सरकारी अधिसूचनाएं ही मान्य होंगी।


बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता

 बीमा कंपनी को विशिष्ट विवरण के खुलासे पर जोर देना चाहिए, बाद में छुपाने के आधार पर पॉलिसी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि बीमा कंपनी चाहती है कि बीमा पॉलिसी जारी करने के लिए फॉर्म में विशिष्ट विवरण दाखिल किए जाएं, तो उसे पॉलिसी चाहने वाले व्यक्ति से इसका खुलासा करने पर जोर देना चाहिए। एक बार जब पॉलिसी ऐसे तथ्यों का खुलासा किए बिना व्यक्ति को जारी कर दी जाती है और बीमा कंपनी द्वारा प्रीमियम वसूल कर लिया जाता है, तो वह तथ्यों को छिपाने/न बताने के आधार पर अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। जस्टिस शेखर बी सराफ और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने कहा, "यदि प्रस्ताव फॉर्म में विशिष्ट प्रश्न पूछे गए हैं, तो बीमाधारक का यह कर्तव्य है कि वह उन विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर दे, लेकिन यदि प्रस्ताव फॉर्म में कोई प्रश्न या कॉलम खाली छोड़ दिया जाता है, तो बीमा कंपनी को बीमाधारक से उसे भरने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी कॉलम को छोड़े जाने के बावजूद बीमा कंपनी प्रीमियम स्वीकार करती है, और उसके बाद पॉलिसी बांड जारी करती है, तो वह बाद के चरण में बीमाधारक के दावे को अस्वीकार नहीं कर सकती। बीमाकर्ता का यह कर्तव्य है कि वह पिछली पॉलिसी के विवरणों को सत्यापित करे जो पहले से ही उनके पास रिकॉर्ड में हैं।"

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मनमोहन नंदा बनाम यूनाइटेड इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड पर फिर से भरोसा किया गया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि बीमा कंपनी फॉर्म के कुछ विशिष्ट कॉलम दाखिल करना चाहती है, तो उसे उसे दाखिल करने पर जोर देना चाहिए। यदि कॉलम खाली छोड़ दिए जाते हैं और पॉलिसी जारी कर दी जाती है, तो बीमा कंपनी उन कॉलम में तथ्यों को छिपाने या उनका खुलासा न करने के कारण बाद में अनुबंध को अस्वीकार नहीं कर सकती। तदनुसार, न्यायालय ने माना कि एलआईसी ने उन खाली कॉलम के बारे में कोई स्पष्टीकरण मांगे बिना प्रीमियम स्वीकार कर लिया, जहां पिछली पॉलिसियों का खुलासा किया जाना था। यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता की पत्नी की मृत्यु अचानक दिल का दौरा पड़ने से हुई थी, न कि पिछली बीमारियों के कारण, न्यायालय ने माना कि एलआईसी की कार्रवाई मनमानी थी। विवादित आदेशों को खारिज करते हुए, न्यायालय ने एलआईसी द्वारा बीमित राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया।