धारा 325, दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत
किसी मजिस्टेंट द्वारा कार्यवाही मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट को भेजे जाने हेतु
अपेक्षित प्रक्रिया क्या होगी ?
दण्ड प्रक्रिया संहिता (एतत्मिन पश्चात् मात्र
संहिता) की धारा 325 के प्रावधानों का उपयोग
कब किया जा सकता है, इस संबंध में कोई भ्रम
नहीं है किन्तु उक्त प्रावधानों का उपयोग किस
प्रक्रिया अनुसार एवं किस प्रक्रम पर किया जाना
है इस संबंध में अवश्य कुछ भ्रम प्रकट होता है।
संहिता की धारा 325 की शब्दावली से यह स्पष्ट
होता है कि अभियोजन साक्ष्य एवं प्रतिरक्षा साक्ष्य,
यदि कोई हो, लिपिबद्ध करने के उपरांत साक्ष्य
के परिशीलन पर यदि किसी न्यायिक मजिस्टेंट
प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी का यह मत हो कि
अभियुक्त दोषी है, तब उसे आगे यह विचार
करना होगा कि क्या अभियुक्त को ऐसा दण्ड
दिया जाना चाहिये जो उसकी दण्डाज्ञा पारित
करने की शक्ति से अधिक कठोर या भिन्न
प्रकार का हो ?
संहिता की धारा 325 का प्रयोग किसी न्यायिक
मजिस्टेंट द्वितीय श्रेणी द्वारा उस दशा में भी
किया जा सकता है जबकि उसका यह मत हो
कि अभियुक्त दोषी है एवं उससे धारा 106 के
अधीन बंधपत्र प्राप्त करना समीचीन हैं।
तत्पश्चात् मजिस्टेंट को उक्त आशय का अपना
मत (opinion) अभिलिखित करना होगा। किन्तु
मजिस्टेंट से यह अपेक्षित नहीं हैं कि वह प्रकरण
में निर्णय पारित करें और उसमें अभियुक्त को
सिद्ध दोष ठहराए। निर्णय पारित कर अभियुक्त
को सिद्ध दोष ठहराकर संहिता की धारा 325
का प्रयोग कर प्रकरण मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट
को भेजना उचित प्रक्रिया नहीं है। इस संबंध में
न्याय दृष्टांत (1909) 9 सीआरएलजे 72
कलकत्ता, खुदाबख्शमल वि0
ओधालीमल, ए. आई आर 1949 कलकत्ता
308, द पब्लिक प्रासिक्यूटर वि कोन्डरु
वेकंटा राजु ए आई आर 1962 आंध्रप्रदेश
9 (खण्डपीठ) दृष्टव्य हैं।
यद्यपि निर्णय पारित कर अभियुक्त की दोषसिद्धी
अभिलिखित करना संहिता की धारा 325 के
अधीन अपेक्षित नहीं है तथापि यदि मजिस्टेंट द्व
ारा निर्णय पारित कर दोषसिद्धी अभिलिखित कर
भी दी गई है तो वह अनावश्यक एवं विधिक
अकृततां (Surplusage and Legal Nullity) होगी
एवं उसे औपचारिक रुप से अपास्त करना
आवश्यक नहीं होगा। (देखिये रतनलाल एवं
धीरजलाल की पुस्तक ‘द कोड आफ
क्रिमीनल प्रोसीजर‘ 18 इनलाज्र्ड एडीशन
रीप्रिंट 2007 के पृष्ट 1204 पर दिया गया
दृष्टांत नारायण धाकू (19281⁄2 30 बाम्बे एलआर
620: 52 बाम्बे 456)
संहिता की धारा 325 के अधीन शक्ति का प्रयोग
करने पर मजिस्टेंट से यह अपेक्षित है कि वह
उक्त आशय का अपना मत निर्णय पारित किये
बिना आदेश पत्रिका में या प्रकरण की यथा
आवश्यकतानुसार पृथक से आदेश पारित कर
अभिलिखित करें और उसे संबंधित अभियुक्त
सहित प्रकरण (सम्पूर्ण नस्ती) संबंधित मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट की ओर प्रेषित करना चाहिए।
यदि अभियुक्त का एक से अधिक अपराधों के
लिये विचारण हुआ हो और मजिस्टेंट का यह
मत हो कि अभियुक्त दो या अधिक अपराधों के
लिये दोषी है और उसमें से एक या अधिक
अपराध के लिए ऐसे प्रकार का या ऐसा कठोर
दण्ड दिया जाना चाहिये जिसे देन के लिये वह
सशक्त नहीं है तब उसे सम्पूर्ण कार्यवाही प्रेषित
करना होगी एवं वह ऐसा नहीं कर सकता है कि
प्रकरण के अपराधों का प्रथक्करण कर ऐसे
अपराध के लिये दण्डाज्ञा पारित कर दें जिसे
पारित करने के लिए वह सक्षम है एवं उस
एक या अधिक अपराधों के लिए प्रकरण मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट को भेज दे जिसमें उसके
अनुसार ऐसे अधिक कठोर या भिन्न प्रकृति का
दण्ड दिया जाना चाहिये जिसे देने के लिये वह
सशक्त नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत
नागेश विरुद्ध कर्नाटक राज्य -
1990 सीआर एल जे 2234 अवलोकनीय है।
इसी प्रकार एक से अधिक अभियुक्त होने की
दशा में यदि मजिस्टेंट की राय में एक या
अधिक अभियुक्त अधिक कठोर दण्ड पाने के
पात्र है तब भी सभी अभियुक्त सहित संपूर्ण
प्रकरण भेजना चाहिए। (देखिये 1945 एमडब्लुएन 182)
मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट, जिसे उक्तानुसार
प्रकरण प्राप्त हुआ है, प्रकरण में या तो पूर्व
लिपिबद्ध साक्ष्य के आधार पर प्रकरण में निर्णय
पारित कर सकता हैं या पुनः पक्षकारों की परीक्षा
कर सकता है या किसी साक्षी को पुनः परीक्षित
कर सकता है या अतिरिक्त साक्ष्य ले सकता है
और तत्पश्चात् निर्णय पारित कर सकता है।
निर्णय पारित करने में मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट
दोष मुक्ति का निर्णय भी पारित कर सकता है
और दोष सिद्धी होने पर विधि अनुसार यथोचित
दण्डादेश आदेश दे सकता है।
मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट पर, जिसकी ओर
संहिता की धारा 325 के अंतर्गत प्रकरण भेजा
गया है, प्रकरण भेजने वाले मजिस्टेंट द्वारा
दोषसिद्धी के संबंध में दिया गया मत बंधनकारी
नहीं होता है एवं उससे यह अपेक्षित है कि वह
अपने मत के आधार पर स्वयं दोषसिद्धी या
दोषमुक्ति का जैसा भी विधि अनुसार उचित हो,
निर्णय पारित करें। इस संबंध में (1958) 2
मद्रास ला जर्नल 175 (देखिये ए आई आर
मेनुअल (पाचवा संस्करण, 1989 का पृष्ठ
क्र 354) अवलोकनीय हैं।
टीपः- उक्त विषय पर विस्तृत लेख जोति
जनरल 2004 (फरवरी 04 अंक) के भाग एक,
पृष्ठ 20 का प्रकाशित हुआ है।
किसी मजिस्टेंट द्वारा कार्यवाही मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट को भेजे जाने हेतु
अपेक्षित प्रक्रिया क्या होगी ?
दण्ड प्रक्रिया संहिता (एतत्मिन पश्चात् मात्र
संहिता) की धारा 325 के प्रावधानों का उपयोग
कब किया जा सकता है, इस संबंध में कोई भ्रम
नहीं है किन्तु उक्त प्रावधानों का उपयोग किस
प्रक्रिया अनुसार एवं किस प्रक्रम पर किया जाना
है इस संबंध में अवश्य कुछ भ्रम प्रकट होता है।
संहिता की धारा 325 की शब्दावली से यह स्पष्ट
होता है कि अभियोजन साक्ष्य एवं प्रतिरक्षा साक्ष्य,
यदि कोई हो, लिपिबद्ध करने के उपरांत साक्ष्य
के परिशीलन पर यदि किसी न्यायिक मजिस्टेंट
प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी का यह मत हो कि
अभियुक्त दोषी है, तब उसे आगे यह विचार
करना होगा कि क्या अभियुक्त को ऐसा दण्ड
दिया जाना चाहिये जो उसकी दण्डाज्ञा पारित
करने की शक्ति से अधिक कठोर या भिन्न
प्रकार का हो ?
संहिता की धारा 325 का प्रयोग किसी न्यायिक
मजिस्टेंट द्वितीय श्रेणी द्वारा उस दशा में भी
किया जा सकता है जबकि उसका यह मत हो
कि अभियुक्त दोषी है एवं उससे धारा 106 के
अधीन बंधपत्र प्राप्त करना समीचीन हैं।
तत्पश्चात् मजिस्टेंट को उक्त आशय का अपना
मत (opinion) अभिलिखित करना होगा। किन्तु
मजिस्टेंट से यह अपेक्षित नहीं हैं कि वह प्रकरण
में निर्णय पारित करें और उसमें अभियुक्त को
सिद्ध दोष ठहराए। निर्णय पारित कर अभियुक्त
को सिद्ध दोष ठहराकर संहिता की धारा 325
का प्रयोग कर प्रकरण मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट
को भेजना उचित प्रक्रिया नहीं है। इस संबंध में
न्याय दृष्टांत (1909) 9 सीआरएलजे 72
कलकत्ता, खुदाबख्शमल वि0
ओधालीमल, ए. आई आर 1949 कलकत्ता
308, द पब्लिक प्रासिक्यूटर वि कोन्डरु
वेकंटा राजु ए आई आर 1962 आंध्रप्रदेश
9 (खण्डपीठ) दृष्टव्य हैं।
यद्यपि निर्णय पारित कर अभियुक्त की दोषसिद्धी
अभिलिखित करना संहिता की धारा 325 के
अधीन अपेक्षित नहीं है तथापि यदि मजिस्टेंट द्व
ारा निर्णय पारित कर दोषसिद्धी अभिलिखित कर
भी दी गई है तो वह अनावश्यक एवं विधिक
अकृततां (Surplusage and Legal Nullity) होगी
एवं उसे औपचारिक रुप से अपास्त करना
आवश्यक नहीं होगा। (देखिये रतनलाल एवं
धीरजलाल की पुस्तक ‘द कोड आफ
क्रिमीनल प्रोसीजर‘ 18 इनलाज्र्ड एडीशन
रीप्रिंट 2007 के पृष्ट 1204 पर दिया गया
दृष्टांत नारायण धाकू (19281⁄2 30 बाम्बे एलआर
620: 52 बाम्बे 456)
संहिता की धारा 325 के अधीन शक्ति का प्रयोग
करने पर मजिस्टेंट से यह अपेक्षित है कि वह
उक्त आशय का अपना मत निर्णय पारित किये
बिना आदेश पत्रिका में या प्रकरण की यथा
आवश्यकतानुसार पृथक से आदेश पारित कर
अभिलिखित करें और उसे संबंधित अभियुक्त
सहित प्रकरण (सम्पूर्ण नस्ती) संबंधित मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट की ओर प्रेषित करना चाहिए।
यदि अभियुक्त का एक से अधिक अपराधों के
लिये विचारण हुआ हो और मजिस्टेंट का यह
मत हो कि अभियुक्त दो या अधिक अपराधों के
लिये दोषी है और उसमें से एक या अधिक
अपराध के लिए ऐसे प्रकार का या ऐसा कठोर
दण्ड दिया जाना चाहिये जिसे देन के लिये वह
सशक्त नहीं है तब उसे सम्पूर्ण कार्यवाही प्रेषित
करना होगी एवं वह ऐसा नहीं कर सकता है कि
प्रकरण के अपराधों का प्रथक्करण कर ऐसे
अपराध के लिये दण्डाज्ञा पारित कर दें जिसे
पारित करने के लिए वह सक्षम है एवं उस
एक या अधिक अपराधों के लिए प्रकरण मुख्य
न्यायिक मजिस्टेंट को भेज दे जिसमें उसके
अनुसार ऐसे अधिक कठोर या भिन्न प्रकृति का
दण्ड दिया जाना चाहिये जिसे देने के लिये वह
सशक्त नहीं है। इस संबंध में न्याय दृष्टांत
नागेश विरुद्ध कर्नाटक राज्य -
1990 सीआर एल जे 2234 अवलोकनीय है।
इसी प्रकार एक से अधिक अभियुक्त होने की
दशा में यदि मजिस्टेंट की राय में एक या
अधिक अभियुक्त अधिक कठोर दण्ड पाने के
पात्र है तब भी सभी अभियुक्त सहित संपूर्ण
प्रकरण भेजना चाहिए। (देखिये 1945 एमडब्लुएन 182)
मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट, जिसे उक्तानुसार
प्रकरण प्राप्त हुआ है, प्रकरण में या तो पूर्व
लिपिबद्ध साक्ष्य के आधार पर प्रकरण में निर्णय
पारित कर सकता हैं या पुनः पक्षकारों की परीक्षा
कर सकता है या किसी साक्षी को पुनः परीक्षित
कर सकता है या अतिरिक्त साक्ष्य ले सकता है
और तत्पश्चात् निर्णय पारित कर सकता है।
निर्णय पारित करने में मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट
दोष मुक्ति का निर्णय भी पारित कर सकता है
और दोष सिद्धी होने पर विधि अनुसार यथोचित
दण्डादेश आदेश दे सकता है।
मुख्य न्यायिक मजिस्टेंट पर, जिसकी ओर
संहिता की धारा 325 के अंतर्गत प्रकरण भेजा
गया है, प्रकरण भेजने वाले मजिस्टेंट द्वारा
दोषसिद्धी के संबंध में दिया गया मत बंधनकारी
नहीं होता है एवं उससे यह अपेक्षित है कि वह
अपने मत के आधार पर स्वयं दोषसिद्धी या
दोषमुक्ति का जैसा भी विधि अनुसार उचित हो,
निर्णय पारित करें। इस संबंध में (1958) 2
मद्रास ला जर्नल 175 (देखिये ए आई आर
मेनुअल (पाचवा संस्करण, 1989 का पृष्ठ
क्र 354) अवलोकनीय हैं।
टीपः- उक्त विषय पर विस्तृत लेख जोति
जनरल 2004 (फरवरी 04 अंक) के भाग एक,
पृष्ठ 20 का प्रकाशित हुआ है।
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