Saturday 25 July 2020

अभियुक्त को केवल इस 'धारणा' के आधार पर कस्टडी में नहीं रखा जा सकता कि वह ट्रायल में अड़चन डालेगा या समाज को संदेश देना है

*अभियुक्त को केवल इस 'धारणा' के आधार पर कस्टडी में नहीं रखा जा सकता कि वह ट्रायल में अड़चन डालेगा या समाज को संदेश देना है : दिल्ली हाईकोर्ट* 25 July 2020 

 दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि जांच एजेंसी की इस धारणा के आधार पर कि अभियुक्त न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करेगा, किसी अभियुक्त को जमानत देने से इनकार करते हुए उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम नहीं आंका जा सकता। न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की एकल पीठ ने कहा कि- ''कहीं भी यह कानून नहीं है कि एक अभियुक्त, जिसके मुकदमे की अभी सुनवाई होनी हैै, उसे केवल इस धारणाया अनुमान के आधार पर हिरासत में रखा जाना चाहिए कि वह मुकदमे में अड़चन डालेगा या समाज को कोई संदेश देना है। कुछ भी हो, किसी अभियुक्त को दोषी करार दिए जाने से पहले जेल में रखने से समाज को एकमात्र संदेश यह जाता है कि हमारी प्रणाली केवल धारणा और अनुमानों पर काम करती है और दोषी होने के अनुमान के आधार पर भी एक अभियुक्त को हिरासत में रख सकती है।''  न्यायालय ने यह टिप्पणी मनी लॉन्ड्रिंग मामले में फोर्टिस हेल्थकेयर के प्रमोटर शिविंदर मोहन सिंह की जमानत याचिका को स्वीकार करते हुए की है। पीठ ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वह सिंह को जमानत पर 1 करोड़ रुपये के निजी मुचलके और दो जमानती लाने की शर्त पर रिहा कर दें। उपर्युक्त टिप्पणी एक अंडरट्रायल कैदी को जमानत देने के मामलों में प्रयोग किए जाने वाले अधिकार के संबंध में काफी महत्वपूर्ण साबित होंगी।  पीठ ने स्पष्ट किया है कि आपराधिक मामले की जांच कर रहे अधिकारियों को ठोस तथ्यों के आधार पर जमानत दिए जाने का विरोध करना चाहिए जो ''उचित संदेह से परे''केस बनाते हों। उन्हें ट्रायल खत्म होने से पहले केवल ''दंडित'' करने के इरादे से अभियुक्तों की कस्टडी में नहीं रखना चाहिए। पीठ ने कहा कि- ''एक जांच एजेंसी को इस विश्वास के साथ अदालत में आना चाहिए कि उन्होंने एक आरोपी को विश्वसनीय सामग्री के आधार पर गिरफ्तार किया है। वहीं इस आधार पर एक शिकायत या आरोप पत्र दायर किया है कि वे अदालत को संदेह से परे संतुष्ट करने में सक्षम होते हुए आरोपी को दोषी करार दिलाएंगे। लेकिन जब एक जांच एजेंसी शिकायत या आरोप पत्र दायर करने के बाद भी यह सुझाव देती है कि एक अभियुक्त को एक लंबे समय के लिए हिरासत में रखा जाना चाहिए तो ऐसा प्रतीत होता है कि जांच एजेंसी अपने मामले को लेकर आश्वस्त नहीं है और इसलिए उनको आशंका है कि आरोपी डिस्चार्ज या बरी होकर 'गेट-ऑफ या बाहर निकल' सकता है। इसीलिए 'आरोपी को दंडित' करने का एकमात्र तरीका यह है कि उसे बतौर अंडरट्रायल कस्टडी में ही रखा जाए।''   वर्तमान मामले में, शिविंदर के साथ उनके भाई मालविंदर सिंह और सुनील गोधवानी पर 3000 करोड़ रुपये का वित्तीय घोटाला करने का आरोप है, जो रेलिगेयर फिनवेस्ट में उनके स्वामित्व की अवधि के दौरान हुआ था। सिंह की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता हरिहरन ने दलील दी थी कि याचिकाकर्ता को जमानत दी जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान मामले में साक्ष्य पहले ही दर्ज किए जा चुके हैं और रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर आगे भी याचिकाकर्ता को जेल में रखा जाए।  दूसरी ओर, प्रवर्तन निदेशालय ने इस आधार पर जमानत याचिका का विरोध किया था कि अभियुक्त द्वारा सबूतों के साथ छेड़छाड़ किए जाने की संभावना है। वह जमानत पर रिहा होने के बाद फरार हो सकता है और गवाहों को प्रभावित कर सकता है। पीठ ने उल्लेख किया कि शिविंदर के खिलाफ ईसीआईआर दर्ज करने की ''पर्याप्त'' अवधि के बाद ही उसे ईडी ने गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उसके खिलाफ कोई ऐसा आरोप नहीं है कि इस अवधि में उसने सबूतों के साथ छेड़छाड़ की या किसी गवाह को प्रभावित किया या किसी भी रिकॉर्ड को नष्ट कर दिया था। वास्तव में, यह देखा गया कि उपरोक्त लेनदेन कई रिकॉर्ड में दर्ज किए गए है या दर्शाए गए हैं। इसलिए इनको किसी भी तरीके से हटाया, संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। इन परिस्थितियों में पीठ ने कहा कि- ''वास्तव में पूरे कथित अपराध को उजागर करने के लिए लंबे और श्रमसाध्य प्रयास की जरूरत पड़ सकती है। वहीं आवेदक के पिछले आचरण से साफ है कि उसके द्वारा आगे की जांच में हस्तक्षेप करने का कोई वास्तविक और संभावित जोखिम नहीं है,जिसके आधार पर उसे जमानत देने से इनकार कर दिया जाए।'' पीठ ने यह भी कहा कि- ''यद्यपि कथित अपराध अगर साबित हो जाता है तो यह एक गंभीर आर्थिक अपराध हैं। परंतु यह तथ्य भी अपने आप में जमानत से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता है क्योंकि जमानत आवेदन पर विचार करते समय अपराध की प्रकृति की एक सीमित भूमिका होती है।'' पीठ ने माना है कि एक आरोपी, जिसे सामान्य या लोकप्रिय रूप से दोषी माना जाता है, उसे केवल ''बदला लेने की चाह'' के लिए हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। पीठ ने कहा,''इस तरह की कार्रवाई निश्चित रूप से हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रभुता या प्रतिष्ठा को खत्म कर देगी। ... ट्रायल पूरी होने से पहले जेल में अभियुक्तों को बंद रखकर सजा देने के मामले में लोगों को पूरा भरोसा आपराधिक न्याय प्रणाली में होना चाहिए।'' पीठ ने 'संजय चंद्रा बनाम सीबीआई, (2012) 1 एससीसी 40' मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले पर विश्वास जताया है। इस फैसले में माना गया था कि जमानत का उद्देश्य जमानत की उचित राशि के आधार पर मुकदमे में आरोपी व्यक्ति की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है। 'जमानत का उद्देश्य न तो दंडात्मक है और न ही निवारक है।' पीठ ने दिल्ली जेल की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि इन आंकड़ों के अनुसार दिसंबर 2019 में दिल्ली की जेलों में अंडर ट्रायल व अपराधियों का अनुपात लगभग 82 प्रतिशत व 18 प्रतिशत था। पीठ ने कहा कि, ''यह संख्या बता रही है कि जेल सजा देने के लिए बनाई गई एक जगह है और कोई भी सजा बिना मुकदमे के वैध नहीं हो सकती है। ज्यूडिशियल कस्टडी में किसी अंडरट्रायल को रखने के लिए बाध्यकारी आधार और कारण होने चाहिए, जो कि इस अदालत को वर्तमान मामले में नजर नहीं आए हैं।'' यह भी एक कारगर तथ्य है कि एक अंडरट्रायल को जेल में रखना उसकी कानूनी रक्षा या डिफेंस की तैयारी को ''गंभीर रूप से खतरे में डालता है।'' आदेश में कहा गया है कि- ''यदि कस्टडी में रखा जाता है तो आवेदक अपने वकीलों के साथ प्रभावी ढंग से परामर्श नहीं कर पाएगा,न ही अपने बचाव में सबूतों को एकत्रित कर पाएगा और इस तरह वह खुद का प्रभावी ढंग से बचाव नहीं कर पाएगा। इस तरह आवेदक संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी के अधिकार से वंचित हो जाएगा।'' मामले का विवरण- केस का शीर्षक- डॉ शिविंदर मोहन सिंह बनाम प्रवर्तन निदेशालय केस नंबर- बीए नंबर 1353/2020 कोरम-न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी प्रतिनिधित्व-वरिष्ठ अधिवक्ता एन हरिहरन साथ में एडवोकेट तनवीर अहमद, महेश अग्रवाल, श्री सिंह, अभिषेक सिंह, निर्विकार सिंह, शाली भसीन और मेनका खन्ना (याचिकाकर्ता के लिए),सीजीएससी अमित महाजन साथ में एसपीपी नितेश राणा व एडवोकेट्स मल्लिका हिरेमथ और रमनजीत कौर (ईडी के लिए)

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