व्यवहार
न्यायालयों का क्षेत्राधिकार
गठन, वर्गीकरण
व आदेश 7 नियम
11 सी.पी.सी.
का
प्रयोग
व्यवहार
न्यायालयों का क्षेत्राधिकार
एक
व्यवहार न्यायालय या सिविल
न्यायालय का क्षेत्राधिकार
कई दृष्टिकोण से समझना आवश्यक
होता है नीचे दिये गये चार्ट
के द्वारा हम इसे समझ सकते
हैं।
व्यवहार
न्यायालय या सिविल न्यायालय
के क्षेत्राधिकार
1.आर्थिक
क्षेत्राधिकार-
धारा
6 म.प्र.
सिविल
कोर्ट एक्ट,
1958 एवं
धारा 6 एवं
15 सी.पी.सी.
2.प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार-
धारा
16 से
20 सी.पी.सी.
3.विभाजन
पत्रक से क्षेत्राधिकार-
धारा
15 सिविल
कोर्ट एक्ट 1958
4.अत्यावश्यक
कार्यभार का क्षेत्राधिकार-
धारा
21 म.प्र.
सिविल
कोर्ट एक्ट 1958
5.अन्तरण
से प्राप्त क्षेत्राधिकार
धारा 22 से
25 सी.पी.सी.
6.अन्र्तनिहित
क्षेत्राधिकार धारा 9
सी.पी.सी.
7.अपीलीय
क्षेत्राधिकार धारा 13
म.प्र.
सिविल
कोर्ट एक्ट 1958
1.आर्थिक
क्षेत्राधिकार
किसी
सिविल न्यायालय के आर्थिक
क्षेत्राधिकार को देखने के
लिए सर्वप्रथम धारा 6
म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम,
1958, धारा
6 एवं
15 सी.पी.सी.
को
ध्यान में रखना होता है जो इस
प्रकार है:-
धारा
6 सिविल
न्यायालयों की प्रारंभिक
अधिकारिता -
(1) तत्समय
प्रवृत्त किसी अन्य विधि के
प्रावधानों के अधीन रहते हुए
-
(ए)
सिविल
न्यायधीश, द्वितीय
वर्ग के न्यायालय को 2,50,000/-(दो
लाख पचास हजार रूपये)
से
अनधिक मूल्य के किसी भी सिविल
वाद या मूल कार्यवाही को सुनने
तथा अवधारित करने की आधिकारिता
होती है,
(बी)
सिविल
न्यायधीश, प्रथम
वर्ग के न्यायालय को 10,00,000/-(दस
लाख रूपये) से
अनधिक मूल्य के किसी भी सिविल
वाद या मूल कार्यवाही को सुनने
तथा अवधारिता करने की अधिकारिता
होती है,
(सी)
जिला
न्यायाधीश के न्यायालयों को
मूल्य के संबंध में बिना किसी
निबंधन के या बाधा के किसी भी
मूल्य के सिविल वाद या मूल
कार्यवाही को सुनने तथा अवधारित
करने की अधिकारिता होती है।
(2) उपधारा
(1)के
खंड (ए)
और
(बी)
में
उल्लेखित न्यायालयों के
क्षेत्राधिकारों की स्थानीय
सीमायें वहीं होगी जिसे राज्य
सरकार अधिसूचना द्वारा नियत
करे।
धारा
6 सी.पी.सी.
के
अनुसार -
अभिव्यक्त
रूप से जैसा उपबंधित है उसके
सिवाय किसी बात का प्रभाव ऐसा
नहीं होगा कि वह किसी न्यायालय
को उन वादों पर आधिकारिता दे
दे जिनकी रकम या जिनकी विषय
वस्तु का मूल्य उसकी मामूली
आधिकारिता की धन संबंधी सीमाओं
से अधिक है।
धारा
15 सी.पी.सी.
के
अनुसार -
हर
वाद उस निम्नतम श्रेणी के
न्यायालय में संस्थित किया
जा सकेगा जो उसका विचारण करने
के लिए समक्ष है।
उक्त
तीनों प्रावधानो पर विचार
करने से यह स्पष्ट होता है कि
सिविल न्यायाधीश द्वितीय
वर्ग को 2,50,000/-
रूपये
व सिविल न्यायालय प्रथम वर्ग
को 10,00,000/- रूपये
मूल्य तक के सिविल वाद और अन्य
कार्यवाहियां सुनने और निराकृत
करने का आर्थिक क्षेत्राधिकार
होता है जबकि जिला न्यायाधीश
के न्यायालय के लिए सिविल वाद
या अन्य कार्यवाहियों के बारे
में कोई आर्थिक सीमा की बाधा
नहीं आती है और वे किसी भी मूल्य
के व्यवहार वाद या मूल कार्यवाहिया
सुन सकते हैं और निराकृत कर
सकते हैं।
लेकिन
प्रत्येक वाद धारा 15
सी.पी.सी.
के
अनुसार निम्नतम सक्षम श्रेणी
के न्यायालय में प्रस्तुत
करने का प्रावधान है। जबकि
धारा 6 सी.पी.सी.
के
अनुसार प्रत्येक न्यायालय
को अपनी आर्थिक क्षेत्राधिकार
की सीमाओं के भीतर कार्य करना
होता है।
न्याय
दृष्टांत कुसुमा
राठौर(श्रीमती)
विरूद्ध
शरद शर्मा आई.एल.आर
2012
एम.पी.
2724 के
अनुसार वादी ने बकाया किराये
के वाद में पिछले 13
वर्षो
का बकाया किराया मांगते हुए
वाद का मूल्यांकन किया और वाद
पेश किया। मूल्यांकन,
विधि
मे दी जाने वाली सहायता से
सीधा संबंध रखता है। विधि में
यह व्यवस्था है कि अवशेष किराया
केवल गत 3 वर्षो
का वसूल किया जा सकता है तब 13
वर्षो
के बकाया किराये के आधार पर
वाद का मूल्यांकन न्याय संगत
नहीं माना जा सकता इसे प्रक्रिया
का दुरूपयोग माना गया और ये
निर्देश दिये गये कि विचारण
न्यायालय वाद सक्षम न्यायालय
में पेश करने के लिए लौटावें।
कभी
कभी ऐसी स्थिति बनती है कि कोई
वाद किसी सिविल न्यायालय में
पेश किया जाता है और उसमें
आर्थिक क्षेत्राधिकार संबंधी
आपत्ति उठाई जाती है इस बीच
विधि में संशोधन हो जाने से
उसी न्यायालय को बड़ा हुआ
आर्थिक क्षेत्राधिकार प्राप्त
हो जाता है ऐसे में प्रश्न यह
उपस्थित होता है कि क्या वाद
दिनांक को स्थिति देखेंगे या
संशोधन के कारण बड़े हुए
क्षेत्राधिकार के कारण वाद
उसी न्यायालय में चलने योग्य
रहेगा।
लेखक
के विनम्र मत में विधि में
संशोधन के कारण उसी न्यायालय
को बड़ा हुआ आर्थिक क्षेत्राधिकार
भी प्राप्त होता है इस कारण
वाद उसी न्यायालय में चलेगा
वाद दिनांक की स्थिति को देखते
हुए उसे लौटाना उचित नहीं
होगा।
दूसरी
स्थिति जिसके अनुसार यदि कोई
वाद अपर जिला जज के न्यायालय
में चल रहा हो उस दौरान यदि
सिविल जज को आर्थिक क्षेत्राधिकार
विधि में संशोधन द्वारा बढ़ा
दिया जाता है तब क्या अपर जिला
जज उस वाद को सिविल जज के यहा
प्रस्तुत करने के लिए लौटा
देगें ? इसका
सीधा सा उत्तर है कि वह वाद
अपर जिला जज के यहा पूर्वानुसार
सुना जायेगा इस संबंध में
न्याय दृष्टांत पंडित
गोपीकृष्ण शर्मा विरूद्ध
पंडित भागीरथ प्रसाद शर्मा
1997
(2) एम.पी.एल.जे.
586 अवलौकनीय
है।
2.
प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार
किसी
भी सिविल न्यायालय के प्रादेशिक
या टेरिटोरियल क्षेत्राधिकार
को देखने के लिए 16
से
20 सी.पी.सी.
को
ध्यान में रखना चाहिए जो इस
प्रकार है:-
धारा
16 वादों
का वहा संस्थित किया जाना जहा
विषयवस्तु स्थित है -
किसी
विधि द्वारा विहित धन संबंधी
या अन्य परिसीमाओं के अधीन
रहते हुए वे वाद जो -
(ए)
भाटक
या लाभों के सहित या रहित स्थावर
सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण
के लिए,
(बी)
स्थावर
सम्पत्ति के विभाजन के लिए,
(सी)
स्थावर
सम्पत्ति के बंधक की या उस पर
के भार की दशा में पुरोबंध,
विक्रय
या मोचन के लिए,
(डी)
स्थावर
सम्पत्ति में के किसी अन्य
अधिकार या हित के अवधारण
के लिए,
(ई)
स्थावर
सम्पत्ति के प्रति किये गये
दोष के लिए प्रतिकर के लिए,
(एफ)
करस्थम्
या कुर्की के अधीन संगम सम्पत्ति
के प्रत्युद्धरण के लिए हैं,
उस
न्यायालय में संस्थित किये
जायेंगे जिसकी आधिकारिता की
स्थानीय सीमाओं के भीतर वह
सम्पत्ति स्थित है:
परन्तु
प्रतिवादी के द्वारा या निमित
धारित स्थावर सम्पत्ति के
संबंध में अनुतोष की या ऐसी
सम्पत्ति के प्रति किये गये
दोष के लिए प्रतिकर की अभिप्राप्ति
के लिए वाद, जहा
चाहा गया अनुतोष उसके स्वीय
आज्ञानुवर्तन के द्वारा पूर्ण
रूप से अभिप्राप्त किया जा
सकता है, उस
न्यायालय में जिसकी अधिकारिता
की स्थानीय सीमाओं के भीतर
प्रतिवादी वास्तव में और
स्वेच्छा से निवास करता है
या कारोबार करता है या अभिलाभ
के लिए स्वयं काम करता है,
संस्थित
किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण-
इस
धारा में “सम्पत्ति“ से भारत
में स्थित सम्पत्ति अभिप्रेत
है।
धारा
17 विभिन्न
न्यायालयों की अधिकारिता के
भीतर स्थित स्थावर सम्पत्ति
के लिए वाद -
जहा
वाद विभिन्न न्यायालयों
की अधिकारिता के भीतर स्थित
स्थावर सम्पत्ति के संबंध
में अनुतोष की या ऐसी सम्पत्ति
के प्रति किये गये दोष के लिए
प्रतिकर की अभिप्राप्ति के
लिए है, वहा
पर वाद किसी भी ऐसे न्यायालय
में संस्थित किया जा सकेगा
जिसकी अधिकारिता की स्थानीय
सीमाओं के भीतर सम्पत्ति का
कोई भाग स्थित है:
परन्तु
यह तब जबकि पूरा दावा उस वाद
की विषय-वस्तु
के मूल्य की दृष्टि से ऐसे
न्यायालय द्वारा संज्ञेय
है।
धारा
18 जहॉ
न्यायालयों की अधिकारिता की
स्थानीय सीमाएं अनिश्चित है
वहॉ वाद के संस्थित किये जाने
का स्थान -
(1)
जहॉ
यह अभिकथन किया जाता है कि यह
अनिश्चित है कि कोई स्थावर
सम्पत्ति दो या अधिक न्यायालयों
में किस न्यायालय की अधिकारिता
की स्थानीय सीमाओं के भीतर
स्थित है वहॉ उन न्यायालयों
में से कोई भी एक न्यायालय,
यदि
उसका समाधान हो जाता है कि
अभिकथित अनिश्चितता के लिए
आधार है, उस
भाव का कथन अभिलिखित कर सकेगा
और तब तक सम्पत्ति से संबंधित
किसी भी वाद को ग्रहण करने और
उसका निपटारा करने के लिए आगे
कार्यवाही कर सकेगा और उस वाद
में उसकी डिक्री का वही
प्रभाव होगा मानों वह सम्पत्ति
उसकी अधिकारिता की स्थानीय
सीमाओं के भीतर स्थित हो:
परन्तु
यह तब तबकि वह ऐसा वाद है
जिसके संबंध में न्यायालय उस
वाद की प्रकृति और मूल्य की
दृष्टि से अधिकारिता का प्रयोग
करने के लिए सक्षम है।
(2)
जहॉ
कथन उपधारा (1) के
अधीन अभिलिखित नहीं किया गया
है और किसी अपील या पुनरीक्षण
न्यायालय के सामने यह आक्षेप
किया जाता है कि ऐसी सम्पत्ति
से संबंधित वाद में डिक्री
या आदेश ऐसे न्यायालय द्वारा
किया गया था जिसकी वहॉ अधिकारिता
नहीं थी जहॉ सम्पत्ति स्थित
है वहॉ अपील और पुनरीक्षण
न्यायालय उस आक्षेप को तब तक
अनुज्ञात नहीं करेगा जब तक
कि उसकी राय यह न हो कि वाद के
संस्थित किये जाने के समय उसके
संबंध में अधिकारिता रखने
वाले न्यायालय के बारे में
अनिश्चितता के लिए कोई युक्तियुक्त
आधार नहीं था उसके परिणामस्वरूप
न्याय की निष्फलता हुई है।
धारा
19 शरीर
या जंगम सम्पत्ति के प्रति
किये गये दोषों के लिए प्रतिकर
के लिए वाद - जहॉ
वाद शरीर या जंगम सम्पत्ति
के प्रति किये गये दोष के लिए
प्रतिकर के लिए है वहॉ यदि दोष
एक न्यायालय की अधिकारिता
की स्थानीय सीमाओं के भीतर
किया गया था और प्रतिवादी किसी
अन्यय न्यायालय की अधिकारिता
की स्थानीय सीमाओं के भीतर
निवास करता है या कारोबार करता
है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम
करता है तो वाद वादी के विकल्प
पर उक्त न्यायालयों में से
किसी भी न्यायालय में संस्थित
किया जा सकेगा।
(ए)
दिल्ली
में निवास करने वाला क कलकत्ते
में ख को पीटता है। ख कलकत्ते
में या दिल्ली में क पर वाद ला
सकेगा।
(बी)
ख
की मानहानि करने वाले कथन
दिल्ली में निवास करने वाला
क कलकत्ते में प्रकाशित करता
है। ख कलकत्ते में या दिल्ली
में क पर वाद ला सकेगा।
धारा
20 अन्य
वाद वहॉ संस्थित किये जा सकेंगे
जहॉ प्रतिवादी निवास करते
हैं या वाद- हैतुक
पैदा होता है -
पूर्वोक्त
परिसीमाओं के अधीन रहते हुए,
हर
वाद ऐसे न्यायालय में संस्थित
किया जायेगा जिसकी अधिकारिता
की स्थानीय सीमाओं के भीतर -
(ए)
प्रतिवादी,
या
जहॉ एक से अधिक प्रतिवादी हैं
वहॉ प्रतिवादियों में से
हर एक वाद के प्रारंभ के समय
वास्तव में और स्वेच्छा से
निवास करता है या कारोबार करता
है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम
करता है: अथवा
(बी)
जहॉ
एक से अधिक प्रतिवादी हैं वहॉ
प्रतिवादियों में से कोई भी
प्रतिवादी वाद के प्रारंभ के
समय वास्तव में और स्वेच्छा
से निवास करता है या कारोबार
करता है या अभिलाभ के लिए स्वयं
काम करता है,
परन्तु
यह तब जबकि ऐसी अवस्था में या
न्यायालय की इजाजत दे दी गई
है या जो प्रतिवादी पूर्वोक्त
रूप में निवास नहीं करते या
कारोबार नहीं करते या अभिलाभ
के लिए स्वयं काम नहीं करते,
वे
ऐसे संस्थित किये जाने के लिए
उपमत हो गये हैं:
अथवा
(सी)
वाद-
हेतुक
पूर्णतः या भागतः पैदा होता
है।
स्पष्टीकरण
- निगम
के बारे में यह समझा जायेगा
कि वह भारत में के अपने एकमात्र
या प्रधान कार्यालय में,
या
किसी ऐसे -हेतुक
की बाबत, जो
ऐसे किसी स्थान मे पैदा हुआ
है जहॉ उसका अधीनस्थ कार्यालय
भी है, ऐसे
स्थान में कारोबार करता है।
(1)
क-
कलकत्ते में एक व्यापारी है।
ख दिल्ली में कारोबार करता
है । ख कलकत्ते में अपने अभिकर्ता
के द्वारा क से माल खरीदता है
औरख कलकत्ते में अपने अभिकर्ता के द्वारा क से माल खरीदता है और अपने ईस्ट इंडियन रेल कंपनी को उनका परिदान करने को क से प्रार्थना करता है। क तदानुसार माल का परिदान कलकत्ते में करता है। क माल की कीमत की लिए ख के विरूद्ध वाद या तो कलकत्ते में जहा वाद-हेतुक पैदा हुआ है, या दिल्ली में जहा ख कारोबार करता है, ला सकेगा।
(2) क शिमला में, ख कलकत्ते में और ग दिल्ली में निवास करता है। क, ख और ग एकसाथ बनारस में है। जहा ख और ग मांग पर देय एक संयुक्त वचनपत्र तैयार करके उसे क को परिदत्त कर देते हैं। ख और ग पर क बनारस में वाद ला सकेगा जहा वाद हेतुक हुआ था। वह उन पर कलकत्ते में भी जहा ख निवास करता है या दिल्ली में भी, जहा ग निवास करता है, वाद ला सकेगा किन्तु इन अवस्थाओं में से हर एक में यदि अनिवासी प्रतिवादी आक्षेप करें, तो वाद न्यायालय की इजाजत के बिना नहीं चल सकता।
(2) क शिमला में, ख कलकत्ते में और ग दिल्ली में निवास करता है। क, ख और ग एकसाथ बनारस में है। जहा ख और ग मांग पर देय एक संयुक्त वचनपत्र तैयार करके उसे क को परिदत्त कर देते हैं। ख और ग पर क बनारस में वाद ला सकेगा जहा वाद हेतुक हुआ था। वह उन पर कलकत्ते में भी जहा ख निवास करता है या दिल्ली में भी, जहा ग निवास करता है, वाद ला सकेगा किन्तु इन अवस्थाओं में से हर एक में यदि अनिवासी प्रतिवादी आक्षेप करें, तो वाद न्यायालय की इजाजत के बिना नहीं चल सकता।
वैधानिक
स्थिति
प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार के संबंध में
आपत्ति आने पर निम्नलिखित
वैधानिक स्थितियॉ ध्यान में
रखना चाहिए:-
1.
वादी
और प्रतिवादी में संविदा हुई
जिसमें अनुच्छेद 9
में
यह शर्त थी कि ’’ऑल डिस्प्यूट
शैल बी सबजेक्ट टू सतना कोर्ट’’
जबलपुर में कुछ वादकारण उत्पन्न
हुआ वादी ने जबलपुर में वाद
किया। वादी ने केवल सतना
न्यायालय को ही क्षेत्राधिकार
रहेगा ऐसी सहमति नहीं दी थी
अतः जबलपुर में प्रस्तुत वाद
चलने योग्य पाया गया। न्याय
दृष्टांत रजिस्ट्रार
महात्मा गांधी चित्रकूट
विरूद्ध एम.सी.मोदी,
आई.एल.आर,
2007 एम.पी.
1851 अवलोकनीय
है।
2.
न्याय
दृष्टांत लाइफ
केयर इंटरनेशनल विरूद्ध
महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा,
आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
175 में
भी आउसटर ऑफ ज्यूरिडिक्शन
को स्पष्ट किया है जिसके तहत
शब्द ऑनली, एलॉन,
एक्सक्लूजिव
जैसे कोई शब्द अनुबंध के आउसटर
क्लॉज में काम में नहीं लिये
गये हैं केवल ’’एग्रीमेंट
शैल बी सबजेक्ट टू ज्यूरिडिक्शन
ऑफ कोर्ट एट बॉम्बे’’ लिखा
हुआ था। न्यायालय को क्षेत्राधिकार
को अपवर्जित करने का आशय स्पष्ट
असंदिग्ध और विनिर्दिष्ट रूप
से होना चाहिए और ऐसे कोई शब्द
जैसे ऑनली, एलॉन,
एक्सक्लूजिव
काम में नहीं लिये गये हैं
इंदौर न्यायालय को क्षेत्राधिकार
माना गया।
3.
न्याय
दृष्टांत राजस्थान
स्टेट इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड
वि0
यूनीवरसल
पेट्रोल केमीकल्स (2009)
3 एस.सी.सी.
107 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि प्रादेशिक क्षेत्राधिकार
के मामले में अनुबंध द्वारा
यदि किसी एक न्यायालय के बारे
में क्षेत्राधिकार होना सीमित
कर लिया जाता है तो वह वैध एवं
बंधनकारी है और यह आरबीटेशन
के मामले में भी लागू होता है।
4.
न्याय
दृष्टांत लक्ष्मण
प्रसाद वि0
प्रोडिजी
इलेक्ट्रोनिक्स (2008)
1 एस.सी.सी.
618 में
प्रतिपादित किया गया है कि
हॉगकॉग की कंपनी और उसके
कर्मचारी के बीच हॉगकॉग में
एक संविदा निष्पादित हुआ जिसके
अनुसार संविदा को हॉगकॉग के
कानून के अनुसार अर्थ लगाया
जायेगा। ऐसी शर्त व्यवहार
न्यायालय के क्षेत्राधिकार
को वर्जित नहीं करती है वाद
कारण जहॉ उत्पन्न हुआ वहॉ वाद
चलने योग्य है।
5.
जहॉ
सेवा में कमी हुई हो या उपेक्षा
हुई हो या सुविधा में कमी हुई
हो तभी सेवा प्रदाता के विरूद्ध
वाद कारण उत्पन्न होता है।
उपभोक्ता फोरम और स्थायी लोक
अदालत केवल असुविधा या हार्डशिप
या सिमपेथी के आधार पर प्रतिकर
नहीं दिला सकते क्योंकि कारण
ऐसा था जो सेवा प्रदाता के
नियंत्रण के बाहर था और उसने
सदभावनापूर्वक कार्य किया
था इस संबंध में न्याय दृष्टांत
इंटर ग्लोबल
एवीएशन लिमिटेड विरूद्ध
एन.सचिदानन्द
(2011)
7 एस.सी.सी.
463 अवलोकनीय
है।
6.
न्याय
दृष्टांत रूचि
माजू वि0
संजीव
माजू,
(2011) 6 एस.सी.सी.
479 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि गार्जियन एंड वार्ड एक्ट,
1890 धारा
9 (1) के
तहत प्रादेशित क्षेत्राधिकार
उस स्थान पर होता है जहॉ अवयस्क
साधारणतया रहता है रेसीडेंस
का तात्पर्य किसी फ्लाइंग
विजिट या केजूवल स्टे से अधिक
होता है इस मामले में क्षेत्राधिकार
के निर्धारण का परीक्षण बतलाया
गया।
7.
न्याय
दृष्टांत मेसर्स
अर्चना साड़ी प्रोपराईटर
जुगल किशोर वि0
एम.पी.हेण्डीक्राट
एंड हेण्डलूम डवलपमेंट
कार्पोरेशन,
2010 (5) एम.पी.एच.टी.
443 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि वादकारण और प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार के लिए सभी
आवश्यक, तात्विक,
इंटीग्रल
तथ्य निश्चित कर लेना चाहिए
जब तक ये तत्व किसी स्थान पर
न हो वाद कारण उत्पन्न होना
इंफर नहीं किया जा सकता।
8.
न्याय
दृष्टांत ए.के.लक्ष्मीपति
विरूद्ध राव साहब अन्ना लाल
एच.
लाहोटी
चेरीटेबल ट्रस्ट (2010)
1 एस.सी.सी.
287 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि किसी चेरीटेबल या धार्मिक
ट्रस्ट से संबंधित सम्पत्ति
के अंतरण के मामले में प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार केक बारे में
लागू होने वाली विधि वह होगी
जहॉ चेरीटेबल ट्रस्ट का मुख्यालय
पंजीकृत हो।
9.
न्याय
दृष्टांत श्री
जयराम एजूकेशनल ट्रस्ट वि0
ए.जी.सैयद
मोहिद्दीन,
(2010) 2 एस.सी.सी.
513 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि वाद जो धारा 92
सी.पी.सी.
के
तहत प्रस्तुत किया गया वहॉ
मूल क्षेत्राधिकार की आरंभिक
आधिकारिता वाली प्रधान सिविल
न्यायालय वाली या राज्य सरकार
द्वारा सशक्त किसी अन्य न्यायालय
को क्षेत्राधिकार होगा जिमसें
कोई आर्थिक लिमिट नहीं है।
धारा 92 सी.पी.सी.
के
मामलों में धारा 15
से
20 सी.पी.सी.
के
प्रावधान भी लागू नहीं होगें।
10.
न्याय
दृष्टांत हरसद
चिमन लाल वि0
डी.एल.एफ.
(2005) 7 एस.सी.सी.
791 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि धारा 20 धारा
15 से
19 की
शर्तो के अधीन है सहमति या
अधित्याजन या मौन स्वीकृति
यदि न हो तो वह क्षेत्राधिकार
प्रदान नहीं कर सकती है।
3. कार्यविभाजन
पत्रक से क्षेत्राधिकार
इस
संबंध में धारा 15
म.प्र.
सिविल
न्यायालय अधिनियम,
1958 एवं
धारा 3 सी.पी.सी.
ध्यान
में रखना होती है जो इस प्रकार
है:-
धारा
3 सी.पी.सी.
के
अनुसार:- इस
संहिता के प्रयोजन के लिए जिला
न्यायालय उच्च न्यायालय के
अधीनस्थ हैं और जिला न्यायालय
से अवर श्रेणी का हर सिविल
न्यायालय और हर लघुवाद न्यायालय
, उच्च
न्यायालय और जिला न्यायालय
के अधीनस्थ है।
धारा
15 सिविल
न्यायालय अधिनियम के अनुसार:-
(1)
सिविल
प्रक्रिया संहिता,
1908 में
या किसी क्षेंत्र में तत्समय
प्रवृत लघुवाद न्यायालयोंं
से संबंधित विधि में,
या
इस अधिनियम में अंतरविष्ट
किन्ही अन्य उपबंधों में
अंतरविष्ट किसी बात के होते
हुए भी जिला न्यायाधीश लिखित
आदेश द्वारा यह निर्देश दे
सकेगा कि उसके न्यायालय द्वारा
उसके सिविल जिले में धारा 5
के
अधीन स्थापित किये गये अन्य
सिविल न्यायालयों के अपर
न्यायाधीशों के बीच कार्य
परस्पर ऐसी रीति से किया जाये,
जैसा
कि वह उचित समझें,
परन्तु
वहॉ तक के सिवाय जहॉ तक कि इस
धारा के अधीन दिये गये किसी
निर्देश से किसी लघुवाद न्यायालय
की या किसी ऐसे न्यायालय की
जिसमें लघुवाद न्यायालय की
अधिकारिता विनहित है,
अन्य
आधिकारिता प्रभावित होती है,
ऐसा
कोई निर्देश किसी न्यायालय
को ऐसी शक्तियों को प्रयोग
करने या ऐसा कार्य करने के लिए
सशक्त नहीं करेगा जो उसकी धन
संबंधी अधिकारिता तथा अधिसूचित
क्षेत्रीय अधिकारिता की सीमाओं
से परे हो।
(2)
सक्षम
अधिकारिता वाले किसी न्यायालय
में संस्थित किसी वाद,
अपील
या कार्यवाही में का कोई न्यायिक
कार्य केवल इस तथ्य के कारण
अविधिमान्य नहीं होगा कि ऐसा
संस्थित किया जाना उपधारा एक
में निर्दिष्ट किये गये कार्य
वितरण के अनुसार नहीं था।
(3)
जब
कभी किसी न्यायालय को जो उपधारा
2 में
बतलाया गया है यह प्रतीत हो
कि उसके समक्ष लंबित किसी वाद,
अपील
या कार्यवाही का संस्थित किया
जाना उपधारा एक के कार्यवितरण
के आदेश के अनुरूप नहीं था तो
वह ऐसे वाद अपील या कार्यवाही
का अभिलेख उचित आदेश के लिए
जिला न्यायालय को प्रस्तुत
करेगा और तब जिला न्यायाधीश
उसके बारे में उचित आदेश पारित
कर सकेंगे।
वैधानिक
स्थिति
1.
क्या
धारा 34 मध्यस्थ
एवं सुलह अधिनियम 1996
का
आवेदन अपर जिला जज के न्यायालय
में चलने योग्य हैं ?
धारा
7 (2) म.प्र.सिविल
कोर्ट एक्ट के तहत अपर जिला
जज, जिला
जज की समस्त शक्तियॉ प्रयोग
कर सकता है अतः आवेदन चलने
योग्य है। न्याय दृष्टांत
म.प्र.एस.ई.बी.
विरूद्ध
अनसालदू एनरजीया एस.पी.ए.,
ए.आई.आर
2008
एम.पी.
328 अवलोकनीय
है, साथ
ही न्याय दृष्टांत प्रताप
सिंह हारडीया विरूद्ध संजीव
चावरेकर,
2009 (1) एम.पी.एल.जे.,
477 डी.बी.
भी
इसी संबंध में है।
न्याय
दृष्टांत एन.के.सक्सेना
विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी.,
2008 (2) एम.पी.एच.टी.
365 डी.बी.
में
भी यह स्पष्ट किया गया है कि
केवल धारा 24
सी.पी.सी.
में
अपर जिला जज को जिला जज के
अधीनस्थ बतलाया गया है अन्यथा
1982 से
अपर जिला जज वे शक्तियॉ प्रयोग
कर रहे हैं जो जिला जज करते
हैं।
2.
न्याय
दृष्टांत दुर्गेश
चैरसिया विरूद्ध प्रकाश
कुशवाहा,
2010 (2) एम.पी.एच.टी.
369 डी.बी.
में
दोनों पक्षों ने उनकी साक्ष्य
दे दी थी विचारण पूर्ण हो चुका
था केवल अंतिम तर्क होना था
और निर्णय होना था विचारण
न्यायालय ने वाद आर्थिक
क्षेत्राधिकार न होने से
लौटाया ऐसे लौटाने का परिणाम
पुनः विचारण होगा आदेश अपास्त
किया गया और विचारण न्यायालय
को यह निर्देशित किया गया कि
वह मामले को धारा 15
(3) एम.पी.सिविल
कोर्ट, 1958 के
तहत जिला जज को उचित आदेश के
लिए भेजे।
धारा
15 (3) म.प्र.सिविल
कोर्ट एक्ट के अनुसार ऐसे
मामले में जिला जज उचित आदेश
कर सकते हैं।
अतः
यह ध्यान रखना चाहिए ऐसे अवसरों
पर आदेश 7 नियम
10 सी.पी.सी.
की
शक्तियॉ प्रयोग करने के बजाय
धारा 15 (3) म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम,
1958 का
प्रयोग करना चाहिए इस संबंध
में न्याय दृष्टांत गेन्दाबाई
विरूद्ध कुन्दन लाल 1985,
जे.एल.जे.
521 भी
अवलोकनीय है।
3.
धारा
15 सिविल
न्यायालय अधिनियम के तहत बनाया
गया कार्य विभाजनक पत्रक एक
प्रशासकीय आदेश नहीं है बल्कि
विधि के समान बल रखता है यदि
कार्यविभाजन पत्रक में अपर
जिला जज के आर्थिक क्षेत्राधिकार
की सीमा निश्चित की गई है तो
वे उसके उपर के आर्थिक मूल्य
का वाद सुनने का क्षेत्राधिकार
नहीं रखते हैं। इस संबंध में
न्याय दृष्टांत भवरसिंह
विरूद्ध हीरालाल 1984
एम.पी.एल.जे.
नोट
1
अवलोकनीय
है।
4.
न्याय
दृष्टांत यास्मिन
खान समीउल्ला खान 1999
(1) एम.पी.एल.जे.
626 के
अनुसार धारा 15
म.प्र.
सिविल
न्यायालय अधिनियम के तहत जिला
जज द्वारा तैयार किये गये
कार्य विभाजक पत्रक में जो
न्यायालय दर्शायी जाती है
उसे पत्रक में उल्लेखित वादों
को सुनने का अधिकार होता है
चाहे वह धारा 15
सी.पी.सी.
के
प्रावधानों से कन्फर्म न होता
हो।
5.
न्याय
दृष्टांत श्री
हनुमान राइस मिल्स विरूद्ध
जी.जी.दाण्डेकर
मशीन वर्कस लिमिटेड 1984
एम.पी.एल.जे.
नोट
2
के
अनुसार अपर जिला जज के न्यायालय
की शक्तियॉ जिला जज द्वारा
जारी किये गये कार्य विभाजन
पत्रक से पूरी तरह निर्भर रहती
है यदि उस पत्रक में अपर जिला
जज को एक निश्चित राशि तक का
आर्थिक क्षेत्राधिकार दिया
गया हो तो अपर जिला जज उससे
अधिक राशि के वाद नहीं सुन
सकते।
4. अत्यावश्य
कार्यभार का क्षेत्राधिकार
इस
संबंध में धारा 21
(4) म.प्र.
सिविल
न्यायालय अधिनियम 1958
ध्यान
में रखना चाहिए धारा 21
इस
प्रकार है:-
1.
राज्य
शासन के अनुमोदन के अध्ययाधीन
रहते हुए उच्च
न्यायालय उन दिनों की
एक सूची तैयार करेगा,
जिसके
अनुसार उसके अधीन सिविल
न्यायालयों में प्रतिवर्ष
अवकाश मनाये जायेंगे।
2.
ऐसी
सूची राजपत्र में प्रकाशित
की जायेगी।
3.
उपधारा
(2) के
अधीन प्रकाशित सूची में उल्लेखित
दिन को किसी न्यायालय द्वारा
किया गया न्यायिक कार्य केवल
इस कारण ही अमान्य न होगा कि
वह उस दिन किया गया था।
4.
जिला
न्यायाधीश ऐसे दीर्घावकाश
के दौरान अत्यावश्यक सिविल
मामलों के निपटारे के लिए ऐसा
इंतजाम कर सकेंगे जैसा वे ठीक
समझें।
कई
बार यह प्रश्न उत्पन्न होता
है कि अत्यावश्यक प्रकृति का
प्रभार होने पर कौन-कौन
से कार्य देवे जावें किसे
अर्जेन्ट नेचर का कार्य माने
किसे नहीं माने सर्वप्रथम
कार्य विभाजन पत्रक द्वारा
यह पुष्टि कर लेना चाहिए कि
क्या संबंधित न्यायालय का
अत्यावश्यक प्रकृति का प्रभार
आपके पास है या नहीं और यदि
प्रभार आपके पास हो तभी उस
न्यायालय का कार्य करना चाहिए।
इस
संबंध में सिविल मामलों में
निम्न लिखित कार्य अत्यावश्यक
प्रकृति के माने जाते हैं।
1.
आदेश
39 नियम
1, 2 सी.पी.सी.
के
तहत अस्थाई निषेधाज्ञा के
मामले।
2.
आदेश
38 नियम
1 और
आदेश 38 नियम
5 सी.पी.सी.
के
तहत निर्णय पूर्व गिरफ्तारी
औन निर्णय पूर्व कुर्की संबंधी
आवेदन।
3.
आदेश
40 नियम
1 सी.पी.सी.
के
तहत रिसीवर नियुक्ति का मामला।
4.
एक
निश्चित तिथि तक राशि जमा
करवाना या अंडरटेकिंग या जमानत
पेश करना।
5.
ऐसा
वाद पेश करना जिसमें परिसीमा
का अंतिम दिन हो या परिसीमा
निकलने वाली हो।
6.
उपरोक्त
प्रकृति के समान अन्य अत्यावश्यक
कृत्य।
इस
संबंध में दांडिक मामलों में
निम्न लिखित कार्य अत्यावश्यक
प्रकृति के माने जाते हैं।
1.
पुलिस
अभिरक्षा, न्यायिक
अभिरक्षा में किसी अभियुक्त
को दिया जाना।
2.
अभियुक्त
का जमानत आवेदन पत्र।
3.
पूर्व
से अनुपस्थित अभियुक्त का
समर्पण करना या जमानत आवेदन।
4.
सम्पत्ति
की अंतरिम अभिरक्षा का आवेदन।
5.
पूर्व
में हुए आदेशानुसार जमानत
मुचलके प्रस्तुत करना।
6.
वरिष्ठ
न्यायालय के आदेश के क्रम में
जमानत प्रस्तुत करना।
7.
उपरोक्त
प्रकृति के अन्य कार्य।
5. अंतरण
से प्राप्त प्रकरण में
क्षेत्राधिकार
इस
संबंध में धारा 22
से
25 सी.पी.सी.
ध्यान
में रखना होती हैं जिनमें जिला
न्यायालय, उच्च
न्यायालय, सर्वोच्च
न्यायालय की प्रकरणों को
अंतरित करने की शक्तियों के
बारे में प्रावधान है और इन
शक्तियों का प्रयोग करके यदि
कोई प्रकरण किसी न्यायालय को
अंतरित किया जाता है तो उसे
उस प्रकरण को सुनने और निराकृत
करने की अधिकारिता होती है।
6. अपीलीय
क्षेत्राधिकार
इस
संबंध में धारा 13
म.प्र.
व्यवहार
न्यायालय अधिनियम,
1958 ध्यान
में रखना होता है जो इस प्रकार
है:-
धारा
13 अपीलीय
क्षेत्राधिकार:-
1.
तत्समय
प्रवर्त किसी विधि द्वारा
अन्यथा उपबंधित स्थिति को
छोड़कर मूल क्षेत्राधिकार
का प्रयोग करने वाले न्यायालयों
की डिक्रीयों या आदेशों से
अपीलें निम्न लिखित प्रारंभिक
अधिकारिता वाले न्यायालयों
में होगी:-
ए-
व्यवहार
न्यायाधीश प्रथम वर्ग या
व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय
वर्ग की आज्ञप्ति
या आदेश से जिला न्यायाधीश
के न्यायालय को अपील होगी।
बी-
जिला
न्यायाधीश के न्यायालय की
डिक्री या आदेश से उच्च
न्यायालय में
अपील होगी।
स्पष्टीकरण:-
सिविल
न्यायाधीश के न्यायालय या
जिला न्यायाधीश के न्यायालय
के अंतर्गत इस न्यायालय का
अपर न्यायाधीश शामिल होगा।
7. अंतर्निहित
क्षेत्राधिकार
इस
संबंध में धारा 9
सी.पी.सी.
ध्यान
में रखना चाहिए जिसके अनुसार
न्यायालयों को उन वादों के
सिवाय, जिनका
उनके द्वारा अभिव्यक्त या
विवक्षित रूप से वर्जित है,
सिविल
प्रकृति के सभी वादों के विचारण
की अधिकारिता होती है।
इस
प्रकार एक सिविल न्यायालय हर
सिविल प्रकृति के वाद को सुनने
और निराकृत करन का अंतरनिहित
क्षेत्राधिकार रखते हैं जब
तक कि उस वाद का संज्ञान अभिव्यक्त
या विवक्षित रूप से वर्जित
या बार न किया गया हो।
अंतर्निहित
क्षेत्राधिकार के बारे में
वैधानिक स्थिति
यहॉ
हम विभिन्न उदाहरणों द्वारा
यह समझने का प्रयास करेंगे
कि कब किसी सिविल प्रकृति के
वाद को सुनने का सिविल न्यायालय
को अंतर्निहित क्षेत्राधिकार
होता है और कब ऐसा क्षेत्राधिकार
अभिव्यक्ति या ववक्षित रूप
से वर्जित होता है।
क्षेत्राधिकार
के बारे में यह मूलभूत सिद्धांत
है कि किसी भी न्यायालय को
केवल वाद पत्र के तथ्य देखना
चाहिए वाद पत्र के तथ्य के
अलावा और कोई दस्तावेज नहीं
देखना चाहिए जबाव दावा या
लिखित कथन के तथ्य नहीं देखना
चाहिए इस संबंध में न्याय
दृष्टांत अब्दुल्ला
बिन अली विरूद्ध गालप्पा
ए.आई.आर.
1985 एस.सी.
577 अवलोकनीय
है।
न्याय
दृष्टांत भाउ
राम विरूद्ध जनक सिंह ए.आई.आर.
2012 एस.सी.
3023 के
अनुसार आदेश 7
नियम
11 सी.पी.सी.
के
अधीन केवल वाद पत्र के तथ्यों
को ही वाद की निरस्ती का आधार
बनाया जा सकता है लिखित कथन
में लिये गये तथ्य बिल्कुल
असंगत होते हैं न्याय दृष्टांत
कमला विरूद्ध
के.टी.ऐश्वरा
सा ए.आई.आर.
2008 एस.सी.
3174, मायर
एच.के.लिमिटेड
विरूद्ध ऑनर्स एंड पार्टिस
बेसल एम.बी.
फ्यचून
एक्सप्रेस ए.आई.आर.
2006 एस.सी.
1828 अवलोकनीय
है।
न्याय
दृष्टांत कमलकांत
गोयल विरूद्ध मेसर्स लूपिन
लेबोलेटरीज लिमिटेड आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
2191 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि:-
1.
धारा
84 (4) कंपनी
अधिनियम के प्रावधानों के
तहत रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी
का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं
एक जांच गठित करे इस संबंध में
कंपनी- इश्यू
ऑफ शेयर सर्टिफिकेटस-
रूल्स,
1960 में
भी प्रावधान हैं।
मामला
यह था कि वादी यह वाद लेकर आया
था कि एक बैग जिसमें सभी शेयर
सर्टिफिकेटस रखे थे और ट्रांसफर
डीट भी रखी थी वह गुम गया वादी
इस घोषणा का वाद लेकर आया की
प्रतिवादी शेयर सर्टिफिकेटस
किसी अन्य को अंतरित न करे और
डुप्लीकेट शेयर सर्टिफिकेटस
जारी कर ऐसी घोषणा की जावे।
न्याय
दृष्टांत श्रीपाल
जैन विरूद्ध टोरेंट फार्मा
सूटीकल लिमिटेड,
1995 सप्लीमेंट
एस.सी.सी.
(4) 590 पर
भरोसा करते हुए यह प्रतिपादित
किया गया कि व्यवहार न्यायालय
को ऐसा वाद सुनने का अधिकार
नहीं है क्योंकि कंपनी अधिनियम
की धारा 84 (4) और
उक्त नियम, 1960 के
अनुसार रजिस्ट्रार कंपनी को
स्वयं जांच गठित करना चाहिए
और उचित आदेश करना चाहिए साथ
ही धारा 41(एच)
विनिर्दिष्ट
अनुतोष अधिनियम,
1963 के
अधीन जहॉ समानतः प्रभावकारी
अनुतोष उपलब्ध हो वहॉ निषेधाज्ञा
नहीं देना चाहिए।
2.
न्याय
दृष्टांत प्रताप
सिंह विरूद्ध मंगल खान,
2011 (3) एम.पी.एल.जे.
306 में
धारा 185 म.प्र.
भू-राजस्व
संहिता के प्रावधानों के
प्रकाश में यह प्रतिपादित
किया गया कि वादी एक अधिपति
कृषक के रूप में सम्पत्ति के
आधिपत्य में था जिसे वापस पाने
के लिए यह वाद लेकर आया था
प्रतिवादी ने जमीन पर अतिक्रमण
करने का अभिवचन किया था वादी
का आधिपत्य नायब तहसीलदार के
आदेशानुसार था ऐसे में यह माना
गया कि वादी का बेहतर स्वत्व
है और आधिपत्य की पुनः प्राप्ति
का उसका वाद चलने योग्य है।
3.
वादी
ने घोषणा का वाद पेश किया जो
टेजर ट्रोव एक्ट,
1878 के
प्रकाश में चलने योग्य नही
पाया गया क्योंकि यह अधिनियम
एक संपूर्ण संहिता है यदि
कलेक्टर ऐसा निर्देश दे कि
स्वत्व के निराकरण के लिए
पक्षकार व्यवहार न्यायालय
जावे तभी व्यवहार वाद प्रचलन
योग्य होता है कलेक्टर ने ऐसा
कोई निर्देश नहीं दिया था और
जांच करके सम्पत्ति स्वामी
रहित घोषित कर दी थी अतः न्याय
दृष्टांत देव
कुमार बेन शाह विरूद्ध स्टेट
ऑफ म.प्र.,
2005 (4) एम.पी.एल.जे.
146 पर
भरोसा करते हुए यह प्रतिपादित
किया गया कि व्यवहार न्यायालय
को क्षेत्राधिकार नहीं है।
अवलोकनीय
न्याय दृष्टांत अजीज
उद्दीन कुरेशी विरूद्ध स्टेट
ऑफ एम.पी.
आई.एल.आर.
2011 एम.पी.
978।
4.
न्याय
दृष्टांत राजस्थान
स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट
कार्पोरेशन विरूद्ध दीनदयाल
शर्मा,
2010 (4) एम.पी.एल.जे.
(एस.सी.)
में
यह प्रतिपादित किया गया था
कि सेवा से डिसमिस किये जाने
के विवाद के बारे में व्यवहार
न्यायालय का क्षेत्राधिकार
का प्रश्न -
कर्मचारी
ने यह अभिकथन किया था कि
विभागीय जांच उसके डिममिश के
आदेश के पूर्व किया जाना चाहिए
था, ऐसा
अधिकार औधौगिक विवाद के रूप
में उपलब्ध होता है और प्रवर्तित
कराया जा सकता है ऐसे मामलों
मे व्यवहार न्यायालय का
क्षेत्राधिकार नहीं होना
पाया गया।
न्याय
दृष्टांत चीफ
इंजीनियर हायडल प्रोजेक्टर
विरूद्ध रविन्द्रनाथ,
ए.आई.आर.
2008 1513 में
यह प्रतिपादित किया गया कि
वादी वर्क चार्ज के आधार पर
कर्मचारी था उसके सेवा से
निकालने के बारे में विवाद
था ऐसा विवाद औधौगिक विवाद
अधिनियम, 1947 में
आयेगा व्यवहार न्यायालय
को क्षेत्राधिकार नही है।
जहॉ
क्षेत्राधिकार संबंधी आपत्ति
अपील के स्तर पर उठाई गयी हो
वहॉ भी ’’ फोरम नान जूडिश’’
का सिद्धांत लागू होगा और जहॉ
मूल डिक्री ही क्षेत्राधिकार
के बिना दी गयी हो वहॉ यह तात्विक
नहीं है कि ऐसी आपत्ति प्रारंभिक
स्तर पर क्यों नहीं उठाई गयी।
न्याय
दृष्टांत मंटू
सरकार विरूद्ध ओरियेन्टल
इंश्योरेंस कंपनी (2009)
2 एस.सी.सी.
244 में
भी इस स्थिति को भी स्पष्ट
किया गया है कि जहॉ वाद की विषय
वस्तु और आर्थिक क्षेत्राधिकार
के बारे में प्रश्न हो वहॉ
आर्थिक क्षेत्राधिकार न
होने पर निर्णय शून्य नहीं
होगा। जब तक कि न्याय की विफलता
और विपक्षी के हितों पर प्रतिकूल
असर गिरना प्रमाणित न हो। जबकि
विषयवस्तु का मामला हो तब बिना
क्षेत्राधिकार के निर्णय
शून्य होगा।
5.
न्याय
दृष्टांत राघविन्दर
सिंह विरूद्ध बेन्त कौर (2011)
1 एस.सी.सी.
106 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि यदि वाद प्रीमेच्योर हो
तब भी प्रत्येक मामले मे उसक
निरस्त किया जाना आवश्यक नहीं
होता है। क्योंकि यह क्षेत्राधिकार
की जड़ तक नहीं जाता है। न्यायालय
को केवल यह देखना चाहिए कि
प्रतिवादी को क्या कोई अपूरणीय
प्रीज्यूडिस हुआ है या उसके
साथ अन्याय हुआ है।
6.
न्याय
दृष्टांत राम
कन्या बाई वि0
जगदीश,
(2011) 7 एस.सी.सी.
452 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि यदि तहसीलदार ने धारा 131
म.प्र.
भू-राजस्व
संहिता के अंतर्गत किसी वाद
का निराकरण किया है तो कोई भी
पक्षकार उसके सुखाधिकार
स्थापित करने के लिए व्यवहार
न्यायालय में जा सकता है। धारा
257 की
बाधा नहीं आती है। व्यवहार
न्यायालय को व्यवहार प्रकृति
के सभी वादों को सुनने का अधिकार
होता है जब तक कि उनका संज्ञान
अभिव्यक्त या वैवक्षित रूप
से वर्जित न किया हो।
न्याय
दृष्टांत स्टेट
ऑफ एम.
पी.
वि.
बिजया
बाई आई.एल.आर
2011
एम.पी.
3093 के
अनुसार वादी के पूर्वजों को
होल्कर राज्य द्वारा इनाम
में भूमि दी गयी थी न कि देवस्थान
को वादी के अनुसार भू-राजस्व
संहिता 1959 के
आते ही भूमिस्वामी हो गया था।
वादी ने भूमिस्वामी की घोषणा
और शासन के विरूद्ध निषेधाज्ञा
का वाद पेश किया ऐसा वाद
चलने योग्य पाया गया।
7.
क्या
व्यवहार न्यायालय को खसरे के
गलत इंद्राज को सुधारने
संबंधी वाद के विचारण की
अधिकारिता है ?
नहीं,
केवल
तहसीलदार ऐसे विवाद को निराकृत
कर सकता है यदि वाद चलने योग्य
न हो। यह क्षेत्राधिकार न हो
तब वादी को सक्षम न्यायालय
में पेश करने के लिए लौटा देना
चाहिए। अपीलीय या रिवीजन
न्यायालय भी ऐसा कर सकती है।
इस संबंध में अवलोकनीय न्याय
दृष्टांत भगवानदास
वि0
श्रीराम,
2010 वाल्यूम
2
एम.पी.जे.आर
26
8.
क्या
वक्फ् ट्रिब्यूनल किसी किरायेदार
के निष्कासन संबंधी वाद/विवाद
के लिए सक्षम हैं ?
नहीं,
ऐसे
वाद केवल व्यवहार न्यायालय
में ही पेश किये जा सकते है।
अवलोकनीय न्याय दृष्टांत
रमेश गोवर्धन
वि0
सुगरा
हुमायूं मिर्जा वक्फ् (2010)
8 एस.सी.सी.
726
9.
न्याय
दृष्टांत लालजी
विरूद्ध सीताराम,
2009 (1) एम.पी.जे.आर
149
में
यह प्रतिपादित किया है कि वादी
का मामला यह है कि प्रतिवादीगण
ने अवैध रूप से और अप्राधिकृत
तरीके से प्रतिकर की राशि
प्राप्त कर ली है जोकि शासन
द्वारा भूमि के अधिग्रहण के
कारण दी गयी थी। इस मामले में
धारा 18 एवं
29 भूमिअधिग्रहण
अधिनियम पर विचार करते हुए
यह निष्कर्ष दिया है कि ऐसा
वाद चलने योग्य है क्योंकि
इसमें अधिग्रहण को चुनौती
नहीं दी गयी है।
न्याय
दृष्टांत देवकुमार
बेन साह विरूद्ध स्टेट ऑफ
एमपी,
2005 (3) जे.एल.जे.
286 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि धारा 6 भू-अधिग्रहण
अधिनियम, 1984 को
चुनोती देने का वाद चलने योग्य
नहीं होता है।
न्याय
दृष्टांत गिरीश
व्यास विरूद्ध स्टेट ऑफ
महाराष्ट्र ए.आई.आर
2012
एस.सी.
2043 के
अनुसार व्यवहार न्यायालय को
धारा 4 के
तहत जारी अधिसूचना और धारा 6
भूमि
अर्जन अधिनियम के तहत जारी
घोषणा की वैधानिकता के प्रश्न
पर जाने का अधिकार नहीं होता
है, केवल
उच्च न्यायालय ही भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 226
के
तहत ऐसा कर सकता है।
भूमि
अर्जन अधिनियम में भमि के
अधिग्रहण और उससे प्रभवित
व्यक्तियों और उसके उपचार के
लिए एक पूरी व्यवस्था देता
हैं सिविल न्यायालय को ऐसे
अधिग्रहण को चुनौती देने वाले
वाद में क्षेत्राधिकार नहीं
रहता है।
10.
जहॉ
दो न्यायालयों को किसी विषयवस्तु
पर समवर्ती क्षेत्राधिकार
हो वहॉ पक्षकार
अनुबंध द्वारा किसी न्यायालय
को क्षेत्राधिकार रहेगा ऐसा
तय कर सकते है और दूसरे न्यायालय
को ऐसा क्षेत्राधिकार नहीं
होगा। यह लोकनीति के विरूद्ध
नहीं है। इस संबंध में न्याय
दृष्टांत फिटजी
लिमिटेड वि0
संदीप
गुप्ता,
2006(4) एम.पी.एल.जे.
518 अवलोकनीय
है।
लेकिन
न्याय दृष्टांत श्री
शुभलक्ष्मी फेब्रिक्स प्राईवेट
लिमिटेड विरूद्ध चांदमल (2005)
10 एस.सी.सी.
704 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि जिस न्यायालय को क्षेत्राधिकार
ही न हो पक्षकार अनुबंध करके
उस न्यायालय को क्षेत्राधिकार
नही दे सकते हैं।
11.
न्याय
दृष्टांत द्वारका
प्रसाद अग्रवाल विरूद्ध
रमेशचंद,
ए.आई.आर
2003
एस.सी.
2696 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि जो कोई क्षेत्राधिकार
संबंधी आपत्ति उठाता है उसको
प्रमाणित करने का भार उसी पर
होता है।
12.
न्याय
दृष्टांत सोपान
सुखदेव सावले वि0
असिस्टेंट
चैरैटी कमिश्नर (2004)
3 एस.सी.सी.
137 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि यदि वादी ऐसे अनुतोष को जो
न्यायालय में क्षेत्राधिकार
के बाहर का हो उसे कम करना
चाहता है तो उसे इसकी अनुमति
दी जा सकती है।
13.
न्याय
दृष्टांत स्वामी आत्मानंद
वि0
श्रीरामकृष्ण
तपोवनम (2005)
10 एस.सी.सी.
51 में
न्याय दृष्टांत धूलाबाई
वि0
स्टेट
ऑफ एम पी (1968)
3 एस.सी.आर.
662 पर
विचार किया गया है। जो धारा
9 सी.पी.सी.
में
व्यवहार न्यायालय के क्षेत्राधिकार
के बाधित होने के बारे में
एक महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
है जिसमें सारी वैधानिक स्थिति
स्पष्ट होती है।
The
following principles regarding exclusion of jurisdiction of Civil
Court may be laid down:-
(1) Where the
statute gives a finality to the orders if the special tribunals the
civil courts' jurisdiction must be held to be excluded if there is
adequate remedy to do what the civil court would normally do in a
suit. Such provision, however, does not exclude those cases where the
provisions of the particular Act have not been complied with or the
statutory tribunal has not acted in conformity with the fundamental
principles of judicial procedure.
(2) Where there is
an express bar of the jurisdiction of the court, an examination of
the scheme of the particular act to find the adequacy or the
sufficiency of the remedies provided may be relevant but is not
decisive to sustain the jurisdiction of the civil court. Where there
is no express exclusion the examination of the remedies and the
scheme of the particular Act to find out the intendment becomes
necessary and the result of the enquiry may be decisive. In the
latter case it is necessary to see if the statute creates a special
right or a liability and provides for the determination of the right
or liability and further lays down that all questions about the said
right and liability shall be determined by the tribunal so
constituted, and whether remedies normally associated with actions in
civil courts are prescribed by the said statute or not.
(3) Challenge to the
provisions of the particular Act as ultra vires cannot be brought
before Tribunals constituted under that Act. Even the High Court
cannot go into that question on a revision or reference from the
decision of the Tribunals.
(4) When a provision
is already declared unconstitutional or the constitutionality of any
provision is to be challenged, a suit is open. A writ of certiorari
may include a direction for refund if the claim is clearly within the
time prescribed by the Limitation Act but it is not a compulsory
remedy to replace a suit.
(5) Where the
particular Act contains no machinery for refund of tax collected in
excess of constitutional limits or illegally collected, a suit lies.
(6) Questions of the
correctness of the assessment apart from its constitutionality are
for the decision of the authorities and a civil suit does not lie if
the orders of the authorities are declared to be final or there is an
express prohibition in the particular Act. In either case the scheme
of the particular Act must be examined because it is a relevant
enquiry.
(7) An exclusion of
jurisdiction of the Civil Court is no readily to be inferred unless
the conditions above set down apply.
साथ
ही न्याय दृष्टांत राजस्थान
स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट
कार्पोरेशन वि0
बालमुकुन्द
(2009)
4 एस.सी.सी.
299 तीन
न्यायमूर्तिगण की पीठ भी
अवलोकनीय है।
14.
न्याय
दृष्टांत देव श्याम
वि0
पी.
सविता
रम्मा (2005)
7 एस.सी.सी.
653 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि यदि अंतरनिहित क्षेत्राधिकार
के अभाव में कोई आदेश पारित
किया गया है तो वह शून्य होता
है।
15.
किसी
स्वामी के जीवनकाल में उसके
संभाव्य उत्तराधिकारियों
को सम्पत्ति में कोई स्वत्व
या अधिकार नहीं होते हैं
सम्पत्ति के स्वामी ने सम्पत्ति
विक्रय की और उस विक्रय व्यवहार
को अपने जीवन काल में चुनौती
नहीं दी अपीलार्थी को उस व्यवहार
को चुनौती देने का अधिकारी
नहीं माना गया अवलोकनीय
न्यायदृष्टांत बिपता
बाई वि0
श्रीमती
क्षिप्रा बाई,
आई.एल.आर.
2009 एम.पी.
1402 ।
16.
सहकारी
भूमि विकास बैंक अधिनियम,
1966 (म.प्र.)
की
धारा 27,
64 और
82 अपीलार्थी
ने बैंक से एन.ओ.सी.
प्राप्त
करके भूमि खरीदी अपीलार्थी
को सूचना पत्र दिये बिना उसी
भूमि को किसी अन्य व्यक्तियों
के बकाया के लिए कुर्क किया
गया चाहे सिविल न्यायालय का
क्षेत्राधिकार वर्जित किया
गया हो फिर भी सिविल न्यायालय
को यह अधिकार है कि वह अधिनियम
के प्रावधानो की पालना की गई
है या नहीं और न्यायिक प्रक्रिया
की मूलभूत सिद्धांतों का पालन
किया है या नहीं यह देखे वाद
चलने योग्य पाया गया न्याय
दृष्टांत सीताराम
वि0
कापरेटिव
भूमि विकास बैंक,
आई.एल.आर.
2009 एम.पी.
1707 अवलोकनीय
है।
17.
न्याय
दृष्टांत विमला
बाई वि0
बोर्ड
आफ रेवेन्यू,
(1) एम.पी.जे.आर.
321 भी
भूमि स्वामी के अधिकारों के
बारे में सिविल न्यायालय के
क्षेत्राधिकार के संबंध में
महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
है।
18.
न्याय
दृष्टांत अब्दुल
गफूर वि0
स्टेट
आफ उत्तराखंड,
2008 (10) एस.सी.सी.
97 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि जहा बहस के योग्य प्रश्न
हो वहा न्यायालय को कारण लिखे
बिना वाद को संक्षिप्त रूप
से निरस्त नहीं करना चाहिए।
19.
न्याय
दृष्टांत मोहम्मद
जहीर खान ओटी वि0
मस्जिद
कमेटी भोपाल आई.एल.आर.
2012 एम.पी.
2143 के
अनुसार विवाह संबंधी विवाद
पूरी तरह व्यवहार न्यायालयों
के संज्ञान में होते हैं मस्जिद
कमेटी को जो कि मुस्लिम व्यक्तिगत
विधि के तहत कार्य करती है ऐसे
विवादों के निराकरण का अधिकार
नहीं होता है मध्यस्थता और
परामर्श या मीडियेशन और
काउन्सलिंग युक्तियुक्त सीमा
तक अनुमति योग्य हैं लेकिन
उनकी आड़ में विवाह संबंधी
विवादों और भरणपोषण के संबंधी
विवाद का निराकरण ऐसी कमेटी
नहीं कर सकती है।
20.
न्याय
दृष्टांत राम
बोहारी वि0
टाटा
फायनेंस,
2005 (3) एम.पी.एल.जे.
106 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि सम्पत्ति गलत तरीके से
ली गई यह एक दृष्कृत्य है सिविल
न्यायालय को ऐसे मामले में
क्षेत्राधिकार है प्रतिवादी
कंपनी ने ट्रक को अवैधानिक
तरीके से जब्त किया क्योंकि
मासिक किश्त में चूक हुई
थी व्यवहार वाद चलने योग्य
पाया गया।
21.
यदि
वाद आदेश 9 नियम
1 और
2 सी.पी.सी.
के
तहत अनुपस्थिति में खारिज हो
जाता है तब उसी वाद कारण पर
नया वाद धारा 12
सी.पी.सी.
के
प्रकाश में चलने योग्य नहीं
होता न्याय दृष्टांत गोविन्द
दास विरूद्ध विक्रम सिंह,
2006 (3) एम.पी.जे.आर.
56 अवलोकनीय
है।
22.
न्याय
दृष्टांत बिट्ठल
भाई वि0
यूनियन
बैंक,
(2005) 4 एस.सी.सी.
315 में
अपरिपक्व सूट के बारे में
स्थिति स्पष्ट की गयी है।
23.
न्याय
दृष्टांत कुसुम
इनगोट्स एंड अलायस वि0
यूनियन
आफ इंडिया,
(2004) 6 एस.सी.सी.
254 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि वाद कारण वाद लाने के अधिकार
को दर्शाता है हर क्रिया कोर्स
आफ एक्शन पर आधारित होती है
मामले में वाद कारण का स्पष्ट
किया गया।
24.
न्याय
दृष्टांत मोदी
इंटरटेनमेंट नेटवर्क वि.
डब्ल्यू.एस.
जी.क्रिकेट
प्राईवेट लिमिटेड (2003)
4 एस.सी.सी.
341 में
भी व्यवहार न्यायालय के
क्षेत्राधिकार और एण्टीसूट
इंजेक्शन को स्पष्ट किया गया
है।
8. कौन
सा क्षेत्राधिकार न होने पर
क्या करें ?
1. आर्थिक
क्षेत्राधिकार -
यदि
न्यायालय यह पाती है कि वाद
या अन्य कार्यवाही उसके आर्थिक
क्षेत्राधिकार के बाहर की है
तो उसे वाद या अन्य कार्यवाही
आदेश 7 नियम
10 सी.पी.सी.
की
शक्तियों का प्रयोग करते हुए
सक्षम न्यायालय में पेश करने
के लिए लौटा देना चाहिए।
2. प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार -
यदि
न्यायालय यह पाती है कि वाद
या अन्य कार्यवाही उसके
प्रादेशिक क्षेत्राधिकार
के बाहर की हैं तो वाद या अन्य
कार्यवाही आदेश 7
नियम
10 सी.पी.सी.
की
शक्तियों का प्रयोग करते
हुए सक्षम न्यायालय में पेश
करने के लिए लौटा देना चाहिए।
न्याय
दृष्टांत आर.एस.डी.वी.
फाईनेंस
कपंनी प्राईवेट लिमिटेड
विरूद्ध श्री वल्लभ ग्लास
वर्कस लिमिटेड ए.आई.आर.
1993 एस.सी.
2094 में
यह प्रतिपादित किया गया है
कि जहा न्यायालय इस निष्कर्ष
पर पहुंचती है जहा वाद के विचारण
का प्रादेशिक क्षेत्राधिकार
नहीं है तो उसे वाद खारिज करने
की बजाय उचित न्यायालय में
पेश करने के लिए लौटाना चाहिए।
3. कार्य
विभाजन पत्रक का क्षेत्राधिकार
- यदि
न्यायालय यह पाती है कि वाद
या अन्य कार्यवाही उसके
कार्यविभाजन पत्रक के
क्षेत्राधिकार के बाहर की
हैं तो उसे वाद या अन्य कार्यवाही
धारा 15 (3) म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम 1958,
के
तहत उचित आदेशार्थ संबंधित
जिला जज को भेजना चाहिए।
4. अत्यावश्यक
प्रकृति के कार्य का क्षेत्राधिकार
- यदि
न्यायालय यह पाती है कि वाद
या अन्य कार्यवाही में कोई
अत्यावश्यक या अर्जेन्सी
नहीं है तो अपना यह मत लिखते
हुए या अन्य कार्यवाही संबंधित
न्यायालय को भेज देंगे।
5. अंतर्निहित
क्षेत्राधिकार -
यदि
न्यायालय यह पाती है कि वाद
या अन्य कार्यवाही उसके
अंतर्निहित क्षेत्राधिकार
की नहीं है तो उसे उस वाद या
अन्य कार्यवाही के आदेश 7
नियम
11 (डी)
सी.पी.सी.
के
तहत निरस्त कर देना चाहिए।
इसका
यह उपवाद हो सकता है कि यदि
सुनवाई से ये पता लग जाये कि
सक्षम न्यायालय कौन सी है और
क्या उसमें भी वाद या अन्य
कार्यवाही पेश करने की वहीं
प्रक्रिया है जो सिविल न्यायालय
में है तो वाद या अन्य कार्यवाही
उस न्यायालय में पेश करने के
लिए संबंधित पक्ष को लौटाई
जा सकती है।
9. व्यक्तिगत
हित के मामलों के बारे में
नये
न्यायाधीश गण के लिए यह स्पष्ट
कर देना आवश्यक है कि किसी भी
न्यायाधीश को वे मामले नहीं
सुनना चाहिए जिनमें उनका कोई
व्यक्तिगत हित हो इस संबंध
में धारा 16
म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम,
1958 ध्यान
में रखना चाहिए जो इस प्रकार
है:-
धारा
16 (1) के
अनुसार इस अधिनियम के अधीन
किसी न्यायालय का कोई भी
न्यायाधीश किसी सिविल वाद
अपील या अन्य कार्यवाही की
सुनवाई या निर्णय नहीं करेगा
जिसमें वह एक पक्ष को या जिसमें
उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष
हित संबंध हो।
धारा
16 (2) के
अनुसार यदि कोई ऐसा वाद अपील
या अन्य कार्यवाही किसी सिविल
न्यायालय के समक्ष आती है तो
वह अपनी रिपोर्ट के साथ मामला
जिला न्यायाधीश हो भेजेगा।
तब जिला न्यायाधीश ऐसे मामले
को या दो स्वयं निपटा सकेगा
या प्रतिवेदन सहित उच्च न्यायालय
को उचित आदेश हेतु भेजेगा।
धारा
16 (3) के
अनुसार यदि कोई वाद अपील या
अन्य कार्यवाही स्वयं जिला
न्यायाधीश से संबंधित हो तो
वह उसे या तो किसी अपर न्यायाधीश
को सौंप सकेगा या प्रतिवेदन
सहित उच्च न्यायालय को उचित
आदेश हेतु भेजेगा।
सामान्यतः
किसी भी न्यायाधीश का किसी
भी मामले में कोई व्यक्तिगत
हित नहीं होता है,
लेकिन
वर्तमान समय में न्यायपालिका
का विस्तार हो रहा है और उस
अनुपात में न्यायाधीश गण के
आवास नहीं होते हैं तब संबंधित
न्यायाधीश को किराये का मकान
लेना पड़ता है और उस मकान मालिक
से संबंधित कोई प्रकरण उन्हीं
के न्यायालय मे आ जाता है तब
उचित यह होता है कि ऐसे मामलों
को मय प्रतिवेदन की जिला
न्यायाधीश महोदय को भेज देना
चाहिए।
कभी
कभी अपने ही न्यायालय में
कार्यरत किसी कर्मचारी से
संबंधित कोई मामला उसी न्यायालय
में आता है तब भी प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांत को ध्यान
में रखते हुए उक्त अनुसार
कार्यवाही करना चाहिए।
किसी
रिश्तेदार, मित्र
आदि से संबंधित मामला होने
पर उक्त अनुसार कार्यवाही
करना चाहिए।
धारा
16 अधिनियम
1958 इस
सिद्धांत पर आधारित है कि कोई
व्यक्ति अपने ही मामले में
न्यायाधीश नहीं हो सकता।
प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांत को दृष्टिगत
रखते हुए उक्त अनुसार कार्यवाही
करनी चाहिए क्योंकि न्याय न
केवल किया जाना चाहिए बल्कि
यह दिखलाई देना चाहिए कि न्याय
वास्तव में किया गया है।
10. सिविल
न्यायालयों का गठन एवं वर्गीकरण
धारा
2 (ए)
म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम 1958
के
अनुसार “उच्चतर न्यायिक सेवा
का संवर्ग ” से तात्पर्य है
जिला न्यायाधीशों का संवर्ग
और उसके अंतर्गत जिला न्यायाधीश
तथा अपर जिला न्यायाधीश शामिल
हो।
धारा
2 (बी)
के
अनुसार “ निम्नतर न्यायिक
सेवा का संवर्ग ”से तात्पर्य
है सिविल न्यायाधीश,
प्रथम
वर्ग तथा सिविल न्यायाधीश
द्वितीय वर्ग से गठित होने
वाला सिविल न्यायाधीश का
संवर्ग।
उक्त
परिभाषाओं से स्पष्ट है कि
एक केडर हायर ज्यूडिशियल
सर्विस होता है जिसमें जिला
न्यायाधीश तथा अपर जिला
न्यायाधीश आते हैं और दूसरा
केडर सिविल न्यायाधीश का होता
है जिसमें सिविल न्यायाधीश
प्रथम वर्ग सिविल न्यायाधीश
द्वितीय वर्ग आते हैं।
धारा
3 म.प्र.सिविल
न्यायालय अधिनियम,
1958 में
सिविल न्यायालयों के वर्ग
बतलायें गये हैं धारा 3
(1) के
अनुसार तत्समय प्रवृत्त किसी
अन्य विधि के अधीन स्थापित
न्यायालयों के अतिरिक्त सिविल
न्यायालयों के निम्नलिखित
वर्ग आते हैं:-
(1)
जिला
न्यायाधीश का न्यायालय
(2)
सिविल
न्यायाधीश प्रथम वर्ग का
न्यायालय
(3)
सिविल
न्यायाधीश द्वितीय वर्ग का
न्यायालय
धारा
3 (2) के
अनुसार जिला न्यायाधीश के
प्रत्येक न्यायालय का पीठासीन
उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त
जिला न्यायाधीश होगा और उच्च
न्यायालय, जिला
न्यायाधीश के न्यायालय में
अधिकारिता का प्रयोग करने के
लिए उच्चतर न्यायिक सेवा के
संवर्ग में से अपर जिला
न्यायाधीशों को भी नियुक्त
कर सकेगा।
धारा
3 (3) के
अनुसार सिविल न्यायाधीश के
न्यायालय का अपर न्यायाधीश
निम्नतर न्यायिक सेवा से
नियुक्त किया जा सकेगा।
धारा
4 (4) के
अनुसार जिला न्यायाधीश के
न्यायालय के अंतर्गत अपर जिला
न्यायाधीश का न्यायालय शामिल
होगा तथा सिविल न्यायाधीश
प्रथम वर्ग या सिविल न्यायाधीश
द्वितीय वर्ग के न्यायालय के
अंतर्गत उस न्यायालय के अंतर्गत
अपर सिविल न्यायाधीश का न्यायालय
शामिल होगा।
इस
तरह धारा 3 में
सिविल न्यायालयों का वर्गीकरण
स्पष्ट किया गया है।
धारा
5 म.प्र.
व्यवहार
न्यायालय अधिनियम 1958
के
अनुसार राज्य सरकार सिविल
जिले के लिए जिला न्यायाधीश
के तथा अपर जिला न्यायाधीश,
व्यवहार
न्यायाधीश प्रथम वर्ग और
व्यवहार न्यायाधीश द्वितीय
वर्ग के उतने न्यायालयों की
स्थापना कर सकती है जितने वह
उचित समझती है।
धारा
4 अधिनियम
1958 के
अनुसार राज्य सरकार किसी
राजस्व जिले को सिविल जिला
घोषित कर सकती है और उसकी
सीमायें तय कर सकती है।
वर्तमान
में मध्यप्रदेश में 50
सिविल
जिले हैं।
धारा
7 अधिनियम
1958 के
अनुसार जिला न्यायाधीश का
न्यायालय सिविल जिले की
प्रारंभिक अधिकारिता का मुख्य
सिविल न्यायालय होता है और
जिला न्यायाधीश साधारण या
विशेष आदेश द्वारा किसी अपर
जिला न्यायाधीश को आरंभिक
अधिकारिता वाले प्रधान सिविल
न्यायालय के कृत्य करने की
शक्ति सौंप सकता है।
धारा
8 अधिनियम
1958 के
अनुसार जिला न्यायालय और
व्यवहार न्यायालय के लिए अपर
न्यायाधीशों की नियुक्तिया
करने के बारे में प्रावधान
है।
धारा
10 अधिनियम
1958 के
अनुसार उच्च न्यायालय जिला
न्यायाधीश को ये अधिकार दे
सकते हैं कि वह कुछ कार्यवाहियों
को जो उनके संज्ञान की है सिविल
न्यायाधीश प्रथम वर्ग का
हस्तांरित कर सकते हैं।
इस
तरह मध्यप्रदेश सिविल न्यायालय
अधिनियम 1958 के
प्रावधानों के तहत सिविल
न्यायालय का गठन और वर्गीकरण
उक्त अनुसार होता है।
सिविल
न्यायालय के क्षेत्राधिकार
और क्षेत्राधिकार न होने पर
की जाने वाली कार्यवाहियों
को वैधानिक स्थितियो को ध्यान
में रखते हुए समझना चाहिए।
उपसंहार
प्रत्येक
व्यवहार न्यायालय को उक्त
अनुसार अपने विभिन्न क्षेत्राधिकार
को ध्यान में रखना चाहिए और
यदि आर्थिक व प्रादेशिक
क्षेत्राधिकार नहीं पाते हैं
तब वाद आदेश 7
नियम
10 सी.पी.सी.
के
तहत सक्षम न्यायालय में पेश
करने के लिए लौटाना चाहिए।
यदि विभाजन पत्रक संबंधित
क्षेत्राधिकार नहीं पाते हैं
और वाद या कार्यवाही जिला जज
महोदय के समक्ष उचित आदेशार्थ
भिजवाना चाहिए। अंतर्निहित
क्षेत्राधिकार न पाने पर
अर्थात् वाद किसी विधि द्वारा
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
सिविल न्यायालय के संज्ञान
से वर्जित पाते हैं तब वाद
आदेश 7 नियम
11 सी.पी.सी.
के
तहत खारिज करना चाहिए और ऐसे
मामले में उक्त धूला
भाई विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी.
में
दिये गये 7 बिंदुओं
को ध्यान में रखना चाहिए।
न्यायालय शुल्क कम पाते हैं
तब वादी को न्यायालय शुल्क
प्रस्तुत करने के लिए एक अवसर
भी देना चाहिए। क्षेत्राधिकार
देखने के लिए केवल वाद पत्र
के तथ्य ही देखे जा सकते हैं
इसे सदैव ध्यान में रखना चाहिए
।
No comments:
Post a Comment