Friday 27 December 2019

पूर्व-न्याय Res judicata -Section 11 CPC

*पूर्व-न्याय Res judicata -Section 11 CPC.*

         सिविल प्रक्रिया संहिता में धारा 11 निम्न प्रकार से उपबंधित की गई है--
धारा 11-- कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नहीं करेगा जिसमें प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य विषय उसी हक के अधीन मुकदमा करने वाले उन्हीं पक्षकारों के बीच या ऐसे पक्षकारों के बीच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनमे में से कोई दावा करते हैं, किसी पूर्ववर्ती वाद में भी एस्से न्यायालय में प्रत्यक्षत और सारतः विवाद्य रहा है, जो ऐसे पश्चातवर्ती वाद का, जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचरण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है और अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका है।

स्पष्टीकरण 1-- “पूर्ववर्ती वाद” पद ऐसे वाद का घोतक है जो प्रश्न गत वाद के पूर्व ही विनिश्चित जा चुका है चाहे वह उससे पूर्व संस्थित किया गया हो या नहीं।

स्पष्टीकरण 2 -- इस धारा के प्रयोजन के लिए, न्यायालय की सक्षमता का अवधारण ऐसे न्यायालय के विनिश्चय से अपील करने के अधिकार विषयक किन्ही उपबंधों का विचार किए बिना किया जाएगा।

स्पष्टीकरण 3-- ऊपर निर्देशित विषय का पूर्ववर्ती वाद में एक पक्ष कार द्वारा अभिकथन और दूसरे द्वारा अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से प्रत्याख्यान या स्वीकृति आवश्यक है।

स्पष्टीकरण 4-- ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनाना जाना चाहिए था, समझा जायेगा कि ऐसे वाद में प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्य रहा है।

स्पष्टीकरण 5 -- वाद पत्र में दावा किया गया कोई अनुतोष, जो डिक्री द्वारा अभिव्यक्त रूप से नहीं दिया गया है, इस धरा के प्रयोजनो के लिए नामंजूर कर दिया गया समझा जाएगा।

स्पष्टीकरण 6 -- जहां कोई व्यक्ति किसी लोक अधिकार के या किसी ऐसे प्राइवेट अधिकार के लिए सद्भाव पूर्वक मुकदमा करते हैं जिसका वे अपने लिए और अन्य व्यक्तियों के लिए सामान्यत दावा करते हैं वहां ऐसे अधिकार से हितबद्ध सभी व्यक्तियों के बारे में इस धरा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जायेगा कि वे ऐसे मुकदमा करने वाले व्यक्तियों से व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करते हैं।

   स्पष्टीकरण 7 - धारा के उपबंध किसी डिक्री के निष्पादन के लिए कार्रवाई को लागू होंगे और इस धारा मैं किसी वाद,विवाद्यक या पूर्ववर्ती वाद के प्रति निर्देशों का अर्थ क्रमशः उस डिक्री के निष्पादन के लिए कार्यवाही, ऐसी कार्यवाही में उठने वाले प्रश्न और उस डिक्री के निष्पादन के लिए पूर्ववर्ती कार्रवाई के प्रति निर्देशों के रूप में लगाया जाएगा।

स्पष्टीकरण 8 -- कोई विवाद्यक जो सीमित अधिकारिता वाले किसी न्यायालय द्वारा, जो ऐसा विवाद्यक विनिश्चित करने के लिए सक्षम है, सुना गया है और अंतिम रुप से विनिश्चित किया जा चुका है, किसी पश्चातवर्ती वाद में पूर्व न्याय के रूप में इस बात के होते हुए भी प्रवर्त होगा कि सिमित अधिकारिता वाला ऐसा न्यायालय ऐसे पश्चातवर्ती वाद का यह उस वाद का जिसमें ऐसा विवाद्यक वाद में उठाया गया है, विचारण करने के लिए सक्षम नहीं था।

 न्याय प्रशासन मे वाद की रचना करना महत्वपूर्ण हैं। इसमे वाद की बहुलता (multiplicity of suit) को रोकना एक आवश्यक तत्व हैं। इसे रोकने के लिए संहिता मे विविध प्रावधान किए गए हैं। जेसे -
1 विचाराधीन न्याय (res - subjudice ) धारा10 cpc ,
2  पूर्व न्याय (res - judicata ) धारा  11cpc ,
3 अपर वाद का वर्जन (bar to furthersuit ) धारा 12 cpc , आदि का प्रावधान किया गया हैं। सहिंता आदेश 2 मे वाद की रचना की व्यवस्था की गई हैं। उपरोक्त धाराओ में न्यायिक प्रक्रिया में पूर्व न्याय का सिद्धांत अति महत्वपूर्ण होने से सहिंता में धारा11में इसका समावेश किया गया हैं | यह प्रावधान अति महत्वपूर्ण है जिसका विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।
       उपरोक्त धारा के बारे  में सीधे अर्थो में यह कहा जा सकता हैं की कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिंदु का विचारण नही करेगा जिसमे वाद पद में वह विषय उन्ही पक्षकारो के मध्य अथवा उन पक्षकारो के मध्य जिनके अधीन वे अथवा कोई उसी हक के अंतर्गत उसी विषय बाबत दावा प्रस्तुत करता हैं तब ऐसे पश्चातवर्ती वाद में जो विवाद बिंदु उठाया गया हैं और न्यायालय विचारणमें सक्षम हैं उस विवाद बिंदु बाबत पूर्व वाद में प्रत्यक्ष व सरवान बिंदु बाबत सुना जा चूका हो तथा अंतिम रूप से न्यायालय द्वारा निर्णित किया जा चूका हो तो ऐसे पश्चातवर्ती वादों का विचारण धारा 11 पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार विचारण से प्रवरित करता हैं ।

      इस सिद्धांत का मुख्य उद्येश्य वादों की बहुलता को रोकना हैं । सीधे अर्थो में हम यह कह सकते हैं कि उन्ही पक्षकारो के बिच किसी विवाद विषय-वस्तु का कोई निष्पादन योग्य निर्णय हो जाने के बाद उन्ही पक्षकारो के बिच उसी विवाद बाबत नये वाद के विचारण को रोकना हैं |

*--: महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय :--*

 (1) एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की किसी दस्तावेज     की प्रकृति को अपीलीय न्यायालय लंबित रहने से उसे अंतिम नही माना  गया -       अभिनिर्धारित धारा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंते हैं ।
  1998(2) DNJ (S.C.) 353

 (2) स्पष्टीकरण V||| सिमित क्षेत्राधिकार -पहले वाद में उन्ही पक्षकारो के बिच निर्णय - अगले वाद में बंधनकारी होगा, अगर पश्चावर्ती वाद में उठए गये मुद्दे      स्पष्तः एवं सारतः वही हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु होगा ।
2000(1)DNJ(Raj.) 245

(3) यदि पूर्व वाद अनुपस्थिति में ख़ारिज हुआ हो तथा मेरिट पर निर्णित नही हुआ      एवं वाद हेतुक भी भिन्न रहा हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु नही होता हैं ।
 2002 DNJ (Raj.) 910

 (4) किसी मामले में सिविल न्यायालय में वसीयत को धारा 68 साक्ष्य अधिनियम के     अनुसार प्रयाप्त रूप से सिद्ध किया गया | राजस्व न्यायालय में पुनः सिद्ध करने     की आवश्यकता नही है पूर्व न्याय का सिद्धांत के अनुसार वसीयत सिद्ध हुयी मानी     जाएगी।
 2000(2) DNJ (Raj.) 503

(5) पूर्व वाद जो करार दिनांक 20/12/1976 की विनिर्दिष्ट पालना बाबत पेश किया       जो साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हुआ पश्चातवर्ती वाद करार दिनांक 14/9/1987 .के     आधर पर पेश हुआ, पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार प्राथना-पत्र न्यायालय द्वारा     ख़ारिज किया गया | अभिनिर्धारित - दोनों वादों में वाद हेतुक व पक्षकार तथा       करार भिन्न भिन्न हैं जिससे आदेश में अधिकारिता की त्रुटी या अवेधता नही मानी गयी।
 2014(4) DNJ (Raj.)1446

(6) किसी वाद में न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः या सारतः किसी विवाद्द्यक का अंतिम      निर्णय नही होने पर धरा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंगे।
AIR 1990 (Bom.) 134

(7) किसी रिट याचिका को बिना अधिकार सुरक्षित रखे वापस लेने के उपरांत उसी      आधार पर प्रस्तुत रिट याचिका धारा 11 के अनुसार वर्जित होंगी।
AIR 1990 (Guj.) 20

(8) जहां किसी मामले में आयकर कार्यवाही का प्रश्न किसी न्यायालय के समक्ष आता है। वहां पूर्व न्याय का सिद्धांत प्रयोज्य नहीं होता है।
1992 ए.आई. आर. (सुप्रीम कोर्ट) 377

(9) कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक मामले में अभीनिर्धारित किया है कि ऐसे मामलों में पूर्व न्याय का सिद्धांत प्रयोज्य होता है जहां की किसी वाद में पूर्ववर्ती कार्यवाही को उन्ही पक्षकारों के मध्य सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय के समक्ष विचारणार्थ प्रस्तुत किया जाता है।
1993 ए .आई .आर. (कर्नाटक) 188

(10) जब न्यायालय के निर्णय के पश्चात विधि में परिवर्तन हुआ हो इससे पूर्व निर्णय का सिद्धांत प्रभावी नहीं होगा।
1994  ए .आई .आर. (गुजरात) 75

(11) माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि भूमि अर्जन संशोधन अधिनियम 1984 लागू होने के बाद भी याची द्वारा अर्जन कार्यवाही की वैधता को चुनौती नहीं दिया गया है तब वाद में अर्जन कार्रवाई की वैधता को चुनौती नहीं दिया जा सकता क्योंकि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के स्पष्टीकरण 4के अधीन वह बाधित है।
1996 ए .आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट) 61

(12) निष्पादन के विरुद्ध द्वितीय आपत्ती की। धारा 47 के अधीन आवेदन पर भी पूर्व न्याय का सिद्धांत लागू होता है। निर्णित ऋणी को उसी निष्पादन में ए के पश्चात अन्य आवेदन करने का कोई अधिकार नहीं है।निर्णित ऋणी को अनुवर्ती आवेदन में आपत्ति प्रस्तुत करने का अधिकार मात्र इसी आधार पर उपलब्ध नहीं होगा कि उसने आपत्ती विशेष पूर्व के आवेदन में नहीं की थी। द्वितीय आवेदन में अनुवर्ती आक्षेप आदेश 2 नियम 2 से भी बाधित है। प्रथम आवेदन का खारिज किया जाना पुनरीक्षण तक मान्य रहने से निष्पादन न्यायालय के लिए द्वितीय आवेदन जो पोषणीय नहीं था इसी प्रकार की जांच करना आवश्यक नहीं रहा।
2007 (3) WLC (Raj) 618

(13) डिक्री धारक डिक्री के निष्पादन हेतु अनेक बार आवेदन पत्र सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में प्रस्तुत करने का एक विधिक अधिकार रखता है, जबकि पक्षकार डिक्री के पारित होने की तिथि से 12 वर्ष परिसीमा की अवधि के अंदर ही उक्त प्रार्थना पत्र को प्रस्तुत करने का अधिकार रखता है। तो वहां उस उस पक्षकार को डिक्री का लाभ लेने से केवल इस तकनीक आधार पर मना नहीं किया जा सकता है कि तथाकथित मुद्दा एक लोकनीति का मामला है।

(14) पूर्व न्याय के सिद्धांत का आधार एक तकनीकी नियम नहीं है बल्कि यह लोक नीति के नियम पर आधारित होता है।
1997 ए आई आर (मुंबई) 79

(15) पूर्वन्याय के सिद्धांत को बड़ी सतर्कता एवं सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए। कारण यह है कि कपट एक तीव्र संपार्श्विक कार्य होता है जो कि न्याय की न्यायालयों की अत्यधिक गंभीर कार्यवाही  को निःसार बना देती है। यदि एक व्यक्ति कपट दुःसंधि का प्रयोग करके डिक्री प्राप्त करता है, तो उसे यह कहने की अनुज्ञा नहीं प्रदान की जा सकती है कि यह पूर्व न्याय के का मुद्दा है और वहां इसे पुनः खोल नहीं सकता है। ऐसे मामले में पूर्व न्याय का प्रश्न उद्भ्त नहीं हो सकता है जहां कपट या दुरभिसंधि का हस्ताक्षर अभिलेख पर सुलभ्य तथ्यों से प्रत्यक्ष व सुस्पष्ट होता है।
1995 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 1205

(16) जहां कोई बात इस आधार पर निरस्त किया गया था कि पूर्व के वाद में इस हेतु वाद हेतुक समाप्त हो चुका था अथवा किसी समान साक्ष्य का अभाव था वहां यह तथ्य की प्रतिवादी ने उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील नहीं किया वहां उक्त मामले में पूर्वन्याय का सिद्धांत लागू होगा।
1999 ए.आई.आर. (सुप्रीम कोर्ट)1823

(17) विचारण न्यायालय द्वारा अभिलिखित निष्कर्षों की अंतिमता के बाबत यह धारण  किया गया कि वे निष्कर्ष जो डिक्री के आधार थे पूर्व न्याय के रुप में प्रवृत्त होंगे।
1995 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 2001

( 18) पति इस आधार पर विवाह विच्छेद करना चाह रहा था कि पत्नी ने उसका अभित्यजन कर दिया था। जब की पत्नी ने साक्ष्य दिया कि वह एक दूसरी स्त्री रखे हुए था इसलिए उसने अपने वैवाहिक भवन को छोड़ दिया था। न्यायिक पृथक्करण हेतु पति द्वारा दाखिल की गई पूर्ववर्ती याचिका में विचारण न्यायालय द्वारा निष्कर्ष की पत्नी को पति को छोड़ने के लिए विवश किया गया था और उसने स्वयं उसका अभित्यजनकर दिया था, को पूर्वन्याय के रूप में प्रवर्तनीय होने वाला माना गया।
2000 ए.आई.आर(एनओसी)209( छत्तीसगढ़)

( 19) जहां किसी रिट याचिका को उसके गुण एवं दोष के आधार पर निरस्त किया जाता है तो वहां उक्त न्यायालय द्वारा पारित किया गया निर्णय, पूर्व न्याय का सिद्धांत जैसा संचालित नहीं होता है।
1989 ए .आई .आर. (दिल्ली) 301

( 20) सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में अभी निर्धारित किया है कि पूर्ण न्याय का सिद्धांत एक ऐसा सार्वभौमिक पक्षकारों के  बीच प्रश्नगत विवाद को अंतिमता प्रदान करता है।
1990 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 334

(21) पूर्व न्याय उन परीक्षणों में एक होता है जो यह सुनिश्चित करने हेतु प्रयुक्त होते हैं क्या उक्त अधिगम द्वारा व्यथित पक्षकार इसे अर्थार्थ (पूर्व न्याय के सिद्धांत को) चुनौती दे सकता था।
1991 ए.आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट ) 264

(22) एक वाद में जहां दत्तक ग्रहण की वैधता को चुनौती दी गई थी। दोनों पक्षकारो ने अपने साक्ष्य प्रस्तुत किए थे किसके द्वारा यह तथ्य प्रकाश में आया कि दत्तक ग्रहण वेध नहीं था। जहां वाद का आधार दत्तक ग्रहण था वाद को निरस्त  करने के स्थान पर वाद की वैधता शून्यता निर्धारित की जानी चाहिए। घोषणा की अवैधता का तथ्य पूर्व निर्णय का गठन करता है। वाद निरस्त किया गया किंतु यह भी निर्णय दिया गया कि गोदनामा अवैध है तो अपील ना होने से निर्णय पूर्व होगा।
1994 ए आई आर (आंध्र प्रदेश) 16

(23) एक मामले में वादी में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 9 नियम 7 के अंतर्गत न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया इसके पश्चात उसने पुनः नए सिरे से आदेश 9 नियम 7 के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत किया। न्यायालय ने इसे पूर्व न्याय के सिद्धांत द्वारा बाधित माना।
2001 ए.आई.आर. (इलाहाबाद) 78

(24) कोई भी खंडपीठ, उसी न्यायालय के समकक्ष अखंड पेट के कार्य करने पर टिप्पणी नहीं कर सकता है।
1992 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 474



(25) जब प्रतिवादी के विरुद्ध वादी ने पूर्व वाद किराएदार कह कर बकाया राशि के लिए वाद संस्थित  किया था तथा पश्चातवर्ती वाद मैं पूर्ववाला बिंदु निहित नहीं था तब ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह धारण किया गया कि वादी का वाद धारा 11 द्वारा बाधित नहीं है।
1996 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 378

(26) किसी भी वाद के विचारण के दौरान सिद्ध करने का भार उस पक्षकार पर होता है जो कि पूर्व न्याय के सिद्धांत पर विश्वास करता है।
1992 ए आई आर (उड़ीसा) 51

(27) यदि सक्षम अधिकारिता वाली न्यायालय द्वारा निर्णय किया गया तो यह दोनों पक्षकारों पर बाध्यकारी प्रभाव रखेगा यदि यह त्रुटिपूर्ण है तो भी जहां सहदायिकी द्वारा दिए गए उपहारो को सहदायको के बीच पूर्ववर्ती वाद में हिंदू विधि के अधीन अवैधानिक माना गया। इस प्रकार के निर्णय विभाजन के लिए पश्चातवर्ती वाद के पक्षकारों पर बाध्यकारी प्रभाव रखेंगे और इस आधार पर विबंध के नियम को लागू करने के लिए उद्बभूत नहीं होता कि सहदायको के बीच परिवारिक वयस्थापन था।
1997 ए आई आर (सुप्रीम कोर्ट) 808

(28) जब आज्ञप्ति करने वाले न्यायालय में आपत्ति न की गई हो तो निष्पादन में आपत्ति विचारनीय नहीं होगी।
1994 ए आई आर (केरल) 75

(29) विचारण न्यायालय में एक विभाजन के वाद में अंतिम डिक्री को क्रमबद्ध करने के संबंध में पीड़ित पक्षकार कोई आवेदन प्रस्तुत करता है तो वहां पर परिसीमा अधिनियम के अंतर्गत उस आवेदन पत्र को विचारण न्यायालय में प्रस्तुत करने का प्रावधान सुलभ नहीं होता है।
1993 ए.आई .आर. (सुप्रीम कोर्ट)1756

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