Monday 23 December 2013

मानवाधिकार संरक्षण एवं न्यायालयों की भूमिका-न्यायमूर्ति श्री दीपक वर्मा

 मानवाधिकार संरक्षण एवं न्यायालयों की भूमिका

ख्माननीय न्यायमूर्ति श्री दीपक वर्मा, म.प्र. उच्च न्यायालय द्वारा ‘मानव अधिकारों के संरक्षण’ विषय पर अधीनस्थ न्यायालय के न्यायाधीषों की दिनांक 1.9.07 को एमनेस्टी इन्टरनेषनल इण्डिया, नेषनल कमेटी फाॅर एडवोकेट पुणे, नेषनल कमेटी फाॅर लीगल एड सर्विसेज इंडिया एवं म.प्र. स्टेट लीगल सर्विसेज अथाॅरिटी द्वारा आयोजित सिम्पोजियम में मुख्य अतिथि के रूप में दिया गया व्याख्यान। ,
    हमें गर्व है कि हम विष्व के सर्वाधिक सफल विराट लेाकतांत्रिक गणराज्य के नागरिक हैं । लोकतंत्र का अर्थ है जन समान्य का राज्य । लोकतंत्र मंे सामान्य जन उनके द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करते हैं । संवैधानिक लोकतंत्र का आधार मूलभूत माननीय स्वतंत्रता है । जन सामान्य का अर्थ मात्र शक्तिषाली और सम्पन्न का राज्य न होकर पीडि़त और निरीह जन का राज्य है इसलिये लोकतंत्र के विकास की अवधारणा जन सामन्य की मूलभूत स्वतंत्रता और समाजिक न्याय के इर्द गिर्द ही घूमती  है । इसी कारण से भारतीय संविधान की प्रस्तावना भी माननीय प्रतिष्ठा एवं स्वतंत्रता को संरक्षण देने  हेतु मूलभूत अधिकारों की उद्घोषणा  करती है और यहीं से मानव अधिकारों की संरक्षा की आवधारणा भी प्रतिध्वनित होती है ।
‘‘मानव अधिकार’’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में सामने आया जिसे द्वितीय विष्व युद्ध के बाद सेनफ्रंासिसको मंे दिनांक 25 जून, 1945 को अंगीकृत  किया गया । मानव अधिकारों के विधिक रूप में अंगीकृत करने का प्रथम दृष्टांत दिनांक 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा- 1948 में ‘‘मानव अधिकारों की सार्वत्रिक उद्घोषणा’’ के रूप में समक्ष आता है, जिसे भारतीय संविधान के भाग 3 में ‘मूलभूत अधिकारों’ एवं भाग 4 में ‘राज्य  के नीति निर्देषक तत्व’ के रूप में अंगीकृत किया गया है । कालान्तर में वर्ष 1976 में संविधान संषोधन द्वारा भाग 4 (क) जोड़ा गया जो भारतीय नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों को उल्लेखित करता है, जिसमें सभी नागरिकों से राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय  मान्यता प्राप्त मानव अधिकारों के सम्मान और संरक्षण की अपेक्षा की गई है । इस प्रकार निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि सभी महत्वपूर्ण मानव अधिकार जो कि मानव अधिकारों की सार्वत्रिक उद्घोषणा एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्रों में मान्य किये गये थे, भारतीय न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय भी हैं ।
धारा 2 (1) (द) मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम में उल्लेखित परिभाषा के अनुसार- ‘‘मानव अधिकार’’ से संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गये या अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा पत्रों में सम्मिलित और भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा से संबंधित अधिकार अभिप्रेत है ।’’
अब प्रष्न यह उपस्थित होता है कि न्यायालयों द्वारा किस प्रकार इन मानव अधिकारों का संरक्षण किया जा सकता है?
सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा मूलभूत अधिकारों की अवधारणा को विस्तार दिया गया और मानव अधिकार के विभिन्न आयामों को मूलभूत अधिकारों के साथ जोड़कर नवीन ‘‘मानव अधिकार न्यायषास्त्र’’ ;भ्नउंद त्पहीजे श्रनतपेचतनकमदबमद्ध की रचना की गई  ।
मानव अधिकारों के हनन के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय की सकारात्मक सक्रियता और मानव अधिकारों के संरक्षण के प्रति न्यायपालिका की कटिबद्धता  के अनेक उदाहरण हैंः-
1.    एकान्त कारावास के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण-    सुनील बत्रा विरूद्ध देहली प्रषासन  ए.आई. आर., 1978 सु.को. 1675
2.    बच्चों के मानवाधिकारों का संरक्षण- एम. सी. मेहता विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, (1996) 6 एस.सी.सी. 756 बंधुआ मुक्ति मोर्चा विरूद्ध भारत संघ व अन्य, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 2218
3.    लिंग भेद के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- एयर इंडिया विरूद्ध नर्गिस मिर्जा, ए.आई.आर. 1981एस.सी. 1829, मेकिनन मेंकेंजी एंड कं. विरूद्ध एन्डू  डी कोस्टा, ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1281
4.    कार्यस्थल पर महिलाों के सम्मान एवं मानवाधिकरों का संरक्षण - विषाखा विरूद्ध राजस्थान राज्य, ए.आई. आर. 1997 एस.सी. 3011
5.    भेाजन एवं निवास के मानवाधिकरों का संरक्षण- जे.पी. रविदास एवं अन्य विरूद्ध नवयुवक हरिजन उत्थापन मल्टीयुनिट इंडस्ट्रीज केाआपॅरेटिव सोसायटी लि., ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2151, मधुकिष्वर विरूद्ध बिहार राज्य, (1995) 5 एस.सी.सी. 125
6.    अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक सषक्तिकरण संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- मुरलीधर दयानदेव केसेकर विरूद्ध विष्वनाथ पांडू बर्डे, 1995 सप्लीमेंट (2) एस.सी.सी. 549
7.    आसरे एवं निवास संबध्ंाी मानवाधिकर सरंक्षण -उत्तरप्रदेष आवास एवं विकास परिषद विरूद्ध फ्रेन्डस काआपरेटिव हाउसिंग सोसायटी लि., ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 114
8.  स्वास्थ्य संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- पंजाब राज्य विरूद्ध मोहिन्दर सिंह चावाल, ए.आई.आर.1997 एस.सी. 1225
9.    समान कार्य समान वेतन संबंधी मानवाधिकार- रणधीर सिंह विरूद्ध भारत संघ, ए.आई.आर. 1982 एस.सी. 879
10.    अनिवार्य एवं निःषुल्क प्राथमिक षिक्षा संबध्ंाी मानवाधिकार संरक्षण -जे.पी. उन्नीकृष्णन विरूद्ध आंध्रपेदष राज्य, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 2178
11.    विधिक सहायता संबंधी मानवाधिकर संरक्षण- माधव विरूद्ध महाराष्ट्र  राज्य, ए.आई.आर. 1978 एस.सी. 1584
12.    आजीविका संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- ओल्गा टेलिस विरूद्ध मुबंई नगर निगम (1985) 3 एस.सी.सी. 545
13.    निजता संबंधी मानवाधिकार संरक्षण-    गोविन्द विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 1378
14.    अवैध गिरफ्तारी के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- जोगेन्दर विरूद्ध उत्तरप्रदेष राज्य (1994) 4 एस.सी.सी. 260
15.    स्वच्छ पर्यावरण संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- बेल्लोर सिटीजन वेलफेयर फोरम विरूद्ध भारत संघ, (1966) 5 एस.सी.सी. 647, आंध्रप्रदेष पाल्युषन कंट्रोल बोर्ड विरूद्ध प्रो. एम. व्ही. नायडू, (2001) 2 एस.सी.सी. 62
16.    शीघ्र विचारण संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- हुसैन आरा खातून विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1979 एस.सी. 1360
17.    हथकड़ी लगाने के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- प्रेमषंकर विरूद्ध देहली प्रषासन, (1980) 3 एस.सी.सी. 526
18.    पुलिस प्रताड़ना के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- फ्रांसिस काराली विरूद्ध देहली प्रषासन, (1981) 1 एस.सी.सी. 608, डी के बासु विरूद्ध पष्चिम बंगाल राजय, (1997) 1 एस.सी.सी. 416
19.    लोक स्थान पर धूम्रपान के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- मुरली एस. देवरा विरूद्ध भारत संघ, (2001) 8 एस.सी.सी. 765
20.    अभिरक्षाधीन हिंसा के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण-नीलबटी बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राजय, (1993) 2 एस.सी.सी. 746 सुबे सिंह विरूद्ध हरियाणा राज्य, (2006) 3 एस.सी.सी. 178
21.    जेलों की दुर्दषा के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण- रामामूर्ति विरूद्ध कर्नाटक राज्य, ए.आई.आर. 1997 एस.सी. 1739
22.    निर्दोषिता के उपधारणा संबंधी मानवाधिकार संरक्षण- रणजीत सिंह विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 2277
23.    सार्वजनिक फांसी के विरूद्ध मानवाधिकार संरक्षण - अटार्नी जनरल विरूद्ध लकमा देवी. ए.आई.आर. 1986 एस. सी. 467
            यह सम्पूर्ण सूची न होकर उदाहरण मात्र है, अब अधीनस्थ न्यायापालिका से मानवाधिकार संरक्षण की अपेक्षा पर विचार करना समीचीन होगा । अधीनस्थ न्यायपालिका निम्नलिखित मामलों में प्रत्यक्ष भूमिका रखती है ।
1.    गिरफ्तारी
2.    हथकड़ी
3.    रिमांड कार्यवाही
4.    अभिरक्षाधीन पूछताछ
5.    अभिस्वीकृतियां
6.    जमानत
7.    निःषुल्क विधिक सहायता
8.    शीघ्र विचारण
9.    अभिरक्षाधीन अभियुक्तों की अवस्था
10.    जेल अभिरक्षा की परिस्थितियां
11.    न्यायालयीन कार्यवाहियों की नियमिता
12.    न्यायालय की जानकारी में स्वप्रेरण से अथवा अन्यथा लाये गये मानवाधिकार हनन।
    मानव अधिकार  संरक्षण अधिनियम मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय एवं प्रादेषिक स्तर पर आयोग के गठन का प्रावधान करता है । आयोग को मानव अधिकार हनन की षिकायतों का संज्ञान लेकर कार्यवाही करने की अधिकारिता दी गई है । ऐसी स्थिति में यह प्रष्न उद्भूत होना स्वाभाविक है कि आयोग के उपलब्ध होते हुए मानव अधिकार संरक्षण हेतु न्यायालयों की क्या भूमिका होगी? साथ ही यह विचार करना भी आवष्यक है कि अधीनस्थ न्यायालय मानवाधिकार संरक्षण में उनकी अपेक्षित भूमिका किस प्रकार निर्वाह कर सकते है?
    धारा 30- मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम मानवाधिकार हनन संबंधी अपराधों के त्वरित निराकरण के उददेष्य से मानवाधिकार न्यायालयों की स्थापना उपबंधित करती है, इसके अनुसार प्रत्येक राज्य में मुख्य न्यायाधिपति की सहमति से प्रत्येक जिले में एक सत्र न्यायालय को मानवाधिकार न्यायालय अधिसूचित किया जाना अपेक्षित है । मध्यप्रदेष राज्य शासन द्वारा राजपत्र में प्रकाषित अधिसूचना दिनांक 09.07.1996 के माध्यम से प्रत्येक सत्र न्यायाधीष को ‘मानवाधिकार न्यायालय’ के रूप में अधिसूचित किया गया है ।
    धारा 4(2) दंड प्रक्रिया संहिता उपबंधित करती है कि भारतीय दंड संहिता से भिन्न किसी अन्य अपराध से संबंधित अन्वेषण जांच एवं विचारण पर दंड प्रक्रिया संहिता के सामान्य प्रावधान लागू होंगे । इस प्रकार मानवाधिकार न्यायालयों को मानवाधिकार हनन संबंधी अपराधों के विचारण का समवर्ती क्षेत्राधिकार प्राप्त है । इस संबध्ंा में तमिलनाडू पंझानगुड़ी मक्कलसंगम विरूद्ध तमिलनाडू राज्य,  दांडिक पुनरीक्षण क्रमांक 868/1995 में प्रतिपादित निर्णय दिनांक 23.06.1997 देखा जा सकता है । ‘मानवाधिकार न्यायालय’ किसी भी अपराध से संबंधित समंस, वारंट अथवा स. विचारण प्रक्रिया के अनुरूप विचारण कर सकता है । जहां अपराध विषेष सत्र न्यायालय (मानवाधिकार न्यायायलय) द्वारा विचारणीय है वहां पर गागंुला अषोक विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, (2000) 5 एस.सी.सी. 504  की अपेक्षा के अनुसार मजिस्टेªट द्वारा उक्त अपराध से संबंधित प्रकरण धारा 209 दं.प्र.सं. के अंतर्गत संज्ञान लेकर आवष्यक अन्वेषण एवं उपार्पण कार्यवाही के निर्देष सहित प्रेषित कर सकते हैं सभी सत्र न्यायाधीष एवं न्यायिक मजिस्ट्रेट स्वपे्ररणा से अथवा अन्यथा उनकी जानकारी में लाये गये मानवाधिकार हनन संबंधी अपराधों का संज्ञान लेकर उन्हें विधिवत् प्रक्रिया के अुनसार मानवाधिकार न्यायालय को अग्रेषित कर सकते हंै।
    प्रत्येक न्यायालय मानवाधिकार हनन संबंधी सूचना को मानवाधिकार आयोग को अग्रेषित कर सकता है जहां पर विचारण के दोरान किसी न्यायालय के समक्ष लोक प्राधिकारी के द्वारा मानवाधिकार हनन का तथ्य जानकारी में आता है वहां न्यायालय के पास 2 विकल्प उपलब्ध हैं । प्रथमतः यदि कोई अपराध गठित हो रहा हो तो न्यायायल दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानुसार उसका संज्ञान लेकर कार्यवाही करने के लिये अधिकृत है । द्वितीयतः उक्त मानव अधिकार हनन की सूचना मानवाधिकार आयोग को दी जा सकती है ।
    विगत दिनांे एक न्यूज चैनल मे भगलपूर में पूुलिस की बर्बरता की एक घटना ने सभी को उद्वेलित किया । एक महिला के गले से चैन खींचने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से जनता एवं पुलिस द्वारा बुरी तरह पीटा गया और उसके पैरों को मोटर सायकिल से बंाधकर घसीटा गया । निष्चित रूप से यह मानवाधिकार का हनन की विदू्रपित घटना थी । मीडिया ने जब उक्त व्यक्ति से पूछा कि इस घटना के लिये वह किसे दोषी मानता है ? उसने प्रषासन को दोषी ठहराया।
    आज का युग जनचेतना का है । निरीह पीडि़त व्यक्ति भी अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रति जागरूक है । उसकी पीड़ा का अहसास और बढ़ जाता है, जब वह अपने अधिकारों को जानते हुए भी असहाय महसूस करता है ।
    इन स्थितियों पर कवि दुष्यंत की पक्तियां सटीक हैं-
        ‘‘वेा आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
        माथे पर उसके चोट का गहरा निषान है,
        सामान कुछ नहीं है, फटेहाल है मगर,
        झोले में उसके पास, कोई संविधान है।’’
    इस जनचेतना और सामाजिक  न्यायसंघर्ष के प्रति न्यायापालिका की सहदय, संवेदनषीलता एवं सकारात्मक पहल आज की आवष्यकात है इसलिये आपका दायित्व और गुरूत्तर हो जाता है ।
    अंत में गुरूदेव रविन्द्रनाथटैगोर और महात्मागांधी के संवाद को उद्धरित कर समापन करूंगा।
    गुरूदेव ने एक बार गांधी जी से पूछा- आप इतने अरसिक क्यों हैं? क्या भोर में सूर्योदय की लालिमा आप के हृदय को हर्ष विभोर नहीं करती? क्या पक्षियों के कलरव का दैवीय संगीत आपको रोमांचित नहीं करता? क्या खिलते गुलाब की पंखुडि़यों को देखना आपके हुदय को खुषी नहीं देता?
    महात्मागांधी ने जवाब दिया - गुरूदेव, मैं संवेदनहीन नहीं हूं पर मैं क्या करूं? मेरी केवल एक ही इच्छा, अभिलाषा और उत्कंठा है कि मैं गुलाब की लालिमा मेरे देष के लाखों नंगे भूखे गरीबों के गालों पर कब देख पाउंगा? कब मैं उनकी आहांे और कराहों की जगह पंछियों की मीठी चहचहाहट सुन पाउंगा? कब मैं सूर्य के प्रकाष से आम आदमी का हृदय आलेाकित होता देख पाउंगा? कब मैं सूर्याेदय की रक्ताभ लालिमा उनके चेहरों पर देख पाउंगा ?
    जनसामान्य के प्रति इसी भावना और संवेदना से आप सभी उनके मानवाधिकार संरक्षण के लिये कृतसंकल्प होंगे, यही मेरी कामना और शुभकामना है ।

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